Thursday, April 28, 2016

जश्न की गोलियाँ

शाम अपने पूरे शबाब पर थी। दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में अपने घर की छत पर खडी अंजलि रास्ते से गुजर रही बारात को बडी तन्मयता से निहार रही थी। बैंड-बाजे की धुन पर लडके-लडकियों का थिरकना अंजलि को लुभा कर सपनों की दुनिया में ले जा रहा था। उसका नीचे उतरने को मन ही नहीं हो रहा था। मां आवाज़ें पर आवाज़ें लगा रही थी, "बेटी कब तक छत पर खडी रहोगी। बहुत देर हो चुकी, अब नीचे आ जाओ। खाना खाकर तुम्हें पढने के लिए भी बैठना है। इम्तहान सिर पर हैं।" इसी बीच बारात में मौजूद किसी बाराती ने हवा में फायरिेंग कर दी। उसकी पिस्टल से निकली जश्न की गोली अंजली के सिर में जा लगी। उसे फौरन अस्पताल पहुंचाया गया। चार दिन तक अस्पताल में तडपने के बाद आखिरकार उसने दम तोड दिया। अंजलि १२वीं कक्षा की छात्रा थी। पढाई में होशियार थी। वह टीचर बनना चाहती थी। छोटी सी चाय की दुकान लगाकर परिवार चलाने वाले पिता ने आर्थिक तंगी के बावजूद अपनी बेटी को आगे बढने के लिए सदैव प्रोत्साहित किया। उन्हें अपनी होनहार बेटी पर गुमान था। शादी ब्याह के मौकों पर कुछ बदहवास लोगों की पिस्तौलों और बंदूकों से चली गोलियां न जाने कितने निर्दोषों को मौत के घाट उतार कर उनके अपनों को अंतहीन मातम की अंधेरी सुरंग की ओर धकेल चुकी हैं। ऐसा लगता है कि लोग समय के हिसाब से खुद को बदलना नहीं चाहते। उनका अहंकार उन्हें नचाता रहता है। शादी-ब्याह और किसी भी विशेष पर्व पर बंदूकें लहराकर फायरिंग करने में उन्हें आत्मिक संतुष्टि मिलती है। गोलियां दाग कर अपना रूतबा दिखाने वालों पर कानून के खौफ और किसी की समझाइश का कोई असर नहीं पडता। इसलिए यह सिलसिला थमता नजर नहीं आता। हथियारों का यह घातक नशा कई जानें ले चुका है। कई शादियों में तो दूल्हा ही किसी पिस्टल की मदहोश गोली का शिकार हो जाता है और बारात को श्मशान घाट की तरफ मुडने को विवश हो जाना पडता है। देश का प्रदेश उत्तरप्रदेश ऐसी उत्सवी गोलाबारी में काफी आगे है। वहां कई शादियां फायरिंग के बिना अधूरी मानी जाती हैं। गांवों और शहरों में उमंग की गोलियां चलती रहती हैं और चलाने वाले की हैसियत और औकात का पता बताती रहती हैं। रंग में भंग पड जाता है, फिर भी दोषियों के चेहरे पर शिकन नहीं आती। यह सोचकर तसल्ली कर ली जाती है कि खुशी के मौकों पर छोटे-मोटे हादसे तो होते ही रहते हैं। उनकी चिन्ता में काहे को दुबले होना। यूपी के एक पत्रकार मित्र ने यह बताकर हमारी जानकारी में इजाफा किया कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मेहमानों को भेजी जाने वाली निमंत्रण पत्रिका में बडे-बडे अक्षरों में यह भी लिखा होता है कि आप अस्त्र-शस्त्र के साथ सादर आमंत्रित हैं। मेहमान पिस्तोल और बंदूकों के साथ शादी-ब्याह की शोभा बढाते हैं और जब होश पर जोश भारी पड जाता है तो अनहोनी भी हो जाती है।
