Thursday, November 25, 2010

यह जो जिं‍दगी की किताब है...

घोर नाउम्मीदी के दौर में भी जब कोई आशा के दीप जलाता है तो उसे बार-बार नमन करने को मन चाहता है। किसी कवि की कविता का सार है कि अभी इस दुनिया में बहुत कुछ बाकी है। पूरी तरह से निराशा का दामन थामने की कतई जरूरत नहीं है। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। अभी हाल ही शहर में आयोजित एक पुरस्कार वितरण समारोह में एक ऐसे शख्स से साक्षात्कार हुआ जिनका नाम जिम्मी राणा है। जिम्मी राणा 'दिनशॉ' के मालिक हैं। करोडों की दौलत उनके कदम चूमती है। दिनशॉ दूध, दही और आईस्क्रीम के साथ वर्षों पुरानी साख और पहचान जुडी हुई है। सनराईज पीस मिशन के द्वारा जिम्मी राणा को जब पुरस्कार देने की घोषणा की गयी तो बहुतेरे लोगों की तरह मेरे मन में भी यही विचार आया कि उन्हें व्यापार धंधे की उपलब्धियों के कारण सनराईस पीस अवार्ड से नवाजा जा रहा है। वैसे भी आजकल मालदार उद्योगपतियों को मंचों पर बैठाकर सम्मानित करने का फैशन-सा चल प‹डा है। पर जब मैंने जिम्मी राणा को पुरस्कृत करने की असली वजह जानी तो मैं स्तब्ध रह गया।जिम्मी राणा इंसानियत के धर्म को निभाते हुए उन लोगों के जख्मों पर मलहम लगाते हैं जिनके पास अपना कोई आसरा नहीं है। न जाने कितने ऐसे अभागे मरीज होते हैं जिनकी बीमारी लाइलाज हो जाती है और घर-परिवार और रिश्तेदार भी मुंह मोड लेते हैं। उनके लिए जिम्मी राणा मसीहा हैं। जानलेवा रोग से आहत और अपनों से ठुकराये जरूरतमंदों के लिए उन्होंने स्नेहांचल होस्पाईस की स्थापना की है। यह एक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट है। हजारों फीट क्षेत्रफल में फैले स्नेहांचल में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का बडी आत्मीयता के साथ इलाज किया जाता है। कई मरीज ऐसे भी होते हैं जिन के परिवारों की आर्थिक स्थिति इस काबिल नहीं होती कि उनका समुचित इलाज करवा सकें। उनके लिए स्नेहांचल के द्वार हमेशा खुले रहते हैं। ऐसे भी अनेकों रोगी होते हैं जिनका इलाज करने में बडे-बडे अस्पताल असमर्थता जताते हुए घर का रास्ता दिखा देते हैं तो उन्हें भी यहां पनाह दी जाती है। स्नेहांचल में गंभीर मरीजों का इलाज ही नहीं किया जाता बल्कि उनके सोये हुए आत्मबल और आशा को भी जगाया जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों में जो निराशा और हताशा घर कर जाती है उससे मुक्ति दिलाने के लिए भावनात्मक सुरक्षा, आत्मीयता और स्नेह की इतनी वर्षा की जाती है कि रोगी को चिरनिद्रा में सोने और जीवन को खोने का कोई मलाल नहीं होता। यानि स्नेहांचल में हंसते-खेलते हुए मृत्यु की गोद में समाने का पाठ भी पढाया जाता है। मानव सेवा के इस अद्वितिय कार्य के लिए जिम्मी राणा अपना सब कुछ समर्पित कर चुके हैं। उन्हें दुखियारों को स्नेह से सराबोर करने में अभूतपूर्व सुकून मिलता है। ऐसे महामानव को आप भी जरूर सलाम करना चाहेंगे...।