Thursday, November 29, 2012

इस देश के हुक्मरान कब जागेंगे?

अपने पाकिस्तानी आकाओं के इशारे पर भारतवर्ष की संप्रभुता को चुनौती देने वाला अजमल आमिर कसाब फांसी के फंदे पर लटकाया जा चुका है। यह बताने की जरूरत नहीं कि कसाब तो एक अदना-सा प्यादा था। उस जैसे कई प्यादे आज भी जिं‍दा हैं। कुछ का इसी देश में बसेरा है तो कई पडोसी देश में सिखाये-पढाये और पाले-पोसे जा रहे हैं। इन सभी का एक ही मकसद है हिं‍दुस्तान में आतंक का तांडव मचाना और निर्दोषों का बेरहमी से खून बहाना। कसाब को उसके वहशियाना दुष्कर्मों की सजा दिये जाने के बाद अब अफजल गुरू को भी फौरन फांसी दिये जाने की मांग की जाने लगी है। कसाब पाकिस्तान की मिट्टी की देन था तो अफजल गुरू हिं‍दुस्तान का ही एक बिकाऊ बाशिं‍दा है। दोनों की कमीनगी एक जैसी ही है जो कतई माफ करने के लायक नहीं है। २० नवंबर २००८ को दरिंदे कसाब और उसके दस साथियों ने आर्थिक राजधानी मुंबई पर हमला कर हर सच्चे देशप्रेमी के खून को खौलाकर रख दिया था। इस हमले के जरिये पूरे तीन दिन तक मायानगरी को जैसे बंधक बनाकर रख दिया गया था। पाकिस्तानी दरिंदो ने १६६ निर्दोषों की जान ले ली थी और घायलों का आंकडा भी तीन सौ को पार कर गया था। इस खूनी खेल में नौ आतंकी तो कुत्ते की मार मारे गये थे और कसाब अकेला जिन्दा पकडा गया था। गुस्से में उबलते देशवासियों का बस चलता तो वे इस कमीने को भरे चौराहे पर नंगा लटका कर वो सजा देते कि पाकिस्तान में बैठे इसके आका भी थरथर्रा उठते। ये देश की कानून व्यवस्था की निष्पक्षता और दरियादिली ही है कि कसाब की चार साल तक मेहमान नवाजी की जाती रही। अफजल गुरू के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। सजग देशवासी जल्द से जल्द अफजल को फांसी पर लटकते देखना चाहते हैं और दूसरी तरफ राजनीति के खिलाडी अपने-अपने दांव खेल रहे हैं। एक दहशतगर्द देश की संसद पर हमला करने की जुर्रत करता है और सरकार उसे सूली पर लटकाने की बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहती है। राजनेता उसके बचाव के लिए अपने-अपने ज्ञान का पिटारा खोलते रहते हैं।
हम भारतवासियों की यह बदनसीबी ही है कि आतंकवादी बम-बारूद बिछाकर हमारे अपनों की जान ले लेते हैं और राजनेता आतंकियों के प्रति अपनत्व जताते हुए राजनीति का खेल खेलना शुरू कर देते हैं। कसाब के मुद्दे पर तो किसी भी दल के लिए राजनीति करने की कोई गुंजाइश नहीं थी इसलिए उसे मौत दे दी गयी। पर बाकियों का क्या? अफजल गुरू, देवेंद्र पाल सिं‍ह भुल्लर के साथ-साथ राजीव गांधी के हत्या के दोषी लिट्टे आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने में लगातार देरी के पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनीति और राजनेता ही हैं। सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद अफजल के प्रति नर्मी बरतने की मांग कर कांग्रेस के असली चेहरे को उजागर कर चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के साथ विपक्षी पार्टी पीडीपी भी अफजल को फांसी नहीं, माफी देने की पक्षधर है। हत्यारे देवेंद्र पाल सिं‍ह भुल्लर पर तो पंजाब सरकार ही इतनी मेहरबान है कि वह उस पर किसी तरह की आंच नहीं आने देना चाहती। भुल्लर के प्रति उदारवादी बनी सरकार ने राष्ट्रपति को गुहार लगायी है कि भुल्लर पर दया की जाए। तामिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारे मुरुगन और उसके साथी भी राजनीति की बदौलत