Thursday, November 26, 2020

राष्ट्र, राष्ट्रभक्त और नमकहराम



चित्र : १ - अपने तो अपने होते हैं। घर, परिवार, बच्चों का मोह और कर्तव्यबोध हर सजग इंसान को एक मधुर सूत्र में बांधे रखता है। अपने देश और अपनी जडों के प्रति लगाव के धागे भी कभी कमजोर नहीं पडते। कानपुर में रहने वाले सत्तर वर्षीय शमसुद्दीन पाकिस्तान की जेल में आठ वर्ष तक यातनाएं भोगने के बाद जब इस दीपावली पर अपने घर लौटे तो खुशी के मारे उनके आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। यह खुशी थी अपने वतन लौटने की तथा अपनों से मिलने-मिलाने की, जिसे पाने की उन्होंने उम्मीद ही छोड दी थी। शमसुद्दीन १९९२ में अपने किसी जान-पहचान के व्यक्ति के साथ नब्बे दिन के विजिट वीजा पर प‹डोसी देश पाकिस्तान गये थे। १९९४ में उन्हें पाकिस्तान की नागरिकता भी मिल गई। शमसुद्दीन को इस बात की ब‹डी पी‹डा होती थी कि उन्हें पाकिस्तान में अविश्वास और संदेह भरी ऐसी निगाहों से ऐसे देखा जाता था। जैसे वे जेब में कोई बम लेकर चल रहे हों। इसी बीच २०१२ में पाकिस्तानी पुलिस ने जासूसी के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया। उनके लिए यह बहुत ब‹डा आघात था। अपना मुल्क छोडकर आने की गलती की ऐसी सज़ा की तो उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। जेल में दिन-रात उन्हें यातनाएं दी जातीं। कभी नींद लगती तो जूते और डंडों की बरसात शुरू हो जाती। हर पल मौत की आहट दिल की धडकनें बढाती रहती। अपनों से दूर होने का अहसास और किसी से न मिल पाने की विवशता उन्हें पल-पल रूलाती। उन पर चौबीस घण्टे बस यही आतंकी दबाव रहता कि वे स्वीकार कर लें कि उन्हें भारत सरकार ने जासूसी करने के लिए पाकिस्तान भेजा है। उन्हें खूंखार कैदियों से भी पिटवाया जाता। अंदर तक बुरी तरह से तोड देने वाले हालातों के शिकंजे में त‹डपते इस उम्रदराज शख्स ने तो यही मान लिया था कि उनका बचना मुश्किल है। उन्होंने तो मौत के आगोश में समाने के लिए खाना-पीना भी बंद कर दिया था, लेकिन जब पाकी जेल के कारिंदे उनसे अपना मनचाहा उगलवाने में नाकामयाब रहे तो उन्हें रिहा कर दिया गया।
१४ नवंबर २०२० के दिन जब शमसुद्दीन की घर वापसी हुई तो उनके परिजन घण्टों खुशी से उनके गले लगकर रोते रहे। सभी ने उनके जिन्दा वापस लौटने की आशा ही छो‹ड दी थी। अपने बडे-बुजुर्ग को अपने बीच पाकर उनके मुंह से बस यही शब्द निकल रहे थे कि इस बार की दीवाली तो उन्हें सारी उम्र याद रहेगी। शमसुद्दीन भी यही कहते रहे कि मेरे अपने देश भारत में जो सुकून और अपनापन है वो और कहीं नहीं। मैं तो हर किसी को यही कहूंगा कि अपना देश, अपनी माटी को छो‹डकर और कहीं दूसरे देश जाने की भूल कभी न करना। खासतौर पर पाकिस्तान तो बिलकुल भी नहीं, जहां की सत्ता और व्यवस्था हैवानों के क्रूर हाथों में है।
चित्र : २ - माता-पिता, भाई-बहन दिवाली की तैयारी में जुटे थे। सभी को अपने सैनिक बेटे, भूषण सतई का इंतजार था, जो दिवाली पर घर आने वाला था, लेकिन अचानक खबर आयी, भारत-पाक-नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना की ओर से की गई भीषण गोलाबारी के दौरान उनका दुलारा शहीद हो गया है। नागपुर के निकट स्थित काटोल के रहने वाले शहीद नायक भूषण सतई २०११ में भारतीय सेना में भर्ती हुए थे। अपने नौ वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने सेना की विभिन्न मुहिम में हिस्सा लेकर अपनी दिलेरी का परिचय दिया