जब जिम्मी राणा की बात चली है तो मुझे नारायण कृष्णन की याद आ रही है। २९ वर्षीय नारायण उन सैकडों लोगों को नियमित भरपेट खाना खिलाते हैं जो लाचार हैं, असहाय हैं और काम करने में असमर्थ हैं। विक्षिप्तों की अवहेलना और भूख भी उनसे देखी नहीं जाती। नारायण बेंगलुरू के निवासी हैं। एक फाइव स्टार होटल में हजारों रुपये के पगार वाली नौकरी करने वाले इस नौजवान को स्विटजरलैंड के एक आलीशन होटल में काम करने का न्योता मिला था। तय है कि उन्हें तनख्वाह के रूप में लाखों रुपये मिलने जा रहे थे। उन्होंने देश छोड विदेश जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। बेंगलुरू से दिल्ली जा कर स्विटजरलैंड की फ्लाइट पकडने के बजाय उन्होंने एक दूसरी ही राह पकड ली जो प्रारंभ में तो उनके पिता को कतई रास नहीं आयी। पिता ने पुत्र को लेकर कई सपने सजा रखे थे जो एक ही झटके में धरे के धरे रह गये। हुआ यूं कि कुछ दिन पहले नारायण शहर में घूमने निकले थे। उन्होंने रास्ते में कुछ विक्षिप्त लोगों को कचरे के ढेर में से खाना ढूंढकर खाते हुए देखा तो उनका दिल भर आया। इतनी गरीबी और ऐसी विवशता कि इंसान को अपने पेट की आग को ठंडा करने के लिए गदंगी का सहारा लेना पडे! ये भी इंसान हैं और वो भी इंसान हैं जो लजीज खाने का हलका-सा स्वाद लेकर जूठन फेंक देते हैं। यह हमारी ही दुनिया है जहां पर करोडों लोग भूखे सोते हैं। दो वक्त की रोटी मिलना हर किसी के नसीब में नहीं है। पर यह कैसा नसीब है, कैसी दुनिया है और कैसे-कैसे लोग हैं! नारायण ने उसी दिन, उसी वक्त तय कर लिया कि वे कहीं नहीं जाएंगे। भुखमरी के शिकार लोगों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे। उन्होंने होटल की लगी-लगायी नौकरी को भी लात मार दी और फिर उस जनसेवी अभियान में लग गये जो भूख से बिलबिलाते निरीह लोगों को देखने के बाद उनके दिल में जागा था। उन्होंने रेस्तरां से ढेरों खाना खरीदकर विक्षिप्तों और असहाय लोगों को खिलाना शुरू कर दिया। कोई और होता तो पांच सात दिन में उसके हौसले ठंडे पड जाते। पर नारायण तो किसी और ही मिट्टी के बने हैं।लोग उन्हें सनकी कहने लगे। पिता को भी यह पुत्र इतना खटकने लगा कि उनके मन में भी नफरत ने जगह ले ली। नारायण तो ठान चुके थे। उन्होंने किसी की कोई परवाह नहीं की। बैंक बैलेंस भी जीरो हो गया पर अपने तयशुदा लक्ष्य से कतई नहीं डगमगाये। धीरे-धीरे जब दोस्तों और करीबियों को उनके अभियान की खबर लगी तो वे भी उनके साथ जुडने लगे। हर रोज होटलों से भोजन खरीद कर जरूरतमंदों को उपलब्ध कराना आसान नहीं था। कहते हैं न कि 'जहां चाह होती है वहां राह भी निकल ही आती है।' नारायण के पिता भले ही बेटे के अन्नदाता होने से खफा रहे हों पर मां ने कभी भी बेटे के प्रति नाराजगी नहीं दिखायी। उन्होंने तो बेटे को खाना बनाने के लिए वो पुश्तैनी मकान भी सहर्ष सौंप दिया जो वर्षों से खाली पडा था। होटलों के बजाय अब इसी मकान में खाना बनने लगा। नारायण के हौसले और बुलंद होते चले गये। वे शुरू में तो अकेले ही चले थे पर आज उनका साथ देने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। उन्होंने दोस्तों की मदद से 'अक्षय' नामक संस्था की स्थापना कर ली है। इस संस्था के क्रियाकलापों से जो भी सज्जन वाकिफ होते हैं वे सहायता का हाथ बढा ही देते हैं। पुत्र की जब चारों तरफ तारीफें होने लगीं तो पिता की नाराजगी भी जाती रही। अब तो पिता भी बेटे के साथ भोजन के पैकेट थामकर सुबह-शाम भिखारियों की तलाश में निकल पडते हैं। अब नारायण की ख्याति सात समंदर पार भी जा पहुंची है तभी तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय संस्था सीएनएन ने समाज सेवा के लिए पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। नारायण कृष्णन पहले भारतीय हैं जिन्हें इस अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जा रहा