Thursday, May 2, 2024

आंख मूंदकर मतदान!

    नागपुर शहर के धरमपेठ में स्थित है, ट्रैफिक पार्क चौक। भीड़-भाड़ वाले इस चौक पर लोकसभा चुनाव की वोटिंग के चंद दिन बाद लगाया गया होर्डिंग आते-जाते हर शख्स के आकर्षण का केंद्र बना रहा। मतदान से मुंह चुराने वाले मतदाताओं को लताड़ लगाते इस होर्डिंग में ‘शेम ऑन यू’ लिखकर उन पर तीखा वार किया, जिन्होंने लोकतंत्र के महापर्व का अपमान किया। लेकिन क्या उन पर कोई असर हुआ? ध्यान रहे कि नागपुर लोकसभा क्षेत्र में लगभग 22 लाख मतदाता हैं, लेकिन दस लाख पंद्रह हजार मतदाता वोट देने ही नहीं गये। कई घरों में दुबके रहे तो अनेकों छुट्टी मनाने के लिए शहर से दूर चले गये। सर्वधर्म समभाव और एकता के प्रतीक नारंगी नगर के माथे पर यकीनन कलंक जैसी है यह लापरवाही। सजग शहरवासी इस होर्डिंग को लगाने वाले की जहां प्रशंसा करते रहे वहीं प्रशासन को इसकी सजीली और नुकीली शब्दावली इस कदर आहत कर गई कि उसने इसे हटाने में चीते सी फुर्ती दिखायी। वोटर लिस्ट में भारी पैमाने पर हुई गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को मिर्ची लगने की चर्चा गली-कूचों, चौक-चौराहों पर जोर पकड़ती रही। यह भी बेहद चौंकाने वाली हकीकत है कि अकेले नागपुर लोकसभा क्षेत्र में करीब ढाई लाख मतदाता सूची से नाम कटने, इधर-उधर होने या नाम में गड़बड़ी होने के कारण वोट करने से वंचित रह गए। 

    हिंदुस्तान के निर्वाचन आयोग ने सुनियोजित तरीके से मतदान कराने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखी। ऐसे-ऐसे दुर्गम स्थानों पर कर्मचारियों को भेजा, जहां हट्टे-कट्टे लोग जाने से घबराते हैं। जिन स्थानों पर पांच-सात मतदाता हैं वहां पर भी ईवीएम की मशीनों के साथ कर्मचारियों को भिजवाया और काम पर लगाया गया। 

    यह बताने की जरूरत नहीं होने के बावजूद भी लिखना पड़ रहा है कि अपने देश भारत में चुनावों की अपार अहमियत है। अपने मताधिकार का उपयोग कर सरकार चुनी जाती है। हर पांच साल में होने वाले लोकसभा चुनाव का सजग मतदाताओं को बेसब्री से इंतजार रहता है। इन चुनावों की प्रक्रिया में जो अरबों रुपये खर्च होते हैं। उनसे अनेकों विकास कार्य संपन्न किये जा सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र में चुनाव की जरूरत और प्राथमिकता सर्वोच्च स्थान रखती है। 

    गौरतलब है कि 2024 को इस लोकसभा चुनाव में 1 लाख 20 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि 2024 के चुनावों का खर्च 2019 में हुए लोकसभा चुनावों की अपेक्षा दोगुना होगा। 2019 के चुनाव में कुल खर्च तकरीबन 55 से 60 हजार करोड़ था। कितने आश्चर्य की बात है कि चुनावी खर्च सतत तो बढ़ रहा है, लेकिन मतदान करने वाले भारतीयों की संख्या में बढ़ोतरी की बजाय कमी हो रही है। वो भी तब जब नये वोटरों की संख्या में जबरदस्त इजाफा हो रहा है। चुनावों में खर्च होने वाला धन अंतत: देशवासियों का ही है, जिसकी कमी की वजह से करोड़ों भारतीय विभिन्न अभावों से जूझ रहे हैं। गरीबों तथा अमीरों के बीच की असमानता दिन-ब-दिन बढ़ती चली जा रही है। मतदान की अवहेलना या मतदान में सजगता नहीं बरतने का खामियाजा भी अंतत: देशवासियों को ही भुगतना पड़ता है। 

    खामियाजा तो मतदाताओं की और भी कई गलतियों का देश को सतत भुगतना पड़ रहा है। भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, हत्यारे और किस्म-किस्म के माफिया चुनाव लड़ते हैं और जीत जाते हैं। राजनीतिक दलों के अधिकांश कर्ताधर्ता उन्हीं को चुनाव मैदान में उतारते हें जो येन-केन-प्रकारेण विजयी होने का चमत्कार दिखाने में सक्षम होते हैं। 950 करोड़ रुपये का चारा घोटाला कर बार-बार जेल जाने वाला इस सदी का सबसे भ्रष्ट नेता लालूप्रसाद यादव अपने पूरे खानदान के साथ छाती तानकर वोट मांगने पहुंच जाता है। सजायाफ्ता होने पर अपनी अनपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री बना देता है। उसका कम पढ़ा-लिखा छोटा बेटा बिहार का उपमुख्यमंत्री बन जाता है। बड़ा बेटा जो चपरासी बनने के काबिल नहीं वह मंत्री पद का सुख भोगते हुए करोड़ों शिक्षित युवकों को अपना माथा पीटने को विवश कर देता है। यहां तक कि उसकी बेटियां भी सांसद बनकर करोड़ों-अरबों की दौलत के साथ इठलाती, गाती-नाचती नज़र आती हैं। यह अनोखा नाटक और नज़ारा उन मतदाताओं की देन है जो मतदान करते वक्त जाति और धर्म की सोच की जंजीरों में जकड़े रहते हैं। जिनके लिए लूट-खसोट और भ्रष्टाचार कतई कोई अपराध नहीं। आंख मूंदकर मतदान करने वालों की वजह से ही न जाने कितने खूंखार अपराधी विधायक और सांसद बनते देखे गये हैं। देश के आम आदमी को जब किसी अपराध की वजह से जेल जाना पड़ता है, तब शर्म के मारे उसे अपना मुंह छिपाना पड़ता है। अपने और बेगाने उससे दूरी बना लेते हैं। यहां तक कि उसके बाल-बच्चों को भी अपने निकट नहीं आने देते, लेकिन राजनीति के लुटेरों, हत्यारों, बलात्कारियों के गुनाहों को जनता बहुत जल्दी भूल जाती है। इसलिए राजनीति के चोर-उचक्कों को कभी शर्म नहीं आती। शर्म आती तो छाती तानकर मतदाताओं के यहां वोट लेने के लिए नहीं पहुंच जाते। चुनाव जीतने के बाद भ्रष्ट नेता छाती तान कर यह कहना-बताना और चेताना नहीं भूलते कि यदि हम जनता की निगाह में अपराधी होते तो वह हमें वोट ही क्यों देती। अदालत के द्वारा सजा देने से क्या होता है। लोकतंत्र में तो जनता की अदालत से ऊपर और कोई कोर्ट-कचहरी नहीं। 

    हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की नाक के नीचे पच्चीस हजार शिक्षकों की भर्ती में जबरदस्त घोटाला हो गया। कलकता हाईकोर्ट ने सभी शिक्षकों की भर्ती रद्द कर दी। रिश्वत की मलाई चटाकर नौकरी हथियाने वालों के साथ-साथ उन पर भी आफत आन पड़ी, जिन्होंने कड़ी मेहनत के बाद नौकरी हासिल की थी। बड़े लंबे इंतजार के बाद उनके जीवन में स्थिरता आ पायी थी, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले ने उनके पैरों की जमीन ही छीन ली। अपने परिवार के अकेले कमाने वाले कई लोगों को पड़ोसियों तक को अपना मुंह दिखाने में शर्मिंदगी महसूस हो रही है। नौकरी के दौरान उन्हें जो वेतन मिला था, वो खर्च हो गया। ऐसे में 12 फीसदी सूद के साथ सरकार को पैसे लौटाने के फैसले का पालन कर पाना उसके बस की बात नहीं है, लेकिन हमारे यहां तो अक्सर गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। जिन्होंने गलत हथकंडे अपना कर नौकरी हथियायी, दरअसल सजा के तो वही हकदार हैं और हां उन नेताओं पर भी कोई आंच नहीं आयी जिन्होंने रिश्वत खाकर नालायक लोगों को शिक्षक बनाने का अक्षम्य संगीन अपराध किया है।

Thursday, April 25, 2024

गलत और सही

    गले में फूलों की माला, हाथों में मेहंदी, शानदार लिबास और खुशी से दमकता चेहरा। मतदान केंद्र पर एक नवविवाहिता को देखकर मतदाता हैरत में थे। कुछ ही घण्टों के पश्चात इस सजी-धजी दुल्हन को बारातियों के साथ नोएडा रवाना होना था। उसे जैसे ही पता चला कि आज वोटिंग है तो वह मतदान केंद्र पर दौड़ी-दौड़ी चली आई। बड़े इत्मीनान से अपने मनपसंद प्रत्याशी को वोट देने के बाद वह अपने पिया संग ससुराल चल दी। घर में जवान पति की मृतक देह पड़ी थी। अंतिम संस्कार की तैयारियां चल रही थीं। रिश्तेदार तथा अड़ोसी-पड़ोसी गम में डूबे थे। कल तक जो चल-फिर रहा था, हंस बोल रहा था आज लाश बना पड़ा था। ऐसे अत्यंत दुखद समय में मृतक की पत्नी और मां अपने मतदान के दायित्व को निभाने के लिए जब मतदान केंद्र पर पहुंची तो सभी उनके समक्ष नतमस्तक हो गये।

    आंबेडकरवादी समाज सेविका 17 अप्रैल को अचानक चल बसीं। सात समंदर पार विदेश में रहने वाला बेटा दूसरे दिन रात तक घर आ पाया। 19 अप्रैल को मृतका का सुबह मोक्षधाम में अंतिम संस्कार किया गया। उसके तुरंत बाद पति ने मतदान केंद्र की राह पकड़ी और अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस आदर्श भारतीय पति ने कहा कि उसने लोकतंत्र के महायज्ञ में अपने मत की आहूति देकर अपनी राष्ट्रप्रेमी पत्नी को सच्ची श्रद्धांजलि दी है...।

    लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण में अनेकों युवाओं, महिलाओं तथा बुजुर्गों ने गर्मी की तपिश की बिना कोई चिंता और परवाह किए मतदान किया। दिव्यांगों तथा उम्रदराजों ने भी लोकतंत्र के महापर्व में अपनी सार्थक हिस्सेदारी निभायी, लेकिन कई मतदाता मतदान से दूर रहे। नागपुर जैसे पढ़े-लिखों के शहर में मात्र 56 प्रतिशत मतदान का होना कई सवाल खड़ा कर गया। गड़चिरोली लोकसभा क्षेत्र जो नक्सलियों का गढ़ कहलाता है,  वहां शहरी इलाकों से ज्यादा मतदान होना भी बहुत कुछ कह और बता गया। मतदान से कन्नी काटने वालों के अपने-अपने तर्क और बहाने हैं। यह वही लोग हैं, जो सत्ताधीशों, नेताओं, प्रशासन और सरकारी नीतियों पर उछल-उछलकर उंगलियां उठाते हैं। महंगाई, बेरोजगारी और अव्यवस्था पर भी रह-रहकर तीर चलाते हैं। किसने देश को तबाह किया और कौन सा नेता भारत का कायाकल्प कर सकता है इस पर जहां-तहां लंबी-चौड़ी भाषणबाजी करने वालों को वोट देने से ज्यादा छुट्टी मनाने में ज्यादा आनंद आता है। 

    इसमें दो मत नहीं कि इस बार के चुनावी माहौल में पहले सा रोमांच, उत्साह नज़र नहीं आ रहा हैं। 2014 में जो युवा मतदान के लिए उमड़ पड़े थे, मोदी... मोदी चिल्ला रहे थे, इस बार वे भी खास उत्साहित नहीं नज़र आ रहे। खाता-पीता मध्यवर्ग तथा उच्च वर्ग शुरू से ही मतदान के लिए बाहर निकलने से कतराता आया है। वह किस्मत और संबंधों का धनी है। जोड़-तोड़ की सभी सुख-सुविधाएं उसकी मुट्ठी में हैं। इसलिए वह अपने आप में मस्त है। झटके से रईस बने रईसों ने लोकतंत्र का सम्मान करना ही नहीं सीखा। शासन और प्रशासन मतदाताओं को जागृत करने के लिए सतत अभियान चलाता रहता है, लेकिन उस पर कम ही लोग ध्यान देते हैं। यह भी कम हैरानी की बात नहीं कि इस बार प्रशासन की लापरवाही की वजह से भी हजारों-हजारों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में से गायब हो गये। नागपुर शहर के रविंद्र व मीनाक्षी बड़े जोशो-खरोश के साथ मतदान केंद्र पहुंचे तो उनका नाम ही नदारद था। दोनों के नाम ही बदल गये थे। पति रविंद्र का नाम अयूब खान तो पत्नी मीनाक्षी का नाम रजिया बेगम मिर्जा कर दिया गया था। दोनों ने पहचान पत्र व इपिक नंबर के आधार पर वोट डालने की बार-बार विनती की, लेकिन उन्हें निराश लौटना पड़ा। ऐसी पता नहीं कितनी भूलें और धांधलियां हुई होंगी। सभी घापे-घपले उजागर कहां हो पाते हैं। कम वोटिंग होने से उन प्रत्याशियों के चेहरों के रंग उड़ गये हैं, जिन्होंने चुनाव प्रचार में दिन-रात पसीना बहाया है। नोटों की थैलियां कुर्बान की हैं। पता नहीं कहां-कहां माथा टेका और नाक रगड़ी है। सत्ताधीशों के प्रति घोर अविश्वास तथा निराशा भी कम मतदान की वजह बनी। महिलाएं भी 2014 और 2019 की तरह मतदान करने नहीं पहुंचीं। उम्मीद से कम मतदान होने की और भी कई वजह बतायी-गिनायी जा रही हैं। अनेकों भारतीयों ने मान लिया है कि अपने देश के हालात जस-के-तस रहने वाले हैं। ज्यादा बदलाव की उम्मीद व्यर्थ है। बेरोजगारी के मारे करोड़ों युवा भी उम्मीद छोड़ चुके हैं। उन्हें बेहतरीन पुल, पुलिया, सड़कों, मेट्रो तथा वंदेभारत ट्रेनों की सौगात लुभा नहीं पायी। सच भी है... पहले रोजी-रोटी, घर-बार, स्वास्थ्य, शिक्षा और उसके बाद बुलेट ट्रेन और हवाई जहाज। बेरोजगारी और महंगाई ने करोड़ों देशवासियों की कमर तोड़ दी है, लेकिन कृपया यह भी याद रखें कि मतदान नहीं करने से आप वहीं के वहीं रह जाने वाले हैं। जिनसे आपको बदलाव की उम्मीद है उन्हें वोट जरूर करें। घूमने-फिरने, आराम करने के मौके तो रोज आएंगे, परंतु वोट देने और अपनी मनपसंद सरकार बनाने का अवसर तो पांच साल में सिर्फ एक ही बार मिलता-मिलाता है। गलती तो उन कुछ नेताओं की भी है, जो विषैले, बदजुबान और जबरदस्त अहंकारी हो गये हैं। जनता ने आंखें खोल रखी हैं। वह बहरी भी नहीं। सबकी सुनती है। सभी को तौलती है। बार-बार जांचती-परखती है। इसलिए राजनेताओं तथा शासकों को हिंदू-मुसलमान का राग गाने-बजाने से अब तो बाज आना ही चाहिए। उनकी सार्थक उपलब्धियां ही उन्हें वोट उपलब्ध करा सकती हैं। मतदाताओं को भटकाने और बरगलाने से तो वे खुद तमाशा बनकर रह जाने वाले हैं। यदि कोई मंत्री पुत्र किसी विशेष धर्म के चुनिंदा चेहरों के लिए आयोजित चुनावी सभा में यह कहने को मजबूर होता है कि आपसी सद्भाव के दुश्मनों को नहीं मेरे पिता के जनहित के विकास कार्यों के इतिहास को देखकर वोट दें, तो इसमें गलत क्या है?