अभी तक फांसी से बचे हुए हैं। गौरतलब है कि राजीव गांधी की हत्या १९९१ में की गयी थी। यानी इक्कीस साल बीतने के बाद भी हत्यारों का बाल भी बांका नहीं हो पाया। समझ में नहीं आता इस देश के राजनेता किस नीति के पक्षधर हैं! दरअसल अपनी राजनीति चलाने और चमकाने के लिए उन्होंने 'नीति' की निर्मम हत्या करके रख दी है और अनीति के मार्ग पर सरपट दौडे चले जा रहे हैं। इन्हें रोकने वाला कोई भी नहीं। जब लगभग सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हों तो ऐसा होना ही है। देश में जब भी कहीं आतंकी हमले होते हैं तो घडि‍याली आंसू बहाने में भी यही मतलबपरस्त राजनेता सबसे आगे रहते हैं। अपने-अपने वोट बैंक के लिए आतंकियों और देशद्रोहियों के रक्षा कवच बनने वाले सत्ताधीशों में आम आदमी की सुरक्षा के लिए कुछ कर दिखाने की ललक ही नहीं है। नवंबर २००८ में मुंबई पर कसाब और उसके साथियों ने हमला किया था। २६/११ के हमलावर समुद्री मार्ग से मुंबई पहुंचे थे। सरकार ने दहाड-दहाड कर घोषणा की थी कि समुद्री सीमा क्षेत्र में व्यापक सुरक्षा के इंतजाम किये जाएंगे। पर आज भी स्थिति जस की तस है। चार साल बीत गये पर पुख्ता बंदोबस्त नहीं हो पाये हैं।
मुंबई ही नहीं देश की राजधानी दिल्ली भी सुरक्षित नहीं है। देश के तमाम महानगरों के एक जैसे हालात हैं जहां आतंकी बडी आसानी से अपनी कमीनगी को अंजाम दे सकते हैं। सत्ताधीशों को अपनी कुर्सी को बचाये रखने की जितनी चिं‍ता है उतनी देश और प्रदेशों की नहीं। भारत-पाक सीमा से पाकिस्तानी घुसपैठिये बडी सहजता से भारत में प्रवेश करने में कामयाब हो जाते हैं। खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार इसी वर्ष कम से कम ९० पाकिस्तानी घुसपैठियों ने भारत में प्रवेश किया। भारत-नेपाल सीमा से भी अवैध रूप से चीनी और कोरियाई नागरिकों का आसानी से घुसपैठ कर जाना यही दर्शाता है कि हिं‍दुस्तान की सुरक्षा व्यवस्था रामभरोसे है। पता नहीं इस देश के हुक्मरान कब जागेंगे?

Thursday, November 22, 2012

अनुत्तरित प्रश्‍न

देश की आर्थिक नगरी मुंबई के सरदार और सरकार बाल ठाकरे लाखों-लाखों लोगों के दिलों पर किस कदर राज करते थे इसका खुलासा उस बीस लाख से ज्यादा की भीड ने कर दिया है जो उनकी अंतिम यात्रा में खुद-ब-खुद शामिल हुई। हमेशा विवादास्पद रहे बाल ठाकरे एकमात्र ऐसे स्पष्टवादी नेता थे जिन्होंने अपना राजनैतिक सफर अपनी ही इच्छा और शर्तों के साथ तय किया। उन्हें किसी का भी दबाव पसंद नहीं था। जहां नेताओं की कथनी और करनी में घोर अंतर देखा जाता है वहां बाल ठाकरे ही ऐसे शख्स थे जो सिर्फ कहते ही नहीं बल्कि करके भी दिखाते थे। पलटीबाजी और छलावों से दूर रहने वाले बाल ठाकरे को नापसंद करने वालों की भी अच्छी-खासी तादाद रही है। ठाकरे के प्रशंसकों और अंध भक्तों का आंकडा भी कम हैरतअंगेज नहीं जिनकी बदौलत उन्हें 'हिन्दु हृदय सम्राट' की पदवी से नवाजा गया। मराठी माणुस और मराठी के लिए मर मिटने तक का अटूट हौसला रखने वाले बाल ठाकरे के सीने पर उत्तर भारतीयों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले खलनायक का तमगा भी लगा। मुंबई में रोजी-रोटी कमाने के लिए आने वाले दूसरे प्रदेशों के लोगों के खिलाफ लिखने और दहाडने वाले शिवसेना सुप्रीमों पर मुस्लिमों के घोर शत्रु होने के भी काफी संगीन आरोप जडे गये। ठाकरे आरोपों से मुंह चुराने की बजाय सीना तानकर जवाब देते रहे कि मैं तो उन मुसलमान के खिलाफ हूं जो देश का खाते हैं, लेकिन देश के कानून को नहीं मानते। देशभक्त मुसलमान मुझे उतने ही प्रिय हैं जितने की देशप्रेमी हिं‍दु।
