Thursday, June 25, 2020

खुद के कातिल

कुछ वर्ष पूर्व जब आध्यात्मिक गुरु, राष्ट्र संत भैय्यू महाराज ने इंदौर स्थित अपने घर में खुद को गोली मारकर हमेशा-हमेशा के लिए मौत के मुंह में सुला दिया था, तब किसी ने ब‹डी सरल भाषा में यह पंक्तियां लिखी थीं,
"दिखायी नहीं देता, शामिल जरूर होता है
हर खुदकुशी करने वाले का, कोई न कोई कातिल जरूर होता है...।"

देश के हजारों लोगों की तरह मुझे भी भैय्यू महाराज की उस आत्महत्या की खबर ने स्तब्ध और विचलित किया था, जो देश का खासा जाना-पहचाना चेहरा थे। अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान जानने के इच्छुक आमजन उनके दरबार में पूरे यकीन के साथ पहुंचा करते थे। वे किसी का चेहरा देखकर उसका हाल जानने का दावा करते थे। उनके भक्तों, प्रशंसकों को भरपूर यकीन रहता था कि उनके 'गुरु' अपार शक्तियों के स्वामी हैं, दूरदर्शी हैं। वे उनकी पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं का हल निकालने में पूरी तरह से सक्षम हैं। बस उनके चरणों में जाने भर की देरी है कि हर कष्ट का नाश होना तय है...। हमेशा मुस्कराते रहने वाले भैय्यू महाराज का असली नाम उदय qसह देखमुख था। पांच फीट ११ इंच के ऊंचे पूरे इस आध्यात्मिक गुरु के पास करोडों की दौलत थी। देश के नामी उद्योगपतियों, मंत्रियों, नौकरशाहों, समाजसेवकों के बीच उठना-बैठना था। सभी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जब-तब उनके पास दौडे चले आते थे। उपेक्षितों, कमजोरों, गरीबों के जीवन में बदलाव लाने के लिए मॉडलिंग जैसी चकाचौंध की दुनिया को त्यागने वाले भैय्यू महाराज के प्रति लाखों लोगों का सम्मान तब और बढ गया था, जब उन्होंने जाना कि इस आधुनिक संत ने महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के पंढरपुर में रहने वाली सेक्स वर्करों के ५१ बच्चों को पिता के रूप में अपना नाम दिया है। हर किसी के दुख-दर्द को समझने और उनका निवारण करने के लिए जाने जानेवाले भैय्यू महाराज की आत्महत्या की जो वजहें गिनायी गयीं, वे बडी आम थीं। उन्हें भी वही बीमारी लग गई थी, जिसने कई साधु-संतों को कहीं का नहीं रखा। कुछ को तो जेल की हवा भी खानी पडी। वर्षों की कमायी इज्जत मिट्टी में मिलकर रह गई। जो महापुरुष लोगों को खुशहाल रहने के प्रवचन देता था। घर-परिवारों को एक सूत्र में बंधे रहने के उपाय सुझाना था। दुराचार और वासना के अंधड को मनुष्य का सबसे बडा शत्रु बतलाना था वही इसके समक्ष नतमस्तक था। एकदम लाचार था! उसकी आत्महत्या ने बंद किताब के सभी पन्ने खोल दिये।
'एम एस धोनी - द अनटोल्ड स्टोरी' फिल्म से अपनी पहचान बनाने वाले फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या ने तो जैसे पूरे देश को हिलाकर रख दिया। उनकी मौत के गम में उनके दो प्रशंसकों ने तो अपनी जान भी दे दी। अपने फिल्मी किरदारों की बदौलत दर्शकों के दिलों में बसे सुशांत की आत्महत्या के लिए कुछ फिल्मी चेहरों को दोषी ठहराया जा रहा है। बिहार के लोग तो खासे गुस्से में हैं। इसमें दो मत नहीं कि सुशांत का भविष्य उज्जवल था। उन्हें बहुत दूर तक जाना था। उनके इरादे भी