Thursday, April 28, 2022

जिद की चमक

    75 साल के होने जा रहे हैं रमन। तपती धूप में बेंगलुरुकी सड़कों पर ऑटो रिक्शा चलाते आप उन्हें देख सकते हैं। पिछले 14 वर्षों में कोई भी ऐसा दिन नहीं आया जब रमन ऑटो रिक्शा चलाते नहीं देखे गये हों। ऑटो रिक्शा पर दिन भर सवारियां ढोने वाले रमन ने एमए और एम.एड की डिग्री हासिल कर रखी है। सवारियों से जब वे सधी हुई अंग्रेजी में बतियाते हैं तो उन्हें भी बेहद हैरत होती है। रमन बचपन में ही बड़े सपने देखने लगे थे। इसी चाहत की उड़ान ने पढ़ाई के बाद मायानगरी मुंबई पहुंचा दिया। तब के जमाने में इतने पढ़े-लिखे लोग कहां थे फिर भी उनका लग्गा नहीं लग पाया। मुंबई के पवई में एक निजी इंस्टिट्यूट में लेक्चरर तो बन गये, लेकिन तनख्वाह मात्र बारह-पंद्रह हजार ही थी। अपने देश में सरकारी नौकरी और प्रायवेट नौकरी में बहुत फर्क होता आया है। सरकारी शिक्षण संस्थानों में अदना-सा शिक्षक लाखों की पगार पाता है और रिटायर होने के बाद अच्छी-खासी पेंशन का भी हकदार होता है, लेकिन निजी शिक्षण संस्थाओं में अपार शोषण का व्याभिचार होता है। उसी बेइंसाफी के वर्षों तक शिकार होते रहे रमन ने कभी कोई शिकायत नहीं की। मस्तमौला बने रहे। नौकरी बजाते रहे। वर्षों तक नौकरी करने के बाद पेंशन नहीं मिली। अपने सपनों के शहर में जवानी बिताने के बाद 62 वर्ष की उम्र में अपने शहर बंगलुरु वापस आये और ऑटो रिक्शा चलाने लगे। रमन खुद को बूढ़ा नहीं मानते। उनकी चुस्ती-दुरुस्ती ही बता देती है कि इस शख्स पर उम्र बढ़ने का कोई खास असर नहीं पड़ा। अभी तो ढेरों ख्वाहिशों को पूरा करने की उनकी तमन्ना है। रमन सिर्फ आज की सोचते हैं। कल की चिंता उन्होंने कभी भी नहीं की। जिंदादिली के साथ जीने का ही उनका एकमात्र मकसद है। नकारात्मक सोच को तो कभी अपने आसपास आने ही नहीं देते। ऑटो रिक्शा चलाकर प्रतिदिन रमन पांच-सात सौ रुपये कमा कर खुश हैं। किसी से कोई गिला नहीं है। उनके बच्चे अलग रहकर अपनी दुनिया में मस्त हैं। तकलीफों में भी खुशियों की तलाश करते रमन अपनी पत्नी को अपनी सबसे अच्छी दोस्त मानते हैं। कलमकार से बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि वे अपनी पत्नी को गर्लफ्रेंड कहकर बुलाते हैं और दोनों अपने संसार में बेहद खुश और संतुष्ट हैं। श्रीमती को वाइफ कहने से उन्हें गुलाम वाली फीलिंग आती है। एक पत्नी ही तो होती है, जो पति के बहुत करीब होती है। उसके सम्मान में कभी कोई कमी करने की भूल नहीं करनी चाहिए। खुशमिजाज रमन ने अपने ऑटोरिक्शा में स्वामी शिवानंद की तस्वीर लगा रखी है। स्वामी शिवानंद वही महान हस्ती हैं, जिन्हें कुछ दिनों पूर्व देश के राष्ट्रपति के हस्ते पद्मश्री अलंकरण अर्पित किया गया था। 126 वर्षीय स्वामी ने युवकों जैसी फुर्ती के साथ चलते हुए जब सम्मान हासिल किया तो सभी दंग रह गये थे। उनका प्रधानमंत्री के समक्ष दण्डवत होना हमेशा याद रखा जाएगा। प्रतिदिन योग और प्राणायम करने वाले शिवानंद को जो भी देखता है, नतमस्तक हो जाता है। हर मौसम में सिर्फ एक धोती में रहने वाले उम्रदराज पद्मश्री स्वामी की तड़के तीन बजे से दिनचर्या शुरू हो जाती है। वे कभी भी बीमार नहीं पड़े। अपने सभी काम खुद करते हैं। बाल ब्रह्मचारी शिवानंद किशोर अवस्था से ही योग करते चले आ रहे हैं। स्कूल का उन्होंने मुंह नहीं देखा, लेकिन हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला अच्छी तरह से बोल लेते हैं। रमन के रिश्तेदार और जानने वाले ऑटो रिक्शा चलाने के कारण उनका मजाक उड़ाते हैं, लेकिन वे उसकी कतई परवाह नहीं करते। ऊपर वाले ने हर इंसान को जीने का एक मौका दिया है। उस मौके को गंवाने से बड़ी चूक और भूल कोई हो ही नहीं सकती। यह सच किताबों में ही नहीं, हमारे सामने भी है। यह जीते-जागते किरदार यदि हमें प्रेरित नहीं कर पाते तो हमारा जीना ही बेकार है।