है...। यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान उन जुनूनी समाज सेवकों को मिलता है जो बिना किसी दिखावे और प्रचार-प्रसार के सच्चे मन से दुखियारों की सेवा में लगे रहते हैं। हर आदमी का जीवन एक किताब होता है। इस दुनिया में हजारों करोड लोग रहते हैं। अपनी-अपनी जिं‍दगी की किताब हर कोई लिखता है पर हर किसी की किताब पढने लायक नहीं होती। जिम्मी राणा और नारायण कृष्णन जैसे मानवता के पुजारियों की किताब की बात ही कुछ और होती है। इसलिए इस किताब को सभी बार-बार पढना चाहते हैं। इस लाजवाब किताब के पन्ने खुद-ब-खुद खुलते चले जाते हैं। जबकि दीगर किताबों को लोग हाथ लगाना तो दूर देखना तक पसंद नहीं करते...।

Thursday, November 18, 2010

कुछ तो शर्म करो...

''आज से बीस साल पहले नितिन गडकरी लूना पर चलते थे और आज उनके पास अरबों-खरबों की संपत्ति है। आखिर यह अपार दौलत कहां से आयी?''यह सवाल उठाया है कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिं‍ह ने। जवाब देना है उस नितिन गडकरी को जो वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और संघ के दुलारे हैं। वैसे यह बात सबको पता है कि ऐसे सवालों के जवाब कभी भी सामने नहीं आ पाते। तेरी भी चुप मेरी भी चुप की परंपरा को निभाने में विश्वास रखने वाले भारतीय नेताओं की तंद्रा तब भंग होती है जब कोई उन्हें उकसाता और उचकाता है। अगर गडकरी ने कामनवेल्थ खेलों की तैयारियों में हुई धांधलियों में राहुल गांधी के सचिव कनिष्क सिं‍ह का नाम न लपेटा होता तो दिग्गी राजा इतना मारक तीर कतई न छोडते।वैसे यह तथ्य भी काबिले गौर है कि नितिन गडकरी भाजपा के पहले अध्यक्ष हैं जिनपर सीधे तौर पर तरह-तरह के आरोप लगते चले आ रहे हैं। भाजपा और संघ में अंदर ही अंदर चिं‍ता घर करती चली जा रही है कि इस 'विवादवीर' अध्यक्ष की किस तरह से रक्षा की जाए। अभी तक उन जैसा कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं हुआ जिस पर इस तरह के तीखे सवाल दागने के साथ-साथ बेहद संगीन आरोप लगाये गये हों। दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे विचारवान नेताओं के खून पसीने से जिस भाजपा पार्टी की नींव पुख्ता की गयी उसी पार्टी के अध्यक्ष का इस तरह के सवालों से घिरना पार्टी के अच्छे भविष्य के संकेत नहीं दे रहा है।वैसे भाजपा की साख की तो उसी दिन काफी हद तक मिट्टी पलीत हो गयी थी जब कुछ वर्ष पहले तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण एक लाख रुपये की गड्डी लेते हुए धरे गये थे। बंगारू लक्ष्मण आज कहां हैं इसका पता लगाने के लिए मुनादी करानी पडेगी। अब रही बात दिग्गी राजा के द्वारा दागे गये सवाल की तो इसका उत्तर सर्वविदित है। सत्ता में आते ही नेताओं की तिजोरियां अपने आप ही लबालब हो जाती हैं और कुछ ही वर्षों में वे इतने मालदार हो जाते हैं कि धन-दौलत के मामले में बडे-बडे उद्योगपति भी उनके सामने बौने नजर आते हैं। दिग्गी राजा स्वयं दस वर्ष तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और गडकरी भी महाराष्ट्र के सार्वजनिक बांधकाम मंत्री के पद पर शोभायमान होने का भरपूर अवसर पा चुके हैं। हाल ही में देश के विख्यात उद्योगपति रतन टाटा ने डंके की चोट पर कहा है कि कुछ वर्ष पूर्व उनका टाटा समूह देश में सिं‍गापुर एयरलाइंस के साथ एक हवाई सेवा शुरू करने की तैयारी को अमलीजामा इसलिए नहीं पहना पाया क्योंकि उन्होंने तत्कालीन उड्डयन