Thursday, July 31, 2014

दंगों के असली दोषी

एकाध बार की बात होती तो अखिलेश माफी के हकदार भी हो जाते। पर यहां तो सिलसिला सा चल पडा है दंगों का। दंगे भी ऐसे कि जिनकी गूंज विदेशों तक सुनी-सुनायी जाने लगी है। उत्तरप्रदेश के मुखिया की बेफिक्री समझ से बाहर है। जिस युवक पर प्रदेश की जनता ने भरपूर भरोसा किया उसी ने उन्हें निराश और आहत करने में कोई कसर नहीं छोडी है। सहारनपुर में हुए दंगे ने प्रदेश और देश की जनता को यह संदेश तो दे ही दिया है कि खोखले समाजवादी मुलायम सिंह यादव के लाडले के राज में अमन-चैन के दुश्मनों के हौसले बुलंद हो चुके हैं। उन्हें किसी का भय नहीं। साम्प्रदायिक दंगों को हवा देने वाले चेहरे काफी जाने पहचाने हैं। फिर भी कानून के फंदे से दूर हैं। निर्दोषों की लाशें बिछ रही हैं। खून बह रहा है। करोडों-अरबों की सम्पतियां खाक हो रही हैं। इन सबके बीच प्रदेश के लोग जबरदस्त खौफ के साये में किसी तरह से जी रहे हैं।
दंगे के कारण चर्चा में आया शहर सहारनपुर कौमी एकता और अमन चैन का प्रतीक रहा है। इस आदर्श नगरी के चेहरे पर साम्प्रदायिक दंगे का जो दाग लगा है उसका मिट पाना आसान नहीं है। यह कितनी आश्चर्यजनक हकीकत है कि स्थानीय प्रशासन गुरुद्वारे और कब्रिस्तान की जमीन को लेकर चले आ रहे मनमुटाव और विवाद से पूरी तरह से परिचित था फिर भी उसने अपनी आंखें बंद रखीं। सतर्कता बरतने की जरा भी कोशिश नहीं की। हिंसक तत्व ताक में थे। उन्होंने मौका पाते ही अपने मंसूबों को अंजाम दे दिया। उनका हौसला तो देखिए... उन्होंने पुलिस थानों के साथ-साथ दमकल विभाग के कार्यालय को भी फूंक डाला। तय है कि उन्हें कानून और कानून के रखवालों का कोई खौफ नहीं था। इस बार समाजवादी पार्टी का उत्तरप्रदेश की सत्ता में आना जनता को बडा भारी पडा है। युवा मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव जिस तरह से असफल साबित हुए हैं उससे तो अब जनता उन युवाओं पर भी यकीन नहीं करेगी जो राजनीति के क्षेत्र में कुछ कर दिखाना चाहते हैं। अखिलेश ने जब से सत्ता संभाली है तभी से लगभग हर महीने किसी न किसी जिले में हुए साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा की घटनाओं ने लोगों की नींद उडायी है। मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई चिंता और पीडा की लकीरें नजर नहीं आतीं। वे अपने पिता की तरह खुद को निर्दोष दर्शाने की लफ्फाजी में लगे रहते हैं। उनके मंत्रियों के भी यही हाल हैं। सब अपने में मस्त हैं। उन्हें पता है कि अब अगली बार उनकी पार्टी के हाथ में सत्ता नहीं आने वाली। ढाई साल कट गये हैं। बाकी बचे ढाई साल भी जैसे-तैसे कट जाएंगे। ऐसे में दुनिया भर की परेशानियां क्यों मोल ली जाएं और अपना सिरदर्द बढाया जाए। ऐसे स्वार्थी और नकारा नेताओं की वजह से यूपी में देखते ही देखते २०१३ में साम्प्रदायिक हिंसा की २४७ घटनाएं घट गयीं फिर भी चैन की बंसियां बजती रहीं। २०१४ में भी अखिलेश का प्रदेश सर्वाधिक दंगों वाला प्रदेश बनकर सुर्खियां बटोरने का कीर्तिमान रच रहा है। इन दंगों पर चिंतित और शर्मिंदा होने के बजाय उत्तरप्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खां यह कहने से नहीं लज्जाये कि प्रदेश में होने वाले सभी दंगों की योजना नागपुर में बनती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर काल्पनिक आरोप लगाकर मंत्री महोदय सचाई को दफन करना चाहते हैं। ज्ञात रहे कि नागपुर में संघ का मुख्यालय है। अगर संघ की ऐसी ही फितरत होती तो महाराष्ट्र की उपराजधानी तो दंगों का गढ बन जाती। लेकिन ऐसा नहीं है। देश के मध्य में बसा नागपुर शहर साम्प्रदायिक सोहार्द की जीती-जागती मिसाल है।
