Friday, December 27, 2013

एक सच यह भी

एक सत्यकथा के नायक ने आत्महत्या कर ली। अमूमन ऐसा होता तो नहीं है! दुराचारी तो खुद को निर्दोष साबित करने के लिए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। तरह-तरह की कहानियां गढते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे इस सदी के सबसे कुख्यात कथावाचक आसाराम ने बनायी और सुनायीं। उसके कुपुत्र नारायण ने भी बाप का अनुसरण करने में देरी नहीं लगायी। स्टिंग आप्रेशनों की झडी लगाकर राजनीति के धुरंधरों की जमीनें खिसकाने वाला तहलका का सम्पादक तरुण तेजपाल भी जब देहखोरी के चक्कर में पुलिसिया फंदे में फंसा तो उसने भी अपने तमाम उसूलों को सुली पर ऐसे टांगा जैसे उसका इनसे कभी कोई नाता ही नहीं था। ऐसी बेशर्मी और बेशर्मों के मायावी काल में जब यह सच सामने आया कि यौन उत्पीडन के संगीन आरोपों की तेजाबी तपन और जलन को बर्दाश्त न कर पाने के कारण एक शख्स ने मौत को गले लगा लिया, तो हैरानी के साथ-साथ पीडा भी हुई।
दिल्ली निवासी खुर्शीद अनवर का नाता उन लोगों से था जो बुद्धिजीवी कहलाते हैं। समाजसेवा में अभिरूची रखने वाले अनवर की बेबाक और चुभने वाली लेखनी से कई लोग चिं‍तित और परेशान रहते थे। भगवा और इस्लामिक कट्टरपंथ पर उनकी लेखनी एक साथ चलती रही। उनके करीबी दोस्तों का मानना है कि वे बेहद संवेदनशील इंसान थे। मानवाधिकारों की पुरजोर पैरवी करने वाले इस लडाकू इंसान को चरित्रवानों की श्रेणी में शामिल किया जाता था। उनके यार-दोस्त तो यह दावा करते नहीं थकते कि वे फिसलने वाले इंसान नहीं थे। कई छात्राओं का कहना है कि उनकी गरिमामय उपस्थिति तो सुरक्षा का अहसास दिलाती थी।
इस दोस्त, गुरु और सोशल एक्टिविस्ट पर एक युवती ने छेडछाड और दुष्कर्म का आरोप जडा तो सभी सन्न रह गये। युवती का कहना है कि वह १२ सितंबर की रात थी। खुर्शीद के घर पर डिनर पार्टी का आयोजन था। शराब के प्याले खनक रहे थे। उसने भी बहती गंगा में हाथ धोये। ज्यादा चढाने के कारण वह अपने होश खो बैठी। मजबूरन उसे वहीं सो जाना पडा। रात में जब उसे कुछ होश आया तो उसने अनवर को अपने ऊपर पाया। नशे के अतिरेक के कारण वह विरोध ही नहीं कर पायी। अगले दिन सुबह फिर से उसके साथ दुष्कर्म करने की भरपूर चेष्टा की गयी। युवती जो कि छात्रा है और मूलरूप से मणिपुर की रहने वाली है, ने जब यह बात अपने करीबियों को बतायी तो किसी को भी यकीन नहीं हुआ। उसने अपने साथ हुए खिलवाड की जानकारी जब अपने परिवार वालों को दी तो वे उसी पर बिफर उठे। उसे दुत्कारते हुए कहा गया कि वह अपना मुंह काला करने के बाद वापस घर ही क्यों आयी? वहीं मर जाती तो अच्छा था। घर में कैद कर उसकी बार-बार पिटायी की गयी। आगे की पढाई और नौकरी करने से मना कर दिया गया। मामला जब पुलिस तक जा पहुंचा तो एक चौंकाने वाली खबर यह भी सामने आयी कि घटनावाली रात खुर्शीद ने पीडि‍ता के साथ गई एक अन्य युवती को भी अपना शिकार बनाने का षडयंत्र रचा था। उसे भी शराब पीने को मजबूर किया गया था, लेकिन उसने अपनी समझदारी बरकरार रखी। गिलास में भरी शराब वॉशबेसिन में फेंक दी।