था। पाकिस्तान की सेना को मुंहतोड जवाब देकर शहीद होने वाले भूषण सतई की अंतिम यात्रा में पूरा गांव उम‹ड प‹डा। अथाह शोक में भी गर्व समाहित था। पूरा इलाका 'अमर रहे-अमरे रहे शहीद भूषण अमर रहे' के नारों से गूंज रहा था। अपने जवान बेटे की शहादत पर पिता का सीना चौडा हो गया था। उनके दिल से निकले इन शब्दों ने स्पष्ट कर दिया कि उनके लिए अपने राष्ट्र के क्या मायने हैं, "मेरा २८ साल का बेटा शहीद हो गया है। हमारे लिए यह कठिन समय है, लेकिन मुझे अत्यंत गर्व हो रहा है कि मेरे बेटे ने पाक के नापाक इरादों पर पानी फेर दिया। पाकिस्तान सेना को मुंहतोड जवाब देकर मेरे भूषण और उसके साथियों ने मेरा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है। देश की रक्षा करते-करते मेरे दुलारे को शहादत मिली है। मुझे नाज़ है उस पर।"
अपने दिल-दिमाग और आंखों में अपने भाई की तस्वीर को संजोये बहन सरिता खुद को बडी भाग्यशाली मान रही थी। उसका प्यारा भैय्या भाई दूज के दिन तिरंगे में लिपट कर उससे अंतिम बार मिलने आया था। देशभक्ति का इससे ब‹डा उपहार और कोई नहीं हो सकता। छोटे भाई ने अपने बडे भाई की शहादत को सलाम करते हुए उनके सपने को पूरा करने की प्रतिज्ञा की तो गांव के कई युवक-युवतियों ने सेना में भर्ती होकर पाकिस्तान को सबक सिखाने की कसम खायी।
चित्र : ३ - एक मशहूर गायक इन दिनों दुबई में तरह-तरह के अपने राग अलाप रहा है। हिन्दुस्तान में उसने अपार धन भी पाया और सम्मान भी। भारतवासी हर कलाकार को आदर-सम्मान देना जानते हैं। सोनू निगम की भी झोली भर दी गई। फिर पता नहीं उसमें क्यों और कैसा अहंकार आया कि उसे विदेशी जमीन भाने लगी। उससे एक साक्षात्कार में पूछा गया कि क्या आपका बेटा भी गायक बनना चाहता है? उसका प्रत्युत्तर था कि, "अगर उसकी इच्छा होगी तो मैं उसे रोकूंगा नहीं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि वह भारत में सिंगर बने। वह अब भारत में नहीं, दुबई में रहता है। मैंने उसे पहले ही भारत से निकाल दिया है।" ऐसे अहसानफरामोश, नमकहरामों पर किसे गुस्सा नहीं आयेगा! जिस देश ने इन्हें फर्श से अर्श पर पहुंचाया उसके प्रति यह अपमानजनक बोल, यह बताने के लिए काफी हैं कि यह गायक कितना गिरा हुआ घटिया इंसान है।  
ऐसे कुछ शैतान और भी हैं, जो भारत माता और उसकी सरहदों के रखवाले शूरवीर सैनिकों के अपमान से बाज नहीं आ रहे हैं। समस्त राष्ट्रभक्तों का खून-खौलाते और उन्हें आहत करते इन बददिमागों को देश के लिए अपना जीवन बलिदान करने वाले सैनिकों का सम्मान करने में कमतरी का अहसास होता है। यह वही चेहरे हैं जो अपने न्यूज चैनलों पर लगातार भौंकते हुए दावा करते रहते हैं कि हम-सा कोई नहीं। हमारी मनपसंद राजनीतिक पार्टी तथा हम ही हैं जो देश की नैय्या पार लगा सकते हैं। जवानों के हत्यारे नक्सलियों को अपनी गोद में बिठाने तथा उनका गुणगान करने वाले कुछ अखबार तथा एनडीटीवी जैसे न्यूज चैनल वाले आतंकवादियों को तो शहीद करार देते हैं और देश पर कुर्बान होने वाले शहीदों के लिए तू-तडाक की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। आतंकवादियों के द्वारा जवान फूंक दिये गये, मार गिराये गये, मर गये, मारे गये यह देश के उन चैनलों की भाषा है, जिनके कर्ताधर्ता और संपादक विदेशी पुरस्कार झटकने के फेर में भारत माता तथा उसके सपूतों का घोर अपमान कर अपनी असली औकात दिखा रहे हैं।

Thursday, November 19, 2020

ऐसा भी, खोना-पाना!