कुछ नेता युपी की फिज़ा को बिगाडने में प्रमुख भूमिका निभाते चले आ रहे हैं। इनमें भाजपा के भी कुछ जाने-पहचाने संगीत सोम सरीखे चेहरे शामिल हैं। दरअसल अपने-अपने वोट बैंक के लिए भेदभाव का जो खेल खेला जाता है उसी की वजह से साम्प्रदायिक दंगे उफान पर आ जाते हैं। शासकों के दबाव में पुलिसिया कार्रवाई में भी ऐसे ही भेदभाव की नीति अपनायी जाती है। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह  की राजनीति ही आजम खां और अबू आजमी जैसे आपसी वैमनस्य को बढावा देने वाले बददिमागों की बदौलत चलती है। उन्हें लगता है कि ऐसे बदनाम चेहरे उनकी पार्टी के आधारस्तंभ हैं। इन्हें देखकर ही मुस्लिम मतदाता समाजवादी पार्टी की ओर आकर्षित होते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि मुसलमान भी इनकी असलियत से वाकिफ हो चुके हैं। वे जान गये हैं कि यह शातिर नेता चुनाव जीतने और मंत्री बनने के लिए मुसलमानों को अपना मोहरा बनाते हैं। उनके भले के लिए इन्होंने कभी कोई काम नहीं किया। सिवाय भडकाने और सडक पर लाने के। यह बात भी गौर करने के लायक हैं कि जब भी उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनती है तो एकाएक दंगे-फसाद बढ जाते हैं। समाजवादी गुंडे शासन और प्रशासन पर हावी हो जाते हैं। साम्प्रदायिक दंगो, हिंसा और बलात्कारो की बाढ-सी आ जाती है। आम जनता त्राही-त्राही करने लगती है। पिता मुलायम सिंह हों या पुत्र अखिलेश मीडिया को ही दोषी ठहराने के अभियान में लगे रहते हैं। उन्हें अपनी बेवकूफियां, कमियां और गलतियां नजर ही नहीं आतीं। खैर अब तो भविष्य में न बाप की दाल गलने वाली है और न ही बेटे की। प्रदेश की जनता उन्हें किसी भी हालत में नहीं चुनने वाली। उन्हें एक-एक वोट के लिए तरसना पडेगा। इसलिए दोनों को राजनीतिक बनवास भोगने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

Thursday, July 24, 2014

ऐसे कैसे चल पायेगा देश?

बैंकों का कर्जा न चुका पाने के कारण इस देश के किसानों को आत्महत्याएं करनी पडती हैं। यह खबरें कितने देशवासियों को चौंकाती हैं? इसका जवाब यही है कि ज्यादातर लोगों पर इनका कोई असर नहीं पडता। खबर पढी, सुनी और भूल गये। बलात्कार और भ्रष्टाचार की खबरों की तरह ही किसानों की आत्महत्याओं को भी रोजमर्रा का रोग माना जाने लगा है। कहीं कोई गुस्सा नहीं फूटता। संवेदना नहीं जागती। बस यही मान लिया जाता है कि यह एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज है। किसी भी वैद्य के पास इसका इलाज नहीं है। ऐसे में लगातार होने वाली मौतों पर माथापच्ची किस लिए। जिनको बेमौत मरना है, वे तो मरेगे ही। हम क्यों परेशान हों? ...यह काम तो उनके रिश्तेदारों और करीबियों का है। हमारे सामने अपनी तकलीफें कम हैं जो दूसरों के लिए मातम मनाते रहें। यही है लगभग सभी की सोच। जब कभी खुद पर आती है तो दिन में तारे दिखने लगते हैं। नहीं तो एक कान से सुनो-सुनाओ और फिर अपनी मस्ती में डूब जाओ।
ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि किसान ने कर्ज लिया हो और फिर उसे यहां-वहां गुलछर्रे उडाकर फूंक दिया हो। वह तो खेती में ही सारे कर्ज के धन को लगाता है, लेकिन कभी बरसात धोखा दे जाती है तो कभी उसे अपनी फसल के उतने दाम नहीं मिल पाते कि जिनसे वह बैंको का कर्जा चुका सके। भारतीय किसान की इस बेबसी, मजबूरी और बदनसीबी पर हुक्मरानों ने कभी गंभीरता से चिंतन-मनन करने की कोशिश ही नहीं की। दुनिया भर में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां किसान आत्महत्या करने को विवश होते हैं। चालाक व्यापारियों, उद्योगपतियों के प्रति अपार सहृदयता दिखाने वाले बैंक किसानों के मामले में उदारता दिखाने में बडी कंजूसी करते हैं। जबकि किसानों की कभी भी कर्ज को डूबाने और पचाने की मानसिकता नहीं होती। देश के आम आदमी को भी बैंकों से आसानी से लोन नहीं मिलता। यदि कहीं मिल भी जाए तो भुगतान में नाम मात्र की देरी होने पर उस पर वसूली का ऐसा डंडा चलाया जाता है कि जैसे उसके कहीं दूर