दूसरों के हंसते-खेलते जीवन को अंधकारमय बनाने और पीडा पहुंचाने में कुछ लोगो को वाकई बडा मज़ा आता है। उनकी फितरत ही ऐसी होती है कि वे इस ताक में रहते हैं किसी को कैसे बेचैन किया जाए। अपने देश में कुछ लोग हैं जो उत्सव और धर्म के नाम पर भी मनमानी और तमाशेबाजी करने से बाज नहीं आते। एक मित्र को विदेश में जाकर नौकरी करना महंगा पड गया। उनकी शहर में अच्छी-खासी जमीन थी। वे यह सोच कर विदेश चले गये कि जमीन कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि जिसे कोई उठा कर ले जाए, लेकिन वर्षों बाद जब वे स्वदेश लौटे तो उनके पैरोंतले जमीन ही खिसक गयी। उनकी पांच हजार वर्गफुट की जगह पर भव्य मंदिर का निर्माण हो चुका था। जिन लोगों ने यह करिश्मा किया था वे छुटभइये नेता और गुंडे किस्म के लोग थे। मित्र वर्षों से कानूनी लडाई लड रहे हैं। वकीलों को लाखों की फीस देकर टूट चुके हैं, लेकिन फिर भी उन्हें अपनी ही जमीन वापस मिलती नहीं दिखती। मंदिर यानी धर्म का मामला। जब धर्म की बात आती है तो अधिकांश लोग इतने धार्मिक हो जाते हैं कि सच का साथ देने में भी कतराते हैं। जुबान बंद रखने में ही भलाई नजर आती है। मित्र के साथ भी यही हो रहा है। आसपास के सभी लोग जानते हैं कि जमीन पर अवैध कब्जा कर मंदिर बनाया गया है। मित्र की भी हिम्मत नहीं होती कि वे वहां जुटने वाले धर्म-प्रेमियों को खदेडने की सोचें। वहां सुबह-शाम पूजा पाठ चलता रहता है।
नारंगी नगर नागपुर में सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण कर पूजा स्थल बनाने की खबरें आती रहती हैं। इन्हें महानगर पालिका के अधिकारी चाहकर भी धराशायी नहीं कर पाते। इन्हें खडा करने वाले भी कम चालाक नहीं। मूर्ति स्थापना या अन्य कार्यक्रम के आयोजन के अवसर पर छपवायी गयी निमंत्रण पत्रिका पर केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और दिग्गज हस्तियों के उपस्थित रहने की जानकारी देकर अपना दबदबा बनाते हैं। ऐसे में कोई भी सरकारी अमला अवैध धार्मिक स्थल को ढहाने की सोच भी नहीं पाता। आप किसी भी शहर और गांव में चले जाइए, आपको जगह-जगह ऐसे धार्मिक स्थल छाती तानकर खडे नजर आएंगे जिनकी वजह से लोगों को कई तरह की असुविधाओं से रूबरू होना पडता है। कई शहरों और गांवों के तालाबो को कचरे और मिट्टी से पाट कर मंदिर स्थापित कर दिये गये हैं। अवैध पूजा स्थल बनाने वाले यह भी नहीं देखते कि वे किस जगह पर अतिक्रमण कर रहे है। सडकों के बीचों-बीच और रेल की पटरियों के इर्द-गिर्द बने अर्चनालय बेहद चौंकाते हैं। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक स्थलों के निर्माण पर गहरी नाराजगी जताते हुए कहा है कि यह भगवान का सम्मान नहीं बल्कि अपमान है। सडके लोगों के चलने के लिए होती हैं। जो लोग ईश्वर पर विश्वास नहीं करते वे ईश्वर को ऐसी-ऐसी जगह पर बिठा देते हैं जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। नियम कानूनों की अनदेखी कर विभिन्न देवी-देवताओं के नाम पर स्थापित किए गए पूजा-अर्चना के स्थलों को हटाने में नेता तो नेता सरकारें भी हिचकिचाती हैं कि कहीं लोगों की भावनाएं आहत न हो जाएं। धर्म-प्रेमियों की भीड सडकों पर न उतर आए। इसी बहाने स्वार्थी नेताओं की राजनीति भी फलती-फूलती रहती है। और यह भी तो सच ही है कि सरकारें भी आखिरकार नेता ही तो बनाते हैं!