अपने अखबार के कार्यालय से घर लौटते समय छापरू चौक पर स्थित एक दवाई की दुकान पर लगी ग्राहकों की भीड अक्सर मेरा ध्यान खींच लेती है। इस दवाई की दुकान की तरह नागपुर शहर में चार दवाई दुकानें और भी हैं, जिनका मालिक एक ही शख्स था, जिसने बीते वर्ष आत्महत्या कर ली। जरीपटका के निवासी इस व्यापारी की खुदकुशी की खबर मैंने अखबारों में ही पढी थी। लगभग तीस लाख की आबादी वाले शहर नागपुर में अक्सर आत्महत्याएं होती ही रहती हैं, लेकिन इस आत्महत्या ने मुझे काफी विचलित कर सोचने को मजबूर कर दिया था। अखबार में छपी फिल्मी हीरो-सी तस्वीर मेरे मन-मस्तिष्क में बैठ-सी गई थी। उसकी उम्र पचास के आसपास थी। बहुत महत्वाकांक्षी था। चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते करोडों में खेलने लगा था। अपने व्यापार को अपार ऊंचाइयां प्रदान करने की अभिलाषा रखने वाले इस शख्स को किसी ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए उकसाया तो वह फिल्में बनाने लगा। उसने खुद को पर्दे पर देखने की तमन्ना भी पूरी कर ली, लेकिन कोई भी फिल्म नहीं चली।
फिल्मों और फिल्मी सितारो की चकाचौंध में उसका ध्यान कुछ ऐसा भटका कि अपने चलते कारोबार को देखने की उसके पास फुर्सत नहीं रही। फिल्म निर्माण के लिए साहूकारों से करोडों की रकम भारी ब्याज पर लेने की नौबत ने उसकी सुख-शांति छीन ली। दवाओं की बिक्री का पैसा भी फिल्मों की भेंट चढने से दुकानें खाली होती चली गर्इं। ज्यों-ज्यों कर्जा बढता गया, तनाव उसका दिन-रात का साथी बनता चला गया। इस चक्कर में नशा करना रोजमर्रा की बात हो गई। शराब तो वह पहले से पीता था। अब नींद को आमंत्रित करने के लिए किस्म-किस्म की महंगी ड्रग भी लेने लगा। घर का माहौल भी अशांत हो गया। दिन-रात नशे में धुत रहने वाले कायर नशेडी का पत्नी पर हाथ उठने लगा। पत्नी की जब बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो गई तो वह बच्चों के साथ अलग रहने चली गई।
किसी जमाने में छाती तानकर चलने वाला लालची रईस लेनदारों से मुंह छिपाते-छिपाते इस कदर शर्मसार, भयभीत और परेशान हो गया कि एक रात वह फांसी के फंदे पर झूल गया और अखबारों और न्यूज चैनलों की सनसनीखेज खबर बन गया। उसे जानने वालों को जब उसकी खुदकुशी की खबर मिली तो उनका कहना था कि यह तो होना ही था। सभी का अनुमान था कि अब उसकी सभी दुकानों पर ताले लग जायेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो डरपोक, सुविधाभोगी तो हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से चला गया, लेकिन उसकी दुकानों के शटर एक दिन भी नहीं गिरे।
लगभग सात-आठ महीने के बाद छापरू चौक की चिरपरिचित दुकान में मैंने जबरदस्त तब्दीली देखी तो देखता ही रह गया। बाजू की दुकान को भी उससे मिला दिया गया था। अब वह एक नहीं दो शटर वाली दुकान है, जहां पर हर समय खरीददारों की भीड लगी रहती है। इसके साथ ही उसकी अन्य दुकानों का भी जो विस्तार तथा कायाकल्प हुआ है वह किसी चमत्कार से कम नहीं। ऐसा भी नहीं, कि जब वह जीवित था तब इन दवाई की दुकानों पर ग्राहकों का अभाव रहता था। उसकी अच्छी-खासी कमायी हो रही थी, लेकिन उसके ध्यान के भटकने के कारण धीरे-धीरे कंगाली छाने लगी थी। ग्राहक आते थे, लेकिन दवाएं नहीं मिलने के कारण दूसरी दुकान का रूख करने लगे थे।
