Thursday, October 29, 2020

नारे... नारे... कितने नारे?

बड़ा पुराना रोग है। छूटे तो कैसे छूटे! पुरुष होने का अहंकार बचपन से उनका सच्चा साथी बना हुआ है। ऐसे में उसे कैसे त्याग दें! यह उनसे नहीं होगा। चाहे लोग कितना रोकते-टोकते समझाते रहें। औरतों की तौहीन करना, उन्हें बार-बार नीचा दिखाना इनकी फितरत है। यह देश के नेता हैं। नारी को कल भी अपने पैर की जूती समझते थे और आज भी तिरस्कार करने से बाज नहीं आते। मतदाता भी इनके लिए इंसान नहीं सामान हैं, जिसका प्रयोग कर फेंक देते हैं, भूल जाते हैं। भोले-भाले अधिकांश मतदाता जिन्हें अपना कीमती वोट देकर सांसद, विधायक बनाते हैं, उन्हें फरिश्तों जैसा सम्मान भी देते हैं। यही फरिश्ते जब अपनी असली औकात दिखाते हैं, तो हंगामा बरपा हो जाता है।
रात के दस बजे वह खानदानी युवा नेता, सांसद क्या कर रहा था, कैसी हालत में था, कौन सी खिचड़ी पका रहा था इसकी परवाह किये बिना अपनी मुसीबत से परेशान एक युवक ने उनसे बड़े हक के साथ मोबाइल पर बात की। उसने अपने क्षेत्र के सांसद को अपनी समस्या से अवगत कराया, लेकिन उधर से फटकार और दुत्कार मिली। 'मैं तुम्हारे बाप का नौकर नहीं। तुमने भले ही मुझे वोट दिया होगा, लेकिन खरीद तो नहीं लिया है। मेरी आजादी छीनने की गुस्ताखी करने का किसी को अधिकार नहीं।'  दरअसल, मदद के बदले अपने सांसद से डांट खाने वाले युवक की दुकान से बीस बोतल देशी शराब पकड़ी गई थी। जब उसने उन्हें फोन लगाया तब वह पुलिस की गिरफ्त में था। उसके मन में आया होगा कि पुलिस वालों के सामने अपने सांसद से बात कर धौंस जमाने में कामयाब हो जायेगा। पुलिस वाले उसे वैसे ही छोड़ देंगे, जैसे विधायकों, सांसदों तथा मंत्रियों के पाले-पोसे अपराधियों को ये लोग बड़ी इज्जत के साथ विदा कर देते हैं।
वैसे भी कोई ऐरा-गैरा इन 'ऊंचे लोगों' को फोन लगाने की हिमाकत नहीं करता। जिन्हें इनकी मित्र-मंडली की कारस्तानियों का पता होता है वही ऐसा हौसला दिखाता है। नेताओं की मित्र मंडली में शरीफों के साथ-साथ कुख्यात भी शामिल होते हैं, जिनके बचाव के लिए अक्सर पुलिस थानों के लैंडलाइन तथा मोबाइल फोन बजते रहते हैं। अगर यह युवक भी सांसद का करीबी होता तो इस कदर बेइज्ज़त नहीं किया जाता। दरअसल, वह एक आम मतदाता है, जिसने खुद को खास समझने की महाभूल की और सहयोग के बदले शाब्दिक जूता खाया। यह हिंसा तो अपने देश के नेताओं के खून में चौबीस घण्टे छलांगे लगाती रहती है, जिसकी वजह से सदियों पहले 'महाभारत' हुई थी। ७२ साल का एक पका-पकाया नेता अपने चुनावी भाषण के दौरान मर्यादा का गला घोटते हुए महिला विधायक को 'आइटम' करार देकर तालियां बटोरता है। खुद को 'आइटम' कहे जाने पर वह महिला फूट-फूटकर रोते हुए कहती है, यह उम्रदराज राजनेता पहले भी मेरे साथ बदसलूकी करता रहा है। मैं जब भी इससे मिली इसने कभी इज्जत नहीं दी। दूसरी महिलाएं तो इसकी बगल की कुर्सी पर बैठती थीं, लेकिन मेरे लिए तो इसके सामने कुर्सी पर बैठने की ही मनाही थी। दलित नेत्री की पार्टी के नेता और कार्यकर्ता शोर मचाते हुए सड़क पर उतर आते हैं। अनशन-वनशन करते हुए दहाड़ते हैं कि यह तो भारतीय दलित महिला का घोर अपमान है। दलितों के साथ होने वाला शर्मनाक दूजाभाव है। जिसको 'आइटम' कहकर अपमानित किया गया है वह कोई अनपढ़-गंवार नारी नहीं, पढ़ी-लिखी साहित्यप्रेमी सुलझी हुई महिला हैं।
दरअसल, महिला विरोधी मानसिकता वाले अधिकांश पुरुष नेता मानते हैं कि जिस तरह से फिल्म को हिट कराने के लिए आइटम गर्ल को नचवाया जाता है वैसे ही राजनीति की दुकान पर ग्राहकों (वोटरों) को खींचने के लिए महिलाओं को आगे लाया जा रहा है। इन महिलाओं में अक्ल-वक्ल तो है नहीं, बस महिला होने का फायदा उठा रही हैं। मतदाता भी इन्हें राजनीति की आइटम मानकर वोट देते हैं और जीतवाते हैं। ऐसी घटिया सोच वाले नेताओं के व्यवहार, दर्द, तिरस्कार और उपेक्षा के दंशों की कटु स्मृतियां सदियों से दलितों, शोषितों के दिल और दिमाग के तहखाने में जमी पड़ी हैं। होना तो यह चाहिए था कि राजनेता इन विषैली यादों को भुलवाने में सहायक होते, लेकिन यह तो जख्मों को कुरेद रहे हैं। बार-बार हरा कर रहे हैं।  
राजेश्वरी सरवण तामिलनाडु में एक ग्राम पंचायत की अध्यक्ष हैं। वे दलित हैं इसलिए उनके साथ जातीय आधार पर भेदभाव किया जा रहा है। गणतंत्र दिवस पर उन्हें राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराने दिया गया। ग्राम पंचायत की बैठकों के दौरान जहां अन्य सदस्य कुर्सी पर विराजते हैं, दलित अध्यक्ष को कुर्सी तक नहीं दी जाती, जमीन पर ही बैठने को विवश किया जाता है। अपमान के दंश से बचने के लिए राजेश्वरी ने स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में भाग ही नहीं लिया। राजेश्वरी के अंदर गुस्सा भरा पड़ा है। रोष तथा पीड़ा भरे स्वर में कहती हैं, 'हमें बार-बार अपमान का विष पीने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि हम दलित हैं, अछूत हैं!'