राष्ट्रद्रोहियों और खून-खराबा कर निर्दोषों की जान लेने वाले आतंकवादियों के खिलाफ ठाकरे के दिल में हमेशा आग धधकती रहती थी। संसद पर २००१ में हमला करने वाले अफजल गुरू और २६ नवंबर २००८ को मुंबई में अपने साथियों के साथ खूनी तांडव मचाते हुए १६६ बेगुनाहों को मौत के घाट उतारने वाले आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी के फंदे पर लटकाये जाने का उन्हें बेसब्री से इंतजार था। गौरतलब है कि १० नवंबर को जब पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटील उन्हें देखने के लिए मातोश्री पहुंची तो बीमार होने के बावजूद उनके गुस्से का पारा काफी ऊपर चढ गया था और उनके दिल की धडकने काफी तेज हो गई थीं। तब उनकी तबीयत को नियंत्रित रखने में डाक्टरों को काफी मेहनत करनी पडी। बाल ठाकरे को नाराजगी इस बात को लेकर थी कि जिस ताई को राष्ट्रपति बनवाने के लिए उन्होंने बिना किसी की परवाह किये भरपूर समर्थन दिया था उसी ने अफजल गुरू और अजमल कसाब के फांसी के मामले में कोई सक्रियता नहीं दिखायी। ठाकरे किसी भी हालत में इन दोनों जल्लादों का खात्मा होते देखना चाहते थे। यह बात दीगर है कि उनके स्वर्गवास के मात्र पांच दिन बाद ही अजमल कसाब को तो फांसी दे दी गयी पर अफजल गुरू को कब फंदे पर लटकाया जायेगा इसका देशवासियों को बेसब्री से इंतजार है। कसाब को जिस गुपचुप तरीके से फांसी दी गयी उसी तरह से अफजल का भी काम तमाम कर दिया जाए तो कितना अच्छा होगा।
आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले किसी भी शख्स को भी देशभक्त नहीं माना जा सकता। ऐसे तमाम संदिग्ध चेहरों की शिनाख्त होना निहायत जरूरी है। बाल ठाकरे यही तो चाहते थे। उत्तर भारतीयों के विरोधी होने के जवाब में ठाकरे खुद कहते थे कि लोगों को लगता है कि मैं देश के अन्य प्रदेशवासियों का दुश्मन हूं इसलिए उन्हें मुंबई से खदेडने की वकालत करता हूं। मेरा तो सिर्फ इतना कहना है कि प्रांतीय रचना भाषा के आधार पर हुई है। कोई एक प्रदेश दूसरे सभी प्रदेशों के लोगों का बोझ वहन नहीं कर सकता है। संसाधनों का विकेंद्रित उपयोग होना चाहिए, ताकि सभी राज्य के लोगों को उनके राज्य में ही रोजगार के अवसर मिल सकें।
यह सच है कि शासकों की निष्क्रियता के कारण ही देश के प्रदेशों के हालात इतने अच्छे नहीं हैं कि सभी लोगों को भरपूर रोजगार और नौकरियां उपलब्ध हो सकें। पढे-लिखे नौजवानों को भी नौकरी के लिए जगह-जगह की खाक छाननी पडती है। जब अपने प्रदेश में रोजी-रोटी नहीं मिलती तब उन्हें दूसरे प्रदेशों में पनाह लेने को विवश होना ही पडता है। महाराष्ट्र की मायानगरी हर किसी को आकर्षित करती है। लोग यह सोचकर यहीं खिं‍चे चले आते हैं कि लोकतंत्र ने उन्हें कहीं भी रहने-बसने और रोजी जुटाने की पूरी आजादी दे रखी है।