बुलंद थे। फिल्मों में अभिनय करने के साथ और भी बहुत कुछ करने की उनकी तमन्ना थी। पहले भी कई चमकते सितारों ने अचानक मौत को गले लगाकर इस दुनिया से विदायी ली, लेकिन सुशांत का जाना बडा सवाल बन गया। भैय्यू महाराज जहां संत और समाज सुधारक थे तो वहीं सुशांत एक जीवंत कलाकार थे। दोनों का भावुकता और संवेदनशीलता से भी गहरा नाता था। भैय्यू महाराज उस मौलिक सोच के धनी थे, जिसने कई लोगों पर गहरी छाप डाली थी। अभिनेता सुशांत ने अपनी फिल्मों में वही किया जो कहानी और किरदार के लिए जरूरी था। उन्हें दूसरों के लिखे डायलॉग बोलने पर तारीफें और तालियां मिलती रहीं। पर्दे के नायक को अपना असली हीरो मानने वाले लाखों प्रशंसकों को उनकी आत्महत्या ने रूला दिया। गौर से अगर देखा और समझा जाए तो भैय्यू महाराज और सुशांत की आत्महत्या में गजब की समानता दिखायी देती है। दोनों ने 'मंच' पर विचार और शाब्दिक कलाकारी के दम पर उन ऊंचाइयों को छुआ, जिसकी शायद उन्हें भी उम्मीद नहीं थी। दोनों का ही अभिनय तथा प्रेरित करने का अंदाज जबरदस्त था। इस खेल में अभिनेता सुशांत आध्यात्मिक गुरु भैय्यू महाराज पर भारी पडे। संत की मौत पर मातम मनाने वालो की संख्या जहां हजारों में थी, वहीं अभिनेता के चाहने और सहानुभूति रखने वालों की गिनती करना भी मुश्किल हो गया। इतिहास गवाह है कि आमजन कभी भी अपने नायक, प्रेरणास्त्रोत के टूटने-बिखरने-डगमगाने तथा हारने की कल्पना नहीं करते। उन्हें हमेशा यही लगता है कि उनके आदर्श आत्मबल के धनी हैं। वे ऐसे शक्तिमान हैं, जिन्हें हराना असंभव है।
जिन पर इतनी अटूट आस्था हो, दृढ विश्वास हो, उनकी खुदकुशी की खबर सुनकर उनके प्रशंसकों को ही नहीं, हर किसी को आघात तो लगता ही है। सच तो यह है कि दोनों कलाकारों ने अपने प्रशंसकों, भक्तों के उस भरोसे का कत्ल किया है, जिसे उन्होंने अपने-अपने तरीके से हासिल किया था। फिल्मी और धर्म-कर्म की दुनिया के धुरंधर अपनी असल जिन्दगी के सच का सामना ही नहीं कर पाये। इनसे तो वो कई आम लोग अच्छे हैं, जो तरह-तरह के संकटों, तनावों, साजिशों, अवसादों, बीमारियों, अवरोधों का सामना करते हुए भी जूझते और लडते रहते हैं। कभी हार नहीं मानते। यह नामी-गिरामी खुद के हत्यारे तो यह संदेश भी छोड जाते हैं कि जब तक परिस्थितियां आपके अनुकूल रहें तब तक छाती ताने रहो और हालात बिगडने पर खुद को गोली मारो या फांसी के फंदे पर झूल जाओ। इस अंदाज से खुद ही अपने कातिल बन जाओ कि जमाना मातम मनाता रहे। जिस-तिस पर उंगलियां उठती रहें। उनके जाने के बाद लोग उन्हें बुजदिल और कायर कहें, या कुछ और...! उनकी तो जिन्दगी अभिनय थी और मौत भी...।

Thursday, June 18, 2020

नई पहल की गूँज

