Thursday, August 31, 2023

अपनी हत्या

    अपनी जान को हथेली पर लेकर चलने तथा किसी भी मुश्किल से सीना तान कर लड़ने वाले जांबाजों के पंजाब में एक उम्रदराज नेत्रहीन मां के तीनों बेटे कम उम्र में एक-एक कर चल बसे। उनकी मौत किसी बीमारी से नहीं, अत्याधिक शराब पीने से हुई। अपने जिगर के टुकड़ों से जुदा हो जाने पर ममतामयी मां का दर्द इन शब्दों में छलका, ‘‘काश! मेरी आंखों में रोशनी होती। मैं अपने बच्चों को शराब के नशे में गर्क होने से रोकती-टोकती तो वे जरूर बच जाते। उन्हें कोई समझाने वाला नहीं था, इसलिए उन्होंने मौत के नशे की घातक राह चुनकर अपना खात्मा कर लिया।’’ अखबार के किसी कोने में छपी इस खबर को पढ़ने के पश्चात मैं लगातार सोचता रहा कि काश! ऐसा हो पाता। तभी एक विचार यह भी आया कि जो लाखों बच्चे, किशोर तथा युवा शराबी हो गये हैं, क्या उन्हें मां-बाप ने नहीं बताया होगा कि शराब उनकी सेहत के लिए हानिकारक है। इससे बच कर रहो...। सच तो यह है कि कोई भी माता-पिता अपनी संतान को नशे की लत का शिकार होते नहीं देख सकते।

    पंजाब में पिछले कई वर्षों से शराब तथा अन्य नशों ने मौत का तांडव मचा रखा है। औसतन हर दूसरे दिन नशे से एक मौत हो रही है। स्कूल की उम्र के कई बच्चों ने शराब पीनी प्रारंभ कर दी है। भाईयों की देखा-देखी बहनें भी शराब चखने लगी हैं। हैरान परेशान अभिभावकों, परिजनों की नींदें उड़ चुकी हैं। उन्हें बुरे-बुरे सपने सताते हैं। वे सरकार से हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे हैं कि नशों के सहज-सुलभ बाजारों पर पाबंदी लगाकर उनकी औलादों को बचा लो। बार्डर से आ रहे नशों की गांव-शहरों में होम डिलीवरी हो रही है। बड़े तो बड़े, मासूम बच्चे भी तबाह हो रहे हैं। नशा उन्हें कहीं का नहीं रहने दे रहा है। इसकी चपेट में आकर बर्बाद होने वालों की लिस्ट दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। नशा मुक्ति केंद्र नशेड़ियों से भरे पड़े हैं। जिन बच्चों से अथाह उम्मीदें थीं। जिन्हें मां-बाप डॉक्टर, इंजीनियर, लेक्चरर, उद्योगपति, व्यापारी, नेशनल खिलाड़ी आदि बनते देखना चाहते थे, उन्हें नशे ने भटका दिया है। उनके दिल-दिमाग और जिस्म नकारा हो गये हैं। अत्याधिक नशे ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। कई बेटों की अच्छी खासी नौकरी लगी, व्यापार, कारोबार में भी उनकी रूचि जगी, लेकिन नशे के गुलाम होने के कारण शादी होते-होते तक मौत हो गयी। उनसे ब्याही गई लड़कियों को बड़े दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं। जिन्हें अच्छी किस्मत से कोई सहारा मिलता है, तो वह संभल जाती हैं। बाकी को तो जैसे किसी घोर अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ रही है, जो उन्होंने किया ही नहीं। 

    भारत में नशे की महामारी को लेकर अत्यंत चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कराए गए एक सर्वे में पता चला है कि 10 से 75 साल आयु वर्ग की आबादी में नशा करने वालों की संख्या 37 करोड़ के पार चली गई है। यह संख्या दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आबादी अमेरिका से अधिक है। यह हकीकत चौंकाती और दिल दहलाती है कि देश में कई शराब पीने वाले ऐसे हैं, जो इसके बिना नहीं रह सकते। सुबह-शाम उन्हें किसी भी हालत में शराब चाहिए। वैध हो या अवैध उन्हें तो बस पीने से मतलब है। यह सच भी कम हैरान करने वाला नहीं है कि भारत में शराब पीने वालों की संख्या 16 करोड़ है। इतनी ही रूस की आबादी है। आज देश का कोई भी शहर अखंड नशेड़ियों से अछूता नहीं। नागपुर जैसे तीस-पैंतीस लाख की जनसंख्या वाले शहर में धड़ल्ले से हुक्का बार चल रहे है। स्मैक, ब्राउन शुगर और हेरोइन आदि आसानी से उपलब्ध है। इस शहर में जगह-जगह जितने बीयर बार और शराब की दुकाने हैं उतनी और कहीं नहीं हैं। स्कूल कॉलेजों के लड़के-लड़कियां नशों की चकाचौंध में पढ़ना-लिखना भूल रहे हैं। माता-पिता बच्चों की पढ़ाई पर अपनी औकात से ज्यादा खर्च करते हैं और उनकी औलादें नालायक साबित हो रही हैं।

