Thursday, February 21, 2019

शहीदों के परिजनों की तो सुनो

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी शहीद श्यामबाबू का पार्थिव शरीर लेकर जब उनके गांव नोनारी में पहुंचीं तो शहीद की पत्नी तडप-तडप कर रोने लगी। उत्तरप्रदेश के कानपुर के निकट स्थित इस गांव के लोगों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। इस दौरान शहीद की पत्नी अपने पति का चेहरा देखने की जिद करती रही, लेकिन तिरंगे में लिपटे ताबूत को नहीं खोला गया। ब्लास्ट की वजह से श्यामबाबू का पार्थिव शरीर पूरी तरह से क्षत-विक्षत हो चुका था। श्याम बाबू की शहादत की खबर के बाद से ही पूरे गांव में दो दिन तक चूल्हा नहीं जला। वे अपने घर के बडे बेटे थे। उनके पिता किसान हैं जिन्हें बेटे को खोने का दु:ख तो है, लेकिन शहादत पर गर्व भी है। छह साल पूर्व रूबी से शादी हुई थी उनके बहादुर बेटे की। उनका एक चार साल का बेटा और छह माह की एक बेटी है।
रोपड के गांव रौली के निवासी शहीद कुलविंदर सिंह का पार्थिव शरीर जब उनके घर लाया गया तब पूरा गांव उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड पडा। हर कोई गमगीन था वहीं उन्हें इस बात का गर्व भी था कि इस शहादत को हमेशा याद रखा जाएगा। शहीद कुलविंदर की आठ नवंबर को शादी होनी थी। लोदीपुर की अमनदीप से शहीद की सगाई हुई थी। वह भी अंतिम बिदायी देने के लिए पहुंची और विवाह की रस्में निभायीं। शहीद के शव के साथ विवाह के दौरान की जाने वाली सभी रस्में निभाई गर्इं। सेहरा और कलगी रखी गई जिसके बाद तो लोगों की आंखों से बस आंसू ही छलकते रहे। अमनदीप इतनी दुखी थी उसे संभालना मुश्किल हो रहा था। वह कई बार बेहोश हुई, लेकिन फिर भी उसने विवाह की हर रस्म निभाई। कुछ माह पूर्व जब कुलविंदर घर आए थे तो अपनी शादी के लिए बैंडबाजे और गाडियों की बुकिंग करवा कर गए थे।
भागलपुर के सुपूत रतनकुमार ठाकुर भी आतंकी हमले में शहीद हो गए। शहीद के पिता राम निरंजन ठाकुर बस यही चाहते हैं कि पाकिस्तान के परखच्चे उडा दिये जाएं। कब तक इस देश के बेटे आतंकवादियों की कुटिल चालों के शिकार होकर अपने प्राण गंवाते रहेंगे। अब और शहादत मंजूर नहीं। रतन कुमार का चार साल का एक मासूम बेटा है और पत्नी गर्भवती है। शहीद के पिता अपने बेटे की बहादुरी की कहानियां सुनाते-सुनाते फफक-फफक कर रोने लगे। कुछ ही पलों में उन्होंने खुद को संभाला, लेकिन मोहल्ले के लोगों की आखों के आंसू बहते ही चले गए। जब उन्होंने यह कहा - "मैं मातृभूमि की सेवा में एक बेटा खो चुका हूं, लेकिन पाकिस्तान को मुंहतोड जवाब देने के लिए मैं अपने दूसरे बेटे को भी देश की खातिर लडने और कुर्बान होने के लिए भेजकर ही दम लूंगा। वाराणसी के चौबेपुर के तोफापुर निवासी २६ वर्षीय रमेश कुमार यादव का नाम भी पुलवामा में शहीद हुए जवानों में शामिल है। पांच साल पूर्व उनकी शादी हुई थी। उनका डेढ साल का बेटा है जिसके पैर में कुछ परेशानी है। शहीद यादव ने अगली छुट्टी में आने पर अपने बेटे का समुचित इलाज कराने का वादा किया था। वे कुछ दिन पहले ही छुट्टी से वापस गए थे। जाते समय उन्होंने पत्नी से कहा था कि तुम परिवार की देखभाल करो, मैं देश की हिफाजत करूंगा। शहीद नसीर अहमद ७६वीं बटालियन में हेड कांस्टेबल पद पर तैनात थे। उनके आठ वर्षीय बेटे ने कसम खाई है वह सेना में भर्ती होकर अपनी अब्बू की शहादत का बदला जरूर लेगा। जम्मू-कश्मीर की घाटी में स्थित पुलवामा जिले में जैश-ए-मोहम्मद के द्वारा किये गए भीषण आत्मघाती हमले में शहीद होने वाल केंद्रीय रिजर्व पुलिस के सभी ४५ जवान देश के विभिन्न प्रदेशों से ताल्लुक रखते थे। शहीदों के परिजनों के अथाह रोष और क्षोभ को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस हमले में किसी पिता ने अपना दुलारा खोया, किसी ने अपना भाई तो किसी ने अपना जन्मदाता। मां-बहनों, बेटियों की मांग सूनी हो गई। फिर भी उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया। गर्व ने गम को बौना कर दिया है। शहीदों के परिजन अब बस चाहते हैं खून के बदले खून। बातचीत नहीं, बदला।
हरियाणा में जिंद जिले के एक सैनिक की पत्नी, जो कि डीएवी स्कूल की अध्यापिका हैं, ने ऐलान किया है कि जब तक केंद्र सरकार सीआरपीएफ के जवानों की शहादत का बदला नहीं लेती तब तक वे अपनी मांग में सिंदूर नहीं लगाएंगी। गत चार वर्षों में कायर आतंकी कई बार पीठ पीछे वार कर चुके हैं। फिर भी कुछ लोग पाकिस्तान से बातचीत करने की पैरवी करते हैं। उन्हें अब यह कौन समझाये कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते।
भारत के जन-जन के जोश, रोष और उनकी समग्र भावनाओं को व्यक्त करती डॉ. (कर्नल) वी पी सिंह की पुलवामा हमले के बाद लिखी कविता की निम्न पंक्तियां काबिले गौर हैं :
पुलवामा के बाद...
एक ही प्रश्न पूछ रहे हैं सब
अब नहीं तो कब?
क्या करें आक्रोश का, जो कर्म में ढलता नहीं है,
क्या करें संकल्प का, जो लक्ष्य तक चलता नहीं है,
अंधेरों से युद्ध की कसमें भला किस काम की
क्या करें उस दीप का, जो तिमिर में जलता नहीं है,
शत्रु के षडयंत्र का प्रतिकार होना चाहिये
निर्णयों के गर्भ में अंगार होना चाहिये
सरहदों के इस तरफ ही रक्त बहता ना रहे
मृत्यु का तांडव तो अब उस पार होना चाहिये।

