Thursday, May 26, 2016

बेटियों के सपनों के हत्यारे

पत्रकारिता में होने के कारण तरह-तरह के लोगों से मिलना-जुलना लगा रहता है। वैसे भी नये चेहरों से मिलना मेरी अभिरुचि में शामिल है। पिछले दिनों हरियाणा के सोनीपत शहर में रहने वाले एक शख्स से मिलना हुआ। यह महाशय शहर के निकट स्थित एक गांव के जाने-माने किसान हैं। उनका नेताओं के बीच उठना-बैठना है। जब वे मिले तो काफी चहक रहे थे। साथी पत्रकार मित्र ने बताया कि जमींदार साहब दस दिन पहले ही अपनी दो बेटियों का बाल विवाह सम्पन्न करवा कर गांव से लौटे हैं। बीती शाम को इन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों और दोस्तों को मटन-मुर्गा और दारू पार्टी दी थी। इस रंगारंग पार्टी में कई नेता, मंत्री, अफसर, पत्रकार और खाकी वर्दीवाले भी शामिल हुए थे। एक पढे लिखे रौबदार शख्स के इस परिचय ने मुझे उनसे सवाल करने को विवश कर दिया। "क्या आपको पता नहीं है कि बाल विवाह गैरकानूनी और अनैतिक कर्म है? आप तो पढे-लिखे हैं और समझदार लोगों के बीच उठते-बैठते हैं। आपने अपनी तेरह-चौदह वर्ष की बेटियो का विवाह कर यह अपराध क्यों कर डाला?" मेरा सवाल सुन वे मुस्कराये और फिर मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले- "भाषण देना बहुत आसान है। मैंने तो कोई गलत काम नहीं किया है। मैं जमाने के रंग-ढंग से वाकिफ हूं। आपको भी तो पता होगा कि अपने यहां लडकियां कितनी असुरक्षित हैं। वासना के गिद्धों की निगाहें उन पर लगी रहती हैं। मैं यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई मेरी बेटी की तरफ निगाह उठा कर भी देखे। बेटियों को यौन हिंसा से बचाने के लिए मेरी निगाह में बाल विवाह से बेहतर और कोई रास्ता नहीं हो सकता। फिर हमारे नेता चौटाला जी की भी यही सीख है कि लडकियों को बलात्कारियों से बचाने के लिए उनकी शादी छोटी उम्र में कर दी जानी चाहिए। १८ साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते छोरियों के भी पर निकल आते हैं। प्यार-व्यार के चक्कर में पडकर परिवार की नाक कटाने से भी नहीं कतरातीं। मैंने जो किया है, बहुत सोच समझ कर किया है।" अपनी दोनों बेटियों के हाथ पीले कर मैं खुद को बहुत हल्का महसूस कर रहा हूं। अब मैं अपने सपनों को पूरा करने की तरफ ध्यान दूंगा। मुझे समाजसेवा करनी है। नेताजी ने वायदा कर रखा है कि मुझे आने वाले चुनाव में विधानसभा की टिकट जरूर देंगे। विधायक बन गया तो मंत्री भी बन ही जाऊंगा और प्रदेश और देश की सेवा कर नाम कमाऊंगा।" अभी उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि किसी का बुलावा आने के कारण वे यह कहकर चल दिए कि पत्रकार महोदय, शीघ्र ही आप से फिर मुलाकात होगी। आप मेरी सफलता की दुआ जरूर करना।
मध्यप्रदेश के मंदसोर शहर की बेटी नेहा कछावा का उसके मां-बाप ने बचपन में ही विवाह कर दिया था। वह तब मात्र बारह साल की थी। उसने इस विवाह को स्वीकार करने से इंकार करते हुए बाल विवाह के खिलाफ अपने स्वर बुलंद किए। वह अपने बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए कुटुंब न्यायालय गई और वहां अपने विवाह को निरस्त करने की मांग रखी। अदालत के लिए भी यह चौंकाने वाला मामला था। एक बच्ची सदियों से चली आ रही कुरीति से खुद को मुक्ति दिलाने के लिए उसकी शरण में आयी थी। अदालत ने भी नेहा के हौसले को सलाम किया और उसके विवाह को शुन्य