Thursday, September 29, 2011

नेहरू के आंसू

अपने हिं‍दुस्तान में नयी-नयी परिभाषाएं सामने आती रहती हैं। हाल ही में योजना आयोग ने कहा है कि देश के शहरी इलाकों में हर महीने ९६५ रुपये खर्च करने वाले व्यक्ति को और ग्रामीण इलाके में हर महीने ७८१ रुपये खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। यानी इस तरह के खर्चीले नागरिक धनवानों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए इन्हें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए। इस देश में एक से एक अक्लमंद भरे पडे हैं जो समय-समय पर अमीरी और गरीबी की नयी परिभाषाएं गढते रहते हैं और असहाय देशवासियों के मुंह पर तमाचे जडते रहते हैं। कोई इनसे पूछे कि श्रीमानजी ३०-३२ रुपये की आज के जमाने में कीमत ही क्या बची है जो इसे खर्च कर सकने में समर्थ इंसान को अमीर बताने पर तुले हो? इतने रुपयों में तो एक वक्त का पौष्टिक नाश्ता तक नहीं मिल पाता। आप हैं कि लोगों के जख्मों पर नमक छिडकने पर तुले हैं। यह मनमोहन सरकार देश को कहां ले जाना चाहती है कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। ९६५ रुपये प्रति माह खर्च करने वाले शहरी को धनवान मानने वाली इस सरकार की नीतियों का तो कोई माई-बाप ही नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि लोगों को भूखों मारने और पैदल करने की पूरी तैयारियां की जा चुकी हैं। पेट्रोल की कीमत ७५ रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गयी है फिर भी सरकार को चैन नहीं है। उसके इरादे इसे सौ से ऊपर पहुंचाने के हैं। हमारा देश दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश कहलाता है पर यहां पर आम लोगों की चिं‍ता छोड खास लोगों की चाकरी की जाती है। वे देश जो भारत की तुलना में काफी कमजोर और छोटे हैं वहां पर भी पेट्रोल के भाव इस कदर आग लगाने वाले नहीं हैं। पडोसी देश पाकिस्तान में पेट्रोल की कीमत मात्र २६ रुपये और बांग्लादेश में २२ रुपये प्रति लीटर है। मनमोहन सरकार महंगाई बढाने के साथ-साथ लोगों का मजाक भी उडा रही है। इस देश के मंत्री-संत्री अपनी मौज मस्ती पर लाखों रुपये उडाने में परहेज नहीं करते और आम आदमी के चंद रुपयों पर भी निगरानी रखी जाती है। दलितों के तथाकथित मसीहा रामविलास पासवान जैसे नेता एक वक्त के खाने पर हजारों रुपये फूंकने का दम रखते हैं और योजना आयोग सुप्रीम कोर्ट को यह बताते हुए कतई नहीं हिचकिचाता कि शहर में ३२ रुपये और गांव में २६ रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। लगता है योजना आयोग के कर्णधारों ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। उन्हें देशवासियों को निरंतर लहुलूहान करती महंगाई दिखायी ही नहीं देती। आज जब सौ के नोट की कोई औकात नहीं रही तब बत्तीस और छबीस रुपये किसी खेत की मूली हैं? सब्जियों के भाव कहां से कहां पहुंच गये हैं। अदना सा प्याज बीस से पच्चीस रुपये किलो तक जा पहुंचा है और अंधी और बहरी सरकार पच्चीस-तीस रुपये में घर चलाने की बात करती है! सरकार को जो काम करना चाहिए उसे तो वह करती नहीं। उसकी सारी ताकत इधर-उधर की बातों में लगी हुई है। इस देश में खाद्यानों के अपार भंडार भरे पडे हैं जिन्हें गरिबों को सस्ते से सस्ते दामों में उपलब्ध करा कर भुखमरी का खात्मा किया जा सकता है। देश का गरीब तबका भरपेट भोजन चाहता है पर अपना खून-पसीना बहाने के बाद भी उसकी यह हसरत धरी की धरी रह जाती है। देश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं बचा है जहां किसानों को आत्महत्या करने को विवश न होना पडता हो। केंद्र और राज्य सरकारें हजारों करोड रुपये के पैकेज घोषित करती रहती हैं पर हालात जस के तस बने रहते हैं। जरूरतमंदो तक सहायता राशि पहुंच ही नहीं पाती। मंत्री और नौकरशाह राजीव गांधी के कथन को सार्थकता प्रदान करते रहते हैं कि ऊपर से भेजे जाने वाले सौ रुपयों में से मात्र पंद्रह रुपये ही जनता तक पहुंच पाते हैं। अभावग्रस्त किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा बढता चला जाता है और शासक और प्रशासक खोखली चिं‍ता दर्शाते रह जाते हैं। दरअसल इस देश के किसान को तो अनाथ बना कर रख दिया गया है। अन्नदाता ही दाने-दाने को मोहताज है। आजादी के फौरन बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू को जब किसी ने किसानों की दुर्दशा का हवाला देते हुए बताया था कि किसान के बच्चे गोबर से अनाज निकालकर खाने को विवश हैं तो वे संसद में रो पडे थे। उनके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तब और अब के किसान के बच्चे के दयनीय हालात में कोई फर्क नहीं आया है। उलटे दशा और दिशा और भी बिगड गयी है और सियासत के खिलाडी अक्सर घडि‍याली आंसू बहाते रहते हैं। यह भी सौ फीसदी सच है कि पंडित नेहरू की विरासत को संभाल रहे राजनेताओं को तो आपस में लडने-झगडने और एक-दूसरे के कपडे फाडने से ही फुर्सत नहीं मिल पाती। वे इस कदर निर्मोही हो गये हैं कि किसानों के फांसी के फंदे पर झूलने के समाचार उन्हें कतई विचलित नहीं करते। वे तो सिर्फ अपने यार-दोस्तों और घर-परिवार में ही मगन रहते हैं। किसानों के नाम पर नेतागिरी करने वाले भी किसानों के भले की नहीं सोचते। फसल उगाने वाला किसान घाटा उठाता है और घाघ व्यापारी मुनाफा कमाता है। राजनेताओं को चुनाव के समय धन्नासेठ और मिल मालिक मोटे चंदे देते हैं इसलिए वे उन्हीं के हित की बात सोचते हैं। इसका जीता-जागता सबूत है महाराष्ट्र जहां पर राज्य सरकार गन्ना किसानों के नाम पर चीनी मिलों को अरबो-खरबों की खैरात बांटती रहती है। मिल मालिक गन्ना उत्पादक किसान को जी भरकर शोषण करते हैं। शोषक मिल मालिक बैंको को भी करोडों रुपये का चूना लगाने से बाज नहीं आते। यानी उनके ठाठ बने रहते हैं और अपने खून-पसीने से खेतों को सींचने वाले किसान निरंतर भुखमरी के कगार पर पहुंचने के बाद जहर खाकर या फांसी के फंदे पर झूल देश की लुंज-पुंज व्यवस्था को आखिरी सलाम कर संसार से ही कूच कर जाते हैं। ऐसे में आंसू बहाना तो दूर... किसी के चेहरे पर कहीं कोई शिकन भी नज़र नहीं आती।

Thursday, September 22, 2011

मोदी की पीडा और ताकत

देश में लगता है जैसे कोई जबरदस्त नाटक चल रहा है। पात्र इतने बेबस हो गये हैं कि अपनी निर्धारित भूमिका से हटने में कोई परहेज नहीं करते। कल तक जो लालकृष्ण आडवानी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब संजोये थे आज बरबस पलटी मार चुके हैं। कह रहे हैं कि उन्हें आर.एस.एस. से लेकर पार्टी तक इतना मान-सम्मान मिल चुका है कि अब उन्हें किसी पद की ख्वाहिश नहीं रही। क्या वाकई यह दिल से निकला सच है या कुछ और? मोदी के तीन दिन के उपवास ने उनके कद को जिस तरह से दिखाया है उसके सामने तो बडे-बडे नेता बौने नजर आने लगे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने बडी चालाकी के साथ भारतीय जनता पार्टी को हाइजैक कर लिया है। मोदी पार्टी से भी बडे हो गये हैं। उनके शत्रु तौल-तौल कर बोलने में अपनी भलाई समझने लगे हैं। मौके की नजाकत को देखकर छा जाने का जो हुनर गुजरात के इस मुख्यमंत्री में है उससे राजनीति के बडे-बडे दिग्गज गच्चा खा जाते हैं। गुजरात दंगे के बाद से ही मोदी को घेरने और ढेर करने की कोशिशों में लगे उनके विरोधियों को यह बात तो समझ में आ ही गयी है कि यह शख्स किसी ऐसी-वैसी मिट्टी का नहीं बना है। इसका जितना विरोध होता है यह उतना ही खुद को ताकतवर दर्शाता है। बार-बार छाती ठोंक कर कहता है कि मुझे अकेला मत समझो। मेरे साथ छह करोड गुजराती खडे हैं। विरोधी इस इंतजार में हैं कि मोदी कभी यह तो कहें कि उनके साथ देश की सवा सौ करोड जनता खडी हुई है। अब जब आडवानी ने कह दिया है कि उनकी रथयात्रा के पीछे प्रधानमंत्री बनने का लालच नहीं छिपा है तो मोदी निश्चय ही गदगद हैं। देश के कई बुद्धिजीवी तो उन्हें अछूत मानते हैं। वे डरते हैं कि अगर मोदी के द्वारा किये गये और किये जा रहे अच्छे कामों की भूले से भी तारीफ कर दी तो उनके इर्द-गिर्द के संगी-साथी