Thursday, April 21, 2016

आंखों का मरा पानी

जब इंसान नहीं संभला तो कुदरत भी अपना रंग दिखाने लगी। २०१६ के मार्च-अप्रैल महीने के आते-आते पानी तो जैसे गायब हो गया और सूरज आग के गोले में तब्दील हो गया। देशभर के मैदानी इलाके तवे की तरह तपने लगे और सूर्य देवता के उग्र तेवरों ने चेतावनी दे डाली की बहुत कर चुके अपनी मनमानी, अब भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। क्या कभी सुना था कि इतनी गर्मी पडेगी कि फर्श चूल्हा बन जायेगा? तेलंगाना में स्थित करीमनगर में एक महिला ने अपने मकान के बरामदे के सुलगते फर्श पर आमलेट बनाया और मजे से खाया और खिलाया। बिना किसी चूल्हे के आमलेट बनाने का यह नजारा अद्भुत था। अकल्पनीय। देश के विभिन्न न्यूज चैनलों पर यह महिला सूरज की आग से जलते फर्श पर जब आमलेट बनाते दिखी तो देखने वाले दंग के दंग रह गये।
महाराष्ट्र के लातूर जिले ने कभी प्रलयकारी भूकंप की मार झेली थी। घर-परिवार तबाह हो गये थे। लातूर को फिर से बनने और संभलने में कई वर्ष लग गये थे। आज उसी लातूर को भयंकर सूखे के चलते पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसना पड रहा है। यह परेशानी उस भूकंप से कम पीडादायी नहीं है। पानी की जानलेवा-किल्लत के कारण उन्हें तकलीफ-दर-तकलीफ का सामना करना पड रहा है। "जल है तो कल है"  और 'पानी बिन सब सून' जैसी जागृत करने वाली कहावतें सटीक और सजीव हो रही हैं कि पानी की बर्बादी से बाज आओ। जल को संग्रहित करना सीखो। यदि ऐसे ही पानी की बर्बादी होती रही तो करीब दो दशक बाद आज की तुलना में पानी आधा रह जाएगा। पीने के पानी के अभाव में होने वाली बीमारियों को रोक पाना मुश्किल हो जायेगा। जल के बिना जीना कैसा होता है इसकी पूरी खबर महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाडा को तो हो ही गयी है, जहां तीन वर्ष से सूखे के चलते लोगों को पानी के लिए तरसना पड रहा है। वैसे भी लातूर में सूखे की मार बनी रहती है और जल संकट पीछा नहीं छोडता। लेकिन इस बार बहुत अति हो गयी। किसानों की फसलें बर्बाद हो चुकी हैं। कुएं और तालाबों में पानी का नामो-निशान नहीं रहा। हजारों पशुओं ने प्यास के मारे तडप-तडप कर प्राण त्याग दिए। न जाने कितने लोग अपना घर-बार छोडकर शहर की तरफ चल दिए। तय है कि यहां के लोगों की दिनचर्या अस्तव्यस्त हो गयी है। लातूर की आबादी है लगभग पांच लाख। इतनी आबादी को रोजाना दो करोड लीटर पानी की जरूरत होती है। हकीकत यह है कि महीने में मात्र एक बार ही पानी मिल पाता है। इस भयावह किल्लत की एक वजह यह भी है... उस बांध का सूख जाना जिससे शहरवासियों को प्रतिदिन काफी पानी मिलता था। हिन्दुस्तान के इतिहास में संभवत: पहली बार पानी के संकट से निपटने के लिए वॉटर ट्रेनें प्यासों की प्यास बुझाने के लिए भेजी जा रही हैं।