भाग जाने का खतरा हो। कुछ लाख रुपये का ऋण लेने वालों पर दबंगई और तानाशाही दिखाने वाले बैंकों की एक तस्वीर और भी है। गरीबों के इसी मुल्क में जाने-माने रईसों पर विभिन्न बैंकों का ५४,००० करोड बकाया हैं। वैसे तो देशभर के धनपतियों ने बैंकों का इतना धन दबा रखा है जिससे देश का कायाकल्प हो सकता है। इस कर्जे को वसूलने के लिए बैंकों के पास कोई कारगर योजना नहीं है। धनासेठों से कर्ज की वसूली करने में अधिकारियों के पसीने छूट जाते हैं। फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। कर्जदार साहूकार पर हावी हो जाते हैं। यह कोई छोटे-मोटे कर्जदार नहीं हैं। यह बडे-बडे उद्योगपति हैं। इनके कई कारखाने और कंपनियां चलती हैं। यह सत्ता के गलियारों में अच्छी खासी दखल रखते हैं। यह आसमान पर उडते हैं। बडे-बडे मंत्रियों, राजनेताओं, मीडिया के दिग्गजों और शासकों  के बीच इनका उठना-बैठना है। अरबो-खरबों का कर्जा होने के बावजूद भी इन्हें हर जगह सम्मान मिलता है। पूछ-परख होती है। यह हकीकत भी बेहद चौंकाने वाली है कि १० करोड या इससे अधिक का कर्ज जानबूझकर नहीं चुकाने वाली कंपनियों की संख्या हजार से ज्यादा है। जिनमें किंगफिशर, लैंको मदाकिनी, हैड्रो एनर्जी, सुजान ग्रुप, प्रोग्रेसिव कंस्ट्रक्शन, वायसराय होटल्स, रिजेंसी सिरामिक्स, नवभारत इंटरनेशनल, एस. कुमार्स नेशनवाइड लिमिटेड और डेक्कन क्रोनिकल जैसे बडे नाम शामिल हैं। इन कंपनियों के मालिक अगर चाहें तो चुटकियों में कर्ज की अदायगी कर सकते हैं। पर इनकी नीयत को लकवा मार चुका है। इनका एकमात्र इरादा ही बैंको की रकम को पचा जाने का है। इन सबकी फितरत एक जैसी है। किंग फिशर के मालिक विजय माल्या के नाम से कौन वाकिफ नहीं है। शराब के सबसे बडे कारोबारी हैं। खुद के उडने के लिए हवाई जहाज भी हैं। यानी उनके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। बस नीयत में ही खोट है। यह महाशय हसीनाओं के नाच गाने पर करोडों फूंक देते हैं। इनकी रंगीन महफिलों में क्या कुछ नहीं होता। लाखों अय्याशों की अय्याशी इनके सामने फीकी पड जाती है। इनकी अय्याशियों का खामियाजा देश के करोडों लोगों को भुगतना पड रहा है। धन के अभाव में सरकार कई जनहितकारी योजनाएं लागू ही नहीं कर पाती और यह लोग धन से खेल रहे हैं। देश के जाने-माने समाजवादी, प्रखर चिंतक रघु ठाकुर गलत नहीं कहते कि इस देश में इतना धन है कि विदेशों का मुंह ताकने की कोई जरूरत ही नहीं है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने २० लाख करोड की विदेशी पूंजी निवेश का लक्ष्य रखा है। विदेशी निवेश के मायने हैं अपनी गोपनीयता दांव पर लगाना और विदेशों की जी हजूरी। विदेशियों के सामने भीख का कटोरा थामे सिर झुकाकर नतमस्तक हो जाना। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश की यह कैसी मजबूरी! कहां गया हमारा स्वाभिमान! जब चीन अपने देश का विकास अपनी खुद की पूंजी से कर सकता है तो हम क्यों नहीं? इसलिए कि हमें गुलामी में मज़ा आता है, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने का सरकार में दम नहीं और इस देश के नेता और अफसर बेईमानी में किसी से कम नहीं? इस रकम को देश से जुटाया जा सकता है। देश के उद्योगपतियों पर जो १९ लाख करोड का कर्ज बकाया है उसी की कडाई से वसूली की जाए, तो तय है कि विदेशी निवेश की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अभी तक का यही रिकॉर्ड रहा है कि सरकारें अमीरों के सामने झुकती रही हैं। इस देश के अमीर शासकों से अंधाधुंध लाभ तो पाते हैं, लेकिन अपनी कमायी विदेशी बैंकों में जमा कर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। चुनावी राजनीति के जानकार तो मोदी सरकार पर उद्योगपतियों की थैलियों की बदौलत चुनाव जीतने और सत्ता पाने का आरोप लगाते नहीं थकते। ऐसे में उनसे कैसे बदलाव की उम्मीद की जाए?