Thursday, April 18, 2024

हर डर हो खत्म

     घी-गुड़-तिल की लाजवाब रेवड़ी की महक और मिठास में रचे-बसे मेरठ को ‘भारत के खेल शहर’ की पुख्ता पहचान मिली हुई है। वस्त्र, कागज, चीनी, रसायन, ट्रांसफार्मर के साथ-साथ विभिन्न उपयोगी दवाओं के निर्माण के लिए भी मेरठ खासा विख्यात है। दो पवित्र नदियों, गंगा और यमुना के बीचों-बीच में बसे मेरठ को तेजी से प्रगति करते शहर के रूप में भी पहचाना जाता है। जीवंत पत्रकारिता, एकता और आपसी सद्भाव भी इस शहर के आभूषण हैं। कालजयी टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ में श्रीराम की अत्यंत प्रभावी भूमिका निभा चुके अभिनेता अरुण गोविल इसी आदर्श नगरी से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी को उनके विजयी होने का शत-प्रतिशत भरोसा है। अभिनेता भी पूर्णतया आश्वस्त हैं। भगवान श्रीराम और पीएम मोदी की छवि हर हाल में नैय्या पार करवाएगी। महिला मतदाताओं के लिए तो भाजपा प्रत्याशी अरुण गोविल सचमुच के राम हैं। माता सीता, लक्ष्मण और हनुमान की मनोहरी छवि भी उनकी सुध-बुध में अंकित है। हाथ जोड़कर भीड़ का अभिवादन करते अरुण गोविल को कदम-कदम पर फूल-मालाएं पहनायी जाती हैं तो वे फूलों को महिलाओं की तरफ उछाल देते हैं। महिलाएं उन्हें माथे से लगा सहेजकर रख लेती हैं। उनके लिए यही प्रभु श्रीराम का आशीर्वाद और प्रसाद है। 

    मेरठ के लोकसभा क्षेत्र का संपूर्ण वातावरण भक्तिमय है। धूप-अगरबत्ती और फूलों की महक से महकते मेरठ में हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमान मतदाताओं की भी अच्छी-खासी आबादी है। मेरठ की फिज़ा में सवाल गूंज रहे हैं कि क्या भाजपा के उम्मीदवार अरुण गोविल हर जाति-धर्म के मतदाता पर अपनी छाप छोड़ने में सक्षम होंगे? लोकसभा चुनाव कोई छोटा-मोटा चुनाव नहीं। दरअसल, यह तो लोकतंत्र का महापर्व है। किसी भी उत्सव की सार्थकता तभी होती है, जब उसे सभी खुले मन से मिलजुल कर मनाएं। मनमुटाव और दूरियां उत्सव को फीका कर देती हैं। अयोध्या में राम मंदिर बन चुका है। हर देशवासी की मनोकामना है कि देश में सही मायनों में राम राज्य आना चाहिए, जहां सभी धर्मों के लोग मिल जुलकर रहें। सबको समान व्यवहार और अधिकार मिलें। सभी को एक ही निगाह से देखा जाए। महिलाओं का भरपूर मान-सम्मान हो। अगर कोई देशद्रोही है तो वह सबका दुश्मन है। अरुण गोविल रामराज्य लाने का वादा कर रहे हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे हर प्रत्याशी चुनावों के अवसर पर करता है। पत्रकार मित्रों ने जय श्रीराम के नारे लगाते उत्साही युवकों से पूछा कि इस बार के चुनाव में मुख्य मुद्दा क्या है? तो उन्होंने तपाक से कहा कि मुद्दा तो बस एक ही है, जय श्रीराम। योगी और मोदी जिंदाबाद के नारे लगाती भीड़ की निगाह में अरुण गोविल तो जैसे साक्षात श्रीराम हैं, जिनकी मंद-मंद मुस्कुराहट उनके दिल-दिमाग में रच-बस सी गई है। अभिनेता अरुण गोविल ने कई वर्ष पूर्व एक साक्षात्कार में बताया था कि रामायण धारावाहिक के प्रसारण के पश्चात जब उन्होंने भारत से हजारों मील दूर विदेश की धरती पर कदम रखा तो वहां के स्त्री-पुरुषों ने उन्हें घेर लिया था। कोई उनके चरण छू रहा था तो कोई बुजुर्ग उनका माथा चूम रहा था। उन्हें यह समझने में किंचित भी देरी नहीं लगी कि यह तो भगवान श्रीराम के प्रति उनकी अपार आस्था है, जो इस रूप में प्रकट हो रही है। अपने उस साक्षात्कार में उन्होंने यह भी बताया था कि जब रामायण धारावाहिक का निर्माण हो रहा था तब उन्हें सिगरेट पीने की लत थी। वे छिप-छिपा कर अपनी नशे की तलब को पूरा कर लिया करते थे। कुछ वर्षों के पश्चात उन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर भी यह सोचकर सिगरेट पीनी प्रारंभ कर दी कि लोग इस सच से वाकिफ हैं कि वे सचमुच के राम नहीं हैं। अभिनेताओं का तो काम ही है कि किसी किरदार को साकार करना, जिससे लोग उनकी प्रशंसा करने को विवश हो जाएं। अभिनय अपनी जगह है और व्यक्तिगत जीवन अपनी जगह है। एक शाम किसी फाइव स्टार होटल में अरुण गोविल की सिगरेट पीने की इच्छा हुई तो उन्होंने होटल की लॉबी में तुरंत सिगरेट सुलगा ली। तभी एक बुजुर्ग महिला की उन पर नज़र पड़ गई। उसने रामायण सीरियल को कई बार देखा था। अपने भगवान श्रीराम को सिगरेट पीता देख उसे बहुत जबरदस्त धक्का लगा। उसने तुरंत उन्हें डांटना-फटकारना प्रारंभ कर दिया। ‘आपको पता भी है कि करोड़ों भारतीयों ने आपको भगवान का दर्जा दे रखा है और आप हैं कि सिगरेट पर सिगरेट फूंकते हुए उनकी आस्था से खिलवाड़ किये जा रहे हैं!’ महिला की फटकार की बुलंद आवाज की वजह से और भी कुछ लोग वहां जमा हो गये। सभी ने एकमत होकर उनकी जी भर कर थू...थू की। वो दिन था और आज का दिन है। अभिनेता ने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया। यकीनन अच्छी छवि ही वो सीढ़ी होती है, जो शिखर तक पहुंचाती है। मान-सम्मान दिलवाती है। विद्वान व्यक्ति यदि चरित्रहीन है तो उसकी हर खूबी धरी की धरी रह जाती है। 

    राजनीति में तो स्वच्छ छवि ही अंतत: काम आती है। खोटे सिक्कों की दाल ज्यादा समय तक कहां गल पाती है...। बद और बदनाम चेहरों का काला सच उजागर हो ही जाता है। सर्वप्रिय राजनेता वही होता है, जो किसी एक का नहीं, सभी का होता है। किसी खास धर्म के मतदाताओं की बदौलत चुनाव जीतना कम-अज़-कम भारत में तो संभव नहीं। यहां मुद्दों की भरमार है। सांप्रदायिकता, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई ने करोड़ों भारतवासियों का जीना मुहाल कर रखा है। गरीब वर्षों पहले जहां खड़ा था, आज भी वहीं खड़ा है। राजनेताओं की पक्षपाती, रीति-नीतियों ने उसे मुख्यधारा में शामिल ही नहीं होने दिया है। अंतिम सच यही है कि जब तक पिटे-पिटे-लुटे-लुटे और डरे-डरे लोगों की नहीं सुनी जाती, उन्हें गले नहीं लगाया जाता, तब तक चुनावी उत्सव, उत्सव नहीं दिखावा और तमाशा है...।

Thursday, April 11, 2024

कुछ भी तो छिपा नहीं...

    रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से टकराते अनेकों भारतवासी और भी कई कष्टों का सामना करने को विवश हैं। अपने ही देश में अपनी बेइज्जती और अवहेलना ने उन्हें निराश और बेआस कर दिया है। देश और दुनिया के जागरूक लोगों को कम ही यकीन होगा कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी करोड़ों भारतीय छुआ-छूत और भेदभाव की पीड़ा को भोग रहे हैं। अभी हाल ही में कुछ पत्रकारों ने मध्यप्रदेश, बिहार तथा उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों का दौरा कर जो जाना-समझा वो अत्यंत चिंतनीय होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है। सक्षम लोगों की दुत्कार सहती दबे-कुचलों की भीड़ अपने हाथों में सवालों की तख्तियां लिये खड़ी है। उनकी अथाह पीड़ा शासकों के नीचे से लेकर ऊपर तक के विकास और बदलाव के दावों की पोल खोल देती है। देश के प्रदेशों में आज  कई गांव ऐसे हैं, जहां के दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। मंदिर के पुजारी उनके यहां पूूजा-पाठ करने से मना कर देते हैं। कदम-कदम पर भेदभाव कर उन्हें नीचा दिखाया जाता है। जब उनके यहां शादी-ब्याह होता है तो रस्म अदायगी के लिए मंदिर में नारियल लेकर जाना होता है, लेकिन उनके लिए तो मंदिर में जाना ही मना है, इसलिए वे किसी दूसरे व्यक्ति को नारियल देते हैं जो अंदर जाकर नारियल चढ़ाता है। हल्दी और चावल को वे बाहर ही छिड़क हाथ जोड़कर वापस आ जाते हैं। 22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह के बाद गांवों के मंदिरों में भंडारे लगाये गए। तथाकथित बड़े लोगों को एक साथ आदर-सम्मान के साथ बिठाया गया। दलित समाज के  लोगों को पूछा तक नहीं गया, जो थोड़े बहुत वहां पहुंचे, उन्हें अलग-थलग बिठा कर खिलाया गया। श्री राम तो सबके हैं। फिर भी दलितों को जो अहसास कराया गया, अपमान का कड़वा घूंट पिलाया गया उसे क्या वे आसानी से भुला पायेंगे? गांव के सरपंच, पंच और अन्य उपदेशक किस्म के चेहरे हमेशा की तरह अंधे और बहरे बने रहे। यह किसी एक गांव का काला सच नहीं। अनेक गांवों का चेहरा इसी कालिख से बदरंग है। इस इक्कीसवीं सदी में भी दलित महिलाओं को सार्वजनिक नलों से पानी लेने की मनाही बताती है कि जनप्रतिनिधियों तथा समाज सेवकों ने  महात्मा गांधी के विचारों का कितना अनुसरण किया है। बापू कहते थे भारत गांवों में बसता है। गांव ही देश की आत्मा है। अफसोस गांवों की यह दुर्दशा है! जब भी चुनाव आते हैं तब तो सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता उनका हाल-चाल जानने के लिए दौड़े चले आते हैं। उन्हें गले लगाते हैं। उनके झोपड़ों में भोजन करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हुए कहते जाते हैं कि आधी रात को भी याद करोगे तो हमें अपने निकट पाओगे। हम सब एक हैं। भाई-भाई हैं, लेकिन जब चुनाव खत्म हो जाते हैं तो उन्हें अपना कहा याद नहीं रहता। चुनावों के वक्त लुभावने वादों के साथ जो सपने दिखाये जाते हैं वो भी धरे के धरे रह जाते हैं। खुद को दबे-कुचलों का रहनुमा दर्शाने वाले नेता सच को स्वीकार करने से कतराते हैं। उन्हें हकीकत से रू-ब-रू कराने वाले पत्रकारों पर भरोसा ही नहीं होता। वे बाबू जगजीवन राम, बहन मायावती, रामविलास पासवान जैसे आदि-आदि दलित नेताओं की तरक्की की गाथाएं सुनाते हुए कहने लगते हैं कि शीघ्र ही एक दिन ऐसा आयेगा जब हर दलित खुशहाल होगा तथा शासन-प्रशासन में उन्हीं का डंका बजेगा। उन्हें हर जगह विशेष प्रतिनिधित्व मिलेगा। सभी को उनकी सुननी होगी। आगे-पीछे की सारी कसर पूरी हो जाएगी। वे द्रौपदी मुर्मू का उदाहरण देने लगते हैं जो वर्तमान में भारतवर्ष की राष्ट्रपति हैं। उनसे जब कोई पूछता है कि देश में करोड़ों दलित और आदिवासी बदहाली के शिकार क्यों हैं? उन तक विकास क्यों नहीं पहुंचा? सभी सुख-सुविधाएं चंद लोगों तक क्यों सिमट कर रह गई हैं? अधिकांश लोग हताश और निराशा क्यों हैं? सही-सही जवाब देने के बजाय वे सवाल करने वाले को ही शंका की निगाह से देखते हुए निराशावादी घोषित करने लगते हैं। 

    देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का विराजमान होना यकीनन गौरव की बात है, लेकिन यह भी सच है कि भारतीय राजनीति में अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की हिस्सेदारी नाम मात्र की है। वर्ष 2022 में द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति बनीं। इसके पीछे की राजनीति और रणनीति जानकारों से छिपी नहीं है। अपने देश में वोटों को हथियाने की राजनीति बड़े-बड़े चमत्कार करवाती रहती है। कौन नहीं जानता कि हिंदुस्तान में महिलाओं के लिए राजनीति की राहें कितनी-कितनी कांटों भरी हैं। एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्होंने कई जन-आंदोलनों का नेतृत्व किया। अन्याय से जूझते दबे-कुचले लोगों के अधिकारी के लिए वर्षोर्ें लड़ीं। जेल भी गईं। अपने शुभचिंतकों के अनुरोध पर विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ी, लेकिन बुरी तरह से पराजित हुईं। उन्होंने अंतत: यही निष्कर्ष निकाला कि चुनावों के समय जो पैसा फेंकता है, दारू पिलाता है, साड़ी, कम्बल बांटता है और झूठे वादे करता है, वही आसानी से जीत जाता है। लोग आज भी प्रलोभनों का शिकार हो जाते हैं। उनमें जागरुकता का अभाव है। वोट की अहमियत उन्हें नहीं मालूम। संसद तथा विधानसभाओं में नारियों को प्रतिनिधित्व दिलवाने के मामले में अधिकांश राजनीतिक दल  उत्साहित नजर नहीं आते। साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं की अनदेखी होती है। अधिकांश पुरुष महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करना तो दूर उन्हें हतोत्साहित करते देखे जाते हैं। कई आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली महिलाओं को चुनावी टिकट देने की बजाय राजनीतिक घरानों की महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है। योग्यता न होने पर भी देशवासियों ने लालू की राबड़ी देवी को विशाल प्रदेश बिहार की मुख्यमंत्री बनते देखा है। शातिर किस्म के राजनीतिक दलों के मुखियाओं को पढ़ी-लिखी महिलाओं की तुलना में अनपढ़ महिलाएं राजनीति और टिकट लिए उपयुक्त लगती हैं। पढ़ी-लिखी औरतें बहुत सवाल-जवाब करती हैं। अधिकारों की बात करती हैं, वक्त आने पर संघर्ष की राह चुनने से भी नहीं घबरातीं जबकि कम पढ़ी-लिखी औरतों का हां में हां मिलाने का गुण बड़ी आसानी से लोकसभा तथा विधानसभा का चुनावी टिकट दिलवाता है। अपवाद अपनी जगह, लेकिन खूबसूरती का जादू भी इस आदान-प्रदान के खेल में खूब गुल खिलाता है। 

Thursday, April 4, 2024

सेलिब्रिटी

     हर बार के चुनाव मेंं कुछ चेहरे अपने अंदर की गंदगी को बड़ी बेशर्मी से उगलने लगते हैं। उनकी विषैली भड़ास हंगामा खड़ा कर देती है, लेकिन उन्हें बड़ा मज़ा आता है। उनका मकसद जो पूरा हो जाता है। ये इतने शातिर हैं कि अपना थूका चाटने में भी नहीं लज्जाते। अपनी कमीनगी का दोष दूसरे पर मढ़ कर खिसक जाते हैं। 2024 का आम चुनाव भी इस कालिमा और कलंक से अछूता नहीं।

    फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत को भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है। वह यहीं की रहने वाली हैं। मायानगरी मुंबई उनकी कर्मभूमि है। किस्म-किस्म की फिल्मों में प्रभावी अभिनय करने के साथ-साथ किसी से भी टकराने का साहस रखने वाली कंगना को जैसे ही टिकट मिली, कुछ लोग भौचक्के रह गये। उन्हें कंगना में हजारों कमियां नज़र आने लगीं। उनकी आंखों के सामने कंगना का फिल्मी चेहरा कौंधने लगा। उन्होंने इस सच को भुला दिया कि किसी भी अभिनेत्री को फिल्म में कहानी के पात्रों को साकार करना होता है। वेश्या और कालगर्ल की भूमिका निभाते समय जिस्म को अधनंगा तो किसी किरदार में बदन को ढक कर रखना पड़ता है। अभिनेत्री का यह असली चेहरा नहीं होता, लेकिन कुछ लोग इस सच को दरकिनार कर अपने मन-मस्तिष्क में कीचड़ भर लेते हैं, जिससे वे कभी भी मुक्त नहीं हो पाते। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत न्यूज चैनलों पर होने वाली विभिन्न परिचर्चाओं में कांग्रेस का पक्ष बड़ी होशियारी से रखती देखी जाती हैं। धारा प्रवाह बोलने का उनका निर्भीक अंदाज दर्शकों को बहुत भाता है, लेकिन  इस राजनीतिक नारी ने लोकसभा का टिकट मिलने के कुछ घण्टों के बाद अपने इंस्टाग्राम अकाउंट में कंगना की अर्धनग्न तस्वीर डालते हुए लिखा, ‘क्या भाव चल रहा है मंडी में कोई बताएगा?’ सुप्रिया राजनीति में आने से पहले टाइम्स गु्रप में कार्यकारी संपादक रह चुकी हैं। 2019 में पत्रकारिता छोड़कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गईं। उसी वर्ष हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने इन्हें उत्तरप्रदेश के महाराजगंज निर्वाचन क्षेत्र से मैदान में उतारा, लेकिन जीत नसीब नहीं  हुई। सुप्रिया श्रीनेत का कंगना के प्रति विष उगलना समझ में आता है। राजनीति में पतन की कोई सीमा  नहीं होती, लेकिन नामी-गिरामी उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक मृणाल पांडे इतनी स्तरहीन क्यों हो गईं? उन्होंने एक्स पर लिखा, शायद यूं कि मंडी में सही रेट मिलता है। लेखिका की निगाह में कंगना वेश्या हैं और शहर मंडी कोई वेश्यालय है। भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए खूबसूरत अभिनेत्री को बाज़ार में सजा-धजा कर खड़ा कर दिया है! कभी सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले विख्यात हिन्दी दैनिक हिंदुस्तान की संपादिका रहीं मृणाल पाण्डे वर्तमान में कांग्रेसी मुखपत्र नेशनल हेराल्ड की संपादिका हैं। मृणाल पाण्डे ने भी सुप्रिया की तरह अपने कांग्रेसी नेताओं को प्रभावित करने के लिए यह घटिया रास्ता चुना। यह अलग बात है कि चौतरफा छीछालेदर होने के बाद मृणाल ने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया। दूसरी तरफ सुप्रिया को अपने बचाव में यह कहते ज़रा भी शर्म नहीं आई कि किसी ने मुझे बदनाम करने के लिए यह षडयंत्र रचा है। झूठ बोलने के जितने तौर-तरीके सुप्रिया जैसे सेलेब्रिटी औरतों को आते हैं उतने आम औरतों को नहीं आते। 