यह तो देश की खुशनसीबी है कि सभी नेता ठाकरे जैसी सोच के धनी नहीं हैं। यदि दूसरे प्रदेशों में भी ऐसी धारणा रखने वाले नेता सक्रिय हो जाएं तो दुनिया की कोई ताकत देश को बिखरने और टूटने से नहीं बचा पाएगी। फिर भी बाल ठाकरे के अद्भुत करिश्में को नकारा नहीं जा सकता। भारत के सबसे बडे महानगर में ४५ वर्षों तक अपना वर्चस्व बनाये रखना उन्हीं के बूते की बात थी। उन्हें जननायक मानने वालों की संख्या करोडों में है। यह उनकी साफगोई और मर्दानगी ही थी जिसने उन्हें अभूतपूर्व लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया। उनकी निर्भीकता का लोहा तो उनके शत्रु भी मानते थे। एक आक्रामक पत्रकार तथा संपादक के रूप में उन्होंने अपनी जो पहचान बनायी उसे भी कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। जो उन्हें ठीक लगा उस पर खुलकर लिखने में कभी कोई संकोच नहीं किया। वे डंके की चोट पर कहा करते थे कि मैं हिटलर का प्रशंसक हूं। ऐसी हिम्मत शायद ही देश के किसी अन्य नेता में देखी गयी हो। अपने दिल की बात बेखौफ होकर कहने वाले बाल ठाकरे की शवयात्रा के दौरान मुंबई बंद को लेकर सोशल साइट फेसबुक पर असहमति भरी टिप्पणी करने वाली युवती और उससे सहमत उसकी सहेली की गिरफ्तारी कई सवाल खडी कर गयी। बाल ठाकरे खुद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उनके बोलने और लिखने से कई लोग असहमत भी रहा करते थे। फिर भी उनके गौरव और सम्मान पर कभी कोई आंच नहीं आयी। यह सही है कि फेसबुक पर अपने विचार प्रस्तुत करने का यह सही समय नहीं था। जिन लोगों को युवतियों की अभिव्यक्ति आपत्तिजनक लगी उन्हें विरोध और असहमति दर्शाने का पूर्ण अधिकार था। पर तोड-फोड...! पुलिस ने भी युवतियों को गिरफ्तार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। इसे क्या कहा जाए?

Thursday, November 15, 2012

धोखाधडी के 'गुरूघंटाल'

ऐन दिवाली से पहले लगभग एक हजार करोड की महाठगी करने वाले पति-पत्नी को दिल्ली पुलिस ने अंतत: धर दबोचा। ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है। बस चेहरे बदल जाते हैं। पुराने अंदर हो जाते हैं और नये ठग नये-नये तरीके ईजाद कर लोगों को बेवकूफ बनाने के अभियान में जुट जाते हैं। इस विशाल देश में बेवकूफ बनने को आतुर लोगों की भी कोई कमी नहीं है। यह लालच चीज ही कुछ ऐसी है जो अच्छे भले को अंधा बना देती है। संतरानगरी, नागपुर के उल्हास खैरे और उसकी पत्नी रक्षा ने 'स्टॉक गुरु इंडिया' कंपनी खोलकर तमाम लालचियों को ऐसे-ऐसे सपने दिखाये जिनका साकार हो पाना संभव ही नहीं था। इन दोनों ने अक्ल के अंधों को १० हजार रुपये जमा करने पर छह महीने तक बीस प्रतिशत ब्याज और सातवें महीने में पूरी रकम देने का झांसा देकर अपना जाल फेंका। लोग भी धडाधड फंसते चले गये। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि हर महीने बीस प्रतिशत ब्याज के क्या मायने होते हैं। कंपनी का ऐसा कौन-सा उद्योगधंधा है जहां धन की बरसात हो रही है और उसकी बदौलत वह इतना मोटा ब्याज देने का दम रखती है।
कुछ लोगों के मंदबुद्धि होने की बात तो समझ में आ सकती है परंतु इस दंपति ने तो दो लाख से भी अधिक लोगों को आसानी से अपना शिकार बनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि प्रलोभन के मोहक जाल में मछलियां ही नहीं मगरमच्छ भी फंसाये जा सकते हैं। धोखाधडी करने में माहिर शातिरों के लिए तो ठगी भी एक व्यापार है। उल्हास खैरे ने अपनी ठगी की शुरुआत नागपुर से ही की थी। नया खिलाडी होने के कारण मात्र एक लाख की ठगी के आरोप में धर लिया गया था। पुलिस के चंगुल में फंसने के बाद उसने हेराफेरी और टोपी पहनाने के नये-नये तौर-तरीके सीखे। खाकी ने उसके होश ठिकाने लगाने के बजाय उसे कुख्यात ठगों तथा उनकी कार्यप्रणाली से रूबरू करवाया।