Thursday, July 17, 2014

उम्रदराज पत्रकार की होशियारी!

दूसरों पर निशाना साधने वाले जब खुद निशाने पर आते हैं तो उनकी हालत देखते बनती है। देश के मीडिया के कुछ ऐसे ही हाल हैं। नेताओं की तरह पत्रकारों को भी खुलेआम गालियां दी जाने लगी हैं। कटघरे में खडा किया जाने लगा है। वो दिन अब शायद ही वापस आएं जब सभी पत्रकारों का मान-सम्मान होता था। अदब से सर झुक जाया करते थे। कुछ पत्रकारों की गलतियों, खामियों, कमियों और कमजोरियों का खामियाजा पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी को भुगतना पड रहा है। दरअसल, खरी और सही खबरें पहुंचाने का दावा करने वाले कई पत्रकारों की पोल खुल चुकी है। उनकी निष्पक्षता और निर्भीकता के दावों के परखच्चे उड चुके हैं। वे पत्रकार हैं या दलाल, फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। इस किस्म के पत्रकार मौकापरस्त नेताओं और भ्रष्ट पुलिस वालों के रंग में रंग चुके हैं। सत्ताधीशों के साथ अपनी नजदिकियों का ढिंढोरा पीटने में उन्हें फख्र महसूस होता है। उनकी शामें सत्ता के दलालों और ऊंचे दर्जे के अपराधियों के साथ बीतती हैं। उनका संदिग्ध चाल-चलन उन्हें चर्चा में लाता रहता है। इससे उन्हें सुखद अनुभूति होती है। हमने कई नामी-गिरामी पत्रकारों के मुखौटे तार-तार होते देखे हैं। इस तथ्य को भी पुख्ता होते देखा है कि पत्रकारिता को कलंकित करने वालों का एक तयशुदा मकसद था जिसे मौका पाते ही उन्होंने पूरा कर लिया।
देश और प्रदेशों के अधिकांश बडे पत्रकारों का किसी न किसी राजनीतिक दल और राजनेता से जुडाव स्पष्ट दिखायी देता है। पूंजीपति अखबार मालिक भी राजनेताओं की चौखट पर नाक रगडने में अपनी शान समझते हैं। पत्रकारों को अगर इस विषय में कटघरे में खडा किया जाता है तो उनका सपाट जवाब होता है कि हम जिन मालिकों का नमक खाते हैं उनकी नहीं सुनेंगे तो किसकी सुनेंगे। स्वतंत्र पत्रकारों में भी चंद ऐसे चेहरे हैं जो वाकई स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। उनका किसी से लगाव और जुडाव नहीं होता। वे सत्ता के गलियारों में भीख के कटोरे लिए भटकते नजर नहीं आते। ऐसे कुछ गिने-चुने पत्रकार ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को धराशायी होने से बचाए हुए हैं। सजग पाठक उनकी निष्पक्षता और निर्भीकता की मिसालें देते नहीं थकते। पर उन महान अखबारीलालों को किस श्रेणी में रखा जाए जो स्वतंत्र पत्रकार कहलाते हैं, लेकिन इस-उस राजनीतिक पार्टी और तथाकथित महान आत्माओं की चरणवंदना करते नजर आते हैं। डॉ. वेद प्रकाश वैदिक देश के एक उम्रदराज पत्रकार हैं। पिछले दिनों उन्होंने पाकिस्तान की यात्रा के दौरान मोस्ट वांटेड कट्टरपंथी नेता हाफिज सईद से मुलाकात की तो देश की राजनीति और पत्रकारिता के क्षेत्र हंगामा-सा बरपा हो गया। किसी पत्रकार की किसी उग्रवादी से मिलने की यह कोई पहली और अजूबी बात नहीं है। पत्रकार किसी से भी मिलने के लिए स्वतंत्र होता है। पत्रकारिता के इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि जब भी सजग पत्रकार नक्सलियों, विद्रोहियों, आतंकियों