    कुछ बौखलाये राजनीतिक पुरुषों ने भी कंगना को नीचा दिखाने कोई मौका नहीं छोड़ा। अपने तीखे तेवरों के साथ-साथ खुले विचारों वाली कंगना को भाजपा की टिकट मिलना और भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी महिलाओं को रास नहीं आया। कंगना लोकप्रिय अभिनेत्री हैं। बड़ी-बड़ी हस्तियों से टकराने की उनकी हिम्मत को देखकर ही भाजपा ने बहुत सोच-समझ कर उन पर दांव लगाया है। अपने देश में आज भी फिल्मी कलाकारों के प्रति लोगों में आकर्षण और आदर-सम्मान है। दक्षिण भारत में तो सिने कलाकारों को लोग भगवान मानते हैं। इसी हकीकत को भांपते हुए एनटीआर, एमजीआर, जयललिता, करुणानिधि जैसे कई कलाकारों ने राजनीति का दामन पकड़ कई वर्षों तक सत्ता का सुख भोगा। भारतीय जनता पार्टी सितारों पर दांव लगाने के इस खेल में अग्रणी है। 

    भाजपा ने इस बार दूरदर्शन के रामायण सीरियल में भगवान श्रीराम का किरदार निभाकर घर-घर में अपनी पहचान बनाने वाले अरुण गोविल को मेरठ से टिकट दी है। सच तो यह है कि इसमें भी भाजपा की गहरी रणनीति है। चुनावों में वह हर हाल में राम के मुद्दे को जिन्दा रखना चाहती है। तृणमूल कांग्रेस ने लोकप्रिय फिल्मी चेहरे शत्रुघ्न सिन्हा को आसन सोल से टिकट देकर मैदान में उतारा है। शत्रुघ्न सिन्हा ने दूसरे सितारों की तरह राजनीति को हलके में लेने की भूल नहीं की। अभिनेता धर्मेंद्र 2014 में बीकानेर से लोकसभा के लिए चुने गए थे, लेकिन चुनाव के बाद उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र को झांक कर भी नहीं देखा। यही हाल उनके पुत्र सनी देओल का रहा, जिन्हें 2019 में भाजपा ने गुरुदासपुर से टिकट दिया। चुनाव जीतने के बाद वे भी गायब रहे। गुस्सायी जनता को अपने सांसद के गुमशुदा होने के जगह-जगह पोस्टर लगाने पड़े। अभिनेत्री और नृत्यांगना हेमामालिनी ने अपने चुनावी क्षेत्र की कभी अवहेलना नहीं की। 

    अक्सर कहा और पूछा जाता है जब महिलाओं को हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर अवसर देने के ढोल पीटे जाते हैं, तो उन्हें लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अहमियत क्यों नहीं दी जाती? अपने देश में प्रतिभावान नारियों की कहीं कोई कमी नहीं। सभी क्षेत्रों में उन्होंने खुद को स्थापित करने के कीर्तिमान रचे हैं। समुचित अवसर मिलने पर उन्होंने पुरुषों को बार-बार पछाड़ा भी है। अपनी इच्छा के अनुसार मतदान करने वाली जागरूक महिलाएं अपना हक चाहती हैं। वो जमाना गया जब भारतीय नारी अपने पिता, पति, भाई, चाचा, मामा आदि के इशारे पर ईवीएम का बटन दबाती थी। विभिन्न राजनीतिक दलों में महिला कार्यकर्ताओं की जो भीड़ नजर आती है, वह सिर्फ शोपीस बने रहना नहीं चाहती। उनके द्वारा जब टिकट की मांग की जाती है तब सेलिब्रिटी बाजी मार ले जाती हैं। संसद से पारित 33 फीसदी महिला आरक्षण विधेयक हवा-हवाई नज़र आता है...।

Thursday, March 28, 2024

पांव पर कुल्हाड़ी

     संतरों के शहर नागपुर में एक शख्स ने बियर बार में जी भरकर शराब गटकी। बैरे के बिल थमाने पर उसका पारा चढ़ गया। बार संचालक को वह धमकाने लगा। यदि इस इलाके में बार चलाना है तो 5 हजार का हफ्ता देना होगा। बार वाला उसे जानता नहीं था। वह सोच में पड़ गया। यह नया ‘दादा’ कहां से आ टपका! शराबी ने सीना तानते हुए अकड़ दिखायी, तू मुझे जानता नहीं। मेरी ऊपर तक पहुंच है। मेरे ज़रा से इशारे पर पचास-साठ लठैत दौड़े-दौड़े चले आयेंगे। बार के साथ-साथ तेरे भी परखच्चे उड़ा देंगे। बार संचालक ने जब धमकी को अनसुना करने की कोशिश की तो उसने उसके सिर पर कांच का गिलास फोड़ दिया। उसके हिंसक तेवर देखकर जाम से जाम टकराते ग्राहक धीरे-धीरे बिना बिल दिये खिसक लिए। गुंडे ने उसके हाथ से पांच सौ का नोट और गल्ले से दो हजार रुपये लूटे और लड़खड़ाते हुए चलता बना। 

    पुलिस को एक ही परिवार के चार लोगों को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डालना पड़ा। बात बहुत छोटी थी, लेकिन खून बह गया। नागपुर के निकट स्थित वाडी में एक कार चालक को किसी घर के सामने खड़े दोपहिया वाहन को देखकर गुस्सा आ गया। दोपहिया वाहन के कारण उसकी चार चक्के वाली चमचमाती कार को आगे निकलने में कुछ मुश्किल हो रही थी। हॉर्न पर हॉर्न बजाने पर घर के सदस्य जब बाहर निकले तो उन पर गंदी-गंदी गालियों की बौछार की जाने लगी। आसपास के लोगों ने दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर शांत किया। फिर भी कार वाले ने जाते-जाते देख लेने की धमकी दे डाली। आधे घण्टे के बाद तीन-चार लोग घर के सामने आ धमके। इनमें कार चालक के साथ उसका पिता भी शामिल था। बेटा घर मालिक युवक पर चाकू से ताबड़तोड़ वार किये जा रहा था और उसके पिता ने लहुलूहान होते युवक को पीछे से कसकर पकड़-जकड़ रखा था। युवक की पत्नी जब उन्हें रोकने के लिए पहुंची तो उसे भी चाकू से जख्मी कर दिया गया। उससे छेड़छाड़ भी की गई। खून से तरबतर पति-पत्नी को किसी तरह से उनके चंगुल से निकाल कर अस्पताल पहुंचाया गया। पति को 17 टांके लगे। पत्नी के सिर पर भी गंभीर चोटें लगने के कारण मोटी पट्टी बांधनी पड़ी। 

    कोचिंग क्लास में पढ़ाने वाली एक तीस वर्षीय युवती की ऑटोमोबाइल कंपनी में काम करने वाले युवक से फेसबुक के माध्यम से पहचान हुई। दोनों जवान थे। दोस्ती को प्रेम संबंधों में तब्दील होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। इसी दौरान युवक ने पढ़ी-लिखी फेसबुक मित्र को अपनी कंपनी में मोटी तनख्वाह वाली नौकरी दिलवाने का आश्वासन दिया। दोनों औरंगाबाद जा पहुंचे। यहां पर कंपनी का मुख्यालय है। वहां दोनों ने एक होटल में कमरा बुक कराया। रात को कमरे में युवक ने बड़ी चालाकी से शीतल पेय में कोई नशीला पदार्थ मिलाकर युवती को पिलाया। वह सुध-बुध खो बैठी। सुबह जब वह नींद से जागी तो उसे पता चला कि उसकी अस्मत लूटी जा चुकी है। युवक ने युवती को शीघ्र्र ही शादी के बंधन में बंधने का विश्वास दिलाया। फिर तो दोनों जब भी मौका पाते एक हो जाते और जिस्मानी प्यास बुझाते। कुछ दिनों के पश्चात युवक की नीयत बदल गई। युवती ने पुलिस स्टेशन जाकर खुद के बरबाद होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। युवक फरार है। पुलिस उसकी तलाश कर रही है।

    शहर के एक 49 वर्षीय व्यापारी को 40 वर्षीय खूबसूरत औरत ने फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। मौजमस्ती के शौकीन व्यवसायी ने अनुरोध को स्वीकार करने में जरा भी देरी नहीं की। फटाफट एक-दूसरे के मोबाइल नंबर भी ले लिये गए। मीठी-मीठी बातचीत के साथ-साथ मिलना-मिलाना भी शुरू हो गया। एक दिन महिला मित्र के निमंत्रण पर व्यापारी निर्धारित होटल जा पहुंचा। कमरा पहले से बुक था। दोनों ने घण्टों साथ रहकर शारीरिक संबंध बनाये। इसी दौरान महिला ने वीडियो-फोटो भी ले लिए। कुछ दिनों के पश्चात महिला ने उस पर शादी का दबाव बनाया। व्यापारी शादीशुदा है। बेटी का विवाह हो चुका है। बेटा भी शादी के लायक है। व्यापारी ने अपनी मजबूरी बतायी, लेकिन महिला अपनी पर उतर आयी। वह उससे बार-बार धन की मांग करने लगी। कुछ ही महीनों में उसने पचास लाख की चपत लगा दी। बदनामी के डर से व्यापारी सब्र का घूंट पीकर शांत रहा। एक दिन महिला अपने आठ-दस रिश्तेदारों को लेकर व्यापारी के घर जा पहुंची और गालीगलौच कर उस पर जीवन बर्बाद करने का आरोप लगाने लगी। व्यापारी की सांसें अटक गयीं। महिला ने तुरंत ही पास की मस्जिद से इमाम को बुलाकर निकाह पढ़ाया, साथ ही जबरन उसके घर में रहने लगी। कुछ हफ्तों के बाद वह महंगे फ्लैट की मांग करने लगी। व्यापारी के इनकार करने पर उसने अश्लील तस्वीरों को सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। व्यापारी के सब्र का बांध टूटा तो वह थाने जा पहुंचा। वहां उसे पता चला कि महिला तो पहले ही सात शादियां कर चुकी है। शादी पर शादी कर लूटना ही उसका पेशा है। दरअसल, ऐसी वारदातें, नगरों, महानगरों में वर्षों से होती चली आ रही हैं। फेसबुक पर होने वाली मायावी, कपटी मित्रता के फलस्वरूप होने वाली धोखाधड़ी, लूटपाट और तरह-तरह के घात का खुलासा अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर होता रहता है। कुछ लोग सतर्क हो जाते हैं। कुछ लोग यह सोचकर मदमस्त रहते हैं कि जिन्होंने धोखा खाया वे बेवकूफ और नादान हैं। हम तो अक्लमंद हैं। हमारा कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। फेसबुक के आभासी संसार में सक्रिय किस्म-किस्म के ठग, लुटेरे, धूर्त, चालबाज चेहरों को ऐसे ही मदमस्त शिकारों की तलाश रहती है और यह अति बुद्धिमान ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को खुद पर चरितार्थ कर अंतत: माथा पीटते देखे जाते हैं। क्षणिक आवेश में आकर अपराधी बनने वाले भी हर हश्र से वाकिफ होते हैं। फिर भी गुनाह करने से बाज नहीं आते। दूसरों की दुर्गति से सबक न लेकर खुद को कलंकित और तबाह करने वालों का तो भगवान ही मालिक है...।

Thursday, March 21, 2024

आतंकवादी

    बीते दिन एक फिल्म देखी! ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’! छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सली वर्षों से खून-खराबा करते चले आ रहे हैं। उनकी खूनी आतंकी रफ्तार से सरकारें भी हिलती रही हैं। फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो जिस गांव में जन्मे वह बस्तर से मात्र 40 किलोमीटर दूर है। विवादास्पद फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ को बनाने का श्रेय भी सुदीप्तो को ही जाता है। भयावह सच को दिखाना उनका फिल्म बनाने का मकसद है। ‘द नक्सल स्टोरी’ फिल्म के रिलीज से पहले गीत, वंदे वीरम के लांच के दौरान मुंबई में उन्होंने बस्तर इलाके के 14 शहीद जवानों के परिजनों को निमंत्रित कर पत्रकारों से मिलवाया था। शहीदों के परिजनों ने मंच पर बस्तर में वर्षों से हो रहे नरसंहार की पीड़ादायी हकीकत बयान कर अपनी आपबीती सुनाई। बस्तर का नाम सुनते ही मन भयभीत हो जाता है। फिल्म का ट्रेलर और गीत देख-सुनकर सभी की आंखें नम होती रहीं। यहां रोज औसतन 4-5 लोगों की निर्मम हत्या कर दी जाती है। बस्तर में नक्सलियों ने गरीब आदिवासियों को अपना गुलाम बना रखा है। उन्हें नक्सलियों के नियम-कानूनों का मजबूरन पालन करना पड़ता है। बस्तर के घने जंगलों में करीब साढ़े तीन हजार बस्तियां हैं। यहां हर मां को अपना एक बच्चा नक्सलियों को देना पड़ता है। मना करने पर पूरे परिवार का खात्मा कर दिया जाता है। बस्तर में 57 सालों में 55 हजार जवान शहीद हो चुके हैं। 

    लेकिन, गुस्सा दिलाने वाला एक सच यह भी है कि अपने ही देश में कुछ देशद्रोही चेहरे ऐसे हैं जिनको जवानों की शहादत पर ज़रा भी गम नहीं होता। नक्सलियों को मार गिराये जाने पर उनकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगती है। मानवाधिकार का झंडा उठाकर सड़कों तथा अदालतों के चक्कर लगाने लगते हैं। नक्सलियों के शुभचिंतकों को भी राष्ट्र स्वाभिमान और राष्ट्र विकास से चिढ़ है। शहरी नक्सली खुद को मानवता के रक्षक दर्शाते हैं, लेकिन आतंकवादियों के पक्ष में ही खड़े नजर आते हैं। नक्सलियों को हथियार तथा धन उपलब्ध कराने की उनकी शर्मनाक भूमिका राष्ट्रभक्तों का खून खौलाती है। शासन, प्रशासन की सक्रियता से कभी-कभार यह तथाकथित बुद्धिजीवी पकड़ में भी आते हैं। इनके पक्ष में इन्हीं के रंग में रंगे चेहरों का हो-हल्ला गूंजने लगता है। देश की राजधानी दिल्ली, मायानगरी मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़, रांची, हैदराबाद, विशाखापट्टनम, पुणे, नागपुर जैसे नगरों, महानगरों में जो शहरी नक्सली चोरी-छिपे सक्रिय हैं, उनका मुख्य एजेंडा शहरों में नक्सलवाद का गुणगान करना और लोगों को नक्सली विचारधारा से जोड़ना है। 

    ऐसा भी होता रहता है कि असली शैतानों के साथ-साथ कुछ बेकसूर भी पुलिस के शिकंजे का शिकार हो जाते हैं। पुलिसिया भूल और जल्दबाजी की वजह से उन्हें सालों जेल में सड़ना पड़ता है। उनकी जिन्दगी के कई वर्ष बर्बाद कर दिये जाते हैं। उनके मान-सम्मान पर भी जो दाग लगते हैं वे भी बड़ी मुश्किल से धुल पाते हैं। कुछ भारतीयों ने इस नाइंसाफी को वर्षों तक झेला है। उन्हीं में से एक हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा। माआवादियों से कथित संबंध रखने के आरोप में दस साल जेल में रहने के पश्चात बम्बई हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में बरी किए गए साईबाबा के दर्द को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। नागपुर केंद्रीय जेल से सात वर्षों के बाद बाहर निकलने के बाद उनके शब्द थे ‘‘मुझे अभी भी ऐसा लग रहा है जैसे मैं जेल में ही हूं।’’ नक्सलियों से करीबी रखने और उन्हें खून-खराबा करने के लिए उत्साहित करने के संगीन आरोप में साईबाबा को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जा चुकी थी। उन्हें खतरनाक आतंकवादी भी कहा गया था। जेल में मर-मर कर गुजारे पलों को याद करते हुए साईबाबा इस कदर भावुक हो जाते हैं कि उनकी आंखें भीगी-भीगी हो जाती हैं। पिछले सात वर्षों में उनके परिवार ने कैसी-कैसी तकलीफें झेलीं, बिना कोई गुनाह किये लोगों की नजरों में अपराधी बन उनके तानों, नुकीले व्यंग्य बाणों की मार से सतत लहुलूहान होना पड़ा। जेल में बंद रहने के दौरान साईबाबा को खुद से ज्यादा अपने परिजनों की चिंता सताती थी। साईबाबा दिव्यांग हैं। विकलांगता निरंतर बढ़ती चली जा रही है। चलने-फिरने से एकदम लाचार हैं। व्हीलचेयर ही उनका एकमात्र सहारा है। उन्हें यह सच भी शूल की तरह चुभता है कि अपने देश में इंसाफ का चक्का बहुत धीमे चलता है। बेकसूरों को वर्षों तक न्याय पाने की राह देखनी पड़ती है। कुछ तो इंतजार करते-करते मौत के आगोश में समा जाते हैं। उन्हें आज भी 22 अगस्त, 2013 का वो दिन याद है जब उन्हें गड़चिरोली के अहेरी बस अड्डे से गिरफ्तार किया गया। दूसरे दिन के अखबारों में पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपा था, ‘खतरनाक आतंकवादी’ खूंखार हत्यारे, नक्सलियों का साथी, प्रोफेसर जी.एन.साईबाबा बड़ी मुश्किल से पुलिस की पकड़ में आया। यह पढ़ा-लिखा शहरी नक्सली जंगल में रहने वाले देश के दुश्मन नक्सलियों से भी ज्यादा खतरनाक है। न्यूज चैनल वालों ने इस शहरी नक्सली को उम्र भर जेल में सड़ाने की पुरजोर मांग करते हुए देशवासियों से अपील की थी कि ऐसे हर देशद्रोही से सतर्क और सावधान रहें। तभी साईबाबा ने देखा और जाना था कि लोगों की निगाहों ने तुरंत उन्हें अपराधी मान लिया है। कल तक जो लोग इज्जत से पेश आते थे अब नफरत करने लगे थे। 