हमेशा जल संकट से जूझने वाले राजस्थान में भी अप्रेल महीने से पानी के लिए संघर्ष की नौबत आ गयी। करीब पंद्रह हजार गांव पानी के कमी का शिकार हो गये और लाखों लोगों को पीने के पानी के लिए तरसते देखा गया। सरकार ने लोगों को पानी मुहैया कराने के लिए जो योजनाएं बनायीं, वे नाकाफी सिद्ध हुर्इं। यह भी सच है कि महाराष्ट्र के लातूर की तरह राजस्थान में भी पानी की समस्या कोई नयी बात नहीं हैं। सरकारें आती-जाती रहीं, इस विकट समस्या का हल नहीं हो पाया। व्यवस्था गैरजिम्मेदार बनी रही। सत्ताधीशों की इरादों और नीयत में खोट नहीं होती पानी की समस्या का हल तलाशना मुश्किल नहीं था। जिन बांधो को पांच वर्ष में बन जाना था उन्हें पंद्रह-बीस वर्ष में भी नहीं बनाया जा सका। लागत बढती चली गयी। काम रूक गया। देश में ऐसे कितने बांध हैं जो अधबने हैं। उद्घाटन होने के बावजूद काम शुरू ही नहीं हो पाया। हां कागजी बांधों, की बदौलत सरकारी ठेकेदारों, सत्ता के दलालों और नेताओं ने मनमानी चांदी काट ली।
प्रकृति की हकीकत और रहस्य भी बडे निराले हैं। जहां लगभग पूरे देश में पानी के लिए हाहाकार मचा है वहीं सूखे प्रदेश के रेगिस्तानी जिलों में शामिल जैसलमेर में दो स्थानों पर जमीन से अपने आप पानी निकलने से लोग हतप्रभ रह गये। एक जगह पर पिछले तीन वर्ष से लगातार पानी के निकलने से इसे दैवीय कृपा माना जा रहा है। अपने देश की अधिकांश आबादी प्राकृतिक आपदाओं को ऊपर वाले का प्रकोप और मर्जी मानती है। अक्सर धर्म, विज्ञान पर भारी पड जाता है। भूजल वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से यहां जो वर्षा हुई है, उसका पानी जमीन में जिप्सम की परत होने के कारण नीचे नहीं जा पाया और अब इस तरह से जमीन से अपने आप बाहर निकल रहा है, लेकिन गांव वाले इसे ऊपर वाले का चमत्कार मान नमस्कार कर रहे हैं। वहां पर मंदिर बनाने की तैयारी के साथ चंदा जुटाने का अभियान शुरू हो चुका है।
जनता पानी और सूखे की मार से आहत होती रहे नेताओं को कोई खास फर्क नहीं पडता। यह तो वोटों की चिन्ता है जो उनके होश ठिकाने लगा देती है और उन्हें अपने वातानुकूलित कमरों से बाहर निकलने को विवश कर देती है। बेचारे जैसे-तैसे भरी गर्मी में लोगों का हाल-चाल जानने के लिए पहुंच जाते हैं। वहां भी उनका मन परिंदे की तरह भटकता रहता है। महाराष्ट्र की ग्राम विकास एवं जल संचय मंत्री पंकजा मुंडे पानी की भयंकर समस्या से जूझ रहे सूखाग्रस्त लातूर के दौरे पर ऐसे पहुंचीं जैसे भ्रमण का मज़ा लूटने आयी हों। वे सूखे से लडते गांववासियों के आंसू पोछने की बजाय सेल्फी लेती रहीं। पंकजा ने अपनी कुछ तस्वीरें ट्विटर अकाउंट पर शेयर कर खुद की पीठ थपथपायी। सेल्फी लेने के बाद वे जिस तरह से अफसरों और पुलिसवालों से मुस्कराते हुए मिलीं उससे वे भी जान गए कि मंत्री महोदया को सूखा पीडितों से कोई सहानुभूति नहीं है। यह तो रस्म अदायगी है जो उन्हें यहां खींच लायी है। पंकजा महाराष्ट्र के जाने-माने नेता स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे की पुत्री हैं। गोपीनाथ भाजपा के धनवान और बलवान नेता थे। फिर भी जनसेवा की भावना के भी धनी थे। उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री बनाया गया था। दिल्ली में हुई कार दुर्घटना में उनका देहावसान हो गया था। पंकजा को राजनीति तो विरासत में मिली है, लेकिन उन गुणों का नितांत अभाव है जो उनके पिताश्री की पहचान थे। पंकजा जब गर्मी से पसीना-पसीना हो गयीं तो उन्हें अपने मेकअप की चिन्ता सताने लगी। किस्मत की धनी पंकजा -पहली बार मंत्री बनी हैं। उनकी मंशा तो मुख्यमंत्री बनने की थी। भ्रष्टाचार के विभिन्न आरोपों के चलते मीडिया की