और बागियों से मिले हैं तो कोई न कोई बडा खुलासा भी हुआ है। लोगों को उस दबे-छिपे सच से रूबरू कराया गया है... जो शायद ही कभी सामने आ पाता। असंख्य निर्दोषों का खून बहाने वाले लिट्टे चीफ प्रभाकरण से देश की महिला पत्रकार अनीता प्रताप ने उसके गढ जाफना में जाकर मुलाकात की थी। तब सारी दुनिया में उनकी पत्रकारिता की तारीफ की गयी थी। क्रुर हत्यारे वीरप्पन से भी शिवगोपाल नामक पत्रकार दुर्गम जंगलों को पार कर जब-तब मिल लिया करता था। चम्बल के कई दुर्दांत डकैतों से भी सजग पत्रकारों का मिलना और उनके साक्षात्कार लेने का लंबा सिलसिला रहा है। घने जंगलों में लुक-छिपकर रहने वाले खूंखार नक्सलियों तथा सात समंदर पार डेरा जमाये खूनी हत्यारे माफियाओं से भी कुछ पत्रकारों का मिलना-जुलना रहा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि जिन मोस्ट वांटेड अपराधियों तक पुलिस नहीं पहुंच पाती, पत्रकार आसानी से पहुंच जाते हैं, सरकारें भी सिर्फ अनुमान लगाती रह जाती हैं। यह भी सच है कि अपराधियों और आतंकियों से मिलकर उनका पक्ष जानने वाले अधिकांश पत्रकारों ने कभी भी सच को छुपाने और दबाने की कोशिश नहीं की। हां इतिहास में जे.डे कुछ पत्रकारों का नाम भी दर्ज है जिन्होंने सनसनी खबरों के चक्कर में विदेशों में रह रहे दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन जैसे कुख्यातों से करीबियां बनायीं और अंतत: उन्हीं के किसी साथी की गोलियों का शिकार बने। यह भी हैरत की बात है कि भारी तकलीफें और जोखिम उठाकर मानवता के शत्रुओं की खबरें लाने वाले पत्रकारों को भी कई बार शासन-प्रशासन द्वारा शंका की निगाह से देखा जाता है। आतंकवादियों, नक्सलियों और माओवादियों के प्रति सहानुभूति दर्शाने और उनका महिमा मंडन करने वाले पत्रकार यकीनन सज़ा और दुत्कार के हकदार हैं, लेकिन वो नहीं जो ईमानदारी से पत्रकारिता करते हैं। पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक ने अपनी पाकिस्तान की यात्रा के दौरान आतंकवादी हाफिज सईद का लम्बा साक्षात्कार लेने के बाद उसे प्रकाशित करवाने में जो लेट-लतीफी दिखायी उसी ने उनकी छवि को मटियामेट करके रख दिया। योगगुरू बाबा रामदेव को राजनीति का पाठ पढाने वाले वैदिक जब लोगों के निशाने पर आये तो तरह-तरह की बातें करते दिखे। विपक्षी दलों के नेताओं के द्वारा उन पर प्रधानमंत्री का दूत बनकर जाने के आरोपों की झडी लग गयी। हालांकि उन्होंने इससे इंकार किया। लेकिन कई सवाल अभी जवाब के इंतजार में हैं। हाफिज सईद उस मुंबई ब्लास्ट का मुख्य आरोपी है जिसके कारण सैकडों लोगों की जानें गयी थीं और हजारों घायल हुए थे। भारत का यह मोस्ट वांटेड अपराधी संसद पर हमले के लिए भी जिम्मेदार है। यह दरिंदा हिन्दुस्तान में सतत आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देता रहता है। ऐसे देश के दुश्मन से वैदिक के मिलने और साक्षात्कार लेने के क्या मायने हैं? सवाल तो होंगे ही। वैदिक लाख बडे पत्रकार हों, लेकिन राष्ट्र से बढकर तो कोई भी नहीं हो सकता।

Thursday, July 10, 2014

कौन सही, कौन गलत?

