Thursday, January 31, 2013

क्या ऐसा हो पायेगा?

वक्त तथाकथित बडे-बडों का रंग-रोगन उतार कर उनका असली चेहरा दिखा ही देता है। जो धुरंधर राजनीति को लूटपाट और उठा-पटक का सुरक्षित जरिया मानते हैं उनके संभलने और सतर्क होने का वक्त आ गया है। पांच बार देश के प्रदेश हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे भ्रष्टाचारी ओमप्रकाश चौटाला ने यह भ्रम पाल लिया था कि कानून उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में ओमप्रकाश चौटाला ने भ्रष्टाचार के न जाने कितने कीर्तिमान रचे। उसके पिता चौधरी देवीलाल ने राजनीति में रच-बस कर नैतिकता और ईमानदारी की जो मिसालें पेश कीं उन्हें उनके इस नालायक पुत्र ने कभी भी अनुकरणीय नहीं माना और वो सब गलत हथकंडे अपनाये जिनसे सिद्धांतवादी पिता के नाम पर बट्टा ही लगा।
अपने पिता के जीवनकाल में विदेशी घडि‍यों की तस्करी के संगीन आरोप में धरा गया ओमप्रकाश शुरू से ही अपराधी प्रवृत्ति का रहा है। पर यह राजनीति ही है जो अपराधियों को भी बडी आसानी से अपना लेती है। यह भी देश के लोकतंत्र की विडंबना ही है कि अपराधियों को सफलता की सीढि‍यां चढते देरी नहीं लगती। जानते-समझते हुए भी लोग अक्सर इन्हें हाथों-हाथ लेते हैं। ठग और लुटेरे ओमप्रकाश के साथ तो उसके ईमानदार पिता देवीलाल का नाम जुडा था, इसलिए हरियाणा के वोटरों ने उस पर वोटों की बरसात करने में कभी कोई कंजूसी नहीं की। उसे एक बार नहीं, पांच बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। पर इस मुख्यमंत्री ने जनता के साथ इतने छल किये कि भ्रष्टाचार और चौटाला परिवार एक दूसरे के पर्यायवाची बनकर रह गये। हरियाणा के ग्रामों और शहरों में चौटाला की धन की अथाह भूख पर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। कई भुक्तभोगियों ने मीडिया तक अपनी फरियाद पहुंचायी पर बात आयी-गयी हो गयी। पूरे प्रदेश में एक ही परिवार की दादागिरी का यह आलम था कि उद्योगपति और व्यापारी आलीशान कोठियां खडी करने और महंगी कारों की सवारी से परहेज करने लगे। ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे को जो भी कोठी और कार अच्छी लगती उसी को पाने के लिए लालायित हो उठते। कई लोग तो खुद-ब-खुद अपनी कोटी या कार हरियाणा के इन राजनीतिक गुंडो को सौंप देने में ही अपनी भलाई समझते थे। आज भी हरियाणा में ऐसे कई किस्से लोगों की जबान पर हैं। हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला जैसा लालची और लुटेरा दूसरा और कोई पैदा नहीं हुआ। इसे लालच और धन की भूख की इंतिहा ही कहेंगे कि जिस मुख्यमंत्री को अपने प्रदेश में शिक्षा की गंगा बहानी चाहिए थी, उसी ने शिक्षकों की नियुक्ति में करोडों की रिश्वतखोरी कर प्रदेश की सबसे बडी कुर्सी की गरिमा पर कालिख पोत डाली। सन १९९९-२००० में ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री