बिहार के दरभंगा जिले में एक १४ वर्ष की लड़की से बलात्कार के बाद उसकी नृशंस हत्या की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरीं। इस लड़की ने एक बाग से आम चुराया था, नाबालिग को उसी चोरी की मिली यह सज़ा! इस सज़ा में डर छुपा है। देश में तेजी से बढ़ती दलित शक्ति से कई सत्ताखोर घबराये हुए हैं। इसलिए दलित बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं पर अत्याचार कम होने की बजाय बढ़ रहे हैं। अपने आपको महान समझने के भ्रम में जी रहे शातिर राजनेताओं के अंदर की ईर्ष्या, गंदगी, बेहूदगी बाहर आ रही है और वे निरंतर बेनकाब हो रहे हैं। उन्हें सशक्त दलित महिलाओं का राजनीति में आना कतई नहीं सुहा रहा है। दलितों, वंचितों, गरीबों, किसानों की सुध लेने की बजाय देश में जहां-तहां उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। उनके बच्चों के लिए शिक्षा एक सपना है। रहने को घर नहीं, खाने को भोजन नहीं। आजादी के ७४ साल बाद भी घोर अभावों में उनकी जिन्दगी गुज़र रही है। मुफलिसी, जुल्म, अवहेलना, दुत्कार की मार बढ़ती ही चली जा रही है। फिर भी रोज़ खबरें आती हैं कि सरकारें असहायों के विकास के लिए यह कर रही हैं, वो कर रही हैं। हर वर्ग तथा समाज की नारियों को बिना किसी भेदभाव के हर तरह से सशक्त बनाया जा रहा है। बच्चियां पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
सच को मोटे-मोटे परदों और नकाबों में छुपाने और झूठ पर झूठ बोलने की नेताओं की आदत जाती नहीं दिखती। देश के सजग साहित्यकार भेदभाव की पीड़ा भोगते तमाम वंचितों के दर्द को बयां करने से नहीं चूक रहे हैं। जो देश में दिख रहा है, हो रहा है, उसे उजागर करने का धर्म वे पूरी तरह से निभा रहे हैं। देश के जमीन से जुड़े विख्यात साहित्यकार डॉ. इंद्र बहादुर सिंह ने लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व यह पंक्तियां लिखी थीं। आईना दिखाती यह पंक्तियां आज भी कितनी-कितनी सच्ची-सार्थक हैं, इसका पता तो देश का चेहरा देखकर चल जाता है...
"सड़ी-गली ये सारी व्यवस्था अखबारों पर जिन्दा है।
मेरे देश बधाई तुझको, तू नारों पर जिन्दा है।।
बस्ती का एक-एक सूरमां बस्ती छोड़ के भाग गया।
मिल-जुलकर रहने का नारा दिवारों पर जिन्दा है।।
समय तेरी बलिहारी तूने कैसे-कैसे ढोंग रचे।
बुद्धि पर इतराने वाला दरबारों पर जिन्दा है।।"

Thursday, October 22, 2020

वंश, मोक्ष और मुक्ति

खबरें खुश करती हैं। खबरें उदास करती हैं। खबरें आशा तथा उत्साह की राह पर ले जाती हैं। खबरें ही पीड़ा, वेदना तथा घोर निराशा के कगार पर ले जाकर छोड़ देती हैं। यह जानकर बड़ा अच्छा लगा कि बेटे और बेटियों को लेकर काफी लोगों की सोच बदल रही है। अब वो जमाना नहीं रहा, जब बेटियों पर पुत्रमोह भारी पड़ता था। बेटे के नहीं होने पर मायूसी छायी रहती थी। मुझे अपने मामाजी याद आ रहे हैं, जिन्होंने पांच बेटियों के पिता बन जाने के बाद भी खुद को नहीं रोका। यह तो अच्छा हुआ कि पांच बेटियों के बाद उनके यहां बेटे ने जन्म ले लिया। उनकी तो जिद थी कि जब तक बेटा नहीं होगा, उनका प्रयास जारी रहेगा। जिस पंजाब तथा हरियाणा में बेटे की चाहत की जिद में दस-दस बेटियों के जन्मने के बाद भी विराम नहीं लगता था, अब वहां पर भी लोग बदल रहे हैं। उनकी सोच में परिवर्तन दिखायी देने लगा है। एक या दो बेटियों के होने के बाद परिवार नियोजन अपनाया जा रहा है। लड़की के जन्म लेने पर खुशियां मनायी जा रही हैं। जिस तरह से लड़के के पैदा होने पर खुद को सौभाग्यशाली माना जाता था, अब लड़की के आगमन पर भी खुद को खुशनसीब समझने वालों की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। दत्तक लेने के मामले में भी बेटियां बाजी मार रही हैं। वो जमाना और समय लुप्त होने को है, जब अनाथ आश्रमों में लड़के को गोद लेने वाले दंपतियों की कतारें लगती थीं। कोने में दुबकी लड़की की तरफ तो देखा तक नहीं जाता था, लेकिन अब अधिकांश दंपति अपनी गोद में बिटिया की किलकारी की गूंज सुनना चाहते हैं। शहरों में ही नहीं, गांवों में भी बेटे की पैदाइश की जिद में कमी आने के पीछे की वजह है कि लड़कियों का 'कुलदीपकों' से कमतर न होना। लड़कियों के आत्मबल, साहस और जुनून को पिछले कुछ वर्षों में अच्छी तरह से देखा और परखा गया है। अवसर मिलते ही कई लड़कियोें ने उन बुलंदियों को छूकर दिखाया है, जिसके बारे में अधिकांश लोगों की यह राय रहती थी कि वहां तक तो लड़के ही पहुंच सकते हैं। लड़कियों के बस की बात कहां...!
मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में पली-बढ़ी सायली को २५ जनवरी २०२० के दिन देश के महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रीय सम्मान देकर सम्मानित किया। ढेर सारी प्रशंसा भी की। सायली की बचपन से ही कुछ अलग हटकर करने की तमन्ना थी। हालात और परिस्थितियां कतई अनूकुल नहीं थीं फिर भी जिद की पक्की सायली ने हार नहीं मानी। लोग तो उसका मज़ाक उड़ाने से बाज नहीं आते थे कि गरीब परिवार की लड़की होकर ऐसे सपने देख रही हो, जिन्हें पूरा करना अच्छे खासे सम्पन्न लड़कों के बस की बात नहीं। सायली आत्मबल के दमखम में कम नहीं थी। तभी तो उसने पुलिस कमिश्नर बनकर दिखाया और वो वर्दी पहनी, जो कभी उसका सपना थी। कई गौरवशाली पुरस्कारों से सम्मानित युवा आईपीएस सायली अपने अटूट साहस तथा नये-नये प्रयोगों के लिए जानी जाती हैं। जब वे बिहार के पटना साहिब की पुलिस अधीक्षक थीं, तब वहां पर एक बलात्कार हुआ था। मामला काफी संवेदनशील था। गुस्से में बेकाबू हो चुकी भीड़ के उन्मादी तेवर और मारकाट के इरादे भांपने के बाद पुरुष वर्दीधारियों के पसीने छूटने लगे थे। डर कर भागने का विचार भी उनके मन में आया था, लेकिन साहसी सायली ने बड़ी हिम्मत के साथ विपरीत परिस्थितियों में इस चुनौती का सामना कर नारी होने की सार्थकता का जो प्रदर्शन किया, उससे पुरुषों ने भी दांतो तले उंगली दबा ली। इस महिला खाकी वर्दीधारी ने हमला करने पर उतारू हो चुकी हजारों की भीड़ से किंचित भी खौफ न खाते हुए ललकारा और भीड़ की तरफ दौड़ने लगीं। उनका यह आक्रामक रूप देखकर लोग दुम दबाकर इधर-उधर दौड़ने लगे। बॉडीगार्ड भी अपनी निर्भीक अधिकारी के पीछे-पीछे दौड़ रहा था। भीड़ का पीछा करते-करते वे एक छोटी-संकरी-सी गली तक जा पहुचीं। वहां पर डंडे, लाठी तथा विभिन्न हथियारों से लैस असमाजिक तत्वों ने उन्हें घेरने की कोशिश की। उनकी तो उन्हें वहीं खत्म कर देने की प्रबल मंशा थी। तभी संयोग से उस गली से एक सायकल सवार गुजर रहा था, जिससे उन्होंने सायकल मांगी और फिर उस पर बैठकर गुंडई दिखाते बदमाशों के पीछे भागीं। महिला अधिकारी को सायकल से पीछा करते देख गुंडे ठंडे पड़ गये। उनकी हिम्मत जवाब दे गई और एक-एक कर भाग खड़े हुए। उसके बाद पटना साहिब के अशांत क्षेत्र में पूरी तरह से शांति तो स्थापित हुई ही, तमाम कुख्यात असामाजिक तत्व भी उनसे खौफ खाने लगे। आज भी लोग जब उस घटना को याद करते हैं, तो उनकी आंखों के सामने अदम्य साहसी सायली का चेहरा घूमने लगता है। उस दिन यदि उन्होंने पीठ दिखा दी होती तो तय था कि कई पुलिस वाले गुस्सायी भीड़ की हिंसा का शिकार हो जाते। तब रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल थे। उन्होंने इस कर्तव्यपरायण आदर्श नारी की काफी सराहना की थी और एक समारोह में प्रशस्तिपत्र देकर सम्मानित किया था। सायली को पुलिस सेवा में मात्र दस वर्ष ही हुए हैं, लेकिन पुरस्कार तथा सम्मान पाने के मामले में उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भी पीछे छोड़ दिया है। बिहार के अररिया जिले में धाकड़ छवि माने जाने वाले पुलिस अधिकारी भी दुर्दांत अपराधियों के दिमाग को दुरुस्त नहीं कर पाते, लेकिन सायली ने यहां पर भी अपनी कार्यक्षमता की गज़ब की छाप छोड़ी। बोगस मतदान और हिंसक घटनाओं के लिए कुख्यात अररिया में शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव सम्पन्न करवाने का श्रेय भी उन्हें जाता है। यह उनके काम करने के तौर-तरीके तथा निर्भीक तथा अनुशासित छवि का ही प्रतिफल है, कि २०१९ के लोकसभा चुनाव में एक भी बोगस मतदान का केस दर्ज नहीं हुआ और ना ही कहीं कोई हिंसक घटना हुई।
पिछले दिनों ग्वालियर में एक बारह-तेरह साल की लड़की मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की कार के सामने बेखौफ आकर खडी हो गई। मुख्यमंत्री की सुरक्षा में लगे अफसर कुछ कह और समझ पाते उससे पहले मुख्यमंत्री ने उसे अपने पास बुलाया और वजह पूछी। लड़की ने बिना घबराये उन्हें अपनी समस्या बतायी कि मेरी मां को कैंसर हो गया है। यहां के डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये हैं। मुझे आपकी मदद चाहिए। मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। जब मुझे कहीं से पता चला कि आप ग्वालियर आये हैं तो मैंने आप से मिलने का यह रास्ता चुना। आप कहने को तो प्रदेश की हर लड़की के मामा हैं, लेकिन आपके निकट पहुंचना आसान नहीं। ऐसे में आप आम लोगों की समस्याओं से अवगत ही नहीं हो पाते। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को बहादुर लड़की की पूरी मदद करने का निर्देश देने के साथ उसका मोबाइल नंबर भी ले लिया। इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि लड़कियों के मन में अपने माता-पिता और परिजनों के प्रति जो आदर, स्नेह और अपनत्व होता है, उसका आधा हिस्सा भी लड़कों में नहीं होता। बेटियां अपने अभिभावकों के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने के ऐसे-ऐसे उदाहरण पेश कर रही हैं, जिनकी पहले कल्पना तक नहीं की जाती थी। बेटिया अब श्मशान घाट जाने से नहीं घबरातीं। पिता की चिता को मुखाग्नि देने की पहल करने वाली बेटियो ने कई परंपराओं को तोड़ने का साहस दिखाया है। फिर भी जब छोटी-छोटी बच्चियों पर बलात्कार और नृशंस दुराचार की खबरें सुनने-पढने में आती हैं तो बड़ी तकलीफ होती है। यह जानकर भी मन बहुत आहत होता है कि अभी भी कुछ दुष्ट लोग हैं, जो लड़की के जन्म लेने पर मातम मनाते हैं। बेटियां उनके लिए अशुभ तो बेटे सौभाग्यशाली हैं, जो वंश को आगे बढाते हैं। यही लोग ही बेटी के जन्म लेने पर उसे कचरे के ढेर पर या अनाथ आश्रम में छोड़कर निर्ममता तथा दरिंदगी का इतिहास लिखते हैं।
मैंने अपने इस जीवन-काल में बेटियों के एक से बढ़कर एक दुश्मन देखे हैं, लेकिन बदायूं में एक शैतान हैवान ने जो क्रूर अपराध कर्म किया है, वह तो मानवता को शर्माने तथा दिल को रूलाने वाला है। मैंने जब यह खबर पड़ी तो मेरे रोंगटे ही खड़े हो गये। दिल तथा दिमाग को क्षत-विक्षत कर देने वाली इस खबर को मेरे लिए तो ताउम्र भूला पाना मुश्किल होगा- "बेटे की चाहत में कई हैवान देखे, लेकिन ऐसा पहली बार देखा..., जिसने यह पता लगाने के लिए पत्नी का पेट ही फाड़ डाला कि उसके गर्भ में बेटा है या बेटी। बदायूं शहर के नेकपुर मोहल्ले में गली नंबर तीन में रहने वाले पन्नालाल पांच बेटियों का पिता है। जब उसकी पत्नी छठवीं बार गर्भवती हुई तो उसे फिर से बेटी के होने का भय सताने लगा। पन्नालाल ठीक-ठाक कमाता था। उसकी पत्नी ने भी परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार और उठाव लाने के लिए घर पर ही छोटी-सी किराना दुकान खोल ली थी। दुकान वही संभालती थी। उसे बेटियों के पैदा होने का कोई गम नहीं था। उसकी तो यही कोशिश और दिली तमन्ना थी कि वे उन्हें पढ़ाए-लिखाए और अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाए। लेकिन पन्नालाल वंश के आगे न बढने की चिन्ता में पगलाया था। वह प्रतिदिन रात को शराब पीता और फिर अनीता को बेटा पैदा न करने की सज़ा देने लगता। यह मारपीट उसने तब से प्रारंभ कर दी थी, जब से उसके यहां दूसरी बेटी ने जन्म लिया था। उसे बेटियों से सख्त नफरत थी। उन्हें वह अपने मोक्ष के मार्ग की बाधा मानता था। जब पत्नी आठ महीने की गर्भवती हुई तो उसके दिमाग में भूचाल आने लगा। रातों की नींद उ‹ड गई। एक रात उसने जमकर शराब पी और हमेशा की तरह पत्नी से मारपीट करने लगा। पत्नी ने दिलासा देने के अंदाज में समझाया कि ईश्वर पर भरोसा रखो। सब ठीक होगा, लेकिन उस बेसब्र शैतान ने चीखते हुए कहा कि, मैं प्रसूति के समय का इंतजार नहीं कर सकता। मैं तो आज ही सबकुछ जानकर रहूंगा। नशे में धुत हैवान ने हंसिया से पत्नी का पेट फाड़ डाला। लहुलूहान पत्नी की पेट की आंतें बाहर निकल गईं। परिवार व पास-पड़ोस में कोहराम मच गया। अस्पताल में अनीता का ऑपरेशन कर बच्चे को बाहर निकाला गया। वह बेटी नहीं, बेटा था...। जिसकी वंश और मोक्ष प्रेमी दरिंदे पिता ने ही हत्या कर दी...।"

Thursday, October 15, 2020

और कितनी आज़ादी चाहिए?

