Thursday, November 30, 2017

कमीशनखोरों के शिकंजे में मरीज

लोग हतप्रभ हैं। चिंतित और परेशान हैं। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। दलालों और ठगों की घेराबंदी में उनकी सांसें घुटने लगी हैं। सेवा भावना लुप्त होती चली जा रही है। नकाबों के उतरने का निरंतर सिलसिला जारी है। डॉक्टरों को तो तमाम भारतवासी इंसान नहीं, भगवान मानते आये हैं। भगवान की इस विश्वास के साथ पूजा की जाती है कि वे बिना किसी भेदभाव के सभी का भला ही करेंगे। कोई लालच उन्हें डिगा नहीं पायेगा। इसी देश में ऐसे कई डॉक्टर हुए हैं जिन्होंने मरीजों की सेवा और इंसानियत के गर्व को बढाने के कीर्तिमान रचे हैं। उनके कर्म-धर्म की मिसालें इतिहास में दर्ज हैं। उनके प्रति नतमस्तक है हर हिन्दुस्तानी। इन दिनों जो खबरें आ रही हैं वे ईश्वर का पर्यायवाची माने जाने वाले डॉक्टरों के अस्तित्व पर बट्टा लगा रही हैं और यह ढोल पीट रही हैं कि अधिकांश डॉक्टर धन के पीछे भाग रहे हैं। मरीजों की जेब पर डाका डालने की मनोवृत्ति ने उनके ईमान और कद को बौना कर दिया है। नोटों की चमक ने उनके मूल कर्तव्य को गिरवी रख लिया है। मरीजों को वे इंसान नहीं कमाई का साधन समझते हैं। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। इसलिए मजबूरन लोगों को निजी अस्पतालों की शरण लेनी पडती है। बहुत ही खेद की बात है कि ९५ प्रतिशत निजी ब‹डे अस्पताल धोखाधडी, लूट और ठगी के भयावह अड्डे बन कर रह गए हैं। सच तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं के घोर अभाव का फायदा निजी हाई-फाई अस्पताल उठा रहे हैं। दिल्ली के पास गुरुग्राम में स्थित फोर्टिंस अस्पताल में एक सात साल की बच्ची को डेंगू के इलाज के लिए भर्ती किया गया। डॉक्टर उसकी जान तो नहीं बचा पाये, लेकिन १६ लाख रुपये का बिल जरूर थमा दिया गया। १६ लाख रुपये कोई छोटी-मोटी रकम नहीं होती। गरीब के लिए इतनी बडी राशि वो सपना होता है जो कभी पूरा नहीं होता। अमीरों के लिए हाथ का मैल हो सकती है, लेकिन मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी यह छोटा-मोटा आंकडा नहीं होती। डेंगू से पीडित सात वर्षीय बच्ची आद्या की मौत व इलाज के लिए १६ लाख रुपये के भारी भरकम बिल ने फिर कई सवाल खडे कर दिए और अस्पतालों के लूटतंत्र का भी खुलासा कर दिया। डेंगू की जो दवा ५०० रुपये की है उसके लिए तीन हजार रुपये और २७०० दस्ताने के लिए पौने तीन लाख रुपये, दवा का बिल चार लाख रुपये, १३ रुपये की ब्लड जांच स्ट्रिप के बदले प्रति स्ट्रिप २०० रुपये वसूले गए। मेनोपेनम इंजेक्शन के २१ वायल दिए गये जिनके प्रति वायल ३१०० रुपये एेंठे गए जबकि बाजार में ५०० रुपये में आसानी से वायल मिलता है। क्या वाकई दो सप्ताह के इलाज के दौरान डॉक्टरों ने २७०० दस्ताने व ६६० सिरिंज इस्तेमाल किए? ब्लड बैंक का खर्चा ६१,३१५ रुपये, डॉक्टरों की फीस ५३,९०० रुपये, दवाई का खर्चा २,७३,३९४ रुपये के अलावा एक कमरे का किराया १,७४,००० रुपये बिल में जो‹डकर मृत बच्ची के माता-पिता को दिन में तारे दिखा दिए! अभिभावकों का यह भी आरोप है कि अस्पताल ने जानबूझकर आखिर के तीन दिन तक बच्ची को वेंटीलेटर पर रखा।