इस खबर को लेकर देशभर के न्यूज चैनलवाले वैसा ही हो-हल्ला मचाने और सनसनी फैलाने में जुट गये जिसके लिए वे जाने जाते हैं। खबरों की तह तक जाने से कन्नी काटने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया को तो जैसे ऐसी टीआरपी बढाने वाली खबरों का बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसा कोई भी मामला उछला नहीं कि न्यूज चैनल वालों में गला काट प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। हर किसी का यही दावा होता है कि इस खबर को हमने ही सबसे पहले दिखाने का साहस दिखाया है। हद तो यह भी है कि पांच-सात जाने-पहचाने पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का पैनल बैठाकर ट्रायल शुरू कर दिया जाता है। यही जाने-पहचाने चेहरे हर चैनल पर अपने ज्ञान का बखान करते नज़र आते हैं। इनकी बेसब्री के प्याले छलकने लगते हैं और स्टुडियो में ही फैसला सुना दिया जाता है। आरोपी को दोषी ठहराने में एक पल भी देरी नहीं लगायी जाती। खुर्शीद अनवर के साथ भी यही हुआ। वे अपना पक्ष रखना चाहते थे, लेकिन स्टुडियो में बैठकर अपनी-अपनी अदालतें चलाने वालें 'जजों' ने उनकी सुनी ही नहीं। सोशल मीडिया में भी ऐसी-ऐसी कटु टिप्पणियों का जलजला-सा आया जिनसे अनवर को लगा कि वे अब किसी को अपना मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहे। इसी सोच और भावावेश में उन्होंने १८ नवंबर की सुबह अपने फ्लैट की चौथी मंजिल से छलांग लगा दी। खुर्शीद अब इस दुनिया में नहीं हैं। पूरा सच शायद ही सामने आ पाए। पर यह भी सच है कि निर्भया बलात्कार कांड के बाद महिलाओं में गजब की जागृति आयी है। कुछेक बार ऐसा भी होता है जब महिलाएं आत्मसमर्पण करने को विवश हो जाती हैं। ऐसी नारियों का आंकडा भी अच्छा-खासा है जो भौतिक सुख-सुविधाओं के लालच में वासना के दलदल में फंस जाती हैं और दोष दूसरों पर लगाती हैं। इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि अधिकांश महिलाएं तथाकथित अपनों की वहशियत का शिकार होती हैं। खुर्शीद अनवर की आत्महत्या ने जो सवाल खडे किये हैं उनके भी जवाब सामने आने ही चाहिएं।

Thursday, December 19, 2013

'नक्सलवादी' की जंग

शहीद भगत सिं‍ह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का देश हिन्दुस्तान सर्वांगीण 'सफाई' का अभिलाषी है। पंजा, कमल, हाथी, सायकल, घडी आदि-आदि सबको देख लिया। परख लिया। सब में भ्रष्टाचार के पोषक भरे पडे हैं। कहीं कम, नहीं ज्यादा। खोटे सिक्कों ने असली सिक्कों का जामा ओढकर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, रिश्वतखोरी, अंधेरगर्दी और लूटपाट का जी भरकर तांडव मचाया। जनता बेबस तमाशा देखती रही। सफेदपोशों ने अपनी-अपनी तिजोरियां भरीं और किनारे हो गए। देश लुटा-पिटा खुद के जर्जर हालात पर रोता रहा। शातिर राजनेताओं ने आम आदमी के वोटों की बदौलत सत्ता का भरपूर सुख भोगा, अपनी आने वाली दस-बीस पीढि‍यो के भविष्य को सुरक्षित किया और उस भारत माता को भूल गये जिसकी वे कस्में खाते थे। आम आदमी की तो कोई चिं‍ता-फिक्र ही नहीं की गयी। उसके हिस्से में तो सिर्फ और सिर्फ बदहाली, गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही आयी। भरोसे और इंतजार की भी कोई सीमा होती है। इस हकीकत को देश के झांसेबाज सत्ताधीशों की शातिर जमात नहीं समझ पायी। जब दिल्ली में 'झाडू' लहरायी तो उनके होश उड गये। फिर भी नाटक जारी हैं। जो सभी को दिख रहा है उसी को कई चालाकों के द्वारा नकारा जा रहा है। अरविं‍द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास और उनके समर्पित योद्धाओं