एक हादसे में घायल बीस साल के युवक को अस्पताल वालों ने मृत घोषित कर दिया था। घर वाले दफनाने की तैयारी में थे। कब्र खोदी जा चुकी थी। इसी दौरान किसी परिजन को उसके शरीर में हरकत दिखाई दी। उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टरों ने बताया कि वह जिन्दा है। परिवार ने बताया कि घायल होने के बाद युवक को जिस प्रायवेट अस्पताल में भर्ती कराया गया था, वहां इलाज के दौरान उन्होंने सात लाख रुपये जमा करा दिये थे। चार-पांच दिन बाद अस्पताल प्रशासन ने और रकम की मांग की। हमारे पास देने को कुछ नहीं था। कुछ ही घण्टों के बाद उनके बेहोश बेटे को मृत घोषित कर दिया गया...।
एक सत्रह साल की इस देश की बेटी जेल में बंद अपने पिता से मिलने पहुंची थी। जेल के गेट के पास उसे दो युवक मिले, जिन्होंने उसके पिता को जेल से छुडाने का झांसा देकर उस पर बलात्कार किया और अश्लील वीडियो भी बना ली...। यह और इन जैसी पचासों खबरें महज खबरें नहीं हैं, जिन्हें पढ-सुनकर भुला दिया जाए। यह तो आस्था और भरोसे के कत्ल किये जाने की चिन्ताजनक दास्तानें हैं, जिनकी दहशत सतत बनी हुई है। भारत के पुरातन ग्रंथ कहते हैं कि, विश्वास के शीशे का धूमिल होना, दरकना, टूटना-फूटना सबसे ज्यादा चोट तथा पीडा देता है। यह शीशा एक बार जो टूटा तो जुडना मुश्किल। फिर भी अपने निजी फायदे और स्वार्थ के लिए यह अपराध बार-बार किया जा रहा है। अफसोस तो इस बात का भी है कि जिन पर अपराधियों को बेनकाब करने की जिम्मेदारी है, वे ही आज अपराधी की तरह कटघरे में खडे हैं। देश का मीडिया जिस पर कभी नाज़ था, आज तमाशा बनकर रह गया है। उसी के खिलाफ कई-कई शिकायतें हैं। हर तरफ नाराज़गी है। उसे दंडित किये जाने की मांग की जाने लगी है। इसलिए क्योंकि वह अब निष्ठुर सौदागर की तरह काम कर रहा है। अपनी जेब भरने के लिए धोखाधडी पर भी उतर आया है।
करोडों-करोडों रुपये के विज्ञापन हथियाने के लिए टीवी न्यूज चैनल वाले फर्जी लोकप्रियता दिखाकर विज्ञापनदाताओं की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। उन्हे किसी भी तरह से पैसा और दर्शक चाहिए। फर्जी दर्शकों से भी उन्हें परहेज नहीं। इसके लिए भले ही कितना छल-कपट और झूठ क्यों न बोलना पडे। उनकी एक पक्षीय आहत करने वाली खबरों की वजह से लोग अदालतों के दरवाजें खटखटाने लगे हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय को उसे आईना दिखाने के लिए आगे आना पड रहा है। जब कोरोना की महामारी फैल रही थी, तब एकाएक पूरे देश में यह खबर तेज आंधी की तरह फैलायी गयी कि राजधानी दिल्ली के निजामुद्दीन में आयोजित तबलीगी जमात के आयोजन में शामिल हुए मुसलमानों ने कोविड-१९ का संक्रमण देश के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाया है। जहां-जहां जमातियों के कदम पडे वहां-वहां पर कोरोना तूफानी गति से फैला है। पूरे देश में अजीब-सी दहशत छा गई थी। एक तो कोरोना की जानलेवा बीमारी और उस पर यह अनेकों मानव बम! हां अधिकांश न्यूज चैनलों ने ऐसे ही भय का माहौल बना दिया था। घृणा, तनाव और दूरियां बढाने की साजिशी मंशा दर्शाने वाली इस खबर को रबर की तरह खींचने की प्रतिस्पर्धा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। दिल्ली के निजामुद्दीन-मरकज में देश और विदेश के हजारों मुस्लिम बंधु शामिल हुए थे। तबलीगी जमात के इस आयोजन की समाप्ति के बाद उन्हें अपने-अपने स्थायी ठिकानों पर लौटना था, लेकिन इस बीच कोविड-१९ ने अपना शिकंजा तेजी से कसना प्रारंभ कर दिया। विदेश ही नहीं देश की भी हवाई, रेल, बस आदि की सेवाएं बंद हो गईं।
कोरोना काल में आयोजित तबलीगी गतिविधि को लेकर यदि न्यूज चैनलों ने शोर नहीं मचाया होता तो साम्प्रदायिक तनाव, घृणा और समाज को बांटने वाली प्रवृतियों को बल नहीं मिलता। कोविड-१९ के चिन्ताजनक काल में सोशल मीडिया पर भी मुसलमानों की गलत छवि पेश करने वाली ऐसी शंका तथा भेदभाव की आंधी नहीं चलती तो शहर की गली-गली में घूमकर सब्जी बेचने वाला रहमान आज भी जिन्दा होता। कल तक जो लोग उसकी ताजी सब्जी का इंतजार करते थे, अब उन्हें उसकी सब्जी में विष होने का संदेह होने लगा था। कुछ अति उत्साही, असामाजिक तत्वनुमा चेहरों ने उसकी इसलिए पिटायी भी कर दी... कि उसने उनके मोहल्ले में आने की जुर्रत ही क्यों की...! कमायी बंद हुई तो रहमान बीमार पड गया। कुछ दिनों के पश्चात इलाज के अभाव में वह चल बसा।
राजधानी में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने के लिए विदेशों से आये कुछ तबलीगी जमात के लोगों का नागपुर में आगमन हुआ था। कोविड-१९ के संकट के दिन उन्होंने यहां बडे इत्मीनान से गुजारे। प्रशासन ने कुछ दिन तक निर्धारित स्थान पर क्वारंटाइन भी किया। नारंगी नगर से विदा होते समय उनकी आंखे नम थीं। उनका कहना था कि इस शहर में उन्हें जो मान-सम्मान तथा अपनापन मिला उसे वे कभी भुला नहीं पाएंगे। सर्वधर्म समभाव के जीवन-सूत्र के प्रबल हिमायती नागपुरवासी दहशत और विकट संकट काल में सतत हौसला अफजाई कर हमें दिलासा देते रहे कि आपके साथ बेइंसाफी नहीं होगी। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने दूध का दूध और पानी का पानी कर हमारे माथे पर थोपे कलंक के दाग को मिटा ही दिया है। उन लोगों की भी आंखें खोली हैं, जिन्हें देश और दुनिया के सभी मुसलमान कोरोना फैलाने के महा षडयंत्र में शामिल लग रहे थे। यकीनन, कुछ समय जरूर लगा, लेकिन यह स्पष्ट तो हो गया है कि हिन्दुस्तान में कोरोना तबलीगी जमातियों की वजह से नहीं, लोगों की अपनी असावधानी की वजह से तेजी से फैला। न्यूज चैनलों ने सनसनी फैलाने तथा लोकप्रियता पाने के लिए पत्रकारिता को एक नहीं, हजार बार कलंकित किया।