उन्हें भी सांप्रदायिक मानने लगे हैं। दबी जबान से मोदी की आरती गाने वाले कई हैं पर खुले मंचों पर उनका साहस जवाब दे जाता है। कल तो जो अमेरिका नरेंद्र मोदी को कोस रहा था वह भी उनकी आर्थिक नीतियों का मुरीद हो गया है। जिस तरह से मोदी ने गुजरात का विकास किया है उसे देखते हुए उसे भी यह कहने को विवश होना पडा है कि मोदी भारत वर्ष के अच्छे प्रधानमंत्री सिद्ध हो सकते हैं। खुद को प्रगतिशील कहने वाली बुद्धिजीवियों की कौम को नरेंद्र मोदी के द्वारा चुना गया विकास का रास्ता दिखायी ही नहीं देता। उन्हें बार-बार गुजरात दंगो की याद आ जाती है। न्यूज चैनल वाले भी कम बाजीगर नहीं हैं। सदभावना उपवास तोडने के बाद लगभग तमाम चैनल वाले लगातार मोदी के भाषण का सीधा प्रसारण दिखाते रहे जैसे ही उनका भाषण खत्म हुआ तो चैनल वालों को २००२ के दंगों की याद आ गयी और निमंत्रित बुद्धिजीवियों के मुख से यह कहलवाया जाने लगा कि मोदी तो हत्यारे हैं। उनके दामन पर सांप्रदायिकता के ऐसे दाग हैं, जो मोदी के इस जन्म में तो नहीं मिट सकते। दरअसल मोदी को निरंतर कटघरे में खडा करने और उनका विरोध करते रहने का फैशन-सा चल पडा है। कांग्रेस और दूसरी राजनैतिक पार्टियों में भी ऐसे नेता भरे पडे हैं जो यह मानते हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने सर्वजनहित के जो काम किये हैं वे बेमिसाल हैं। बंद कमरों में मोदी की तारीफें करने वाले वोट बैंक और अपनी पार्टी के नियम-कायदों से बंधे हुए हैं। उन्हें मालूम है कि खुलेआम मोदी की तारीफ भारी पड सकती है। मोदी के उपवास और सदभावना कार्यक्रम के मंच पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुष्मा स्वराज ने उनकी तारीफ करते हुए रहस्योद्घाटन के अंदाज में बताया कि विरोधी भी मोदी के सदभाव के कायल हैं। सुषमा ने अपनी बात को मजबूती प्रदान करने के लिए पीडीपी नेता मेहबूबा मुफ्ती के तथाकथित कथन का हवाला दिया कि पिछले दिनों राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में महबूबा ने स्वयं बताया कि उनके एक मुसलमान दोस्त गुजरात में उद्योग लगाना चाहते थे। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने आधे घंटे में ही वो सारी औपचारिकताएं पूर्ण कर उद्योग लगाने की हरी झंडी दे दी। मोदी अपने प्रदेश में सर्वधर्म समभाव का आदर्श पेश कर रहे हैं। मोदी राजनेता हैं। उन्होंने ठान लिया है कि दाग धोने का एक ही रास्ता है लोगों के दिल में बस जाओ। जो बीत गया सो बीत गया। अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए वे हमेशा कहते भी हैं कि गुजरात की जनता ही मेरे लिए सर्वोपरि है। मैंने कभी हिं‍दू-मुसलमान को अलग-अलग तराजू पर तौलने की कोशिश नहीं की। पर उनके विरोधी यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि मोदी मुसलमानों के हितचिं‍तक हो सकते हैं। यही वजह है कि दूसरी राजनैतिक पार्टियों के नेता मोदी के नाम से ही बिचकते हैं। यह क्या कम हैरान कर देने वाली सच्चाई है कि एक तरफ सुषमा स्वराज जब यह कहती हैं कि महबूबा मुफ्ती मोदी की प्रशंसक हैं तो दूसरी तरफ बवाल खडा हो जाता है। महबूबा चिल्लाने और शोर मचाने लगती हैं कि यह सरासर झूठ है। महबूबा जैसे नेताओं के मन में यह बात घर कर चुकी है कि मोदी को मुसलमान अपना शत्रु मानते हैं ऐसे में अगर हमने मोदी की तारीफों के पुल बांधे तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। मुसलमानों के वोटों को अपने पाले में रखने के लिए नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं का सतत विरोध करते रहना एक नहीं अनेक नेताओं की जन्मजात मजबूरी है। मोदी को यह हकीकत भी परेशान करती है कि खुद उनकी पार्टी के नेता पूरी तरह से उनका समर्थन नहीं करते। मोदी पर भ्रष्ट होने के आरोप भी लगने लगे हैं। पर मोदी बेफिक्र हैं। उन्हें गुजरात की जनता पर भरोसा है जिसने उन्हें दो बार एकतरफा जीत दिलवायी तो इस बार भी दिलवा ही देगी...।

Thursday, September 15, 2011

मत चूको आडवानी!