थे तभी तीन हजार अध्यापकों की भर्ती में गडबड घोटाला किया गया। भ्रष्ट और नीयतखोर चौटाला ने शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी पर दबाव डाला कि वे चुने हुए योग्य उम्मीदवारों की सूची बदल डालें और उनके मनपसंद लोगों की नियुक्ति कर दें। अधिकारी ने मुख्यमंत्री के आदेश का पालन किया और योग्य उम्मीदवार किनारे कर दिये गये और नालायक चेहरों को शिक्षक के पद से नवाज दिया गया। चौटाला और उसके गिरोह ने पढे-लिखे उम्मीदवारों के नंबर कम करवाये और अपने चहेतों के नंबर बढवाकर सैकडों करोड की काली कमायी कर ली। अंधेरगर्दी और भ्रष्टाचार के इस खतरनाक खेल पर पर्दा पडा रह जाता यदि संबंधित अधिकारी को उसका हिस्सा मिल जाता। पूरा माल अकेले ही हजम करने की चाल चौटाला को बहुत महंगी पडी। मिल-बांट कर खाने के सिद्धांत पर चलने वाले अधिकारी ने चौटाला को बेनकाब करने की ठान ली और वह योग्य उम्मीदवारों की मूल सूची के साथ अदालत की शरण में जा पहुंचा। वैसे भी हर कोई जानता है कि राजनेताओं और नौकरशाहों में गजब की जुगलबंदी चलती है। इनके द्वारा सत्ता की मलाई खाने का कोई मौका नहीं छोडा जाता। अगर चौटाला ने अफसर को खुश कर दिया होता तो उसे आज इतने बुरे दिन नहीं देखने पडते। बाप-बेटे और उनके संगी साथियों को दस वर्ष की कैद की सजा सुना दी गयी है। हालांकि यह भ्रष्टाचार का मामला १९९९ में सामने आया था। इसे अदालत तक पहुंचने में ही लगभग नौ साल लग गये। भ्रष्टाचारी चौटाला ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे जेल की हवा खानी पडेगी। जब इस कांड को अंजाम दिया गया तब केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी जिसे चौटाला का सहयोग प्राप्त था। अपने ही सहयोगी पर कार्रवाई करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होता। अब जब कांग्रेस के राज में चौटाला को जेल की यात्रा करनी पडी है तो उसका मुंह भी खुल गया है कि यह तो कांग्रेस की राजनीतिक साजिश है। वैसे भी कांग्रेस पर सीबीआई के दुरुपयोग के आरोप लगते ही रहते हैं। इस देश का हर भ्रष्टाचारी नेता भी खुद को पाक-साफ बताने में लगा रहता है। सत्ता की यह रीत भी सर्वविदित है कि वह अपनों को बचाने में पूरी ताकत लगा देती है। कौन नहीं जानता कि अपने देश में बहुत से राजनीतिक लूटेरों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप हैं और उन पर अदालतों में मामले भी चल रहे हैं, पर उनकी गति इतनी धीमी है कि वे दुनिया से विदा हो जाएंगे पर फैसले नहीं आ पाएंगे। खुफिया ब्यूरो की फाइलों में भी कई मामले वर्षों से कैद हैं। यह तो अच्छा हुआ कि जैसे-तैसे चौटाला गिरोह को सजा हो गयी है और देशवासियों में कुछ उम्मीद जगी है कि धीरे-धीरे सभी का नंबर लगेगा। पर क्या वाकई ऐसा हो पायेगा?

Thursday, January 17, 2013

इस हकीकत को भी तो समझो...