ड्रग्स मामले में करीब एक महीना जेल में बिताने के बाद अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को जमानत मिल गई। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद न्यूज चैनलों ने रिया को घेरने का जो एक पक्षीय आतंकी अभियान चलाया, उससे भी तमाम मीडिया के प्रति यही राय बनी है कि इसने धन और नाम चमकाने के चक्कर में चिन्तन-मनन करना बंद कर दिया है। जिस तरह भूखा शेर मौका पाते ही शिकार पर झपटता है, उसी तरह से भारतीय मीडिया भी जिस किसी को भी लपेटता है, तो उसकी बडी निर्दयता के साथ चीर-फाड करने में लग जाता है। उसके खुद के शोर में शिकार की हर आवाज़ तथा फरियाद दबकर रह जाती है। उसकी सुनना मीडिया को अपना अपमान लगता है। उसके क्षेत्र में दखल देने की कुचेष्टा लगता है।
इस बेकाबू, लापरवाह मीडिया पर जब भी उंगली उठती है, तो उसकी तरफ से लट्ठ घुमाने के अंदाज में बस यही कहा जाता है कि कुछ दुष्ट हमारी अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने पर आमादा हैं। हम यह कदापि नहीं होने देंगे। दरअसल अधिकांश न्यूज चैनलों के कर्ताधर्ताओं ने यही मान लिया है कि यह आजादी सिर्फ उन्हीं के लिए है, दूसरों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। इनकी तरह कई लोग और भी हैं, जिनकी शैतानी हरकतों से देश परेशान है। देश को भी समझ में नहीं आ रहा है कि उन्हें कितनी आजादी चाहिए और कितने टुकडे...! इससे किसी को इंकार नहीं कि हर किसी को विरोध करने तथा अपनी बात कहने का पूरा हक है। शाहीन बाग में कई हफ्तों तक जबरन हुए धरने प्रदर्शन से दिल्लीवासियों को अथाह तकलीफें झेलनी पडीं। एक अच्छे-खासे सार्वजनिक स्थल को बंधक बनाया गया। किसी की भी नहीं सुनी गई। उससे भले ही कुछ लोगों को संतुष्टि मिली हो, लेकिन भारत माता आहत होकर रह गई। अपने अधिकारों के लंबे तमाशे में दूसरों के अधिकारों की लूट तथा तकलीफ देने की जिद की सबकी तरफ से खुलकर भर्त्सना नहीं की गयी। कुछ थाली छेदकों से भारत माता बहुत परेशान है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री व नेशनल कांफ्रेस के नेता फारूख अब्दुल्ला को यह कहते ज़रा भी लज्जा नहीं आयी कि चीन के समर्थन से जम्मू-कश्मीर में फिर से अनुच्छेद ३७० लागू करके ही दम लेंगे। यानी यह और इन जैसे शैतान, अहसानफरामोश, अशांति फैलाने और हिन्दुस्तान को नीचा दिखाने के लिए दुश्मन देश की शरण में जाने से भी नहीं हिचकिचाने वाले। इसलिए सावधान, भारत देश...! हमें खतरा बाहरी आतंकवादियों से कम, देश में उजागर तथा छिपे हुए गद्दारों से अधिक है...।

Thursday, October 8, 2020

तब भी, अब भी

कई वर्ष पहले...। छत्तीसगढ में स्थित कटघोरा के हाईस्कूल के एक शिक्षक की बागी, शर्मनाक प्रेम कहानी के विस्फोट से जमीन हिल गयी थी। वहां के सीधे-सादे लोग बेहद हतप्रभ रह गये थे। उन्होंने जिसकी कभी कल्पना ही नहीं की थी, वो जो हो गया था...! शिक्षक का हंसता खेलता, अच्छा खासा परिवार था। ऐसे में उनका खुद से काफी छोटी उम्र की युवती से जुडना और शादी करने का निर्णय लेना कई वजह से चौंकाने वाला था। तब कटघोरा की कुछ गांव तो कुछ शहर जैसी आदर्श तस्वीर थी। उस युवती का पिछले कई दिनों से शिक्षक के घर आना-जाना था। कुछ दिन तक तो अडोसी-पडोसी, किसी ने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब शिक्षक घर में अकेले होते तब भी युवती के चुपके से आने और घण्टों बिताने की वजह से शिक्षक की पत्नी असहज होने लगीं। कटघोरा कोई बडा शहर तो था नहीं, जहां उनके मिलने-मिलाने की जानकारी छिपी रह जाती। साथ ही तब समाज में इतना खुलापन भी नहीं था कि इसे उनका नितांत व्यक्तिगत मामला मानकर नजरअंदाज़ कर दिया जाता। ऐसे में वही हुआ जो अमूमन होता है। तरह-तरह की बातें... चर्चाएं। गांव में होने वाली हर चर्चा की स्वरलहरी को शिक्षक ने तो अनसुना कर दिया, लेकिन उनकी पत्नी से रहा नहीं गया। वे युवती से जाकर मिलीं। युवती ने यह कहकर उन्हें शांत होने को विवश कर दिया कि वह तो सर को अपना बडा भाई मानती है। इतना ही नहीं उसने घर में आकर शिक्षक की कलाई पर राखी बांधकर सभी शंकाग्रस्त लोगों को अपनी सोच बदलने की वजह सौंप दी। राखी बांधने-बंधवाने के बाद तो दोनों बेखौफ यहां-वहां, कहीं भी घूमने-फिरने लगे। कभी-कभार कोरबा और बिलासपुर तथा रायपुर भी चले जाते। राखी के धागे ने उनकी राह की सभी जंजीरें तोड दी थीं। किसी को भी संदेह करने या प्रश्न करने का हक नहीं था, लेकिन जब युवती गर्भवती हुई तो कटघोरा का हर सजग इंसान और चप्पा-चप्पा बहन-भाई के पवित्र रिश्ते के घोर अपमान से ऐसे शर्मसार था, जैसे उनसे कोई अक्षम्य पाप और अपराध हो गया हो। शिक्षक और युवती ने तो बाद में शादी कर ली, लेकिन लोगों ने आसानी से किसी पर यकीन करने की आदत में बदलाव लाने की राह पकड ली। इतना बडा कांड होने के बावजूद शिक्षक की पत्नी के विरोध की कोई आवाज़ नहीं सुनी गयी। यह खबर जरूर सुनी-सुनायी गई कि दिलफेंक शिक्षक ने पत्नी का मुंह बंद करने के लिए आदिम मारपीट के बर्बर तरीके का भरपूर इस्तेमाल किया।
लगभग साढे चार दशक के लम्बे अंतराल के बाद इस दास्तान के याद आने की वजह बना मध्यप्रदेश के स्पेशल डीजी पुरुषोत्तम शर्मा का वायरल हुआ वह वीडियो, जिसमें वे निहायत क्रूरता के साथ अपनी पत्नी की पिटायी करते दिखायी दे रहे हैं। दरअसल, खाकी वर्दीधारी अधिकारी की पत्नी को अपने पतिदेव के बदचलन होने का पक्का यकीन था। इसी बात को लेकर पति-पत्नी में अक्सर विवाद होता रहता था। पत्नी ने उनकी जासूसी करनी प्रारंभ कर दी। इसी तारतम्य में वे जा पहुंची वहां... जहां उनका आना-जाना था। वे बेफिक्र होकर नयी नारी के साथ सोफे पर बैठे थे। पत्नी को देखते ही आग-बबूला हो गये। नारी भी सकपका गई। यह क्या हो गया! पत्नी जोर से चीखीं, "तो यह है वो बदचलन सौंदर्य सम्राज्ञी जिसके चक्कर में मुझे बरबाद करने की ठान ली है तुमने...?