कम उम्र के बच्चों के अपराधी बनने की खबरें इतनी आम हैं कि अब लोग देखने-पढने और जानने के बाद भी ज्यादा चिंतित नहीं होते। उनकी तरफ से कोई गंभीर प्रतिक्रिया भी नहीं आती। सडक पर भीख मांगते, चोरी-चक्कारी करते तथा कोई अन्य गंभीर अपराध करते बच्चे कौन हैं, किनके हैं, इससे भी वास्ता रखने की नहीं सोची जाती। उनके अपराध कर्म में लिप्त होने के कारणों को जानने की तो जैसे किसी के पास फुर्सत ही नहीं! बस कठोर से कठोर सज़ा देने की जल्दी है। देश की आर्थिक हालात बुरी तरह से लडखडा गये हैं। धनपशु सुधरने को तैयार नहीं। आज सुबह ही अखबार में यह खबर पढने में आयी है कि संतरानगरी नागपुर में शराब के अवैध कारोबार में बारह से सोलह वर्ष के किशोरों को झोंका जा चुका है। उनके अवैध शराब बिकवायी जा रही है। यह वो बच्चे हैं, जिनके माता-पिता इस दुनिया से चल बसे हैं या फिर उनकी आर्थिक दशा अत्यंत दयनीय है। कई किशोर ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपने परिवार की बदहाली में सुधार लाने के लिए मजबूरन इस गलत राह को चुना है तो कुछ ऐसे भी है, जिन्हें कम उम्र में परिवार की चिन्ता तथा आसानी से अच्छी कमाई होने का लालच इस ओर खींच लाया है।
नागपुर देश का एक ऐसा शहर हैं, जहां पर मुख्य सडकों, चौराहों के साथ-साथ गली-कूचों में भी देसी विदेशी शराब की दुकानें तथा बीयरबार हैं। यहां पर हमेशा भीड लगी रहती है। इस तेजी से बढते शहर में वर्षों से वैध से ज्यादा अवैध शराब बिक रही है। जानकारों का तो यहां तक कहना है कि इसकी पूरी खबर आबकारी विभाग को भी है तथा पुलिस वालों को भी। यहां तक कि नेता और समाज सेवक भी करोडों-अरबों के इस काले कारोबार से अनभिज्ञ नहीं हैं। दरअसल जिनके हाथों में अवैध शराब के कारोबार की कमान है वे कोई मामूली लोग नहीं हैं। अधिकांश वर्दी वालों को तो वे अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। बडे-बडे नेता भी उनके अपने ही हैं। कोई सजग शरीफ शहरी यदि थाने में शिकायत करने के लिए जाता है तो उसे बहुत जल्दी अपनी गलती का अहसास करा दिया जाता है। लठैत, गुंडे-बदमाश लाठी-डंडे, तमंचे, चाकू, तलवारें लेकर उसके घर पहुंच जाते हैं। यह आतंकी महामारी पूरे देश में फैली है। चिन्ता तो इस बात की है कि बच्चों को अपराधी, नशेडी और नकारा बनाने के षडयंत्रों को नजरअंदाज किया जा रहा है। यह जो बच्चे भीख मांगते है, जेबें काटते हैं, ड्रग्स और शराब बेचते हैं उनका ताल्लुक कहीं न कहीं गरीबी और गरीब परिवारों से है। उनके मां बाप भी उन्हें अपराधकर्म करते देख जश्न नहीं मनाते। पीडा तो उन्हें भी होती ही है। पेट भरने की विवशता उन्हें खामोशी की जंजीरों से मुक्त नहीं होने देती। उनका जीवन भी यदि सीधी रेखा की तरह होता, विपत्तियों की भरमार नहीं होती तो वे कभी भी अपने छोटे-छोटे बच्चों को बडे-बडे अपराध करने के लिए खुला नहीं छोड देते। अपने ही देश में ऐसे गरीब माता-पिता हैं, जो अपने बच्चों को बेच देते हैं। चंद रुपयों के लालच में अपनी बच्चियां मानव तस्करों के हवाले कर देते हैं। कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात १६ साल के एक ल‹डके से हुई। वह अपनी दस और आठ वर्ष की बहनों की पढाई का खर्चा निकालने के लिए महुआ की शराब बेचता है। उसे मालूम है कि इस काम की बदौलत उसका भविष्य नहीं संवारने वाला। उसकी बस यही चाहत है कि, बहनें पढ-लिख जाएं तो उसे लगेगा कि उसका जीवन सार्थक हो गया है। ऐसे न जाने कितने बच्चे हैं, जो छोटी उम्र में बडे दायित्व निभा रहे हैं। उन्हें अपनी नहीं, अपनों की चिन्ता है, लेकिन उनकी किन्हें चिन्ता है?