    कुछ दिन पहले मैंने पुरानी दिल्ली के रहने वाले मोहम्मद आमिर खान की आपबीती किसी अखबार में पढ़ी। इस युवक को आतंकवादी होने के झूठे आरोप में 14 वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। उन्हीं की लिखी ‘आतंकवादी का फर्जी ठप्पा’ नामक किताब में व्यवस्था के अंधेपन को उजागर करने का साहस दिखाया गया है। आमिर तब लगभग अठारह वर्ष के थे जब बम विस्फोट और हत्या के लिए दोषी मानते हुए जेल में डाल दिया गया। पुलिस रिमांड में उन्हें अमाननीय यातनाएं दी गयीं। जो अपराध उन्होंने किया ही नहीं था उसे कबूलने के लिए जिस्म की हड्डी-हड्डी तोड़ी गई। किसी से मिलने नहीं दिया गया। पिता के गुजरने पर उन्हें सुपुर्द -ए-खाक भी नहीं कर पाए। यह वही पिता थे, जिन्होंने बेटे के इंसाफ के लिए अपना घर-बार तक बेच डाला था। जेल की काली कोठरी में अपनी जवानी को गला कर आमिर जब 14 साल बाद बाहर निकले तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी। कई डरी -डरी निगाहें उन्हें ऐसे ताक रही थीं जैसे कोई जंगली जानवर शहर में जबरन घुस आया हो...।

Thursday, March 14, 2024

बाज़ार

    दूसरे उत्सवों की तरह शादी-ब्याह भी उत्सव का मज़ा देते हैं। विवाह बंधन में बंधने वाले जोड़े के साथ-साथ घर, परिवार यार-दोस्त और रिश्तेदार अधिक से अधिक पहचान वाले, अड़ोसियों, पड़ोसियों, दूर पास के यारों, रिश्तेदारों से आत्मीय मेल-मुलाकात का सुअवसर भी होते हैं शादी-ब्याह के विभिन्न आयोजन। अपने देश में शादियों को स्टेटस सिंबल के तौर पर भी देखा जाता है। अपना रुतबा और जलवा दिखाने के लिए बढ़-चढ़कर धन खर्च करने के इस अवसर पर होड़ भी खूब देखी जाती है। गरीब हो चाहे अमीर सभी अपनी-अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर शादी के उत्सव को यादगार बनाने की भरसक कोशिश करते हैं। यहां तक कि बैंकों तथा साहूकारों से कर्जा लेकर अपनी हसरतें पूरी करने में संकोच नहीं किया जाता। शादी को सात जन्मों का बंधन भी कहा जाता है। इस पवित्र बंधन को कितने जोड़े निभा पाते हैं। वो अलग बात है। वफा, पवित्रता, आत्मीयता और मजबूती के साथ स्त्री-पुरुष को बांधे रखने के लिए ही कभी विवाह के प्रचलन की नींव पड़ी थी। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि, आज से लगभग 4 हजार साल पूर्व शादी ने एक सामाजिक संस्था के रूप में अपनी पहचान बना ली थी। 

    एक समय ऐसा भी था जब मानव विभिन्न जानवरों का शिकार कर अपना पेट भरता था। स्वयं को जानवरों से सुरक्षित रखने के लिए समूहों में रहना उनकी मजबूरी थी। एक समूह में पच्चीस से तीस के आसपास लोग होते थे। इन समूहों के लीडर दो-तीन  पुरुष होते थे जो अपनी मर्जी से समूह की कई महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाते थे। बाकी तो मन मारकर रह जाते थे। इन महिलाओं से जन्म लेने वाले बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी पूरे समूह की होती थी, लेकिन इस मामले में संतानों के साथ इंसाफ नहीं हो पाता था। लीडर और एक दो को छोड़कर बाकी के मन में यह बात घर किये रहती थी कि जब बच्चे उनके हैं हीं नहीं तो वे उनकी परवरिश पर क्यों ध्यान दें। संतान के पिता की पहचान के संकट के खात्मे के उद्देश्य से की शादी-ब्याह का रास्ता चुना गया। एक महिला की एक पुरुष से शादी का पहला सबूत 2,350 ईसा पूर्व मेसोपोटामिया में मिलता है। विभिन्न धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में वैदिक काल से विवाह एक जरूरी धार्मिक और पवित्र संस्कार था। पति-पत्नी मिलकर यज्ञ करते थे और पुत्र पैदा करना शादी का जरूरी मकसद होता था। पुरातन काल में भी शादी-विवाह को भव्यता प्रदान करने का चलन था। धार्मिक पौराणिक विवाहों में दान-दहेज का भी रिवाज था। रामायण में राम और सीता के भव्य विवाह के उल्लेख के साथ राजा जनक के द्वारा अपनी पुत्री सीता को हजारों हाथी, घोड़े, गाएं और सोने-चांदी के आभूषण उपहार में देने का वर्णन है। इसी तरह से महाभारत में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू और उत्तरा की भव्य शादी में गीत, नृत्य, गायन, मदिरा और महंगे उपहारों की झड़ी लगा दी गयी थी। वो राजा-महाराजाओं का जमाना था। उन्हीं की चलती थी। प्रजा तो बस मूकदर्शक होती थी। राजतंत्र कब से भारत से विदा हो चुका। आज जनतंत्र है। जनता ही राजा है, लेकिन फिर भी जनता की ही बदौलत धनवान बने धनपति खुद को राजा-महाराजा से कम नहीं मानते। उन्हें इस सच से कोई लेना-देना नहीं है कि उनकी गगन चुम्बी तरक्की में असंख्य लोगों के खून-पसीने का योगदान है। नेता, राजनेता, मंत्री, संत्री और उद्योगपति अपने बीते कल को विस्मृत करने में जरा भी देरी नहीं लगाते। अपने बेटे-बेटियों की सगाई और शादी ब्याह में अंधाधुंध धन की बरसात कर खुद को महाराजा साबित करने का मौका नहीं गंवाते। अभी हाल ही में भारतवर्ष के सबसे उद्योगपति अमीर मुकेश अंबानी ने अपने छोटे बेटे अनंत की प्री-वेडिंग सेरेमनी में  1000 करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च डाले। देश और दुनिया की हजारों अति विशिष्ट हस्तियों को इस महाआयोजन में निमंत्रित कर अपने व्यक्तिगत आयोजन को ऐसी मंडी की शक्ल दे दी, जहां बड़े-बड़े धुरंधर बिकने को मजबूर हो गए। उन्हें बस अपनी कीमत बतानी थी। तमाम न्यूज चैनल वाले भी मुकेश अंबानी तथा उनके पुत्र की दयालुता और हिम्मत की गाथाओं के पन्ने खोले जा रहे थे। बार-बार राग गा रहे थे कि कभी 208 किलो के वजन वाले अनंत ने प्रतिदिन इक्कीस किलोमीटर की छह घंटे के कड़े विभिन्न व्यायाम और जंक फूड का पूरी तरह से त्याग कर अपना 100 किला वजन कम कर दिखा दिया है कि वो जो ठान लेते हैं उसे साकार करके ही दम लेते हैं। अनंत जमीन से जुड़े पिता के आज्ञाकारी बेटे हैं। खरबपति परिवार में जन्म लेने के बाद भी उनकी जिन्दगी संघर्ष भरी रही है। आज भी वह स्वास्थ्य समस्याओं से घिरे हैं। संस्कारी परिवार के इस बेटे ने संस्कारी लड़की राधिका को अपनी जीवनसाथी बना कर सभी का दिल जीत लिया है। अंबानी परिवार ने इस अपार तामझाम भरी प्री-वेडिंग को विज्ञापित कर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों जरूर बटोरीं, लेकिन उन पर ऐसे-ऐसे सवालों की झड़ी भी लगी रही, जिनके जवाब नदारद रहे। धन कुबेर मुकेश अंबानी ने 2018 में अपनी इकलौती बेटी ईशा की शादी में 800 करोड़ उड़ा कर भी सुर्खियां बटोरी थीं। तब इसे भारत की सबसे महंगी शादी प्रचलित किया गया था। अब 2024 में अपने बीमार दुलारे को खुश करने के लिए 1000 करोड़ खर्च कर डाले। उनके लिए इतना धन हाथ का मैल है। वे जितना रुपया उड़ाना चाहें, कोई उन्हें नहीं रोकने वाला। यह तो खुद की सोच और विवेक का मामला है। धार्मिक प्रवृत्ति के मुकेश को विभिन्न साधु-संतों तथा प्रवचन कारों के सानिध्य में भी देखा जाता है। मोहन यादव वर्तमान में देश के विशाल प्रदेश मध्यप्रदेश के सम्मानित मुख्यमंत्री हैं। वर्षों से राजनीति में हैं। मुख्यमंत्री बनने के पश्चात वे अपने बेटे की शादी का न्यौता देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निवास पर गये थे। मोदी जी ने उन्हें असीम मंगलकामनाओं के साथ एक बात कही, ‘‘अब आप प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। किसी भी ऊंचे पद पर पहुंचने के बाद लोगों की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। वे अच्छा होते देखना चाहते हैं। जनप्रतिनिधि हों या उद्योगपति, उन्हें बहुत सोझ-समझ कर चलना चाहिए। अपने परिवारिक समारोहों में अत्याधिक दिखावे और फिजूल खर्ची से बचना चाहिए। आचार, व्यवहार और विचार के प्रभावी संदेश से ही दूरगामी आदर्श स्थापित होते हैं। मुकेश अंबानी को अथाह धन फूंक कर भले ही संतुष्टि मिली हो, लेकिन आम लोगों को उनका यह रंगारंग तमाशा अच्छा नहीं लगा। उनकी यह सोच फिर से बलवति हुई है कि अपने देश के अधिकांश धनपतियों का जन सरोकार से कोई वास्ता नहीं। उनके लिए अपना परिवार ही सर्वोपरि है।

Thursday, March 7, 2024

भक्षक-संरक्षक

    सोचें तो माथा घूम जाता है। पैरोंतले की जमीन खिसकती लगती है। आजाद भारत में इतने जुल्म! गुंडागर्दी, लूटमार, बलात्कार। और भी न जाने कैसे-कैसे जुल्मों-सितम। हिसाब लगाना मुश्किल। पश्चिम बंगाल के संदेशखाली पहुंचे पत्रकारों के हृदय के साथ-साथ कान भी कांप रहे थे। मंजर ही कुछ ऐसा था, जो रोंगटे खड़े कर रहा था। शेख शाहजहां उसका नाम था। ऊपर से नीचे तक दुष्कर्मी, भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, बलात्कारी और भू-माफिया शेख शाहजहां ने दरअसल संदेशखाली में शासन और प्रशासन को अपनी मुट्ठी में कर आतंकी दबदबा बनाया था। दूर-दूर तक उसकी तूती बोलती थी। कोई उसके विरोध में आवाज नहीं उठा पाता था। महिलाएं तो उसका नाम सुनते ही कांपने लगती थीं। रात होते ही अपने-अपने घरों में दुबक जाती थीं। फिर भी जो औरत, लड़की उसे और उसके साथियों को पसंद आ जाती, कदापि बच नहीं पाती थी। उसे जबरन उसके घर से उठवा लिया जाता था। शाहजहां पूरी तरह से हैवान बन चुका था। बांग्लादेश से चोरी-छिपे पश्चिम बंगाल आया शाहजहां कभी मजदूरी करता था। सत्ताधारी दल के नेताओं के लालची सहयोग ने देखते ही देखते उसे बेताज बादशाह बना दिया। गरीब कल्याण और स्थानीय विकास की योजनाओं में जमकर घोटाले कर उसने चंद वर्षों में अकूत धन-संपत्ति बनायी। पंचायत से लेकर विधानसभा, लोकसभा चुनाव तक स्थानीय मतदाताओं को डरा-धमका कर तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोटिंग करवाने वाले शाहजहां के राजनीतिक आकाओं की लिस्ट बहुत लंबी थी। पुलिस प्रशासन भी उससे घबराता था। 2024 के पांच जनवरी के दिन ईडी की एक टीम, सीआरपीएफ के टुकड़ी के साथ बीस हजार करोड़ के राशन घोटाले के इस सरगना के ठिकानों पर छापेमारी करने पहुंची तो उसने पकड़ में आने से बचने के लिए अपने पाले-पोसे गुंडों से टीम पर ही जानलेवा हमला करवा दिया और खुद फरार हो गया। पचपन दिनों तक गायब रहने के बाद बड़ी मुश्किल से वह पुलिस के हाथ लग पाया। 

    उसकी मनचाही फरारी के दौरान उसके रक्तपात से सने गुनाहों के काले चिट्ठे एक-एक कर खुलते चले गये। महिलाओं पर ढाये गये कहर और बर्बरता के किस्सों को सुनकर हर किसी के रोंगटे खड़े होने लगे। बीस साल की वर्षा का तो तब मुंह खोलने का साहस ही नहीं था। शाहजहां की गिरफ्तारी के बाद कॉलेज की छात्रा वर्षा ने अंतत: भय को अपने अंदर से बाहर निकाल फेंका। शाहजहां का नाम लेते ही वह गुस्से से लाल हो जाती है। गालियों की बौछार करते हुए कहती है कि शाहजहां इंसान नहीं, दरिंदा है। व्यवस्था का पाला-पोसा क्रूरतम भक्षक है। इस जैसा चरित्रहीन और कोई हो ही नहीं सकता। दूसरों की मां, बहन, बेटी, बहू को बाजारू समझता है। संदेशखाली में इसकी सतायी अनगिनत महिलाएं हैं, जो किसी भी हालत में अपनी पहचान उजागर नहीं होने देंगी। इसने तथा इसके कुकर्मी साथियों ने पूरे इलाके की औरतों का जीना मुहाल कर रखा था। अंधेरा घिरते ही ये वहशी तांडव मचाने लगते थे। जिस घर-परिवार की लड़की, औरत, बहू, बेटी इन्हें पसंद आती उसकी तो जैसे शामत आ जाती। जबरदस्ती उसे अपने साथ ले जाते। तृणमूल कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में ले जाकर रात भर बलात्कार करते। जब मन भर जाता तो इस आदेश के साथ छोड़ते कि फिर हम जब बुलाएं तो बिना किसी ना-नुकर के चली आना। कोई बहाना नहीं चलेगा। तुम्हारे मां-बाप, पति, भाई आदि से हम देख लेंगे। 

    शारदा पचास की हो चुकी है। उसकी तीन बेटियां हैं। दो जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी हैं। शारदा को वो मंजर भुलाये नहीं भूलता जब शाहजहां के गुंडे उसकी बड़ी बेटी को रात को उठा कर ले गये थे। दो दिन के बाद लहुलूहान, लुटी-पिटी बेटी घर लौटी थी तो घंटों फूट-फूट कर रोती रही थी। वह बार-बार कहती रही थी कि वह अपवित्र हो चुकी है। उसकी वापस घर लौटने की हिम्मत ही नहीं थी। कुएं में छलांग लगाकर मर जाना चाहती थी, लेकिन अपनी दोनों छोटी बहनों की चिंता ने उसके पांव में बेड़ियां पहना दीं। वह गुंडों के समक्ष हाथ जोड़ती रही, लेकिन उन्होंने अपनी मनमानी करके ही दम लिया। जिस्म को रौंदने के साथ-साथ जालिमों ने उसे अंधाधुंध मारा-पीटा। पच्चीस वर्षीय रानी को संदेशखाली आये अभी पंद्रह दिन ही हुए थे। शादी के पांचवे दिन उसका पति नौकरी बजाने शहर चला गया था। हाथों में लाल चूड़ियां और माथे पर बड़ी-सी बिंदी लगाये रानी खुशी-खुशी बाजार में सब्जी लेने के लिए गई थी, तभी शाहजहां की उस पर काली नजर जा पड़ी थी। आधी रात को किसी गुंडे ने घर के दरवाजे की कुंडी खटखटायी थी। बूढ़े ससुर ने डरते-डरते दरवाजा खोला था। रानी गहरी नींद में थी। उसे जबरन खटिया से उठा कर शाहजहां के हवेलीनुमा घर में बिस्तर पर पटक दिया गया था। शाहजहां और उसके साथी भूखे भेड़िये की तरह उस पर टूट पड़े थे। तीसरे दिन की सुबह जब रानी को उसके घर ले जाकर छोड़ा गया था, तब वह अधमरी हो चुकी थी। शाम को उसे होश आया था। उसके ससुर का रो-रोकर बड़ा बुरा हाल हो चुका था। रानी को घर लेकर पहुंचे गुंडों ने उसे चेताया था कि जब भी बुलावा आए तब फौरन इसे शाहजहां की कोठी में लेकर पहुंच जाना। कोई होशियारी की तो हड्डी-पसली तोड़कर अपाहिज बना देंगे। रानी के ससुर ने दूसरे ही दिन सामान बांधा था और बहू को साथ लेकर अपने बेटे के पास शहर जा पहुंचा था। हताश-निराश ससुर ने बस में बहू से हाथ जोड़कर विनती की थी कि उसके साथ जो हुआ उसे वह बुरा सपना समझ कर भूल जाए। अपने पति को कुछ भी न बताए। 