देश की राजधानी दिल्ली से लगा हुआ है गुडगांव। फिर भी इस शहर की अपनी एक खास पहचान है। पुणे, बेंगलुरू की तर्ज पर फलता-फूलता गुडगांव आधुनिकता के मामले में दिल्ली को पीछे छोडता दिखायी देता है। यहां उन तमाम सुख-सुविधाओं के रास्तों और साधनों की भरमार है जिनके लिए मनोरंजन प्रेमी लालायित रहते हैं। शाम के ढलते ही आलीशान होटलों में शराब और शबाब की मदमस्त महफिलें सजने लगती हैं, जिनका सिलसिला आधी रात के बाद तक चलता रहता है। मायानगरी मुंबई की तर्ज पर रात के आगोश में समाकर रंगरेलियां मनाने की चाहत इस शहर के मस्तीखोरों रईसों को कहां-कहां नहीं भटकाती। डिस्कोथेक और पबो में वासना के समंदर में गोते लगाते लडके-लडकियों के साथ-साथ पता नहीं और भी किन-किनका हुजूम गिरता-पडता और चिपकता रहता है। शराब तथा अन्य नशों की इंतेहा इतनी कि लगभग सबके होश गुम नजर आते हैं। अंदर जोडे बहक रहे होते हैं और बाहर इंतजार करते बेसब्रों की भीड नज़र आती है। अय्याशी के इन मयखानों में जोडों को ही प्रवेश दिया जाता है। जो अकेले होते हैं उनके लिए भी व्यवस्था हो जाती है। पबों के बाहर खूबसूरत युवतियां साथ देने के लिए तैयार रहती हैं। अपनी रातें रंगीन करने वाले उन्हें उनकी कीमत अदा कर अंदर ले जाते हैं और मौजमस्ती की जबरदस्त धमाचौकडी मचाते हैं। यह बिकाऊ लडकियां आसमान से नहीं टपकतीं। इनका किसी एक जाति और धर्म से भी ताल्लुक नहीं होता। डिस्कोथेक और पब के अंधेरे में अनजान बाहों में समा जाना इनका धंधा है। कुछ को शारीरिक मनोरंजन की चाह यहां खींच लाती है तो कुछ को अपनी कोई न कोई मजबूरी। लेकिन हर युवती का हश्र लगभग एक जैसा ही होता है। पतन के गर्त में समाने के साथ-साथ बदनामी हर किसी के हिस्से में आती है। जिसकी शर्मिंदगी उनके चेहरे पर तो दिखायी नहीं देती, लेकिन अंदर ही अंदर घुलने और टूटने का सिलसिला बना रहता है। वासना के दलदल में डूबे नौजवान और अधेड रात गयी, बात गयी की तर्ज पर इस खेल को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते। उन्हें तो हर रात नयी खूबसूरती की तलाश रहती है। शराब, बीयर और नये-नये मादक पदार्थों के नशों की धुन में लडखडाए लडकियों के कदम बहकते ही चले जाते हैं। एक ही रात के खेल में बरबादी और तबाही के रास्ते खुल जाते हैं। जिन पर चलना जरूरी और मजबूरी हो जाता है।
तेजी से तरक्की करते गुडगांव की पहाड कॉलोनी के लोगों की चिन्ता और परेशानी काबिलेगौर है। इस कॉलोनी में पिछले २५ वर्षों से देह व्यापार उफान पर है। मोहल्ले के सज्जनों की शिकायत है कि यहां पर एक जाति विशेष की महिलाएं बेखौफ होकर वेश्यावृति करती हैं। उनपर किसी के रोकने-टोकने का कोई असर नहीं प‹डता। इन महिलाओं के विरोध में महापंचायतें भी हुर्इं, लेकिन उनका धंधा जस का तस है। इन वेश्याओं के यहां हर उम्र के ग्राहकों का आना-जाना सतत बना रहता है। घरों में ही शराबखोरी होती है, महफिलें सजती हैं और जिस्म का धंधा होता है। इस गंदे धंधे के कारण शरीफों का जीना मुहाल हो गया है। यह कॉलोनी इतनी अधिक बदनाम हो चुकी है कि आसपास के इलाके के लोग इधर ताकने से भी कतराते हैं। दरअसल, इस कॉलोनी के सभी लोगों को शक की नजर से देखा जाता है। अच्छे घरों की बहन, बहू, बेटियों का बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। यानी गेहूं के साथ-साथ घुन भी पिस रहा है। यहां के युवक-युवतियों के लिए रिश्ते आने भी बंद हो गये हैं। उन पर उम्रभर के लिए कुंआरा रहने का खतरा मंडराने लगा है। गोवा इंडिया का सिंगापुर, पटाया, हांगकांग, थाईलैंड आदि आदि है, जहां पर्यटकों को मनचाहा आनंद और सुकून मिलता है। यहां के समुद्री तटों और दर्शनीय ऐतिहासिक स्थलों को निकट से देखने के लिए देश और विदेश के सैलानी बडी संख्या में आते हैं। यह भी सच है कि गोवा देश के सैलानियों की तुलना में विदेशियों को ज्यादा लुभाता है। यहां के तटों पर विदेशी सुंदरियां