करार देने में देरी नहीं लगायी। इतना ही नहीं ससुराल पक्ष को यह आदेश भी दिया गया कि नेहा के भरण-पोषण के लिए हर माह उसे १२०० रुपये दिए जाएं। हमारे देश में बाल विवाह को सख्ती से रोकने के लिए अनेकों प्रयास किये गये, लेकिन इसमें अभी पूरी तरह से सफलता नहीं मिल पायी है। बाल विवाह के हिमायती भी जानते हैं कि इक्कीस वर्ष से कम आयु के लडके और अठारह वर्ष से कम आयु की लडकी का विवाह कराना कानूनन अपराध है, फिर भी वे इस सदियों पुरानी प्रथा को निभाकर अपनी पीठ थपथपाने से बाज नहीं आते। ऐसा भी नहीं है कि छोटी आयु में विवाह कराने के पक्षधर माता-पिता अशिक्षित और गरीब हों। पढे-लिखे समझदार लोग भी इस कलंकित परिपाटी के कई फायदे गिना देते हैं।
बाल विवाह बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन है। बाल विवाह करवाने वाले पता नहीं क्यों इस सच को नजरअंदाज कर देते हैं कि कच्ची उम्र में शादी होने से बच्चों के शरीर, दिमाग पर कितना बुरा प्रभाव पडता है। स्वास्थ्य के साथ-साथ भविष्य अंधकारमय हो जाता है। यह कहां का न्याय और अक्लमंदी है कि उन बच्चों का ब्याह कर दिया जाए जो इसका अर्थ ही नहीं जानते। संतान मां-बाप की सम्पत्ति नहीं होते, लेकिन फिर भी कुछ मां-बाप इस सच को जानते समझते हुए भी नजरअंदाज कर देते हैं और अपनी बेटियों का भविष्य दांव पर लगा देते हैं। कई ऐसी बच्चियां हैं जिन्होंने बाल विवाह कर एक ही झटके में नकार ऐसा चमत्कार कर दिखाया है कि उनकी हिम्मत और बगावत की दास्तान को पूरी दुनिया तक पहुंचाने को जी चाहता है। अलवर की कविता की उम्र जब मात्र ढाई वर्ष की थी तब उसका बाल विवाह कर दिया गया। जब वह बडी हुई तो उसे अपने साथ हुई बेइंसाफी का पता चला। उसने बचपन की शादी को ठुकराने की ठान ली। घर वाले बुरा मान गये। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उनकी बेटी उनकी इच्छा और आज्ञा की अवहेलना करे। उन्होंने उसका स्कूल से नाम कटवा दिया। समाज के बडे लोगों और पंचों ने दबाव डाला कि शादी तो हो चुकी है। अब उसे तोडा नहीं जा सकता। कविता ने कोर्ट जाकर बाल विवाह को शुन्य करवाने में सफलता पायी। आज वह इंजिनियरिंग कॉलेज अजमेर में कम्प्यूटर साइंस की पढाई कर रही है। इसी तरह से अजमेर की ही भानु की शादी १५ साल की उम्र में ५५ साल के व्यक्ति से कर दी गयी। वह दूसरे दिन ही ससुराल से लौट आयी। शादी तुडवाने के लिए कोर्ट की शरण ली। भानु नर्स बनना चाहती थी। अपने सपने को पूरा करने के लिए वह जी-जान से जुटी है। जोधपुर की ममता की भी ८ साल की उम्र में शादी कर दी गयी थी। बडी होने पर उसे पता चला कि उसका तो ब्याह हो चुका है। उसके पति की यह दूसरी शादी थी। वह भी बाल विवाह को निरस्त करने के लिए कोर्ट जा पहुंची। मामला अभी तक चल रहा है। ममता पढ-लिख कर डॉक्टर बनना चाहती है। उसकी हिम्मत और लगन बताती है कि डॉक्टर बनने का उसका सपना जरूर पूरा होगा।

Thursday, May 19, 2016

पत्रकारों पर लटकती नंगी तलवारें

निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारों पर कायराना हमले होना कोई नयी बात नहीं है। देश की आजादी के कुछ वर्षों बाद ही इसकी शुरुआत हो गयी थी। लेकिन पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से तो बहादुरी और आजादी के साथ पत्रकारिता करने वालों को घोर शत्रु मानने का जो सिलसिला चला, वो थमने का नाम नहीं ले रहा है। सच के प्रति पूरी तरह से समर्पित पत्रकारों, संपादकों के हौसले को तोडने के लिए स्तब्ध कर देने वाली ताकतें सक्रिय हो गयी हैं। देश में एक ही सप्ताह के भीतर दो पत्रकारों को मौत के मुंह सुला दिया गया। पहली हत्या हुई झारखंड में तो दूसरी बिहार में। बिहार के सिवान में दैनिक हिन्दुस्तान के सजग संवाददाता राजदेव रंजन को सैकडों लोगों की मौजूदगी में जिस तरह से माथे पर पिस्तोल सटाकर गोली मारी गयी उससे यह संदेश भी गया कि हत्यारे पूरी तरह से बेखौफ थे। भरी भीड में सरेआम वे पत्रकार की निर्मम हत्या कर चलते बने। कोई उन्हे पहचान भी नहीं सका! कुछ माह पूर्व मध्यप्रदेश में पत्रकार संदीप कोठारी को जिन्दा जला कर दफना दिया गया था! उत्तरप्रदेश में चार महीनों में तीन पत्रकारो और छत्तीसगढ में २०१२ से अब तक छह पत्रकारों की दरिंदगी के साथ हत्या की जा चुकी है। देश के दूसरे प्रदेशों में भी पत्रकारों को मौत के हवाले करने की खबरें सुर्खियां पाती रहती हैं। आखिर कौन हैं वो लोग जो जुझारू पत्रकारों को अपना दुश्मन मानते हैं और उनके खात्मे के दुष्चक्र चलाते रहते हैं? यह कोई ऐसा सवाल नहीं है जिसका जवाब नदारद हो। सिवान में पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड में जेल में बंद पूर्व सांसद शहाबुद्दीन पर उंगलियां उठने से बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है। बिहार पुलिस ने जिन लोगों को हिरासत में लिया है, उनमें एक उपेंद्र सिंह भी है जो हत्यारे, बाहुबली नेता शहाबुद्दीन का करीबी बेहद है। गुंडागर्दी और राजनीति करना उसके शौक में शुमार है। वह आरजेडी का सक्रिय कार्यकर्ता है। बाहुबली किस्म के नेताओं के पास गुंडे-मवालियों का जमावडा रहता है और वे बडी से बडी हस्ती को ठिकाने लगाने का कलेजा रखते हैं। पत्रकार तो उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखते। जब और जहां चाहें उनका काम तमाम कर देते हैं। बिहार सरकार के कई मंत्री जेल में बंद अपराधी शहाबुद्दीन से मेल-मुलाकातें करते रहते हैं। भले ही शहाबुद्दीन राष्ट्रीय जनता दल का नेता है, लेकिन मूलत: वह है तो संगीन अपराधी ही। लेकिन सत्ताधीश भी इस सच को नजरअंदाज करते हुए जनता की आंखों में धूल झोंकने के तमाम प्रयास करते रहते हैं। बेनकाब होने के बाद भी मतलबपरस्ती और बेशर्मी का लबादा नहीं उतारते। एक हत्यारे से सांसदों, मंत्रियों का मिलना-जुलना उसकी पहुंच और रुतबे को दर्शाता है और ईमानदार पुलिस वालों के मनोबल को चोट पहुंचाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं प्रदेश में कानून का राज है। जो लोग बिहार में अपराधों का तांता लगने और जंगलराज का शोर मचा रहे है वे अगर दूसरे राज्यों की बिगडती कानून व्यवस्था का अध्ययन करें तो उनकी आंखे खुली की खुली रह जाएंगी। बिहार तो दूसरे प्रदेशों की तुलना में काफी बेहतर है।
लेकिन इस हकीकत को कैसे नजरअंदाज कर दें कि बिहार में जबसे नीतीश-लालू गठबंधन ने सत्ता संभाली है तब से कानून व्यवस्था के चीथडे उडते नजर आने लगे हैं। अपराधी बेखौफ हो गये हैं। अब तक पांच सौ से ज्यादा हत्याएं हो चुकी हैं। बिहार के लोग दहशत में हैं। उन्हें लालू-राबडी का वो पंद्रह वर्षों का जंगलराज याद आने लगा है जिसने उनका जीना हराम कर दिया था। कहा तो यह भी जा रहा है कि नीतीश कुमार, लालू और सत्ता में शामिल उसके बेटों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गये