मंत्री द्वारा मांगी गयी १५ करोड की रिश्वत देने से इंकार कर दिया था। रतन टाटा ने देश पर राज करने वाले लोकतंत्र के प्रहरियों की वो शर्मनाम सच्चाई बयां की है जिससे आज देश फिर से एक बार शर्मिंदा हुआ है। कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला, घोटाले पर घोटाला और बेचारा हिं‍दुस्तान...। हर तरफ से निचोडे जा रहे हिं‍दुस्तान में किसी एक को आप दोष नहीं दे सकते। ऐसा करेंगे तो कटघरे में खडे कर दिये जाएंगे। जिस पार्टी ने भी सत्ता सुख भोगा उसने जी भरकर मलायी खायी। वर्षों से यह दस्तूर चला आ रहा है। इस महारोग से कौन सी पार्टी और राजनेता अछूते हैं पहले देशवासियों के समक्ष उसका खुलासा किया जाए तो बात बनेगी। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के तमाशों से लोग तंग आ चुके हैं। स्वर्गीय राजीव गांधी तो ६४ करोड के बोफोर्स घोटाले में लपेटे गये थे पर आज तो ऐसे 'राजा' भी हैं जिन पर एक लाख छिहतर हजार करोड के घापे का आरोप लगा है पर फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। बोफोर्स घोटाला लगभग इक्कीस वर्ष पूर्व गूंजा था। इस धमाकेदार गूंज ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल तो किया ही था साथ ही उनकी छवि पर भी ऐसे गहरे दाग लगाये थे कि जो अभी तक नहीं धुल पाये हैं। इन इक्कीस सालों में भ्रष्टाचारी दानवों के हौसले इतने अधिक बढ गये हैं कि सौ-दो सौ करोड इनके लिए कोई मायने नहीं रखते। हजार-पांच हजार करोड से बात बढते-बढते पौने दो हजार करोड तक आ पहुंची है। कहां वो ६४ करोड और कहां यह एक लाख ७६ हजार करोड!... कोई नहीं जानता कि भ्रष्टाचार के ये आकाश छूते आंकडे कहां पर जाकर थमेंगे, क्योंकि देने वालों के हौसले और लेने वालों की भूख बढती ही चली जा रही है। इस देश में सभी रतन टाटा नहीं हैं जो रिश्वत देने से इंकार कर दें। जिसमें रिश्वत देने का दम होता है उसे 'अंबानी' बनने में देरी नहीं लगती। धीरुभाई अंबानी ने अगर नौकरशाहों और सत्ताधीशों की तिजोरियां न भरी होतीं तो उनका अरबों-खरबों का साम्राज्य कहीं नजर नहीं आता। देश में ऐसे उद्योगपतियों, खनिज माफियाओं, भूमाफियाओं, शिक्षा माफियाओं और अराजक तत्वों की भरमार है जो सत्ता के गलियारों में रिश्वत की मालाएं हाथ में थामे घूमते रहते हैं और येन-केन-प्रकारेण अपना काम करवा कर ही दम लेते हैं। राजनेताओं के साथ-साथ दलालों और नौकरशाहों के भी यहां मजे ही मजे हैं। देश के एक चिं‍तक जिन्होंने मंत्रियों और संत्रियों के चाल-चरित्र और परंपरागत व्यवहार का गहन अध्यन किया है, का स्पष्ट आकलन है कि घुटे हुए नौकरशाह ही अक्सर मंत्रियों को भ्रष्टाचार के मार्ग सुझाते हैं और भ्रष्टाचार के अरबों-खरबों के इस लूट के खेल में अंतत: दमदार मंत्रियों के हिस्से में पच्चीस से तीस प्रतिशत काला धन आता है और बाकी मलाई अफसर मिल बांटकर हजम कर जाते हैं। यह आकलन सही भी लगता है क्योंकि अपने देश में चपरासी, बाबू और अफसर बिना मुट्टी गर्म किये कोई भी फाइल आगे नहीं बढने देते। ऐसे में यह भी सोचने और समझने का मुद्दा है कि जब इस देश में भ्रष्टाचारी नेताओं की तिजोरियों में हजारों करोड भरे पडे हैं तो भ्रष्ट अफसरों के यहां कितना खजाना होगा...। ऐसे तंत्र-मंत्र और स्वतंत्र खेल में दिग्विजय सिं‍ह का प्रश्न कोई पहेली तो नहीं है फिर पता नहीं क्यों वे पहेलियां बुझाने का नाटक कर रहे हैं और देशवासियों को भरमा रहे हैं!