    सरकारों को शराब बेचकर करोड़ों का राजस्व मिलता है, आबकारी विभाग पलता है। पुलिस चांदी काटती है और हलाल होते हैं अभिभावक, जिनके खून-पसीने की कमायी नशे की भेंट चढ़ रही है। कुछ प्रदेशों में कहने को शराब बंदी है, लेकिन कितनी है उसके बारे में अब क्या कहें! शराब के तस्करों की तिजोरियों में वो धन जा रहा है, जिसे सरकार की तिजोरी में जाना चाहिए। बिहार में बड़े तामझाम के साथ शराब बंदी की गई, लेकिन पड़ोसी राज्यों से धड़ल्ले से शराब आती है और नशेड़ियों की प्यास बुझाती है। शराब के तस्कर एक से एक तरीके आजमाते हुए बेखौफ शराब खपाने में लगे हैं। कभी मरीजों के लिए उपयोग में लायी जाने वाली एंबुलेंस में शराब की पेटियां पकड़ी जाती हैं तो कभी सैनिटरी पैड के बीच में लाखों रुपये की शराब की बरामदी की खबरें पढ़ने में आती हैं। नकली शराब पीकर मरने वालों की खबरें विपक्षी दलों के नेताओं को सरकार पर निशाना साधने के अवसर उपलब्ध कराती हैं। बिहार में 2016 में शराबबंदी लागू की गई थी। उसके बाद कितने लोग नकली शराब पीने के बाद चल बसे, हमेशा-हमेशा के लिए अंधे हो गये इसका सटीक आकड़ा सरकार नहीं बताती। शासन तथा प्रशासन अंधा होने की कला में पारंगत हैं। उनके इसी अंधेपन के चलते बिहार में कई बेरोजगार युवक अवैध शराब को यहां से वहां पहुंचाने के काम में लगे हैं। वे जानते हैं कि, यह अपराध है, लेकिन फिर भी किये जा रहे हैं। कर्तव्यपरायण खाकी वर्दी तस्करों के हाथों के खिलौना बने गरीबों को दबोचकर संतुष्ट है। अवैध शराब के कारोबार में लगे बड़े मगरमच्छों तक कानून पहुंच ही नहीं पा रहा है। रिश्वत ने इन्हें इस कदर अंधा होने को विवश कर दिया है कि इन्हें शराब की होम डिलिवरी तक नहीं दिखती। लोग तस्करों की चालाकी पर हैरान हैं। शराब के महंगे ब्रैंड आजकल टेट्रा पैक में बड़ी आसानी से हर शराबी को उपलब्ध हैं। शीशे की बोतलों की तरह इनसे न कोई आवाज होती हैं और न ही टूटने-फूटने का खतरा।

Thursday, August 24, 2023

उधार के अस्त्र-शस्त्र

    अब तो नेता और अभिनेता खुलकर अपने भाषणों में गीत और ग़ज़लों को सजाने लगे हैं। कालजयी कहानीकार, पत्रकार प्रेमचंद ने कहा भी है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। गुलामी के दौर में लोगों में जागरूकता लाने तथा उनमें अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोश की आग जलाने के लिए कवियों तथा शायरों ने अपना भरपूर योगदान दिया। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसे शब्द उनके लिए क्रांति की मशाल थे। प्रेरक साहित्य रचने वालों का इस देश में हमेशा मान-सम्मान होता आया है। उनकी लिखी उम्दा कविताएं और ग़ज़लें आम और खास लोगों के साथ-साथ उच्च शिक्षाविदों के दिलोदिमाग में भी अमिट छाप छोड़ जाती हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तो स्वयं एक महान कवि थे। आज भी उनकी कविताओं के लाखों प्रशंसक हैं। दूर-दूर तक असर छोड़ने वाली शायरी को बार-बार सुनने और गुनगुनाने का मन करता है। कई धुरंधर वक्ता अपने भाषणों में फैज अहमद फैज, राहत इंदौरी, रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, अशोक अंजुम, कुमार विश्वास आदि-आदि की शायरी और कविताओं को बड़े गर्व के साथ पढ़ते और सुनाते हैं, लेकिन उन्हें उनका नाम बताने में झिझक होती है या फिर बताना जरूरी नहीं समझते। वे ये भ्रम भी फैलाते हैं कि इन्हें तो उन्हीं ने ही रचा है। इन भाषणवीरों को पता ही नहीं होता कि कई रातों की जगायी के बाद किसी बेहतरीन कविता और ग़ज़ल का जन्म होता है। लाखों पाठकों की पसंद बनने वाली हर रचना में रचनाकार की अपार मेहनत छुपी होती है। पचासों ग़ज़ले, कविताएं लिखने के बाद भी हर किसी के हिस्से में ख्याति नहीं आती। कुछ ही रचनाएं कालजयी हो पाती हैं। ऐसी कालजयी रचनाओं को अपना अस्त्र-शस्त्र बनाने वाले ताली वीरों को इस हकीकत का आभास दिलाना भी नितांत आवश्यक है। 