बिल की रकम में इजाफा करने के लिए निजी अस्पतालों के द्वारा लाश को वेंटीलेटर पर रखने की कई खबरें आम होती चली जा रही हैं। नोएडा के एक अस्पताल में एक व्यक्ति की मौत कई दिन पहले हो गई थी, लेकिन अस्पताल के धनलोभी डॉक्टर लाश को वेंटीलेटर पर रखे रहे। परिजनों को पांच दिन तक मरीज से मिलने नहीं दिया गया और बाद में मनमाना बिल थमाया गया। परिजन इतना अधिक बिल भर पाने में सक्षम नहीं थे इसलिए वे लाचारी में अस्पताल में ही शव को छोडकर चले गये। गाजियाबाद निवासी पृथ्वी सिंह के दो साल के पोते को साधारण खांसी होने से उसकी सांस फूलने लगी थी। बच्चा रातभर परेशान न हो इसलिए उन्होंने उसे एक नामी हॉस्पिटल में ले जाने की भूल कर दी। आपातकालीन विभाग में डॉक्टर ने उसकी जांच की और बेहद गंभीर बताते हुए भर्ती करने की सलाह दी। पृथ्वी सिंह ने डॉक्टर से आग्रह किया कि बच्चे को साधारण-सी खांसी है। आप इसे चेक करके दवा दे दीजिये। मगर डॉक्टर ने स्थिति की गंभीरता का ऐसा डर दिखाया कि वे बच्चे को भर्ती करने को विवश हो गए। बच्चे को आईसीयू में भर्ती कर दिया गया। जहां पर छह बैड थे। बच्चा पूरे वार्ड में हंसते-खेलते हुए दौड लगा रहा था। वे दूसरे दिन बच्चे का डिस्चार्ज करवाना चाहते थे, लेकिन तीसरे दिन ४० हजार रुपये के बिल के साथ बच्चे को डिस्चार्ज किया गया। अस्पतालों के भारी भरकम बिल से बचने का मरीजों के पास कोई विकल्प नहीं हैं। इस लूट को रोक पाना कतई आसान नहीं है।
ध्यान रहे कि जो सिरिंज बाजार में होलसेल में दो रुपये में मिलती है उसके तथाकथित बडे अस्पतालों में दस रुपये वसूले जाते हैं। मरीजों की मजबूरी होती है। उन्हें डॉक्टरों की हर बात माननी पडती है। कमीशन के आधार पर काम करने वाले डॉक्टरों को हर मरीज का सीटी स्केन, एमआरआई लिखने का ऊपरी दबाव रहता है। जिस बीमारी की जांच की जरूरत ही नहीं होती उसकी जबरन जांच के बाद मोटा बिल थमा दिया जाता है। प्रायवेट अस्पताल अब एक बिजनेस मॉडल की तर्ज पर काम करने लगे हैं। यही वजह है कि यहां पर आम मरीज के लिए इलाज करवाना बेहद मुश्किल होता है। अस्पताल के कमीशनखोर डॉक्टर मरीज को ग्राहक मानते हुए उसे लूटने का कोई मौका नहीं छोडना चाहते। मरीज को अगर पांच दिन अस्पताल में रखना जरूरी हो तो भी उसे छह से सात दिन तक रखा जाता है। इन दो दिनों में बिल में अच्छी खासी बढोतरी हो जाती है। यह सच्चाई भी हैरान करने वाली है कि लूट के अड्डे बन चुके ऐसे अस्पतालों में डॉक्टरों को तनख्वाह या तो नहीं मिलती या फिर नाम मात्र की मिलती है। इसलिए वे कमीशन के चक्कर में अधिक से अधिक मरीजों को फांसने के चक्कर में रहते हैं। इसी कमीशन के लालच में मरीज को निचोडकर रख दिया जाता है। मरीज को एडमिट करने और डिस्चार्ज करने में इन्हीं डॉक्टरों की चलती है। अगर एक मरीज को चार दिन में छुट्टी दी जा सकती है तो उसे पांच दिन तक सिर्फ बिल बढाने के लिए रोक कर रखने की कलाकारी को अंजाम देने में यह वसूलीबाज डॉक्टर बडी आसानी से कामयाब हो जाते हैं।

Thursday, November 23, 2017

सुखद संदेश

आज के दौर में भी घर में बेटी के जन्म लेने पर मातम मनाने वालों की कमी नहीं है। अच्छे-खासे पढे-लिखे लोगों का भी बेटियों के प्रति वही पुराना नज़रिया है कि बेटियां तो उम्रभर का बोझ होती हैं। यह काला सच देश के माथे पर लगा वो दाग है जिसे मिटाने की भी निरंतर कोशिशें होती रहती हैं। हरियाणा के फतेहाबाद से आयी खबर ने वाकई नई उम्मीदें जगा दीं और यह संदेश भी दे दिया कि यदि इरादे नेक हों तो मन की चाहत पूरी होने और रास्ते निकलने में देरी नहीं लगती। फतेहाबाद के रहने वाले एक पुत्र के माता-पिता की दिली तमन्ना थी कि उनके यहां बिटिया का जन्म हो और उनका जीवन सार्थक हो जाए। लेकिन उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पायी और इस बार भी अस्पताल में बेटे ने ही जन्म लिया। उनका मन बुझ गया। उसी अस्पताल में ही गांव किशनगढ (हिसार) निवासी भूपसिंह की पत्नी रेनू को डिलीवरी के लिए लाया गया था। रेनू की पहले से तीन बेटियां हैं। उनकी चाहत थी कि बेटियों का एक भाई होना चाहिए। मगर डिलीवरी हुई तो कन्या का आगमन हुआ। इसी बीच उन्हें उस दंपति के बारे में पता चला जिन्हें बिटिया की चाह थी, लेकिन उनके यहां बेटे ने जन्म लिया था। रेनू के परिवार वालों ने उस दंपति से संपर्क कर उनका बेटा गोद लेने की इच्छा जतायी। अंधा क्या मांगे... दो आंखें।... उस दंपति ने फौरन स्वीकृति देते हुए अपने नवजात बेटे को उनकी गोद में डालकर उनकी और अपनी मुरादें पूरी कर ली। गौरतलब है कि दोनों परिवार एक ही समाज से हैं, लेकिन उनका मिलन अस्पताल में ही हुआ जहां पर एक अटूट रिश्ता कायम हो गया।
