Thursday, July 25, 2013

सच कहना मना है...

वह नेता नहीं। आम आदमी है। उसने न तो डाका डाला, न ही कोई चोरी-चक्कारी की। जो देखा और भोगा उसी को उसने अपने अंदाज में पेश कर दिया। सच वैसे भी बहुत कडवा होता है। इस देश के नेता सच को बर्दाश्त नहीं कर पाते। छुटभैय्यों की तो बात ही कुछ और है। बेचारे अपने आकाओं के इशारों पर नाचने को विवश होते हैं। हो सकता है कि यह खबर आपने पढी और सुनी न हो। मुंबई के परेल इलाके में स्थित 'अदिति रेस्टारेंट' के मालिक को देश में बढती महंगाई ने इतना आहत किया कि उसने अपने ग्राहकों को दिये जाने वाले बिल पर अपना दर्द बयां कर दिया: 'यूपीए सरकार के अनुसार घूस खाना समय की जरूरत है और वातानाकूलित रेस्टारेंट में भोजन करना विलासिता है।' इन शब्दों में जो व्यंग्य छिपा है उसे कुछ कांग्रेसियों ने फौरन भांप लिया। उनके तन-बदन में आग लग गयी। एक अदने से होटल वाले की इतनी हिम्मत! सोनिया-मनमोहन की सरकार पर उंगली उठाये! एक आम आदमी का सरकार की खिल्ली उडाना उन्हें इस कदर चुभा कि उन्होंने पहले तो होटल मालिक को धमकाया। जब उन्हें लगा कि यह आसानी से नहीं मानने वाला तो तोड-फोड कर उसका होटल ही बंद करवा दिया।
राष्ट्रभक्त कांग्रेसियो ने तो बेचारे होटल वाले को पूरी तरह से बेरोजगार करने की ठान ली थी। पर उनकी इस करतूत की खबर जैसे ही मीडिया की सुर्खियों में आयी तो और हंगामा बरपा हो गया। असहाय होटल वाले पर गुंडागर्दी का कहर ढाने वाले सफाई देने के अभियान में लग गये। यह भी कहा गया कि उन्हें सीधे दिल्ली मुख्यालय से ही होटल को बंद करवाने का आदेश मिला था। उन्होंने तो सिर्फ अपने आकाओ के फरमान का ही पालन किया है। ड्यूटी बजाना उनका धर्म है। देश और दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह के कार्यकाल में शायद ही ऐसा कोई इंसान हो जो महंगाई का मारा न हो। धनासेठों, नव धनाढ्यों, सत्ताधीशों, काले-पीले धंधे करने वाले व्यापारियों, माफियाओं, अपराधियों और नेताओं की कौम को छोडकर हर कोई दुखी और परेशान है। वह होटल वाला भी निरंतर घटती ग्राहकी से चिं‍तित था। ग्राहकों को परोसे जाने वाले भोजन पर सेवा कर लगाकर सरकार की तिजोरी भरने के रास्ते तो खुल गये पर बेचारे होटल वाले का धंधा ही मंदा पड गया। जिसके पेट पर लात पडती है, वह चुप नहीं रहता। उस पर वो बंदा जो सब कुछ समझता और जानता हो, उसे पीडा तो होगी ही...। वह किसी न किसी तरीके से अपना रोष व्यक्त करेगा ही। उस होटल वाले की तरह आज देश का हर खुद्दार नागरिक बेहद नाराज है। वह अंधा-बहरा और गूंगा होता तो चुप बैठा रहता। उसे स्पष्ट दिख रहा है कि सत्ताधीशों के नाक के नीचे राजनेता और खनिज माफिया अरबों-खरबों का कोयला पचा रहे हैं। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की प्रतिस्पर्धा चल रही है। छोटे-बडे नेता और सरकारी अधिकारी करोडों में खेल रहे हैं। २जी, कोलगेट और राष्ट्रमंडल खेल घोटाले के कीर्तिमान रचने वाले शान से जी रहे हैं और मेहनतकश देशवासियों को दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं हो पा रही। जनता जो टैक्स देती है उसका भी बहुत बडा हिस्सा मंत्री-संत्री, अय्याशी में उडा रहे हैं। सांसद और विधायक करोडों कमाते हैं फिर भी अपनी तनख्वाह बढवाने के लिए हो-हल्ला मचाते रहते हैं। आम जनता को जो पानी पीना पडता है उसे तो यह लोग छूते तक नहीं। सैकडों रुपये का रोज मीनरल वाटर डकार जाते हैं। इनके नाश्ते और खाने पर हजारों रुपये न्योछावर हो जाते हैं। देश के आम आदमी को बेवकूफ बनाने का कोई भी मौका नहीं छोडा जाता। यह सरकार शहर में ३२ रुपये रोज और गांव में २६ रुपये कमाने वालो को अमीर मानती है। इतने रुपयों में तो ढंग का नाश्ता नसीब नहीं होता। सरकार ने यह मान लिया है कि इस देश के आम आदमी को अच्छे भोजन, आवास, शिक्षा, पेट्रोल, डीजल और अन्य सुविधाओं की कोई जरूरत नहीं है। बत्तीस और छब्बीस रुपये कमाने वाले रईसों को अपनी औकात में रहना चाहिए। सरकार को चारों तरफ हरा ही हरा दिखायी देता है। लोग मरते-खपते रहें, उसे कोई फर्क नहीं पडता। मुल्क को चलाने वालो का यह भ्रम पता नहीं कब टूटेगा कि लोगों के सब्र की सीमा खत्म हो चुकी है। उनके लिए अपने गुस्से को दबाये रख पाना मुश्किल हो चुका है। उन्हें यह भी खबर है कि इस देश में कहने भर को लोकतंत्र है। अपने दिल की बात कहने की आजादी नहीं है।
देश के विख्यात शायर दुष्यंत कुमार की पंक्तियां हैं:
'हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग,
रो-रो कर बात कहने की आदत नहीं रही।
हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया,
हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।'

Thursday, July 18, 2013

मोदी इज़ इंडिया

जिद्दी मोदी हैं कि कांग्रेसियों की नींद हराम करने की ठाने हैं। कांग्रेसियों ने भी जैसे कसम खायी है कि चाहे कुछ भी हो जाए, पर नरेंद्र मोदी की दाल गलने न पाए। जहां देखो वहां मोदी। देश को महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और बदहाली की आग में झोंक देने वाली सरकार के पास भी और कोई काम नहीं बचा है। उसे सपने में भी मोदी ही दिखते हैं। उसके कुछ मंत्री दिन-रात मोदी के सवालों के जवाब देने में तल्लीन रहते हैं। मोदी फुलझडि‍यां छोडते हैं और खिसक जाते हैं। विरोधी एक साथ मंच पर आते हैं और भाजपा तथा संघ की बखिया उधेडने में लग जाते हैं। वे चाहते हैं कि संघ और भाजपा नरेंद्र की नकेल कसें। बेचारे जान कर भी अंजान बनने का नाटक करने को मजबूर हैं कि मोदी को खुलकर नाचने-कूदने की आजादी मिल चुकी है। अब किसी में दम नहीं जो उन्हें बेदम कर सके। संघ और भाजपा दोनों देश की सत्ता पाने को बेताब हैं। दोनों ने मान लिया है कि यह असंभव काम सिर्फ और सिर्फ मोदी ही कर सकते हैं। सबकी इज्जत दांव पर लगी है। हारना कोई भी नहीं चाहता। सभी को अपनी नाक की फिक्र है। देश की किसी को कोई चिं‍ता नहीं है। जहां जाता है जाए। जो होगा देखा जाएगा।