पिछले कई वर्षों से हिंदी के ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की ग़ज़ले विभिन्न दिग्गजों के भाषणों की रौनक बढ़ाने का माध्यम बनी हुई हैं। कई राजनेताओं का भी शेरो-शायरी और कविताओं की चुनींदा लाइनों से लगाव अक्सर परिलक्षित होता रहता है। जब उन्हें किसी पर निशाना साधना होता है, अन्यथा सारांश में बड़ी बात कहनी होती है, तब वे किसी शायर, ़ग़जलकार की प्रभावी पंक्तियों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ यह संदेश भी दे देते हैं कि वे भी प्रेरक साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालना नहीं भूलते। देश के प्रधानमंत्री तक श्रोताओं को प्रभावित करने के लिए कविताओं तथा ़ग़जलों की चंद लाइनों का सहारा लेना नहीं भूलते। उनके साहित्य प्रेम पर शंका की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने अपना काफी समय पर्यटन और अध्ययन में व्यतीत किया है। बीते वर्ष जब वे विरोधी सांसदों से मुखातिब थे, तब उन्होंने काका हाथरसी की कविता के इन चंद शब्दों का जो नुकीला तीर छोड़ा था, उससे उन्हें खूब तालियां मिली थीं-

‘‘आगा पीछा देखकर क्यों होते गमगीन

जैसी जिसकी भावना वैसे दिखे सीन।’’

काका हाथरसी शुद्ध हास्य कवि थे। उनके हास्य में व्यंग्य भी रचा-बसा रहता है। मोदी जी को अपने विरोधियों पर व्यंग्यबाण चलाने के लिए उपयुक्त शब्दावली भायी तो उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय देने में देरी नहीं की। 

देश के आम आदमी के दिल-दिमाग तक अपना असर छोड़ने वाली ग़ज़लों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले दुष्यंत कुमार की विभिन्न ग़ज़लों के अंशों को नेताओं के साथ-साथ बुद्धिजीवियों ने भी खूब भुनाया और वाहवाही लूटी है। उनकी लिखी यह पंक्तियां तो कभी ओझल और पुरानी नहीं हुईं-

‘‘मेरे सीने में नहीं तो

तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग... लेकिन

आग जलनी चाहिए।’’

दुष्यंत कुमार ने जिस बेचैन कर देने वाली दूषित व्यवस्था के खिलाफ लिखा, जिन नेताओं और सत्ताधीशों को जीभरकर कोसा, वे भी उनकी ग़ज़लों को अपना हथियार बनाने से नहीं सकुचाते। दुष्यंत कुमार अपनी तीखी तेज-तर्रार ग़ज़लों के जरिए गरीबों, शोषितों, बदहालों और बेबसों को जगाना चाहते थे और शोषकों को इंसानियत की राह पर चलते देखना चाहते थे। आम आदमी के साथ होते घोर अन्याय और उसके निरंतर पिसने और मिटने को लेकर दुष्यंत कितने आहत थे इसका पता उनकी यह पंक्तियां बताती हैं-

‘‘हो गई है पीर पर्वत सी

पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा

निकलनी चाहिए।’’

इसके साथ ही यह पंक्तियां भी काफी असरदार हैं। इनका उपयोग भी नेताओं तथा अभिनेताओं को धड़ल्ले से करते देखा जाता है। सदाचारियों के साथ-साथ दूसरों का हक मारने वाले भ्रष्टाचारी भी इन लाइनों की बदौलत तालियों का आकर्षक उपहार पाते चले आ रहे हैं-

‘‘कौन कहता है, आसमान में

सुराख नहीं हो सकता, 

एक पत्थर तो तबीयत से 

उछालो यारो...।’’

जिस तरह से प्रेमचंद पूंजीवाद, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ सशक्त लेखन करते हुए लोगों को जागृत करने की कोशिशें करते रहे, उसी तरह से दुष्यंत कुमार भी जीवनपर्यंत अपने मोर्चे पर डटे रहे। प्रेमचंद का जब निधन हुआ तब वे 56 वर्ष के थे। दुष्यंत तो मात्र 42 वर्ष की उम्र में ही चल बसे, लेकिन दोनों ने ऐसा साहित्य रचा, जिससे उनका नाम अमर हो गया। यह भी सच है कि दोनों ही जिन बुरे लोगों तथा बुराइयों के खिलाफ लड़ते रहे उनका आज तलक अंत नहीं हो पाया है। प्रेमचंद का लेखन आजादी से पूर्व काल का था तो दुष्यंत का देश की स्वतंत्रता के बाद का। यह कहना गलत नहीं है कि दुष्यंत की मशाल-सी ग़ज़लों को प्रचारित प्रसारित करने में उन चेहरों की भी बहुत बड़ी भूमिका है, जो मुखौटे लगाने में अव्वल रहे हैं। जिन नेताओं, राजनेताओं, मंत्रियों, संत्रियों ने देश को लूटा और निचोड़ा वे भी बड़ी होशियारी के साथ दुष्यंत की इन पंक्तियों को गाते, दोहराते नज़र आते हैं- 

‘‘यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा होगा।’’

यह तस्वीरें ‘मेहनत करे मुर्गी, अंडा खाये फकीर’ की कहावत को भी चरितार्थ करती हैं। जब किसी भ्रष्ट बिकाऊ पत्रकार, संपादक और नेता को रामधारी सिंह दिनकर की कविता की इन पंक्तियों को अपने भाषण में रचा-बसा कर तालियां बटोरते देखा जाता है, तब भी बहुत अचंभा होता है- 