देश की राजधानी दिल्ली को तमाशबीनों का महानगर भी कहा जाता है। लोगों की आंखों के सामने सडक दुर्घटनाए होती रहती हैं और लोग हैं कि अनदेखी करने में अपनी भलाई और चतुराई समझ आगे बढ जाते हैं। दिल्ली के माथे पर लगे इस धब्बे को धोने की कोशिश की है दिल्ली के अशोक विहार मोंट फोर्ट स्कूल की टीचर सारिका ने। ऐसे में सबसे पहले उन्हें उनकी पहल और जागृति के लिए सलाम तो किया ही जाना चाहिए। वाकया है अशोक विहार का जहां सडक के बीचोंबीच खून से लथपथ एक युवक तडप रहा था और आते-जाते लोग मुंह फेरकर निकलते चले जा रहे थे। कुछ ऐसे उत्साही समझदार लोग भी थे जिन्हें वीडियो और तस्वीर लेने में बेहद मज़ा आ रहा था। ऐसे निर्मम लोगों का अनुसरण न करते हुए इंसानियत का असली फर्ज निभाते हुए सामने आर्इं सारिका। लोग जहां उलटे पडे जख्मी युवक को हाथ लगाने से भी कतरा रहे थे, सारिका ने न सिर्फ उसे सीधा किया बल्कि अपने दुपट्टे से उसके सिर से बहते खून को रोकने की भरपूर कोशिश करने के बाद ऑटो को रूकवाकर युवक को सुंदरलाल जैन अस्पताल ले गर्इं। उसने डॉक्टरो को उसका त्वरित इलाज करने के लिए मनाया। फिर भी अफसोस कि युवक ने इलाज के दौरान अस्पताल में दम तोड दिया। इंसानियत का फर्ज़ निभाने वाली सारिका का कहना है कि यदि दुर्घटनाग्रस्त युवक को फौरन अस्पताल पहुंचाया जाता तो यकीनन उसकी जान बच सकती थी। दिल्ली वालों की निर्दयता और वीडियो बनाने तथा तस्वीरें खींचने की बेहूदगी ने उसकी जान ले ली। सारिका जब घर से स्कूल जा रही थी तभी लोगों की भीड के बीच घायल युवक को तडपते देखा था तो उन्होंने लोगों से खून से लथपथ युवक को तुरंत अस्पताल पहुंचाने का निवेदन किया और हाथ भी जोडे, लेकिन सभी ने मुंह फेर लिया था। वे स्वयं जिस ऑटो में थीं, उसके ड्राइवर ने भी युवक को अस्पताल ले जाने से मना कर दिया था। उसका कहना था कि वह किसी लफडे-पचडे में नहीं पडना चाहता। उसे तुरंत पेमेंट देकर रवाना करने के बाद सारिका ने कई ऑटो वालों को रूकने का इशारा किया मगर कोई नहीं रूका। उन्होंने एक ऑटो वाले को हाथ-पांव जोडकर किसी तरह से तैयार किया और दो युवकों की मदद से युवक को ऑटो में लिटाया और अस्पताल पहुंची।
अब आपको मिलवाते है मुंबई के दीपक टांक से जिन्होंने महिलाओं के साथ होने वाली छेडछाड के खिलाफ अभियान छेड कर डेढ सौ से अधिक मनचलों को जेल पहुंचाया है। दीपक के मन में महिलाओं के साथ छेडछाड करने वाले मनचलों के खिलाफ लडाई छेडने का विचार तब आया जब देश की राजधानी दिल्ली में निर्भया के साथ हुए अमानवीय कृत्य से पूरा देश दहल गया था। दीपक का मानना है कि अगर आप किसी छेडछाड की घटना को रोकते हैं तो आप संभावित बलात्कार की घटना को भी रोकते हैं। दीपक स्वीकार करते हैं कि वे भी कभी किसी महिला के साथ छेडछाड होने की घटना को नजरअंदाज कर देते थे, लेकिन निर्भयाकांड के बाद उन्होंने बदमाशों के खिलाफ कमर कसने का निर्णय ले लिया। वे कहते हैं कि किसी भी महिला के साथ अभद्र व्यवहार करना बेहद शर्मनाक कृत्य है। क्या कोई अपनी मां या बहन के साथ अशोभनीय हरकत करता है? ...क्या कोई चाहेगा कि उसकी पत्नी, बहन के साथ ऐसी बदतमीजी हो? जब हम अपनी मां-बहनों पर किसी की टेढी नज़र को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो हमें दूसरे की मां-बहनों का भी सम्मान करना चाहिए और उनकी सुरक्षा के लिए किसी भी जोखिम  और संकट का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मवालियों को मनमानी करते देख आंखें बंद कर लेने से बडा और कोई अपराध हो ही नहीं सकता।