फिलहाल, मोदी ही देश का सबसे बडा मुद्दा हैं। उनके विरोधी उन्हें बार-बार गुजरात में हुए २००२ के दंगों की याद दिलाते हैं। मोदी सिर्फ मुस्कराकर रह जाते हैं। कई लोगों को इस मुस्कुराहट में विष भरा नजर आता है। इसी देश में कभी 'इंदिरा इज़ इंडिया' का नारा लगाया गया था, आज 'मोदी इज़ इंडिया' का नारा गूंज रहा है। इस नारे को उछालने वाले भाजपाई कम, दीगर लोग ज्यादा हैं। सोशल मीडिया के बेहद चहेते हैं मोदी। ऐसा क्यों और कैसे हुआ इसे लेकर कांग्रेस और अन्य पार्टियां सतत चिं‍तन-मनन कर रही हैं। सभी ने मोदी के खिलाफ तीर चलाने का एक सूत्रीय कार्यक्रम तय कर लिया है। बहुजन समाज पार्टी के एक सांसद हैं विजय बहादुर सिं‍ह। इन महाशय ने नरेंद्र मोदी की तारीफ कर दी। बहन मायावती को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी पार्टी के सांसद को फौरन पार्टी से बाहर कर दिया। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में शासन करने का सपना देखने वाले नेताओं और राजनीतिक पार्टियों का यही असली चेहरा है। अगर पार्टी में टिके रहना है तो सिर्फ और सिर्फ अपने ही नेता की तारीफ करते रहो। उसकी लाख बुराइयों पर नकाब उडाते रहो। किसी दूसरी पार्टी का नेता यदि कोई बेहतर काम कर रहा हो और दिल को जचने वाली बात भी कहता हो तो उसे हद दर्जे का घटिया, निकम्मा और मक्कार नेता साबित करने के लिए जमीन-आसमान एक कर दो।
अभी हाल ही में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि यदि उनकी कार के पहिये के नीचे आकर एक कुत्ते का पिल्ला भी मर जाता है तो उन्हें बहुत पीडा होती है। कांग्रेस के विद्धान अपनी अक्ल के घोडे दौडाने लगे। सभी कुत्ते के पिल्ले का गूढ अर्थ निकालने के अभियान में लग गये। उनके हंगामे ने मोदी के नाम की धूम मचा दी। देश के आम आदमी ने मोदी विरोधियों की दूरअंदेशी पर माथा पीट लिया। लोग आपस में चर्चा करने लगे कि क्या वास्तव में नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम समाज की तुलना कुत्ते के बच्चे से की है! क्या वे इतने घटिया इंसान हैं। क्या उनकी संवेदनाओं का दिवाला पिट चुका है? धीरे-धीरे इस मुल्क का आम आदमी जानने-समझने लगा है कि मोदी के बयानों का जानबूझकर भ्रम पैदा करने वाला अर्थ निकाला जाता है। मोदी के विरोधी कुछ ज्यादा ही घबरा गये हैं। उन्हें मोदी का हर बयान घबराहट में डाल देता है और वे ऐसे-ऐसे अर्थ निकालने में जुट जाते हैं जिनसे खलबली और बवाल मचे। १४ जुलाई २०१३ को पुणे की एक सभा में मोदी ने कहा कि जब भी कांग्रेस पर कोई संकट आता है तो वह धर्म निरपेक्षता का बुर्का ओढकर बंकर में छुप जाती हैं। इस व्यंग्य बाण को भी कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय की महिलाओं से जोडकर अपनी विद्धता का ढिं‍ढोरा पीट डाला। आखिर कांग्रेसी चाहते क्या हैं? मुसलमान मोदी से दूर रहें... और भूलकर भी उन्हें वोट न दें... यकीनन यही उसकी असली मंशा है। नरेंद्र मोदी जब कहते हैं कि मैं राष्ट्रवादी हूं... और जन्म से हिन्दू हूं इसलिए