जालसाजी की तमाम बारीकियां सीखने के बाद यह खिलाडी देश के विभिन्न शहरों में हाथ आजमाने के बाद देश की राजधानी दिल्ली जा पहुंचा जहां तरह-तरह के ठगों का बसेरा है। नागपुरी ठग को देश की राजधानी में महाठग का तमगा हासिल करने के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पडा। मात्र दो वर्ष पूर्व यानी २०१० में दिल्ली में उसने 'स्टॉक गुरु इंडिया' नाम की फर्जी कंपनी खोली और देखते ही देखते 'तरक्की' की मिसाल कायम कर दी। कंपनी छलांगे लगाने लगी। लोग अपनी जमीन-जायदाद और गहने बेचकर कंपनी की शरण में पहुंचने लगे। ठग गुरू और उसकी पत्नी देखते ही देखते इतने मालामाल हो गये कि उन्होंने मुंबई, दिल्ली, गोवा, नागपुर जैसे बडे शहरों में करोडों की सम्पत्तियां खडी कर लीं। दरअसल यह ठग जोडी लोगों की कमजोरियों से खूब वाकिफ हो चुकी थी इसलिए जिन्हें चूना लगाना होता उन्हें आलीशान होटलों में निमंत्रित कर सुरा और सुंदरी का स्वाद भी चखवाया जाता। दोनों शातिर हमेशा लग्जरी कारों में नजर आते। उनके आगे-पीछे भी आलीशान गाडि‍यों का ऐसा काफिला होता जिसे देख लोग आश्वस्त हो जाते कि पार्टी में दम है। उनके खून-पसीने की कमायी के डूबने के कहीं कोई आसार नहीं हैं। ये फरेबी तो योजनाबद्ध तरीके से अपनी कलाकारी को अंजाम दे रहे थे। जब इनकी जेब में हजार करोड से ज्यादा की दौलत जमा हो गयी तो वही कर डाला जो हमेशा होता आया है। लोगों का हसीन भ्रम टूट ही गया जब यह दोनों एकाएक फुर्र हो गये। मात्र दो-ढाई साल में इस जोडी ने इतनी बडी ठगी को बडी आसानी से अंजाम दे डाला। दोनों को यकीन था कि भारतीय पुलिस उन तक कभी नहीं पहुंच पायेगी। प्लास्टिक सर्जरी के जरिये अपनी पहचान बदलने में माहिर इस पति-पत्नी को दबोचने के लिए जब पुलिस पर ऊपरी दबाव पडा तो इन्हें अंतत: महाराष्ट्र के रत्नागिरी में गिरफ्तार कर लिया गया।
बिना कोई मेहनत किये धन बनाने की ख्वाहिश रखने वाले शहरियों पर धोखाधडी करने वालों की निगाहें हमेशा टिकी रहती हैं। देश के तेजी से प्रगति करते महानगरों में लोगों का जीवन इस कदर मशीनी हो चुका है कि उन्हें आसपास की भी खबर नहीं रहती। कई बार तो लोगों को अखबारों में छापी धमाकेदार खबरों से पता चलता है कि उनके ही आसपास रहने वाला कोई शख्स करोडों की गेम कर गायब हो गया है। जिसे वे सभ्य और शरीफ इंसान समझ रहे थे वो बहुत बडा जालसाज निकला। ऐसे खबरें कई लोगों तक पहुंचती हैं पर कुछ ही होते हैं जो सतर्क हो पाते हैं। बहुतेरों को यही भ्रम रहता है कि दूसरे लोग भले ही बेवकूफ बन गये हों पर हमें कोई अपना शिकार नहीं बना सकता। पर खुद को ज्यादा होशियार समझने वाले भी टोपीबाजों के चिकनी-चुपडी बातों में फंसकर अपनी मेहनत की कमायी लूटा बैठते हैं। बेचारों को कुछ भी कहते नहीं बनता। अपने ठगे जाने की कहानी सुनाने में भी उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती है। दिल्ली तो दिल्ली है। यहां के ठगों की तो बात ही निराली है। मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, बंगलुरु, पुणे आदि तमाम महानगर जालसाजों के निशाने पर रहते हैं। देश के एकदम मध्य में बसे नागपुर शहर की ही बात करें। यहां हर साल कोई न कोई बडा धूर्त शहरवासियों को मोटा चूना लगाकर उडन छू हो जाता है। अखबारो में खबरें छपती हैं। न्यूज चैनल वाले भी ठगों के इतिहास को खंगालने में लग जाते हैं। पर पांच-सात दिन बाद लोग भूल जाते हैं। यानी लोगों पर खबरों का खास असर नहीं होता। अगर होता तो नये-नवेले चेहरे धोखाधडी कर अचंभित करके रख देने वाले कीर्तिमान न रच पाते। सवाल यह है कि ऐसे में आखिर किसे दोषी ठहराया जाए?