    संदेशखाली जहां पर शाहजहां ने अपने भाई तथा चंद शैतान साथियों के साथ वर्षों तक अपना शासन चलाया, वह बांग्लादेश का सीमावर्ती क्षेत्र है। सुंदरवन से घिरा यह इलाका अनुसूचित जाति और जनजाति बहुल है। शाहजहां के ठिकाने पर यदि ईडी नहीं पहुंचती तो यहां की असंख्य दलित और आदिवासी महिलाओं पर हुए घोर अत्याचार और बलात्कार की अनगिनत घटनाओं का देशवासियों को पता ही नहीं चल पाता। यह भी सच है कि शाहजहां की गुंडई को यदि राजनीतिक संरक्षण नहीं मिलता तो उसकी हैवानियत इस कदर नहीं फल-फूल पाती। यह उसका दबदबा ही था कि पुलिस भी उसकी साथी बनी हुई थी। लोग उसकी शिकायतें लेकर थाने जाते और वर्दीधारी शाहजहां और उसके पाले-पोसे गुंडों को शिकायतकर्ताओं के नाम और पत्तों से अवगत करा देते। मुंह खोलने का साहस दिखाने वाले की फिर वो शामत आती कि उसकी हड्डी-पसली एक हो जाती। बहन, बेटी, बहू की इज्जत भी सलामत न रह पाती। तृणमूल कांग्रेस के नेता शाहजहां ने लोगों की खेती की जमीनें छीन कर वहां छोटे-बड़े तालाब बना दिए और उनमें खारा पानी भर दिया। जहां कभी विभिन्न फसलों की पैदावार होती थी वहां मछली पालन कर करोड़ों की कमायी की जाने लगी। शाहजहां तथा उसके आतंकी गुर्गों ने खेल के अनेकों मैदान भी कब्जा लिए। जिन किसानों की जमीनें छीनी गयीं उन्हें एक धेला भी नहीं दिया गया। उलटे मार-पीटकर कही दूर भागने को मजबूर कर दिया गया। हजारों बांग्लादेशी घुसपैठियों को भारत की ज़मीन पर बसाने वाला जन्मजात अपराधी शाहजहां वर्षों तक खतरनाक हथियारों से लेकर गो-तस्करी और सोना तस्करी करता रहा, लेकिन शासन और प्रशासन ने आंखे और कान बंद रखे। इस सच को याद रखा जाना चाहिए कि जैसे ही लोगों को पता चला कि शेख शाहजहां लंबे समय तक जेल में सड़ने वाला है और उसके आकाओं ने फिलहाल उसके सर से संरक्षण के हाथ खींच लिये हैं, तो उन्होंने एकजुट होकर शाहजहां और उसके साथियों के घर पर हमला बोल दिया और यह संदेश भी दे दिया कि अपराधियों के आतंक का भय तभी तक रहता है, जब तक राजनेता और नौकरशाह उनके साथ बने रहते हैं।

Thursday, February 29, 2024

अक्ल और नकल

     उत्तरप्रदेश के शहर कन्नोज के एक होनहार युवक ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली। आपके मन में यह बात आ सकती है कि यह कौन सी नई बात है। अपने देश में युवाओं का मौत को गले लगाना तो आम बात है। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन किसी न किसी अखबार में यह खबर पढ़ने में न आती हो कि परीक्षा में फेल होने, नौकरी नहीं लगने, प्यार में धोखा खाने या किसी अन्य वजह से परेशान होने की वजह से युवक या युवती ने खुदकुशी न की हो। अच्छे खासे युवाओं की तनाव की वजह से आत्महत्या करने की खबरें भी देशवासियों के लिए रोजमर्रा की हकीकतें हैं। ब्रजेश पाल ने हाल ही में यूपी पुलिस में भर्ती होने के लिए परीक्षा दी थी। सरकारी नौकरी हासिल कर अपने परिवार को खुशहाल बनाने का उसका सपना था। इसके लिए उसने महीनों टूटकर मेहनत की थी। पेपर भी उसने अच्छे से हल किया था। उसने अपने दोस्तों से कहा भी था कि, उसका चयन होना निश्चित है, लेकिन जैसे ही उसे पेपर के लीक होने की खबर लगी तो उसे बहुत धक्का लगा। उसे लगने लगा कि उसका सपना अब पूरा नहीं हो पायेगा। वो लोग बाजी मार लेंगे, जिन्होंने जोड़-जुगाड़ कर पहले ही पेपर हासिल कर लिया था। उसकी अटूट मेहनत और डिग्री के कोई मायने नहीं हैं। निराशा से घिरा ब्रजेश चुप-चुप रहने लगा था। घरवालों से भी बात करने से कतराने लगा था। उसे बस यही चिंता खाये जा रही थी कि, उसके भविष्य का क्या होगा? आधी उम्र पढ़ते-पढ़ते निकल गई। ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा जो एक नौकरी न दिला सके। वह कब से सोचता आ रहा था कि, नौकरी लगने के बाद फटाफट पैसे जमा कर सबसे पहले किसी योग्य युवक से अपनी बहन की शादी करवायेगा। 22 फरवरी, 2024 की देर रात ब्रजेश ने आखिरकार फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा, ‘‘मां और बाबूजी, मुझे माफ कर देना। आप दोनों को मुझसे बहुत सी उम्मीदें थीं, लेकिन मैं आपको धोखा देने जा रहा हूं। मेरी मौत के बाद किसी को परेशान ना किया जाए। मैं अब और नहीं जीना चाहता। बस मेरा मन भर गया है। मेरी प्यारी मां, बाबूजी का ख्याल रखना और बोल देना कि हमारा तुम्हारा इतना ही साथ था। मेरी बहन संगीता की शादी अच्छे से लड़के से करना, भले ही हम नहीं होंगे। हमने बीएससी के सारे कागज जला दिए हैं। ऐसी डिग्री का क्या मतलब जो व्यर्थ हो। हमारी आधी उम्र इस डिग्री को पाने के लिए निकल गई।’’

    परीक्षा में पेपर लीक होने के बाद युवा सड़कों पर उतर आये। ऐसा भी नहीं कि यूपी में पहले कभी पेपर लीक नहीं हुए हों। परीक्षा के पेपर खरीदकर बिना मेहनत किये सफलता का झंडा नहीं गाड़ा गया हो, लेकिन इस बार यह धांधली चुनावी मौसम में हुई। लोकसभा चुनाव निकट होने के कारण उत्तरप्रदेश तथा केंद्र सरकार को चिंता और बेचैनी ने घेर लिया। क्रोध में उबलते छात्र-छात्राओं का कहना था कि हम लोग दिन-रात परीक्षा की तैयारी करते हैं। मां-बाप की हैसियत नहीं होती फिर भी उनका खर्चा करवाते हैं। उन्हें बेहतर भविष्य के सपने दिखाते हैं, लेकिन जब परीक्षा देने जाते हैं, तो पता चलता है कि, पेपर तो लीक हो चुका है। उसे परीक्षा के दिन से पहले ही धनवानों ने खरीद कर अपना मकसद पूरा कर हमारी मेहनत पर पानी फेर दिया है। हम मर-मर कर परीक्षा की तैयारी करते हैं, ताकि कुछ बन जाएं, लेकिन बाजी दूसरे मार ले जाते हैं। यह अन्याय वर्षों से हमारे साथ होता चला आ रहा है। पेपर माफिया और नकल माफिया को शासन और प्रशासन के लोग भी जानते हैं। इनकी आपसी मिलीभगत का भी कई बार पर्दाफाश हो चुका है। युवाओं के आक्रोश और विपक्ष के द्वारा इसे चुनावी मुद्दा बनाने की प्रबल संभावना को देखते हुए यूपी सरकार ने परीक्षाओं को रद्द करते हुए छह महीने के भीतर दोबारा परीक्षा कराने की घोषणा कर दी। हर बार की तरह सरकार ने यह आश्वासन भी दिया कि आगे से किसी भी परीक्षा में धांधली नहीं होने दी जाएगी। 

    सच तो यह है कि परीक्षाओं में नकल करने और करवाने तथा किसी भी तरह से परीक्षा से कुछ घंटे पहले पेपर पाने के खेल में छात्रों के माता-पिता भी हाथ आजमाने से नहीं घबराते। अधिकांश अभिभावकों का एक ही मकसद होता है कि किसी भी तरह से अपने बच्चों को परीक्षा में सफलता दिलवाना। इसके लिए वे किसी भी हद तक गिरने को तैयार हो जाते हैं। कोरोना की महामारी के दौरान जब स्कूल, कॉलेज बंद थे। लैपटाप, कम्प्यूटर, मोबाइल के माध्यम से पढ़ाई और परीक्षाएं हुईं तब ऐसे कम ही अभिभावक थे, जिन्होंने नकल को अपने बच्चों की सफलता का हथियार न बनाया हो। यूं तो हर परीक्षा केंद्र में मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा और चस्पा रहता है कि परीक्षा में नकल करना पाप है। नकलची छात्रों का भविष्य अंतत: अत्यंत अंधकारमय होता है, लेकिन कई कोचिंगबाज शिक्षक नकल करवाने के कीर्तिमान रचते देखे जाते हैं। यही कारोबारी शिक्षक पेपर लीक करने वालों से भी मिले रहते हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र के अकोला में बारहवीं की परीक्षा के पहले पेपर में बहन को कॉपी दिलाने के लिए भाई पुलिस की वर्दी पहनकर सीधे परीक्षा केंद्र जा पहुंचा। बहन को नकल कराने के लिए नकली पुलिस बने इस भ्राता ने वहां पर मौजूद असली खाकी वर्दीधारी अफसर को बड़े अदब के साथ सलाम भी ठोका। अफसर ने जब उसे गौर से देखा तो पाया कि उसकी वर्दी पर लगी नेमप्लेट गलत है। उसकी तलाशी ली गई तो उसके पास से अंग्रेजी विषय की एक कॉपी मिली। जेल जाने के भय से वह फूट-फूट कर रोने लगा। आज की तारीख में देशभर में ऐसे कई पुलिस अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, प्रिंसीपल, प्रशासनिक अधिकारी हैं, जिन्हें नकल ने अपनी मनचाही मंजिल तक पहुंचाया है। यह नकली असली पर बहुत भारी हैं।

Thursday, February 22, 2024

खरीद-फरोख्त की मंडी

    नेता बड़ी तेजी से अपना रंग बदलने लगे हैं। इनका कोई भरोसा नहीं। आज इस दल में तो कल पता नहीं किस दलदल में। जनता को भ्रम में रखने का इन्हें खूब हुनर आता है। झूठ पर झूठ बोलने में भी इनका कोई सानी नहीं। दस-बीस नेता फरेबी होते तो बात आयी गयी हो जाती, लेकिन यहां तो इस मामले में भी प्रतिस्पर्धा चल रही है। लोगों का माथा चकरा रहा है। कल तक जो घोर शत्रु थे, अछूत थे, झूम-झूम कर उन्हें गले लगाया जा रहा है। देश के हुक्मरान भी किधर जा रहे हैं? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मेल-मिलाप के इस अजूबे खेल ने वोटरों को असमंजस की जंजीरों में जकड़ कर रख दिया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के किले को खंडहर में तब्दील करने के जो मंजर नज़र आ रहे हैं, उनकी तो कल्पना ही नहीं की गई थी। जो नींव के पत्थर थे, वही खिसकते जा रहे हैं। दूसरे दलों के दिग्गज नेता भी भाजपा के जहाज की सवारी के लोभ में अपनी पुरानी कश्तियों में छेद कर उन्हें बड़ी बेशर्मी से डुबो रहे हैं। 

    कुछ ही हफ्तों के बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी भाजपा की तूफानी जीत का दावा करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति भी किसी पहेली से कम नहीं। देश की आम जनता मान चुकी है कि देश में कोई भी चेहरा मोदी जितना दमदार नहीं। विपक्ष जितना बेबस और बेचारा आज दिख रहा है, वैसा पहले कभी नहीं दिखा। दिखावे के तौर पर वह कुछ भी दावे करता रहे, लेकिन संपूर्ण विपक्ष जानता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी दाल नहीं गलने वाली। फिर भी मैदान में उतरना जरूरी है। नहीं उतरेंगे तो हंसी के पात्र बनेंगे। भविष्य चौपट हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार कहते नहीं थकते कि देश के सजग मतदाता भाजपा को 370 सीटों पर विजयी बनाने के साथ-साथ एनडीए को 400 के पार पहुंचा कर विपक्ष के होश ठिकाने लगायेंगे। ऐसे में प्रश्न यह है कि जब उन्हें इस कदर भरोसा है तो इधर की ईंटों और उधर के रोढ़ों को क्यों अपने साथ जोड़े जा रहे हैं? विपक्षी पार्टियों के नेताओं के काले अतीत को नजरअंदाज करने की पीछे कौन से मजबूरियां हैं? भाजपा तथा मोदी की साम, दाम, दंड और भेद की रणनीति कहीं उनकी अंदर की घबराहट का प्रतिफल तो नहीं? प्रधानमंत्री जीत का कोई भी रास्ता नहीं छोड़ना चाहते। हर बाधा को दूर कर लेना चाहते हैं? इसलिए सभी के लिए दरवाजे खोल दिए गये हैं! जगजाहिर बेइमानों को भी मालाएं पहनाकर तहेदिल से गले लगाया जा रहा है। जिन विधायकों, मंत्रियों, सांसदों के काले कारनामों के विरोध में कभी शोर मचाया करते थे, उनके गले में भाजपा का दुपट्टा पहनाना मोदी के कद को कहीं न कहीं घटा रहा है। यह अलग बात है कि इस तमाशे को राजनीति की रणनीति कहकर पल्ला झाड़ लिया जाए, लेकिन सजग भारतीयों को भाजपा का यह चलन अंदर ही अंदर चुभ रहा है। आहत और निराश तो भाजपा के वो नेता और समर्पित कार्यकर्ता भी हैं, जिन्हें अपनी पार्टी की यह नीति डराने लगी है। उन्हें अपनी वर्षों की मेहनत पर पानी फिरता नजर आने लगा है और भविष्य अंधकारमय लगने लगा है। उनके मन में बार-बार यह विचार भी आता है, जिस तरह से उनकी पार्टी खरीद-फरोख्त की मंडी में तब्दील हो रही है। सत्ता की सुरक्षा के लिए अशोभनीय समझौते करती चली जा रही है, तो ऐसे में उस विचारधारा और सिद्धांतों का क्या होगा, जिनके लिए उसे मान-सम्मान मिलता रहा है। अपनी पुरानी पार्टी को छोड़ नयी पार्टी में शामिल होकर दुपट्टा ओढ़ने वाले अधिकांश नेताओं की तिजोरियां नोटों से लबालब हैं। मतदाताओं को लुभाने और कार्यकर्ताओं को अपने पाले में लाने के हर गुर में यह धुरंधर पारंगत हैं। चुनावो में पानी की तरह धन बहाना इनके बायें हाथ का खेल है। अपने देश भारत में चुनावी लड़ाई अब पैसे वालों का मनोरंजक खेल भी बन चुकी है। कोई भी सरकार चुनावों में पैसों के दानवी खेल को खत्म नहीं करना चाहती। सरकारों को आखिर चलाते तो नेता ही हैं, जिन्हें अपना बहुमूल्य वोट देकर वोटर सांसद और विधायक बनाते हैं। यह सच अपनी जगह है कि बाद में वे उन्हें भूल जाते है और व्यापार की डगर अपनाते हैं। अभी हाल ही में मेरे पढ़ने में आया कि हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओबिन की चुनाव के दौरान जिन रईस दोस्तों ने आर्थिक सहायता की थी, बाद में उन्हीं को धड़ाधड़ सरकारी ठेके हासिल हुए और देखते ही देखते वे देश के सबसे अमीर शख्स बन गए। शातिर चतुर और चालाक लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि शीर्ष नेताओं से दोस्ती कितनी-कितनी फायदेमंद होती है। यह नजारा भारत में भी बड़ा आम है। यह कलमकार ऐसे विधायकों, मंत्रियों को जानता है, जो अपने करीबी रिश्तेदारों, दोस्तों तथा समर्पित कार्यकर्ताओं को सरकारी ठेके दिलवा कर उनकी बदहाली को खुशहाली में बदलने का काम करते हैं। इन चुने हुए जनप्रतिनिधियों के यहां चम्मचों की भीड़ लगी रहती है। उनकी खास कैबिन में शराब, खनिज और तरह-तरह की लूट का धंधा करने वाले खूंटा गाड़ कर जमे रहते हैं। आम जनता से मिलने के लिए ‘साहेब’ के पास वक्त ही नहीं होता।

Thursday, February 15, 2024

राजनीति के अस्त्र-शस्त्र

    इन दिनों देश की राजनीति का तापमान बड़ा अजब-गजब है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की बमबारी जोरों पर है। वैसे तो हर चुनाव से पहले नेता, राजनेता और उनकी भक्त मंडली ढोल- मंजीरे बजाने लगती है, लेकिन इस बार उठा-पटक और शोर-शराबा बहुत ज्यादा है। विपक्ष किसी भी हालत में नरेंद्र मोदी की कुर्सी छीनने का हठ पाले हुए है, लेकिन उसे यह भी पता है कि उसकी दाल नहीं गलने वाली। प्रियदर्शिनी इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ही दूसरे वो प्रधानमंत्री हैं, जिनके असीम भय से संपूर्ण विपक्ष भयभीत है। उसे अपनी उड़ान पर ही भरोसा नहीं। देश की सबसे पुरातन पार्टी कांग्रेस के तो कई दिग्गज नेता उसका दामन झटक कर भाजपा तथा दूसरे राजनीतिक दलों में कूच करने लगे हैं। गठबंधन की सतत खुलती-बिखरती गांठ भाजपा और मोदी को ताकत दे रही है। भाजपा के इस अद्भुत योद्धा ने सभी विपक्षी नेताओं की धड़कनें बढ़ा दी हैं। धड़कनें तो मीडिया की भी बढ़ी हुई हैं। पिछले दस साल से एकतरफा पत्रकारिता करते चले आ रहे पत्रकारों-संपादकों की कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। विपक्षी नेताओं की तरह इन पत्रकारों ने भी सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने की कसम खा रखी है। ये पत्रकार कौन हैं? सभी जानते हैं। 