सत्ता के शातिर खिलाडी अभी भी अपनी मस्ती में हैं। वे तो ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि देश की अधिकांश जनता जाग चुकी है। वह अब हर हालत में बदलाव चाहती है। इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने की उसने ठान ली है। लोकतंत्र और गणतंत्र के मायूस चेहरों पर टंगी तख्तियों पर लिखे सुलगते नारे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अब सत्ताधीशों की खुदगर्जी और संवेदनहीनता को बर्दाश्त कर पाना मुमकिन नहीं है। इस देश के लगभग सभी राजनेता कटघरे में हैं। लोकसभा, राज्यसभा तथा विधानसभाओं में आम आदमी के मुद्दे उठने बंद हो गये हैं और तमाशेबाजी हावी हो चुकी है। वो दिन भी हवा हो गये हैं जब स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर गौरव और खुशी की लहर दौड जाया करती थी। अब तो सरासर शर्मिंदगी और लुट जाने की पीडा सताने लगती है। दगाबाजी और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान रचने वाले नेताओं को अगर आम जनता की चिं‍ता होती तो वे अभी तक अपनी चाल और ढाल को बदल चुके होते। उनपर किसी आंदोलन का असर नहीं होता। अन्ना हजारे, अरविं‍द केजरीवाल जैसे तमाम समाजसेवकों की सही और जन हितकारी मांगों की बडी निर्दयता के साथ अनदेखी कर दी जाती है। राजनेताओं को इस बात की भी कतई चिं‍ता नहीं कि आज देश का आमजन उनकी सुनने को तैयार नहीं है। सत्ता के मद में चूर अधिकांश सत्ताधीश इस भ्रम का शिकार हैं कि देश की जनता कितनी भी एकजुटता दिखाए, नारे लगाये पर कुछ होने-जाने वाला नहीं है। जब चुनाव होंगे तब बाजी उन्हीं के हाथ में ही होगी। मतदाताओं को अपने बस में करने और चुनाव जीतने की कला में उन्हें जो महारत हासिल है उसका तोड तलाश पाना अन्ना और केजरीवाल जैसे फकीरों के बस की बात नहीं है। चुनाव तो सिर्फ और सिर्फ थैलियों की बदौलत ही लडे और जीते जाते हैं। वर्षों से विधानसभाओं और लोकसभा पर कब्जा जमाते चले आ रहे नेताओं ने यह धारणा भी पाल रखी है कि अन्ना और केजरीवाल की सभाओं में जुटने वाली अपार भीड कोई मायने नहीं रखती। भीड का क्या? वह तो कहीं भी किसी डमरू बजाने वाले बहुरूपिये को देखने और सुनने के लिए भी जमा हो जाती है।
यह कितनी हैरतअंगेज बात है कि जिस आम जनता का तंत्र से मोहभंग हो चुका है, वह अगर खुद-ब-खुद सडकों पर उतरती है तो भी भ्रष्ट व्यवस्था उसका मजाक उडाने से बाज नहीं आती। दरअसल नेताओं को अपनी सभाओं में जुटने वाली भीड तो सार्थक लगती है, लेकिन सच्चे समाज सेवकों को सुनने और उनका दूर तक साथ देने को आतुर जनता महज तमाशबीन लगती है। यह तो उस आक्रोश का ही घोर अपमान है जो देशभर में सुलग रहा है। यह आक्रोश एकाएक नहीं उपजा। सरकार की जबरदस्त अक्षमता और नजरअंदाजी की देन है ये उबलता गुस्सा, जिसने पिछले दो-ढाई वर्षों में आकार और विस्तार पाया और आज अपने उफान पर है। आखिर बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। यहां तो हदों का ही अता-पता नहीं है। न जाने कितने भ्रष्टाचारी सत्ता पर काबिज हैं। राष्ट्रीय संपदा के लुटेरे भी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में पहुंच गये हैं। विपक्ष सोया था, सोया है। इसीलिए समाजसेवक अन्ना हजारे और उनके साथियों को देश में व्याप्त असीम भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाना पडा। उनका साथ देने के लिए सडकों पर जो भीड उमडी उसने सरकार की नींद उडा दी। दिल्ली गैंग रेप के विरोध में युवतियों, महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और युवाओं ने विरोध और आक्रोश की जो मशाल जलायी उससे भी शासन और प्रशासन की नींद हराम हो गयी है। युवतियों और महिलाओं की इज्जत पर डाका डालने वालों को पुलिस और कानून का कोई खौफ नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली पूरे देश को डराने लगी है। महिलाओं को रात में घर से निकलने में कंपकंपी छूटने लगती है। अगर मजबूरन निकलती हैं तो हवस के भूखे भेडि‍यों की शिकार हो जाती हैं। इन हुक्मरानों की विभिन्न कमजोरियों का ही नतीजा है कि दो कौडी के पाकिस्तान के फौजी हमारी सेना पर हमला कर देते हैं और हमारे जवानों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर उनका सिर काट डालते हैं।