हैं। नीतीश प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं। मुख्यमंत्री का पद अब उन्हें अपने कद से कमतर लगने लगा है। इसलिए अपने दायित्व को सही ढंग से निभा नहीं पा रहे हैं। बिहार के बोधगया में आदित्य सचदेवा नामक युवक की हत्या ने नीतीश के सुशासन की पोल खोल दी है और इस सच से भी पर्दाफाश कर दिया है कि उनकी सरकार की नींव कैसे-कैसे दागी चेहरों के दम पर टिकी है। गौरतलब है कि आदित्य सचदेवा की हत्या करने वाला और कोई नहीं सत्तारूढ जदयू की एक विधान परिषद सदस्य का नालायक बेटा है। उसका पति भी जाना-माना बाहुबली बदमाश है जिस पर देशद्रोह का मामला चल रहा है। यह तो सर्वविदित है कि सत्ता का नशा नेताओं से अधिक उनके परिजनों और यार-दोस्तों पर सवार रहता है। वे खुद को सर्वशक्तिमान मानने लगते हैं। बिहार में यही हो रहा है। इसमें दो मत नहीं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की व्यक्तिगत छवि पर कोई दाग-धब्बा नहीं है, लेकिन उनके इर्द-गिर्द सत्ता के नशे में डूबे जिन चेहरों का जमावडा है वे उनकी छवि की ऐसी-तैसी कर रहे हैं। निस्संदेह नीतीश कुमार जंगलराज के हिमायती नहीं हैं। लेकिन कई दुशासन ऐसे हैं जो प्रदेश के पत्रकारों को डराकर रखना चाहते हैं। जो पत्रकार उनके बस में नहीं आते उनको मौत के हवाले कर देते हैं। नीतीश ने प्रदेश में शराब बंदी का चुनावी वादा पूरा करके दिखा दिया है कि वे उन नेताओं में शामिल नहीं हैं जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। पत्रकारों को जो दिखायी देता है उसी पर उनकी कलम चलती है। अराजक तत्व आईना देखना पसंद नहीं करते। उनके कुकर्मों का पर्दाफाश करने वाले मीडिया कर्मी उन्हें अपने दुश्मन नम्बर एक नजर आते हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि किस्म-किस्म के आपराधिक तत्वों को नेताओं और सत्ताधीशों का भरपूर साथ और वरदहस्त हासिल है। कुछ नेता तो खुद मूल रूप से अपराधी हैं जो लोकतंत्र के चमत्कार के चलते विधायक, सांसद, मंत्री बन गये हैं। उन्हें अपनी मनमानी के आडे आने वाले पत्रकार शूल की तरह चुभते हैं। भ्रष्टाचारियों, व्याभिचारियों, काला धंधा करने वालों को बेनकाब करना हर सच्चे पत्रकार का फर्ज भी है, धर्म भी। अपने पत्रकारीय दायित्व को ईमानदारी से निभाने वाले पत्रकारों को अपनी सुरक्षा के इंतजाम भी खुद ही करने होंगे। जो सरकारें चाटूकार पत्रकारों को पुरस्कृत और निष्पक्ष पत्रकारों को जेल में सडाने में यकीन रखती हों उनसे पत्रकारों की सुरक्षा की उम्मीद रखना व्यर्थ है। इतिहास गवाह है कि ईमानदार पत्रकारों को ही बाहुबलियों और काली ताकतों का शिकार होना पडता है। जो लोग समझौता कर लेते हैं उनका कुछ भी नहीं बिगडता।

Thursday, May 12, 2016

आक्रोश और आँसू

सोमवार का दिन था। मुंबई में एक व्यक्ति ने पुलिस कंट्रोलरूम में फोन करके बताया कि बोरीवली २४ वें न्यायालय में एक ताकतवर बम रखा है जिसके फटने से बहुत बडी तबाही होना तय है। इस जानकारी ने पुलिस के हाथ-पांव फूला दिए। वैसे भी मायानगरी मुंबई आतंकियों के निशाने पर रहती आयी है। यहां के विभिन्न व्यस्त इलाकों में बम-बारुद बिछाकर कई बार खून-खराबा करते हुए अनेकों निर्दोषों की जानें ली जा चुकी हैं। खाकी वर्दीधारियों ने अदालत की इमारत को चारों तरफ से घेर लिया। चप्पा-चप्पा छान मारा, लेकिन बम नहीं मिला। जांच