लगभग नंग-धडंग देखी जाती हैं। विदेशियों की यही संस्कृति है। इसी से उन्हें आनंद मिलता है। विदेशियों का अनुसरण करने के मामले भारतीय कभी पीछे नहीं रहते। अभी हाल ही में गोवा सरकार के एक मंत्री ने गोवा में होने वाले अपराधों को लेकर चिन्ता व्यक्त की। गोवा विदेशी महिलाओं पर होने वाले  बलात्कारों के मामले में भी खासा चर्चित रहा है। मंत्री ने यहां की आबो-हवा को परखने के बाद कहा कि लडकियों को अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत रहना चाहिए। उन्हें विदेशी नारियों की देखा-देखी बिकनी नहीं पहननी चाहिए। पब में भी उन्हें छोटे कपडे पहनकर जाने से परहेज करना चाहिए। हमारे यहां जब भी ऐसा कोई बयान आता है तो कुछ लोग स्त्री की स्वतंत्रता पर बंदिशें लगाने की साजिश और उनके अधिकारों के हनन का नगाडा बजाने लगते हैं। गहराई में जाने की कोशिश ही नहीं की जाती। बस विरोध करने की आदत और परम्परा निभायी जाती है। हम भी यही मानते हैं कि चरित्र ही सबकुछ होता है। उसका वस्त्रों से कोई लेना-देना नहीं होता। अपने देश में छोटी-छोटी बच्चियों पर भी बलात्कार हो जाते हैं। चीन, सिंगापुर, थाईलैंड, ताशकंद में लडकियों का मिनी पैंट और मिनी टॉप पहनना आम है। अपने देश में ऐसे पहनावे को लेकर ही हाय-तौबा मची रहती है। किसी को भी इस सच को कबूलने से नहीं कतराना चाहिए कि कुछ भारतीयों की सोच बडी विकृत और घिनौनी है कि जिसके चलते देश में जहां-तहां बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, तेजाबी हमले और ऑनर किलिंग जैसी घटनाएं सुर्खियां पातीं और दिल को दहलाती रहती हैं। कानून व्यवस्था भी पंगु-सी हो चुकी है। गोवा के मंत्री के बयान से कहीं बहुत ज्यादा खतरनाक बयान तो फरेबी समाजवादी मुलायम सिंह यादव का है जिसमें उन्होंने बलात्कारियों और दुष्कर्मियों का बचाव करते हुए बडी निर्लज्जता से कहा है कि -'लडके हैं उनसे गलती हो जाती है, लेकिन उन्हें फांसी थोडे ही दे दोगे।'

Thursday, July 3, 2014

चीखने और चिल्लाने की आवाज़ें

अपनी-अपनी पीडा। अपनी-अपनी चिन्ता। अपना-अपना लालच। अपनी-अपनी दास्तान। अपनी सरकार के कार्यकाल का एक माह पूरा होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस चुप्पी को तोडा जिस पर उंगलियां उठ रही थीं। यह खामोशी किसी भाषण-वाषण से नहीं, उनके ब्लॉग के जरिए टूटी। यानी आधी-अधूरी। जब तक मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज नहीं हुए थे तब तक तो वे खूब बोला करते थे। हर सवाल का जवाब फौरन हाजिर हो जाया करता था। जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तब से हालात उलट-पुलट गये हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि कुछ लोग उन्हें चैन से काम नहीं करने देना चाहते। सोनिया गांधी की सरपरस्ती में चली डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को दस साल तक बर्दाश्त कर लिया गया, लेकिन उनकी सरकार के तीस दिन भी पूरे नहीं हुए थे कि आलोचक पानी-पी-पीकर तीखे सवालों की बौछार करने पर आमादा हो गए! यह तो सरासर नाइन्साफी है। जिसे देखो वही हाथ में रजिस्टर थामे अच्छे दिनों का हिसाब मांग रहा है। मेरे हाथ में कोई जादू की छडी तो है नहीं... कि चंद दिनों में देश की बदहाली को खुशहाली में तब्दील कर दूं। मेरी सरकार दिन-रात इस माथा-पच्ची में लगी है कि किस तरह से विशाल देश में जन-जन की समस्याएं हल की जाएं। हमने मौज-मस्ती के लिए नहीं देशवासियों की तकलीफें दूर करने के लिए सत्ता संभाली है। आम जनता को तो अभी भी हम पर भरोसा है। ऐसे उतावले लोगों में मीडिया भी शामिल है। उसकी बेसब्री भी देखते बनती है।