Thursday, November 16, 2017

फरिश्तों की पहचान

जो सपने खुली आंखों से देखे जाते हैं उनकी कभी मौत नहीं होती। परोपकार करने वाले कहीं न कहीं सदैव जिन्दा रहते हैं। कुछ अलग हटकर करने वालों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। यह जरूरी नहीं दूसरों के लिए खुद को समर्पित कर देने वाले फरिश्तों को लाखों-करोडों लोग जानें और जय-जयकार करें। उनको जानने-समझने वालो की संख्या भले ही कम हो, लेकिन वो अपने कर्मों की बदौलत अमर तो हो ही जाते हैं। मुकुलचंद जोशी। हम जानते हैं कि इस नाम से हर कोई वाकिफ नहीं है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने अपना जीवन जीया और दुनिया से विदायी लेने के बाद भी परोपकार का परचम लहराया उससे कई लोगों के लिए उन्हें भुला पाना नामुमकिन है। १४ वर्षों तक नोएडा में लोगों को यातायात नियमों के प्रति जागरूक करने वाले मुकुलचंद का बीते सप्ताह ८३ वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनकी इच्छा के अनुसार उनकी दोनों आंखें दान कर दी गयीं। अपने जीते जी लोगों को यातायात नियमों के प्रति सतर्क करने वाले मुकुलचंद उर्फ 'ट्रैफिक बाबा' की आंखें अब दूसरे के जीवन को रोशन कर रही हैं। लगभग १४ वर्ष पूर्व उनके मामा का बेटा बिना हेलमेट लगाए स्कूटर लेकर निकला था और सडक हादसे में उसकी मौत हो गई। इस घटना ने उन्हें झकझोर दिया। उसके बाद से ही वे लोगों को यातायात नियमों का पाठ पढाने में लग गए। १९९३ में आगरा से फ्लाइट इंजिनियर के पद से सेवा निवृत हुए मुकुलचंद के परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे हैं। बडे बेटे कैप्टन नीरज जोशी मर्चेंट नेवी सिंगापुर में जबकि छोटे बेटे राजीव जोशी एयरफोर्स बेंगलुरु में कार्यरत हैं। ८३ वर्ष की उम्र में भी लोगों को सडक दुर्घटनाओं में मौत से बचाने के लिए जागरूक करने वाले इस सजग भारतीय की तमन्ना शीघ्र ही अपने बेटे के पास बंगलुरू शिफ्ट होने की थी। वहां पर भी वे ट्राफिक जागरूकता अभियान के काम को जारी रखना चाहते थे, लेकिन वक्त को यह मंजूर नहीं था।
उनकी यही अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु के बाद शरीर का जो भी अंग दूसरे के काम आ सके, उसे दान कर दिया जाए। उनकी मौत के बाद पत्नी ने बच्चों के आने से पहले ही सभी औपचारिकताएं पूरी कर पति की दोनों आंखें दान कर दीं।
पहाडों और जंगलों में रहने वाले गरीब ग्रामीणों का जीवन संग्रामों का पर्यायवाची है। न जाने कितनी समस्याओं से उन्हें रोज जूझना पडता है। पहाडी इलाकों में जंगल की आग और जानवरों के हमले से अक्सर ग्रामीण जलते और बुरी तरह से घायल होते रहते हैं। कितनों का चेहरा बिगड जाता है और शरीर विकृत हो जाता है। जिनके घर में कभी-कभार चूल्हा  जलता है उनके तो जख्म कभी भर ही नहीं पाते। अथाह पीडा उनकी उम्रभर की साथी बन जाती है। प्लास्टिक सर्जरी करवा पाना तो उनके लिए असंभव होता है। ऐसे में उत्तराखंड में दून के एक ८० वर्षीय प्लास्टिक सर्जन ऐसे विपदा के मारे लोगों के लिए आसमान से उतरे देवदूत की भूमिका निभाते दिखायी देते हैं। कभी अमेरिका में प्लास्टिक सर्जन रह चुके इस फरिश्ते ने पिछले ११ वर्षों से खुद को असहायों और बेबसों की सेवा में समर्पित कर दिया है। उन्होंने अब तक चार हजार से अधिक दुखियारों की प्लास्टिक सर्जरी कर इंसानियत के महाधर्म को निभाया