Thursday, November 8, 2012

बेवजह नहीं उठती हैं उंगलियां

भारतवर्ष की सबसे उम्रदराज राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को भी अपनी शक्ति के प्रदर्शन को विवश होना पडा। देश की राजधानी के रामलीला मैदान में आयोजित विशाल रैली में इस पार्टी के दिग्गज नेताओं ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि अभी भी उनमें दमखम बाकी है। रैली में अपने विरोधियों को जिस तरह से ललकारा गया उससे तो यही लगता है कि भाजपा के निरंतर विवादास्पद होते चले जाने से कांग्रेस के हौंसले एकाएक बुलंद हो गये हैं। कांग्रेस आम जनता तक यह संदेश भी पहुंचाने में सफल होती दिख रही है। कि राबर्ट वाड्रा की तुलना में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी कहीं ज्यादा भ्रष्ट हैं। गडबडि‍यों के अंतहीन दलदल में धंसे होने के बावजूद अध्यक्ष पद पर जमे रहने वाले गडकरी ने भाजपा के अंधकारमय भविष्य की अमिट इबारत लिख दी है। कांग्रेस को कहीं न कहीं यह भरोसा भी हो चला है कि प्रदेशों में भले ही उसकी दाल न गले पर केंद्र की सत्ता तो भविष्य में भी उसी की पकड में रहने वाली है। भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ है जब सबल विरोधी पार्टी के अध्यक्ष की कमजोरियों ने कांग्रेस को मजबूत होने का भरपूर अवसर दिया हो। नितिन गडकरी की पहले भी कई बार जुबान फिसली है। पर इस बार तो हद ही हो गयी! मीडिया और सजग देशवासियों को माथा पीटने को विवश होना पड गया।
गडकरी ने मनोविज्ञान के आधार पर बुद्धि नापने का पैमाना 'इंटेलीजेंट कोसेंट' (आईक्यू) का हवाला देते हुए कहा कि यदि दाऊद और विवेकानंद की आईक्यू को देखा जाए तो एक समान है। लेकिन एक ने इसका उपयोग गुनाह और अपराधों का इतिहास रचने तो दूसरे ने समाजसेवा, देशभक्ति और अध्यात्म का प्रकाश फैलाने में किया। गडकरी ने शैतान देशद्रोही दाऊद इब्राहिम की तुलना आध्यात्मिक संत विवेकानंद से कर तो डाली पर जो तूफान बरपा उससे यह साबित हो गया है कि देश की भोली-भाली जनता को बेवकूफ समझने की भूल करना अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा है। शब्दों की जादूगरी का दौर बहुत पीछे छूट गया है। लोगों ने अंधभक्ति से भी रिश्ते तोड लिये हैं। बडबोले नेताओं के सावधान होने का वक्त आ गया है। हालांकि भोपाल के जिस कार्यक्रम में गडकरी के यह बोलवचन फूटे वहां श्रोताओं ने खूब तालियां पीटीं। गडकरी भी फूल कर कुप्पा हो गये। भाडे की भीड तो हमेशा वाह-वाह करते हुए तालियां ही पीटती है। चापलूसों में विरोध करने दम ही कहां होता है। कुछ लोग ही ऐसे होते हैं जो असली सच को पहचान कर अपनी आवाज बुलंद करते हैं। गडकरी के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। यही दमदार चेहरे बेलगाम नेताओं के होश ठिकाने लगाने की हिम्मत दिखाते आये हैं। कौन नहीं जानता कि नेताओं की मंडली में तो आरती गाने वालों की ही भरमार होती है और यही अंतत: उनका बेडा गर्क करके रख देते हैं। चाटूकारों के चक्कर में कई होनहार नेताओं की लुटिया डूब जाती है। इसलिए दुनियादारी से वाकिफ विद्वान हमेशा यही नसीहत देते आये हैं कि हकीकत को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