सच तो यह है कि समय किसी की परवाह नहीं करता। नागपुर शहर में एक इंसान सडक पर स्थित एक होटल में कप-प्लेट धोने को मजबूर है। लगभग पांच वर्ष पूर्व वह खुद का आइसक्रीम पार्लर चलाता था और पांच-सात नौकर उसके निर्देशों और आदेशों का पालन करते थे। कल तक वह आज़ाद था और आज वह गुलामों जैसी ज़िन्दगी जी रहा है। अपनी बर्बादी की वजह वह खुद है। उसका आइसक्रीम पार्लर जोर-शोर से चलता देख वर्ष २०१४ में किसी ने उसके कान में मंत्र फूंका कि यह किस छोटे से धंधे में अपनी उम्र गला रहे हो। चलो मैं तुम्हें नंबर दो का ऐसा सस्ता सोना दिलाता हूं, जिससे तुम रातों-रात करोडपति बन जाओगे। चमकते सोने के झांसे में उसने रातों-रात अपने पार्लर को मिट्टी के मोल बेचने के साथ-साथ अपने करीबी रिश्तेदारों, यार-दोस्तों से चालीस-पचास लाख जुटाये और सोने के सौदागरों के साथ मुंबई जा पहुंचा। सोना बेचने वाले गिरोह के लोगों ने सोने का वजन कराकर उसे सौंप दिया। मुंबई से लौटते समय खाकी वर्दीधारियों ने उसे तस्करी के आरोप में दबोच लिया। उसके तो हाथ-पांव फूल गये। उनको भी रिश्वत देनी पडी। बाद में पता चला कि यह तो उनकी 'गेम प्लान' का हिस्सा था। पूरी तरह से बरबाद होने के गम में उसकी पागलों जैसी हालत हो गयी। किसी नये-धंधे के लिए उसके पास एक कौडी भी नहीं बची। उसने अपनी पहचान वालों के समक्ष फिर से हाथ फैलाये, लेकिन कोई भी उसे कर्ज या उधार देने को तैयार नहीं हुआ। ऐसे में बस एक ही रास्ता जो उसे नज़र आया, वह आज सबके सामने है...।
भावनगर के महुआ तहसील के रहने वाले भानू भाई को किसी मामले को लेकर दस साल की जेल हो गई। तब उनकी उम्र पचास वर्ष थी। सज़ा होने पर मातम मनाने और रोने-गाने की बजाय एमबीबीएस कर चुके भानू भाई ने जेल में ही पढाई-लिखायी की और ३१ डिग्रियां हासिल कर देश और दुनिया में अपना सिक्का जमाया। जब वे जेल से बाहर आए तो उन्हें बडे आदर-सम्मान के साथ न सिर्फ सरकारी नौकरी मिली बल्कि उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस, एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड, यूनिक वल्र्ड रिकॉर्ड, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड, वल्र्ड रिकॉर्ड इंडिया और यूनिवर्सल रिकॉर्ड फोरम तक में दर्ज हो गया। सरकारी नौकरी करते हुए कर्मवीर भानू भाई ने पिछले पांच वर्षों में अब २३ और डिग्रियां हासिल कर ली हैं। यानी अब तक वे ५४ डिग्रियां ले चुके हैं...!

Thursday, November 12, 2020

एक और कसम

"तुम्हारा तो हर हाल में इस दलदल से दूर रहने का वादा था?"
"क्या करती अपने बू‹ढे मां-बापूजी और छोटी बहन को चुपचाप मौत का निवाला बनते देखती रह जाती...!"
"इन बदनाम पगडंडियों पर फिसल-फिसल कर चलने के अलावा और भी तो रास्ते हैं, जिन पर चलने से तुम्हारा मान-सम्मान बना रहता। तुमने तो मेरे भरोसे के कत्ल के साथ-साथ अपना भविष्य भी चौपट करने की भूल कर दी!"
"आदरणीय पत्रकार महोदय, यह जीवन भी बडा अजीब है। कब किसके साथ क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। जिस तरह से कोरोना ने करो‹डों लोगों को तबाह कर दिया। लाखों की मौत हो गयी। उसकी किसी ने कभी कल्पना की थी? मैं तो लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर पढाई-लिखायी में लीन थी। बाबूजी कभी-कभार जिद करके कमाने-धमाने के लिए घर से बाहर चले जाते थे। इधर-उधर से थोडी-बहुत सहायता भी मिल रही थी, लेकिन अचानक एक दिन मां और बाबूजी को खांसी, जुकाम और बुखार ने जकड लिया। कोविड-१९ का टेस्ट करवाया तो पॉजिटिव निकलने पर डर के मारे हम सबके हाथ-पांव फूल गये। हर सुख-दु:ख में साथ देने का आश्वासन देने वाले रिश्तेदारों तथा पडोसियों को जैसे ही दोनों के कोरोना संक्रमित होने की खबर लगी तो सहायता का हाथ बढाना तो दूर सबने हमारे घर के आसपास फटकने से भी तौबा कर ली। दोनों को अस्पताल में भर्ती कराने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। पहले तो डॉक्टर आनाकानी करते रहे, लेकिन जब मैंने उन्हें पूरी तरह से यकीन दिलाया कि जो भी फीस होगी पांच-सात दिन में जमा करा दूंगी। तब कहीं जाकर उन्होंने अपने हाथ-पैर चलाने प्रारंभ किये। पांच हजार रुपये मैंने एडवांस भी जमा करवा दिये।