Thursday, February 14, 2019

कितनी जानें लेगी शराब!

उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब और धन के लालच ने फिर सौ से अधिक लोगों की जान ले ली। मौत की शराब पीकर मरने वालों के परिवारों को दो-दो लाख का मुआवजा देकर सरकार ने अपना कर्तव्य निभा दिया और परिजन विलाप करते हुए शासन और प्रशासन को कोसते रहे, जिसकी अनदेखी या यूं कहें कि मूक सहमति से शराब का गोरखधंधा फलता-फूलता रहा है। कुछ माह पूर्व इसी तरह से कानपुर में भी जहरीली शराब से एक दर्जन मौतें हुर्इं थीं। सच तो यह है कि देश में किसी न किसी हिस्से से जहरीली शराब से मौतों की खबरें आती रहती हैं। जिन्हें पढ-सुनकर बडी सहजता से भुला दिया जाता है। जहरीली शराब पीकर मरने वाले ज्यादातर लोग उत्तराखंड में स्थित धार्मिक नगरी हरीद्वार में आयोजित एक तेरहवीं कार्यक्रम में शरीक होने गए थे, जहां पर उन्हें यह जानलेवा शराब परोसी गयी। श्राद्ध में शराब पिलाने की यह बडी पुरानी सामाजिक कुरीति है, जिसका खात्मा करने की पता नहीं कोई कोशिश क्यों नहीं की गयी! इस शराब को पीने से जिन और लोगों की मौत हुई वे श्राद्धकर्म में शामिल तो नहीं थे, लेकिन यह जरूर प्रतीत होता है कि उन्हें मौत की शराब आसानी से उपलब्ध थी। इसी से वे अपना शौक पूरा करते थे। इनमें से कुछ इसके लती भी होंगे। तो कुछ ने हो सकता है कि इसे पहली बार चखा हो और हमेशा-हमेशा के लिए मौत के मुंह में समा गए हों। मरने वालों में सभी गरीब थे। मेहनत-मजदूरी कर अपना तथा परिवार का भरण-पोषण करते थे। यह प्रश्न भी बहुत परेशानी में डालने वाला है कि गुजरात, बिहार, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर जैसे प्रदेशों की तरह उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में शराबबंदी नहीं होने के बावजूद लोग अवैध शराब क्यों पीते हैं। वैसे तो जिन राज्यों में शराब बंदी है वहां पर भी शराबियों को बडी सहजता से शराब मिल जाती है। दुस्साहसी शराब माफियाओं ने वहां पर अपना ऐसा साम्राज्य स्थापित कर रखा है जिस पर कभी भी आंच नहीं आती। मृतकों ने जो शराब पी थी उसे और नशीला बनाने के लिए मरे हुए सांप और छिपकलियां मिलाई गई थीं। अमीर तो महंगी शराब पीकर मौज मना लेते हैं, लेकिन नगरों और महानगरों में अवैध रूप से बसी झुग्गी-झोपडियों में रहने वाला मेहनतकश गरीब तबका अपनी थकान मिटाने के लिए सस्ती शराब पीने को मजबूर होता है। उसे यह पता नहीं होता कि इससे उसकी जान भी जा सकती है। वह तो बस विष पीता चला जाता है और एक दिन ऐसा मौत का तांडव सामने आता है, जो अकल्पनीय होता है। यह सच भी बेहद चौंकाने वाला है कि लोगों को शराब का आदी बनाने के लिए कई शराब माफिया उधार में शराब पिलाते हैं। एक माह में उधार नहीं चुकाने पर दस फीसद ब्याज वसूला जाता है।  