Thursday, November 11, 2010

अब नहीं तो कब सुधरोगे?

वो नेता ही क्या जो काला-पीला न करे। इस कलाकारी की बदौलत झोली में बरसने वाली काली कमायी को ठिकाने लगाने के लिए भी बडा दिमाग लगाना पडता है। जो अक्ल के कच्चे होते हैं वो जल्द ही मीडिया और कानूनी फंदे के शिकार हो जाते हैं। इसलिए अपने देश के अधिकांश शातिर नेता बहुत दूर की सोचकर चलते हैं। भ्रष्टाचार की माया को ऐसे-ऐसे ठिकाने लगाते हैं कि कानून भी ताकता रह जाता है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को इसलिए कुर्सी खोनी पडी क्योंकि उनके ठिकाने उजागर हो गये और विरोधी पार्टी के नेताओं और मीडिया ने शोर मचाना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र में कौन-सा नेता कितना ईमानदार है यह अपने आप में गहन शोध का मुद्दा है। तभी तो जैसे ही आदर्श हाऊसिं‍ग सोसाइटी भ्रष्टाचार में मुख्यमंत्री की संलिप्तता का पर्दाफाश हुआ वैसे ही केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिं‍दे से लेकर महाराष्ट्र के कद्दावर नेता-मंत्री नारायण राणे और अनिल देशमुख जैसों के नाम भी प्रकट होने शुरू हो गये। यह कहावत भी पूरी तरह से चरितार्थ हो गयी कि राजनीति के हमाम में लगभग सब नंगे हैं। जिसके चेहरे से नकाब उठाओ वही ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबा नजर आता है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने तो कमर ही कस डाली कि कांग्रेस की ऐसी की तैसी करके ही दम लेना है परंतु मनचाही बात बन नहीं पायी। कांगे्स ने भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के सौदागर साथी अजय संचेती और उनके ड्राइवर के नाम पर आदर्श सोसायटी में झटके गये फ्लैटों का धमाका कर दिया। इस धमाके का कमाल ही कहेंगे कि भाजपा की बोलती ही बंद हो गयी। देश की जागरूक जनता ने भी जान-समझ लिया कि हमाम में तो ये सभी नंगे हैं फिर भी आपस में पंगे लेते रहते हैं और जनता को बेवकूफ बनाते रहते हैं! अब गडकरी यह तो कहने से रहे कि मैं अजय संचेती को नहीं जानता। मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं है। यदि अजय ने आदर्श घोटाले में साझेदारी की है तो तय है कि 'आका' की बदौलत ही। बताते हैं कि भाजपा अध्यक्ष के खजाने में ऐसे रत्नों की भरमार है। इनकी शिनाख्त सिर्फ जौहरी ही कर सकता है। सरकार-वरकार के बस की बात नहीं है। यह भी मुद्दे की बात है कि अगर गडकरी एंड कंपनी पर लगा आरोप सिद्ध हो जाता है तो सवाल यह भी उठेगा कि जिस तरह से मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की कुर्सी छीन ली गयी वैसा ही कुछ भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ भी हो पायेगा?अपनी सास, साले-साली को कारगिल के शहीदों के हिस्से के करोडों रुपये के फ्लैट मुफ्त के भाव दिलवाने वाले अशोक चव्हाण अगर राजनीति के असली कलाकार होते तो ऐसी भूल नहीं करते जो फौरन पकड में आ जाए। अपने ड्राइवर, रसोइये, विश्वस्त चमचे आदि के नाम करोडों की सम्पति खरीद कर चैन की बंसी बजा सकते थे जैसे कि दूसरे बजा रहे हैं। वैसे तो ऐसा लगभग सभी भ्रष्ट नेता करते हैं पर महाराष्ट्र में इस परंपरा को बडे ही बेजोड तरीके से निभाया जाता है। क्या मजाल कि कोई सिद्ध कर दे कि नेताजी ने कहां-कहां पर अरबों-खरबों का निवेश कर रखा है, संपत्तियां खरीद रखी हैं और टुकडों पर पलने वाले तरह-तरह के माफिया और गुंडे-मवाली पाल रखे हैं।