ने वो करिश्मा कर दिखाया है जिसकी नकाबपोश नेताओं को तो कतई उम्मीद नहीं थी। सोच और हालात ही कुछ ऐसे बना दिये गये हैं कि अधिकांश लोगों ने यह मान लिया है कि इस देश की तस्वीर नहीं बदली जा सकती। हालात जस के तस रहने वाले हैं। अब क्रांतिकारियों ने इस देश की धरती पर जन्म लेना बंद कर दिया है। इसलिए जो चल रहा है, उसे चलने दो। इसी में भलाई है। लेकिन दिल्ली के चुनाव परिणामों ने उन सबकी जमीनें हिला दी हैं जो आम आदमी पार्टी के उदय के पक्षधर नहीं थे। उन्हें तो यह क्रांतिकारी दल पानी का बुलबुला लग रहा है। उन्हीं की निगाह में यह तो एक कन्फ्यूस पार्टी है, जिसका कोई भविष्य नहीं है। राजनीति के महाबलियों ने केजरीवाल की तुलना 'नक्सलवादी' से कर अपने इरादे स्पष्ट कर दिये हैं। इन्हें अब यह याद दिलाना भी जरूरी है कि बम और बारुद बिछाकर निर्दोषों की जान लेने वाले 'वो' नक्सली अंधे और लालची सत्ताखोरों की देन हैं। उन्हें तो देश के लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं है। ऐसे में उनका तो किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। यह नक्सली(?) भी देश के शोषकों और लुटेरों के सताये हुए हैं। यह नये तथाकथित नक्सली भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों को सबक सिखाने और उन्हें सत्ता से बाहर करने के लिए ही राजनीति के मैदान में उतरे हैं। इन्हें देश के लोकतंत्र के प्रति पूरी आस्था है। दिल्ली के वो लाखों मतदाता भी इन्हें अपना मसीहा मानते हैं जिन्होंने अपने कीमती वोट देकर विधायक बनाया है। देश का काया-कल्प करने को आतुर ऐसे 'नक्सलियो' की देश को आज बहुत जरूरत है। कोई माने ना माने, यही आज के असली नायक हैं। एक थके हारे नेता ने बयान दागा है कि अरविं‍द केजरीवाल ने अन्ना हजारे के कंधे पर रखकर बंदूक चलायी है। ऐसे अक्ल के अंधो को यह कहने में पता नहीं शर्म क्यों आ रही है कि केजरीवाल ने अपने दम पर ही वो झाडू चलायी है जिसने भ्रष्टाचारियों के चेहरों का रंग उडा दिया है। झाडू के खौफ से घबराये नेताओं को यह गम भी जिन्दगी भर सताता रहेगा कि एक आम आदमी देखते ही देखते राष्ट्रीय परिदृष्य पर छा गया और वे खिसियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोचते रह गये। दरअसल, देशवासियों को वर्षों से ऐसे ही किसी साफ-सुथरे चेहरे की तलाश थी जो सत्ता के मद में चूर नेताओं के होश ठिकाने लगाये। शीला दीक्षित से उकतायी जनता को केजरीवाल का जिद्दी जूनून और सरल स्वभाव इस कदर भाया कि उसने मौका पाते ही घमंडी मुख्यमंत्री को उसकी औकात दिखा दी। झाडू और केजरीवाल तो एक प्रतीक हैं। आज देश को एक नहीं अनेक केजरीवालों की सख्त जरूरत है। जिस दिन इनके हाथों की झाडू जहां-तहां फैले भ्रष्टाचार के सफाये में लग जाएगी उसी दिन से खुद-ब-खुद भ्रष्टाचारी मिट्टी में दफन होते नजर आएंगे। गुस्से में उबलती आम जनता को ऐसे केजरीवालों का बेसब्री से इंतजार है जो भ्रष्ट तंत्र का सफाया कर सकें। दिल्ली के चुनावों में आम आदमी की पार्टी ने सिद्ध कर दिया है कि काले धन की बरसात किये बिना भी चुनाव जीता जा सकता है। इस देश की जनता भ्रष्टाचार-मुक्त शासन चाहती है। अरविं‍द केजरीवाल पर लोगों ने विश्वास किया। स्वच्छ शासन देने का आश्वासन तो कांग्रेस और भाजपा ने भी दिया, लेकिन मतदाताओं ने उनकी सुनने की बजाय 'आप' पार्टी पर भरोसा करने में ही अपनी भलाई समझी।
