Thursday, August 26, 2021

सिद्धि और मुक्ति

    यह कोई चलचित्र है, कहानी है या खबर है? पूरे बाइस साल बाद भटकते-भटकते उदय अपने गांव आया था। जब वह लापता हुआ था, तब आम इंसानों जैसा उसका हुलिया था। आज वह जोगी के भेस में था। तब से एकदम अलग जब दो बच्चों का पिता होने के बावजूद एक रात अचानक उसने अपना घर-बार त्याग दिया था। क्यों किया था उसने ऐसा? कोई भी नहीं जानता। पत्नी भी नहीं, जो उसे जी-जान से चाहती थी। सबकुछ ठीक चल रहा था। दोनों एक बेटे और बेटी के माता-पिता बन चुके थे। एक रात उदय के मन में कौन से विचार ने खलबली मचायी कि वह भगौड़े की तरह घर-बार को छोड़ चलता बना। तब बेटा तीन और बेटी मात्र एक साल की थी। उदय की पत्नी सविता और माता-पिता ने उसकी बहुतेरी खोजबीन की। उसके इंतजार में कई रातें जागकर काटीं, लेकिन वह नहीं लौटा। रांची के निकट स्थित सेमोरा गांव के लोगों के बीच वह कई महीनों तक चर्चा का विषय बना रहा। हर किसी के अपने-अपने शक और अनुमान थे। दूसरी औरत के चक्कर में गायब होने की अफवाहों का शोर जब उदय की पत्नी सविता के कानों तक पहुंचता तो उसकी आंखें छलछला आतीं। दोनों एक दूसरे को टूट कर प्यार करते थे। कभी कोई मनमुटाव नहीं हुआ। लड़ाई झगड़ा तो बहुत दूर की बात थी। दोनों अपने बेटी-बेटे के अच्छे भविष्य के सपने को साकार करने के लिए कितनी-कितनी योजनाएं बनाते नहीं थकते थे। सविता ने धीरे-धीरे लोगों की बातों की तरफ ध्यान देना बंद कर अपने बच्चों की अच्छी परवरिश में खुद को झोंक दिया। उसने दिन-रात परिश्रम करते हुए इतने पैसे कमाने शुरू कर दिये, जिससे दोनों बच्चों को किसी ठीक-ठाक स्कूल, कॉलेज में पढ़ा सके। बच्चों ने भी कर्मठ मां के परिश्रम को व्यर्थ नहीं जाने दिया। उन्हें तो अपने जन्मदाता का चेहरा तक याद नहीं था। मां ही उनकी पिता थी।
    जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोग भी उदय को भूलते चले गये। अधिकांश रिश्तेदारों तक ने यही मान लिया कि वह अब इस दुनिया से विदा हो चुका है। अगर जिन्दा होता तो कहीं तो नजर आता! सविता ने अपने पति की चिता तो जलते नहीं देखी, लेकिन उसका चित्त जरूर राख हो गया। उस राख में दबी चिंगारियों की तपन उसके बदन को सतत जलाती रही, लेकिन फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी। अपने सास-ससुर की भी पूरी देखभाल करती रही। समय ने घर के हर सदस्य को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया था, जहां उदय का कोई नामो-निशान नहीं था। अपने काम में हरदम व्यस्त रहने वाली सविता बहुत कम इधर-उधर जाती थी, लेकिन एक दिन उसने अपने हाथ में सारंगी लिए एक जोगी को गोरखनाथ के भजन गाते... अपने घर के इर्द-गिर्द चक्कर काटते देखा। उसे वो चेहरा काफी जाना-पहचाना लगा। फिर भी पहले दिन तो उसने अपने दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं दिया, लेकिन दो-तीन दिन तक बार-बार देखने के बाद उसके दिल-दिमाग ने ऐलान कर दिया कि भिक्षा मांगने वाला जोगी और कोई नहीं, उसका पति उदय ही है। एक ही झटके में वह उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह भी एकाएक उसे सामने खड़ा पा स्तब्ध रह गया, लेकिन फिर भी उसने खुद को संभाले रखा। सविता उसके पांव पकड़ बिलख-बिलख कर रोने लगी। पहले तो उदय जिद पर अड़ा रहा कि वह उसे बिलकुल नहीं जानता। वह तो जन्मजात संन्यासी है। उसका इस दुनिया में कहीं कभी भी कोई स्थायी ठिकाना नहीं रहा। दोनों की बातचीत सुनकर धीरे-धीरे आते-जाते लोगों की भीड़ लग गई। गांव वाले सविता के सम्मानजनक चरित्र और संघर्ष से वाकिफ थे। कभी भी उसे किसी से उलझते नहीं देखा गया था। बस अपने काम से काम रखने वाली सविता के पक्ष में पूरा गांव खड़ा हो गया। लाख अपना पक्ष रखने के बावजूद उदय की जब दाल नहीं गली तो उसने स्वीकारा कि वही उसका भगौड़ा पति है, लेकिन अब वह उसके साथ नहीं रह सकता। जोगी धर्म अब उसे गृहस्थ जीवन जीने की आज्ञा नहीं देता। वह तो अपनी पत्नी से भिक्षा लेने आया था, ताकि उसे सिद्धि मिल सके। पत्नी से भीख प्राप्त करने के बाद ही उसे पूरी तरह से सांसारिक जीवन से मुक्ति मिलेगी। एक तरफ सिद्धि पाने के लिए उदय ‘मुक्ति’ मांग रहा था, वहीं सविता उससे अपना पति धर्म निभाने की जिद पर अड़ी थी। समझदार हो चुके बच्चे भी अपने उस पिता का रास्ता रोककर खड़े हो गये, जिसे वे परलोकवासी मानते थे।
    जिस वक्त उदय को सभी अपने घर-परिवार में लौट आने के लिए मनाने में लगे थे, ठीक उसी वक्त संतरानगरी नागपुर में एक अस्सी वर्षीय वृद्ध माता-पिता को अपने बासठ वर्ष के बेटे को वृद्धाश्रम में छोड़ने को विवश होना पड़ रहा था। वृद्धाश्रम चलाने वाले भी इस अद्भुत नजारे को देखकर हैरान थे। अभी तक तो उन्होंने बेटों को ही अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में जबरन छोड़कर खुशी-खुशी ऐसे जाते देखा था, जैसे उनके सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो, लेकिन यहां तो माता-पिता रो-रोकर बेहाल थे। अपने कलेजे के टुकड़े को वृद्धाश्रम में छोड़कर जाते समय उनके चेहरे पर तसल्ली का जो भाव था उसे पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। वे अब पूरी तरह से आश्वस्त थे...। उनके बेटे की पत्नी ने सभी का जीना दुश्वार कर दिया था। शादी के कुछ दिनों के बाद लड़ने-झगड़ने लगी। सास-ससुर का सम्मान करना तो उसे कभी आया नहीं। पति को भी अपना गुलाम समझने लगी। सास-ससुर का हस्तक्षेप उसे शूल की तरह चुभता। उन्हें कुछ ही वर्ष में समझ आ गया कि बहू को उनका घर में साथ रहना नापसंद है। इसलिए उन्होंने अपने रहने की अलग व्यवस्था कर ली। बेटा कभी-कभार जब अपने मां-बाप से मिलने जाता तो वह घर में हंगामा खड़ा कर देती। दो बेटों की मां बनने के बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया। उलटे अब तो वह और भी खूंखार हो गई और पति पर हाथ उठाने लगी। मां की देखा-देखी बच्चे भी पिता को मारने-पीटने लगे। समाज में बदनामी के भय से सीधा सरल पति वर्षों तक पत्नी और बेटों की गुंडागर्दी सहता रहा। जब वह सरकारी नौकरी में था तब उसकी तनख्वाह के पूरे पैसे छीन लिए जाते। सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली पेंशन पर भी पत्नी और बेटों का ही हक था। उसे तो बस भिखारी की तरह अपमानित होकर जैसे-तैसे दिन काटने पड़ रहे थे। एक दिन तो सबने मिलकर उसे लाठी-डंडों से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। कपड़े खून से रंग गये। अब तो उम्रदराज माता-पिता को बेटे की हत्या का डर सताने लगा। अंतत:, जालिम पत्नी और बेटों से ‘मुक्ति’ दिलाने के लिए वे उसे वृद्ध आश्रम लेकर आ गये...।

Thursday, August 19, 2021

पुलिस जिन्दाबाद

    कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन ने सभी के लिए तकलीफें खड़ी कीं। अपने ही घर में कैदी होना पड़ा। कुछ लोग कभी भी नियम-कायदों का पालन करने में यकीन नहीं रखते। इन्हें लॉकडाउन की बंदिशें बेकार लगीं। यह लोग गली-कूचों, सड़कों-चौराहों पर सैर-सपाटा करने के लिए जब-तब निकलते देखे गये। खाकी वर्दीधारियों ने पहले तो उन्हें प्रेम से समझाया, लेकिन जब वे नहीं माने तो सख्ती भी करनी पड़ी। लोगों की सुरक्षा और शांति बनाये रखना पुलिस का कर्तव्य है। हर नागरिक कानून का पालन करे और अपराधियों के हौसले बुलंद न होने पाएं यह देखना भी पुलिस के जिम्मे है। अधिकांश खाकी वर्दीधारी अपना दायित्व निभाने की भरसक कोशिश करते हैं। अपवाद तो हर जगह होते हैं। कोरोना काल में पुलिस की कर्तव्यपरायणता और उदारता की कई तस्वीरें सामने आयीं, जिन्हें देखकर लोग बरबस नतमस्तक होने को विवश हो गये।
    पुलिसवाले भी आखिर इंसान हैं। उनसे भी लोगों की मजबूरी छिपी नहीं रहती। कोरोना महामारी के चरमकाल में असंख्य लोगों का रोजगार छिन गया था। रोज कमाने-खाने वालों के घरों में चूल्हे नहीं जल रहे थे। झुग्गी बस्तियों में तो हाहाकार मचा था। पुलिस अधिकारियों ने स्वयं कई विपदा के मारों के यहां जाकर खाने के पैकेट्स, दूध, दवाएं बांटीं। फुटपाथ पर अपना जीवन-बसर करने वालों को भी उन्होंने भूखे नहीं सोने दिया। खाकी वर्दी की सेवा भावना, संवेदनशीलता और दरियादिली को देखकर लोग बार-बार ‘पुलिस जिन्दाबाद’ के नारे लगाकर आभार जताते देखे गये।
    भारतीय पुलिस विभाग में एक से एक उदार, कर्मठ जुनूनी वर्दीधारी हैं, जो जाने-अनजाने लोगों की भरपूर मदद कर चौंकाते रहते हैं। देश के विशाल प्रदेश उत्तरप्रदेश में एक पुलिस वाला ‘मोहब्बत का रखवाला’ कहलाता है। मात्र 9 महीने में 18 प्रेमी युगलों के प्यार को शादी के मुकाम तक पहुंचा चुके कोतवाल देवेंद्रकुमार शर्मा के पास वो प्रेमी जोड़े बड़ी उम्मीद के साथ पहुंचते हैं, जिनके परिजन उन्हें परिणय सूत्र में बंधता नहीं देखना चाहते। शर्मा किसी को भी निराश नहीं करते। वे स्वयं प्रेमी-प्रेमिका के माता-पिता को समझा-बुझाकर मनाते हैं। उसके बाद उनकी मंदिर में परिजनों की उपस्थिति में खुशी और उत्साहपूर्ण वातावरण में शादी करवा देते हैं। शर्मा कहते हैं कि मैंने जिद्दी माता-पिता के विरोध के कारण कई प्रेमी-प्रेमिकाओं को मौत का आलिंगन करते देखा है। प्यार करने वालों का दुखद अंत मुझसे नहीं देखा जाता। शुरू-शुरू में तो मैं भी प्रेमी जोड़ों को फटकार और दुत्कार दिया करता था, लेकिन एक बार एक जोड़े ने मुझसे हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया कि प्लीज हमारी शादी करवा दीजिए नहीं तो हम रेल के नीचे आकर कट मरेंगे, तो मैं कांप गया। तभी मैंने सच्चे प्रेमियों की शादी करवाने की ठान ली। तब से चला सिलसिला आज भी जारी है और आगे भी सतत चलता ही रहेगा। मेरी निगाह में प्रेमियों को मिलाने से बड़ा और कोई पुण्य नहीं।