में पता चला कि यह फोन ग्रांट रोड स्टेशन के करीब किसी बूथ से किया गया था। इसके बाद पुलिस ने सीसीटीवी के फुटेज के आधार पर आरोपी की निशानदेही नालासोपरा इलाके में की और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ में ५२ वर्षीय संदीप बटिया नाम के व्यक्ति ने यह कहकर चौंका दिया कि बार-बार होने वाली अदालत की पेशी और मिलने वाली तारीखों से परेशान होकर उसने बम होने की अफवाह उडायी थी। यह सच्ची खबर यही बताती है कि लोग अदालतों की चक्करबाजी से कितने परेशान हैं। तारीख पे तारीख के शर्मनाक खेल ने भुक्तभोगियों के मानसिक संतुलन को बिगाड कर रख दिया है। गरीबों के लिए तो न्याय पाना जैसे टेढी खीर हो गया है। अदालतों की चक्करबाजी और वकीलों की मनमानी फीस किसी को भी तोड डालती है। कई वकील तो इस चक्कर में रहते हैं कि फैसला आने में देरी पर देरी हो और उनकी जेब में सतत धन आता रहे। अदालतबाजी में माहिर अमीरों और आदतन अपराधियों को तो इससे कोई फर्क नहीं पडता, लेकिन साजिशों के शिकार हुए सीधे-सादे गरीबों के लिए देर से मिलने वाला न्याय भी बेइंसाफी की तरह घातक और पीडादायी होता है। निचली अदालतो में चलने वाला गडबडझाला सजग दिमाग वालों को तुरंत समझ में आ जाता है। बहुत जोर-शोर के साथ यह कहा जाता कि कानून सबके लिए बराबर है, लेकिन कई मामलों में भेदभाव का तमाशा अचंभित कर जाता है। सभी संजय दत्त और सलमान खान की तरह भाग्यवान नहीं होते। कहने को तो कानून की किताबों में लिखा है कि छोटा हो या बडा, कानून सबके लिए बराबर है, लेकिन बडे लोग अपराध करने के बाद भी कानून को चकमा देने और बच निकलने का जो कीर्तिमान बनाते हैं उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम सब जानते हैं कि न्याय को एक देवी के रूप में चित्रित किया गया है, जिसकी दोनों आंखों पर काली पट्टी बंधी है और हाथ में तराजू है, जो सत्य और असत्य के दो पलडों का द्योतक है। आंखों पर पट्टी इसलिए बंधी है कि बडे-छोटे, शक्तिशाली, प्रभावशाली और कमजोर तथा गरीब से कोई मतलब नहीं। न्याय तो बस न्याय है, लेकिन जो लोग अन्याय के शिकार होते हैं उन्हें कोई भी उद्देश्य, सीख और तसल्ली राहत प्रदान नहीं कर पाती। लोगों को समय पर न्याय मिले, यह सुनिश्चित करना न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी है और सरकार की भी। जेलें कैदियों से भरी पडी हैं। इन कैदियों में असली अपराधियों के साथ-साथ निर्दोषों का भी समावेश है। जिनकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे कानूनी लडाई के लिए वकील तक खडा नहीं कर पाते। अनेकों विचाराधीन कैदी अभियोग में मुकर्रर सजा से कहीं ज्यादा वक्त सलाखों के पीछे काट चुके हैं। उनके लिए कोई आवाज नहीं उठाता। अपराधी, अभिनेताओं, नेताओं और धनवानों के लिए भीड उमड आती है। हजारों जमानती अपराध के आरोपी सिर्फ इसलिए जेल में सडने को मजबूर हैं क्योंकि उनके पास जमानत देने वाला कोई नहीं है।  