Thursday, December 27, 2018

कैसे-कैसे सच

भारत के इतिहास में ऐसे कई महापुरुषों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने देशवासियों को जागृत करने के अभियान में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। किताब का पन्ना-पन्ना उनकी कर्मठता और त्याग की गाथा सुनाता है। उन्होंने लीक के फकीरों के हर विरोध और अपमान का हंसते-हंसते सामना कर जिन संदेशों के तराने गाए उनकी गूंज आज भी सुनायी देती है। अपनी उम्र के चालीस वर्ष भी पूरे न कर पाने वाले स्वामी विवेकानन्द की प्रेरक जीवनी दुर्बलों को सबल बनाती है। उनके प्रेरणादायक विचार सदियों तक जिन्दा रहेंगे। उनका मानना था कि "बिना संघर्ष के कुछ भी नहीं मिलता। जिन्दगी में हमें बने बनाए रास्ते नहीं मिलते। आगे बढने के लिए खुद ही अपने रास्ते बनाने पडते हैं। हर नये और बडे काम को पहले उपहास तथा विरोध का सामना करना पडता है और उसके बाद ही स्वीकृति मिलती है। लोग तुम्हारी प्रशंसा करें या आलोचना, तुम्हारे पास धन हो या नहीं हो, तुम्हारी मृत्यु आज हो या बडे समय बाद हो, तुम्हें पथभ्रष्ट कभी नहीं होना है।"
अपने कर्तव्य से मुंह चुराने वाले कामचोरों ने हर सदी में विचारवानों को चिंतित और परेशान किया है। आपसी रिश्तों में कडवाहट का होना भी कोई नयी समस्या नहीं है। आपसी कलह के कारण सदियों पहले भी परिवार टूट जाया करते थे। अगर ऐसा नहीं होता तो शांतिदूत श्री गुरुनानक देवजी को यह नहीं कहना पडता : "अपने घर में शांति से निवास करने वालों का यमदूत भी बाल बांका नहीं कर सकता।" ओशो भी यही तो कहते हैं,  "पारिवारिक मोर्चे पर हारा हुआ व्यक्ति कहीं भी सफल नहीं हो सकता। अगर कहीं हो भी गया तो भयावह अधूरापन उसका कभी पीछा नहीं छोडता। अधिकांश लोग दूसरों की कमियों और बुराइयों की गिनती करने में ही अपना बहुत सारा कीमती समय बर्बाद कर देते हैं। अपने दुगुर्ण छिपाते हुए खुद को जीवन पर्यंत धोखा देते रहते हैं।
कबीर दास ने लिखा है :
"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना
मुझसे बुरा न कोय।।"
ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो एक ही झटके में बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं। सब्र करना तो उन्हें आता ही नहीं। ऐसा लगता है कि इस रोग की जडें भी बडी पुरानी हैं। तभी तो सदियों पहले संत कबीर को यह संदेश देना पडा :
"धीरे-धीरे रे मना
धीरे-धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घडा,
ऋतु आए फल होय।"
यानी... धैर्य रखना बहुत जरूरी है। हर काम अपने तय समय पर ही होता है। पेड को सैकडों घडे पानी से सींचने पर कुछ नहीं होगा। पेड पर फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा। इतिहास गवाह है सपने उन्हीं के पूरे होते हैं जो उन्हें साकार करने में कोई कसर नहीं छोडते। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम हमेशा युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य में कहा करते थे : सपने वो नहीं होते जो आपको नींद में आते हैं बल्कि वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते। आदरणीय अब्दुल कलाम सिर्फ उपदेश ही नहीं देते थे। जैसा कहते थे, वैसा करते ही थे। उनका मानना था कि पिता, माता और शिक्षक ही देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकते हैं। वे छात्र-छात्राओं को प्रेरित करने के लिए ऐसे-ऐसे उदाहरण देते थे। जिन्हें नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं होता था। वे टालमटोल और समय को बरबाद करने