नालंदा जिले के इस्लामपुर थाना क्षेत्र के एक सोलह वर्षीय किशोर को बीते मार्च महीने में एक महिला का पर्स चुराने के आरोप में पक‹डा गया। पुलिस जांच में किशोर ने अपना गुनाह स्वीकार करने में देरी नहीं लगायी। जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट मानवेंद्र मिश्र को जब पता चला कि किशोर के पिता की मृत्यु हो चुकी है। उसकी विधवा मां ने मानसिक अवसाद की शिकार होने की वजह से बिस्तर पकड लिया है। उसका एक चार-पांच वर्ष का छोटा भाई है। उसने कूडा बीनने का काम कर मां और भाई के खाने का जुगाड करने की भरसक कोशिश की, लेकिन निराशा और असफलता ही उसके हाथ लगी। बीमार, असहाय मां और मासूम छोटे भाई के खाने का इंतजाम न कर पाने के कारण उसने एक महिला का बैग चुराने की हिम्मत कर डाली। माननीय जज ने परिस्थितियों और अपराध के पीछे के असली कारण को देखते हुए जो फैसला सुनाया, पहले कभी जानने, पढने और सुनने में नहीं आया। उन्होंने न केवल किशोर को चोरी के आरोप से मुक्त किया, बल्कि सरकारी सहायता दिलाने का आदेश देते हुए राशन कार्ड बनाने, मां को विधवा पेंशन देने और किशोर को रोजगार मूलक प्रशिक्षण देने को कहा, जिससे आगे की जिन्दगी ठीक से गुजर सके। उसे किसी के आगे हाथ न फैलाना पडे। माननीय जज के इस अभूतपूर्व फैसले के बाद किशोर और उसके परिवार के लिए कपडे, राशन की व्यवस्था तो की ही गयी, नया घर बनाने के लिए २० हजार उपलब्ध भी करवाये गये। १० हजार रुपये ते स्वयं जज महोदय ने अपनी जेब से दिये। इतना ही नहीं उन्होंने थाने के प्रभारी को किशोर के परिवार की नियमित देखरेख और हालचाल जानने की जिम्मेदारी भी सौंपी। आज किशोर का परिवार खुश है। घर भी बन गया है। खाने-पीने के भी पुख्ता इंतजाम हो गये हैं।

Thursday, June 11, 2020

इतनी मनमानी और जल्दी क्यों?

अंततोगत्वा इसका हश्र अच्छा हो ही नहीं सकता। गलती, गलती है। गुंडागर्दी, गुंदागर्दी ही है। चाहे नेता करे या वर्दीवाला। औरत करे या मर्द। आज अपने देश में बेहिसाब मनमानी चल रही है। कई लोगों पर इन दिनों खबरों में बने रहने का जबरदस्त भूत तथा जूनून सवार है। उनकी बुद्धि ने सोचना, जानना, समझना ही बंद कर दिया है। उन्होंने कहीं न कहीं यह भी मान लिया है कि उनकी ऊल-जलूल हरकतें उन्हें नामवर बनाने के साथ-साथ नायक, नायिका का शानदार तमगा भी दिलवा रही हैं। सोशल मीडिया के तो वे ही ऐसे इकलौते बादशाह हैं, जिनके 'ताज' को कोई भी नहीं छीन सकता। स्वयं को भारतीय जनता पार्टी की महान नेता तथा टिकटॉक स्टार समझने वाली एक नारी, जिसका नाम सोनाली फोगाट है, ने हिसार की बाजार समिति के एक कर्मचारी की थप्पडों और चप्पल से ऐसी जोरदार पिटायी की, कि कई दिन तक अखबारों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया में धूम मचाती रहीं। चप्पल और थप्पडबाज सोनाली से जब पूछा गया कि आपने कानून अपने हाथ में क्यों लिया? उसने यदि कोई अभद्र टिप्पणी की भी है तो भी उसे इस तरह से सरेआम पीटना क्या जायज है? यह तो सरासर गुंडागर्दी है? खुद को दबंग कहने वाली नारी का जवाब था कि अगर मैं आज