भारतीय जनता पार्टी के उम्रदराज नेता लालकृष्ण आडवानी रथ यात्राएं निकालने में कुछ ज्यादा ही यकीन रखते हैं। अभी तक वे पांच रथ यात्राएं निकाल चुके हैं और छठवीं यात्रा का उन्होंने बडे जोर-शोर के साथ ऐलान कर दिया है। कई लोग यह कहते हैं कि राजनीति से संन्यास लेने की उम्र में आडवानी जी पर देश का प्रधानमंत्री बनने का जुनून छाया हुआ है। ८३ वर्षीय इस भाजपाई को युवाओं पर ज्यादा भरोसा नहीं दिखता। उन्हें लगता है जिस मुस्तैदी के साथ वे देश की बागडोर संभाल सकते हैं, दूसरा कोई नहीं संभाल सकता। वे आखिरी दम तक पी.एम. बनने की लडाई लडते रहना चाहते हैं। लोग चाहे कुछ भी कहते और सोचते रहें। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढती। पर आडवानी जैसे सत्ता के खिलाडी कहावतों में यकीन नहीं रखते। वैसे राजनीति के इस लाल को जब देश का उपप्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था तभी उसने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए पर आखिरी सांस तक प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा करने के युद्ध को लडते ही रहना है। वैसे भी जो नेता सत्ता का स्वाद चख चुके होते हैं उन्हें खाली-पीली बैठना कतई रास नहीं आता। राम जन्म भूमि रथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंति रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा निकाल चुके आडवानी को रथ यात्राएं निकालने का तो जैसे चस्का ही लग गया है। वे जब भी किसी नयी रथ यात्रा की घोषणा करते हैं तो सरकार घबरा उठती है। लगभग बीस वर्ष पूर्व जब उन्होंने राम जन्म भूमि रथ यात्रा निकाली थी तब देश में जो माहौल बना था वह सुखद तो नहीं था। यह भी सच्चाई है कि उसी रथ यात्रा ने आडवानी एंड कंपनी के आकाशी मंसूबों में रंग भर दिया था और सत्ता भी दिलायी थी। 'राम' के नाम पर केंद्र में सत्ता का सुख निचोड चुकी भारतीय जनता पार्टी हमेशा यह दर्शाते नहीं थकती कि वह ईमानदारों की पार्टी है। तभी तो आडवानी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा निकालने की घोषणा की है। पूरे जोश और सच्ची नीयत के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले अन्ना हजारे को भी अडवानी की इस नयी तैयारी ने यह कहावत याद दिला दी है कि मेहनत करे मुर्गी और अंडा खाये फकीर...। अब यह बताने की जरूरत तो नहीं है कि जिस जीवंतता के साथ अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाया वह नेताओं के बस की बात नहीं हो सकती। अन्ना हजारे ने बडे पते की बात कही है कि जिस देश में करोडों लोग भूखे मर रहे हों वहां रथ यात्रा का कोई औचित्य नहीं है। पर अन्ना का सुझाव अगर आडवानी मान लें तो फिर उन्हें राजनेता कौन कहेगा? अन्ना को किसी बडे पद और कुर्सी का लालच नहीं है, लेकिन अन्ना ने एक बार फिर से आडवानी के सपनों को पर तो लगा ही दिये हैं। यही वजह है कि 'मत चूको चौहान' की तर्ज पर आडवानी ने उडने और दौड लगाने की ठान ली है। हश्र चाहे जो भी हो। लोग हैं कि कहने और बोलने से बाज नहीं आते। कहां अटल बिहारी वाजपेयी और कहां लालकृष्ण आडवानी। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता दिलवाने में अटल जी का जो योगदान था उसे दूसरा कोई भाजपाई न तो निभा पाया है और न ही निभा पायेगा। आडवानी जी जो हैं सो हैं। वक्त भी अब पहले-सा नहीं रहा। उन्नीस सौ नवासी-नब्बे और २०११ के बीच बहुत बडा फासला है। लोगों की सोच बदल चुकी है। अंध भक्ति का जमाना लद चुका है। आडवानी की जब पहली रथ यात्रा निकली थी तब देश भर में उनका जो स्वागत-सत्कार हुआ था, इस बार उसके आसार कम ही नजर आते हैं। देश की जनता ने भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार के 'फीलगुड' और 'शाइनिं‍ग इंडिया' को काफी करीब से देखने और जानने-समझने के बाद आडवानी की देश के भावी प्रधानमंत्री बनने की तमाम संभावनाओं पर भी विराम जड दिया था। भारत की आम जनता बार-बार धोखे खाने की आदी नहीं रही। उसके सब्र का बांध कब का टूट चुका है। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आडवानी इस हकीकत से वाकिफ न हों। फिर भी वे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने के इंतजार में हैं! उन्हें यह भी अच्छी तरह से मालूम है कि वर्तमान में लगभग पूरा देश अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के असर की गिरफ्त में है। एकाएक छठवीं रथयात्रा की घोषणा कर आडवानी ने यह दर्शा दिया है कि गर्म तवे पर रोटी सेंकने का कोई भी मौका वे खोना नहीं चाहते। अगले साल सात राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। लोकसभा चुनाव २०१४ में होने हैं। अगर भाजपा ने इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में झंडे गाड लिये तो पूरा का पूरा श्रेय आडवानी की रथ यात्रा मिलेगा। तय है कि २०१४ के लोकसभा चुनाव के असली भाजपाई नायक भी लालकृष्ण आडवानी ही होंगे। तो क्या बाकी बेचारे खाली हाथ तालियां बजाते रह जाएंगे? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का क्या होगा? वे भी आडवानी से कम जिद्दी नहीं हैं। दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका ने भी मोदी के हौसलें बुलंद कर दिये हैं। उसकी निगाह में नरेंद्र मोदी में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण विद्यमान हैं। अन्ना हजारे की तर्ज पर 'उपवास' का रास्ता पकडने वाले मोदी अपनों और बेगानों को चारों खाने चित्त करने की तमाम कलाओं से वाकिफ हैं। अगर न होते तो गुजरात की गद्दी को इतनी मजबूती के साथ पकडे रखने में कामयाब न हो पाते। लालकृष्ण आडवानी के लिए न तब राह आसान थी और न ही अब। आडवानी की रथयात्रा के शुरू होने के साथ ही अन्ना हजारे की भी यात्रा शुरू हो जायेगी। आडवानी वोटों के लिए तो अन्ना लोगों को जगाने के लिए निकलेंगे। ८४ साल के करीब पहुंचने जा रहे आडवानी की सक्रियता देख भाजपा के ५४ वर्षीय राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को अपना मोटापा घटाने और सोयी हुई शक्ति को जगाने के लिए मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती होने को विवश होना पडा है। अपने निरंतर बढते कारोबार और मोटापे की वजह से लोगों के निशाने पर रहने वाले गडकरी भी कच्चे खिलाडी नहीं हैं। वे भी सत्ता के लिए ही राजनीति में आये हैं...। ऐसे में विभिन्न दरख्तों पर बैठे गिद्ध क्या करते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा...।

Thursday, September 8, 2011

ऊंट आया पहाड के नीचे?