दरअसल दुश्मन भी ज़ान गये हैं कि हिं‍दुस्तान के अधिकांश नेता हद दर्जे के भ्रष्टाचारी हैं। उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए। जो भी पार्टी सत्ता में आती है वही अपने असली रंग दिखाने लगती है। सत्ता और विपक्ष दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत को चरितार्थ करते हुए आम जनता की आंखों में धूल झोंकते चले आ रहे हैं। ऐसे सत्ता के खिलाडि‍यों और घोर खुदगर्जों के कारण ही जब-तब घर में छिपे गद्दार भी बम-बारूद बिछाने और निर्दोषों का खून बहाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर पाकिस्तान तो एक ऐसा जहरीला मुल्क है जिसे भारत के अमन-चैन और खुशहाली से जन्मजात वैर है। किसी हिं‍दी फिल्म का बडा ही चर्चित डायलाग है : ''वो दो कौडी का पडोसी मुल्क जो आने वाले समय में शायद दुनिया के नक्शे से मिट जायेगा, जिसका आटा भी विदेशी चक्की से पिसकर आता है, एक सुई बनाने की भी औकात नहीं है, पर हमारे देश को तोडने के सपने देखता है। वह जानता है कि यह मुर्दों का देश है। वतन के लिए किसी को हमदर्दी नहीं...।'' इस डायलाग को 'फिल्मी' कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हां यह भी सच है कि यह देश मुर्दों का नहीं बल्कि जीते-जागते देश प्रेमियों का देश है और इसी की मिट्टी में पलने और बढने वाले कई ऐसे अहसान फरामोश भी हैं जिन्हें वतन से कोई लगाव नहीं है।

Thursday, January 10, 2013

बंद करो ये नसीहतबाजी

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि नारी पर कोई भी कुछ भी बोलने और बेहूदा शब्दबाण चलाने को स्वतंत्र है। समाज के कई ठेकेदारों ने स्त्रियों को सीख देने और उनके चरित्र का पोस्टमार्टम करने का जबरन ठेका ले रखा है? वैसे तो पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से नारी की स्वतंत्रता का जबरदस्त ढोल पीटा जा रहा है पर फिर भी अधिकांश भारतीय नारियों को घर-परिवार में बांधकर रखने में ही अपनी भलाई समझने वालों का अच्छा-खासा आंकडा है। दुनिया बदल गयी है, पर वे बदलने को तैयार नहीं हैं। खुद भले ही दुष्कर्मी हों पर उन्हें पत्नी वही भाती है जो सति-सावित्री से कम न हो। उनके यहां की बच्चियां जैसे-जैसे उम्र की सीढियां चढने लगती हैं, उनकी आत्मा बेचैन होने लगती है। उनकी सदियों पुरानी सोच बलवति हो उठती है: नारी की लज्जा ही उसका असली गहना है। खिलखिलाकर हंसना-बोलना और सवालों के जवाब देना लडकियों को शोभा नहीं देता। लडकियां पराया धन होती हैं। उन्हें सहनशील होना ही चाहिए। दरअसल भारतीय समाज है ही कुछ ऐसा जहां स्त्री को सदैव पराधीन और दबा कर रखने की कोशिश की जाती रही है। हर स्त्री पर किसी न किसी पुरुष का अधिकार और अंकुश बना रहता है। इस पुरुष का चेहरा समय के साथ-साथ बदलता चला जाता है। शादी के पूर्व नारी पिता या भाई के दबाव तले तो शादी के बाद पति या पुत्र के अधिकार क्षेत्र में रहती है। हर पुरुष की सदैव यही मनोकामना होती है कि उसे ऐसी जीवन संगिनी मिले जो तथाकथित भारतीय संस्कारों में रची-बसी हो। पुरुष को बंदिशें रास नहीं आतीं। पर नारी को बांध कर रखना या फिर अपने स्वार्थ के लिए थोडी बहुत आजादी दे देना उसकी फितरत है। इस यथार्थ को युवा कवि आशीशकुमार अंशु की एक कविता की इन पंक्तियों में बखूबी दर्शाया गया है:
''स्त्री जो घर में छुपाई गई
बाजार में उघाडी गई,
ना छुपना स्त्री की नीयत थी,
ना उघाडना उसकी मर्जी,
उसका छुपना पुरुष की इच्छा थी,
और उघाडना पुरुष की कुंठा।''
इज्जत, मान, मर्यादा, प्रतिष्ठा और पवित्रता आदि-आदि के नाम पर निरंतर छली गयी नारी आज जाग गयी है। उसे अपने भले-बुरे की पहचान हो गयी है फिर भी उपदेश और सीख का जाल फेंकने वालों की चालबाजी थमने का नाम लेने को तैयार नहीं है। उनकी आदिम इच्छा और कुंठा किसी न किसी रूप में सिर उठाकर खडी हो ही जाती है। अब इन आसाराम बापू के बारे में क्या कहें, जो संत कहलाते हैं, जिन्हें देश के लाखों लोग भरपूर आदर और सम्मान देते हैं। पर पता नहीं ये कैसे महात्मा हैं कि जिनकी जबान बार-बार सजग देशवासियों को आहत कर जाती है। दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार बनायी गयी युवती के प्रति सहानुभूति दर्शाने और बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग करने की बजाय आसाराम ने युवती को ही कटघरे में खडा कर देश को हैरत और गुस्से के हवाले कर दिया है। उनके चेले-चपाटे भी उसी रंग में रंगे नजर आये। किसी ने भी अपने 'गुरु' के बोलवचनों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं उगला। इसे ही तो अंधभक्ति कहते हैं। जिसके दम पर ही आसाराम यह कह गये कि अगर वह लडकी बलात्कारियों के आगे नतमस्तक होकर गिडगिडाती और उन्हें अपना भाई बना लेती तो उनका नशा फौरन काफूर हो जाता। अगर युवती ने 'गुरु दीक्षा' ली होती तो भी उसके साथ यह अनर्थ कतई नहीं होता। आसाराम ने अपने ज्ञान का एक और पिटारा खोलते हुए यह भी कहने में देरी नहीं लगायी कि ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती। यानी जितना दोष बलात्कारियों का है उतना ही बलात्कृत युवती का भी। इस तरह की अनर्गल बयानबाजी करने का श्रेय अकेले आसाराम ने ही नहीं लूटा। इस मामले में भी कई प्रतिस्पर्धियों ने अपनी-अपनी हांक कर सिर्फ और सिर्फ नारी जाति को गाली देने और उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोडी। किसी ने शहरी लडकियों के पथभ्रष्ट होकर ब्वायफ्रेंड तलाशते देखा तो किसी को शादी पति और पत्नी के बीच एक सौदा नजर आया। नारियों को ही कोसने और उन्हें गालियों से नवाजने में कई सफेदपोश अपनी मर्दानगी के करतब दिखाते नजर आये। ऐसे में युवा कवि अंशु की कविता की यह पंक्तियां बरबस दिलो-दिमाग में हलचल मचाने लगीं:
''गालियों का अपना संस्कार है
अपना मनोविज्ञान है
उनमें आता है हमेशा
मां का नाम और बहन का नाम
कैसे बच जाते हैं हर बार
आते-आते भाई और बाप लोग
अब गालियों को बदलो
क्योंकि बदल रहा है वक्त।''
हां वक्त बदल गया है, वक्त तेजी से बदल रहा है। कोई और वक्त होता तो आसाराम बापू की इन शर्मनाक नसीहतों को भी हाथों-हाथ ले लिया जाता। इस बदले वक्त में उन सभी भाषणबाजों के प्रति चारों तरफ गुस्सा ही गुस्सा है जो औरतों को लक्ष्मण रेखा के अंदर सिमटे रहने के उपदेश देते नहीं थकते और अपने रावणी चेहरे को छुपाये और बचाये रखना चाहते हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि बलात्कारियों को असली मर्द और बलात्कृता को कुलटा मानने वाले चमकते-दमकते चेहरे सत्ता के शिखर पर भी काबिज हैं। आज इन सबके विरोध में देश की सडकों, चौराहों और सत्ता के गलियारों तक जो तीखे नारे गूंज रहे हैं उन सबका एक ही सार है कि होश में आओ सामंती साधु-संतो, समाज सुधारको और शातिर भाषणबाजो... और इनके तमाम अंध भक्तो...।

Thursday, January 3, 2013

इन बेवकूफों का क्या करें?

