Thursday, October 28, 2010

इन खिलौनों को तोडना ही होगा

देश को बांटने और तोडने वाली ताकतें सिर उठा चुकी हैं और उनका बाल भी बांका नहीं हो पा रहा है! एक हैं अरुंधति राय जो अपने आपको बहुत बडा तीसमारखां समझती हैं। उन्हें लगता है कि उनसे ज्यादा इस विशाल देश में और कोई अक्लमंद है ही नहीं। अरुंधति कुछ किताबें भी लिख चुकी हैं। अपने लिखे पर भी खासा घमंड है उन्हें। इस घमंड की एक वजह यह भी हो सकती है कि उन्हें बुकर प्राइज (विदेशी) भी मिल चुका है। अपने देश की तौहीन करने पर आमादा रहने वाली इस लेखिका को नाम की भी जबरदस्त भूख है। उनकी इस आदिम भूख को दूसरे देश पुरस्कार आदि देकर मिटाने की कोशिश में लगे रहते हैं पर भूख है कि मिटने का नाम ही नहीं लेती। बढती ही चली जा रही है। इस खूंखार भूख ने अरुंधति को बेचैन और बदहवास करके रख दिया है। इसी बदहवासी में कुछ भी बकने से बाज नहीं आतीं। देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि कश्मीर भारत का है और भारत का ही रहेगा। दुनिया की कोई भी ताकत कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती। पर देशद्रोही किटाणुओं में रची-बसी अरुंधति कहती हैं कि जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा था ही नहीं इसलिए भारत को कश्मीर से और कश्मीर को भारत से आजादी की आवश्यकता है। अरुंधति राय को अगर आप करीब से देखेंगे तो आपको लगेगा कि यह तो बडी ही भोली-भाली मृदुभाषी महिला हैं पर इस महिला की असलियत कुछ और ही है। विदेशों से मिली खैरात की बदौलत देश के साथ देशद्रोह तक कर सकने को तैयार ख‹डी इस शैतान औरत की असली जगह तो जेल है। इसका इस तरह से खुली हवा में सांस लेना देश की शांत आबोहवा को इतना विषैला बनाकर रख देगा कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना दुरुपयोग अरुंधति कर रही हैं उतना शायद ही किसी ने किया हो। इनकी देखा-देखी और भी पाक परस्त चेहरे देश को बांटने और तोडने की साजिशों के जाल बुनने लगे हैं। जो औरत आज यह कह रही है कि कश्मीर को भारत से आजादी की आवश्यकता है कल तो वह यह कहने से नहीं चूकेगी कि नक्सलियों को भारत से आजादी की आवश्यकता है। नक्सली ही इस देश के असली मालिक हैं और भारत नक्सलियों की ही शर्त मान ले।न जाने कितनी बार यह विषैली औरत नक्सलियों के समर्थन में भाषणबाजी कर लोगों के गुस्से का शिकार हो चुकी है, फिर भी इसकी मदहोशी बढती ही चली जा रही है। विदेशों में बैठे इसके आकाओं ने पता नहीं इसकी कितनी झोली भर दी है कि कठपुतली का नाच थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। कठपुतली को भारत के लोकतंत्र में ही खोट नजर आता है। हिं‍दुस्तान को फरेबी देश बताने वाली इस फरेबी नारी को ताकत और साहस देने वालों की इस देश में भी अच्छी-खासी तादाद है। यह तादाद है उन चेहरों की जो खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं और जब-तब इस अलगाववादी प्रचार की भूखी लेखिका के पक्ष में आ खडे होते हैं। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने विदेशों के बुद्धिजीवियों से भी टांके भिडा रखे हैं। तभी तो जब भी सरकार अरुंधति जैसियों ओर जैसों की नकेल कसने के प्रयास करती है तो यह भ्रम खडा कर दिया जाता है कि इनके साथ तो पूरी दुनिया खडी है...। देशद्रोह और अलगाववाद की भाषा बोलने वालों की श्रृंखला में इन दिनों एक नाम और खासी चर्चा में है। दरअसल गिलानी ओर अरुंधति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अरुंधति की तरह गिलानी भी खाते तो हिं‍दुस्तान की हैं पर गाते किसी और के लिए हैं। जम्मू-कश्मीर की आजादी का राग अलापने वाले गिलानी ने तो देश को तोडने की कसम ही खा ली है। अगर ऐसा नहीं होता तो वे भारत के अभिन्न अंग लद्दाख को भारत से अलग करने की कवायद में नजर नहीं आते। गिलानी की यह देशद्रोही सोच देशभक्तों का खून खौला चुकी है पर सरकार खामोश है। जो शख्स भारत सरकार को पानी पी-पीकर कोसता रहता है जिस जहरीले इंसान पर करोडों का टैक्स बकाया है, भरने की जिसकी नीयत ही नहीं है उस शैतान को कब तक बर्दाश्त करता रहेगा भारत देश? दरअसल अरुंधति हो या गिलानी दोनों भारत विरोधी ताकतों के खिलौने हैं जिन्हें फौरन तोड देना ही बेहतर होगा।