उसे सबक नहीं सिखाती तो कल वह किसी और महिला के साथ भी ऐसी बेहूदी हरकत करने से बाज नहीं आता। यह न्याय करने का तरीका है उस नारी का जो विधायक, सांसद बनना चाहती है। इस अजब नारी ने अपनी थप्पड और चप्पलबाजी की तस्वीरें और वीडियो बनाने के लिए पहले से ही अपने सेवकों की तैनाती कर रखी थी। आज्ञाकारी सेवकों ने धडाधड हर कोने से तस्वीरें लीं, वीडियो बनाये, जो देखते ही देखते न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर छा गये। घोर जिद्दी और अहंकारी नारी को शेरनी की पदवी मिल गई। पिटनेवाला गीदड कहलाया, लेकिन यही गीदड यदि अपनी पर आ जाता, ईंट का जवाब पत्थर से देता तो नारी सम्मान और उसकी सुरक्षा का ढोल पीटने वाले संगठन तन कर खडे हो, हो-हल्ला मचाते।
राजस्थान के जोधपुर में पुलिस वाले बिना मास्क पहने लोगों का चालान काट रहे थे, तभी एक युवक ने जेब से मोबाइल निकालकर वीडियो बनाने की कोशिश की। वर्दीवालों को युवक का यह दुस्साहस बर्दाश्त नहीं हुआ।  उन्होंने युवक को जमीन पर पटका और फिर काफी देर तक अपने घुटने से उसकी गर्दन को दबाये रखा। यह तो अच्छा हुआ कि युवक की जान बच गई। कू्रर पुलिस वालों ने अपनी इस हरकत को जायज ठहराने के लिए सफाई दी कि एक तो उसने मास्क नहीं पहना था, दूसरे टोकने पर हम से ही उलझने लगा! एक की तो उसने वर्दी ही फाड दी! आसपास खडे जिन लोगों ने पूरी घटना को मोबाइल कैमरों में कैद किया, उनका कहना है कि अडियल अविवेकी वर्दी वालों के घुटनों से आज़ाद होने के बाद ही उस युवक ने हमला किया। कौन सच्चा है, कौन झूठा, इसका पता चलने से रहा, लेकिन अंदाज देहलवी की यह पंक्तियां जरूर काबिलेगौर हैं :
"वो जख्मी परिंदा है, वार मत करना
पनाह मांग रहा है, शिकार मत करना
इरादा सामने वाला बदल भी सकता है
मुकाबला ही सही, पहले वार मत करना।"
नेतागिरी और वर्दी की धौंस दिखाने वालों ने सीधे-सादे लोगों को कई बार दबाने, मारने, कुचलने तथा आहत करने का इतिहास रचा है। आम लोगों की चुप्पी, सहनशीलता और बर्दाश्त करने की ताकत का मज़ाक उडाने वालों को अपनी नासमझी का खामियाजा भी भुगतना पडा है। एकदम ताजा उदाहरण है, ताकतवर देश अमेरिका का, जहां जार्ज फ्लॉयड नामक अश्वेत की पुलिस के हाथों हुई निर्मम हत्या के विरोध में असंख्य लोग सडकों पर उतर आये। पुलिस, सेना व सुरक्षा एजेंसियों के लिए हिंसक भीड पर काबू पाना बेहद मुश्किल हो गया। उपद्रवियों व अराजक तत्वों को भी आगजनी व लूटमार करने का अच्छा-खासा अवसर मिल गया। उसके बाद हमारे अपने अमन-पसंद देश में ऐसे बारूदी सोच वालों के उभरने का दौर-सा चल पडा जो देशवासियों को एक-दूसरे से लडते-मरते देखना चाहते हैं। देश में बदहाली के जो नजारे हैं उनके लिए केंद्र सरकार काफी हद तक जिम्मेदार है। सबकुछ कोरोना महामारी के माथे मढकर बचने की उसकी कोशिशें भी दिख रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद कुछ चेहरे हद से ज्यादा बौखलाये हैं। मछली की तरह फडफडाते कुछ बेचैन आत्माधारी स्वप्नजीवी, असली-नकली बुद्धिजीवी, पत्रकार, समाजसेवक, इसके, उसके मसीहा यही चाहते हैं