मेरे जैसे बहुत से लोगों की यही मनोकामना है कि यह गुस्सा सतत बना रहे। इसकी आग कभी बुझने न पाए। जब बर्दाश्त करने की हदें खत्म हो जाती हैं तो आम जनता को सडक पर उतरने को मजबूर होना ही पडता है। गूंगे-बहरे शासकों को जगाने के लिए आक्रोश के नगाडे बजाने ही पडते हैं। हो सकता है कि यह हकीकत देश की तपती नारियों को बहुत देर बाद समझ में आयी हो। पर जब आ ही गयी है तो इस लडाई को अंजाम तक पहुंचना ही चाहिए। अब अगर कदम रूक गये तो पहले से भी ज्यादा अनर्थ हो सकता है। एक अनजान और बेनाम लडकी वो काम कर गयी जिसका आधी आबादी को वर्षों से इंतजार था। कुछ बेवकूफ यह कहते हैं कि नारियों के नारों और प्रदर्शनों से कुछ भी हासिल नहीं होगा। पिछले साल अन्ना हजारे ने 'लोकपाल' को लेकर कितना हल्ला मचाया था। फिर भी आखिरकार उन्हें मुंह की खानी पडी। सत्ता जीत गयी और वे हार गये। इतिहास गवाह है, जब भी कोई आंदोलन अपनी शक्ल लेना शुरू करता है तब उसे नाकाम करने के लिए तरह-तरह की स्वार्थी ताकतें एकाएक सक्रिय हो जाती हैं। अहिं‍सा के पुजारी महात्मा गांधी के गर्म हौसलों को सर्द करने के लिए भी ऐसे ही अवरोध खडे किये जाते थे। पर उन्होंने धरने-प्रदर्शनों, नारों और भूख हडतालों की बदौलत अंग्रेजों की नींद हराम की, देशवासियों को जगाया और वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद उनके आलोचकों और जन्मजात विरोधियों को तो कतई नहीं थी। इससे ज्यादा और अधिक शर्मनाक बात और क्या होगी कि समाज के कुछ ठेकेदार कानून के लुंज-पुंज रखवालों को लताडने और दुराचारियों को दुत्कारने की बजाय महिलाओं को ही तरह-तरह की नसीहतें देने से बाज नहीं आ रहे हैं।
आंध्रप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बोत्सा नारायण राव की बदअक्ली ने लोगों के गुस्से को तब और सुलगा दिया जब उन्होंने फरमाया कि आखिर रात के वक्त युवती कहां घूम रही थी? दरअसल यह प्रश्न नहीं है, यह तो शंका का वो नुकीला तीर है जो हर नारी की छाती पर उतारा गया है जो अपने पैरों पर खडी होकर बहुत कुछ कर दिखाना चाहती है। मध्यप्रदेश की महिला कृषि वैज्ञानिक अनीता शुक्ला ने तो जख्मों पर नमक छिडकते हुए यह तक कहने में देरी नहीं लगायी कि गैंग रेप की शिकार हुई युवती को दुराचारियों का विरोध ही नहीं करना चाहिए था। उसके विरोध के चलते ही उसकी ऐसी दुर्गति हुई। यदि वह खुद को बलात्कारियों के हाथों सौंप देती तो उसका जीवन बच जाता।