देश और दुनिया में महाराष्ट्र का नाम जिस सम्मान के साथ लिया जाता है वैसी ही सम्मानजनक स्थिति कभी यहां के नेताओं की भी थी। लगता है अब वो दिन लद गये हैं। राजनेताओं को इज्जत और शोहरत से ज्यादा दौलत और बदनामी लुभाने लगी है। सत्ता की ताकत की बदौलत हथियाये गये स्कूलों-कालेजों, शक्कर कारखानों और दारू की फैक्टरियों से बरसने वाली अपार दौलत से जब इनका पेट नहीं भरा तो इन्होंने खनिज और भूमाफियाओं से दोस्तियां गांठने में भी परहेज नहीं किया। बहुतेरों का एक ही मकसद रहा है जितना हो सके उतना बटोर लो। कल का क्या भरोसा?इसी चक्कर में बुरी तरह से फंसे अशोक चव्हाण चलते कर दिये गये। चव्हाण साहब ने बडी मेहनत से विधानसभा चुनाव जीता था। साल भर पहले की ही तो बात है जब उन्होंने प्रदेश भर के चुनिं‍दा अखबारों में पूरे-पूरे पन्नों के लेख छपवाये थे। फोटो भी खूब छपी थीं। जिन अखबार वालों को पेड न्यूज की बख्शीश नहीं मिली थी वे आग बबूला भी हो गये थे। पर मुख्यमंत्री का बाल भी बांका कर पाना उनके वश की बात नहीं थी। थैलियां देकर अपनी तारीफ में लेख और न्यूज छपवाने के संगीन आरोप का मामला आखिरकार हाईकमान तक भी गया था पर अनसुना कर दिया गया, जैसे यह तो आम बात है। ऐसा तो हर बडा नेता करता है। दरअसल अशोक चव्हाण पर कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी को बेहद विश्वास था। इसी विश्वास के चलते ही उन्हें दो वर्ष पूर्व महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया गया था। अशोक चव्हाण के साथ उनके पिताश्री शंकरराव चव्हाण की ईमानदार छवि भी जुडी हुई थी जिसे बेटे ने ध्वस्त कर दिया है। अशोक चव्हाण ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के विश्वास की भी धज्जियां उडायी हैं। तभी तो जैसे ही उनकी छुट्टी की गयी वैसे ही फौरन राहुल गांधी को कहना पडा कि अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद पूरी तरह से ईमानदार व्यक्ति को ही सौंपा जायेगा। राहुल गांधी के इस कथन से यह पीडा भी स्पष्ट झलकी कि महाराष्ट्र में ईमानदार कांग्रेसी नेताओं का टोटा पड गया है। पृथ्वीराज चव्हाण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बना दिये गये हैं। पृथ्वीराज दिल्ली की राजनीति के चर्चित योद्धा हैं। वे दो बार १९९१ और १९९६ में महाराष्ट्र की कराड लोकसभा सीट से चुनाव जीत कर जननेता होने का सबूत दे चुके हैं। महाराष्ट्र से ही राज्यसभा सदस्य चुने गये पृथ्वीराज को भी सोनिया गांधी का खासमखास माना जाता है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके पास राज्यमंत्री की हैसियत से पांच महत्वपूर्ण विभाग थे जिनमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अलावा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, कार्मिक, पेंशन मंत्रालय और संसदीय कार्यमंत्रालय शामिल थे। तय है कि उनकी भरपूर योग्यता को देखते हुए उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री तो बनाया ही गया है, साथ ही महाराष्ट्र के नामी-गिरामी सत्तालोलुप और भ्रष्टाचारी कांग्रेसी नेताओं को चेताया और सुझाया गया है कि अगर तुम लोगों में काबिलियत होती तो दिल्ली से मुख्यमंत्री भेजने की नौबत ही न आती। अभी भी वक्त है... होश में आओ... सुधर जाओ...। आज दिल्ली से मुख्यमंत्री भेजा गया है कल को मंत्री भी भेजे जा सकते हैं...।

Wednesday, November 3, 2010

कौन सुलगाएगा बुझी हुई बाती?

राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, सत्ता के दलालों और चम्मचों के जमावडे के गठजोड ने देश को निगल जाने की ठान ली है। भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार, घोटालों पर घोटाले करते चले जाने में अब इन्हें कतई शर्म नहीं आती। हद दर्जे की निर्लज्जता इनकी नस-नस में समा गयी है। कफनचोरों को भी मात देने लगे हैं यह। आज यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इस देश में कुछ ही ऐसे नेता होंगे, जिनका लक्ष्य वास्तव में देश सेवा है। ऐसे नीयतखोरों की भीड बढती ही चली जा रही है, जो देश के हित के लिए राजनीति में नहीं आये हैं। अपने घर-परिवार और अपने चहेतों के लिए राजनीति के डंके बजाना ही इनके जीवन का मूलमंत्र है। इसलिए इन्हें हमेशा देश को लूटने-खसोटने के मौकों की तलाश रहती है। देश में ईमानदारों का इतना अकाल पड जायेगा और भ्रष्टाचारियों की इतनी अधिक तादाद बढ जायेगी इसकी तो किसी ने भी कल्पना नहीं की थी। ऊपर से नीचे तक सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे साबित हो रहे हैं। देश में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब समाजवादी जार्ज फर्नाडीस देश के रक्षा मंत्री थे। उन्होंने तब करोडों के ताबूत घोटाले को अंजाम देकर भारत माता का सर शर्म से झुकाया था। तब एकबारगी यह भी लगा था कि देश में इस किस्म के कफन चोर अपवाद स्वरूप होंगे। पर बीते सप्ताह महाराष्ट्र में जैसे ही कारगिल के शहीदों के परिजनों को मकान उपलब्ध कराने के लिए बनायी गयी आदर्श हाऊसिं‍ग सोसायटी का घोटाला सामने आया तो यकीन हो गया कि देश में ऐसे बहुतेरे कफन चोर हैं जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है। यह कितनी शर्म की बात है कि शहीदों के परिवार वालों को फ्लैट उपलब्ध कराने के लिए बहुमूल्य रक्षा भूमि ली गयी और फ्लैटों की आपस में बंदरबांट कर ली राजनेताओं, नौकरशाहों और सेवा निवृत्त सैन्य अधिकारियों ने। इन ठग और लूटेरों में जब प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण का नाम उजागर हुआ तो हडकंप मच गया। इस तरह के दिखावटी हडकंप अक्सर मचते रहते हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। जब से देश आजाद हुआ है तभी से इस किस्म की लूटमार चलती चली आ रही है। जो पकड में आ जाता है वही चोर कहलाता है। चोर-चोर का शोर मचाने वाले कितने पाक-साफ हैं इसकी खबर भी देशवासियों को है। पर बेचारे आखिर करें तो क्या करें! उनके हाथ में कुछ भी तो नहीं है।वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब यह सारा देश कुछ भ्रष्टतम उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों का बंधक बन कर रह जायेगा। हो सकता है कि कुछ पाठकों को मेरी यह सोच अविश्वसनीय लगे और उनका मन आहत हो पर यही कडवा सच है। अगर वक्त रहते हम सब देशवासी नहीं जागे तो यह कडवा सच एक ऐसे विष में तब्दील हो जायेगा कि खुली हवा में सांस लेना दूभर हो जायेगा। सोचिए, चिं‍तन कीजिए कि देश का ऐसा कौन-सा प्रदेश