"नहीं मैडम, आप गलत सोच रही हैं। मैं एक शादीशुदा खानदानी औरत हूं। आपके पति देव तो मेरे पितातुल्य हैं।"
"यह कैसा बाप-बेटी का रिश्ता है, जो नितांत एकांत में निभाया जा रहा है!" उससे इसका कोई जवाब नहीं मिलने पर पत्नी ने पति को घूरते हुए अपने सवाल का जवाब जानना चाहा तो वे यह कहते हुए वहां से भाग खडे हुए कि तुम्हें तो शक की पुरानी बीमारी है। पति को महिला के साथ रंगे हाथ पकडने के बाद पत्नी ने घर में कदम रखा ही था कि बौखलाये साहब ने मारना-पीटना प्रारंभ कर दिया। पत्नी ने भी जवाब में खूब हाथ पैर और मुंह चलाया। आयकर विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत पुत्र ने अपने माता-पिता के 'तांडवी युद्ध' का वीडियो बनाकर मध्यप्रदेश के गृहमंत्री, डीजीपी और मुख्य सचिव को भेजकर पिता को जहां कसूरवार ठहराया, वहीं बेटी पिता के समर्थन में आ खडी हुई। उसका कहना है कि मां मानसिक तौर पर इतनी अधिक बीमार हैं कि खुद को मारने की कोशिशें करती रहती हैं। इतना ही नहीं वो तो अपने घर को भी आग लगाने जा रही थीं। हम सबने किसी तरह से उन्हें नियंत्रित किया। अधिकारी की तथाकथित प्रेमिका ने भी थाने पहुंचकर अपनी शिकायत में कहा, "मैं एक चैनल की सम्मानित न्यूज एंकर हूँ। मैं जिस शख्स को अपना पिता मानती हूं उसे मेरा प्रेमी... यार प्रचारित कर मेरी छवि को कलंकित किया जा रहा हैं, तथा मेरी व्यक्तिगत जिन्दगी पर शर्मनाक कटाक्ष कर मुझे मानसिक रूप से बीमार करने की साजिश रची जा रही हैं।
वैसे महिला पत्रकारों और खाकी वर्दी वालों की करीबी मेल-मुलाकातों के बिस्तर तक पहुंचने की कई और भी सनसनीखेज दास्तानें हैं। उनमें से एक की तो लिखते-लिखते याद हो आई है...। राजधानी दिल्ली की शिवानी भटनागर एक तेजी से उभरती पत्रकार थीं। इंडियन एक्सप्रेस अखबार में काम करने वाली शिवानी का न्यूज के सिलसिले में तत्कालीन आईजी आर.के.शर्मा से मिलना-जुलना होता रहता था। इसी दौरान दोनों अनैतिक रिश्ते की डोर में बंध गये। कालांतर में शिवानी भटनागर, शर्मा पर शादी के बंधन में बंधने का दबाव डालने लगी। शादीशुदा पुलिस अधिकारी ने नये मौज-मजे के लिए पत्रकार को अपने जाल में फांसा था। जब उसने देखा कि अपना ज़िस्म न्योछावर कर चुकी युवती भारी पड रही है तो उसने किसी और की तलाश कर राह बदल ली।
२३ जनवरी १९९९ को शिवानी अपने फ्लैट में मृत पायी गई। महिला पत्रकार की नृशंस हत्या पर राजनीति भी हुई। कितने-कितने वर्ष बीत गये लेकिन, ऐसा लगता है कि तब और अब में कुछ सच नहीं बदले। भोपाल के पुलिस अधिकारी पुरुषोत्तम शर्मा ने भी अपनी पत्नी का मुंह बंद रखने के लिए किसी भी हद तक जाने में कोई कमी नहीं रखी। औरत का मुंह बंद रहे इसके प्रयास हमेशा किये जाते रहे हैं। जिस दिन शर्मा को अफसरी खोनी पडी उसी दिन उत्तरप्रदेश के हाथरस में एक लडकी की सामूहिक बलात्कार के बाद हुई मौत की दिल दहलाने वाली खबर ने देशभर में भूचाल-सा ला दिया। इस अमानवीय कांड ने दिल्ली के निर्भया कांड की याद ताजा करने के साथ खाकी वर्दीधारियों की मनमानी तथा असंवेदनशीलता का भयावह चेहरा भी दिखाया। खाकी वर्दी की पारिवारिक तथा व्यक्तिगत छवि जैसी भी हो, लेकिन फिर भी असहाय आम आदमी तो उसी से ही न्याय और सुरक्षा की उम्मीद रखता है।
पुलिसिया प्रताडना और सज़ा के वास्तविक हकदार तो अपराधी हैं। दलित परिवार की उन्नीस वर्षीय बेटी गुड़िया की चार दबंग दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार के दौरान गर्दन और रीढ की हड्डी तोडने के साथ-साथ जीभ भी काट दी, ताकि वह बोल ही न पाये। १४ सितंबर २०२० को इस क्रूर दुष्कर्म को बेखौफ होकर जिन हैवानों ने अंजाम दिया वे उसी गांव (बूलगढी) के जाने पहचाने ऊंची जाति के शैतान हैं।  २९ सितंबर को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में गुड़िया ने दम तोड दिया। बलात्कारियों ने इंसानियत की धज्जियां उडायी ही थीं, लेकिन तंत्र खासतौर पर पुलिस की अमानवीयता की पराकाष्ठा ने तो हर संवेदनशील भारतवासी के खून को खौला दिया। गुड़िया के शव को घर के देहरी तक ले जाने और मां-बाप को अपनी लाडली का चेहरा दिखाये बिना पुलिस और प्रशासन ने जबरन दाह संस्कार कर दिया। वो भी रात के ढाई बजे! घर-परिवार वाले हाथ जोड-जोडकर विनती करते रहे कि रात में अंतिम संस्कार की परंपरा नहीं है। सूर्योदय का तो इंतजार कर लें! लेकिन उनकी बिलकुल नहीं सुनी गई। उलटे उन्हें जबरन घर में कैद कर दिया गया। बंद कमरे में मां रोती-बिलखती रही। बच्ची को हल्दी लगाकर अपने घर के दरवाजे से अंतिम विदायी देने की अंतिम इच्छा का अनादर करने वाली पुलिस ने पूरे गांव की नाकेबंदी कर यह सोच और मान लिया कि किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा, लेकिन शर्मनाक सच बाहर आया... पूरे जोरशोर से आया। सलाम उस महिला पत्रकार तनुश्री पांडेय को जिसने डंडे-घूसे खाने के बाद भी खाकी वर्दी की गुंडई की हकीकत देशवासियों तक पहुंचायी। उसके मुंह को