दूसरे कोरोना मरीजों के परिजनों से यह पता चल गया था कि कम-अज़-कम पचास-साठ हजार रुपये तो लगेंगे ही। डॉक्टरों के लिए कमायी का यह सुनहरा मौका है। उन्हें अपनी मजबूरी बताते हुए लाख रोते-गाते रहो, लेकिन वे किसी पर भी रहम नहीं करते। मेरे पास तो सोने-चांदी के कोई जेवर भी नहीं थे, जिन्हें साहूकार को बेचकर अस्पताल की फीस दे पाती। मेरे पढने-लिखने के इंतजाम के लिए घर पहले ही गिरवी रखा जा चुका था। मेरे पास एक अपना जिस्म ही था, लेकिन लॉकडाउन में ग्राहक ढूंढना आसान नहीं था। हां, मुझे यह जरूर पता था कि हमारे समुदाय की लडकियां, औरतें हमेशा की तरह इन दिनों भी हाइवे से गुजरने वाले ट्रकों के ड्राइवरों की वासना पूर्ति कर घर परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का प्रबंध कर रही हैं, लेकिन मेरे सामने तो इलाज के लिए मोटी रकम के जुगा‹ड की घोर समस्या थी। काफी सोच-विचार करने के पश्चात अंतत: रात को मैं हाइवे पर स्थित उस कुख्यात ढाबे पर जा पहुंची, जहां से कभी मां ने वेश्यावृति की शुरुआत की थी। अपनी पूरी जवानी इस बदनाम धंधे में कुर्बान कर देने वाली मां ने कसम खायी थी कि अपनी बेटियों को इस नर्क में कभी नहीं जाने देगी, लेकिन...। ढाबे के मालिक को जब मैंने अपनी समस्या से अवगत कराया तो उसे मुझ पर बडा रहम आया। उसने फौरन कुछ अनजान चेहरों से मिलवा दिया।
जिस देह व्यापार से मुझे नफरत थी उसी ने चार दिन में मेरी पहाड-सी समस्या का समाधान कर दिया। दो दिन तक दर्द से तडपती रही। मां-बाबूजी स्वस्थ होकर घर आ गये। मां को जब मेरे बिकने की हकीकत पता चली तो वह घण्टों रोती रही। तसल्ली देने के लिए मैंने ही उन्हें समझाया और याद दिलाया कि हमारा बांछडा, बेड़िया तथा सांसी समुदाय पेट पालने के लिए सदियों से ही देह व्यवसाय करता चला आ रहा है। दूसरों के यहां जहां बेटों के जन्मने पर खुशियां मनायी जाती हैं, हमारे यहां तो बेटी का होना शुभ माना जाता है। खूब ढोल-नगाडे बजाये और गीत-गाने गाये जाते हैं। कई दिनों तक जश्न का जोश इस उमंग की तरंग में डूबा रहता है कि रोजगार में इजाफा करने के लिए घर में एक और नारी देह का आगमन हुआ है।
फिर अब तो हमारे समुदाय के लोगों की धन की भूख इस कदर बढ गयी है कि दूसरे समाज की लडकियों को भी खरीदकर अपने परंपरागत पेशे में खपाया जाने लगा है। बडे गर्व के साथ मासूम बच्चियों को जिस्मफरोशी में धकेलने वाले हमारे समुदाय के लोगों को मेहनत-मजदूरी करने में लज्जा आती है। बहू-बेटियों को बेचकर पेट भरने वाले लोगों की भीड में अपवाद स्वरूप मेरे मां-बाबूजी जैसे लोग भी हैं, जो बेटियों को बाजार की हवा नहीं लगने देना चाहते, लेकिन कोई न कोई मजबूरी, उनके सपनों का खून कर देती है। सरकार ने भी घोषणाएं और दावे तो बहुत किए, करोडों का फंड देने की घोषणा भी की, लेकिन हमारा समुदाय वहीं का वही है। यह सरकारी धन पता नहीं किनके पास जाता है। हम तक आया होता तो किंचित तो सुधार के लक्षण नजर आते! सरकार के साथ-साथ मेरी नाराज़गी और शिकायत तो आपकी पत्रकार बिरादरी से भी है, जो हमारे समुदाय की औरतों, लडकियों और बच्चियों के प्रति दिखावटी सहानुभूति दर्शाते हैं। हमारे बारे में जो खबरें तथा लेख लिखे, छापे जाते हैं वे निमंत्रित करते आकर्षक विज्ञापन ज्यादा लगते हैं, उन्हीं को पढकर पता नहीं कहां-कहां से लोग हमारे ठिकानों तक दौडे चले आते हैं। उन्हें हमारी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और बदहाली तो नहीं दिखती, नारी देह जरूर दिखती है। हर किसी ने यह मान लिया है कि उसे विधाता ने धरती पर पुरुषों की वासना की आंधी को शांत करने के लिए ही भेजा है।"