कारण चाहे जो भी हों पर राहत देने वाली बात तो जरूर है कि देश में भ्रष्टाचारियों के खिलाफ माहौल बन चुका है। दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार के कानों पर भी जूं रेंगने लगी है और एक-एक कर देश के लुटेरों को सलाखों के पीछे पहुंचाया जाने लगा है। राजनीति के कुख्यात दलाल अमर सिं‍ह की तिहाड जेल रवानगी से यह संदेश भी देने की कोशिश की गयी है कि देर है पर अंधेर नहीं...। हालांकि इसके पीछे भी बहुत बडी राजनीति देखी जा रही है। पिछले कई वर्षों से कर्नाटक में अपनी दादागिरी की बदौलत सामानांतर सरकार चलाते चले आ रहे खनन माफिया रेड्डी बंधुओं पर भी आखिरकार सीबीआई के शिकंजे ने असर दिखाया है और उन्हें भी जेल में डाल दिया गया है। रेड्डी बंधुओं और अमर सिं‍ह में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही राजनीति के माथे का ऐसा कलंक हैं जिनकी जडें बहुत गहरे तक समायी हैं। ऐसे ही दुष्टों और बेइमानों के कारण ही कई लोग राजनीति को वेश्या का दर्जा देने में नही हिचकिचाते। नेताओं का नकाब ओडकर खुले आम डकैती करने वाले रेड्डी बंधुओं को प्रारंभ से ही भारतीय जनता पार्टी का साथ मिलता चला आ रहा है। अब जब वे जेल भेजे जा चुके हैं तो पार्टी के दिग्गजों की सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो चुकी है। उन्हें यह भय भी सता रहा है कि कहीं रेड्डी बंधुओं के समर्थक विधायक बगावत पर उतरने के बाद मौजूदा कर्नाटक सरकार की ही धराशायी न कर दें। वैसे यह खतरा तो है ही। जो भ्रष्टाचारी सरकार बनाने में मददगार हो सकते हैं वे अपना बुरा वक्त आने पर भट्ठा भी बिठा सकते हैं। रेड्डी बंधु और अमर सिं‍ह जैसे अवैध करोबारी राजनीतिक गलियारों में विचरण करने वाले ऐसे सांप हैं जो दूध पिलाने वाले को भी काटे बिना नहीं रहते। यही इनकी असली फितरत है जिसे राजनीति के बडे-बडे खिलाडी जानते समझते तो हैं पर उनका इनके बिना काम भी नहीं चलता। आडे वक्त के लिए इन खोटे सिक्कों को संभाल कर रखना उनकी मजबूरी है। कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में बडे-बडे राजनेताओं की शह पर अवैध उत्खनन कर हजारों करोड रुपये के वारे-न्यारे कर चुके रेड्डी बंधुओं के यहां मारे गये छापे में केवल ३० किलो सोना और चार-पांच करोड नगद बरामद हुए। देखा जाए तो यह कुछ भी नहीं है। जो धनपशु एक मंदिर में आठ सौ हीरों का जडा मुकुट और स्वर्ण जडि‍त करोडों की साडी अर्पित कर सकते हैं उनके लिए यह रकम कोई मायने नहीं रखती। उनके लिए मंदिरों में करोडों का चढावा चढाने और नौकरशाही को मुंहमांगी थैलियां देने में ज्यादा फर्क नहीं है। उनके यहां से अरबों-खरबों की दौलत बरामद होनी चाहिए थी। इससे ज्यादा माल तो आजकल शहरों के सरकारी ठेकेदारों के यहां मारे गये छापों में ही बरामद हो जाता है। सरकारों को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले रेड्डी बंधुओं के पास कितनी काली दौलत होगी इसका अता-पता तो उन्हें भी नहीं होगा। ऐसे में सीबीआई तो क्या दुनिया की कोई भी जांच एजेंसी इन खनिज माफियाओं की लुकी-छिपी अथाह दौलत के असली ठिकानों का पता नहीं लगा सकती।डकैती और हेराफेरी में चंदन तस्कर विरप्पन को मात देने वाले रेड्डी बंधुओं को अगर राजनीति का मुखौटा पहनने का अवसर न मिला होता तो ये लोग बहुत पहले ही सरकारी मेहमान बना कर जेल भिजवा दिये गये होते। देश के तमाम शातिर लुटेरे इस हकीकत से बहुत जल्दी वाकिफ हो जाते हैं कि यदि उन्हें बेखौफ होकर अपने काले धंधों को अंजाम देते रहना है तो राजनीति और सत्ताधारियों का दामन थामना ही होगा। कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगडे यदि इन डकैतों का पर्दाफाश नहीं करते तो यह अभी तक खुली हवा में सांस ले रहे होते। बिलीकोरे बंदरगाह से ३५ लाख टन लौह अयस्क रातों-रात