Thursday, October 21, 2010

कालिख में लिपटी कांग्रेस

अपने यहां के राजनेताओं को लाजवाब भाषण देने और ऊंची-ऊंची हांकने में गजब की महारत हासिल है। मुखौटे लगाने की कला में भी लगभग सबके सब पारंगत हैं। बिहार में विधानसभा चुनावों का श्री गणेश हो चुका है। खबरों पर खबरें आ रही हैं कि फलां-फलां पार्टी ने इस बार भी गुंडे, बदमाशों, बाहुबलियों को अपना-अपना प्रत्याशी बनाने में कोई कमी नहीं की है। लोग भी यह मान चुके हैं कि बिहार को अपनी जागीर समझने वाले लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार इतने बेबस हैं कि वे चाह कर भी अराजक तत्वों से मुक्ति नहीं पा सकते। पर लोगों को तो हैरत राहुल गांधी को लेकर हो रही है। वे पिछले कुछ महीनों से लगातार देश भर में यह कहते घूम रहे हैं कि उनकी एक ही मंशा है कि राजनीति में साफ सुथरे चेहरों का प्रवेश हो। देश और प्रदेश की कमान ऐसे युवाओं के हाथ में हो जिनमें राष्ट्रहित की भावना कूट-कूट कर भरी हो। भाई-भतीजावाद और चम्मचगिरी को पूरी तरह से हेय दृष्टि से देखने का दावा करने वाले युवा राहुल को बिहार में प्रत्याशी खडे करने के मामले में जिस तरह से सांप सूंघ गया उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वे भी हवा में तीर छोडने वाले खिलाडी हैं। जमीनी बदलाव लाना उनके बस की बात नहीं है। तभी तो बिहार में कांग्रेस की टिकट पर कई अपराधी और घोर विवादास्पद सफेदपोश भी चुनाव ल‹ड रहे हैं। राहुल चाहते तो संदिग्ध प्रत्याशियों को टिकट दिये जाने का खुलकर विरोध करते हुए उनका पत्ता साफ करवा सकते थे पर ऐसा नहीं हुआ...। इसे राजनीतिक विवशता कहें या कुछ और...? जवाब तलाशना कतई मुश्किल नहीं है। सवाल नीयत और उस दृढ इच्छाशक्ति का है जो गधे के सींग की तरह गायब हो चुकी है। आज की लगभग तमाम राजनीति और राजनेता धनबल के सियासी रास्ते पर चल रहे हैं। राहुल से कुछ अलग उम्मीद थी पर बिहार के चुनाव ने हकीकत बयां कर दी है कि राहुल बोलवचनों के जितने वीर हैं, करनी और कथनी में एक रूपता लाने के मामले में फकीर के फकीर हैं। कोई अगर यह कहे कि बिहार में प्रत्याशियों का चयन करते समय राहुल की राय नहीं ली गयी होगी, इस बात पर भला कौन विश्वास कर सकता है?कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इशारों पर नाचने वाली पार्टी है और उसी पार्टी ने जब दागियों को मैदान में उतारने में परहेज नहीं किया तो लालू-पासवान जैसों को दोष देना बेकार है। यह भी जाना-माना सच है कि आज की तारीख में पेशेवर नेताओं और अराजक तत्वों के पास धन की भरमार है। यही योग्यता उन्हें किसी भी पार्टी की टिकट दिलवाती है और वे बडी आसानी से चुनावी मैदान में कूदते हैं और धनबल और बाहुबल से जीत भी हासिल कर लेते हैं। ईमानदार और समर्पित लोगों के लिए राजनीति में अब तो कोई जगह ही नहीं बची है। राजनीति के अखंड सौदागरों ने देश को खरीद-फरोख्त का ऐसा बाजार बना कर रख दिया है जहां दिग्गज राजनेताओं की कीमत का भी सरेआम भंडाफोड हो रहा है। देश का आम आदमी जान गया है राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। इसलिए चोर-चोर मौसेरे भाई वाले रिश्तों में प्रगाढता गहराती चली जा रही है। पिछले दिनों महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी खुद ही कबूल कर चुके हैं कि पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए येन-केन-प्रकारेण धन जुटाया जाता है। मंत्री लाखों रुपयों की थैलियां देते हैं। मुख्यमंत्री को भी करोडों की व्यवस्था करनी पडती है। ऊपर तक 'देन' पहुंचायी जाती है। यह तो सबको खबर थी कि राजनीतिक पार्टियां अपने नेताओं की सभाओं के लिए तरह-तरह से धन वसूलती हैं पर इतना बडा खेल होता होगा इसकी कल्पना नहीं थी। देशवासियों ने पहली बार जाना कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी को निमंत्रित करने और सभाएं आयोजित करने के लिए करोडों की दक्षिणा चढानी पडती है।घुटे हुए कांग्रेसी भले ही इस सच्चाई को झुठलाने के लिए शब्द जाल फेंकते रहें पर कांग्रेस में पैसे के लेन-देन का खुलासा तो खुद उन कांग्रेसियों ने ही किया है जिनका अपना अच्छा-खासा वजूद है। इतना बडा रहस्योद्घाटन होने के बाद भी मैडम और राहुल गांधी का कुछ न बोलना बहुत कुछ कह गया है...। जब देश की सबसे पुरातन पार्टी के ऐसे हाल हैं तो भाजपा, शिवसेना, समाजवादी, बसपा आदि...आदि के कमाल और धमाल पर लिखने और बताने की जरूरत ही कहां बचती है...!