डॉ. मनमोहन सिं‍ह हिं‍दुस्तान के प्रधानमंत्री हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तक उन्हें सराहते रहे हैं। फिर भी देशवासी उनसे नाखुश हैं। सोनिया गांधी की मेहरबानी से वे दूसरी बार भी प्रधानमंत्री बना तो दिये गये पर देशवासियों की नजरों में पूरी तरह से खरे नहीं उतर पाये। दिल्ली की रैली में उनके ये उदगार लोगों को चौंका गये कि मंत्रीगण आरोपों से डरे बगैर तेजी से काम करें। क्या डॉ. मनमोहन की निगाह में आरोप लगाने वाले नकारा और नालायक लोग हैं जो बेवजह मंत्रियों, सांसदो को कटघरे में खडा करते रहते हैं और उनके तमाम सहयोगी बेदाग हैं? देश के विद्वान पीएम ने मंत्रियों को बेफिक्र रहने के निर्देश देकर सलमान खुर्शीद जैसे मंत्रियों की हौसलाअफजाई की है। विकलांगों की बैसाखी पर डाका डालने वाले सलमान खुर्शीद देश के पहले कानून मंत्री होंगे जिन्होंने खुद पर लगने वाले संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों को हल्का माना और बौखला कर कह डाला कि अभी तक हम कलम से खेलते थे, अब खून से खेलेंगे। क्या कभी शरीफ लोग ऐसी उत्तेजक भाषा का इस्तेमाल करते हैं? कतई नहीं। पर इस देश के मंत्रियों और नेताओं को कुछ भी बोलने और दहाडने की खुली छूट मिली हुई है। कायदे से होना तो यह चाहिए था कि सलमान खुर्शीद को मंत्री पद से हटा दिया जाता। पर उनकी तो तरक्की कर दी गयी! अब तो उन्हें और उन जैसों को और अधिक विष उगलने की छूट मिल गयी है। समाज सेवकों और पत्रकारों को धमकाने-चमकाने का अधिकार प्राप्त हो गया है।
देश की जनता तो शांत और गंभीर डॉ. मनमोहन से यह उम्मीद लगाये थी कि वे अपने सभी मंत्रियों को निर्देश देंगे कि वे ऐसे कोई भी कार्य न करें जिनसे लोग उन पर उंगलियां उठाने को विवश हों। आरोप चाहे जैसे भी हों पर जागरूक जनता में संदेह तो जगाते ही हैं। मनमोहन सरकार के सभी मंत्री अच्छे और सच्चे होते तो कोई भी उनपर उंगली उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता था। यहां तो हालात ये हैं कि आरोपों का सिलसिला थमता ही नहीं। अरविं‍द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री तथा उनके सहयोगियों पर आरोपों की झडी लगा दी। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ कि पीएम निशाने पर आये हों। देश के मुखर नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर जो सनसनीखेज आरोप लगाये हैं उन्हें मात्र कोर्ट केस करने की धमकी से खारिज नहीं किया जा सकता। राबर्ट वाड्रा, नितिन गडकरी, सलमान खुर्शीद और राहुल गांधी जैसे तमाम नेताओं पर लगे आरोपों की सच्चाई जनता के सामने आनी ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह मान लिया जायेगा कि हिं‍दुस्तान में अब सिर्फ कहने भर को लोकतंत्र बचा है...।

Thursday, November 1, 2012

कैसी बनेगी इमारत?

अरबो-खरबों के कर्ज के तले दबे किं‍गफिशर एयर लाइंस के मालिक विजय माल्या की ठसन कम होने का नाम नहीं लेती। सरकारी बैंको के सात हजार करोड रुपये दबा कर बैठे माल्या को कर्ज की कोई चिन्ता नहीं है। उनकी अय्याशियां परवान चढ रही हैं। कोई आम आदमी होता तो शर्म के मारे दुबक कर बैठ जाता। दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुके माल्या हर वर्ष कैलेंडर निकालते हैं जिसमे देश और दुनिया की मॉडल और अभिनेत्रियों की नंग-धडंग तस्वीरें छापी जाती हैं। इस कर्मकांड में सैकडों करोड फूंके जाते हैं। उनके गोवा के गेस्ट हाऊस में सुंदरियों का मेला लगता है और माल्या बीते जमाने के अय्याश शहंशाहों की तरह टुन्न होकर रूपसियों के सौंदर्य का रसपान करते हैं। खुद की मौजमस्ती पर धन की बरसात कर देने वाले माल्या को अपने कर्मचारियों को पगार देने में बडी तकलीफ होती है। पिछले कुछ महीनों से किं‍गफिशर एयरलाइंस पूरी तरह से लडखडा चुकी है। वेतन न मिलने के कारण मजबूरन कर्मचारियों को हडताल पर जाना पडा। पर इससे विजय माल्या के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आयी। उनकी मौजमस्ती का दौर चलता रहा। माल्या ने बैंको से लिये गये लोन के बदले जो सम्पतियां गिरवी रखी हैं उनकी इतनी कीमत नहीं है कि कर्ज की भरपायी हो सके। देश के अधिकांश रईस उद्योगपति ऐसी ही धोखेबाजी करते हैं और सरकार को चूना लगाते हैं। फिर भी सरकार कुछ भी नहीं कर पाती। सरकारी माल पर मौज मनाने वाले माल्या कहते है, 'लोग मुझसे जलते हैं। लोगों का रवैय्या देखने के बाद मुझे कडवी सीख मिली है कि भारत जैसे देश में अपनी धन-संपदा का कतई प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। यहां एक अरबपति राजनीतिज्ञ होना ज्यादा अच्छा है।' 'कर्ज' पर मौज मनाने वाले माल्या शायद यह भी कहना चाहते हैं मालदार नेता भी मौजमस्ती करते हैं। फिर भी अकेले उन जैसों पर ही निशाना साधा जाता है और नेताओं को बख्श दिया जाता है।