यही अरविं‍द केजरीवाल की असली अग्नि परीक्षा है। उन्हें कुछ अलग करके दिखाना ही होगा। उन्हें भ्रष्ट नौकर शाही में आमूलचूल परिवर्तन लाकर लोगों को राहत दिलानी होगी। यदि वे भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में कामयाब होंगे तो उनके चाहने वालों की कतार और लम्बी होनी तय है। दिल्ली से शुरू हुए उनके कारवां को देश के कोने-कोने में पहुंचने और अपना परचम लहराने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। पूरा देश उन्हें हाथों-हाथ लेने को आतुर है। क्योंकि ऐसी कोई भी जगह नहीं बची जहां रिश्वतखोरों और बेइमानों का वर्चस्व न हो। देशवासी किसी भी हालत में इनसे मुक्ति चाहते हैं और उन्हे यकीन है कि 'झाडू' ही उनके दिमाग ठिकाने लगा सकती है।
वर्षों से लटकते चले आ रहे लोकपाल बिल के पास होने के पीछे भी अरविं‍द केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया का अभूतपूर्व योगदान है। भले ही आज उनकी मेहनत पर पानी फेरने की साजिशें की जा रही हैं। यदि यह लोग न होते तो अन्ना का आंदोलन केन्द्र सरकार की तंद्रा को भंग नहीं कर पाता। दरअसल झाडू की धमाकेदार जीत ने कांग्रेस को लोकपाल बिल पास करवाने के लिए विवश कर दिया। यदि 'आप' नहीं जीतती तो लोकपाल भी अटका रहता।

Thursday, December 12, 2013

सत्ता की नाइंसाफी

बेटा कफन में लिपटा है। दाह संस्कार के लिए पिता का बेसब्री से इंतजार है। लाख मिन्नतों के बाद भी जेल में कैद पिता को अपने बेटे के अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति नहीं मिल पाती। कानून के रखवाले कहते हैं कि कानून सबके लिए बराबर है। मरना-जीना तो लगा ही रहता है। इसके लिए जेल के कायदे और कानून तो नहीं बदले जा सकते। ऐसी कई खबरें अक्सर पढने और सुनने में आती हैं। मृत पत्नी के अंतिम दर्शन के लिए पति फरियाद पर फरियाद करता रहा पर उसकी किसी ने नहीं सुनी। जेल में बंद बेटे को अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए चंद घंटे देने से भी जेल प्रशासन ने मना कर दिया। यही मेरे देश की असली तस्वीर है जिसमें आम आदमी के लिए रहम की कोई गुंजाईश नहीं है। फिर ऐसे में सवाल यह है कि कुछ लोगों के साथ इतनी रहमदिली क्यों? फिलहाल, हम बात कर रहे हैं उस संजय दत्त की जो फिल्म अभिनेता है। उसके पिता स्वर्गीय सुनील दत्त अभिनेता होने के साथ-साथ कांग्रेस सांसद थे। मां भी राज्यसभा की सम्मानित सांसद थीं। उसकी बहन प्रिया दत्त भी कांग्रेस की कमान थामे हुए है और सांसद भी है। इतने महान परिवार से ताल्लुक रखनेवाले अपराधी संजय दत्त पर महाराष्ट्र सरकार खासी मेहरबान है।
अच्छे इंसान के प्रति तो हर किसी को सद्भावना होती है। कानून की नजरों में संजय एक ऐसा अपराधी है जिसकी चारों तरफ थू...थू... होनी चाहिए। वह किसी तरह की इज्जत और सम्मान के भी काबिल नहीं है। १९९३ के मुंबई बम विस्फोटों के दौरान खून-खराबा करने के मकसद से लाये गये अवैध हथियारों के जखीरों में शामिल एक राइफल को रखने के मामले में शस्त्र कानून के तहत दोषी करार दिया गया संजय दत्त पूणे की यरवदा जेल में पांच वर्ष की सजा काट रहा है। उसने जो कृत्य किया है वह तो राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है। उसके देशद्रोही आतंकी दाऊद इब्राहिम जैसों से करीबी रिश्तों का भी खुलासा हो