है। गौरतलब है कि वे इतने काबिल प्लास्टिक सर्जन हैं कि अगर किसी बडे शहर में अपनी सेवाएं देते तो अपार धन-दौलत कमा सकते थे और दुनियाभर की सुख-सुविधाओं का आनंद ले सकते थे, लेकिन उन्होंने तो अपने जीवन को गरीबों के लिए समर्पित करने की प्रतिज्ञा कर रखी है। देहरादून-मसूरी रोड पर उनकी अपनी पुश्तैनी जमीन है जहां पर उन्होंने क्लिनिक बनाया है और जंगल की आग और जानवरों के हमले के शिकार लोगों की नि:शुल्क सर्जरी करते हैं। डॉ. योगी कहते हैं कि जलने या जानवर के हमले से घायल होने के कारण शारीरिक विकृति से जूझ रहे लोगों को दोबारा वही काया पाकर न सिर्फ नया जीवन, बल्कि सामान्य जीवन जीने का एक हौसला भी मिलता है। इस उम्र में मुझे धन-दौलत की नहीं बल्कि आत्मिक शांति और सुकून की जरूरत है। विपदाग्रस्त लोगों की मुस्कान और दुआ के रूप में मुझे यह भरपूर मिल रहा है। डॉ. योगी का एक बेटा उत्तराखंड में डॉक्टर है, लेकिन वे उस पर निर्भर नहीं हैं। अपना खर्च चलाने के लिए निजी अस्पतालों में पार्ट टाइम प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। कितना भी जटिल ऑपरेशन क्यों न हो, डॉ. योगी कभी ना नहीं बोलते।
 "जब आप कोई अच्छा काम करते हैं तो अन्य लोग भी खुद-ब-खुद जुडते चले जाते हैं।" यह कहना है आपदा पीडित बेसहारा बच्चों का सहारा बनी रागिनी मंड्रेले का। रागिनी तब बहुत विचलित हो उठी थीं जब उत्तराखंड में दिल को दहला देने वाली आपदा के चलते कई बच्चों ने अपने मां-बाप को खो दिया था। उन्हें कोई आश्रय देने वाला नहीं था। कितने अनाथ बच्चे हाथ में भीख का कटोरा थामे सडकों पर भटकने को विवश हो गए थे। तभी रागिनी ने फैसला किया था कि वे बेसहारा बच्चों की जिंदगी को संवार कर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करेंगी। उन्हें पांच बच्चों की जानकारी मिली जिन्हें आश्रय की सख्त जरूरत थी। पांच बच्चों से शुरू हुआ उनका सफर आज कई बच्चों तक पहुंच गया है। वे निराश्रित बच्चों के रहने से लेकर खाने-पीने और पढने-लिखने की संपूर्ण व्यवस्था करती हैं। इस मानव सेवा के कार्य में उनकी बेटी का भी पूरा साथ मिलता है। वे सभी बच्चों को अपनी संतान मानती हैं। कुछ समाजसेवी संस्थाएं भी उनको सलाह-सुझाव और सहयोग प्रदान करती हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी बेसहारा बच्चों की सहायता करने के लिए आगे आएं। देश के न जाने कितने बेसहारा बच्चों को हमारी सख्त जरूरत है।

Thursday, November 9, 2017

मौत के फंदे

यह हमारा देश है हिन्दुस्तान जहां पर सबसे ज्यादा गरीब हैं किसान जो खून-पसीना बहाकर १२५ करोड देशवासियों के लिए अन्न उगाते हैं और खुद भूखे पेट सोते हैं। अपने यहां किसानों की अनदेखी की ऐसी भयावह परिपाटी है जो वर्षों से चली आ रही है। सभी सरकारें किसानों की भरपूर सहायता का ढोल पीटती हैं फिर भी किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा कम होने का नाम नहीं लेता। सत्ताधीश ही नहीं हम और आप भी किसानों की उपज का सही दाम देने में हैरतअंगेज तरीके से आनाकानी करते हैं। भारतीय किसानों के जीवन में खुशहाली और बदलाव लाने के लिए नेता, बुद्धिजीवी और तमाम किस्म के विद्वान आपस में बैठकर चिन्तन-मनन तो ऐसे करते हैं कि किसानों का उनसे ब‹डा और कोई हितकारी न हो। सबका हित करने वाला किसान व्यापारियों, धनलोभियों, नेताओं के लालच का शिकार हो जाता है और लोगों के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। जिन दवाओं से फसलों पर लगने वाले कीडों का खात्मा होना चाहिए वही कीटनाशक दवाएं किसानों की जान ले लेती हैं। किसानों के मरने की खबर मीडिया में कुछ दिन तक नजर आती है, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं। बलशाली धंधेबाज शातिर हत्यारे कहीं दूर सुरक्षित बैठे मुस्कराते रहते हैं। शासन और प्रशासन भी उनकी चौखट पर नतमस्तक नज़र आता है। पिछले दिनों विदर्भ के यवतमाल, अकोला, बुलढाना, वर्धा, गोंदिया और भंडारा जिलों में लगभग ४५ किसानों-श्रमिकों की मौत विषैले कीटनाशकों के छिडकाव के कारण हो गई। पांच सौ से ज्यादा किसानों को अस्पताल में भर्ती होना पडा और लगभग २५ किसान अपनी नेत्रज्योति खो बैठे। गौरतलब है कि यवतमाल एक ऐसा बदनसीब जिला है जहां पर सर्वाधिक किसान कर्ज से त्रस्त होकर आत्महत्या कर चुके हैं। विगत वर्ष भी विदर्भ के इन क्षेत्रों में १५० से अधिक किसानों, श्रमिकों को विषैले कीटनाशकों ने मौत के आगोश में सुला दिया था। अगर सरकार जागृत होती तो इस वर्ष जहरीले कीटनाशकों के चलते किसानों का नरसंहार नहीं होने पाता। विदर्भ में कई कृषि केन्द्र ऐसे हैं जो बिना लायसेंस के कीटनाशक दवाएं बेचकर किसानों से धोखाधडी कर अपनी तिजोरियां भरते हैं। जिन कीटनाशकों के छिडकाव से विदर्भ के किसानों की दर्दनाक मौतें हुई उन्हें गुजरात और मुंबई की कंपनियों से बुलाया गया था। शेतकरी स्वावलंबी मिशन के अध्यक्ष ने इन मौतों को 'किसान हत्या काण्ड' और 'नरसंहार' का नाम देते हुए स्पष्ट कहा कि इस हत्याकाण्ड के लिए जितने दोषी कृषि विभाग के अधिकारी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं उतनी ही सरकार भी है।
यह हैरतनाक जानकारी भी सामने आयी कि खरीफ सीजन में विदर्भ में कम से कम २०० करोड से अधिक की कीटनाशकों की बिक्री हुई। इनमें से अकेले यवतमाल जिले के विभिन्न कृषि केन्द्रों से पूरे ४० करोड रुपये मूल्य के कीटनाशकों की बिक्री की गई। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इनमें से ज्यादातर कीटनाशक अनाधिकृत (अवैध) थे। यवतमाल जिले में सरकार के अनुसार खरीफ फसल का क्षेत्र साढे नौ लाख हेक्टर है। इसमें से ४ लाख ७० हजार हेक्टर क्षेत्र में कपास की फसल लगाई गई है। इनमें से लगभग तीन लाख हेक्टर क्षेत्र में जहरीले कीटनाशकों का छिडकाव किया जा चुका है। विदर्भ में ३५ कंपनियों के २० प्रकार के कीटनाशक और २५-३० प्रकार के बीज बेचे जाते हैं। इनमें से कई अवैध भी होते हैं। इस प्रकार विदर्भ में कीटनाशकों का काला बाजार भी सरकार के कृषि विभाग के नाक के नीचे चल रहा है। इनकी मिलीभगत के कारण ही इतनी मौतें हो रही हैं और सरकार कुंभकर्णी नींद से जागने का नाम ही नहीं लेती। सवाल यह भी है कि कृषि अधिकारियों की जानकारी के बिना ऐसे जहरीले कीटनाशक कृषि सेवा केन्द्रों तक पहुंचते कैसे हैं? सवाल यह भी है कि विदर्भ में हुई किसानों की इन मौतोें के लिए अब जिम्मेदार किसे माना-समझा या ठहराया जाए! क्योंकि सब के सब हाथ खडे कर रहे हैं।
नागपुर से लगभग एक घण्टे के सफर की दूरी पर स्थित है रामटेक नगर। यहां पर आत्महत्या करने वाले किसानों की याद में एक यात्रा निकाली गई। इस यात्रा में एक युवक किसानों की बेबसी और पीडा का प्रदर्शन करने के लिए ट्रेक्टर पर सवार होकर फांसी के फंदे पर झूलने का अभिनय कर रहा था। ट्रेक्टर चलता चला जा रहा था और युवक के फांसी पर झूलने के अभिनय को देखकर लोग तालियां पीट रहे थे। सभी अपनी मस्ती में थे। अचानक रस्सी गले में कस गई और युवक तडपने लगा। उसकी तडपन को भी लोगों ने अभिनय समझा। कुछ देर बाद जब ट्रेक्टर रूका तो लोगों ने युवक को बेसुध पाया। ट्रेक्टर के ऊबड-खाबड कच्ची सडक पर दौडने के कारण हुई डगमगाहट के चलते फांसी का फंदा उसके गले में कस गया और उसकी मौत हो गयी। ऐसी ही एक मौत २०१५ में देश की राजधानी में हुई थी जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनाई दी थी। विभिन्न रैलियों और अनशनों के लिए विख्यात जंतर-मंतर में आम आदमी पार्टी ने किसानों की बदहाली पर सत्ताधीशों का ध्यान आकर्षित करने के लिए विशाल रैली का आयोजन किया था। राजस्थान के दौसर से चलकर गजेंद्र सिंह नामक एक किसान भी यहां पहुंचा था। मंच पर केंद्र सरकार को कोसा जा रहा था तभी एकाएक राजस्थानी वेशभूषा में भीड का ध्यान आकर्षित करता गजेंद्र सिंह मंच के निकट के नीम के पेड पर चढ गया। उसके हाथ में झाडू और गमछा था। जंतर-मंतर में जुटे न्यूज चैनल वाले जैसे गजेंद्र की ही राह देख रहे थे। देखते ही देखते दो मंच बन गये। एक पर थे अरविंद केजरीवाल और उसके साथी और दूसरे पर आम आदमी के चुनाव चिन्ह झाडू को लहराता किसान। न्यूज चैनल वालों के चमकते कैमरों को देखकर किसान के लहू में करंट दौडने लगा था। उसने अचानक गमछे को अपनी गर्दन में फंदे की तरह डाल लिया था और फांसी लगाने का अभिनय करने लगा था। सभी चैनलवालों ने किसान के फांसी के अभिनय को लाइव दिखाना शुरू कर दिया था। भीड का ध्यान भी मंच से हट गया था। इसी बीच किसान ने फंदे की तरह डाले गमछे को थोडा जोर से कसा और तब वह हो गया जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। संतुलन बिगड जाने के कारण गमछा वास्तव में फांसी का फंदा बन गया और किसान के प्राण पखेरू उड गये। एक हंसता-खेलता किसान इस दुनिया से विदा हो गया। आरोप-प्रत्यारोप और सहानुभूति का सैलाब उमडता रहा। नेताओं ने किसान को शहीद का दर्जा देकर तालियां भरपूर बटोरीं थीं। इस घटना को घटे दो साल से ज्यादा हो चुके हैं। लेकिन उस शहीद की किसी भी नेता और न्यूज चैनल वालों को याद नहीं आयी!

Thursday, November 2, 2017

अतिथि देवो भव:?

यह कोई नई बात नहीं है। मायानगरी मुंबई को कुछ नेता अपनी जागीर समझते हैं। उन्हें बाहर से लोगों का यहां आना कतई नहीं सुहाता। यही वजह है कि कभी टैक्सी वाले तो कभी फेरी वाले उनका निशाना बनते रहते हैं। सरकारी नौकरी की आस में इस नगरी में मेहमान बन आने वाले पढे-लिखे युवाओं पर भी लाठी-डंडे बरसाने से परहेज नहीं किया जाता। यह 'पुण्य' कभी शिवसेना वाले कमाते हैं तो कभी महाराष्ट्र निर्माण सेना वाले। उग्र नेताओं को लगता है कि देश के अन्य प्रदेशों से मुंबई में कमाने-खाने के लिए आने वाले भारतीयों को सबक सिखाये बिना प्रदेश का उद्धार और विकास नहीं हो सकता। उन्होंने यह भी मान लिया है कि कानून सही समय पर अपना काम नहीं करता इसलिए उसे अपने हाथ में लेने में कोई बुराई नहीं है। चुनावी हार और विरोधियों के दांवपेचों से पराजित होने वाले नेताओं की बौखलाहट बार-बार सामने आती है। पिछले दिनों मनसे के सुप्रीमों राज ठाकरे ने मुंबई के फेरीवालों के खिलाफ फिर से हिंसक अभियान छेड दिया। उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने परप्रांतीय लोगों को चुन-चुनकर निशाना बनाया और जमकर मारपीट की। मारपीट करने वाले इस सच को भूल गए कि फेरीवालों में मराठी मानुष भी शामिल हैं। मनसे वाले बेखौफ होकर फेरीवालों पर आतंकी जुल्म ढाते रहे और पुलिस लगभग मूकदर्शक बनी रही। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने मनसे के खिलाफ रोष जताते हुए उसे कानून को अपने हाथ में नहीं लेने की नसीहत दी तो भी उसे कोई फर्क नहीं पडा।
मुंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष संजय निरुपम ने खुद को उत्तर भारतीयों का मसीहा साबित करने और अपनी ठंडी पडी दुकान को चर्चा में लाने के लिए फेरीवालों के हौसले बुलंद करने के लिए कहा कि खुद की जान बचाने के लिए अगर कानून हाथ में लेना पडे तो किंचित भी देरी मत करो। गुंडों की मार खाने से बेहतर है उनसे भिडना और लडना। संजय के भडकाऊ भाषण का असर होने में देरी नहीं हुई। संजय की सभा खत्म होने के बाद जब फिर मनसे के कार्यकर्ता फेरीवालों को खदेडने के लिए पहुंचे तो उन्होंने भी उनका जमकर प्रतिरोध किया और जमकर मारपीट हुई। कइयों को गंभीर चोटें आयीं। कुछ को अस्पताल में भी भर्ती करना पडा। इस बार पुलिस ने भी खासी फुर्ती दिखाई। दंगा भडकाने के आरोप में निरुपम के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लाखों लोग मुंबई एवं आसपास मेहनत मजदूरी करने के लिए आते हैं। कई लोग यहां स्थायी तौर बस चुके हैं। मेहनतकश लोग बरसात, धूप, आंधी-तूफान की परवाह किये बिना फुटपाथ पर अपनी अस्थायी दुकानें लगाकर किसी तरह से अपने घर चलाते हैं। नियम तो यह कहता है कि यदि फेरीवालों के पास लाइसेंस नहीं है तो महानगरपालिका को ही उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन वर्षों से यही देखा जा रहा है कि कभी शिवसेना तो कभी मनसे के बहादुर कार्यकर्ता कानून को अपने हाथ में लेकर उनके साथ मारपीट करते हैं। ठेलों में विक्रय के लिए रखे गए सामानों को नुकसान पहुंचाते हैं। कांग्रेसी संजय निरुपम के भडकाऊ सुझाव को किसी भी हालत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। यह भी हकीकत है कि संजय निरुपम की राजनीति की शुरुआत शिवसेना से हुई थी। जब वे शिवसेना के मंच पर छाती तानकर भाषणबाजी किया करते थे तब भी उत्तर भारतीय शिवसैनिकों के हाथों प्रताडित होते थे। तब उनका कभी मुंह खुलते नहीं देखा गया। उन्हें राजनीति में अपने पैर जमाने थे इसलिए चुप्पी साधे रहे। दरअसल मतलबपरस्ती ऐसे नेताओं के खून में समायी है। आज वे कांग्रेस में हैं, लेकिन उनकी सुनी नहीं जा रही। इसलिए उन्होंने हिंसक तेवर दिखाकर यह दर्शाने की कोशिश की है कि अकेले वे ही ऐसे कांग्रेसी हैं जो परप्रांतीयों के लिए ढाल बनने का दम रखते हैं। इस चक्कर में उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि देश में सक्षम कानून है जो गुंडे बदमाशों के होश ठिकाने लगाने में सक्षम है। फेरीवालों को कानून को अपने हाथ में लेने की उनकी सीख से कहीं न कहीं यह भी लगता है कि वे भी उसी गुंडागर्दी में प्रबल यकीन रखते हैं जिसमें दूसरे नेता पारांगत हैं और वर्षों से आतंक मचाते चले आ रहे हैं। यह कैसी विडंबना है कि एक ओर जहां देश में आपसी सद्भाव के नारे लगाये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ अपनों के हाथों अपनों का अपमान होता है, खून बहाया जाता है। यकीनन यह देश के अच्छे भविष्य के संकेत नहीं हैं। पिछले दिनों विदेशी पर्यटकों के साथ जो बदसलूकी हुई उसने भी देश को कलंकित किया है। मेहमान देशी हों या विदेशी... उनके साथ दुर्व्यवहार का होना बेहद दु:खद, शर्मनाक और निंदनीय है। देश के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर देशी और विदेशी सैलानियों के साथ होने वाली बदसलूकी हमारी सभ्यता और संस्कृति को कटघरे में खडा करती है। लगता है कि 'अतिथि देवो भव:' कहना अब मात्र दिखावा रह गया है। इसकी मूल भावना की हत्या का अनवरत सिलसिला जारी है। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर सीकरी में जिन दो विदेशी पर्यटकों को मारा-पीटा गया वे तो भारतवर्ष को मेहमान नवाजी के मामले में एक आदर्श देश मानकर पर्यटन के लिए आए थे। इस विदेशी दंपति को देखते ही कुछ लोगों ने उन पर अभद्र टिप्पणियां करने के साथ-साथ लाठियों और पत्थरों से भी हमला किया। अगर ऐसी घटनाएं नहीं थमीं तो सोचिए कि विदेशी पर्यटक हिन्दुस्तान के बारे में क्या सोचेंगे और क्यों आएंगे? यह भी काबिले गौर है कि देश में आने वाले विदेशी प्रयटकों की संख्या में धीरे-धीरे कमी आती जा रही है...।