आप मुझे हिन्दु राष्ट्रवादी कह सकते हैं तो एक साथ हंगामा बरपा हो जाता है। बहुजन समाज पार्टी के सांसद 'वंदे मातरम' की तौहीन करते हुए संसद से उठकर चले जाते हैं तो सभी गूंगे हो जाते हैं। महात्मा गांधी को गाली देने वालों को भी देशभक्त कांग्रेसी माफ करने में जरा भी देरी नहीं लगाते! मोदी के हर बयान पर हो-हल्ला मचाने वाले कांग्रेसी आज खुद अपने ही बनाये कटघरे में खडे हैं। लोग अब उन्हीं से सवाल करने को आतुर हैं। हर राजनीतिक पार्टी को मुसलमानों के वोट चाहिए। उनकी बेबसी और बदहाली की किसी को कोई चिं‍ता नहीं है। इस देश में मुसलमान महज वोटर बनाकर रख दिये गये हैं। हर नेता इन वोटरों पर अपना हक जताता दिखता है। मोदी के विरोधियों को अब कौन समझाये कि वे मोदी को जितना विवादग्रस्त बना रहे हैं वे उससे कहीं ज्यादा लोकप्रिय होते चले जा रहे हैं। यही वजह है कि देश के इतिहास में यह पहली बार होने जा रहा है कि किसी नेता को देखने-सुनने के लिए लोगों को टिकट खरीदनी होगी।

Thursday, July 11, 2013

छल...कपट और धोखाधडी

नेताजी अपनी मस्ती में थे। एक स्थानीय कार्यकर्ता ने उन्हें नमस्कार किया और उनकी तरफ अपना हाथ बढाया। लेकिन नेताजी ने कार्यकर्ता को अनदेखा कर दिया। हैरान कार्यकर्ता ने नेताजी पर सवाल दागा- आपने मुझे पहचाना नहीं? नेताजी ने तपाक से जवाब दिया कि यदि नहीं पहचानेंगे तो क्या कर लोगे? बेचारे कार्यकर्ता ने झेंपकर अपनी नजरें झुका लीं। आजकल ऐसा ही हो रहा है। नेताओं को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की अवहेलना करने में कोई संकोच नहीं होता। दरअसल जब भी चुनाव करीब आते हैं तो कार्यकर्ता दिग्गज नेताओं को टिकट के लिए घेरना शुरू कर देते हैं। हर कार्यकर्ता को लगता है कि नेताजी उसे निराश नहीं करेंगे। वर्षों से वह नेताजी के लिए अपना खून-पसीना बहाता चला आ रहा है। मेहनत का फल अब नहीं तो फिर कब मिलेगा? सक्रिय कार्यकर्ताओं को नेताओं का ऐसा व्यवहार शूल की तरह चुभता है। कुछ नेता ऐसे भी हैं जो अपनी मजबूरियां गिनाने लगते हैं। किस-किस की सुनें और कितनों को टिकटें देकर खुश करें। यहां तो हर कोई विधायक और सांसद बनने को बेताब है।
दरअसल यह वो दंभी और घमंडी नेता हैं जिन्हें राजनीति में झंडे गाडने के लिए जरा भी मेहनत नहीं करनी पडी। इनके बाप-दादा भी सत्ता के खिलाडी थे। वे भी जमीनी कार्यकर्ताओं का जी भरकर इस्तेमाल किया करते थे और सत्ता का मज़ा लूटा करते थे। ये भी उसी परंपरा को निभा रहे हैं। जब चुनाव की आहट होती है तो चुन-चुन कर कार्यकर्ताओं को काम पर लगाते हैं और जीतने के बाद उनको भूल जाते हैं। यह भी जगजाहिर हकीकत है कि जब टिकट देने की बात आती है तो जी-जान लगा देने वाले कार्यकर्ताओं का पत्ता बडी बेरहमी से काट दिया जाता है और अपने करीबियों की नैय्या पार लगा दी जाती है। वर्षों तक पार्टी और नेताजी के नाम के नारे लगाने और पोस्टर चिपकाने वाले मुंह ताकते रह जाते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब नेताजी ऐसी बुलंदी हासिल कर लेते हैं कि कार्यकर्ताओं के लिए उन तक पहुंच पाना भी बेहद मुश्किल हो जाता है। जब कभी भूले से आमना-सामना हो भी जाता है तो नेताजी मुंह फेर लेते हैं। कार्यकर्ता बेचारा ठगा का ठगा रह जाता है। हिन्दुस्तान के अधिकांश राजनेताओं और राजनीति का यही असली चेहरा है। कभी जमीनी कार्यकर्ताओं के दम पर चुनाव जीतने वालों के गिरगिट की तरह रंग बदलने का सबसे बडा कारण वो धन है जो चुनाव जीतने और सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार कर बटोरा जाता है। इसी माया ने चुनाव लडने के अंदाज पूरी तरह से बदल डाले हैं। चुनाव आयोग लाख चीखता-चिल्लाता रहे पर धनबल के दम पर चुनाव लडने के आदी हो चुके नेता कभी भी नहीं बदलने और सुधरने वाले। बिकने और खरीदने में इन्होंने महारत हासिल कर ली है। तभी तो कई विद्वान राजनीति को वेश्या की संज्ञा देने से भी नहीं हिचकिचाते।
यह हिन्दुस्तान ही है जहां कोई राजनेता गरीबों को मुफ्त में टीवी देने की घोषणा करता है तो किसी को ऐन चुनाव के मौके पर छात्रों को लैपटॉप देने की सूझती है। मुफ्त में अनाज की खैरात बांटने वाले यह भूल जाते हैं कि वे गरीब देश के साथ कितनी बडी धोखाधडी कर रहे हैं। अच्छे खासे नागरिकों को मुफ्तखोर बनाकर उन मेहनतकशों का घोर अपमान कर रहे हैं जिन्हें अपने खून-पसीने की कमायी की रोटी खाने की चाहत है। अपनी जडें खो चुके राजनेताओं ने यह मान लिया है कि इस देश की जनता को लालच के जाल में फंसाना बेहद आसान है। इसलिए लगभग हर पार्टी अपने चुनावी घोषणा पत्र में देश के सर्वांगीण विकास का मुद्दा तो भूल जाती है और मुफ्त में उपहार बांटने को प्राथमिकता देती है। इस सचाई से भला कोई कैसे इनकार कर सकता है कि मतदाताओं को उपहार देने का लालच देना भी एक तरह से रिश्वत देना ही है। अधिकांश रिश्वतखोर नेता इसी परिपाटी को निभाते हुए चुनाव जीत भी जाते हैं। इस उपलब्धि को पाने के लिए उन्हें वही धन लुटाना पडता है जो उन्होंने भ्रष्टाचार की बदौलत कमाया होता है। चुनाव में धन के पराक्रम के बलवति होते चले जाने के कारण ही समर्पित कार्यकर्ताओं का महत्व घटता चला जा रहा है। देश के संविधान निर्माताओं ने शायद ही कभी कल्पना की होगी कि देश के नेता इतने पतित हो जाएंगे कि वोटरों की ही खरीददारी करने लगेंगे। अब तो सरकारें भी अपना ईमान बेचने लगी हैं। लोकसभा चुनावों के निकट आते ही वर्षों से सोयी मनमोहन सरकार जाग गयी। वोटरों को लुभाने के लिए आनन-फानन में खाद्य सुरक्षा बिल पास कर डाला। यह तय है कि कांग्रेस को गरीबों की चिं‍ता नहीं है। उसकी नजर तो वोट बैंक पर है। देश की गरीब जनता उसके लिए महज वोटर है। भारतीय जनता पार्टी भी कम नहीं है। उसे जब यह लगा कि कांग्रेस मतदाताओं को चारा डालने के मामले में भारी पड रही है तो उसे भी श्रीराम की याद हो आयी। गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के भावी पी.एम. नरेंद्र मोदी गुजरात में सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित करने के एक सूत्रीय अभियान में लग गये। यह देश और देशवासियों के छल-कपट और धोखाधडी नहीं तो और क्या है? अब तो जनता का यही फर्ज है कि वह फरेबी नेताओं को बता दे कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढा करती।