अभी तो हालत यह है कि एक औसत सिविल केस में फैसला आने में १५ साल और क्रिमिनल केस में पांच से सात साल लग ही जाते हैं। ट्रायल अदालतों में करोडों केस लम्बित पडे हैं। न्याय में होने वाली देरी को लेकर पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी बेहद चिन्तित नजर आए। उन्होंने कहा कि मुकदमों का अंबार लगा है। उन्हें समय पर निबटाने के लिए जजों की नितांत कमी है। लोगों को तरह-तरह की तकलीफों से जूझना पड रहा है। उन्होंने नम आंखों से बताया कि १९८७ में विधि आयोग ने जजों की संख्या प्रति दस लाख लोगों पर १० से बढाकर ५० करने की सिफारिश की थी, लेकिन उस वक्त से लेकर अब तक इस पर कुछ नहीं हुआ। अमेरिका में ९ जज एक साल में ८१, भारत में एक जज २६०० केस सुनता है। सरकार को भारतवर्ष में जजों की संख्या बढानी चाहिए। तभी लोगों को जल्दी न्याय की प्राप्ति संभव हो पायेगी, नहीं तो ऐसे ही चलता रहेगा और अदालतों के प्रति भी गुस्से और निराशा का माहौल बना रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अलतमस कबीर का मानना था कि केवल अदालत या जजों की संख्या बढाने से देश में अपराधों की संख्या को कम नहीं किया जा सकता, बल्कि लोगों को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है। उन्होंने महिलाओं के विरुद्ध बढ रही हिंसा पर चिन्ता जताते हुए स्पष्ट किया था कि यदि समाज अपनी मानसिकता बदले तो यौन अपराधों पर काबू पाया जा सकता है। समाज में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग असुरक्षित हैं। जब तक कानूनी व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जाता जब तक सुधार की उम्मीद करना निरर्थक है।
निर्भया कांड से जिस तरह से सरकार ने जागने का अभिनय किया था और लाखों लोग मोमबतियां लेकर सडकों पर उतर आये थे, तो लगा था कि समाज के लोग सतर्क हो गये हैं। अब वे अपराधियों की शिनाख्त करने में संकोच नहीं करेंगे। पुलिस भी अपना दायित्व सजगता से निभायेगी, लेकिन हालत तो जस के तस हैं। कानून का खौफ न होने के कारण अपराधी प्रवृति के लोग बदलने को तैयार नहीं हैं। आज भी नारी के यौन शोषण की खबरें सबसे ज्यादा पढने और सुनने में आती हैं। भारतीय अदालतों में अन्य विभिन्न आपराधिक मामलों के साथ ही बलात्कार के लाखों मामले लंबित पडे हैं। अपने यहां अपराधियों के लिए सजाएं तो घोषित हो जाती है, लेकिन फिर भी सजा देने में वर्षों लग जाते हैं। अपराधियों को जमानतों पर छूटने के अवसर भी बडी आसानी से मिल जाते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था में और भी कई छेद बना दिये गये हैं जिनमें से हाथीनुमा अपराधी तो सहजता से निकल जाते हैं, लेकिन गरीबों, असहायों और सीधे-सरल लोगों को घुट-घुट कर मरना पडता है। इंसाफ की इसी बेबसी पर ही बहे हैं देश के प्रधान न्यायाधीश श्री तीरथसिंह ठाकुर की आंखों से आंसू और न्यायालय परिसर में बम रखे होने की अफवाह फैलाने वाले एक आम आदमी का फूटा है गुस्सा।

Thursday, May 5, 2016

एक नया रंग बनाएं

राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ के शुभ अवसर पर सर्वप्रथम उन लाखों सजग पाठकों का आभार... अभिनंदन जिन्होंने इसे तहेदिल से अपनाया, सराहा और इसे भीड से अलग खडा होने की ताकत बख्शी। किसी भी समाचार पत्र की सफलता की रीढ की हड्डी होते हैं उसके सजग पाठक। 'राष्ट्र पत्रिका' इस मामले में वाकई बहुत खुशकिस्मत है। किसी भी अखबार और उसके संपादक, प्रकाशक के लिए भी सबसे बडा पुरस्कार निस्संदेह वह है जो पाठको, शुभचिंतकों, समालोचकों, आलोचकों की प्रशंसा, आलोचना और मार्गदर्शन के रूप में मिलता है। हमारी वर्षों की निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता की राह में अनेकों अवरोध खडे किये गये, कांटे बिछाये गए, लेकिन हम नहीं घबराये, नहीं हारे, इसकी एक ही वजह है उन लाखों पाठकों का अटूट साथ जिन्होंने सतत हमारा मनोबल बढाया। बिना थके चलते चले जाने के लिए प्रेरित किया। 'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन के अवसर पर किये गये वादों को पूरा करने में हम कितने सफल हुए और खरे उतरे हैं इसका जवाब भी पाठकों से बेहतर और कोई नहीं दे सकता।  