बंद करवाने की ताकतवर कोशिशें और साजिशें धरी की धरी रह गईं। असंख्य जुबानों पर ताले-जडवा चुके खाकी वर्दीधारी माथा पीटते रह गये। उसके बाद तो तनुश्री को भी लांछित करने और घेरने का सिलसिला चल पडा। वो काले कौए जो चौबीस घण्टे कांव-कांव करते रहते हैं वे भी गुड़िया के गांव पहुंच गये और दावे करने लगे कि हमने, हमारे न्यूज चैनल ने देशवासियों तक सबसे पहले इतनी हृदयविदारक खबर पहुंचायी है। वैमनस्य तथा भेदभाव को बढावा देने की अपनी राजनीति की दुकानें चलाने वाले विभिन्न नेता भी मैदान में आ गये। पक्ष और विपक्ष की शाब्दिक तलवारबाजी हमेशा की तरह सजग देशवासियों का सिरदर्द बढाती रही। मन-मस्तिष्क में कई सवाल भी कौंधते रहे। सरकार तो हर जगह हो नहीं सकती, लेकिन फिर भी कई 'दिमागवालों' को सरकार को कोसने के ऐसे मौकों का इंतजार रहता है। इसमें दो मत नहीं कि सरकार का खौफ होना चाहिए। उसका पूरी तरह से सतर्क तथा निष्पक्ष होना भी नितांत आवश्यक है, लेकिन हम और हमारा यह समाज आज कहां पर खडे हैं। यह जो बिगडैल युवा बलात्कारी, दुराचारी हैं, कहीं आकाश से तो नहीं टपके! इसी धरती पर ही जन्मे हैं, लेकिन उन्हें कभी भारतीय संस्कारों से परिचित ही नहीं कराया गया। इन्हें पढाया और समझाया नहीं गया कि दूसरों की मां-बहनों की भी कद्र करना हर किसी का कर्तव्य भी है और धर्म भी। जब तुम्हारी बहन-बेटी पर कोई झपटता है, तब तो तुम शेर बन जाते हो और दूसरे की बहू-बेटी पर आक्रमण होता देख बकरी बन जाना तुम्हारी कायरता और नपुंसकता की जीती-जागती निशानी है।

Thursday, October 1, 2020

मदारी और सपेरे

एक उत्पाती, नशेडी, महिलाओं तथा बच्चियों का दुश्मन हत्यारा बंदर पिछले तीन साल से जेल में कैद है। उसकी मौत खुली हवा में नहीं होगी। घरों की छतों और पेडों की डालियों पर कूदने-फांदने की आज़ादी भी उसने हमेशा-हमेशा के लिए खो दी है। अपने दुर्गुणों के कारण उसे वन विभाग के बडे से पजरे में ही अपने प्राण त्यागने होंगे। यह खूंखार बंदर एक बच्ची की हत्या कर चुका है। महिलाओं को देखते ही वह आग-बबूला हो जाता है। किसी खूंखार शत्रु की तरह बदला लेने के अंदाज में उन पर झपटता है और लहुलूहान करके ही दम लेता है। इस घोर आतंकी बंदर का नाम है कलुआ। कलुआ के हत्यारे और शैतान बनने के पीछे की कहानी उन इन्सानों से जुदा नहीं, जो नशे के गुलाम होकर वहशी हो जाते हैं और अंतत: अपना सबकुछ खो देते हैं। समाज उन्हें अपने साथ रहने लायक नहीं मानता। परिजन भी दूर रहकर कोसते हैं। इस बंदर के महा बिगडैल होने की भी वही वजह है जो अच्छे-भले इंसानों के तबाह होने की होती है। मिर्जापुर में एक तांत्रिक था, जो वशीकरण, मंत्र, काला जादू और तंत्र-मंत्र के लिए जाना जाता था। उसी ने बंदर को पाला था।
अपने यहां हजारों तरह के दुखियारे हैं, जिन्हें लगता है कि तंत्र-मंत्र, काला जादू, झाड-फूंक बडी काम की चीज़ है। इनसे बांझ औरत मां बन सकती है, अंधा देखने में सक्षम हो जाता है, बेवकूफ, नालायक इंसान को शानदार नौकरी मिल सकती है, दुनिया की सबसे खूबसूरत नारी को अपने वश में किया जा सकता है और दुश्मन को पलक झपकते बरबाद किया जा सकता है आदि-आदि। तांत्रिक को अपना धंधा जमाने में ज्यादा पापड नहीं बेलने पडे थे। उसकी रोज की हजारों रुपये की कमायी थी। हराम की कमायी इंसान को अवगुणों के गर्त में गिराकर ही दम लेती है। तांत्रिक को भी पहले शराब की लत लगी। फिर जैसे-जैसे आवक ब‹ढती गयी वह गांजा, भांग, अफीम, चरस का भी नशा करने लगा। इतना ही नहीं उसने बंदर को भी दिन-रात शराब पिलानी शुरू कर दी। तांत्रिक की तरह बंदर भी नशे में धुत रहने लगा। बंदर का मुंह और शरीर काला था इसलिए तांत्रिक ने उसका नाम कलुआ रख दिया। अत्याधिक शराब और ड्रग्स के कारण एक दिन तांत्रिक चल बसा। कलुआ को शराब मिलनी बंद हो गई। शराब के लिए वह तांडव मचाने लगा। देखते ही देखते उसका आतंक चरम पर पहुंच गया। महज एक महीने में उसने तीस से अधिक बच्चों को काटा। उसने महिलाओं तथा छोटी बच्चियों को चुन-चुनकर अपना शिकार बनाया। लगभग दो सौ महिलाओं को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होना प‹डा। उसके हमले की शिकार बनी अधिकांश मासूम बच्चियों की प्लास्टिक सर्जरी करवानी पडी। नशेडी, शातिर तांत्रिक के शागिर्द कलुआ ने एक बंदरिया को भी अपनी चेली बना लिया। यह चतुर और फुर्तीली बंदरियां अपने गुरू के प्रति कितनी श्रद्धावान और ईमानदार रही इसका पता तब चला जब वन विभाग और चि‹डयाघर की टीम ने कलुआ को पक‹डने की कोशिश की तो बंदरिया ने आवाज लगाकर उसे चौकन्ना कर दिया। कलुआ ने उसे पकडने आई टीम के नाक में दम कर दिया था। होश में जब उसे दबोचना मुश्किल हो गया तो उसे बेहोश करने की तैयारी की गई। कई दिनों तक छकाने के बाद कलुआ पकड में आया। दो इंजेक्शन लगाकर उसे बेहोश किया गया। वन अधिकारी कहते हैं कि यदि उसे जंगल में ले जाकर छोडा गया तो वह फिर से आबादी में आकर उत्पात मचा सकता है।