Thursday, July 4, 2013

गोपीनाथ का गडबडझाला

बेचारे गोपीनाथ। जुबान फिसल गयी। हंगामा हो गया। जो कुछ कहा उसमें लेश मात्र भी झूठ नहीं था। जब से देश आजाद हुआ है, लगभग तभी से धनबल और बाहुबल के आतंक की बदोलत ही तो चुनावी युद्ध लडे जा रहे हैं। जनता जनार्दन की आंखों में सभी तो धूल झोकते हैं। देश का चुनाव आयोग भी अंधा और बहरा नहीं है। नेताओं की सभी चालों से वाकिफ है। फिर भी कुछ भी नहीं करता। जब तक कोई उसे न झिं‍झोडे तब तक हिलता-डुलता ही नहीं। गोपीनाथ मुंडे भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता हैं। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। राजनीति के हर दावपेंच से वाकिफ हैं। अपनी मनवाने के लिए पार्टी तथा दिग्गजों पर भी वार करने से नहीं चूकते। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की नाक में अक्सर दम किये रहते हैं। दरअसल दोनों पहलवानों में नूरा कुश्ती चलती रहती है। लोग मजा लेते रहते हैं। इस बार कुछ अलग हटकर हुआ। उन्होंने उस सच को जगजाहिर कर दिया जिसपर दूसरे पर्दा डालते हैं। लुकाते-छिपाते हैं।
देश की जनता भी जानती है कि विधानसभा और लोकसभा चुनावो में बेतहाशा धन लुटाया जाता है। काले धन की जमकर बरसात होती है। लाखों वोटरों को भी चुनावी मौसम का बेसब्री से इंतजार रहता है। मुफ्त में दारू, कंबल, साडी, गाडी और कडकते नोटों के उपहारों से झोली भर जाती है। चुनाव आयोग भी जानता-समझता है कि उसने चुनावी खर्च की जो सीमा तय की है उसका पालन कर पाना लगभग असंभव है। गोपीनाथ ने जब यह कहा कि उन्होंने लोकसभा के पिछले चुनाव में आठ करोड उडाये तो जहां-तहां खलबली मच गयी। मुंडे के विरोधियों ने बंदूकें तान लीं। कई राजनेता उनके विरोध में ऐसे खडे हो गये जैसे वे दूध के धूले हों। उन्होंने कभी भी चुनावी जंग में तय सीमा से एक पैसा भी ज्यादा खर्च न किया हो। दरअसल मुंडे की खिलाफत करने वालों को मुंडे का सच कहना अखर गया। मुंडे की इस स्वीकारोक्ति के मायने यह भी हैं कि इस देश में चुनाव धनबल के दम पर ही लडे जाते हैं। चुनाव लड पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। जिनकी तिजोरियां लबालब भरी होती हैं वही नेतागिरी करते हैं और चुनाव लडने की हिम्मत दिखाते हैं। अक्सर ईमानदारी और गरीबी का चोली-दामन का साथ होता है इसलिए पाक-साफ लोग इस देश में चुनाव लड ही नहीं पाते। यही वजह है कि संसद और विधानसभा भवनों में अपराधियों और माफियाओं का दबदबा बढता चला जा रहा है। सत्ता और राजनीति में नाम मात्र के ईमानदार चेहरे अपनी पुख्ता उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हो पाते हैं।