ताज्जुब है कि इतना भयावह साजिश भरा खेल चलता रहता है और शासन-प्रशासन अनभिज्ञ रहता है! जहरीली शराब के कहर के बाद की गई छापेमारी में हजारों लीटर अवैध शराब और उनमें प्रयोग की जाने वाली हानिकारक सामग्रियां पकडने वाली पुलिस और आबकारी विभाग में यदि इंसानियत होती तो मौत के सौदागर बेखौफ होकर इतने व्यापक पैमाने पर अवैध भट्टियां नहीं चला पाते। ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस मौत के काले धंधे की खबर आम जनता को थी, लेकिन खाकी वर्दीधारी और आबकारी विभाग अनभिज्ञ था! प्रशासन की मिलीभगत के बगैर इतने बडे पैमाने पर मौत का कारोबार संभव ही नहीं। यह भी कम हैरत की बात नहीं है कि जब भी अवैध शराब से होने वाली मौतों की खबर आती है तो राजनेता मृतकों के प्रति संवेदना प्रकट करने का नाटक करने लगते हैं। सवाल यह है कि क्या इन्हें भी जानलेवा काले कारोबार का तभी पता चलता है जब लाशें बिछ जाती हैं? सच तो यह है कि राजनीतिक संरक्षण के बिना शराब माफिया पनप ही नहीं सकते। देश की राजनीति के मैदान में सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने वाले भरे पडे हैं। ऐसी मौतें यकीनन शासन और प्रशासन के निकम्मेपन की देन हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण लगभग पूरे देश में अवैध शराब का धंधा चल रहा है। वहीं हम और आप भी कम दोषी नहीं, जो यह सोचकर आंखें मूंदे रहते हैं कि यह काम तो सरकार और प्रशासन का है। हमें इससे क्या लेना-देना। सरकार और प्रशासन को जगाने की जिम्मेदारी समाज की भी तो है। ऐसी मौतों के बाद कई लोग उपदेश देने की मुद्रा में आ जाते हैं। उनका कहना होता है कि गरीब लोग शराब पीना छोड क्यों नहीं देते। अगर पीनी भी है तो महंगी शराब पिएं, जिससे जान जाने का कोई खतरा तो नहीं होता। दरअसल जरूरत तो इस बात की है कि गरीबों को कम कीमत पर सुरक्षित और मुहरबंद शराब उपलब्ध कराई जाए, जिससे वे विषैली शराब का शिकार न हों। उन्हें भी तो अपनी इच्छा और शौक पूरे करने का मौलिक अधिकार है। यहां हमारा शराब की वकालत करने का इरादा कतई नहीं है। शराब अंतत: हानिकारक है, लेकिन अमीरों की तरह गरीबों की भी पीने की इच्छा होती है। उनकी इस चाहत पर तभी अंकुश लग सकता है, जब वे खुद चाहें और समझें। पीडा तो इस सच को लेकर होती है कि हमेशा मौत की शराब उन्हीं के हिस्से में आती है। इस कातिल बेइंसाफी के कर्ताधर्ता भी वही धनवान होते हैं जिनका सत्ता और समाज में मान-सम्मान होता है। शराब के खिलाफ देश की महिलाओं द्वारा समय-समय पर विरोध और आंदोलन होते रहते हैं। सरकार को भी झुकना पडता है और शराबबंदी करनी पडती है। इसके बाजवूद भी हमारे समाज में शराब पीने का चलन बढता ही चला जा रहा है। यह भी कह सकते हैं कि शराब पीना इतना आम हो गया है कि कई महिलाएं भी शराब के नशे में डूबने लगी हैं।