चुका है। देश की आर्थिक नगरी मुंबई में सिलसिलेवार बम-बारूद बिछाकर सैकडों निर्दोषों की जान और हजारों को गंभीर रूप से घायल करने वाले राष्ट्रद्रोहियों से मित्रता रखने वाले संजय को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए कई महारथियों ने अपने विवेक को सूली पर टांग दिया था। एक भूतपूर्व जज ने तो इस भयावह खलनायक को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। फिर भी आखिरकार उसे जेल जाना ही पडा। यहां भी वह नाटकबाजी पर उतर आया। वीआईपी कैदी की नौटंकियों काम कर गयीं। जेल में अभी कुछ माह ही गुजरे थे कि बीते अक्टुबर माह में उसे १४ दिनों के पैरोल पर रिहा कर दिया गया। सजग लोग हैरान थे। उसने इस मनचाही छुट्टी का भरपूर मज़ा लिया। जैसे ही जेल वापस जाने के दिन आए उसने फौरन खुद को बीमार बताकर और १४ दिनों का पैरोल हासिल कर लिया। ऐसी छूट आम कैदियों को सपनों में भी नसीब नहीं हो पाती। उन्हें तो कायदे-कानून का हवाला देकर जेल की काल कोठरी में दुबकने-सुबकने को विवश कर दिया जाता है। जब बात रसूखदारों की आती है तो हर कानून-कायदा उन्हीं के चरणों का दास हो जाता है। २८ दिन की छुट्टियों का आनंद लेने के बाद संजय ३० अक्टुबर को जेल लौटा ही था कि फिर से उसने अपने सत्ता के रिश्तों को भुनाना शुरू कर दिया। आश्चर्य... इसमें भी वह सफल हो गया। पिछली बार उसने अपनी बीमारी का ढोल पीटा था। इस बार उसने अपनी पत्नी मान्यता की बीमारी का दर्दीला गीत सुनाकर एक महीने के पैरोल की सौगात हासिल कर ली। दो माह में दूसरी बार पैरोल पर अभिनेता के बाहर आने के जादू ने सजग देशवासियों को सोचने के लिए विवश कर दिया है कि इस देश का यह कैसा कानून है? संजय को अपनी पत्नी मान्यता दत्त की बीमारी के कारण एक महीने का पैरोल दिया गया है। जबकि उसे हाल ही में एक फिल्मी पार्टी में देखा गया। जहां वह ठुमकती और मस्ती करती नजर आ रही थी।
मुंबई बम कांड के और भी कई आरोपी हैं जिन्होंने संजय की तरह ही आतंकियों से रिश्ते निभाये और खून-खराबा करने में उनका पूरा साथ दिया। उनके घर-परिवार के लोग भी बीमार पडते रहते हैं। कई तो खुद भी गंभीर बीमारी से पीडि‍त हैं। पर उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। इसी बात को लेकर विरोध के स्वर भी गूंज रहे हैं। अपराधी अभिनेता को गलत तरीके से राहत और सुविधा दिये जाने के कारण प्रदेश के गृहमंत्री आर.आर. पाटील पर भी उंगलियां उठ रही हैं। कहा जा रहा है कि-जहां हजारों जरूरतमंदों के आवेदन तो अक्सर ठुकरा दिये जाते हैं वहीं मुंबई की कांग्रेस सांसद के भाई की पलक झपकते ही हर मांग पूरी कर दी जाती है! यह कहां का न्याय है? खतरनाक अपराधी की पैरवी करने वालों को क्या पता नहीं है कि इस देश की जेलों में हजारों ऐसे कैदी वर्षों से बंद हैं जो बेकसूर हैं। उन्हें साजिशों के तहत फंसाया गया है। न जाने कितने कैदी तो ऐसे भी हैं जो दमदार वकील और जमानत की रकम का इंतजाम न कर पाने के कारण जेलों में मरने और सडने को विवश हैं। उनकी चिं‍ता तो किसी को नहीं होती! कोई भूतपूर्व जज और गृहमंत्री उनके लिए तो नहीं पसीजता। यह तो सरासर नाइंसाफी है। ढोंग है। कानून के साथ बहुत बडा खिलवाड है। फिर भी हुक्मरान यह कहते नहीं थकते कि कानून की निगाह में सब एक जैसे हैं। क्या ऐसे मक्कारों के हाथों में देश और प्रदेशों की कमान रहनी चाहिए?