    राजदीप सरदेसाई भी मोदी की खिलाफत करने वाले पत्रकारों, संपादकों में शामिल हैं। उनकी यह लत बीमारी का रूप ले चुकी है। यही हाल उनकी पत्नी सागरिका घोष का भी है, जिन्हें नरेंद्र मोदी में हजारों बुराइयां दिखती हैं। उनके शासन में हुए विकास कार्य नहीं दिखते। दरअसल वह देखना भी नहीं चाहतीं। उनके लिए यह अंधापन बहुत लाभकारी है। मोदी जी तो कुछ देने से रहे। जो भी मिलना है, विपक्ष से ही मिलना है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी ममता लुटाते हुए अपनी तृणमूल कांग्रेस पार्टी की तरफ से राज्यसभा की सांसदी की टिकट सागरिका की झोली में डाल दी है। उनके पति भी राज्यसभा जाने की राह देख रहे हैं। ये पति-पत्नी मोदी विरोधी अभियान में दिन-रात लगे रहते हैं। यदि उन्हें कोई बताता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कई विकासकार्य भी किये हैं, तो इनका पारा चढ़ जाता है। सभी माता-पिता अपनी औलाद को अपने पदचिन्हों पर चलते देखना चाहते हैं, लेकिन राजदीप के साथ तब बड़ी अनहोनी हो गयी जब उसके बेटे ने जयपुर से लौटने के पश्चात फोरलेन हाइवे की धड़ाधड़ तारीफें करनी प्रारंभ कर दीं। एकतरफा तीर चलाने वाले पत्रकार का तो माथा ही घूम गया। वे निरंतर अपने पुत्र का चेहरा देखते रह गये। यह क्या अंधेर हो गया। मेरा ही खून मेरे दुश्मन की तारीफ कर रहा है। इसकी अक्ल तो ठिकाने है? राजदीप के बेटे ने जब कहा, ‘मोदी जी को देखिए, उन्होंने सड़कों का कायाकल्प ही करके रख दिया है।’ जले-भुने पिता ने पुत्र को टोकते हुए कहा, नितिन गडकरी केंद्रीय सड़क मंत्री हैं, उन्होंने भी बड़ी मेहनत की है। प्रत्युत्तर में बेटा तपाक से बोला, ‘उसे सब पता है, लेकिन असली नायक तो मोदी जी ही हैं। उन्हीं के नेतृत्व और मार्गदर्शन में सभी मंत्री और अधिकारी काम करते हैं।’ अपने ही घर में मोदी समर्थकों का होना कई जन्मजात मोदी विरोधी पत्रकारों तथा नेताओं की नींद को उड़ा चुका है। लोकसभा चुनाव से ऐन पहले मोदी सरकार ने पहले कर्पूरी ठाकुर, फिर लालकृष्ण आडवाणी और उसके तुरंत बाद पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव, चौधरी चरण सिंह और वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को ‘भारत रत्न’ से सुशोभित करने की घोषणा कर अपने विरोधियों के पैरोंतले की जमीन ही छीन ली है। ‘भारत रत्न’ देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है। देश के विकास और बदलाव में उल्लेखनीय योगदान देने वाली शख्सियतों को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया जाता है। भारत रत्न के लिए देश के प्रधानमंत्री किसी भी व्यक्ति को नामित कर सकते हैं। मंत्रिमंडल के सदस्य, राज्यपाल और मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री को अपनी सिफारिश भेज सकते हैं। इन सिफारिशों पर प्रधानमंत्री की मुहर लगने के बाद ही राष्ट्रपति को अंतिम मंजूरी के लिए भेजा जाता है। ‘भारत रत्न’ देने की शुरुआत 1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कार्यकाल में हुई थी। 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ‘भारत रत्न’ दिया गया था। 1971 में इंदिरा गांधी को भी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया था। पाकिस्तान के अब्दुल गफ्फार खान और साउथ अफ्रीका के नेल्सन मंडेला भी ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किये जा चुके हैं। अब्दुल गफ्फार खान ने अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में अपना योगदान दिया था। साउथ अफ्रीका के गांधी कहे जाने वाले नेल्सन मंडेला ने काले-गोरे का भेद मिटाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी। 

    ‘भारत रत्न’ को लेकर विवाद-प्रतिवाद भी होते रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि ‘भारत रत्न’ देने के पीछे राजनीति का अहम योगदान होता है। सरकार के समर्थकों के हिस्से में ही ज्यादातर ‘भारत रत्न’ सम्मान आता है। इस बार के ‘भारत रत्न’ को लेकर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निशाने पर हैं। निशानेबाज भूल गये हैं कि अपने ही देश में दो प्रधानमंत्री खुद को ही ‘भारत रत्न’ से सुशोभित करने का कीर्तिमान रच चुके हैं। मोदी ने तो ऐसा कोई कारनामा नहीं किया। राजनीति के खेल में विरोधियों को जरूर अस्त्र विहीन किया है। उन्होंने जिन्हें इस गौरवशाली पुरस्कार से नवाजा है वे उनके रिश्तेदार नहीं हैं। इनकी देश सेवा की गाथाएं इतिहास में दर्ज हैं। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री, पिछड़ा वर्ग के परम हितैषी जननायक कर्पूरी ठाकुर ने देश में पहली बार पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था करके सामाजिक न्याय को नयी दिशा दी थी। जाट और किसान नेता पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को आर्थिक सुधारों, अच्छे शासन-प्रशासन के लिए जाना जाता है। प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी वो कर्मठ नेता हैं, जिन्होंने भाजपा को बुलंदियों पर पहुंचाया। कृषि वैज्ञानिक हरितक्रांति के जनक एमएस स्वामीनाथन महात्मा गांधी से अत्यंत प्रभावित थे। देश की गरीबी और भुखमरी से हमेशा परेशान और चिंतित रहने वाले इस किसान प्रेमी का एक ही मकसद था, देश में सर्वत्र खुशहाली लाना। देश के हर व्यक्ति को तीन वक्त का पोषक आहार मिले। कोई भी भूखा न रहे। स्वामीनाथन इकलौते ऐसे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक के साथ काम किया था। गौरतलब यह भी है कि स्वामीनाथन का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। वे पूरी तरह से गैर-सियासी हस्ती थे। यहां आरएलडी नेता जयंत चौधरी का बयान भी काबिलेगौर है कि मोदी सरकार ने उनके दादा चौधरी चरण सिंह को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर उनका दिल जीत लिया है।

Thursday, February 8, 2024

असरकारी सफर

    कुछ खबरें बड़ी ही दिल को छू लेने वाली होती हैं। बनी-बनायी धारणाओं को चकना-चूर करने वाली खबरों की नायिकाएं और  नायक बड़ी तेजी से दिल-दिमाग में बस जाते हैं। उन्हें याद करना बहुत सुहाता है। दूसरों को भी उनके बारे में बार-बार बताने का मन हो आता है...। आईए सबसे पहले मिलते हैं राजस्थान के शहर अलवर की पायल से। पायल कक्षा नौंवी में पढ़ रही है। उम्र है 14 वर्ष। पायल जब मात्र छह वर्ष की थी तब खेत में बॉल पकड़ने के लिए दौड़ रही थी तभी अचानक उस पर 11 हजार वोल्ट की बिजली की लाइन टूट कर आ गिरने से उसके दोनों हाथ करंट से जल गए। उसकी जान तो बच गई, लेकिन दोनों हाथ जिस्म से अलग करने पड़े। छह साल की बच्ची को ज्यादा समझदार नहीं समझा जाता, लेकिन पायल को विधाता ने किसी और ही मिट्टी से रच कर धरा पर भेजा है। तभी तो उसने मात्र 18 दिन में ही हाथों के सदा-सदा के लिए छिन जाने के गम को भुलाते हुए पैरों से ही लिखना सीख लिया। डॉक्टरों ने जो कृत्रिम हाथ लगाए उन्हें डेढ़-दो माह में ही हटा दिया। डॉक्टर हैरान स्तब्ध थे। ऐसी हिम्मती बच्ची तो पहले उन्होंने नहीं देखी। शरीर के घाव भरे भी नहीं, स्कूल जाने लगी। उसे किसी की दया पर जीना पसंद नहीं। दिव्यांग कहलाना भी उसे बिलकुल नापसंद है। आठवीं की बोर्ड परीक्षा में दिव्यांग बच्चों को मिलने वाली अतिरिक्त समय की सुविधा को उसने लेने से साफ मना करते हुए प्रिंसिपल को अपनी नाराजगी जताते हुए कहा कि, मैडम मेरे हाथ नहीं हैं, इसलिए मुझ पर रहम कर दूसरों से ज्यादा समय दे रही हैं...! मैं सभी के टाइम में ही  पेपर हल करूंगी। उसे समझाया गया कि यह तो बोर्ड का नियम है। यह उसका अधिकार है, लेकिन पायल नहीं मानी। पायल आईएएस बनना चाहती है। सभी का यही कहना है कि हौसले और उत्साह से लबालब यह लड़की अपने हर सपने को साकार कर दिखाएगी...। 

    नागपुर की नेत्रहीन ईश्वरी पांडे ने तो इतिहास ही रच दिया। मुंबई के एलीफेंटा से गेटवे ऑफ इंडिया की समुद्री दूरी 4 घंटे, 2 मिनट में पूर्ण कर समुद्र के ठंडे पानी और ऊंची-ऊंची लहरों के होश ठिकाने लगा दिए। अद्भुत साहस से ओतप्रोत ईश्वरी की इस शानदार प्रेरक उपलब्धि को एशियन बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज कर गौरवान्वित किया गया है।

    भारत की राजधानी दिल्ली में रहती हैं, पूजा शर्मा। 26 साल की हैं। अभी तक 4000 लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं। 13 मार्च, 2022 को पूजा के तीस वर्षीय बड़े भाई की मामूली-सी बात पर गुंडों ने गोली मार कर हत्या कर दी थी। तब पिता को तो इस कदर धक्का लगा था कि वे कोमा में चले गए थे। पूजा ने भाई को खोने के गम में डूबने की बजाय उन शवों का अंतिम संस्कार करने का पक्का मन बना लिया, जिन्हें लावारिस माना जाता है। अपने भाई का अंतिम संस्कार करने के दूसरे दिन से उसने दूसरों की मदद का जो संकल्प लिया वो आज भी बरकरार है। पूजा ऐसे शवों के बारे में पुलिस और अस्पतालों से जानकारी जुटाती हैं, जिनके परिवार या फिर सगे संबंधी नहीं होते। अब तो अस्पताल तथा पुलिस वाले भी पूजा को तुरंत लावारिस शवों की खबर कर देते हैं और पूजा दौड़ी-दौड़ी पहुंच जाती हैं और समर्पित भाव से अंतिम संस्कार की व्यवस्था करवाती हैं। अपने भाई को खोने से मिले अथाह दुख को दूसरों की सेवा करने के मिशन में तब्दील कर चुकी पूजा किसी प्रेरक ग्रंथ से यकीनन कम तो नहीं। उसके लिए सभी धर्मों के लोग एक समान हैं। शव चाहे हिंदु का हो, मुसलमान का हो सिख या ईसाई का हो वह तो बिना भेदभाव के अपना धर्म निभाती है...। 

    यह सच अपनी जगह अटल है कि जिनमें सेवाभाव का ज़ज्बा होता है वे धर्म और जात से परे होते हैं। नारंगी नगर नागपुर के निकट स्थित कामठी में एक हिंदू व्यक्ति के शव को मोक्षधाम ले जाने के लिए गाड़ी नहीं मिल रही थी। यह खबर जब मुस्लिम कब्रिस्तान कमेटी के सचिव इलाही बक्श तक पहुंची तो उन्होंने फूलचंद के शव को मोक्षधाम पहुंचाने के लिए कब्रिस्तान की गाड़ी भेजने में किंचित भी देरी नहीं की। कई बार छोटे बच्चे बड़ों को बहुत बड़ी सीख देते हैं। दिल्ली की एक अदालत में पति-पत्नी के बीच तलाक का केस अंतिम चरण में था। उनके मध्यस्थ ने उनसे अंतिम बार पूछा कि क्या आप दोनों साथ रहना चाहते हैं। हमेशा की तरह उन्होंने कहा, बिलकुल नहीं...। उन दोनों का 11 साल का एक बेटा भी है, जो तब कोर्ट में मौजूद था। अपने मां-बाप के फैसले को सुनते ही वह रोने लगा। जज ने बच्चे को रोता देख पूछा, बेटे आप दोनों में से किसके साथ रहना चाहेंगे? बच्चे का जवाब था, जज अंकल मुझे तो मम्मी-पापा दोनों के साथ रहना है। जज ने बच्चे को समझाते हुए कहा कि बेटा, आप के मम्मी-पापा की आपस में नहीं बनती, इसलिए उनका तलाक हो रहा है। इसमें ही उनकी खुशी है। बच्चे ने मासूमियत भरे लहजे में कहा, जज अंकल ऐसे में मुझे भी इनके साथ नहीं रहना है। मुझे इन दोनों से तलाक दिलवा कर कहीं और भेज दीजिए। बच्चा अपने मन की बात कहते-कहते फिर रोने लगा। मां-बाप ने उसे चुप कराने की तो कोशिश की पर वह उनका हाथ झटक कर जज के पास चला गया। बच्चे के इस बर्ताव ने माता-पिता को झकझोर कर रख दिया। दोनों की आंखों ही आंखों में बात हुई और तुरंत अलग कमरे में चले गए। आधे घंटे बाद कोर्ट के समक्ष आकर उन्होंने कहा, ‘वे भी अपने बच्चे से अलग रहकर नहीं जी पाएंगे। आपसी मनमुटाव और रोज की किचकिच में उलझ कर उन्होंने अपने बच्चे को ही भुला दिया था।’ अब दोनों ने तलाक नहीं लेने का निर्णय किया है। इसके साथ ही एक दूसरे के खिलाफ दायर सभी मुकदमे वापस लेने जा रहे हैं...।

Thursday, February 1, 2024

ज्ञानी-अज्ञानी

    यह तरक्की नहीं, अवनति है, दुर्गति है। सदाचार नहीं, अनाचार है। अपने देश के ये कैसे हाल हैं? हर कोई ईमानदारी के रास्ते पर चलने का हिमायती है। सभी को धोखाधड़ी से नफरत है। हर कोई भरोसे की डोर टूटने पर आहत होता है। सभी धूर्तों, धोखेबाजों और कपटियों से घृणा करते हैं। बेईमान और भ्रष्टाचारी भी किसी को पसंद नहीं। फिर भी बहुतेरे भारतीयों को छल कपट और पीठ पर छुरा घोंपने में कोई परहेज नहीं! अपने देश में कुछ पेशे ऐसे हैं, जिनके प्रति श्रद्धा, आस्था और विश्वास विद्यमान है। वकील और वकालत भी उन्हीं पेशों में शामिल है। जिस तरह से डॉक्टर के पास बीमार इस उम्मीद के साथ जाता है कि वह उसकी देखरेख में शीघ्र रोग मुक्त होगा। स्वस्थ होकर अस्पताल से घर लौटेगा। इसी तरह से हर पीड़ित को वकील के माध्यम से शीघ्रता-शीघ्र न्याय पाने की आस होती है। जिस तरह से मरीज डॉक्टर से अपनी बीमारी की कोई बात नहीं छुपाता उसी तरह से न्याय का अभिलाषी इंसान वकील को पूरी हकीकत बता देता है। 

    केरल की पुलिस हाईकोर्ट के सीनियर वकील पीजी मनु को दबोचने के लिए शहर-शहर-गांव-गांव की खाक छान रही है। इस धूर्त वकील के खिलाफ लुकआउट नोटिस भी जारी कर दिया गया है। इस वकील ने वकालत के सेवाभावी पेशे को कलंकित किया है। हुआ यूं कि एक तीस वर्षीय महिला किसी दुराचारी की हवस का शिकार होने के पश्चात इस वकील के पास कानूनी सलाह लेने के लिए गई थी। किसी ने उसे इस वकील का नाम सुझाया था। सजी-धजी खूबसूरत महिला की आपबीती सुनते-सुनते वकील की नीयत में खोट आ गया। उसने महिला को मामले पर चर्चा करने के बहाने अपने घर के अंदर बुलाया और दरवाजा बंद कर उसका रेप करने के साथ-साथ अश्लील तस्वीरें भी खींच डालीं। हैरान, परेशान महिला ने वकील की हरकत का पुरजोर विरोध किया तो शातिर वकील ने मामले को पलट देने और उसे ही आरोपी बना फसाने की धमकी दे दी। वह वॉट्सएप कॉल और चैट के जरिए उससे जब-तब अश्लील बातें भी करने लगा। एक दिन जब पीड़िता के घर पर कोई नहीं था तो शैतान-हैवान वकील उसके घर में जबरन घुस गया। बार-बार उसकी अंधी हवस की शिकार होती महिला ने आखिरकार पुलिस की शरण ली तो बलात्कारी वकील फरार हो गया...। 