कर्ज लेकर घी पीने वाले माल्या की दलील में कोई दम नहीं है। जो लोग अपनी तथा बाप-दादा की कमायी पर ऐश करते हैं उन पर किसी को भी उंगलियां उठाने का हक नहीं होता। सरकारी धन की बदौलत गुलछर्रे उडाने वाले और भी कई उद्योगपति हैं जिन पर बैंकों का लाखों करोड का कर्ज है। कुछ तो ऐसे भी है जिनसे बैंकें अपनी सारी ताकत लगाने के बाद भी पूरी रकम की वसूली नहीं कर सकतीं। वे भी माल्या की तरह रंगीनियों में डूबे रहना पसंद करते हैं। अंबानी बंधु इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। इस धनासेठों पर जितना सरकारों ने लुटाया है और बैंकों का बकाया है उससे तो देश की तस्वीर ही बदली जा सकती है। इन शातिरों ने करोडो देशवासियों के हक की खुशियां और सुविधाएं छीन ली हैं। विजय माल्या, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, अदानी, जिं‍दल, अभिजीत जायसवाल, विजय दर्डा जैसे उद्योगपतियों और उनके रिश्तेंदारों ने जितनी सरकारी लूटपाट की है उससे तो देश का चेहरा ही बदल सकता था। यह कैसी विडंबना है कि चंद अमीरों के इस देश में सबसे ज्यादा गरीब रहते हैं। जहां पर कुपोषण के शिकार बच्चों का सरकार के पास भी कभी सही आंकडा नहीं रहता। हर वर्ष भुखमरी से मौतें हो जाती हैं। जहां करोडों का भ्रष्टाचार हो जाता हो वहां पर भूख की वजह से किसी गरीब का मर जाना वास्तव में हत्या से बढकर है। देश की संपदा के लुटेरों ने कभी इस ओर ध्यान दिया है? वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। उनके लिए देश की समस्याएं कोई मायने नहीं रखतीं। वे जनतंत्र में नहीं, लूटतंत्र में विश्वास रखते हैं। इन लोगों की करनी के चलते देश के ग्रामीण इलाके आज भी जबरदस्त बदहाली के शिकार हैं। शहरों में असंतोष के ज्वालामुखी फूटने को बेताब हैं। महात्मा गांधी कहा करते थे कि असली भारत ग्रामों में बसता है। आज तो हालात यह हैं कि धीरे-धीरे गांव ही समाप्त हो रहे हैं। गांव वालों की खेती की जमीनें उद्योगपतियों के चंगुल में फंसती जा रही हैं। शहर से लगे गांवों में तो भू-माफियाओं और नेताओं ने तांडव मचा रखा है। किसानों की जमीनें औने-पौने दामों में खरीद कर इमारतें और फैक्ट्रियां खडी की जा रही हैं। गांवों में स्थापित होने वाले कारखानो में ग्रामीणों को रोजगार नहीं मिलता। उन्हें हाथ में भीख का कटोरा थाम शहरों के जंगल में गुम हो जाने को विवश होना पडता है। ग्रामीण युवा अपराधों की तरफ बढ रहे हैं। कहने को तो सरकार हजारों परियोजनाएं चला रही है पर देश की तस्वीर कहां बदल रही है! राष्ट्र और समाज के विकास के लिए प्राथमिक शिक्षा की सर्वसुलभता अत्यंत जरूरी है। आजाद हिं‍दुस्तान में सरकारी प्राथमिक विद्यालय बदहाली का प्रतिरूप बनकर रह गये हैं। अधिकांश ग्रामीण प्राथमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों के बैठने तक की ढंग की व्यवस्था नहीं है। छात्रों के राशन में भी भ्रष्टाचारी हाथ मार लेते हैं। ढंग के शिक्षकों का भी अता-पता नहीं होता। यही वजह है कि निजी संस्थान शिक्षा के क्षेत्र में भी घुसपैठ बना चुके हैं। गरीबों के बच्चों के लिए शिक्षा सपना है। जब नींव ही ऐसी है तो इमारत के क्या हाल होंगे। सच तो यह है कि इमारत खडी ही नहीं हो सकती।