Thursday, December 5, 2013

ऐसे बनता है कारवां

अपने देश में आम आदमी को रोजी-रोटी के जुगाड में अपनी सारी उम्र खपा देनी पडती है। जहां दो वक्त की रोटी दुश्वार हो वहां बीमार होने पर अस्पतालों के खर्चे उठा पाना आसमान के तारे तोडने वाली बात है। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। प्रायवेट अस्पतालों ने तो भव्य होटलों को भी पीछे छोड दिया है। यहां के हाई-फाई डाक्टरों की फीस को चुकाने में मध्यम वर्ग के भी पसीने छूट जाते हैं। ऐसे में गरीब तो वहां पांव धरने की भी नहीं सोच सकते। किसी भी सरकार ने कभी गरीबों की चिं‍ता नहीं की। उनकी बीमारियों और मौतों को सदैव अनदेखी की गयी। गरीब तो गरीब हैं। तरह-तरह की बीमारियां और दुर्घटनाएं उन्हें जब-तब दबोच लेती हैं। ऊंची कीमतों के कारण दवाइयां उनकी पहुंच से दूर रहती हैं। दवा विक्रेताओं की अपनी कमायी से मतलब है। मनमाने दाम वसूलने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती। ऐसे में बेचारे गरीब जाएं तो जाएं कहां? न बीमारियां उन पर रहम करती हैं और न सरकारें और राजनेता। हां, फिर भी नेताओं को बीमारों की कभी-कभार याद आ जाती है।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और अपने जन्मदिन पर कई नेता बडे ताम-झाम के साथ अस्पतालों में अपने चेले-चपाटों के साथ मरीजों से मिलने के लिए पहुंच जाते हैं। अपने इस अभियान में वे पत्रकारों को भी अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। उनके हाथ में पांच-सात सौ के फल और मिठाइयां होती हैं जिन्हें वे मुस्कराते हुए मरणासन्न मरीजों को वितरित करते हैं। उनकी इस सहृदयता और दानवीरता की तस्वीरें न्यूज चैनलों और अखबारों की शोभा बढाती हैं। नेताजी चंद रुपये खर्च कर लाखों की प्रसिद्धि बटोर लेते हैं। ऐसे खोखले और मायावी दौर में यदि किसी शख्स ने जरूरतमंदों को मुफ्त में दवाइयां और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का अभियान चला रखा हो तो उसे आप क्या कहेंगे?