‘‘जला अस्थियां बारी-बारी

चिटकाई जिनमें चिंगारी

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर 

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल।’’

Thursday, August 17, 2023

पाठशाला

    हमारी इसी दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। कुदरत का नियम है जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे। कांटे बोने पर फूल कभी नहीं मिलते। इसी तरह से जीवन को जीने के भी नियम-कायदे हैं। तौर-तरीके हैं। कुछ लोग जीवन को खेल समझते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि हर खेल के भी कुछ उसूल होते हैं। अनुशासन होता है। लापरवाही से खेलने वालों को मैदान से बाहर होने में देरी नहीं लगती। सावधानी और दूरदर्शिता की डोर से बंधे खिलाड़ी खुद तो विजयी होते ही हैं दूसरों को भी प्रेरणा देते हैं। नागपुर की निवासी पद्मादेवी सुराना ने कुछ ही दिन पूर्व अपना 103वां जन्मदिन मनाया। आज के दौर में जब कई लोग जीना ही भूल चुके हैं, कई तरह की बीमारियां और चुनौतियां उन्हें डराती रहती हैं, तब इतनी उम्रदराज महिला का यह कहना है कि, ‘अभी तो मेरी और जीने की तमन्ना है। उम्र तो महज एक नंबर है।’ आश्चर्यचकित करने के साथ-साथ उनके प्रति मान-सम्मान की भावना को जगाता है। 4 अगस्त 1920 में जन्मी पद्मादेवी सुराना बचपन से ही अपने रहन-सहन, खान-पान को लेकर अनुशासित रही हैं। छठी कक्षा तक पढ़ीं पद्मा हिंदी और मराठी के साथ अंग्रेजी में भी दक्ष हैं। 103 वर्ष की होने के बावजूद युवाओं की तरह साफ शब्दों में बातचीत करती हैं। वे बच्चों को हमेशा प्रेरित करती रहती हैं कि पहले पढ़ाई करो, फिर मेहनत और ईमानदारी से पैसा कमाओ। जिन्दगी को पूरे मन और ठाठ-बाट के साथ जीने वाले ऐसे सभी योद्धा किसी पाठशाला से कम नहीं। इस पाठशाला के गुरू को कोई दक्षिणा नहीं देनी पड़ती। जितना चाहो, उतना ले लो। ऐसे जीवंत प्रेरणा स्त्रोतों के होने के बावजूद भी कुछ लोग जीवन का मोल नहीं समझ पाते। दुनियादारी की मुश्किलें उनके होश उड़ा देती हैं और वे खुद के लिए बाधा बन जाते हैं। अभी हाल ही में देवदास, जोधा अकबर, लगान जैसी पचासों फिल्मों के लिए बड़े-बड़े सेट डिजाइन करने तथा कई फिल्मों में सशक्त अभिनय करने वाले विख्यात कलाकार नितिन देसाई ने खुदकुशी कर अपने असंख्य चाहने वालो को चौंका और रूला दिया। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें अंतिम विदायी देने, श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एकत्रित हुए विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों को देखकर उनकी लोकप्रियता का पता चल रहा था। परिचितों के साथ-साथ बेगानों को भी गमगीन करने वाली इस खुदकुशी ने फिर कई सवाल खड़े कर दिये, वहीं परिवारजनों को तो जीते जी ही मार डाला। सभी उनसे बेहद प्यार करते थे। बच्चों को अपने पिता पर नाज़ था। उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि बेतहाशा कर्ज उनको मरने पर विवश कर देगा। बड़ी मेहनत से खड़े किये स्टुडियो के छिन जाने का भय उनकी जान ले लेगा। वे तो अपने जन्मदाता को लड़ाकू समझते थे, जिसने कई चुनौतियों का डट कर सामना किया था। उनका देश और दुनिया में नाम था। भारत सरकार भी उन्हें पुरस्कृत कर चुकी थी। महाराष्ट्र सरकार ने भी उनकी कला की प्रशंसा करते हुए कई बार सम्मानित किया था। मायानगरी के सभी फिल्म निर्माता, अभिनेता, अभिनेत्रियां उनके कद्रदान थे। ऐसी नामी-गिरामी शख्सियत की खुदकुशी पर उनकी पुत्री को मीडिया से हाथ जोड़कर अनुरोध करना पड़ा कि कृपया मेरे पिताजी की मौत का तमाशा ना बनाएं। 