    अपराधियों के हौसले पस्त करने के लिए खाकी वर्दीधारियों के द्वारा की जाने वाली कसरत से तो सभी वाकिफ हैं, लेकिन उनके और भी कई वंदनीय, अभिनंदनीय और प्रेरक चेहरे हैं...। नागपुर पुलिस में डीसीपी के पद पर कार्यरत हैं, लोहित मतानी। कुछ दिन पूर्व उन्हें मीरा नामक एक 45 वर्षीय महिला के घोर संकटग्रस्त होने का पता चला। सड़क दुर्घटना का शिकार होने के पश्चात मीरा को महीनों बिस्तर पर रहना पड़ा था। उसके बाद भी वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो पायी। चलने और खड़े रहने तक में तकलीफ होने लगी। जहां पर काम करती थी, वहां से भी हमेशा-हमेशा के लिए उसकी छुट्टी कर दी गयी। डीएसपी मतानी ने मीरा की सहायता करने में देरी न करते हुए शहर के भीम चौक पर फूड स्टॉल लगवा दिया। उसकी तो जिन्दगी ही बदल गई। उसने तहे दिल से कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए स्टॉल के पोस्टर पर अधिकारी और उनके परिवार की तस्वीरें लगा रखी हैं। उसके लिए मतानी परिवार भगवान से कम नहीं। दरअसल, उसकी बहन पुलिस अधिकारी मतानी के यहां काम करती है। उसी ने मतानी की पत्नी को अपनी बहन के कष्ट में होने के बारे में बताया था। श्रीमती मतानी ने पति से मीरा की सहायता करने की पुरजोर सिफारिश की थी...। मीरा के स्टॉल पर पहुंचने वाले ग्राहक भी नतमस्तक हो जाते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि मीरा की खुशहाली में पुलिस अधिकारी का अभूतपूर्व योगदान है। मतानी इससे पहले भी आठ बेसहारा महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवा चुके हैं। इनमें से दो पर तो अपराध के मामले दर्ज हैं। ये सभी महिलाएं अपने रोजगार को बुलंदियों पर पहुंचाने के लिए रात-दिन परिश्रम कर रही हैं।
    रवि खडसे नागपुर में किराए का ऑटो चलाकर अपने भरे-पूरे परिवार का भरण पोषण करता है। बीते हफ्ते किसी गलती के कारण वह यातायात पुलिस की पकड़ में आ गया, जिसकी वजह से उस पर दो हजार रुपये का जुर्माना ठोक दिया गया। उसके पास इतने पैसे नहीं थे। इसलिए उसका ऑटो जब्त कर लिया गया। रवि गहन चिंता में पड़ गया। एकाएक इतने रुपये की व्यवस्था करना उसके लिए संभव नहीं था। घर पहुंचने के बाद वह और उसकी पत्नी इसी आफत से उबरने को लेकर बातचीत कर रहे थे। उनकी बातचीत को उनके दस वर्षीय बेटे ने सुना तो वह तुरंत अपनी गुल्लक उठा लाया, जिसमें उसकी वर्षों की बचत जमा थी। मासूम ने तुरंत अपनी गुल्लक फोड़ी और सारे सिक्के पिता को सौंप दिए। माता-पिता की आंखें नम हो गईं। रवि ने अपनी पत्नी और बेटे के साथ यातायात कार्यालय पहुंचकर एक, दो, पांच, दस रुपये के सिक्कों