सुर्खियां पाने वाली पंकजा को विदेश यात्राएं करने का खासा शौक है। पहले भी जब महाराष्ट्र में सूखा पडा था तब वह विदेश यात्रा का आनंद ले रही थीं। उनके पति चारुदत्त पालवे मराठवाडा में स्थित एक शराब फैक्टरी के मालिक हैं। जहां मराठवाडा पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहा है वहीं मंत्री महोदय के पतिदेव के शराब कारखाने को भरपूर पानी मुहैया कराया जा रहा है। पंकजा यथार्थ की जनसेवा में यकीन नहीं रखतीं। वे उन नेताओं में शामिल हैं जो कागजों पर तालाब, हैंडपंप, बोरवेल, कुएं और बांध बनाने की परिपाटी को जिन्दा रखने के हिमायती हैं। ऐसे नेताओं को होश में लाने और उन्हें उनके कर्तव्य के प्रति सचेत कराने के उद्देश्य से ही युवा कवि आनंद सिंगीतवार ने यह पंक्तियां लिखी हैं :
बस्तियों में ला पानी,
प्यासों को पिला पानी।
कागजों से उतार कर,
नदियों में बहा पानी।
गांव, शहर, झोपडी, महल,
हरेक को दिला पानी।
दौलत के वास्ते दोस्त,
रिश्तों पे ना फिरा पानी।
वो मर गया जिसकी,
आंखों का मरा पानी।

Thursday, April 14, 2016

यह कैसी बेइंसाफी?

आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी छुआछूत और भेदभाव की आतंकी सोच का पूरी तरह से अंत नहीं हो पाया है। दलित समाज के लोग सामाजिक रूप से सजग और प्रभावी भी हुए हैं, लेकिन आज भी उनको अपमानित कर विषैले दंश देने की बेखौफ हरकतें की जा रही हैं। अभी कुछ समय पहले आदिवासी सोनभद्र जिले में एक वृद्धा और उसकी बेटी को डायन बताकर उनके बाल काट डाले गये। इससे पहले भी उत्तरप्रदेश के बुदेलखंड समेत कई इलाकों में डायन बताकर महिलाओं को लज्जित और उत्पीडित करने की शर्मनाक घटनाएं सामने आयीं।
कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और शोषितों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ-लिख जाता है और ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है तो सवर्णों के सीने में सांप लोट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है जहां बिना किसी भेदभाव के सभी के दाढी और बाल काटे जाते थे, लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने उन्हें अपनी पीडा और परेशानी बतायी उसे चेतावनी दे दी गयी है कि वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर ही न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। ऐसे में तनातनी तो बढनी ही थी। दलितों के बढते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला उठे कि इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। चींटी की हाथी के सामने क्या औकात। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारापीटी की नौबत आ गयी। आपसी संघर्ष में २७ लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये।
दरअसल देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं जहां सवर्णों और धनवानों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनकी मनमानी दलितों पर मनमाना कहर बरपाती है। उन्हें कानून का भी कोई खौफ नहीं। उनके लिए यह २१ वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। प्रशासन उनका, सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। ऐसे में फिर डर काहे का?
मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के निकट स्थित पीथमपुर से १५ किलोमीटर दूर बसा है सुलवाड गांव। इस गांव में किसी दलित की शवयात्रा सवर्णों की गली से नहीं गुजर सकती। दलितों की शवयात्रा गांव के कच्चे रास्ते से निकलती है। दलित डामर वाली सडक से जुलूस आदि भी नहीं निकाल सकते। वर्ष २००८, १४ दिसंबर का दिन था। ८० साल की कुवरा पूनम की मौत की अंतिम यात्रा की तैयारी हो चुकी थी। बेटों ने मां की अंतिम यात्रा के लिए बैंड-बाजे बुलवाए। जैसे ही यात्रा गांव के भीतर पहुंची तभी एकाएक पथराव हुआ और सवर्णों ने दलितों पर लाठियां बरसानी शुरू कर दीं। बेटों और उनके परिजनों को यात्रा पलट कर गांव के बाहरी गंदे रास्ते से ले जानी पडी। पुलिस, कलेक्टर और सरकार तक शिकायत पहुंचायी गयी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। गुस्साए सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया। आखिरकार दलितों को ही झुकना पडा। तब से आज तक यही परंपरा चली आ रही है। दलितों की न खुशियां अपनी हैं और न ही गम। सवर्ण जैसा चाहते हैं वैसा उन्हें नचाते हैं।
गत वर्ष रामकिशन के बेटे की शादी थी। लडकी वाले घर कपडे चढाने आए थे। उन्होंने गांव की मुख्य सडक से ढोल बाजे के साथ त्योहारी का सामान चढाने की तैयारी की। जैसे ही सवणों को खबर लगी तो वे रामकिशन के घर आ धमके और उसे चेताया और धमकाया कि अपनी औकात मत भूलो। ज्यादा उचकने की कोशिश की तो ठीक नहीं होगा। इसी गांव के धुल जी ने जब अपने परिवार की एक बारात को गांव के मंदिर से दर्शन करवाते हुए दूसरे गांव ले जाना चाहा तो उसे रोक दिया गया। तब भी जमकर हंगामा हुआ और मारपीट भी हुई।
बददिमाग दबंगों और रसूखदारों के अहंकार की कोई सीमा नहीं है। अपनी मनमानी करने और जुल्म ढाने के लिए दलित और शोषित उनके लिए सर्वसुलभ साधन हैं। देश की राजधानी दिल्ली में एक युवक जबरन पिट गया। उसका बस यह कसूर था कि वह दलित था। वह जब घुडचढी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दुल्हे पर अपशब्दों की बौछार की और घोडे पर चढने से रोका। विरोध किये जाने पर दुल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड चढायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने मर्यादा और आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी पर उतर आये। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन सभी को मीडिया में जगह नहीं मिलती।
चुनाव के दौरान भी दलितों और महादलितों पर आतताइयों के आतंक की नंगी तलवार टंगी रहती है। ८ मार्च २०१२ को उत्तरप्रदेश एक गांव में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी की जीत के बाद दलितों के १३ घर फूंक दिये गये। इस कहर के टूटने का कारण था दलितों के द्वारा समाजवादी पार्टी को वोट न देना। दलित खुद अपने फैसले लें और मनचाही राह चुनें, यह सामंतवादी सोच के शोषकों को बर्दाश्त नहीं होता। वर्ष २०१६, ऐन होली के दिन केंद्रीय कृषि मंत्री एवं मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह द्वारा गोद लिए गए आदर्श ग्राम खैरीमाल में दबंगों ने ५०, महादलित परिवारों पर अमानवीय जुल्म ढाते हुए न सिर्फ उन्हें मारापीटा बल्कि लूटपाट मचाते हुए उनके घर तक उजाड डाले। नशे में धुत दबंग उनके मवेशी हांक कर ले गए और महिलाओं से छेडछाड करने की गलीच मर्दानगी भी दिखायी। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता  चला आ रहा है जो दलितों और शोषितो के मसीहा कहलाते हैं।