Thursday, October 14, 2010

आज की राजनीति का सच

वे अपनी पार्टी के सुप्रीमों हैं। पार्टी उनके घर की जागीर है इसलिए हर तरह की मनमानी की उन्हें खुली छूट मिली हुई है। किसी में दम नहीं कि उनके फैसले के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत दिखाए। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी तथा लालू रामविलास मार्का तमाम राजनीतिक पार्टियों में आम कार्यकर्ताओं से दरी-चादरें बिछवाने, झाडू लगवाने और नारे उगलवाने का ही काम लिया जाता है। कुछ ही ऐसे होते हैं जिनकी किस्मत जोर मारती है और वे भीड को चीरते हुए मंचों तक पहुंच पाते हैं। कुछेक ऐसे भी होते हैं जो राजनीतिक खानदान की पैदाइश तो नहीं होते पर उनमें वो चालाकी और चालगिरी कूट-कूट कर भरी होती है, जो जन्मजात शातिर नेताओं की पहली पहचान है। महाराष्ट्र की राजनीति में दबंग नेता की ख्याति पा चुके नारायण राणे का नाम तो आपने जरूर सुना होगा। ये महाशय पहले शिवसेना में थे। बाल ठाकरे की चरण वंदना करते-करते प्रदेश के मुख्यमंत्री तक बनने में सफल होने वाले राणे का एक बयान काबिले गौर है। वे फरमाते हैं कि राजनीति में कभी उनका कोई गॉडफादर नहीं रहा। अपने ही बलबूते पर उन्होंने वो सफलताएं बटोरी हैं जो अक्सर उनके शत्रुओं को खटकती रहती हैं। नारायण को अब कौन समझाये कि जब आप किसी की चमचागिरी और नाक रगडाई से कोई बडा पद पाते हैं तो उसके बाद आपको कोई हक नहीं बनता कि यह कहें कि आपका कोई गॉडफादर नहीं है। यह तो नमक हरामी और अहसान फरामोशी की हद है...। कभी कट्टर शिवसैनिक रहे राणे को जब यह लगा कि शिवसेना का अब सत्ता में आना मुश्किल है तो उन्होंने बिना वक्त गंवाये देश की सबसे पुरातन पार्टी कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने भी उन्हें अपनी गोद में बिठाने में कोई परहेज नहीं किया। कांग्रेस के दिग्गज यह भी भुला बैठे कि यही राणे कभी कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी को अपमानजनक संबोधनों से नवाजा करते थे। राजनीति में राणे जैसों का कभी बाल बांका नहीं होता क्योंकि उनके साथ विशाल वोट बैंक होता है। तिजोरियां भी इनकी लबालब भरी रहती हैं। राणे के एक दुलारे बेटे सांसद भी बन गये हैं। उन पर गुंडागर्दी और तोडफोड के अक्सर आरोप लगते रहते हैं। राणे अपने बेटे के गॉडफादर होने की बखूब भूमिका निभाते हुए महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पद का भरपूर सुख भोग रहे हैं। हकीकत यह है कि राजनीति में गॉडफादर का होना बहुत जरूरी है। जिन पर गॉडफादर्स का हाथ नहीं होता वे अधर में लटके रह जाते हैं। कुछ पर जन्मजात गॉडफादर का हाथ रहता है तो कुछ अपने दम पर गॉडफादर बनाते हैं। राजनीति का यही दस्तूर है। भले ही कोई माने या ना माने।