"लेकिन अब तो तुम्हारे माता-पिता बीमारी से मुक्त हो चुके हैं। जो हुआ उसे भूल जाओ। अपनी पढाई-लिखाई की तरफ ध्यान दो। अब बस यही सोचकर खुद को तसल्ली दो कि कोई बुरा सपना देखा था, जिसने कई कटु अनुभवों से साक्षात्कार कराकर तुम्हारी आंखें खोल दीं। भविष्य में तुम्हें अपने समुदाय में बदलाव लाने के लक्ष्य की पूर्ति के लिए बहुत संभल-संभल कर चलना है।"
"कौन सी दुनिया में रह रहे हैं पत्रकार महोदय! अब आपको वो सच भी बताये देती हूं, जिसे मैंने आपसे छिपाये रखने की सोची थी। मां-बाबूजी को कोरोना से मुक्त होने के बाद भी अस्पताल से छुट्टी नहीं दी जा रही थी। लालची डॉक्टरों की जिद थी जब तक बाकी के और चालीस हजार रुपये नहीं भरे जाएंगे तब तक उन्हें उनकी कैद में रहना होगा। जोरदार तमाशा-सा खडा कर दिया गया था। पचास हजार तो मैं दे चुकी थी। बाकी की फीस को चुकाने के लिए अब मुझे कई हफ्तों से देहभोगी डॉक्टरों के बिस्तर पर बिछना पड रहा है। दोनों डॉक्टर तो अपनी मनमानी करते ही हैं, अपने दोस्तों को भी बुला लेते हैं। इसे मैं उनकी भलमानस कहूं या कुछ और... रात भर मेरी देह के साथ खिलवाड करने के पश्चात कभी-कभार पांच-सात हजार की मेरी वेश्यावृत्ति की फीस देना नहीं भूलते। उसी से मां-बाबू जी की दवाई, छोटी बहन की पढाई और घर का चूल्हा जल रहा है।"
"देखो, अब कोरोना की बीमारी का प्रकोप काफी कम हो चुका है। तुम अपनी इस भयावह दुनिया से बाहर निकलने की ठान लोगी तो सब ठीक हो जाएगा। किसी बडे सुरक्षित शहर में रहने और पढने का पूरा प्रबंध मेरे जिम्मे रहा।"
"क्या पत्रकार जी! आपको अभी भी मैं वो बच्ची लग रही हूं, जिससे आप सात साल पहले मिले थे। अब पूरे सत्रह साल की हो गई हूं। यहां की और वहां की दुनिया की सच्चाई मेरे से छिपी नहीं है। हर जगह वहशी दरिंदे भरे पडे हैं। अखबार में आज सुबह ही मैंने यह खबर पढी है,  "पुणे के निकट स्थित एक गांव में बीती रात शौच करने के लिए निकली एक महिला को किसी वहशी इंसान ने दबोच लिया। जब महिला के प्रतिरोध के कारण वह बलात्कार नहीं कर पाया तो उसने उसकी आंख ही निकाल ली...।"
"ऐसी वारदातें तो अब अपने देश में रोजमर्रा का खेल हैं, लेकिन तुमने जो किया, उससे मेरा दिल टूट गया है।"
"आप चिन्ता न करें। एक कसम टूट गई तो उसे जाने दें। मेरा एक बार फिर से वादा है कि अपनी छोटी बहन को कभी भी नहीं बहकने दूंगी। उसे इतना पढाऊंगी-लिखाऊंगी और जगाऊंगी कि वह अपनी सारी उम्र आपके सपने को साकार करने में लगा देगी। वो कसम तो टूट गई, लेकिन इस कसम को अपने जीते-जी तो कभी भी टूटने और बिखरने नहीं दूंगी।"
१५ अगस्त १९४७ के दिन जन्मे पत्रकार, स्वतंत्र कुमार ने जब से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा तभी से मध्यप्रदेश के मंदसोर जिले में महिलाओं के जागरण और उत्थान में लगे हैं। उन्हें कुछ लडकियों को देह धंधे के कीचड से बाहर निकालने में सफलता भी मिली है। उनका एकमात्र लक्ष्य और हार्दिक तमन्ना है कि कोई भी लडकी बिकने को मजबूर न हो।

Saturday, November 7, 2020

वो भी और यह भी

चित्र १ - हर समझदार इंसान अपनी पसंद के लोगों से जुडना पसंद करता है। उसे उनसे जुडकर और मिलकर हार्दिक प्रसन्नता होती है, सुकून भी मिलता है, जिनकी अभिरूचि उसके जैसी होती है। धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को अगर अपने जैसे सत्संगी मिल जाएं तो उनके लिए इससे बडी उपलब्धि कोई और हो ही नहीं सकती। ललितपुर की २५ वर्षीय कमलेश, कृपालु महाराज की परम भक्त है। कृपालु महाराज के सतसंग और प्रवचनों में लीन रहने में उसे अपार सुख मिलता था। फेसबुक पर भी उसके जितने मित्र थे, सभी धार्मिक और सात्विक प्रवृत्ति के थे। इसी तारतम्य में विदिशा निवासी चंद्रजीत ने फेसबुक पर माधव ठाकुर के नाम से फर्जी आईडी बनाकर खुद को कृपालु महाराज का अनन्य भक्त बताते हुए कमलेश से मित्रता कर ली। कुछ दिनों