से भरी प्लास्टिक की थैली पुलिस अधिकारी को सौंपते हुए ऑटो वापस देने का निवेदन किया। चिल्लर पैसों ने अधिकारी अजय मालवीय को हैरानी में डाल दिया। रवि ने जब उन्हें बताया कि यह सारे पैसे बेटे ने अपनी गुल्लक में जमा करके रखे थे, तो मालवीय का दिल भर आया और उन्होंने थैली बच्चे के हाथ में थमाते हुए उसकी पीठ थपथपायी और खुद की जेब से दो हजार रुपये का जुर्माना भरकर ऑटो रवि के हवाले कर दिया। पांचवीं की पढ़ाई कर रहा बच्चा खाकी वर्दीधारी की सहृदयता देख दंग होकर सोचता रह गया। उसने तो पुलिस वालों के बारे में कितनी डरावनी और बात-बात पर गाली-गलौच करने, धमकाने, डंडे बरसाने की बातें सुनी थीं, लेकिन ये अधिकारी तो वैसा बिलकुल नहीं! घर लौटते समय सभी के चेहरे चमक रहे थे। तेजी से ऑटो दौड़ाते पिता से बच्चे ने धीरे से कहा, ‘पापा मैं भी खूब पढ़-लिखकर अंकल जैसा पुलिस वाला बनूंगा।’
    पत्नी और बेटे को घर में छोड़कर रवि फौरन ऑटो चलाने के लिए निकल गया। रात को लौटते समय उसके हाथ में एक मजबूत लोहे की गुल्लक थी। रवि ने बेटे को कुछ सिक्कों के साथ गुल्लक देते हुए कहा, ‘‘प्लास्टिक की थैली में रखे चिल्लर के साथ इन्हें भी नयी गुल्लक में डाल दो। अब तुम्हें गुल्लक खोलने और तोड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैसे भी यह बहुत मजबूत है। बिलकुल तुम्हारी सोच, सपनों और इरादों की तरह...।’’

Thursday, August 12, 2021

इनकी भी तो सोचें

    कोरोना की आपदा ने पढ़ने-लिखने वाले बच्चों को भी नहीं बख्शा। स्कूल-कॉलेज, कोचिंग क्लास सब बंद हो गये। ऐसे में ऑनलाइन पढ़ाई करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा। मुसीबत की बिजली गिरी गरीबों के बच्चों पर, जिनकी लैपटॉप और मोबाइल खरीदने की हैसियत ही नहीं। दूर-दूर तक इंटरनेट कनेक्शन नहीं। इन बच्चों की संख्या हजार दो हजार नहीं, बल्कि करोड़ों में है। इनके मां-बाप इतना कमा ही नहीं पाते कि हजारों रुपये की कीमत वाले लैपटॉप, मोबाइल खरीद सकें। जो बच्चे इस देश का भविष्य हैं, उनकी शिक्षा की फिक्र सरकार को भी नहीं है। सरकार के समक्ष और कई बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं, जिनके समाधान की चिन्ता उसे चौबीस घंटे खाये रहती है। वैसे भी अपना हिन्दुस्तान दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जहां के नेता अपनी कुर्सी को बचाये रखने की लड़ाई में ही हमेशा उलझे रहते हैं। गरीबों की तो बस उन्हें चुनावों के मौसम में ही याद आती है। तब वोटों के लिए मुफ्त में मोबाइल, लैपटॉप भी बांट दिये जाते हैं। कोरोना ने बिना परीक्षा दिए विद्यार्थियों को पास होने का जो मौका दिया है, वह भी देश को भविष्य में भारी पड़ने वाला है। जिन छात्र-छात्राओं ने किताबों का चेहरा नहीं देखा, खेलकूद और इंटरनेट के मायावी जाल में उलझे रहे उन्हें भी पास होने की खुशी मिल गयी। तीस-चालीस प्रतिशत अंक पाने की काबिलियत रखने वाले दसवीं-ग्यारहवीं-बारहवीं के विद्यार्थी बड़ी आसानी से साठ-सत्तर प्रतिशत अंक पाने में सफल हो गये। ऑनलाइन पढ़ाई के इस