    आज के दौर में सोशल मीडिया के प्रति जो दीवानगी है, वह बहुत ही अद्भुत है। यह कहना गलत नहीं लगता कि बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी इसके नशे की जबरदस्त गिरफ्त में हैं। एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में भारत इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में दूसरे स्थान पर है। गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी की मार झेल रहे देश में सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर लोग औसतन ढाई घंटे से ज्यादा वक्त बिताते हैं। अखबारों और न्यूज चैनलों की खासी जगह सोशल मीडिया ने हथिया ली है। अधिकांश खबरें और विभिन्न सूचनाएं सोशल मीडिया तुरंत उपलब्ध करवा देता है। एक-दूसरे से संपर्क में रहने का भी सशक्त जरिया बन गया है सोशल मीडिया, लेकिन इसका बड़ी तेजी से दुरुपयोग भी होने लगा है। असम के सिलचर शहर में रहने वाली संचाइता भट्टाचार्या नामक युवती ने सोशल मीडिया पर खुद को कैंसर की गंभीर रोगी बताकर परिचितों और अपरिचितों से करोड़ों रुपये ऐंठ लिए। इस युवती को कहीं न कहीं से प्रेरणा तो जरूर मिली होगी। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर खुद को अपाहिज, बीमार, दुखियारा दर्शाकर फंड जमा करने वालों की भीड़ लगी रहती है। इनमें कुछ वास्तव में मजबूर और जरूरतमंद होते हैं, जिनकी यकीनन सहायता की जानी चाहिए। एक दूसरे के काम आना ही सच्ची मानवता है, लेकिन इन ठगों और लुटेरों की शिनाख्त कैसे की जाए। इन धूर्तों से कैसे निपटा जाए? संचाइता भट्टाचार्या ने सोशल मीडिया पर मदद की गुहार लगाते हुए लिखा कि वह गरीब, अनाथ, आदिवासी युवती है। वह कैंसर की जानलेवा बीमारी से लड़ते-लड़ते थक चुकी है। वह जीना चाहती है, लेकिन इलाज के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। संचाइता को सहायता करने वाले भावुक और परोपकारी लोगों की कतार लग गई। देश और विदेश से उसे जो धन मिला वो लाखों नहीं करोड़ों में था। उम्मीद से ज्यादा धन झोली में भरने के पश्चात उसने बड़े ही शातिराना तरीके से अपनी मौत की खबर भी फैला दी, लेकिन उसी के दोस्त ने ही उसकी पोल खोल दी। इस दोस्त को भी अंधेरे में रखकर संचाइता ने उससे लाखों रुपये की ठगी की थी। प्रेमिका के फ्राड का शिकार हुए प्रेमी ने ही पर्दाफाश किया कि संचाइता को डेंगू हुआ था। डेंगू की रिपोर्ट में हेरफेर कर उसने खुद को स्टेज-4 की कैंसर रोगी दर्शाकर सहानुभूति बटोरी और अनेकों लोगों के साथ धोखाधड़ी कर डाली। 

    हर बीमारी का इलाज सक्षम डॉक्टर ही कर सकता है। उस पर कैंसर तो ऐसा रोग है, जो बड़े-बड़े जिगरवालों को पस्त कर देता है, लेकिन फिर भी अपने ही देश में कई ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को सही इलाज और अटूट मनोबल के दम पर परास्त कर दिखाया है। यह पढ़-सुनकर हैरत होती है कि कई लोग आज भी घोर अंधविश्वास के चक्रव्यूह में बुरी तरह से फंसे हैं। उन्हें अस्पताल से ज्यादा तंत्र-मंत्र आकर्षित करते हैं। अनुभवी चिकित्सकों की बजाय ढोंगी बाबाओं के दरबार उन्हें हितकारी लगते हैं। राजधानी दिल्ली के रहने वाले एक परिवार के पांच साल के बच्चे को ब्लड कैंसर ने जकड़ लिया था। बच्चे तो अपने मां-बाप पर ही आश्रित होते हैं। अच्छी देखभाल और सिद्धहस्त डॉक्टर से इलाज करवाना उन्हीं का दायित्व होता है, लेकिन इस बच्चे के मां-बाप के कान में किसी ने मंत्र फूंका कि गंगा मैया की शरण में जाने से बच्चा नाचने-कूदने लगेगा। बच्चे के माता-पिता कड़ाके की ठंड में बच्चे को गंगा स्नान कराने के लिए हरिद्वार जा पहुंचे। बच्चे की मौसी भी उनके साथ थी। गंगा के तट पर पहुंचे श्रद्धालुओं ने कंपकंपा देने वाली ठंड से बचने के लिए गर्म कपड़े पहन रखे थे। उम्रदराज बड़े-बूढ़े शॉल और कंबल में होने के बावजूद कांप रहे थे। हरिद्वार में ही कई लोग भीषण जाड़े के कारण दम तोड़ चुके थे। पूरी धार्मिक नगरी कड़ाके की सर्दी से ठिठुर रही थी। बच्चे के जिस्म पर एक भी कपड़ा नहीं था। मौसी ने जोश ही जोश में बीमार-निर्वस्त्र बच्चे को काफी देर तक ठंडे पानी में डुबोये रखा, जिससे मासूम के प्राण पखेरू उड़ गये। फिर भी मौसी यही कहती रही कि गंगा मैया बच्चे को जिन्दा कर देंगी। आसपास खड़े लोग उसे कोस रहे थे, लेकिन वह उन्हीं पर ऐसे हंसे जा रही थी जैसे वे हद दर्जे के मूर्ख हों और वह अंतर्यामी और महाज्ञानी हो...।

Thursday, January 25, 2024

कलंक

चित्र-1 : 2024 के जनवरी माह ने अपनी आंखें अभी पूरी तरह से खोली भी नहीं थीं कि मन-तन को कंपकंपाने और सोच पर हथौड़े बरसाने वाली खबरें आने लगीं। रक्षकों के भीतर कैद भक्षक बाहर निकलकर तांडव मचाने लगे। फिर अंधश्रद्धा भारी पड़ी और भरोसे के परखच्चे उड़ गये। बेटे की चाहत में बेटियों की हत्या की खबरें तो हम सबने बहुतों बार पढ़ी-सुनीं, लेकिन मध्यप्रदेश के बैतूल शहर के एक पिता ने बेटी की चाह में बेटे को गला दबाकर मार डाला। इस क्रूर बाप के दो बेटे हैं। बड़ा सात साल तो छोटा पांच साल का। उसकी पत्नी तीसरी बार गर्भवती हुई थी। निर्दयी पति को यकीन था कि इस बार जरूर बेटी होगी, लेकिन जैसे ही बेटे का जन्म हुआ तो उसका खून खौल उठा। वह पत्नी को डांटने-फटकारने लगा। तुमने बेटी पैदा क्यों नहीं की? पत्नी क्या जवाब देती! उसकी चुप्पी बेवकूफ पति को शूल-सी चुभी। अंधाधुंध शराब पीकर उसने पत्नी को जीभरकर पीटा। पत्नी यह सोचकर घर से बाहर निकल गई कि थोड़ी देर में उसका गुस्सा ठंडा हो जाएगा। लगभग पौन घंटे के बाद वह वापस लौटी तो उसने अपने बारह दिन के नवजात को मृत पाया। 

चित्र-2 : मां तो ममत्व से परिपूर्ण होती है। अपनी संतान उसे जान से भी प्यारी होती है। उसके लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने से कभी पीछे नहीं हटती। शास्त्रों में कहा भी गया है कि माता कुमाता नहीं होती। बच्चे भले ही कैसे हों। पढ़ी-लिखी खूबसूरत नज़र आने वाली लगभग चालीस वर्षीय हावर्ड यूनिवर्सिटी की रिसर्च फेलो रह चुकी नामी कंपनी की सीईओ सूचना सेठ ने गोवा के एक होटल में अपने चार साल के मासूम बेटे को तड़पा-तड़पा कर मार डाला। बैंगलुरू की रहने वाली सूचना की पति से बिलकुल नहीं निभती थी। दोनों के बीच तलाक का केस चल रहा था। अदालत ने आदेश दिया था कि वह हर रविवार को बेटे को पिता से मिलवाएगी, लेकिन सूचना नहीं चाहती थी उसका पति बच्चे से मिले। वह उसे अपने पिता से दूर रखना चाहती थी। अहंकारी और क्रोधी पत्नी की सोच थी कि बच्चे के कारण ही उसे अपने पति का चेहरा देखना पड़ता है। उसके मन में इस सच को लेकर भी गुस्सा भरा था कि बेटे का चेहरा उसके पिता से मिलता है। जिसे वह देखना नहीं चाहती। बेटे को उसके पिता से हमेशा-हमेशा के लिए अलग करने के लिए ईर्ष्यालु सूचना बेंगलुरु से गोवा चली गई। वहां पर उसने अपने ही हाथों अपनी कोख उजाड़ दी। उसे भ्रम था कि उसका अपराधी चेहरा कभी भी दुनिया के सामने उजागर नहीं होगा। हर शातिर अपराधी की यही सोच होती है। ममता के रिश्ते को तार-तार करने वाली इस हत्यारिन मां की सारी जिंदगी अब जेल की सलाखों में ही कटेगी। कोई भी दांवपेच उसे बचा नहीं सकता। 

चित्र-3 : अपने करीबी रिश्तेदार की मौत किसे गमगीन नहीं करती? मां-बाप-भाई-बहन के जुदा होने की कल्पना ही चिंताग्रस्त कर देती है। मन उदास हो जाता है। परमपिता परमेश्वर से बस यही प्रार्थना की जाती है कि खून के रिश्तों की डोर हमेशा सलामत रहे। उनमें ज़रा-सी भी आंच न आए, लेकिन...! उत्तरप्रदेश की धार्मिक नगरी मथुरा में धन संपत्ति को पाने के लालच में तीन बेटियों ने श्मशान घाट पर जो तमाशा किया उसे देख सभी स्तब्ध रह गये। यह बात किसी से छिपी नहीं कि महिलाएं श्मशान घाट पर नहीं के बराबर जाती हैं। मथुरा में एक उम्रदराज मां की मौत के बाद श्मशान घाट पर उसकी चिता को जलाने की तैयारी चल रही थी तभी भागते-भागते उसकी दो बेटियां वहां आ पहुंचीं। तीसरी पहले से ही वहां उपस्थित थी। पहले तो तीनों बहनों ने मां की जमीन-जायदाद को लेकर आपस में बातचीत की। फिर देखते ही देखते लड़ने-झगड़ने लगीं। अंतिम संस्कार कराने के लिए पहुंचे पंडित ने उनसे झगड़े की वजह पूछी तो पता चला कि मृतका का कोई बेटा नहीं है। सिर्फ तीन बेटियां हैं। बड़ी बेटी मां के कुछ ज्यादा ही करीब थी। बीमार मां की उसने भरपूर देखभाल और सेवा भी की थी। इसी वजह से मां ने अपनी जायदाद का बड़ा हिस्सा उसके नाम कर दिया था। अस्पताल में इलाज के दौरान मां चल बसी। बड़ी बेटी ने मां के शव को रिश्तेदारों के सहयोग से मोक्षधाम पहुंचाया। दोनों छोटी बहनों को जैसे ही मां के चल बसने की खबर मिली तो वे भी भागती-दौड़तीं मोक्षधाम पहुंचकर तमाशा करने लगीं। रिश्तेदारों ने उन्हें शांत रहने को कहा तो वे और भड़क उठीं। दोनों ने जिद पकड़ ली कि जब तक संपत्ति उनके नाम नहीं होगी, तब तक वे अंतिम संस्कार नहीं होने देंगी। चाहे कुछ भी हो जाए। किसी ने पुलिस को खबर पहुंचा दी, लेकिन पुलिस की भी लालची बेटियों ने एक नहीं सुनी! अपनी जिद पर अड़ी रहीं। शव आठ से नौ घंटे तक श्मशान घाट पर पड़ा रहा। तमाशा देखने के लिए बाहर से भी लोग अंदर आकर जमा हो गये। कई लोगों ने उन्हें मनाने-समझाने की कोशिशें कीं, लेकिन वे अंतत: तब जाकर मानीं जब स्टाम्प पेपर पर लिखित समझौता हुआ, जिसमें लिखा गया कि, मां की बची हुई जमीन-जायदाद पर इन दोनों बहनों का ही हक होगा। बड़ी की कोई भी दखलअंदाजी नहीं चलेगी। उसने पहले ही मां को बहला-फुसलाकर अपना हिस्सा ले लिया है...।

चित्र-4 : नागपुर में स्थित पोस्टमार्टम गृह में बीते सोलह वर्षों से मृत शरीरों की चीरफाड़ करते चले आ रहे अरविंद पाटिल का कहना है कि उन्हें मुर्दों से नहीं, जीवित इंसानों से ही डर लगता है। अरविंद अभी तक पैंतीस हजार से अधिक मुर्दों का पोस्टमार्टम कर चुके हैं। पोस्टमार्टम गृह में जाने से अधिकांश लोग कतराते और घबराते हैं। यह भी कहा जाता है कि अस्पतालों में पोस्टमार्टम करने वाले कर्मचारी बिना शराब पिये निर्जीव जिस्म को हाथ तक नहीं लगाते, लेकिन अरविंद इसके अपवाद हैं, जिन्हें पोस्टमार्टम करने से पहले कोई नशा-वशा नहीं करना पड़ता। जब पहली बार अरविंद ने डॉक्टर के निर्देश पर मृत देह का पोस्टमार्टम किया था तब उन्हें जरूर परेशानी हुई थी। पूरी रात आंखों के सामने वही दृष्य आता रहा था। अब तो मृतक शरीर के अंगों को अलग करने, चीर-फाड़ करने, जिस्म को फिर से सिलने की आदत हो गई है। किसी की क्षत-विक्षत लाश देखने के बाद जब उसकी मौत की वजह का पता चलता है तो जरूर रातों की नींद गायब हो जाती है। ट्रेन के सामने कूदकर, गले में फांसी का फंदा लगाकर, जहर खाकर खुदकुशी करने वाले काश! ऐसा घातक कदम उठाने से पहले अपने माता-पिता, पत्नी, पति, भाई, बहनों आदि के बारे में सोचते-विचारते, धैर्य का दामन थामे रहते, किसी करीबी को अपने गम से अवगत करा देते तो यह नौबत टल जाती। अपनों की हत्या करने वालों पर तो रह-रहकर गुस्सा आता है। अभिभावक यह क्यों भूल जाते हैं कि औलाद तो पालन-पोषण के लिए होती है। मां-बाप का तो दायित्व ही है, अपने बच्चों के भविष्य को संवारना। उनकी हत्या करना दुनिया का सबसे घृणित पाप है। अक्षम्य अपराध है...।

Thursday, January 18, 2024

सबके हैं राम...

    ‘‘राम आएंगे तो अंगना सजाऊंगी, दीप जला के दिवाली मनाऊंगी। मेरे जन्मों के सारे पाप मिट जाएंगे, राम आएंगे, मेरी झोपड़ी के भाग आज खुल जाएंगे...।’’ ऐसा कोई भी इंसान नहीं होगा, जिन्हें भजन की इन पंक्तियों ने मंत्रमुग्ध नहीं किया होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जब इस भजन को सुना तो भाव विभोर हो गये। तहेदिल से की गई उनकी सराहना ने इस भजन की गायिका को रातों-रात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया। सभी के मन में इस मनभावन भजन की गायिका स्वाति मिश्रा के बारे में जानने की उत्सुकता जाग उठी। बिहार के छपरा की रहने वाली स्वाति मिश्रा इन दिनों मुंबई वासी हो चुकी हैं। स्वाति 22 जनवरी, को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में यह भक्ति गीत गाना चाहती हैं,

‘‘मेरी चौखट पर चलकर आज 

चारों धाम आए हैं

बजाओ ढोल स्वागत में

मेरे घर राम आये हैं

कथा शबरी की जैसे

जुड़ गई मेरी कहानी से

ना रोको आज धोने दो चरण

आंखों के पानी से

बहुत खुश हैं मेरे आँसू

की प्रभु के काम आए हैं

बजाओ ढोल स्वागत में

मेरे घर राम आए हैं।

तुमको पा के क्या पाया है,

सृष्टि के कण-कण से पूछो

तुमको खोने का दु:ख क्या है,

कौशल्या के मन से पूछो

द्वार मेरे ये अभागे,

आज इनके भाग जागे, 

बड़ी लंबी इंतजारी हुई रघुवर तुम्हारी

तब आई है सवारी

संदेशे आज खुशियों के

हमारे नाम आये हैं, 

बजाओ ढोल स्वागत में

मेरे घर राम आये हैं...।’’

    भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर के करीब से दर्शन करने के लिए हर भारतीय लालायित है। सरयू तट पर बसी श्री रामजन्म भूमि अयोध्या का कायांतरण किया जा चुका है। रामभक्तों के स्वागत के लिए अयोध्या के चौक-चौबारे और तमाम रास्ते सज-धज चुके हैं। धर्मनगरी की साफ-सफाई, सजावट और रंगबिरंगी रोशनाई गहराई तक लुभा रही है। देश और विदेश में रहने वाले कई श्रीराम भक्तों को रामोत्सव में शामिल होने के लिए निमंत्रित किया गया है। इस पावन अवसर पर देशभर के संत-महात्मा और गणमान्य हस्तियां उमंग-तरंग के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने जा रही हैं। देश ही नहीं, विदेशों के पर्यटकों व श्रद्धालुओं के लिए अत्याधुनिक टाउन शिप में आलीशान होटल, रिवरसाइड, बहुमंजिला इमारतें, आवासीय कॉलोनी, मॉल, रेस्टारेंट निर्मित हो चुके हैं। आश्रम और गुरूकुल बनाए जाने वाले हैं। श्रीराम नगरी के सभी होटल तथा गेस्ट हाऊस बुक हो चुके हैं। सुरक्षा के तगड़े इंतजाम किये गए हैं। देश के एक शीर्ष उद्योगपति का कहना है कि, हमें इस आयोजन का बेसब्री से इंतजार है। यह सभी हिंदुओं और भारतीयों के लिए बड़ा दिन है। सच तो यह है कि हमारे लिए यह एक आध्यात्मिक यात्रा है।  भगवान राम ने सबको आत्मसात किया था। श्रीराम सही मायनों में उच्चतम आदर्शों को स्थापित करने वाले नायक हैं। आत्मियता, करुणा, आदर-सत्कार, सर्व मंगलकामना, क्षमा, धैर्य, सौंदर्य और शक्ति के पर्याय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सबके हैं। सभी को उनसे सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। रिश्तों को कुशलतापूर्वक निभाने की सीख मिलती है। भौतिक सुखों के जाल से बचते हुए अपने कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करने का उत्साह और मनोबल मिलता है। एक आदर्श पुत्र, भ्राता, पति और न्यायप्रिय नायक हैं श्रीराम। कोई भी व्यक्ति सतत साधना और परिश्रम का श्रीराम के गुणों को अंगीकार कर सकता है और प्रतिष्ठा के शीर्ष पर पहुंच सकता है। श्रीराम के जन्मस्थली अयोध्या का अर्थ ही है, अमन और शांति की ऐसी पवित्र धरा, जहां कभी युद्ध न हुआ हो। इस अलौकिक धर्म नगरी क्षेत्र में आठ मस्जिदें और चार कब्रिस्तान मौजूद हैं। यहां कुछ मस्जिदें ऐसी भी हैं, जो राम जन्म भूमि अधिग्रहित परिसर से महज सौ मीटर की दूरी पर हैं। इन पर बाकायदा लाउडस्पीकर बंधे हुए हैं, जिनसे पांचों टाइम अजान दी जाती है। इस धर्म क्षेत्र में चार गुरुद्वारे और दो जैन मंदिर भी हैं। यहां पर सभी धर्मों के लोगों का आपसी मेल-मिलाप और सद्भाव देखते बनता है। वैसे तो भारत का जन-जन सदियों से रामायण और गीता के बहुत करीब रहा है, लेकिन राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह की तारीख की घोषणा के बाद लोगों में धार्मिक ग्रंथों के प्रति रुझान और सम्मान काफी ज्यादा देखा जा रहा है। देश में धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली गीता प्रेस को रामचरितमानस की मांग को पूरा करने के लिए दिन-रात परिश्रम करना पड़ रहा है। देश और विदेश के आस्थावान लोगों की मांग के कारण रामचरितमानस को गीता प्रेस की वेबसाइट पर अपलोड कर दिया गया है, जिसे मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है। सच तो यही है कि पूरे देश का वातावरण राममय हो गया है। बाजारों में श्रीराम की सोने-चांदी की मूर्तियों, सिक्कों, आभूषणों, वस्त्रों आदि को खरीदने के लिए बढ़ती भीड़ से व्यापारी खुश और उत्साहित हैं। बाग-बगीचों तथा गली-मोहल्लों में श्रीराम, जय राम की मधुर धुनों से लेकर विविध भक्ति गीतों की मधुर स्वर लहरियां आत्मिक सुख से रूबरू करा रही हैं। अब तो बुजुर्गों की देखादेखी युवा भी ‘गुड मार्निंग’ को किनारे कर राम...राम और जय श्रीराम के उच्चारण से एक दूसरे का अभिवादन करने लगे हैं। भारत की कई गर्भवती महिलाएं 22 जनवरी के शुभ दिन मां बनने को आतुर हैं। अकेले मध्यप्रदेश के शहर इन्दौर की लगभग साठ गर्भवती महिलाओं ने अस्पताल के चिकित्सकों से अनुरोध किया है कि उनकी प्रसूति 22 जनवरी को करवाएं ताकि उनका मातृत्व राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के शुभ संयोग से जुड़ जाए। विदेशों में भी 22 जनवरी के ऐतिहासिक क्षण को लेकर जबरदस्त उत्साह है। अमेरिका में तो पूरे एक सप्ताह तक प्राण प्रतिष्ठा उत्सव मनाने के लिए बड़े पैमाने पर तैयारी है...। किसी शायर ने क्या खूब कहा है, 

‘‘दया अगर लिखने बैठूँ, होते हैं अनुवादित राम

रावण को भी नमन किया, ऐसे थे मर्यादित राम...।’’

Thursday, January 11, 2024

नकाब

    नारंगी नगर नागपुर में सीबीआई ने पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गनाइजेशन (पेसो) के दो अधिकारियों को दस लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़ने में सफलता पायी। राजस्थान की एक केमिकल कंपनी को अतिरिक्त डिटोनेटर बनाने की अनुमति देने के लिए इस जगजाहिर सहज-सुलभ भ्रष्टाचारी राह को चुना गया था। देशभर में विस्फोटक उत्पादन करने वाली कंपनियों पर नियंत्रण और नज़र रखने वाले पेसो का मुख्यालय नागपुर के सेमिनरी हिल्स पर स्थित है। पुलिस तथा सीबीआई कार्यालय को लगातार शिकायतें मिल रहीं थीं कि इस कार्यालय के अधिकारी विस्फोटक निर्माता कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई करने और उनके विस्फोटक निर्माण लाइसेंस रद्द करने की धमकी देकर लाखों रुपये की रिश्वत लेते हैं। बिना देखे-जांचे किसी भी कंपनी को मनचाहा उत्पादन करने की छूट देते हैं। राजस्थान की केमिकल कंपनी को उसकी इच्छा के अनुसार डिटोनेटर बनाने की अनुमति देने की ऐवज में भ्रष्ट अधिकारियों ने दस लाख रुपये की घूस मांगी थी, लेकिन अंतत: सीबीआई के बिछाये जाल से बच नहीं पाये। राजनेताओं, सत्ताधीशों और नौकरशाही को हर तरह से संतुष्ट कर देश में कई लोगों ने गोला-बारूद और हथियार बनाने के लायसेंस लेकर चंद वर्षों में करोड़ों-अरबों की धन दौलत जमा कर ली है। गोला-बारूद बनाने वाले अधिकांश उद्योगपति सुरक्षा नियमों का पालन नहीं करते। कई बार उन्हीं के कारखानों से विस्फोटक सामग्री अराजक तत्वों तक पहुंच जाती है और उन्हें पता ही नहीं चल पाता? जब कहीं धमाके होते हैं तब भी उन पर आंच नहीं आती! 

    अपने यहां नाम मात्र के ही उद्योगपति हैं, जो अपने बारूद कारखानों में सुरक्षा नियमों का सतर्कता के साथ पालन करते हैं। अधिकांश धन्नासेठों के लिए मेहनतकश मजदूर कीड़े-मकोडे हैं। नागपुर के इस रिश्वत कांड के उजागर होने से कुछ दिन पहले नागपुर में स्थित दुनिया की सबसे बड़ी विस्फोटक निर्माता कंपनी में हुए भयानक विस्फोट में छह महिलाओं सहित नौ श्रमिकों के परखच्चे उड़ गये। उनके परिजन अपनों के शवों को देखने के लिए तरसते रहे। उनके हाथ आए बस चीथड़े ही चीथड़े। जिनका रोते-कलपते हुए उन्होंने अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन उनके आंसू थम नहीं पाये। हथियारों के कारखाने के स्वामी की नज़र में भले ही हादसा हो, लेकिन मृतकों के परिजनों के लिए तो यह हत्या ही है। अंधाधुंध धन कमाने के लिए किया गया अक्षम्य संगीन अपराध है। इस बारूद के कारखाने में पहले भी कई बार जानलेवा विस्फोट हो चुके हैं, लेकिन इस बार के भयानक धमाके के बाद का मंजर इतना दर्दनाक था कि देखने वालों की रूह कांप गयी। आंखों से आंसू ही आंसू झरते रहे। लोगों ने धमाके की आवाज कई किलोमीटर दूर तक सुनी। सभी मृतकों के टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे शवों को बड़ी मुश्किल से समेट कर पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया। प्रतिवर्ष हजारों-हजारों टन विस्फोटक बनाने वाली इस इंडस्ट्रीज में भारतीय सेना के उपयोग में आने वाले गोला-बारूद और विभिन्न हथियारों का निर्माण किया जाता है। 1984 में भारतीय स्टेट बैंक से साठ लाख रुपये का कर्ज लेकर विस्फोटकों के निर्माण क्षेत्र में पदापर्ण करने वाली कंपनी के निर्माता आज की तारीख में पंद्रह हजार करोड़ रुपये से अधिक की धन-दौलत के स्वामी हैं। देश के शीर्ष धनाढ्यों में अपना नाम शुमार करा चुके इस कंपनी के सर्वेसर्वा का एक से एक ऊंचे लोगों के बीच उठना-बैठना है। उनकी छाती पर दानवीर का तमगा भी लगा है। विख्यात पत्रिका फोर्ब्स के कवर पेज पर उनकी तस्वीर शोभायमान हो चुकी है। 

    कुछ दिन पहले एक अंतराष्ट्रीय जांच एजेंसी की बड़ी ही चौंकाने वाली रिपोर्ट पढ़ने में आयी कि भ्रष्टाचार के मामले में हमारा महान भारत देश पांचवें नंबर पर आ गया है। इसी रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि पृथ्वी का स्वर्ग कहलाने को बेताब हिंदुस्तान में सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार आम भ्रष्टाचार के मुकाबले सर्वाधिक है, जिसे राजनीति और राजनेताओं का भरपूर साथ और आशीर्वाद मिलता चला आ रहा है। सरकारी भ्रष्टाचारियों की बदौलत कई काले-पीले उद्योगपति देखते ही देखते टाटा-बिरला और अंबानी के समक्ष खड़े नज़र आने लगे हैं। देश के जाने-माने कुछ उद्योगपति अपनी आत्मकथाओं में लिख चुके हैं कि यदि भ्रष्ट अफसरशाही नहीं होती तो वे यहां तक पहुंच ही नहीं पाते। कंगाली और गरीबी के चक्रव्यूह में ही फंसे रह जाते। देश में नकाबपोश अफसरों की भरमार है। यही धुरंधर कारोबारियों को भ्रष्टाचार के मार्ग सुझाते हैं। जब तक यह गठजोड़ रहेगा तब तक इस देश का ईमानदार आदमी गरीबी और भुखमरी के शिकंजे में जकड़ा रहेगा। अधिकांश भ्रष्टाचारियों के चेहरों के नकाब उतर ही नहीं पाते। अब तो बेइमान धंधेबाज सीनाजोरी करते हुए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर तथा विभिन्न सरकारी जांच एजेंसियों के कार्य में विघ्न डालते हुए उन पर हमले भी करने लगे हैं। अभी हाल ही में प.बंगाल के उत्तरी परगना जिले में तृणमूल कांग्रेस नेता के यहां ईडी ने छापा मारी की तो अधिकारियों पर जानलेवा हमला कर उन्हें लहुलूहान किया गया। छत्तीसगढ़ के भिलाई में भी ईडी के अधिकारियों पर ऐसा ही हमला हो चुका है। पटना तथा मेरठ में शराब माफियाओं के यहां जांच करने गये अधिकारियों के पिटने की खबरों के साथ-साथ और भी ऐसी मार-ठुकायी की वारदातें सुनने-पढ़ने में आती रहती हैं। कुछ राजनेता और सत्ताधीश तो ईडी और आयकर विभाग को जरा भी अहमियत ही नहीं देते। उनकी निगाह में यह सरकारी संस्थान कठपुतली भर हैं। इनसे काहे को डरना। डरने का काम तो आम जनता का है। हम तो खास हैं...।

Thursday, January 4, 2024

गारंटी

    बीते सालों से अलग है। 2023 के गर्भ से निकला 2024 का यह साल। इस वर्ष में क्या-क्या होगा उसका अनुमान लगाना आसान भी है और थोड़ा मुश्किल भी। वक्त की नब्ज़ को पूरी तरह से जांचने और परखने वाला डॉक्टर अभी तक तो पैदा नहीं हुआ है। इसे लेकर अपने-अपने अनुमान होते हैं। अपनी-अपनी सोच होती है। वक्त से बड़ा बलवान और कोई नहीं। कब किसी अर्श से फर्श पर पटक दे। राजा को फकीर बना दे, बताना मुश्किल है। बीते सालों में इस कहावत को हमने बार-बार साकार होते देखा है। धर्म और राजनीति का घालमेल भी हमारे सामने है। ऐसा भी लगता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की गाड़ी धर्म और राजनीति की पटरी पर ही चल रही है। नामी-गिरामी बाबाओं, स्थापित नेताओं की नैया डूबने और किस्मत के चमकने के अटूट सिलसिले भी किसी से छिपे नहीं हैं।

    चार दशक तक राम मंदिर के निर्माण को लेकर संशय की स्थिति बनी रही। करोड़ों भारतीयों का स्वप्न अब शीघ्र ही साकार होने को है। 22 जनवरी को रामलला की भव्य मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। वर्षों से राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र रहे अयोध्या को सर्व सुविधायुक्त बनाने तथा श्रीराम मंदिर के उद्घाटन समारोह को यादगार बनाने के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ी जा रही है। अयोध्यावासियों ने भी देश और दुनिया के अतिथियों के स्वागत-सत्कार के लिए पूरी तैयारियां कर ली हैं। श्रीराम मंदिर के अलौकिक स्वरूप और उसकी भव्यता की खबरों को सुनने और के पश्चात करोड़ों भारतीय 22 जनवरी को ही अयोध्या पहुंचने को लालायित हैं। यह स्वाभाविक भी है, लेकिन इस जल्दबाजी से खतरे भी जुड़े हैं। इसीलिए माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए सभी से प्रार्थना की है कि मुझे पता है कि हर किसी की 22 जनवरी को अयोध्या आने की प्रबल तमन्ना है, लेकिन सभी राम भक्तों के एक साथ पहुंचने से सुरक्षा और व्यवस्था की गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है। इसलिए मेरी आप सबसे बार-बार प्रार्थना है कि जिस तरह से आपने 500 साल तक इंतजार किया है, तो कुछ दिन तक और इंतजार कर लें। अयोध्या का भव्य, दिव्य मंदिर आने वाली सदियों-सदियों तक दर्शन के लिए उपलब्ध है। 22 जनवरी को जब अयोध्या में प्रभु श्रीराम विराजमान हों तब अपने घरों में श्रीराम ज्योति जलाएं। दीपावली मनाएं। इस दिन की शाम पूरे हिंदुस्तान में जगमग-जगमग होनी चाहिए। 

    गौरतलब है कि देश के कुछ मंदिरों, धार्मिक स्थलों में अनियंत्रित भीड़ की बेसब्री की वजह से भगदड़ मचती रही है, जिसमें कई लोगों की जान जाने तथा बुरी तरह से घायल होने की सुर्खियां पाती रही हैं। 2024 में ही आम चुनाव होने हैं। भाजपा ने ‘अबकी बार 400 पार, तीसरी बार मोदी सरकार’ के नारे को जोर-शोर से गुंजायमान करना प्रारंभ कर दिया है। विपक्ष का आरोप है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी श्रीराम मंदिर को अपनी उपलब्धि दर्शाने पर तुले हैं। बीते महीने सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में राम मंदिर के चित्र और नारे वाले चुनावी होर्डिंग लगाये थे तो कांग्रेस ने इसे आदर्श आचार संहिता का खुला उल्लंघन बताकर आपत्ति दर्शायी थी। भाजपा के नेताओं का दावा था कि राम मंदिर का चित्र कोई धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पहचान है। इसलिए इसके इस्तेमाल में आदर्श आचार संहिता आड़े नहीं आती। सभी जानते हैं कि भगवान श्रीराम और अयोध्या में मंदिर निर्माण के आश्वासन की बदौलत ही भारतीय जनता पार्टी की गाड़ी यहां तक पहुंची है। अब तो उसने अपना वादा भी पूरा कर दिया है। सफलता का श्रेय लेने का चलन तो तब से चला आ रहा है जब से देश आजाद हुआ है। कम अज़ कम भारत में तो इसके बिना राजनीति चलने से रही। 22 जनवरी को अयोध्या में ही नहीं पूरे देश में भगवान श्रीराम के चित्र के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें नज़र आएंगी। यह सिलसिला लोकसभा चुनाव तथा उसके बाद भी बना रहेगा। विपक्षी बस देखते और खौलते रह जाएंगे। स्किल डेवलपमेंट, डिजिटल इंडिया, मेक-इन-इंडिया और सबसे महत्वपूर्ण स्टार्ट-अप के पूरे इकोसिस्टम को बढ़ावा देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने नाम की गारंटी देकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में भाजपा की जीत का झंडा फहराया है। यकीनन मोदी का कद भाजपा से बहुत बढ़ा हो चुका है। सिर पर खड़े लोकसभा चुनावों में भी वे मतदाताओं से यह कह कर वोट मांगेंगे कि आप सभी बस मुझ पर यकीन करें। हर वादा जरूर पूरा होगा। मतदाताओं को यदि उन पर यकीन नहीं होता तो विधानसभा के चुनावों में भाजपा को चौंकाने वाली जीत नहीं मिलती। वैसे यह भी सच है कि मतदाताओं के मन को पूरी तरह से जान और पढ़ पाना कभी भी आसान नहीं रहा। उन्होंने बड़ी खामोशी के साथ कई बार सत्ताधीशों के होश ठिकाने लगाये हैं। कई बार छले जा चुके देशवासी शाब्दिक गारंटी नहीं चाहते। वादों को धरातल पर साकार होते देखना चाहते हैं। हर भारतवासी आपसी सद्भाव, सर्वधर्म समभाव के व्यवहार की गारंटी चाहता है। वह भारत में राम राज्य के मूल्यों को पूर्णतया स्थापित होते देखना चाहता है। महिलाओं तथा दबे-कुचले भारतीयों की सुरक्षा की गारंटी के साथ-साथ वह इस बात की भी पूरी-पूरी गारंटी चाहता है कि भाजपा का कोई भी राजनेता भड़काऊ भाषणबाजी न करे। किसी के साथ अन्याय न हो। सभी के धर्म-कर्म और आस्था के मान-सम्मान के साथ शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी जाए।