    सच तो यह है कि इस देश में और भी कई व्यापारी, उद्योगपति, बड़े-बड़े कारोबारी हैं, जिनपर अरबों-खरबों का कर्ज है, लेकिन उन्होंने तो ऐसी कायराना राह पकड़कर अपना तमाशा नहीं बनाया। उनके जीवन का बस यही मूलमंत्र हैं, ‘जान है तो जहान है’। जब तक जिन्दा हैं तब तक हार नहीं मानेंगे। एक बार गिर गये तो क्या हुआ। फिर उठ खड़े होंगे। बैंकों तथा साहूकारों का कर्जा भी उतर जाएगा। संपत्तियां भी फिर से खड़ी हो जाएंगी। अपने अथाह परिश्रम और सूझबूझ की बदौलत उद्योगजगत में अचंभित करने वाली बुलंदियां हासिल करने वाले धीरूभाई अंबानी के दिवंगत होने के बाद उनके दोनों पुत्रों में अनबन के चलते बंटवारा हो गया था। बड़े भाई मुकेश और छोटे भाई अनिल के हिस्से में लगभग बराबर धन-दौलत, व्यापार और संपत्ति आयी, लेकिन कालांतर में मुकेश सफलता की अनंत ऊंचाइयों तक जा पहुंचे और अनिल अपने गलत निर्णयों के कारण लगातार घाटे के गर्त में समाते गये। बैंकों ने उनकी कई बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां जब्त कर लीं। बदनामी भी कम नहीं हुई, लेकिन अनिल फिर भी अपना सफर इस उम्मीद के साथ जारी रखे हुए हैं कि आज नहीं तो कल बुरा वक्त जरूर बीतेगा। अच्छे हालातों की खुशियों तथा बुरे हालातों के गमों को सहना ही पड़ता है। यही जीवन की जगजाहिर रीत है।

    फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, जिन्हें आज सदी का महानायक कहा जाता है, उनके करोड़ों प्रशंसक हैं। अस्सी वर्ष से ऊपर के होने के बावजूद मेहनत तथा भागदौड़ करने में युवाओं को मात दे रहे हैं। देश की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने उत्पादों के प्रचार के लिए उन्हीं की शरण में जाती हैं। इन्हीं अमिताभ पर कभी विपत्तियों का पहाड़ टूटा था। वर्षों तक फिल्मों में अभिनय कर कमाया धन उनकी ही बनायी एबीसीएल कंपनी ने छीनकर उन्हें कंगाल बना दिया था। आर्थिक हालात इतने बदतर हो गये थे कि उन्हें कोई राह नहीं सूझ रही थी। जो फिल्म निर्माता कभी उन्हें अपनी फिल्मों में लेने के लिए तरसते थे, वही उन्हें अब दुत्कारने लगे थे। ऐसे भयावह, चिन्ताजनक दौर में अमिताभ को बस अच्छे वक्त का इंतजार था। उन्होंने हार मानने की बजाय चुनौतियों का मुकाबला करते हुए नई राह चुनी। उनके शुभचिंतकों ने उन्हें बार-बार समझाया कि टेलीविजन उनके लिए नहीं है। वे तो बड़े पर्दे के लिए जन्मे हैं, लेकिन अमिताभ ने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से नई धमाकेदार शुरुआत कर जो इतिहास रचा वो हम सबके सामने है। यदि अमिताभ थक-हार कर के बैठे रहते या कोई गलत कदम उठा लेते तो क्या उन्हें यह सुखद दिन देखने को मिलते? उन्हें अकल्पनीय सफलता का स्वाद चखने को मिलता? अपनी दूसरी सफलतम पारी में अमिताभ को जब अभूतपूर्व ऊंचाइयां मिलीं तभी उन्हें सदी के महानायक का ‘तमगा’ मिला। उससे पहले तो लोगों ने उन्हें भूला ही दिया था। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम उन्हीं की वाकपटुता की बदौलत पिछले 23 वर्षों से दर्शकों की पहली पसंद बना हुआ है।

Thursday, August 10, 2023

धर्म

चित्र 1 - मेरे मन में अधिकांश माता-पिता को लेकर अक्सर विचार आता है कि विधाता ने उन्हें जिस मिट्टी से बनाया है वो यकीनन आखिर तक अपनी मजबूती नहीं खोती। चट्टानों की तरह मजबूत बन अपनी औलादों के लिए मर मिटने को तत्पर रहती है, लेकिन वहीं अनेकों संतानें सब कुछ पा लेने के बाद अहसान फरामोश क्यों हो जाती हैं? उनका खून पानी क्यों हो जाता है? अपनों के पराये होने के कटु सच से मैं जब-जब रूबरू होता हूं तो यह भी सोचता हूं अपने बच्चों के घातक रंग-ढंग को देखने के बाद भी मां-बाप के होश ठिकाने क्यों नहीं आते? वो उन्हीं राहों पर क्यों चलते रहना चाहते हैं, जिन पर अपनों ने ही कांटे बिछाये। यवतमाल में लावारिस हालत में मिले एक 72 वर्षीय शख्स को नागपुर के मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए लाया गया। जांच में पता चला कि उसे अंतिम चरण का मुख कैंसर है। उसका अब बचना मुमकिन नहीं। सामाजिक कार्यकर्ता इंद्राणी पवार ने उन्हें मेडिकल कॉलेज के निकट स्थित विख्यात सेवाभावी संस्था, ‘स्नेहांचल’ पहुंचा दिया। शहर के परोपकारी जनसेवियों के द्वारा चलाये जा रहे स्नेहांचल में उन मरीजों की देखरेख और सेवा की जाती है, जिनका बचना लगभग मुश्किल होता है। यहां पर वो बेसहारा भी आश्रय पाते हैं, जिनके अपने उन्हें मरने के लिए छोड़ देते हैं। यवतमाल में भिखारी की हालत में मिले कैंसर पीड़ित बुजुर्ग के तीन बेटे और दो बेटियां हैं। पत्नी भी जीवित है। चल फिर सकती है। मरने से पहले उसने अपने सभी से मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। परिवार के सभी सदस्यों को खबर भेजी गई। एक बार आकर मिल लो। किसी का भी दिल नहीं पसीजा। यहां तक कि उनकी मृत देह लेने से भी मना कर दिया गया। अंतत: समाजसेवकों ने ही उनका विधिवत दाह संस्कार कर मानवता का धर्म निभाया। 