दलितों और शोषितो के हित की लडाई लडने के नाम पर राजनीति करने वाले यह तथाकथित मसीहा फर्श से अर्श तक पहुंच जाते हैं। सत्ता पाते ही यह राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और चाटूकार राजनेताओं के रंग में रंग जाते हैं। कोई छगन भुजबल देखते ही देखते अथाह भ्रष्टाचार की जादुई छडी घुमाकर हजारों करोड के वारे-न्यारे करता है और जेल पहुंच जाता है। फिर भी उसके चेहरे पर शर्मिंदगी की हल्की-सी लकीर नजर नहीं आती। अधिकांश पाला बदलने वाले सत्तालोलुप दलित नेताओं का इतिहास उठाकर देख लीजिए... बहुत कम ऐसे हैं जो वाकई दलितों के प्रति पूरी तरह से ईमानदार हैं।

Thursday, April 7, 2016

सत्ता और शराब

बिहार में पूरी तरह से शराब बंदी करने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का अभिनंदन। बहुत वर्षों बाद वो दिन आया जब किसी नेता ने जोखिमभरे वादे को निभाने का भरपूर साहस दिखाया। बिहार जैसे प्रदेश में शराब बंदी करना कोई बच्चों का खेल नहीं था। प्रदेश में शराब बंदी लागू होने से महिलाएं तो गदगद हो गयीं। ढोल-नगाडों के बीच जमकर जश्न मनाया गया। राजधानी पटना समेत पूरे प्रदेश में महिलाओं ने होली और दिवाली एक साथ मनायी। ऐसा भी पहली बार हुआ जब शराब के विरोध में जुलूस निकले और सभाएं की गयीं। सभी विधायकों और मंत्रियों ने मय से दूरी बनाये रखने की कसम खायी।
कौन नहीं जानता कि शराब की वजह से महिलाओं को ही सबसे ज्यादा कष्ट झेलना पडता है। लाख समझाने पर भी पियक्कड पति, भाई, पिता, बेटे शराब से तौबा करने का नाम नहीं लेते। अच्छे-खासे घर बरबाद हो जाते हैं, लेकिन शराबियों की नींद नहीं खुलती। औरतें तो बस खून के आंसू बहाती रह जाती हैं। बिहार की महिलाओं पर अपार उपकार किया है मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने। शराब बंदी कर उन्होंने महिलाओं को वो खुशी और तसल्ली दे दी जिसकी उन्हें वर्षों से चाह थी। बिहार में शराबबंदी को लेकर उठाया गया यह कदम कितना सफल होता है यह तो आने वाला वक्त बतायेगा, लेकिन अभी से हताश और निराशा की बातें करना तर्कसंगत नहीं लगता। अभी तो पीठ थपथपाने का वक्त है।
१९७७ में बिहार में ऐसा ही प्रयोग तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने भी किया था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल पायी थी। उनकी शराब बंदी के पीछे मंशा यही थी कि प्रदेश में होने वाले अपराधों में कमी आयेगी। लोगों के खून-पसीने की कमायी का सदुपयोग हो सकेगा, लेकिन सकारात्मक परिणाम नहीं मिल पाये। अवैध शराब तस्करों की चांदी हो गयी। मिलावटी और जहरीली शराब की वजह से पियक्कडों की जान पर बन आयी। प्रसिद्ध अभिनेता स्वर्गीय एनटी रामाराव ने आंध्रप्रदेश में शराब बंदी के पुख्ता वादे के साथ राजनीति में कदम रखा था। महिलाओं में खासे लोकप्रिय एनटी रामाराव गरीब प्रदेशवासियों को शराब के भयावह प्रकोप से बचाना चाहते थे। अभिनेता से नेता बने रामाराव के शराब बंदी आंदोलन में किसी को कोई खोट नज़र नहीं आया था। वैसे भी उनकी छवि परंपरागत जुमलेबाज नेताओं से जुदा थी। अंतत: उनका आंदोलन रंग लाया और वे आंध्रप्रदेश की सत्ता पाने में सफल हो गये। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होते ही उन्होंने अपना वादा निभाया, लेकिन जब उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने प्रदेश की सत्ता संभाली तो बंदी को एक ही झटके से हटा दिया। १९९६ में हरियाणा में मुख्यमंत्री बंसीलाल ने भी शराबबंदी के वादे को साकार कर लोकप्रियता पायी थी, लेकिन बाद में प्रदेश में अवैध शराब की अंधाधुंध तस्करी होने के कारण उनका प्रयोग टांय-टांय फिस्स हो गया।