वालें लोगों को कतई पसंद नहीं करते थे। उनके इस कथन में कितनी बडी सीख छिपी है : "इंतजार करने वालों को केवल उतना ही मिलता है जितना कोशिश करने वाले छोड देते हैं। पिछले कुछ वर्षों से लोगों का उत्साह जगाने वाले प्रेरणा गुरुओं की बन आई है। हताशा और निराशा के शिकार लोगों का मनोबल बढाने वाले इन ज्ञानियों को परामर्शदाता तथा 'मोटिवेशन स्पीकर' भी कहा जाता है। कुछ मोटिवेशन गुरु अच्छी खासी भीड जुटाने में कामयाब हो रहे हैं। यह अपने बोलने के अंदाज और भव्यता के कारण भी जाने जाते हैं। इनको सुनने वालों कीं भीड में युवाओं की संख्या ज्यादा देखी जा रही है। दूसरों का मनोबल बढाने का दावा करने वाले इन 'गुरूओं' में कितने असली हैं, कितने नकली इसका पता लगा पाना बेहद मुश्किल है। फिर भी लगभग सभी की चांदी है। यह धुरंधर स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, गुरुनानक देवजी, कबीरदास, लाल बहादूर शास्त्री, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तथा कुछ अन्य नामी-गिरामी हस्तियों की संघर्ष गाथा और उनके संदेशों और उपदेशों के उदाहरण देकर लाखों-करोडों की कमायी कर रहे हैं। कुछ का तो सोशल मीडिया पर भी अच्छा-खासा डंका बज रहा है। बीते वर्ष ऐसे ही एक भीड जुटाऊ युवा 'मोटिवेशन स्पीकर' की किताब 'हिम्मत से करें मुश्किलों का सामना' बाजार में आई तो खरीददारों की लाइन लग गई। इस चमत्कार ने प्रकाशक को भी हैरान कर दिया। इस किताब की देशभर में चर्चा होती रही। इसी बीच किसी जोरदार धमाके की तरह देश और दुनिया को विस्मित कर देने वाली यह खबर आई कि इस युवा 'मोटिवेशन स्पीकर' ने खुद पर गोली चला कर आत्महत्या कर ली है। उनकी आत्महत्या को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि ऐसी कौन सी मुश्किले थीं जिन्होंने तेजी से उभरते परामर्शदाता, लेखक, प्रवचनकार को आत्महत्या करने को विवश कर दिया। इस विस्मयकारी आत्महत्या को लेकर कई दिनों तक मेरे मन-मस्तिष्क में हलचल मची रही और तरह-तरह के सवाल नींद उडाते रहे। इसी दौरान मुझे कई बीमारियों, तकलीफों और चलने-फिरने में असमर्थ होने के बावजूद प्रसन्नता, जीवंतता का मंत्र फूंकने वाले स्पर्श शाह से रूबरू होने का अवसर मिला। मूलरूप से गुजरात के सूरत के निवासी माता-पिता की संतान स्पर्श ने जब जन्म लिया तो उनके शरीर में चालीस फ्रैक्चर थे। डॉक्टरों ने कह दिया था कि यह बच्चा दो दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रहेगा। लेकिन आज वे न केवल जिन्दा हैं बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत भी हैं। स्पर्श के शरीर में अबतक १३५ फ्रेक्चर हो चुके हैं और कई बार सर्जरी हो चुकी है। उनके शरीर में आठ रॉड और बाईस स्कू्र लगे हैं। फिर भी वे खुद ठहाके लगाते हैं और दूसरों को भी हंसाते और जगाते हैं। हमेशा बिस्तर और व्हीलचेयर पर रहने वाले स्पर्श बहुत अच्छे गायक होने के साथ-साथ ऐसे गजब के मोटिवेशन स्पीकर हैं जिन्हें देखते ही लोगों में ऊर्जा का संचार हो जाता है। उन्हें कम से कम शब्दों का सहारा लेना पडता है। उनका शरीर ही बहुत कुछ कह देता है। यही वजह है कि उन्हें देखने और उनकी स्पीच सुनने के लिए आम और खास लोग उमड पडते हैं। वर्तमान में न्यूयार्क में रह रहे स्पर्श को दुनिया भर के देशों से स्पीच देने के लिए निमंत्रण मिलता रहता है। अभी तक वे ६ देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके है। मोटिवेशन स्पीच और गायन से होने वाली सारी की सारी कमायी को स्पर्श विभिन्न जनसेवी संस्थाओं को दान कर देते हैं।