कि अमेरिका की तरह भारत में भी विद्रोह की आग सुलगे। लोग सडकों पर उतर आएं और लूटमार करते नजर आएं। यह महान लोग कोरोना की चिन्ता छोड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के सपने देखने के चक्कर में ऐसे एकजुट हो गये हैं, जैसे उन्हें इससे अच्छा अवसर फिर कभी नहीं मिल पायेगा। उनकी सबसे बडी समस्या और बीमारी मोदी हैं। नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर होते देखना उनका सपना भी है, प्राथमिकता भी और एकमात्र लक्ष्य भी...।

Thursday, June 4, 2020

आगे की राह

कुछ खबरें ऐसी होती हैं, जो विचलित कर देती हैं। उन्हें नजरअंदाज करना बेहद मुश्किल हो जाता है। कोरोना के इस महासंकट काल में तो ऐसी-ऐसी खबरें सुनने-पढने में आ रही हैं, जो दिल को दहला रही हैं। सोचने-विचारने और महसूसने की हिम्मत कहीं दगा न दे जाए इसकी भी चिन्ता सताने लगी हैं। मन में बार-बार यह प्रश्न और विचार भी आता है कि यह सब हमारे ही जीवनकाल में होना था! विद्वान कहते हैं कि किसी भी इंसान के स्वभाव और उसके असली चरित्र की पहचान संकट के समय होती है। कोरोना काल में हमारे समक्ष कैसे-कैसे भयावह पिटारे खुल रहे हैं! दर्द और तसल्ली की असंख्य गाथाओं के पन्ने हमारे सामने हैं... एक मां ही होती है, जो अपने बच्चों के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं घबराती। इसलिए तो कहा गया है कि मां से बढकर कुछ नहीं होता। उसकी ममता, उदारता और त्याग की कहानियों से न जाने कितने ग्रंथ भरे पडे हैं। कोरोना के दुष्ट समय में देश के कई शहरों-महानगरों में कुछ माओं ने कैसे अपने बच्चों को यहां-वहां तडपने, मरने के लिए छोड दिया, समझ से परे है। अकेले नागपुर में ही तीन-चार नन्हे मासूम बच्चे लावारिस हालत में मिले। पुलिस ने उनके माता-पिता को खोजने की भरपूर कोशिश की, लेकिन कुछ पता नहीं चला। अंतत: यह मान लिया गया कि गरीबी, बदहाली के कारण मां-बाप को अपने छोटे-छोटे बच्चों को इस तरह त्यागने को विवश होना पडा हैं।
मध्यप्रदेश के बालाघाट में एक युवक ने अपने आठ वर्षीय बेटे के दोनों हाथ बांधकर उसे वैनगंगा नदी में फेंक दिया। इस हत्यारे पिता के पास कमायी का कोई साधन नहीं था। बेरोजगारी और गरीबी के कारण पिछले कई दिनों से मानसिक रूप से वह बेहद परेशान था। जिस दिन उसने बेटे का नदी में डुबोकर खात्मा किया, उसी दिन उसकी १० वर्षीय बिटिया का जन्मदिन था। भरी दोपहर वह अपनी पत्नी को यह कह कर निकला कि बेटी के बर्थ-डे के लिए केक लेने जा रहा हूं। करीब दो घण्टे बाद वह अकेला लौटा और पत्नी व परिवारजनों को दिल को दहला देने वाली यह हकीकत बताकर रुला-रुला दिया।