मीडिया से अकेले मोदी ही खफा नहीं हैं। उनकी सरकार के कुछ और मंत्री भी यही चाहते हैं कि देश भर के सारे अखबार और न्यूज चैनल वाले उनकी कमियों और कमजोरियों को नजरअंदाज करते रहें। देश के विद्वान खाद्यमंत्री रामविलास पासवान काफी शोध करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों के चलते जहां महंगाई अपना तांडव दिखा रही है वहीं व्यापारी धडाधड जमाखोरी कर रहे हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर की बोलवाणी तो और भी कमाल की है... जिससे देशवासियों को सतर्क और सावधान हो जाना चाहिए... 'महंगाई कोई इलेक्ट्रिक स्विच नहीं है, जिसे ऑन या ऑफ किया जाए।' नरेंद्र मोदी के अपार शुभचिन्तक भी अपना तर्क रखने से नहीं चूक रहे हैं... 'प्रधानमंत्री जब खुद हनीमून पीरियड की बात कर रहे हैं तो उनके कार्य के आकलन के मामले में सब्र का दामन थामने में ही अक्लमंदी है। जब देशवासी मौनी बाबा (डॉ. मनमोहन सिंह) को इतने साल झेल सकते हैं तो मोदी के साथ नाइन्साफी क्यों? उन्हें भी पूरा वक्त दिया जाना चाहिए। गर्त में समा चुके देश को फिर से खडा करने में वक्त न लगे ऐसा तो हो नहीं सकता।' यानी तमाम बुद्धिमान उस आम आदमी को सब्र का पाठ पडा रहे हैं जो पिछले कई साल से अराजकता, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, महंगाई और बेलगाम भ्रष्टाचार की यातना को सहता चला आ रहा है।
हमारे यहां की जनता भी बहुत जल्दी झांसे में आ जाती है। क्या उसे यह पता नहीं होता कि चुनाव अभियान के दौरान किये गये वायदे और उछाले गये आश्वासन तो वोटरों को लुभाने के लिए होते हैं? मीडिया को महंगाई का दोषी ठहराने वाले इस देश के खाद्यमंत्री ने शातिर नेताओं वाली बयानबाजी कर दर्शा दिया है कि उनकी नज़र में मीडिया की कितनी अहमियत है। उनकी यही मंशा दिखती है कि मीडिया लोगों को सच से रू-ब-रू कराना छोड दे। वह भी उन्हें ऐसे सपने दिखाए जिनके पूरे होने के आधे-अधूरे आसार हों। या फिर हों ही नहीं। पासवान साहब को जब यकीन है कि जमाखोर हरामखोरी पर उतर आएं हैं तो वे उनके गोदामों पर छापे क्यों नहीं डलवाते? कहीं 'अपने वालों' का तादाद ज्यादा होने की वजह से खुलकर पकडा-धकडी करने की हिम्मत ने जवाब तो नहीं दे दिया? जनता को आप लोगों की दिखावटी मजबूरियों से क्या लेना-देना! वह तो महंगाई के दानव से मुक्ति चाहती थी। आपकी सरकार ने आते ही रेल की यात्रा महंगी कर दी। आलू, प्याज, गैस, डीजल आदि के भाव ऐसे बढा दिए जैसे हिन्दुस्तान पूरा का पूरा अमीरों का देश है।
भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को केन्द्र की सत्ता दिलवाने में भले ही अमीरों की थैलियों का योगदान रहा हो, लेकिन हकीकत यही है कि इनके सपनों को इस देश की उस गरीब जनता ने ही साकार किया है जिसकी झोली कल भी खाली थी और आज भी खाली है। जिनकी रोज की आमदनी पच्चीस-पचास रुपये से ज्यादा नहीं है उनपर मोदी सरकार की महंगाई की मार बहुत दुखदायी है। इस देश की आधी से अधिक आबादी के लिए दो वक्त का भोजन एक सपना है। वर्षों से इस सपने के साथ खिलवाड होता चला आ रहा है। मोदी ने जब यह कहकर 'स्वप्नजीवियों' की उम्मीदें जगायीं कि 'बस अब तो अच्छे दिन आने वाले हैं' तो उन्होंने अतीत में हुए धोखों को विस्मृत कर यकीन करने में देरी नहीं लगायी। तो फिर उनके सपनों को साकार करने में देरी क्यों लगायी जा रही है? वे तो दूध के जले हैं, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते हैं। आप हैं कि उन्हें तेजाब पीने को विवश कर रहे हैं। आपकी कोई भी सफाई उनके गले नहीं उतरने वाली। उन्हें यह मत बताइए कि सरकार को देश चलाने के लिए कुछ कडवे फैसले लेने ही पडते हैं। अरे भाई, आप सरकार हैं, आपको किसने रोका है? लेकिन यह भी तो देखिए, सोचिए कि आप कडवे निर्णय लेकर किन्हें कडवी दवा पीने को विवश कर रहे हैं? उन्हें जो पहले से ही बेदम हैं, लाचार हैं, मृत्यु शैय्या पर हैं! हर बार अगर इन्हीं पर ही कहर ढाया जायेगा तो कराहने, चीखने और चिल्लाने की आवाज़ें तो आयेंगी ही। किसी भी शासक की सेहत के लिए ऐसे हालात अच्छे नहीं होते। भले ही उसकी छाती छप्पन इंच की क्यों न हो।