चित्र 2 - शहर में कई ऐसे कपूत हैं, जो अपने वृद्ध मां-बाप का तिरस्कार कर अपनी ही मौजमस्ती की दुनिया में खोये हैं। जिन माता-पिता ने खून-पसीना बहाकर उनका पालन-पोषण किया, पढ़ाया-लिखाया और कमाने लायक बनाया, उन्हीं को पेट भर खाने के लिए तरसा रहे हैं। उन्हें धक्के मारकर उन्हीं के घर से बाहर खदेड़ रहे हैं। जब तक वे कमा कर खिला रहे थे तब तक अच्छे थे। अब फालतू का सामान लगने लगे हैं। तेजी से विकास पथ पर दौड़ते शहर में वरिष्ठ नागरिकों की ऐसी अनेक शिकायतों का अंबार लगा है। बहू-बेटों, बेटियों के साथ-साथ नाती-पोतों के द्वारा उनके जीवन को नर्क बनाये जाने की खबरों से अखबार भरे नजर आते हैं। अपने उम्रदराज जन्मदाताओं को दाने-दाने के लिए तरसाने वाली शैतान औलादें उन्हें मारने-पीटने से भी नहीं सकुचा रही हैं। जिन बुजुर्गों के पास अपनी जमा पूंजी है, सरकारी पेंशन मिल रही है उनके हालात तो कुछ ठीक-ठाक हैं, लेकिन जिन्होंने इनकी परवरिश में सब कुछ लुटा दिया, उन्हें भिखारी बनाकर रख दिया गया है। जगमगाते शहर में ऐसे कई विजयपत सिंघानिया हैं, जिन्होंने पुत्रमोह के वशीभूत होकर अपने जीते जी अपना तमाम कारोबार और जमीन जायदाद पुत्रों के नाम कर दी और अब लोगों को अपनी व्यथा-कथा सुनाते भटक रहे हैं। वरिष्ठ नागरिकों की शिकायतों और समस्याओं के निवारण के लिए केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्रालय के द्वारा प्रारंभ की गई हेल्पलाइन में पिछले कुछ महीनों से घर, परिवार में अपनों के द्वारा तरह-तरह से प्रताड़ित किये जाने वाले बुजुर्गों की तादाद में जबरदस्त इजाफा देखा जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में शहर में माता-पिता, दादा, दादी आदि पर बेतहाशा जुल्म ढाने के मामले सतत सामने आ रहे हैं। यह भी सच है बुढ़ापे के हाथों मिली लाचारी के चलते सभी हेल्पलाइन पर अपना दुखड़ा सुनाने नहीं आ पाते। लोग क्या कहेंगे यह चिंता भी उनके कदम रोक देती है। उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी मंजूर हैं, लेकिन अपनी नालायक औलादों को बेनकाब करना मंजूर नहीं।

चित्र 3 - सरकारी नौकरी से रिटायर हुए अशोक वर्मा और उनकी पत्नी को तब बहुत तीखा झटका लगा जब उनके दोनों बेटों ने फोन उठाना ही बंद कर दिया। इस स्वस्थ बुजुर्ग दंपत्ति को मोटी पेंशन मिलती है। दोनों ने अपने बेटों की अच्छी तरह से परवरिश करने में कोई कमी नहीं की थी। उन्हें उच्च शिक्षा दिलवाने के लिए नामी-गिरामी कॉलेजों को चुना। लाखों रुपये का डोनेशन देने में पीछे नहीं रहे। बड़ा बेटा अमेरिका में डॉक्टर है। छोटा सिंगापुर में चार्टर्ड एकाउंटेंट है। दोनों की शादी में भी उन्होंने शाही खर्चा किया। अपने पैरों पर खड़े होने के कुछ वर्षों बाद ही बेटों ने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया। पहले तो इस दंपत्ति का इस ओर ध्यान नहीं गया, लेकिन जब बेटों-बहुओं ने अपमानजनक तरीके से उन्हें नजरअंदाज करना प्रारंभ कर दिया तो उनको सच का अहसास हो गया। श्रीमती वर्मा के लिए तो बच्चों का अभद्र व्यवहार असहनीय होता चला गया। वर्मा जी उन्हें समझाते हुए कहते, उनकी अपनी दुनिया है। उन्हें उससे जब फुर्सत नहीं तो तुम क्यों दुखी होती हो। वर्मा जी के छोटे भाई की पत्नी के देहावसान की खबर भिजवाये जाने के बावजूद बहू-बेटे नहीं आए तो वर्मा जी ने अपना मन पक्का कर लिया। ऐसी निर्मोही लापरवाह औलाद की ऐसी की तैसी। जब उन्हें हमारी फिक्र नहीं तो हम क्यों उन्हें याद करें। दोनों  अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और परिचितों में मस्त रहने लगे। 