'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन के पूर्व ही हमने यह संकल्प किया था कि चाहे कुछ भी हो जाए सच के पथ पर चलते ही जाना है। बडी से बडी हस्ती के दबाव में नहीं आना है। भेदभाव और चाटुकारिता की पत्रकारिता की परछाई से भी कोसों दूर रहना है। हमें मालूम था कि भाई-भतीजावाद और 'गठबंधन' के इस दौर में हमें कई परेशानियों और तकलीफों से रूबरू होना पडेगा। पत्रकारिता का पेशा कोई फूलों की सेज नहीं है। हमने लीक से हटकर चलने का जो निर्णय लिया था उस पर  हम आज भी अडिग हैं। यह देश का ऐसा साप्ताहिक हैै जिसमें कला, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, राजनीति, साहित्य के साथ-साथ मनोबल को बढाने वाली सकारात्मक खबरों को प्राथमिकता दी जाती है। अपराध भी हमारे ही समाज में घटित होते हैं इसलिए अपराध और अपराधियों की खबरों को भी इस तरह से पेश किया जाता है कि जिससे अपराधियों के हौसले पस्त हों, उन्हें कानून का खौफ सताए और अपराधों में कमी आए। दरअसल, हमारी पत्रकारिता का केंद्र बिंदु देश का वो आम आदमी है जो बंदिशों और तकलीफों में जीता है। वह बहुत जल्दी चालबाज नेताओं पर भरोसा कर लेता है और पछतावे के अलावा कुछ भी नहीं पाता। उसकी बेबसी और मजबूरी की अनदेखी की जाती है। हमारे लिए जनपक्षधर पत्रकारिता ही सर्वोपरि है। यह सच अब जगजाहिर हो चुका है कि मीडिया के कई 'धुरंधर' राजनेताओं, उद्योगपतियों और सत्ताधीशों के महिमामंडन को ही वास्तविक पत्रकारिता मान चुके हैं। उनकी खबरें और कलम इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। उन्हें और कुछ न दिखता है, न सूझता है। हम पत्रकारिता के साथ ऐसी धोखाधडी होते नहीं देख सकते। हमारा हिन्दुस्तान आज दूसरी आजादी के लिए लड रहा है। जनता जाग चुकी है। दलितों, शोषितों, किसानों और नारियों ने चुप्पी तोडकर सडकों पर आने और जूझने के लिए कमर कस ली है। गरीबी, गैरबराबरी, शोषण, अशिक्षा और बेरोजगारी का खात्मा करने के नाम पर वोट हथियाने वाले अधिकांश नेताओं का खोखलापन उजागर हो चुका है। उनके नकाब उतर चुके हैं। नेताओं की कथनी और करनी के अथाह अंतर की मार को झेलते-झेलते लोग त्रस्त हो चुके हैं। आज देश के अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों पर नेताओं और पूंजीपतियों का कब्जा हो चुका है। वे आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि अच्छे-अच्छे पत्रकार इनके गुलाम बनकर रह गये हैं। देश में कई ऐसे सांसद और मंत्री हैं जिनके अखबार और न्यूज चैनल चल रहे हैं। उनका आम जनता से कोई सरोकार नहीं है। आम लोगों की समस्याओं की अनदेखी कर अपनी-अपनी पार्टी और अपनों के गीत गाते हुए मिलावटी खबरों की बरसात करते चले आ रहे हैं। असली सच गायब कर दिया गया है। इन शातिरों की वजह से ही मीडिया कटघरे में है। भूमाफियाओं, चिटफंड के घोटालेबाजों और खनन माफियाओं के स्वामित्व में चलने वाले अधिकांश अखबारों में ऐसे-ऐसे 'प्रगतिशील बुद्धिजीवी' अपनी सेवाएं दे रहे हैं कि उन्हें देखकर दंग रह जाना पडता