दौर को हमेशा याद रखा जाएगा। घर में बैठे-बैठे नकलें मारी और मरवायी गयीं, जिससे किसी विद्यार्थी पर भी फेल होने का ठप्पा नहीं लग पाया। ऐसे छल, कपट और धोखे भरे शत-प्रतिशत नतीजे देश को कैसे इंजीनियर, डॉक्टर और अधिकारी देंगे सोच कर ही चिन्ता होने लगती है। वैसे भी अपने देश में आरक्षण के चलते बहुतेरे जीरो भी हीरो बनते चले आ रहे हैं। कोरोना ने इस तादाद को और बढ़ाने के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। हालांकि कोरोना की मजबूरी सब पर भारी रही, लेकिन जिस तरह से आरक्षण के बलबूते पर छलांगे लगाने वालों पर तीर चलाये जाते हैं, उसी तरह से कोरोना काल में पिछले एसेसमेंट के आधार पर पास कर दिये गये छात्रों को भी शंका की निगाह से देखा जायेगा। कोई भी देश अच्छी और सच्ची शिक्षा के बिना बेहतर भविष्य की राह पर नहीं चल सकता। सरकारों का प्रथम कर्तव्य यही है कि हर बच्चे को पढ़ने-लिखने और खेलकूद के भरपूर अवसर मिलें, लेकिन इस महान देश में तो शिक्षा को लेकर घोर नजरअंदाजी का बोलबाला है। साठ प्रतिशत से अधिक स्कूलों, विद्यालयों में खेलकूद के मैदान ही नहीं हैं। उस पर यह रोना भी रोया जाता है कि यहां के युवा तरसा-तरसा कर ओलिंपिक में मेडल लाते हैं। दूसरे देशों के युवाओं की तुलना में ये एकदम फिसड्डी हैं।
    यह सच ही तो है कि, धनवानों की नालायक औलादें डोनेशन और रिश्वत की बदौलत डॉक्टर, इंजीनियर आदि-आदि बनने में सफल हो जाती हैं। आरक्षण और धन के झुनझुने ने काबिलों को पीछे छोड़ने का सतत अपराध किया है। इसीलिए आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश वहां नहीं पहुंच पाया, जहां पर उसे होना चाहिए था। पिछले कई वर्षों ने देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की मांग की जा रही है, लेकिन सत्ता की कुर्सी के खिलाड़ियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। उन्हें तो देश के भविष्य की निरंतर होती दुर्गति को नजरअंदाज कर अपने सुखद भविष्य के सपनों को साकार करने में अपार संतुष्टि मिलती है। इंटरनेट, लैपटॉप और मोबाइल की चिन्ताजनक कमी से जूझने के मामले में बिहार पहले नंबर पर है, जहां पर 1 करोड़ 43 लाख छात्रों ने अभी तक अपने खुद के लैपटॉप और मोबाइल का चेहरा तक नहीं देखा है। इसी तरह से झारखंड में 35 लाख 32 हजार, कर्नाटक में 31 लाख 31 हजार, असम में 31 लाख 6 हजार छात्रों के पास डिजिटल डिवाइस नहीं हैं। उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, अरुणाचल, गोवा आदि में भी हर बच्चे के हाथ में मोबाइल लैपटॉप हो ऐसा कतई नहीं है। स्कूलों के बेबस मास्टरों का भी दिमाग चक्कर खाता रहता है। वे जानते-समझते हैं कि जो मां-बाप गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई की जानलेवा मार से त्रस्त हैं, वे अपने बच्चों को मोबाइल और लैपटॉप कहां से लाकर दें। कोरोना की आपदा के खूनी पंजों से आहत अभिभावक नासमझ नहीं। वे जानते हैं कि पहले भी उनके बच्चों के ज्यादा अच्छे भविष्य के आसार नहीं थे, इस महामारी ने तो उन्हें और भी निराश कर दिया