गायब करने का कीर्तिमान रच चुके रेड्डी बंधुओ के समक्ष दुनिया की सबसे बडी प्रख्यात स्टील निर्माता कंपनी आर्सेलर मित्तल लिमिटेड भी कोई मायने नहीं रखती। लक्ष्मी मित्तल देश और दुनिया के जाने-माने उद्योगपति हैं और उन्होंने यह मुकाम खून-पसीना बहाकर हासिल किया है। रेड्डी बंधुओं ने तो देश की बहुमूल्य खनिज सम्पत्ति की हेराफेरी कर हजारों करोड का साम्राज्य खडा किया है। हराम की कमायी करने वाले किस तरह से अंधाधुंध दौलत लुटाते हैं उसे जानने के लिए यह जान लेना भी जरूरी है कि रेड्डी बंधु सोने की जिस कुर्सी पर विराजमान होते हैं उसकी कीमत है ढाई करोड। जिस सोने की प्रतिमा के समक्ष सिर झुकाते हैं वह तीन करोड की है। घर में खाने-पीने के जो बर्तन हैं वो भी सोने के हैं। सैर-सपाटे के लिए इन रईसों के पास चार हेलिकॉप्टर हैं। राजसी ठाठ-बाट वाला यह जलवा देश के लुटेरों की असली नीयत को बयां कर देता है। सत्ता के दलाल अमर ‍सिं‍ह की भी कुछ ऐसी ही दास्तां है। वे किसी जमीन में फकीर थे। राजनेताओं से नजदीकियां बढाने के बाद देखते ही देखते मालामाल हो गये। उनके जेल जाने पर किसी को भी हैरानी नहीं हुई।सत्ता के इस दलाल की भी वर्षों पहले जेल रवानगी हो गयी होती पर कुछ राजनेताओं ने इसे सतत बचाए रखा। सत्ताधारियों को ब्लैकमेल करने में माहिर अमर सिं‍ह ने उद्योगपतियों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों से दोस्ती-यारी कर जो अरबों-खरबों रुपये कमाये उसका काला-चिट्ठा मीडिया के द्वारा कई बार उजागर किया गया पर उनका बाल भी बांका नहीं हो पाया। 'कैश फॉर वोट' कांड के नायक रहे अमर सिं‍ह ने राजनीति के मैदान में सर्कसबाजी कर न जाने कितनी दौलत कमायी। अपनी इस अथाह काली माया को सफेद करने के लिए पचासों फर्जी कंपनियां भी खडी कीं। कार्पोरेट घरानों को प्रलोभन देकर राजनेताओं और उनकी पार्टियों के लिए चुनावी फंड जुटाने वाला ऊंट अब पहाड के नीचे आ चुका है। देखें क्या होता है...। वैसे अमर सिं‍ह आसानी से हार मानने वालों में नहीं हैं। कई राजनीतिक दिग्गजों के रहस्य उनकी मुट्ठी में कैद हैं। क्या पता क्या धमाका कर गुजरें। धमाका तो रेड्डी बंधु भी कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने भी जो खनन डकैतियां की हैं उनमें वे अकेले नहीं थे। न जाने कितने और सफेदपोश भी उनके साथ शामिल थे। तभी तो उन तमाम सफेदपोशों के चेहरों के रंग भी उड चुके हैं।

Thursday, September 1, 2011

ऐसे में देश का क्या होगा?

यह कितनी हैरतअंगेज बात है कि एक तरफ देशभर का मीडिया और तमाम जागरूक लोग शोर मचाते हैं, चिल्लाते हैं, और सरकार को कोसते हैं कि आतंकियों को फांसी के फंदे पर लटकाने में जानबूझकर देरी लगायी जाती है वहीं दूसरी तरफ जब किसी आतंकी हत्यारे को फांसी देने का ऐलान कर तारीख निर्धारित कर दी जाती है तो कुछ राजनीतिज्ञ फांसी का विरोध करना शुरू कर देते हैं। यह बताने की अब कोई जरूरत नहीं बची है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। फिर भी राजनीति और कानून की कुश्तियां लडने वाले इस तथ्य को जानबूझकर नजरअंदाज कर देते हैं और हत्यारों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाते हुए धर्म और मजहब की दुहाई देने से नहीं चूकते। देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को ९ सितंबर को दी जाने वाली फांसी की सजा इसलिए टल गयी क्योंकि कुछ सामाजिक संगठन और नेता ऐसा नहीं चाहते। उन्हें राजीव गांधी की नृशंस हत्या को लेकर कोई मलाल नहीं है। उनकी पूरी सहानुभूति तो उन हत्यारों के साथ है जिन्होंने बडी ही बेरहमी के साथ देश के एक युवा नेता को मौत की नींद सुला दिया। भारत को दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है परंतु यहां पर लोगों की कम और शातिर राजनीतिज्ञों की