    कई लोग घुट-घुट कर ऐसे जीते हैं, जैसे किसी जुर्म की सजा काट रहे हों। नारियों पर तो हजारों बंधन सर्वाविदित हैं, लेकिन हमारी इसी दुनिया में महानंदा जैसी बेटियां भी हैं, जो अपने मां-बाप को बेटे की कमी का अहसास ही नहीं होने देतीं। भारत देश के प्रदेश महाराष्ट्र का यवतमाल जिला किसानों की आत्महत्या के लिए बदनाम है। खुदकुशी कायरता की निशानी मानी जाती है। अपनी जान देने को विवश होने वालों की मजबूरियों की कम ही बात की जाती है, लेकिन यह भी सच है कि यदि उन्हें कोई सशक्त साथी और सहारा मिल जाए तो उनकी जान बच भी सकती है। गांव की माटी में जन्मी महानंदा ने जब देखा और जाना कि उसके इलाके में सिंचाई सुविधाओं के अभाव और कर्ज के चलते माटीपुत्रों को आत्महत्या करने की राह चुननी पड़ रही है तो उसने अपने परिवार का मजबूत सहारा बनने की ठान ली। यहां यह बताना भी जरूरी है कि अपने 75 वर्षीय वृद्ध पिता और 70 वर्षीय मां की यह देहातन बेटी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। दरअसल, मां-बाप की आर्थिक स्थिति अत्यंत कमजोर होने के कारण वह पढ़-लिख नहीं पायी। शादी भी हुई तो नकारा और शराबी पति मिला, जिससे निभने का सवाल ही नहीं था। सो अपने मायके वापस लौट आयी और खुद को बेटे की भूमिका में ढालते हुए खेती-बाड़ी में व्यस्त कर लिया। परिवार की बारह एकड़ की जमीन से कोई कमायी नहीं थी। उल्टे कर्ज का बोझ मां-बाप की नींद हराम किये रहता था। पिता ने तो खुदकुशी करने का भी मन बना लिया था। महानंदा ने खुद को खेती-बाड़ी में ऐसे रमा दिया, जैसे वह इसी के लिए पैदा हुई हो। गांव के पुरुष महानंदा को तपती गर्मी और कंपाकंपा देने वाली ठंड में जमीन जोतते देख हैरान रह जाते थे। खेत में बुआई, सिंचाई, कीटनाशक छिड़काव, वन्य प्राणियों से खेती की रक्षा के लिए रात-रात भर जागने का दायित्व इस जुनूनी युवती ने इस कर्मठता के साथ निभाया कि प्रतिवर्ष सात से आठ लाख रुपये की कमायी होने लगी। यह तो शुरू-शुरू के शुद्ध मुनाफे का आकड़ा है अब तो इसमें निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। महानंदा से कृषि के नवीनतम गुर सीखने के लिए आसपास के ही नहीं, दूर-दूर तक के किसान आते हैं। महानंदा के नवीनतम कृषि साधनों तथा कर्मठता से प्रेरित होकर हजारों किसानों के जीवन में खुशहाली आ रही है। कभी जो लोग उसका यह कहकर मजाक उड़ाते थे कि जिस खेती को करने में हट्टे-कट्टे पुरुषों के छक्के छूट जाते हैं, दिन-रात पसीना बहाने के बाद भी अक्सर निराशा ही हाथ लगती है वहां एक दुबली-पतली लड़की कौन से झंडे गाड़ पायेगी? कुछ दिन की तमाशेबाजी के बाद चुपचाप घर में बैठ जाएगी। आज वे सभी तंजबाज महानंदा की जुनूनी हिम्मत के किस्से सुनाते नहीं थकते।
    वैसे मजाक तो शीशपाल और निशा लांबा का भी लोग खूब उड़ाया करते थे। निशा और शीश पति-पत्नी हैं। देश के विख्यात पैरा एथलिट। अब तक 23 गरिमामय पदकों से नवाजे जा चुके हैं। शीशपाल तीन फीट दो इंच तो निशा तीन फीट 1 इंच के हैं। इतने छोटे कद के कारण गांव के लोग उन्हें छोटू और ठिग्गू कहकर चिढ़ाते थे। बच्चे तो उनके पीछे पड़ जाते थे। कद से बौने दोनों पति-पत्नी ने बहुत ऊंचा कर दिखाने की सोची, जिसे करने में बड़े-बड़ों के पसीने छूट जाते हैं और अंदर और बाहर की सारी हिम्मत जवाब दे जाती है। शीश और निशा ने सफल एथलिट बनने के लिए जब गांव में दौड़ लगानी प्रारंभ की तो इंसानों के साथ-साथ कुत्ते भी उनके पीछे पड़ गये। बीती 28 से 30 मार्च, 2022 को भुवनेश्वर में आयोजित पैरा एथलिटिक्स प्रतियोगिता में इस दंपत्ति ने आन, बान और शान के साथ भाग लिया। निशा ने डिस्कस थ्रो में एक गोल्ड व एक कांस्य पदक अपने नाम कर राजस्थान का नाम रोशन किया। 