कोरोना के खूंखार दौर में हुए लॉकडाउन में कई खुद्दारों को हाथ फैलाने के लिए मजबूर होना पडा है। भूख भी उनके सब्र का इम्तहान लेने को उतारू है। नागपुर में ही है पदमावतीनगर। जब देशभर में लॉकडाउन की घोषणा हुई तब यहां का रहने वाला ट्रक चालक भिवक्षु कोरे गुजरात में था। लॉकडाउन के दौरान कुछ दिन तो उसकी पत्नी ने जमापूंजी से काम चलाया, लेकिन जब हाथ खाली हो गये तो उसके होश उड गये। घर मालिक ने दो-तीन दिन खाना भिजवाया। पास-पडोस की कुछ महिलाओं ने भी थोडी-बहुत मदद की, लेकिन बाद में सबने हाथ खींच लिया। ऐसे में भूखे जागने और सोने की नौबत आ गई। मेहनतकश ड्राइवर की पत्नी को खुद से ज्यादा अपने छोटे-छोटे बच्चों की चिन्ता खाती रही। पूरे परिवार ने चार-पांच दिन सिर्फ पानी और चाय पीकर निकाले। बच्चों को भूख की तडपन से विचलित देख असहाय मां के मन में अपने मायके से मदद लेने का विचार आया तो वह रेल और बसों के बंद होने के कारण पैदल ही नब्बे किमी की दूरी पर स्थित भंडारा शहर जाने को निकल पडी, लेकिन रास्ते में ही पुलिस ने उसे रोक दिया। पुलिस के काफी समझाने के बाद वह घर वापस लौटी। बस्ती के कुछ युवाओं को जब मुसीबत की मारी इस मां की जानकारी मिली तो उसे राशन किट उपलब्ध कराई गयी। उसका ट्रक ड्राइवर पति करीब ४७ दिन तक लॉकडाउन में फंसे रहने के बाद जब नागपुर लौटा तो वह पत्नी और बच्चों के गले लगकर घण्टों रोता रहा।
कोई साधन न मिलने की वजह से एक मजदूर परिवार हैदराबाद से पैदल ही चले जा रहा था। उन्हें सैकडों मील दूर मध्यप्रदेश के शहर बालाघाट जाना था। हैदराबाद में मजदूरी करने वाले इस माता-पिता ने अपने तीनों बच्चों को आग उगलते सूरज की तपन से बचाने की हर कोशिश की, लेकिन भूख, प्यास और लम्बे रास्ते की थकान भारी पड गई। उनके चार वर्षीय बच्चे का बेहाल हो गया। बीच रास्ते अस्वस्थ होकर वह बेहोश हो गया। असहाय माता-पिता ने सडक से गुजरते वाहनों और जीते-जागते इंसानों से हाथ जोड-जोड कर मदद मांगी, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। अपने सामने दम तोडते बच्चे की मां की चीखें सुनकर कुछ लोग रुके भी, लेकिन उन्हें 'अपने देस' जाने की जल्दी थी। अपनी जरूरत ने उन्हें इन्सान से पत्थर बना दिया था। इस दौरान घण्टों बच्चा मौत से जूझता रहा। अंतत: उसने मां की गोद में ही दम तोड दिया। दुखियारी मां ने खुद ही अपने आंसू पोंछे। नदी किनारे गह्ना खोदकर बेटे को दफनाया और आगे की राह पर चल पडी।
नोएडा की बारह साल की निहारिका को जब पता चला कि तीन प्रवासी मजदूर बहुत बडी विपदा में हैं। एक तो कैंसर का मरीज भी है। उसने अपनी बचत के ४८ हजार रुपये खर्च कर हवाई जहाज से उन्हें झारखंड भिजवाया। इस छोटी उम्र की बडी सोच रखने वाली बालिका का कहना है कि समाज ने हमें बहुत कुछ दिया है। अब हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि संकट के दौर में समाज के काम आएं। पूणे का ऑटोचालक अक्षय। इस शख्स की उदारता और दरियादिली तो देखिए...। इसने अपनी शादी के लिए जमा किये दो लाख रुपये उन बेसहारा मजदूरों को खाना खिलाने में खर्च कर दिये, जो सडकों पर भूखे-प्यासे भटक रहे थे। बलराम और रहमान जैसे जाने कितने भारतीय चेहरे हैं जो फरिश्तों की भूमिका में हैं। उनकी सहायता के हाथ न किसी की जात पूछ रहे हैं, न ही किसी का धर्म। बस मानवता का धर्म निभाये जा रहे हैं। उन्हें प्रचार और शोहरत की भी कोई भूख नहीं है। इन्हीं नायकों की वजह से ही आगे की राह के भी आसान होने का देशवासियों को पूरा-पूरा भरोसा है...।