ज्यादा चलती है। अपनी मनमानी को सर्वोपरि मानने वाले यह लोग कानून के राज का खात्मा कर अपनी दादागिरी चलाने पर आमादा हैं। इस देश का आम आदमी कभी भी यह नहीं चाहता कि नृशंस हत्याएं करने वालों को माफ कर दिया जाए। आतंकवादियों को खून बहाने की खुली छूट दे दी जाए। परंतु देश के कुछ नेता, वकील और भीड की एक जमात यह मानने लगी है कि हत्यारे भी माफी के हकदार हैं। यह देश महात्मा गांधी के अहिं‍सावादी विचारों पर यकीन रखने वाला देश है। २१ मई १९९१ को तामिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में लिट्टे ने राजीव गांधी की इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वे अहिं‍सा के मार्ग पर चलने के पक्षधर थे और लिट्टे को लोगों का खून बहाना पसंद था। असंख्य लोगों का रक्त बहाने के बाद भी तमिल ईलम का जो सपना लिट्टे ने देखा था वह पूरा नहीं हो पाया। पर जिस तरह से राजीव गांधी के हत्यारों को बचाने की जंग जारी है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जो कि लिट्टे की घोर विरोधी मानी जाती हैं उन्हें भी करुणानिधि ने हत्यारों के पक्ष में नतमस्तक होने को विवश कर दिया है। द्रमुक वर्तमान में यूपीए सरकार में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस को यह जानकारी न रही हो कि द्रमुक का शुरू से ही लिट्टे को घोर समर्थन रहा है फिर भी कांग्रेस ने सत्ता सुख पाने के लिए उसका साथ लेने में परहेज नहीं किया। देश की राजनीति का चरित्र ही कुछ ऐसा है कि अपने फायदे के लिए किसी भी समझौते को करने में संकोच नहीं किया जाता। अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार नीति, नियम और सिद्धांतों की बलि चढा दी जाती है।करुणानिधि कांग्रेस की कमजोरी से वाकिफ हैं इसलिए वे और उनके साथी राजीव गांधी की के हत्यारों को बचाने के अभियान में लग गये हैं। करुणानिधि को इस तथ्य से कोई लेना-देना नहीं है कि देश की सबसे बडी अदालत ने तीनों मुजरिमों को फांसी की सजा सुना दी है। इस सजा के खिलाफ अपराधियों ने राष्ट्रपति के समक्ष माफी की गुहार लगायी थी जिसे नामंजूर कर दिया गया। करुणानिधि के लिए अदालत और राष्ट्रपति की भी कोई अहमियत नहीं है। उनका पूरा ध्यान राजनीति और अपने वोट बैंक पर टिका हुआ है। यह भी सच है कि उनके लिए तमिल और तमिलनाडु पहले है और हिं‍दुस्तान बाद में। करुणानिधि तामिलनाडु के मतदाताओं के द्वारा ठुकराये जा चुके हैं और उनकी कुर्सी पर जयललिता विराजमान हैं। यह पीडा भी उन्हें बेचैन किये हुए है। फांसी की सजा पाए हत्यारो को बचाने के लिए धर्म और जातीयता का खतरनाक खेल खेलने वाले नेताओं को इस बात की कतई चिं‍ता नहीं है कि वे देश में अराजकता फैलाने का काम कर रहे हैं। तामिलनाडु की तरह पंजाब में भी एक आतंकवादी को फांसी दिये जाने का विरोध किया जा रहा है। उस आतंकवादी के पंजाबी होने के कारण कुछ राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने पंजाब में काफी हो-हल्ला मचा रखा है। यहां तक कर पंजाब सरकार भी उनके साथ खडी हुई है। तामिलनाडु और पंजाब की देखा-देखी जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह भी संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरू को फांसी के फंदे से बचाने के लिए अपना राग अलापने लगे हैं। वै‍से भी जम्मू-कश्मीर सरकार यह आशंका जताती चली आ रही है कि यदि अफजल को फांसी होती है तो राज्य में गडबडी हो सकती है। यह कितनी हैरतअंगेज मांग है कि तमिल हत्यारों को इसलिए फांसी मत दो क्योंकि तमिलनाडु में हालात बिगड जाएंगे, पंजाबी आतंकवादी को फांसी देने पर पंजाब का पारा ऊपर चढ जायेगा और अफजल गुरु को सजा देने पर जम्मू-कश्मीर के हालात हाथ से बाहर निकल जाएंगे। इन नेताओं से कोई यह तो पूछने वाला है ही नही कि ऐसे में भारतवर्ष कहां होगा?