2022 में ही जयपुर में 11वीं पैरालिपिंक स्पर्धा में शॉटपुट व डिस्कस थ्रो में गोल्ड मेडल जीत चुकीं निशा 2018 में नेशनल प्रतियोगिता में डिस्कस थ्रो व शॉट पुल में ब्रांज मैडल जीत चुकी हैं। 2017 में उदयपुर में 8वीं स्टेट पैराओलिंपिक में शीशपाल ने शॉट पुट डिस्कस थ्रो व जैवलिन थ्रो में स्वर्ण पदक हासिल कर अपना लोहा मनवाया। वहीं निशा ने 100 एवं 200 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक प्राप्त कर उन लोगों की बोलती बंद कर दी, जो दोनों को उपेक्षित भाव से देखते थे और जीभर कर तिरस्कार करते थे।

Thursday, April 21, 2022

राजनीति का बुलडोजर

    कुछ हफ्तों पहले तक बुलडोजर का नाम सुनते ही भगवाधारी आदित्यनाथ योगी का चेहरा आंखों के सामने घूमने लगता था। अपने पहले कार्यकाल में भगवाधारी ने कई गुंडे, बदमाशों, बेलगाम माफियाओं, काले कारोबारियों की छाती तान कर खड़ी ऊंची-ऊंची इमारतों और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों पर जो अंधाधुंध बुलडोजर चलाया था वो आमजन को बहुत पसंद आया था। योगी ने यूपी में दूसरी बार सत्ता भी बुलडोजर का नाम जप-जप कर पायी है। उनके विरोधी जनता के मन में योगी और बुलडोजर के अंधे आतंक का खौफ पैदा कर वोट पाना चाहते थे, लेकिन उसमें वे नाकामयाब रहे। यूपी के वोटरों को बुलडोजर और योगी की जोड़ी में अपनी भलाई नज़र आयी, इसलिए उन्होंने फिर से पूरे ताम-झाम के साथ उनकी सरकार बनवायी। विधानसभा चुनाव के दौरान बुलडोजर के नाम पर सीना तान कर वोट मांगने वाले आदित्यनाथ ‘बुलडोजर बाबा’ की पदवी पाकर गद्गद् हैं। तभी तो दोबारा मुख्यमंत्री बनते ही पहले से ज्यादा तेजी के साथ बुलडोजर चलाते हुए उन्होंने अपने भावी इरादे स्पष्ट कर दिये हैं। आम और खास दोनों के अवैध अतिक्रमण धड़ाधड़ ढहाये जा रहे हैं। विवाद और आरोप तब भी लगे थे, अब भी लग रहे हैं। इस कलमकार के मन-मस्तिष्क के दरवाजे पर एक सवाल बार-बार ठक-ठक कर रहा है कि यह सभी अतिक्रमण, अवैध निर्माण रातोंरात तो खड़े नहीं किये गए होंगे?
    ‘बुलडोजर बाबा’ की देखादेखी देश के एक और प्रदेश मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी बुलडोजर से एकाएक भीषण यारी कर ली है और उनकी फुर्ती ने उन्हें ‘बुलडोजर मामा’ की पदवी दिलवा दी है। जब मुख्यमंत्री जोश में हो तो मंत्रियों और संत्रियों की भुजाएं खुद-ब-खुद फड़कने लगती हैं। किसी को भी धराशायी करने के लिए उन्हें बस इशारे का इंतजार रहता है। इसी बहाने अपने शत्रुओं को भी सबक सिखा दिया जाता है। व्यक्तिगत दुश्मनियां भुना ली जाती हैं। इस बार की रामनवमी की शोभायात्रा में देश के कई शहरों में हिंसा और आगजनी हुई। मध्यप्रदेश के शहर खरगोन में रामनवमी की चहकती खुशी पर चिंता और भय की चादर डाल दी गयी। उपद्रवियों ने ठान लिया कि प्रसन्नता, उत्साह और आपसी मेल-मिलाप की निर्मम हत्या करके ही दम लेना है। कई घर और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया। घरों के बाहर खड़े वाहन फूंक दिये गए। तलवारें, पत्थर, लाठी-डंडे और तरह-तरह के उत्तेजक नारे लहराये गये। नंगी हिंसा ने शहर के अमन-चैन की हत्या कर दी। अंतत: कर्फ्यू लगाना पड़ा और इस बीच गृहमंत्री ने चेतावनी के लहजे में यह कहने में देरी नहीं लगायी कि जिन घरों से पत्थर बरसाये गए, उन्हें पत्थरों में तब्दील