१ अप्रैल २०१६ को जैसे ही बिहार में देसी शराब पर बंदिश लगाये जाने का ऐलान किया गया तो अवैध शराब माफिया कुछ ही घंटो के भीतर सक्रिय हो गये। कहीं भी सहज उपलब्ध होने वाली ताडी में अवैध देसी शराब मिलायी जाने लगी। इससे ताडी की बिक्री में अभूतपूर्व इजाफा हो गया। नियमित देसी पीने वाले ताडी पर टूट पडे। जब भी किसी प्रदेश या शहर में शराब पर पाबंदी लगायी जाती है तो अवैध शराब कारोबारियों के साथ-साथ तस्कर भी पियक्कडों को शराब उपलब्ध कराने में लग जाते हैं। यह माना कि पुराने अनुभव अच्छे नहीं रहे। जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शराब पर बंदिशें लगायी गयीं, वो पूरी तरह से सफल नहीं हो पाये। इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि नीतीश कुमार ने चूनाव पूर्व शराब बंदी की घोषणा की बदौलत ही सत्ता पायी। बिहार में महागठबंधन की बडी जीत का कारण महिलाओं द्वारा उनके पक्ष में किया गया अभूतपूर्व मतदान ही है। नीतीश कुमार ने पहले देसी शराब पर प्रतिबंध लगाया और जब उन्होंने देखा और समझा कि उनके इस कदम को सराहा जा रहा है तो उन्होंने ५ अप्रैल २०१६ को अंग्रेजी शराब के बेचने और पीने पर भी पाबंदी लगाकर अपने चुनावी वादे को पूरी तरह से पूरा कर दिखाया। ऐसा तो हो नहीं सकता कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शराब बंदी के पुराने इतिहास से वाकिफ न हों। यकीनन उनका साहस अनुकरणनीय है। उन्होंने शराब बिक्री की बदौलत सरकारी खजाने में आने वाले लगभग पांच हजार करोड रुपयों की परवाह न करते हुए अपने वादे और सर्वजनहित को प्राथमिकता दी। अगर पूर्व में शराब के खिलाफ चलाये गये अभियान असफल रहे तो इसका यह मतलब तो नहीं कि अब भी शराब बंदी का वही हश्र होगा। ऐसा सोचना बेवकूफी भी है और नादानी भी। शासन और प्रशासन के यदि इरादे नेक हों तो शराब की तस्करी और अवैध शराब के धंधेबाजों को दबोचना कोई मुश्किल काम नहीं है।
यह भी बहुत अच्छी खबर है कि बिहार सरकार शराब की लत को छुडवाने के लिए व्यसन मुक्ति केंद्र की स्थापना करने जा रही है। यदि कोई अवैध शराब बेचता हुआ पकडा जाता है तो उसे कडा दण्ड और इसे पीकर यदि किसी की मौत हो जाती है तो ऐसी स्थिति में अवैध शराब निर्माता, विक्रेता, तस्कर को १० साल की सज़ा से लेकर उम्र कैद तक का प्रावधान रखा गया है। बिहार प्रशासन के पूरी तरह से जागरूक रहने पर निश्चय ही बिहार का चेहरा बदलेगा और अपराधों में काफी कमी आयेगी। देश के प्रदेश गुजरात की तरक्की और अपराधों की कमी में शराब बंदी ने उल्लेखनीय योगदान दिया है। देश को आज नीतीश कुमार जैसे शासकों की जरूरत है।
अपने देश के एक प्रदेश में ऐसे मुख्यमंत्री भी हैं जिन्हें लगता है कि शराब की नदिया बहा देने से उनका वोट बैंक और पुख्ता होगा और उनकी सत्ता पर कभी कोई आंच नहीं आयेगी।  वे बडे गर्व के साथ कहते हैं कि भले ही दूसरी जरूरी चीजों के दाम बढ गये हैं, लेकिन हमने शाम की दवा की कीमतें कम कर आम आदमी को बहुत बडी राहत पहुंचायी है...।