कई तथ्य ऐसे होते हैं जिनसे धीरे-धीरे पर्दा हटता है। पर्दा हटने के बाद मुखौटे उतरते हैं पर बेनकाब होने वालों को कोई फर्क नहीं पडता। इसलिए तो कहा गया है कि राजनीति अच्छे भले इंसान को 'बेहया' और मतलबपरस्त बना देती है। जो लोग निरंतर खबरों से वास्ता रखते हैं उन्हें याद होगा कि शिवसेना के शहंशाह अक्सर गांधी परिवार पर परिवारवाद चलाने का आरोप लगाया करते थे। तब उनके पुत्र राजनीति में नहीं आये थे। पर जब पुत्र उद्धव ठाकरे ने कमर कस ली तो बाल ठाकरे ने वही किया जो कांग्रेस और दीगर पार्टियां करती आयी हैं। बाल ठाकरे को तो अपने परिवार में ही विरोध का सामना करना पडा। परिणाम स्वरूप भतीजा राज ठाकरे विद्रोह का बिगुल बजाते हुए अपनी बनायी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की कमान संभाले हुए है। ताजा खबर यह भी है कि बाल ठाकरे के पोते यानि उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे को भी राजनीति में उतारा जाना तय कर लिया गया है। आदित्य को युवा सेना की कमान सौंपने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। गॉडफादर बनने और परिवारवाद को पोषित करने का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। इसी परिवारवाद के विद्रोह स्वरूप नारायण राणे शिवसेना से अलग हुए थे पर बाल ठाकरे को इससे कोई फर्क नहीं पडा था। शिवसेना जरूर कमजोर हुई थी। महाराष्ट्र में पार्टी बाद में और परिवार पहले का दस्तूर कोई नयी बात नहीं है। यहां के स्थापित नेता 'घर' को इसलिए प्राथमिकता देते हैं क्योंकि उन्हें बाहर वालों पर यकीन नहीं होता। बेचारे कई बार विश्वासघात के शिकार जो हो चुके हैं इसलिए कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। जमीनी कार्यकर्ताओं को मन मार कर राजनेताओं की औलादों के नखरे झेलने पडते हैं और चप्पलें उठानी पडती हैं। महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोकराव चव्हाण अगर दिवंगत कांग्रेसी नेता शंकरराव के सुपुत्र न होते तो शायद ही उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त होता। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख जो वर्तमान में केंद्रीय उद्योगमंत्री हैं, को भी परिवारवाद ही रास आता है। उनके सुपुत्र अमित देशमुख कांग्रेस की राजनीति में अपनी पकड बनाने में लगे हैं। गॉडफादर के रूप में पिता का आशीर्वाद ऐसा बना हुआ है कि महाराष्ट्र युवक कांग्रेस का अध्यक्ष बनने से भी उन्हें कोई नहीं रोक पायेगा। जबकि काबिलियत के मामले में और भी बहुतेरे हैं। जिन्होंने कांग्रेस के लिए अपना खून-पसीना बहाया है पर यहां त्याग और समर्पण की नहीं, गॉडफादर की तूती बोला करती है। दूसरी कोई आवाज नहीं सुनी जाती। कहने को देश में लोकतंत्र है पर कैसा लोकतंत्र है इसका बेहतर जवाब वही दे सकते हैं जो वर्षों तक किसी राजनीतिक पार्टी की सेवा करते-करते उम्रदराज हो गये हैं पर उन्हें कोई पहचानता तक नहीं है। राजनेताओं के नकारा से नकारा पूतों को भी मीडिया ऐसे हाथों-हाथ लेता है जैसे इनका जन्म ही देश पर राज करने के लिए ही हुआ हो...।

Thursday, October 7, 2010

इंसान की औलाद...

जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। देश के सजग सपूतों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे भाईचारा आहत होता। हर किसी ने भारतमाता के सम्मान को बरकरार रख अयोध्या के फैसले का स्वागत किया। कुछ मुलायमनुमा सियार जरूर कूदते-फांदते नजर आये पर जनता से मिले घोर तिरस्कार ने उनकी भी बोलती बंद कर दी। यह देश अब अमन और शांति के साथ जीना चाहता है। अतीत में मंदिर-मस्जिद और धर्म के नाम पर हुए खूनी खेल और भयावह तमाशों ने बहुत बडा सबक दिया है। लोग नेताओं की असलियत से वाकिफ हो चुके हैं। उनमें संयम और परिपक्वता आ गयी है, पर बडे दु:ख की बात है कि कुछ नेता वहीं के वहीं हैं। हिं‍दुओं और मुसलमानों को लडाने की साजिशी मंशा आज भी उनमें यथावत बनी हुई है। अयोध्या विवाद पर आये उच्च न्यायालय के फैसले को जिस तरह से मुलायम सिं‍ह ने कटघरे में खडा करने की कोशिश की उससे यह तथ्य तो अब एकदम पुख्ता हो गया है कि मुलायम सिं‍ह के लिए मुसलमान महज वोटर भर हैं और वोटरों में लिये यह सियार देश को जोडने नहीं, तोडने की चाहत पाले हुए है। यह अच्छा ही हुआ कि मुलायम सिं‍ह की असलियत मुसलमानों की भी समझ में आ गयी है। इस बार मुलायम का दांव उल्टा पडा है। जो उन्होंने सोचा था वह हो नहीं पाया। बदनीयत मुलायम कट्टर हिं‍दू - मुसलमान नेताओं को भडकाने की चाल में नाकामयाब होकर अपना माथा पीटने को विवश हैं। मुलायम की साजिश पर पानी फेरते हुए जिस तरह से दोनों समुदायों के धार्मिक नेताओं ने संयम और परिपक्वता का परिचय दिया उससे यकीनन भारतमाता का सिर और ऊंचा हुआ है। दलितों की राजनीति कर अपना स्वार्थ साधने वाले रामविलास पासवान जिन्होंने फैसले को निराशाजनक बता कर मुसलमानों का हितैषी बनने का ढोंग किया वे भी अमन पसंद मुसलमानों के समक्ष बेहद बौने साबित होकर रह गये। इतिहास गवाह है कि मुलायम, लालू और पासवान जैसे हद दर्जे के मतलबपरस्त नेताओं की राजनीति धर्मांध मुसलमान नेताओं के भरोसे चलती आयी है। यह लोग इस हकीकत से रू-ब-रू हो ही नहीं पाये कि आज की युवा पीढी, चाहे वो मुसलमानों की हो या हिं‍दुओं की, धर्मांधता पर यकीन नहीं रखती। धर्म के असली मायने आज की सजग युवा पीढी ने जान और समझ लिये हैं। २१ वीं सदी के भारत में अलगाववाद और मजहबी उन्माद के लिए कोई जगह बाकी नहीं बची है। युवाओं को मालूम है कि देश के विकास और जन-जन की बेहतरी के लिए शांति, अमन और भाईचारे का होना बेहद जरूरी है। यह ६ दिसंबर १९९२ का नहीं २०१० का वो हिं‍दुस्तान है जहां हिं‍दू और मुसलमानों से पहले इंसान बसते हैं। इंसानों का हैवानियत से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। वैसे भी सारी दुनिया जानती है कि यह भारत देश ही है जिसने हमेशा इंसानियत का पैगाम दिया है। जिन हैवानों ने इंसानियत के जिस्म को छलनी करने का पाप किया उन्हें इतिहास काफी माफ नहीं करेगा। हम यह भी जानते और मानते हैं कि अयोध्या पर आये फैसले से कुछ भारतवासी नाखुश हैं पर इस नाखुशी के मौके पर भी उन्होंने जिस संयम और परिपक्वता का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, वही इस देश की मूलभूत पहचान है। इसी पहचान की देन हैं वर्षों पहले लिखी गयी किसी कवि की यह पंक्तियां-तू हिं‍दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा...।