करने में देरी नहीं लगायी जाएगी। उनका खुला इशारा कोई भी समझ सकता है। किसी एक धर्म के लोगों के त्योहार पर दूसरे धर्म के चंद लोगों का हमलावर होना यकीनन गलत है, लेकिन जिस तरह से खरगोन में कुछ विशेष धर्म के लोगों की दुकानों और घरों पर बुलडोजर चलाया गया वो इस कलमकार को न्याय से ओतप्रोत नहीं लगा। गरीबों को तो मजबूरी में अवैध झोपड़े तानने पड़ते हैं। इसके लिए भी उन्हें अपने इलाके के नेता, अफसर और गुंडों को तरह-तरह की रिश्वत देनी पड़ती है। धनबलियों और बाहुबलियों के सामने तो सत्ता और व्यवस्था हमेशा नतमस्तक रहती है। उनके पास रहने के एक नहीं कई ठिकाने होते हैं। उनके अवैध निर्माणों को धराशायी करने की मर्दानगी देश देखना चाहता है। यह सिलसिला कुछ प्रदेशों में नहीं, बल्कि पूरे देश में बना रहना चाहिए। इस शुभ कर्म के लिए किसी राजनीतिक रंजिश और दंगों की राह भी नहीं देखी जानी चाहिए।
    गरीबों के पास तो एक ही छत होती है, जिसमें बड़े भी रहते हैं और बच्चे भी। उनके कच्चे-पक्के घरों और रोजगार के ठिकानों को इतनी तेजी से नेस्तनाबूत करने के यही मायने हैं कि बुलडोजर चलाने तथा चलवाने वाले विवेक शून्य हैं। कानून नाम की कोई व्यवस्था है इस देश में? अवैध निर्माण के दौरान तब अंधे बने रहने वालों को ज़रा यह भी तो विचारना चाहिए कि भरी गर्मी में बेघर कर दिये गये गरीब भारतीय जाएंगे कहां, रहेंगे कहां? उन्हें वक्त तो दिया ही जाना चाहिए। उनकी बात को भी सुना और समझा ही जाना चाहिए। वे बताएंगे इस देश के नेता और शासन-प्रशासन किस कदर बिकाऊ हैं। इसी बिकाऊ व्यवस्था की जेबें भरकर ही उन्होंने अवैध निर्माण का अपराध किया है, इसलिए अकेले वही दोषी और अपराधी नहीं। पहले उन्हें सज़ा दो, जिन्होंने खुद को बाजार बनाया। इस सारे सच की तह में जाने पर बुलडोजर की जल्दबाजी और उसे चलाने और चलवाने वालों के गुनाह की किताब के पन्ने एक-एक कर खुलते चले जाएंगे। रामनवमी के दिन गुजरात, झारखंड, गोवा, पश्चिमी बंगाल में भी हिंसा हुई, लेकिन खरगोन में हुई पत्थरबाजी और तोड़फोड़ की घटनाओं को जिस कदर सुर्खियां मिलीं उनसे यह शंका भी बलवती हुई कि राजनीति भी अपना स्वार्थ साधने के खेल में पीछे नहीं है। इस कलम को यह कहने और मानने में संकोच नहीं कि बुलडोजर की माया का बखान कर जिस तरह फिर से योगी यूपी में अपना झंडा फहराने में कामयाब हुए हैं उसी इरादे और चाहत के साथ बुलडोजर मामा भी आगे बढ़ रहे हैं। गुजरात में भी बुलडोजर का ‘खेल’ दिखने लगा है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते चले जाएंगे उनके बुलडोजर की रफ्तार भी तेज होती चली जाएगी। कुछ लोगों को भी ऐसे विध्वंस देखने में मज़ा आता है और इस खेल के खिलाड़ियों के वोटों की फसल भी पकती चली जाती है। भविष्य में यह फसल कितनी विषैली साबित होगी, इसकी चिंता शासक और राजनेता न कल करते थे न आज करने को तैयार हैं। वो लोग भी सुधरने की मंशा नहीं रखते, जिनकी बस एक ही इच्छा है भारत दंगों की आग से जलता रहे। हर तरफ खून-खराबा होता रहे। रामनवमी के तुरंत बाद हनुमान जयंती की शोभायात्रा में भी तनाव पूर्ण वातावरण बनाया गया। वो भी उस दिल्ली में जो कि देश की राजधानी है। राजधानी के जहांगीरपुरी में शोभायात्रा के दौरान दो समुदायों के बीच हुई हिंसक झड़पों में आठ पुलिस वालों को भी घायल कर दिया गया। देश में धार्मिक आयोजनों और शोभायात्राओं की बड़ी पुरातन परंपरा है, लेकिन इन दिनों एकाएक इनमें विघ्न डालने के षड़यंत्र हो रहे हैं। हिंदू-मुसलमान के बीच दीवारें खड़ी करने के ताने-बाने बुने जा रहे हैं। देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचारी बड़े मजे में हैं। कानून के रखवालों की उनकी तरफ नज़र ही नहीं है। देश की जागृत जनता शासकों और प्रशासकों से चीख-चीख कर कह रही है कि जितनी तूफानी रफ्तार से अतिक्रमण ढहाये जाने का जोश है, उसी उत्साह से देश को खोखला करती बेइमानी, रिश्वतखोरी और दिन-ब-दिन ऊंचे होते भ्रष्टाचार के पहाड़ पर भी तो बुलडोजर चलाओ। हां, जुलूसों और शोभायात्राओं में लाठी, डंडे, तमंचे, पेट्रोल बम और बदनीयत का ज़हर लेकर चलने वालों पर भी जी-जान से पाबंदी लगाओ। सच्चे भक्तिभाव से निकाले जाने वाले जुलूसों पर पत्थर बरसाने वालों को बिना किसी राजनीति और भेदभाव के ऐसा सबक सिखाओ कि उनकी आनेवाली पीढ़ियां भी ऐसी भूल करने की जुर्रत न कर पाएं। देश के विख्यात साहित्यकार सागर खादीवाला की कविता की इन पंक्तियों को भी पढ़ो और समझो जिन्हें उन्होंने बहुत सोच-समझ और देखभाल कर लिखा है,

‘‘अभी तो...राजनीति का मदमस्त स्टेरिंग
जिधर मोड़ता है बुलडोजर उधर ही
मुड़ता है, उधर ही तोड़ता है।
जिस दिन बुलडोजर का रुख।
भ्रष्टाचार के महलों की तरफ।
मोड़ने वाला पैदा हो जाएगा,
उस दिन क्रांतिकारियों के लहू का
एक और कर्ज़ अदा हो जाएगा।’’

Thursday, April 14, 2022

दुष्टनीति-राजनीति

अपने देश के बुद्धिजीवी भी कम करतब नहीं दिखाते। कुछ तो नीचता पर ही उतर आते हैं। अपने यहां एक नामी शायर हैं, मुनव्वर राणा। उन जैसे कुछ और भी हैं, जो अपनी वर्षों की कमायी इज्जत की ऐसी-तैसी करने पर तुले हैं। कल तक जो मुनव्वर गजलों-गीतों के बादशाह कहलाते थे, आज फकीर बनकर रह गये हैं। उन्हें राजनीतिक दलों का मुंह ताकना पड़ रहा है, जिनके सीने में भी योगी और मोदी के सत्तासीन होने पर ईर्ष्या की आग धधक रही है। फिर भी राणा का कटोरा खाली का खाली है। उलटे फटकार और गालियां मिल रही हैं। उनकी रचित गज़लों की किताब ‘मां’ ने लाखों पाठक बनाये और अब बदजुबानी ने शत्रुओं की कतार खड़ी कर ली है। बात-बात पर राजनीति के गली-कूचों के चक्कर काट कर जिस-तिस को कोसने वाला गज़लकार भूल गया कि खुदा ने उसे कलम बख्शी है, जिससे वह अपनी बात देश-दुनिया तक पहुंचा सकते हैं, लेकिन अब उसे अपनी कलम पर ही भरोसा नहीं। उसे देश के लोकतंत्र पर भी भरोसा कम है। शायर जिन्हें चाहता है, वे ही सत्ता पाएं तो ठीक... बाकी सब गलत। स्वार्थ और नफरत में डूब चुके मुनव्वर ने अपनी पुरानी खुजली के चलते बैठे-बैठाये कह दिया था कि, यदि उत्तरप्रदेश में योगी फिर से सत्ता पर काबिज होंगे तो मैं यूपी ही छोड़कर चला जाऊंगा। इनकी लाख दुआओं और प्रार्थनाओं के बावजूद योगी की नैया तो नहीं डूबी, लेकिन इनकी बची-खुच्ची इज्जत की ऐसी-तैसी जरूर हो गयी। यूपी के चुनाव परिणाम आने के पश्चात लोगों ने उनसे पूछना प्रारंभ कर दिया कि शायर महाराज आप अपना वायदा कब पूरा करने जा रहे हैं? अगर आपके पास नोट-पानी न हों तो हम टिकट का इंतजाम करा देते हैं। नफरत के शोले उगलने वाले उपद्रवी कलमकार की तो बोलती ही बंद हो गयी है। दरअसल किसी के दिमाग खपाने और सोचने से कुछ नहीं होता। लोकतंत्र में वही होता है, जो जनता चाहती है।
    पटक दो। ठोक दो। नंगा कर दो। दबोच लो। इज्जत लूट लो। होश ठिकाने लगा दो। बदतमीजी करते चले जाओ। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसी सोच रखने वाले आजकल खूब उछल-कूद रहे हैं! नंगे भी हो रहे हैं। जो बलशाली हैं, कानून का पालन करने और करवाने की जिनकी जिम्मेदारी हैं वही कानून की तौहीन कर रहे हैं। लोकतंत्र का मज़ाक उड़ा और उड़वा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि उन्हें पता नहीं कि उनकी कारस्तानियां देश का सिर झुकाने का गुनाह कर रही हैं। उत्तरप्रदेश के शहर बरेली में कामरान नाम के मुस्लिम युवक को उसी के मोहल्ले के लोगों ने अंधाधुंध धुन कर लहुलूहान कर दिया। भारतीय जनता पार्टी के प्रशंसक कामरान ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राम तो यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को कृष्ण कहते हुए तारीफों के जो पुल बांधे वे कुछ कट्टरपंथियों को शूल की तरह चुभ गये और उन्होंने उसे घेर कर डंडे और लाठियों से मारा-पीटा, जिससे उसे अस्पताल पहुंचाने की नौबत आ गयी। कामरान से पहले उत्तरप्रदेश के कटघरही गांव के बाबर को तो उसी के पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों ने योगी की जीत पर मिठाई बांटने के अपराध में परलोक पहुंचा दिया था। 10 मार्च, 2022 को यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे आए थे, तब खुशी से फूले नहीं समाये बाबर ने गांव भर में मिठाई बंटवाई थी। तभी से कट्टरपंथी हिंसक सोच वाले लोगों का मुंह फूल गया था और उन्होंने उसके जीवन पर फुलस्टाप लगाने की ठान ली थी। बाबर की बर्बरता से पिटायी करने वालों में मुस्लिम महिलाएं भी शामिल थीं। बाबर ने खुद को बचाने की बहुतेरी कोशिश की। वह तो अपने घर की छत पर यह सोचकर जा चढ़ा था कि शातिर जुल्मी वहां तक पहुंचने का साहस नहीं करेंगे, लेकिन योगी और मोदी को अपना घोर शत्रु मानने वालों ने बिना कोई लिहाज किये उसे छत से नीचे ऐसे फेंका, जैसे वह कोई इंसान नहीं, बेकार का सामान हो। अस्पताल में लाख कोशिशों के बाद भी बाबर को बचाया नहीं जा सका। ईश्वर ने भी ईर्ष्यालू और नफरती शैतानों की मंशा पूरी कर दी! इन हत्यारों और शायर मुनव्वर राणा के बीच जो समानता है वह बारूद के ढेर जमा करने में लगी है। देख और सुनकर हैरत होती है कि नफरत, हिंसा और बदले की आग है कि बुझने का नाम ही नहीं ले रही है। सच लिखना, कहना और करना जैसे अक्षम्य अपराध होता चला जा रहा है। इन दिनों तो इस धधकती ज्वाला ने पद-पदवी की गरिमा और मान-मर्यादा को जला कर राख करने की अंधी कोशिशें शुरू कर दी हैं। पत्रकारों का काम तो आईना दिखाना और दबे-छिपे सच को सामने लाना है। उनका यही दायित्व उन्हें रास नहीं आता, जिनका काम ही भाई-भाई को आपस में लड़ाना और समाज में वैमनस्य का गंद फैलाना है। अराजक तत्वों, भष्टाचारियों, रिश्वतखोरों को सजग पत्रकारों से बड़ी चिढ़ है। भ्रष्ट नेताओं का बस चले तो एक-एक कर खात्मा कर दें। ईमानदार पत्रकार, संपादकों के पिटने और मौत के हवाले कर दिये जाने के समाचार अब आम हो गये हैं। इस हिंसक दुष्कृत्य में नेताओं, हत्यारों, गुंडे, बदमाशों का जब पुलिस साथ देने लगे तो मानिये न मानिये हर सजग भारतीय का खून खौल जाता है। यह सच अलग है कि वह खुद को असहाय पाता है, बिलकुल वैसे ही जैसे मध्यप्रदेश के सीधी में शांति भंग करने की आशंका के चलते यू-ट्यूबर और न्यूजनेशन के पत्रकार कनिष्क तिवारी और दस आरटीआई कार्यकर्ता और रंगकर्मियों को पुलिस ने जबरन जेल में डाल दिया। इतना ही नहीं उनके कपड़े भी उतरवा दिये। उनकी अर्धनग्न तस्वीरें भी धड़ाधड़ सोशल मीडिया में वायरल कर दीं। विधायक की दादागिरी के खिलाफ खड़े होने की सजा पाने वाले कनिष्क तिवारी की अखबार में छपी अर्धनग्न तस्वीर पर जब उनकी दस वर्षीय बेटी की नज़र पड़ी तो उसने पिता को अश्रुभरी निगाहों से देखते हुए पूछा, ‘पापा आपने ऐसा क्या कर डाला कि आपको वस्त्रहीन होना पड़ा?’ एक पिता... एक पत्रकार क्या जवाब देता! फिर भी उसने अपनी बिटिया को सबकुछ बता तो दिया, लेकिन बेटी शर्मिंदगी की उस काली स्याही में डूबी-डूबी रही, जो पड़ोसियों, रिश्तेदारों और सहेलियों ने सवाल पूछ-पूछ कर उसके मुंह पर पोती थी। जब पत्रकार और उनके साथियों की नग्न तस्वीरें सोशल मीडिया पर छायीं थीं तभी एक और वायरल फोटो ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा। इस वायरल फोटो में एक पुलिस कॉन्सटेबल, जिसका नाम नेत्रेश शर्मा है, वह एक बच्ची को जलते हुए घर से निकाल कर भागा चला जा रहा है। शर्मा की इस बहादुरी की सभी ने भरपूर तारीफ की। शर्मा ने कहा कि उन्होंने तो अपना फर्ज निभाया है। पुलिस मैन का यही तो काम है...। काश! भ्रष्ट और बिकाऊ खाकी वर्दी वाले नेत्रेश शर्मा से कुछ तो सीख ले पाते...।

Thursday, April 7, 2022

दहशत

    यह हमारे युग की सच्चाइयां हैं, जो दिन-ब-दिन और भयावह होती चली जा रही हैं। इंसान जन्म लेता है, पूरी उम्र, पूरी जिन्दगी जीने के लिए, लेकिन यह जो हो रहा है वह मुझे दिन-रात हैरान और परेशान किये है। पता नहीं कितनी और ऐसी मौतें देखनी हैं, जो नहीं होनी चाहिए थीं, लेकिन हो रही हैं। बार-बार हो रही हैं। इन भयावह, चिंताजनक मौतों को आत्महत्या का नाम दे दिया गया है। आत्महत्या... यानी अपनी हत्या अपने ही हाथों! आत्महत्याओं का यह सिलसिला पता नहीं कब से चला आ रहा है और यह सवाल भी सतत बना हुआ है कि क्यों... आखिर क्यों? बीते हफ्ते महाराष्ट्र के जिंदा दिल शहर नागपुर में बारहवी कक्षा के एक छात्र ने अपने घर में खिड़की से रस्सी बांधकर फांसी लगा ली। आत्महत्या करने से पहले उसने बाकायदा एक पत्र लिखा, ‘अब मेरी जीने की इच्छा नहीं रही। इसलिए मौत का दामन थाम रहा हूं।’ आदित्य नाम के इस लड़के की खुदकुशी ने उसके माता-पिता को जो सदमा दिया है, उससे वे जीते जी तो उबर ही नहीं पायेंगे। अपने बेटे का चेहरा उनकी आंखों के सामने ताउम्र घूमता रहेगा। आदित्य के मन में दसवीं के बाद भी फांसी के फंदे पर झूलने का विचार आया था, लेकिन तब उसने खुद को संभाल लिया था, लेकिन तभी से उसके मन-मस्तिष्क में अपनी जान लेने के विचार आते रहते थे। अपनों को उम्रभर का गम देकर इस दुनिया से चल बसे आदित्य ने अपने सुसाइट नोट में सभी से माफी मांगी है। घरवालों को संदेह है कि कम अंक मिलने के कारण उसने एकाएक मौत को गले लगाया है।
राजस्थान में दौसा जिले के लालपोट की रहने वाली डॉक्टर अर्चना शर्मा की आत्महत्या करने की वजह दिल दुखाने और उन दुष्टों पर गुस्सा दिलाने वाली है, जिनकी वजह से उन्हें यह आत्मघाती कदम उठाने को विवश होना पड़ा। डॉक्टर तो दूसरों की जान बचाने के लिए होते हैं। अर्चना शर्मा ने भी अपने निजी अस्पताल में आशा बैरवा की जान बचाने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी थी, लेकिन प्रसव के बाद हुई ब्लीडींग से उनकी मौत हो गई। देश और दुनिया के बड़े से बड़े अस्पतालों में इलाज के दौरान यदाकदा ऐसी मौतें होती रहती हैं, लेकिन डॉक्टरों को हत्यारा करार नहीं दे दिया जाता। उनको धमकाया-चमकाया नहीं जाता। जिस औरत की इलाज के दौरान मौत हुई उसके परिजनों ने इसे ईश्वर की मर्जी माना और अस्पताल द्वारा प्रदत्त एंबुलेंस से शव को घर ले आए थे। अंत्येष्टि की तैयारी की जा रही थी कि भाजपा के दो नेता वहां आ पहुंचे। वे अस्पताल से मुआवजा दिलाने की बात कहते हुए शव को फिर से अस्पताल ले आये। उनके साथ अच्छी-खासी भीड़ भी थी। उन लोगों ने शव को अस्पताल के बाहर रखकर नारे लगाने प्रारंभ कर दिये, ‘डॉक्टर को गिरफ्तार करो। हत्या का मामला दर्ज करो। अस्पताल पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले लगवा दो।’ तीव्र नारे बाजी के साथ-साथ डॉक्टर अर्चना शर्मा और उनके पति को गंदी-गंदी गालियां भी दी जाती रहीं। पुलिस वाले मूकदर्शक बन गुंडेनुमा नेताओं का सुनियोजित खेल देखते रहे। ब्लैकमेलरों की दादागिरी चलती रही। कोई कुछ नहीं बोला। हैरानी की बात तो यह रही कि जिस महिला मरीज की मौत हुई उसके पति ने किसी भी तरह की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज नहीं करवायी। वह तो अदना-सा श्रमिक है, जो लिखना तक नहीं जानता। भीड़ के शातिर, चालाक और लुटेरे चेहरों ने जबरन कागज पर हस्ताक्षर करवा लिए। अंतत: धूर्त नेता और उनके कपटी चेले-चपाटे पुलिस पर दबाव बनाने में सफल रहे, जिससे पुलिस ने भी सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन की अनदेखी कर गायकोलॉजिस्ट डॉ. अर्चना शर्मा के खिलाफ धारा 302 (हत्या) के तहत मुकदमा दर्ज करने में अभूतपूर्व फुर्ती दिखायी। बिक चुकी खाकी वर्दी, लुंजपुंज कानून व्यवस्था तथा बद और बदमाश नेताओं ने एक होनहार डॉक्टर को इस कदर भयभीत कर दिया कि वह डिप्रेशन में चली गई। उन्होंने कभी भी ऐसे अपमान और तमाशे की कल्पना नहीं की थी। उनके मन में बस यही विचार आते रहे कि अब तो उनकी डॉक्टरी पर कलंक लग गया है। वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दिया गया है। उनके कारण पति और बच्चों को भी अपराधी समझा जा रहा है। वह खुद तो हत्यारी घोषित की ही जा चुकी हैं, ऐसे में जीना किस काम का! बुरी तरह आहत डॉक्टर अर्चना शर्मा ने मौत का दामन थामने से पहले एक पत्र लिखा, ‘मैं अपने पति और बच्चों से बहुत प्यार करती हूं। प्लीज मेरे मरने के बाद इन्हें परेशान नहीं करना। मैंने कोई गलती नहीं की, किसी को नहीं मारा। मैंने इलाज में कोई कमी नहीं की। डॉक्टर को इतना प्रताड़ित करना बंद करो। मेरा मरना शायद मेरी बेगुनाही साबित कर दे। डोंट हैरेस इनोसेंट डॉक्टर्स प्लीज।’ यह कितनी शर्मनाक और कायराना हकीकत है कि जब नेता, गुंडे, ब्लैकमेलर डॉक्टर अर्चना शर्मा के अस्पताल को घेरे खड़े थे, तब किसी ने उनकी खबर नहीं ली। कोई साथ नहीं खड़ा हुआ। किसी की जुबान नहीं खुली, लेकिन जब वह चल बसीं तो सभी हमदर्द बन गये। सड़कों पर उतरकर शैतानों के खिलाफ नारेबाजी करने लगे!
    डॉक्टर अर्चना की खुदकुशी के चंद रोज बाद ही नागपुर की आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा आर्या ने फांसी लगा ली। मात्र 13 साल की इस बच्ची की जब नोटबुक खंगाली गई तो उसमें जगह-जगह ‘आई लव यू डेथ’, मुझे मौत से प्यार है, मुझे मरना अच्छा लगता है, जैसी नकारात्मक सोच वाली बातें लिखी मिलीं। स्कूल से लौटने के बाद लड़की ने यह आत्मघाती राह चुनी। सुसाइड नोट में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर दुनिया को सदा-सदा के लिए छोड़कर चल दी लड़की के मां-बाप और भाई उसकी आत्महत्या की वजह से अनजान और हतप्रभ हैं! लेकिन, हतप्रभ कर देने वाली बात यह भी है कि लड़की लगातार अपनी नोट बुक्स में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर इशारा करती रही और मां-बाप अनजान रहे! उसे समझाया-बुझाया नहीं!! इसी तरह से आदित्य पहले भी खुदकुशी की राह पर जाने के संकेत दे चुका था, लेकिन किसी ने भी उसका मानसिक उपचार नही कराया।
    जब जिन्दगी अच्छी नहीं चल रही होती तो इंसान का विचलित और परेशान हो जाना स्वाभाविक है। यह भी सच है कि आदमी मौत से ही नहीं बात से भी मरता है, लेकिन वह यह क्यों भूल जाता है कि लोगों का तो काम ही है मीन-मेख निकालना। अच्छाइयों को नजरअंदाज कर कमियों और बुराइयों के ढोल पीटना। मरना तो एक न एक दिन हर किसी को है, लेकिन किन्हीं भी हालातों में तथा किसी भी उम्र में की गयी खुदकुशी उन्हें अथाह पीड़ा और बदनामी की सौगात दे देती हैं, जिन्हें उम्र भर के लिए रोने-बिलखने के लिए छोड़ दिया जाता है।