गौरतलब है कि चुनाव आयोग के द्वारा लोकसभा चुनाव में ४० लाख रुपये और विधानसभा चुनाव में १६ लाख रुपये खर्च करने की सीमा तय की गयी है। इस नियम का शायद ही कभी पालन होता हो। इतनी रकम में तो चुनाव प्रचार के लिए कार्यकर्ता, किस्म-किस्म के लठैत और बदमाश भी नहीं मिल पाते। इससे कहीं ज्यादा धन तो मीडिया को 'सैट' करने में ही खर्च हो जाता है। बहुतेरे वोटर भी नोट अंदर करने के बाद ही वोट देने के लिए घर से बाहर निकलते हैं। अंधाधुंध धन बरसाने की रस्म को हर चुनावी पहलवान को निभानी पडती हैं। जो नहीं निभाते वे जहां के तहां धराशाही हो जाते हैं। चुनावी लुटिया डूब जाने के बाद भी उन्हें अपनी जुबान बंद रखनी पडती है। यही परंपरा है। जिसे लगभग सभी निभाते हैं। मुंडे ने तो जोश में आकर सच उगल दिया। यही बडबोलापन उन्हें बहुत महंगा पडा। चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस भेजने में देरी नहीं लगायी। आयकर विभाग ने भी शिकंजा कस ही दिया। जो शख्स चुनावी खर्च की तय सीमा से २० गुना ज्यादा रकम उडा सकता है वह अपने बचाव के लिए महंगे से महंगे वकील भी खडे कर सकता है। अपने देश में ऐसे वकीलों की कतई कमी नहीं है जो वकालत के हर फन में माहिर हैं। सच को झूठ और झूठ को सच का ताना-बाना पहनाने की कला के अद्भुत ज्ञाता हैं। राम जेठमालानी, अरुण जेटली, कपिल सिब्बल, माजिद मेमन जैसे वकील नेतागिरी भी करते हैं और मोटी फीस लेकर अपनी-अपनी पार्टी और उसके नेताओं को बचाने का कारोबार भी करते हैं। इनकी सेवाएं ले पाना आम आदमी के बस की बात नहीं है। फिर अपने गोपीनाथ तो खासों के भी खास हैं। वे लोकसभा में भाजपा के उपनेता हैं। उनकी पुत्री के अनुसार वे असली मर्द हैं। उनके पक्ष में जो दलीलें दी जाएंगी उससे तो चुनाव आयोग भी चकरा जायेगा। वैसे भी भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर जैसों ने मुंडे के पक्ष में रक्षात्मक मुद्रा अपनाते हुए यह कहने में कहां देरी लगायी कि 'मुंडे जी ने तो चुनाव के बढते खर्च पर चिन्ता भर दर्शायी है। दरअसल उन्होंने तो चुनावों का तमाम खर्च सरकार द्वारा उठाये जाने का अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। विरोधी हैं कि उनके पीछे पड गये हैं।' गोपीनाथ की तरह ही मध्यप्रदेश में भी एक मंत्री हैं, जिनका नाम है गौरीशंकर बिसेन। यह महाशय भी तीर छोडने में माहिर हैं। लगभग दो वर्ष पूर्व एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि यदि उन्हें प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान दस करोड रुपये उपलब्ध करवा दें तो वे छिं‍दवाडा की लोकसभा सीट भाजपा के खाते में डलवा सकते हैं। सबको पता है कि छिं‍दवाडा में कमलनाथ की तूती बोलती है। सिर्फ एक बार उन्होंने भाजपा के बुजुर्ग नेता सुंदरलाल पटवा से मात खायी थी। छिं‍दवाडा की लोकसभा सीट को जीतने के लिए वे कितने-कितने करोड खर्च करते हैं उसका अंदाजा गौरीशंकर को अगर होता तो अपना मुंह नहीं खोलते। चुनाव जीतने के फन में कमलनाथ तो अच्छे-अच्छों के बाप हैं...।