है। जो लोग साधन सम्पन्न हैं उन्हीं के बच्चों के लिए डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, टेक्नोक्रेट, प्रशासक अर्थशास्त्री तथा नेता मंत्री-संत्री बनने के सभी दरवाजे खुले थे और खुले हैं। गरीबों, असहायों की औलादें तो क्लर्क, स्कूल मास्टर, चपरासी और सेवक बनने के लिए ही जन्मती हैं। उनके लिए इससे आगे सोचना मना है। लोग सरकार से जानना चाहते हैं कि उनकी तिजोरी का धन आखिर जाता कहां है? दरअसल, सरकारों ने अपने खर्चे बेतहाशा बढ़ा लिये हैं। सरकारी कर्मचारियों के वेतन में ही औसतन चालीस से पचास प्रतिशत धन खत्म हो जाता है। केरल में सरकारी कर्मचारियों के वेतन में 70 प्रतिशत आय खर्च हो जाती है और तमिलनाडु में 71 प्रतिशत। उस पर भी मोटी-मोटी तनख्वाहें झटकने वाले छोटे-बड़े नौकरशाह रिश्वतें खाने से बाज नहीं आते। अधिकांश राजनेताओं, प्रशासकों को वर्षों से भ्रष्टाचार की जो बीमारी लगी है, उसे खत्म करना फिलहाल तो असंभव दिखायी देता है। हर बार जब कोई नया शासक आता है तो अपने भाषणों में भ्रष्टाचार को नेस्तनाबूत करने की उम्मीदें जगाता है, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं।
    सरकारों से ज्यादा उम्मीद रखना बेमानी है। ऐसे में सजग देशवासियों को ही सामने आना होगा। कोरोना काल में सभी ने देखा है कि अपने यहां के लोगों में सहायता और सेवा की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यहां एक नहीं अनेक सोनू सूद हैं, जो वक्त पड़ने पर अपनी जान तक की बाजी लगाते हुए संकटग्रस्त लोगों की तकलीफें दूर कर सकते हैं। महाराष्ट्र के पुणे से सटे पिंपरी-चिचवड की एक वर्षीय मासूम वेदिका शिंदे को एक ऐसी दुर्लभ बीमारी ने अपने शिकंजे में दबोच लिया था, जिसके लिए दुनिया के सबसे महंगे इंजेक्शन की जरूरत थी, जिसकी कीमत है, सोलह करोड़ रुपये। बच्ची के गरीब मां-बाप के लिए इतना महंगा इंजेक्शन खरीद पाना असंभव था। उन्होंने अपनी मासूम बेटी की जान बचाने के लिए अखबारों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया के जरिए वेदिका की बीमारी और महंगे इंजेक्शन की जानकारी देशवासियों तक पहुंचायी तो संवेदनशील दानवीरों ने कुछ ही दिनों में 16 करोड़ रुपयों की व्यवस्था कर दी। ये सच भी अत्यंत दुखदायी है कि दुनिया का महंगा इंजेक्शन लगाये जाने के बाद भी बच्ची चल बसी। यहां पर उन दानदाताओं की तो तारीफ तो करनी ही होगी, जिन्होंने एक अनजान बच्ची की जान बचाने के लिए दिल खोलकर आर्थिक सहायता देने में देरी नहीं की। हमारे देश में एक से एक समाजसेवक और दानवीर भरे पड़े हैं। वे यदि ठान लें तो गरीब छात्र-छात्राओं की मोबाइल और लैपटॉप की समस्या का भी चुटकी बजाते समाधान हो सकता है। सरकार को कुछ करना होता तो इस समस्या को जन्मने ही नहीं देती। देशभर की सामाजिक संस्थाओं, उद्योगपतियों, व्यापारियों और तमाम सक्षम लोगों के बिना किस भेदभाव के सहायता के लिए सामने आने से निश्चय ही सरकारों के मुंह पर तमाचा पड़ेगा। हो सकता है तब उनकी आंखें खुल जाएं और अपने प्राथमिक कर्तव्य को निभाने लगें।