अभी हाल ही में वर्मा परिवार के पड़ोस में रहने वाले एक सत्तर वर्षीय वृद्ध पिता पर उनके बेटे-बहू ने हाथ उठा दिया, तो वर्मा जी तुरंत पड़ोसी के घर जा पहुंचे और पिता पर हाथ उठाने वाले शैतान बेटे की वो धुनाई की, कि भीड़ जमा हो गयी। पड़ोसियों ने वर्मा जी को यदि रोका नहीं होता तो वे उसको अधमरा करके ही दम लेते। वर्मा जी की पत्नी ने इससे पहले कभी उन्हें इतने गुस्से में नहीं देखा था। पड़ोसियों के लिए भी स्तब्ध कर देने वाली घटना थी। श्रीमती के बहुत कुरेदने पर वर्मा जी ने अपने दिल की बात इन शब्दों में कही, ‘‘मैं इन अहसान फरामोश बेटे-बहू को बहुत दिनों से अपने माता-पिता को प्रताड़ित करते देखता चला आ रहा था। पहले भी यह दोनों बाप की पिटायी कर चुके हैं, जिसने बेटे के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इस नालायक ने अपने नेक पिता पर हाथ उठाने से पहले उनके त्याग के बारे में जरा भी नहीं सोचा। इसकी बीवी भी कितनी टुच्ची है जो पति को रोकने-समझाने की बजाय दरिंदगी पर उतर आयी। यह दोनों तो अपने बुजुर्ग माता-पिता को धक्के मारकर घर से बाहर कर देना चाहते हैं, लेकिन मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूंगा। यह आजकल की बदतमीज नालायक औलादें कितनी खुदगर्ज हो गई हैं! जिन्होंने कभी उंगली पकड़कर चलना सिखाया उन्हीं को अपाहिज बनाने पर आमादा हैं। इन दुष्टों को यह भी याद नहीं कि जिन मां-बाप को आज रोने-बिलखने के लिए विवश कर रहे हो उन्हीं ने तुम्हें अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाया। आज जब वे उम्र की उस दहलीज पर हैं, जहां उन्हें तुम्हारे साथ और सहारे की जरूरत है, तब उन्हें अन्न के एक-एक दाने के लिए तरसा रहे हो। उन्हीं के बनाये घर को छीन कर उन्हें बेघर करने का अक्षम्य पाप करने की दुष्टता पर उतर आये हो? यह दरिंदगी मुझसे तो नहीं देखी जाती। मैंने निश्चय कर लिया है कि किसी भी असहाय माता-पिता के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा। अपने आसपास किसी भी नमकहराम को अपने जन्मदाता पर जुल्म ढाते देखूंगा तो शांत नहीं बैठूंगा। पहले प्यार से... फिर दूसरे तरीके से उसके होश ठिकाने लगाकर ही दम लूंगा। जब तक मेरे हाथ पैर में दम रहेगा तब तक अपने इंसान होने के धर्म को निभाने में पीछे नहीं रहूंगा।

Thursday, August 3, 2023

तमाशा...!

    यह खबरें अब गुस्सा दिलाने लगी हैं। जहां आदतन दुराचारियों पर क्रोध आता है, वहीं इनका शिकार होने वाली महिलाओं से भी अब पहले-सी सहानुभूति नहीं होती। जैसे अस्मत के लुटेरे कसूरवार हैं, वैसे ही यह भी दोषी हैं। नागपुर में एक युवक से शारीरिक संबंध की वजह से सोलह वर्षीय छात्रा गर्भवती हो गई। दोनों की पहले से जान-पहचान थी। युवक ने उसे शहर से दूर कहीं घुमाने का प्रलोभन दिया तो छात्रा फौरन तैयार हो गई। घूमते-घुमाते शारीरिक संबंध बन गए। फिर सिलसिला चल पड़ा। कुछ हफ्तों के बाद अचानक छात्रा के पेट में दर्द हुआ तो मां ने डॉक्टर के पास ले जाकर जांच करवायी तो बेटी के गर्भवती होने का पता चला। छात्रा ने खुद को भोली-भाली प्रदर्शित करते हुए कहा कि उसने शादी का वादा किया था। उसे ज़रा भी अंदेशा नहीं था कि उसकी नीयत में खोट है। 