है जहां राम राज्य चल रहा हो। राम के नाम पर सत्ता हथियाने वाली भारतीय जनता पार्टी की मध्यप्रदेश में सरकार है। यह सरकार उद्योगपतियों को सरकारी जमीन कौडिं‍यों के दाम ऐसे बांट रही है कि हाथ में आया मौका कहीं चूक न जाए। छत्तीसगढ में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। भाजपा का ऐसा कोई नेता नहीं बचा जिसने बहती गंगा में हाथ न धोए हों। छापे पर छापे पड रहे हैं। कल के छुटभैयों के यहां करोडों का काला धन बरामद हो रहा है।जो लोग सत्ता के करीब हैं, सत्ता के दलाल हैं इस लोकतंत्र में वही खुशनसीब हैं। देश और प्रदेशों की बेशकीमती सरकारी जमीन, मूल्यवान वनोपज, खनिज पदार्थ और राष्ट्र की तमाम धन दौलत इनकी खानदानी जागीर बन चुकी है। सत्ता पर काबिज राजनेताओं के चम्मचे, चेले-चपाटे जिस तरह से सरकारी ठेके हथिया रहे हैं और धांधलियां कर रहे हैं उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इन्हें 'आका' का मूक समर्थन हासिल है। जितना दम है लूट लो। हाथ आये मौके का पूरा फायदा उठा लो। इनसे कोई यह कहने की हिम्मत भी नहीं करता कि कुछ तो शर्म करो। इतनी नीचता मत दिखाओ। जनता के जिस वोट से सिं‍हासन पर पहुंचे हो उसका भी तो कुछ ख्याल करो। अगर सत्ताधीशों ने आम जनता की चिं‍ता की होती तो आज देश के इतने बदतर हालात कतई न होते। एक तरफ आकाश को छूने को आतुर अट्टालिकाओं की कतार है जहां रोशनी ही रोशनी है और इन्हीं आलीशान अट्टालिकाओं के मध्य में ऐसी झुग्गी-झोपडिं‍यों की भरमार है जहां पर इंसान जानवरों से भी बदतर जीवन जीते हैं। अंधेरा इतना कि सूरज की किरणें तक नहीं पहुंच पातीं। ऐसा लगता है कि रोशनी का कहीं रास्ते में ही अपहरण कर लिया गया है। त्योहारों के देश में त्योहारों का इतना बाजारीकरण करके रख दिया गया है कि जिनकी जेबें भरी हैं उनके लिए रोज दिवाली है और धनहीनों के लिए दीपावली हो या फिर कोई भी त्योहार अपनी बदहाली और गरीबी पर मातम मनाने के अवसर के अलावा और कुछ नहीं। यह हालात बने नहीं बनाये गये हैं उन शातिर और शैतान सोच के सफेदपोश चेहरों के द्वारा जो पूरा समुंदर खुद ही पी जाना चाहते हैं। देश में रच-बस चुकी असमानता की खाई को भरने और हर दहलीज तक उजियारा पहुंचाने की बातें तो बहुतेरे करते हैं पर उस परिवर्तन का कहीं अता-पता नहीं दिखता जिसकी आज देश के करोडों लोगों को बेहद जरूरत है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश की वर्तमान हालत को देखकर बहुत पीडा और चिं‍ता (?) होती है और वे आह्वान करते हैं:
'आओ फिर से दीया जलाएं
भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं।'
अटल जी की कविता की उपरोक्त पंक्तियां पढ कर यह आभास तो होता है कि वे देश के हालात को बदलना चाहते हैं। पर...। देश की जनता ने तो उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करवा कर बहुत कुछ कर गुजरने का पूरा अवसर मुहैया करवाया था पर वे ही थे जो कुछ नहीं कर पाये! आखिर किस से बुझी बाती सुलगाने, दीया जलाने और अंधियारा भगाने की उम्मीद की जाए?