है। इन्हें अपने मालिकों की तमाम करतूतों की जानकारी होती है, लेकिन फिर भी यह आंखें बंद किये रहते हैं। मनचाही तनख्वाहें और भत्ते इनकी जेबों में जाते हैं और यह सबकुछ भूलकर सोने की मुर्गियों को फांसने की चाकरी में लगे नजर आते हैं। अपने पुराने संपर्कों के तार जोड मालिकों को फायदा पहुंचाते हुए अपने भविष्य के लिए सुरक्षित इंतजाम करने के सिवाय इन्हें और कुछ नहीं सूझता। ऐसे कई वर्तमान और गुजरे जमाने के पत्रकार-संपादक हैं जो आज सत्ता के दलाल बनकर रह गए हैं। यह दलाली खाते हैं तो इनके घाघ मालिक सत्ता के गलियारों में अपनी पहुंच बनाते हुए कोयले की खदानें, शराब कारखाने, मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज और अरबों-खरबों के सरकारी ठेके हथियाते हैं और पहले से भी ज्यादा मालामाल हो जाते हैं। कुछ को तो राज्यसभा की सांसदी और मंत्री पद का उपहार भी मिल जाता है। अपने देश की पत्रकारिता में गजब का तमाशा चल रहा है। स्वतंत्र पत्रकारिता का गला घोंटने में देरी नहीं लगायी जाती। सरकारें चाहे किसी भी पार्टी की हों, जागरुक पत्रकारों को वे अपना दुश्मन समझती हैं और उन्हें प्रताडित करने के मौके तलाशती रहती हैं। यह सरकारें भूल जाती हैं कि 'प्रेस' का काम आम जनता को जागृत करना है और सरकार के निठल्लेपन के खिलाफ आवाज उठाना है। मुखौटेबाज संपादकों और मालिकों की टकसाल से निकले कई खोटे सिक्के पत्रकारिता को बाजार बनाने पर तुले हैं। यह भी अटल सच है कि बिना बिके और बिना झुके पत्रकारिता करने वाले आज भी देश में अनेकों पत्रकार हैं जिनकी बदौलत 'प्रेस' की साख बची हुई है। देशवासी उन्हें सलाम करते हैं। समर्पित और विश्वसनीय पत्रकारिता करने वाले सजग पत्रकारों और अखबारों को भले ही हाशिए में धकेलने का षडयंत्र चल रहा है, लेकिन फिर भी खोटे सिक्कों की खनक में इतना दम नहीं कि वे खरे सिक्कों का मुकाबला कर पाएं। पाठक भी खोटे और खरे की बखूबी पहचान करना जानते हैं। इसलिए ईमानदार और सच्चे पत्रकारों और प्रेस का भविष्य कल भी सुरक्षित था, आज भी है और कल भी रहेगा। सच्चाई का कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। बिकाऊ पत्रकारों, संपादकों और शातिर मालिकों के खिलाफ 'राष्ट्र पत्रिका' का सतत अभियान चलता रहता है। जिसकी वजह से हम उनके निशाने पर रहते हैं। खनन माफियाओं और भूमाफियाओं को बेनकाब करते रहने के कारण उनकी भी हमारे खिलाफ साजिशें चलती रहती हैं फिर भी अंतत: उन्हें ही मुंह की खानी पडती है। निष्पक्ष पत्रकारिता ही हमारा धर्म है इसलिए निर्भीकता के साथ हम अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर हैं। 'आधुनिक साहित्य' पत्रिका के विद्धान संपादक और चर्चित कवि आशीष कंधवे की कविता की यह पंक्तियां 'राष्ट्र पत्रिका' की सपने, सोच और चाहत को रेखांकित करती हैं। दरअसल हर सच्चा भारतवासी यही तो चाहता है :
"छोडना चाहता हूँ
मैं कुछ रंगों को
भविष्य के भारत के लिए
मिटाना चाहता हूँ
भूख और लाचारी के रंग को
भ्रष्टाचार और लूट के रंग को
धर्म के अधर्मी रंग को
आदमी के गिरगिटियां रंग को
और राजनीति के लोभी मन को
आओ, सभी रंगों को मिला कर
एक नया रंग बनाएं
भारत बनाएं, भारत बचाएं।'
'राष्ट्र पत्रिका' की आठवीं वर्षगांठ पर समस्त स्नेही पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं, अभिकर्ताओं, शुभचिंतकों को हार्दिक शुभकामनाएं...।