क्या आपको नहीं लगता कि यह एक बहादुर लडकी का सरासर अपमान है? यह मोहतरमा तो युवतियों को बलात्कारियों के हाथों लुट जाने की सीख देने और दुराचारियों के हौसलों को बढाने वाली ऐसी अपराधी दिखती हैं जिसका खुली हवा में घूमना-फिरना अपराधियों और अपराधों को जन्म दे सकता है। 
यह वो देश है जहां विधायक विधानसभा में जन समस्याओं पर चर्चा करना छोड अश्लील विडियो देखने का शौक फरमाते हैं। देश के राष्ट्रपति के शहजादे को धरना प्रदर्शन करने वाली तमाम लडकियां और महिलाएं हद दर्जे की नकली और ढोंगी लगती हैं :
''आजकल हर मुद्दे पर कैंडलमार्च निकालने का फैशन हो गया है। लडकियां दिन में रंग-पुतकर कैंडल मार्च निकालती हैं और रात को डिस्को में जाती हैं।'' यह महाशय सांसद भी हैं। यह महान उपलब्धि इन्होंने अपने पिताश्री के नाम और काम की बदौलत हासिल तो कर ली पर लगता नहीं है कि ये सांसद बनने के काबिल हैं। इनके अंदर तो कोई सडक छाप मवाली विचरण कर रहा है जिसे पुलिस वालों के डंडों से पिटने वाली लडकियों का असली चेहरा नजर नहीं आया। पानी की बौछारों और अश्रु गोलों के सामने डटी रहने वाली लडकियों की बहादुरी पर घटिया कटाक्ष करने वाले ऐसे सांसद के दिल और दिमाग में यकीनन कीचड भरा हुआ है। ऐसे जनप्रतिनिधि देश में बहुतेरे हैं जिन्हें नारियों का विद्रोही रूप खतरे की घंटी लगता है। यह लोग कतई नहीं चाहते कि महिलाएं घर से निकलें। यह लोग सतत उन्हें डराये रखना चाहते हैं। ये वो लोग हैं जो किसी भी महिला के चरित्र पर उंगली उठाने में संकोच नहीं करते। बलात्कार की शिकार युवतियों को एक ही झटके से चरित्रहीन घोषित कर देने में भी इन्हें कभी कोई शर्म नहीं आती। युवतियों को बलात्कारियों के समक्ष घुटने टेक देने की शिक्षा देने वाली अनीता शुक्ला उस वर्ग से ताल्लुक रखती दिखती हैं जो घर परिवार तथा समाज में होने वाले नारी शोषण को नजरअंदाज करने में ही अपनी भलाई समझता है। महिलाएं पति के हाथों चुपचाप पिटती रहें तो इन्हें संतुष्टि मिलती है। इस वर्ग को बहू-बेटियों और बच्चियों के साथ होने वाले दुराचार आहत नहीं करते। ऐसे लोगों के कारण ही स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों में भी वासना के भूखे सफेदपोश बलात्कारी बनने में देरी नहीं लगाते। भाई और पिता के हाथों लुट जाने वाली लडकियों की आहत कर देने वाली खबरों को पढने के बाद भी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। दरअसल इन्हें तो हमेशा अपनी 'नाक' की चिं‍ता रहती है। तथाकथित इज्जत और मान-मर्यादा के चक्कर में रिश्तों की पवित्रता को भी इन लोगों ने सूली पर चढा दिया है...।