के बाद उन दोनों में फोन पर भी बातचीत होने लगी। चंद्रजीत ने कमलेश पर अपनी लच्छेदार बातों का ऐसा जादू चलाया कि दोनों का मिलना-मिलाना भी शुरू हो गया। फिर दोनों ने शादी भी कर ली। शादी के कुछ दिनों के बाद ही वह कमलेश को अपना असली रंग दिखाने लगा। उसने अपनी पत्नी कमलेश के अश्लील वीडियो बनाकर वायरल कर दिए। इतना ही नहीं यह शैतान धार्मिक सोच-विचार वाली पत्नी से जबरन मोबाइल एप पर अश्लील वीडियो कॉलिंग करवाकर धन कमाने लगा। कहा नहीं मानने पर वह हैवानों की तरह उसे मारता-पीटता और लहुलूहान कर देता। इतना भयावह धोखा खाने वाली कमलेश ने हिंसक, वहशी, धोखेबाज के खिलाफ थाने पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज करवायी तो भेद खुला कि दोस्ती, शादी और धोखा देना तो उसका धंधा है। महज दसवीं तक पढा यह धूर्त पहले से शादीशुदा है। कमलेश ने बताया कि वह इस शातिर के सम्मोहन के जाल में इस कदर फंस गई थी कि उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। तभी तो वह पचास हजार रुपये नगद तथा १५ लाख के जेवर समेट कर उसके साथ भाग खडी हुई और भोपाल के आर्य समाज मंदिर में फौरन शादी तक कर ली।
चित्र २ - बरेली का बिलाल मंदिर जाता था। माथे पर चंदन का टीका लगाता था। उसके हाथ में कलावा भी बंधा रहता था। आठवीं में फेल होने के बाद उसने पढाई-लिखायी से नाता तोड लिया था, लेकिन फिर भी वह खुद को दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र बताता था। वह जिस अंदाज के साथ चलता-फिरता, उठता, बैठता, बतियाता था उससे लोग उसे काफी पढा-लिखा और हाईक्लास सोसाइटी से जुडा मान लेते थे। लडकियां भी उसके आकर्षक तडक-भडक वाले दिखावे के जाल से बच नहीं पाती थीं। दो साल पहले जिस ल‹डकी ने उसके खिलाफ छेडछाड की शिकायत की थी। मामला पुलिस थाने तक भी गया था। वही लडकी जब घर छोडकर बिलाल के साथ भाग खडी हुई तो हंगामा मच गया। बीएससी कर रही लडकी का आठवीं फेल संदिग्ध चरित्रवाले लडके के साथ फुर्र हो जाना हर किसी को चौंका गया। विभिन्न हिन्दू संगठन आग-बबूला होकर सडक पर उतर आये। थाने में तोडफोड कर दी। पुलिस को भीड पर लाठियां बरसानी पडीं। राजस्थान में अजमेर दरगाह इलाके के एक होटल से पुलिस ने दोनों को जब दबोचा तो छात्रा के नाम से दो फर्जी आधार कार्ड बरामद हुए। एक पर माहिरा तो दूसरे पर राखी नाम दर्ज था। लाखों रुपये भी मिले, जिन्हें छात्रा घर से चुराकर भागी थी। खुद को खाकी वर्दीवालों से घिरा देख छात्रा भडकते हुए बोली, "हमने कोई गुनाह नहीं किया है। उसके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती भी नहीं हुई। वह अपने प्रेमी के साथ निकाह करना चाहती है। वह १९ साल की बालिग है।" उसने घर जाने से भी इंकार कर दिया। बिलाल को चोरी-धोखाधडी के आरोप में जेल तो लडकी को नारी निकेतन भेज दिया गया।
चित्र ३ - फरीदाबाद में कॉलेज से लौटती निकिता की गोली मारकर हत्या कर दी गई। निकिता का कसूर इतना ही था कि उसे अपने धर्म से अटूट प्यार था। वह तौसीफ के साथ जीवनभर के बंधन में बंधने को तैयार नहीं थी। उनकी जब पहली मुलाकात हुई थी, तब हत्यारे ने अपना नाम राहुल बताया था। उसके इस छल-कपट भरे झूठ ने निकिता को सचेत कर दिया था, लेकिन तौसीफ धर्म बदलकर शादी के लिए उसके पीछे पडा रहा। निकिता का इंकार उसे शूल की तरह चुभा और उसने उसकी हत्या कर दी। यह कैसा प्यार था? सच्चे प्रेमी कभी ऐसे नहीं होते। वक्त आने पर जान दे देते हैं, भूलकर भी कभी मौत नहीं देते! २०२० के अक्टुबर महीने में निकिता की नृशंस हत्या करने वाले तौसीफ ने २०१८ में भी निकिता के साथ हैवानी हरकत की थी, लेकिन कुत्ती राजनीति यहां भी अपने हरामीपने से बाज नहीं आयी। हरियाणा की राजनीति में तौसीफ के परिवार का दखल और दबदबा रहा है। पुलिस भी राजनेताओं के इशारे पर नाचती आयी है। दोषी तो निकिता के परिजन भी हैं। तब यदि उन्होंने बदनामी के भय तथा नेतागिरी करने वाले दबंगों के खौफ में आकर समझौता नहीं किया होता तो तौसीफ की उद्दंडता, बदनीयती और कातिल हौसलों की उडान एक स्वाभिमानी लडकी पर धर्म बदलकर शादी करने का आतंकी दबाव बनाने का साहस ही नहीं कर पाती।