बीते सप्ताह इस कलमकार की एक ऐसे इंसान से मुलाकात हुई जो मानवता और इंसानियत की जीती-जागती मिसाल है। उसमें नेताओं और तथाकथित समाज सेवकों वाला कोई भी अवगुण नहीं है। दीन-दुखियों के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देने वाले इस मानव को नाम कमाने की बीमारी भी नहीं है। लोग उन्हें 'मेडिसन बाबा' के नाम से जानते हैं। नारंगी रंग का कुर्ता-पायजामा उनकी खास पहचान में शामिल है। खुद का परिचय देते समय अक्सर वे यह कहने और बताने में भी संकोच नहीं करते कि वे तो सडक छाप भिखारी हैं। यह भिखारी रुपया-पैसा नहीं मांगता। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने और बीमारों को चंगा करने के लिए घर-घर जाकर दवाइयां मांगने वाले इस इंसान को जरूरतमंदों की मदद करने में जो सुकून मिलता है उसे किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। नारंगी कुर्ते पर सफेद लिखावट चमकती रहती है। 'चलता-फिरता मेडिसिन बैंक... मुफ्त दवाइयों के लिए सम्पर्क करें...०९२५०२४०९०८।' दिल्ली जैसे महानगर में जहां करीबी रिश्तों का कोई अता-पता नहीं है, वहां ऐसे परोपकारी का मिलना विस्मित कर गया। दोनों पैरों से अपंग इस शख्स को अक्सर इस चिं‍ता से रूबरू होना पडता था कि कई गरीब और बेसहारा लोगों को दवाइयों के अभाव में बेमौत मर जाना पडता है। धन के अभाव में कई बार अपने भी साथ छोड देते हैं। जब उन्हें दो वक्त की रोटी ही नसीब नहीं हो पाती तो महंगी दवाइयां खरीदना तो उनके लिए संभव ही नहीं हो सकता। उन्हें इस हकीकत का भी पता था कि कई लोगों के घरों में दवाइयों का अंबार लगा रहता है। जब उन्हें यह बेकाम की लगती हैं तो वे उन्हें कूडे-कचरे के हवाले कर देते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं होता कि यही दवाइयां कई असहाय जरूरतमंदों के लिए संजीवनी साबित हो सकती हैं।
मेडिसन बाबा रोज सुबह अपने घर से निकलते हैं। घर-घर जाकर दवाइयां मांगते हैं। यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है। शुरु-शुरु में लोग उनका मजाक उडाते थे। अब उनका साथ देने लगे हैं। कई सच्चे समाजसेवक और मानवता प्रेमी लोग भी उनके इस अभियान में शामिल हो गये हैं। वे उनकी सहायता करते हैं और दवाओं के साथ-साथ इलाज में काम आने वाले विभिन्न साधन-सामान उपलब्ध कराते हैं। इस फरिश्ते के घर के कमरों में दान की दवाएं, हास्पिटल बेड, सिलेंडर, वाकिं‍ग स्टिक, व्हील चेअर, रजाई, कम्बल जैसी तमाम चीजें भरी पडी हैं। जिन्हें भी सहायता की जरूरत होती है वे बेझिझक उन तक पहुंच जाते हैं। यदि कोई उनसे फोन पर सम्पर्क करता है तो उसकी समस्या का भी फौरन समाधान कर दिया जाता है। मेडिसन बाबा कहते हैं कि मेरा एक ही सपना है कि इस देश में दवाओं के अभाव में किसी गरीब को मौत के मुंह में न समाना पडे। मैं गरीबों और असहायों के लिए एक मेडिसन बैंक की स्थापना करना चाहता हूं जहां से जरूरतमंदों को मुफ्त में इलाज की तमाम सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। राजधानी के लोग मेडिसन बाबा को पहचानने लगे हैं। मेडिसन बाबा खुद अस्पतालों में जाते हैं और जरूरतमंदों का पता लगाकर उनकी सहायता करते हैं। इस काम में वे डाक्टरों की भी सहायता लेते हैं, ताकि किसी मरीज को गलत दवाई का शिकार न होना पडे। मदर टेरेसा को अपना आदर्श मानने वाले मेडिसन बाबा की कीर्ति विदेशों तक जा पहुंची है। दीन-दुखियों से सहानुभूति रखने वाले कई विदेशी भी उनसे खासे प्रभावित हैं। वे भी उन्हें निरंतर दवाएं भेजते रहते हैं। उनका हालचाल भी पूछते रहते हैं। दिल्ली के कई पढे-लिखे युवक-युवतियों को भी उनकी सहायता कर आत्मिक संतुष्टि मिलती है। यकीनन, कारवां ऐसे ही बनता है। पहल करने वाला चाहिए।