कलुआ तो जानवर है, लेकिन वो लोग कौन हैं, जो इंसानियत को शर्मिंदा करने के कीर्तिमान बना रहे हैं। एक तरफ नारियों की इज्जत को तार-तार करने और नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों की थू-थू करते हैं, दूसरी तरफ उनकी काली जिन्दगी पर बनी फिल्म को देखने के लिए टूट पडते हैं। महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, विवेकानंद, शहीद भगत qसह जैसे महानायकों पर बनी फिल्मों को देखना अपने अमूल्य समय की बरबादी मानते हैं। जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया उनकी फिल्म पांच-सात दिन भी सिनेमा हाल में टिक नहीं पाती। फिल्म निर्माता का दिवाला निकल जाता है। हर तरह के ड्रग के दलदल में धंसे शराबी, कबाबी संजय दत्त की काली फिल्म आसानी से धन लोलुप, चेतनाहीन निर्माता की पहले से भरी तिजोरी में पांच-सांत सौ करोड की और बरसात कर देती है। फिल्म का नायक ब‹डी शान और अभिमान के साथ महंगी से महंगी ड्रग लेता है, पानी की तरह शराब पीता है। गटर में गिरता-गिराता है फिर भी एक से एक खूबसूरत लडकियां उसकी गोद में समाती चली जाती हैं। पथभ्रष्ट नायक बडे गर्व के साथ बताता है कि अभी तक उसके जीवन में ऐसी सैकडों युवतियां आ चुकी हैं, जिन्हें उसने अपनी मर्दानगी का स्वाद चखाया है।
उस पर टीवी पर सतत होने वाला बेहूदा शोर-शराबा...! अंधा-बहरा बनने की प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता में अधिकांश न्यूज चैनलों ने गजब की महारत हासिल कर ली है। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि भारत में बच्चे भी नशे के गर्त में डूब चुके हैं। लगभग एक करोड ४८ लाख बच्चे और किशोर अल्कोहल, अफीम, कोकीन, चरस, भांग सहित और भी कई आधुनिक किस्म के नशे का सेवन कर रहे हैं। इन कम उम्र के बच्चों में शराब पीने के शौकीनों की संख्या बडी चौंकाने वाली है। दस से सत्रह वर्ष के तीस लाख बच्चों तथा किशोरों को शराब ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। चालीस लाख बच्चे तथा किशोर अफीम के गुलाम हैं। किसी और के नहीं, भारत सरकार के सर्वेक्षण से ही यह बेहद चौंकाने तथा डराने वाली हकीकत सामने आयी है। हमारी आंखों के सामने देश का वर्तमान और भविष्य बदहाली, बरबादी, बेहोशी तथा मौत की तरफ जा रहा है। उन्हें इसकी भी खबर है कि वो कौन मदारी हैं, जो अपने पिटारे से नशे के नाग-नागिनों को निकाल कर नौनिहालो को नर्क की तरफ धकेल रहे हैं। सपेरे की बीन की आवाज कानों को चीर रही है। फिर भी, हां फिर भी तथाकथित इज्जत की खातिर लुकाने-छिपाने तथा अंधे बने रहने की धूर्तता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।
गुरूग्राम के एक नामी स्कूल का एक बारहवीं का प्रतिभावान छात्र अपने स्कूल के दो साथियों के साथ गांजा बेचते पकडा गया है। वह तथा उसके साथी ड्रग लेते रहे हैं। उनका कहना है कि ड्रग लेने के बाद उनके बदन में फूर्ती आ जाती है। दिमाग तेजी से काम करने लगता है। बच्चों के माता-पिता तथा स्कूल चलाने वालों को जब उनके नशेडी होने का पता चला तो उन्होंने इस qचताजनक सच को छुपाना बेहतर समझा। उनका निवेदन था कि इस मामले को ज्यादा न उछाला जाए। बच्चों के भविष्य का सवाल है। बच्चों के साथ-साथ उनकी भी बदनामी होगी। पुलिस वाले भी ठंडे पड गये। मीडिया को भी खबर लगी, लेकिन वह भी गूंगा बना रहा। ऐसे कई-कई मामले और जहरीले सच हैं, जिनसे वह दूरी बनाये है। न्यूज चैनलों के संपादक, पत्रकार, एंकर बॉलीवुड की हर हस्ती को ऐसे दुत्कारते-फटकारते नज़र आ रहे हैं, जैसे उनकी बिरादरी के लोगों ने नशा करने से तौबा कर रखी है। मनोरंजन प्रेमियों को भले ही चैनलों पर हो रही बेतुकी चर्चाएं-परिचर्चाएं, चीख-चिल्लाहटें अच्छी लग रही हों, लेकिन अधिकांश भारतीय माथा पीट रहे हैं। यह कैसा बेशर्म और गैर जिम्मेदार मीडिया है? उसे कृषि बिल को लेकर सडक पर उतरे किसान और चक्का जाम करते उनके संगठन दिखायी नहीं देते। भारत के अधिकांश न्यूज चैनलों ने महामारी से मरते लोगों की परवाह करनी छोड दी है। महंगाई, बेरोजगारी से त्रस्त, अपने जमे-जमाये कारोबार, धंधों से हाथ धो चुके करोडों लोगों की उसे ज़रा भी चिन्ता नहीं। उसे चिन्ता है तो बस उस लापरवाह अभिनेता सुशांत कुमार की, जो खुद कई नशों का गुलाम था। हद दर्जे का आशिक मिज़ाज था। हर फिल्म के साथ उसकी प्रेमिका बदलती रही। बॉलीवुड की चकाचौंध की आंधी में तिनके की तरह उडता रहा। उसकी कमियां, कमजोरियां और अंधी मायावी लालसाएं उस पर भारी पडीं। अंतत: उसकी मौत भी पहेली बन गई। कई विद्वान किस्म के लोगों का कहना है कि जो इंसान दुनिया को छोड गया हो उसकी बुराई नहीं करनी चाहिए। उनसे हमारा भी यह सवाल कि... भले ही उसके चक्कर में, उसके रंग में रंगे उसके दोस्तों और जान-पहचान वालों को चौराहों पर नंगा करने का अभियान अनवरत चलाया जाता रहे। क्या इनका यही कसूर है कि वे जिन्दा हैं? यानी... जो मर जाए वो देवता और जो बच जाएं वो हत्यारे, अपराधी और शैतान?