    महाराष्ट्र के ही सुसंस्कृत कहे जाने वाले शहर पुणे में कर्जदार की पत्नी बलात्कार की शिकार हो गई। पीड़ित महिला के पति ने साहूकार से कर्ज ले रखा था। जब कर्ज का निर्धारित समय पर भुगतान नहीं हुआ तो साहूकार ने पहले तो उसके पति को धमकाया और फिर बाद में पति की ही मौजूदगी में बलात्कार कर अपना सीना चौड़ा करने के साथ-साथ बलात्कार के अश्लील दृष्यों को अपने मोबाइल में भी कैद कर लिया। दरिंदे, बेखौफ बलात्कारी ने बाद में वीडियो को सोशल मीडिया पर पोस्ट कर कानून को भी चुनौती दे दी कि, जो करना है, कर लो। मैंने तो अपनी मनमानी कर ली। कर्जदाता को सबक सिखा दिया और अपनी हवस की आग भी बुझा ली। इसी तरह से नागपुर के निकट स्थित एक ग्राम में एक चचेरे भाई ने अपनी बहन को गर्भवती बना कर रिश्तेदारी का कर्ज वसूल लिया। मां को जब अपनी नाबालिग बेटी के गर्भधारण करने का पता चला तो उसके पैरोंतले जमीन ही खिसक गई। ऐसी कितनी खबरें हैं, जो इंसान के हैवान बनने का जीवंत दस्तावेज हैं। यह शर्मनाक हकीकत तो किसी से छिपी नहीं कि अपनी मनमानी करने वाले बेरहम पुरुष महिलाओं के मुख से हमेशा हां ही सुनना चाहते हैं। ना सुनना उन्हें कतई गवारा नहीं। काम वासना के दलदल में डूबे पुरुषों के आतंक, अहंकार, व्याभिचार का सबसे आसान शिकार बन रही हैं नारियां। इनमें भोली-भाली नाबालिग लड़कियों का भी समावेश है। राजधानी दिल्ली में अभी हाल ही में पॉश इलाके मालवीय नगर में पच्चीस वर्षीय कॉलेज की एक छात्रा का दिनदहाड़े कत्ल कर दिया गया। कातिल ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि वह उस युवती को दिलोजान से चाहता था। उसने उससे शादी करने का भी मन बना लिया था, लेकिन उसके परिवार ने मना कर दिया। इसके बाद युवती भी उससे मिलने से कतराने लगी थी। युवती के इनकार ने उसे बहुत चोट पहुंचायी। उसकी रातों की नींद उड़ गयी। इसी गुस्से और निराशा में उसने लोहे की रॉड से उसकी हत्या कर दी। ऐसी हत्याओं के बारे में पढ़ने और सुनने के बाद अधिकांश लोगों ने भले ही अपनी प्रतिक्रिया देनी बंद कर दी है, लेकिन बदमाशों से परेशान औरतों के सब्र का बांध टूटने लगा है। उनका कानून पर भी भरोसा नहीं रहा। अब महिलाएं अपराधी को सबक सिखाने के लिए अपने तरीके अपनाने लगी हैं। कुछ वर्ष पूर्व नागपुर में पचासों महिलाओं ने मिलकर अक्कु नामक गुंडे की भरी अदालत में हत्या कर दी थी और कानून अवाक देखता रह गया था। उसके बाद भी संतरानगरी की हैरान-परेशान महिलाओं ने एकजुट होकर कुछ बदमाशों को अपने-अपने अंदाज में टपका कर दूसरे हवस के भूखों की नींद उड़ायी और उन्हें चेताया कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ...। अभी हाल ही में नागपुर के निकट स्थित बेला थाने के चिखलापार में सुनील नामक गुंडे को महिलाओं ने मार गिराया। आती-जाती महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें करने वाला यह नशेड़ी बदमाश अक्कु की तरह किसी के भी घर में घुस जाता था और परिवार की लड़कियों तथा महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने पर उतर आता था। विरोध करने पर घर में रखे सामान की तोड़-फोड़ कर दहशत फैलाने लगता था। उसके खिलाफ की जाने वाली शिकायतों पर खाकी वर्दी वाले भी ज्यादा ध्यान नहीं देते थे। बेखौफ हाथ में चाकू लेकर घूमने वाले सुनील से मुक्ति पाने के लिए महिलाओं ने अंतत: वही रास्ता चुना, जो अक्कु ‘कांड’ के लिए आजमाया था। बेकाबू गुंडे की हत्या कर महिलाओं ने गलत किया या सही यह आप तय करें। मैं यह लिखकर छुटकारा नहीं पाना चाहता कि किसी की हत्या करना अक्षम्य अपराध है। उन गुनहगारों और गुनाहों का क्या जो कड़े कानूनों को अपनी जूती से रौंदते चले आ रहे हैं, जिनकी वजह से देश की मासूम बच्चियां तक बलात्कारों से लहुलूहान हो रही हैं। एक सवाल और भी कि हमारी और आपकी चुप्पी कहीं न कहीं दुराचारियों और भावी बलात्कारियों का मनोबल तो नहीं बढ़ा रही? इंटरनेट के इस जमाने में तो हम कितने बेरहम हो गये हैं, उसकी साक्षी है कल के अखबार में छपी यह खबर : ‘दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा में एक महिला अपने फ्लैट की बालकनी पर खड़ी थी इसी दौरान वो बिजली के हाईटेंशन तार की चपेट में आ गई। करंट लगते ही महिला के शरीर में आग लग गई। महिला जलती रही, लेकिन लोग उसे बचाने की बजाय बस धड़ाधड़ वीडियो बनाते रहे।’ जहां जीते-जागते इंसानों की दिल दहलाने वाली मौत महज तमाशा हो वहां औरतों की जबरन करायी गई नग्न परेड उनके लिए मनोरंजन के दिलकश नज़ारे के अलावा और कुछ नहीं...।