चित्र ४ - उम्रदराज़ पत्नी हिन्दू है, पति मुसलमान। ४५ साल पहले दोनों विवाह सूत्र में बंधे थे। किसी ने अपना धर्म नहीं बदला। दोनों में आज भी उतना प्यार है, जितना तब था। दोनों का एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर सम्मान भी है और अटूट विश्वास भी। हिन्दू पत्नी रोजा रखती है, तो मुस्लिम पति गणपति की आरती करते हैं। दोनों की बडी मज़े से कट रही है। अखबारनवीसी करने वाली आनम खान २००८ में कॉलेज की पढाई के दौरान सुकांत शुक्ला के आकर्षण में बंधीं। कालांतर में दोनों लिव इन में रहने लगे। दोनों के परिवार वाले खुले दिल-दिमाग के थे। २०१४ में बिना धर्म बदले दोनों ने शादी कर ली। शादी के छह साल बाद भी दोनों खुश हैं। उनका धर्म भले ही अलग है, लेकिन दोनों के परिवार एक हैं। हर खुशी और गम के मौके पर एक साथ नज़र आते हैं। लगता ही नहीं कि वे अलग-अलग धर्म से ताल्लुक रखते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कबीर और वीना की शादी १९ साल पहले हुई थी। दीपक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से हैं, वीना प्रगतिशील मुस्लिम परिवार से। दोनों की कॉलेज में पढाई के दौरान दोस्ती हुई। दोनों के विचार आपस में मिलते-जुलते थे। सामाजिक कार्यों में अभिरूचि थी। प्रगाढ दोस्ती के प्यार में तब्दील होने के बाद जब शादी करने की ठानी तो उन्होंने भी स्पेशल मैरिज एक्ट का रास्ता चुना। आज उनका एक बेटा है, जिसका नाम है सूफी सिद्धार्थ कबीर। उसकी कोई जाति या धर्म नहीं है। उसकी सोच भी अपने माता-पिता जैसी ही है। प्यार धर्म को देखकर नहीं होता। यह तो बस हो जाता है। इस पर किसी का बस नहीं। फिर यह कोई जुर्म भी तो नहीं, जो हंगामा बरपा हो। प्यार मोहबत में जात-पात, अमीरी, गरीबी का भी क्या काम। यह तो दिल के दिल से जुडने की वो पवित्र अवस्था है, जो कुर्बानी देना सिखाती है। एक-दूसरे का ताउम्र साथ देने के वचन की मधुर जंजीरों में बंधे रहने के संकल्प को कभी कमजोर नहीं होने देती। महज शादी के लिए धर्म परिवर्तन, धोखा और लव जेहाद, हैवान और शैतान दिमागों की उपज है। कट्टर हिन्दू परिवार के शैलेंद्र और मुस्लिम नीलिमा जाफरी ने ११ साल की दोस्ती के बाद २०१० में कोर्ट में जाकर शादी तो कर ली, लेकिन दिक्कत उस समय आयी जब उसके यहां बेटी आलिया का जन्म हुआ। उन्हें अस्पताल में बेटी का बर्थ सर्टिफिकेट पाने के लिए एक फार्म भरना था। जिसमें धर्म वाले कॉलम में अपने धर्म का नाम लिखना आवश्यक था। शैलेंद्र ने यह काम पत्नी नीलिमा के जिम्मे छोड दिया। नीलिमा ने फार्म लेकर उसमें लिखा- हिन्दू। दोनों की आज दो बेटियां हैं आलिया और आभार्या। दोनों स्कूल में प्रार्थना के सेशन में गायत्री मंत्र का पाठ करती है। यहीं नहीं लखनऊ में मोहर्रम पर पूरी शिद्दत से शिरकत करती हैं। दोनों बेटियां किसी भी धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र हैं।
अलग धर्म के युवक-युवती में प्यार होना कोई नयी बात नहीं। इतिहास में एक से एक उदाहरण भरे पडे हैं। हमारे संविधान ने भी तो प्रेमियों के लिए दरवाजें खोल रखे हैं। स्पेशल मैरिज एक्ट जिसे १९५४ में लाया गया, वह अलग-अलग धर्मों को मानने वालों को विवाह सूत्र में बंधने का अधिकार देता है, लेकिन अधिकांश लोगों को इस संविधान के बारे में पता ही नहीं है। इसलिए तरह-तरह के तकलीफदायक मंजर सामने आ रहे हैं और डरा रहे हैं।