Thursday, December 20, 2018

समुंदर के असली तैराक

वे अपंग हैं। देख और सुन नहीं सकते। चलने-फिरने में भी लाचार हैं। कुदरत ने यकीनन उनके साथ कहीं न कहीं अन्याय तो किया ही है। फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला-शिकवा नहीं। उनकी ऊर्जा और कार्यक्षमता स्तब्ध कर देती है। दूसरों को कुछ कर गुजरने के लिए उकसाती है। उन्होंने यह भी आसानी से आत्मसात कर लिया है कि कमियों और गमों की चादर ओढने से तकलीफें और बढेंगी। अंधेरा और घना होता चला जाएगा। धार्मिक नगरी ऋषिकेश में रहती है ३२ वर्षीय अंजना मलिक जो दोनों हाथों से दिव्यांग है। वह अपने पैरों से ऐसी-ऐसी मनोहारी पेंटिंग बनाती है जिसे कला के कद्रदान खुशी-खुशी हजारों रुपये में खरीद लेते हैं। पंद्रह साल पहले अंजना सडक के किनारे खडे होकर भीख मांगा करती थी। कई घंटे सर्दी, धूप और बरसात झेलने के बाद उसके भीख के कटोरे में बीस-पच्चीस रुपये ही जमा हो पाते थे। धार्मिक नगरी ऋषिकेश में विदेशी पर्यटकों का भी आना-जाना लगा रहता है। सन २०१५ में घूमने आई एक अमेरिकी कलाकार स्टीफेनी की नजर अपने पैर की अंगुलियों से चार कोल का एक छोटा टुकडा थामे फर्श पर 'राम' शब्द उकेरने का प्रयास करती दिव्यांग अंजना पर पडी तो वह रूक गर्इं और काफी देर तक उसे निहारती रहीं। चित्रकार स्टीफेनी को अंजनी के भीतर छिपा कलाकार नज़र आ गया। वे अंजना के निकट जाकर बैठ गर्इं। उसके घर-परिवार के बारे में जाना। उन्होंने अंजना को स्वाभिमान से जीने के लिए अपने हुनर को विकसित करने का सुझाव दिया। इतना ही नहीं उस परोपकारी विदेशी महिला ने कुछ दिन ऋषिकेश में रूककर अंजना को चित्रकला का प्रशिक्षण भी दिया। यह अंजना की लगन ही थी कि वह देखते ही देखते देवी, देवताओं, पशु, पक्षियों और प्रकृति की सुंदरता को कागज़ पर साकार और आकार देने लगी। धीरे-धीरे उसके बनाये आकर्षक चित्रों के कद्रदान बढते चले गये और अच्छे दाम भी मिलने लगे। कभी फटे-कटे लिबास में भीख मांगने वाली अंजना आज चेहरे पर मुस्कान लिए पैरों की अंगुलियों से तूलिका थामे तरह-तरह के चित्र बनाती है तो नामी-गिरामी चित्रकार भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कभी अंजना और उसके परिवार को फुटपाथ पर रातें काटनी पडती थीं, लेकिन अब पूरा परिवार सर्व सुविधायुक्त किराये के घर में सुख-चैन के साथ रहता है। अंजना का अपने घर का सपना भी शीघ्र साकार होने जा रहा है। पेंटिंग बेचकर हजारों रुपये कमाने वाली अंजना को स्टीफेनी की बहुत याद आती है। वह उनसे मिलकर धन्यवाद... शुक्रिया अदा करना चाहती है। अगर उन्होंने उसे चित्रकला का हुनर न सिखाया होता तो वह आज भी सडक पर भीख मांग रही होती। हां, स्टीफेनी भी अंजना को नहीं भूली हैं तभी तो पिछले वर्ष उन्होंने अंजना को अमेरिका से एक पार्सल भेजा जिसमें उनके चित्रों का एक शानदार एलबम और कुछ उपहार थे।
पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं अनिल कुमार अनेजा। इनका संघर्ष आंख वालों की भी आखें खोल देता है। वे दिल्ली यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। समझौते की बजाय संघर्ष की पगडंडी में चलने की जिद का दामन तो उन्होंने तभी थाम लिया था जब उनकी स्कूल जाने की उम्र हुई थी। माता-पिता ने स्कूल भेजने से इनकार कर दिया था, लेकिन उन्होंने जिद पकड ली थी कि हर हालत में स्कूल जाएंगे और खूब पढेंगे-लिखेंगे। उनकी एक बहन भी थी जो उन्हीं की तरह दृष्टिहीन थी। उसने माता-पिता की बात मान ली थी। जब उन्होंने दो दिन तक खाना नहीं खाया और किसी से बातचीत नहीं की तो माता-पिता ने उनका स्कूल में दाखिला करा दिया। आगे का सफर तो और भी मुश्किल था, लेकिन अनिल की लगन और जिद हर संकट से टकराती रही। तब ब्लाइंड स्कूलों में म्यूजिक और हैंडिक्राफ्ट्स जैसी चीजों पर ही फोकस किया जाता था, लेकिन अनिल ने यहां भी जिद की, कि उन्हें सामान्य बच्चों की तरह दूसरे विषय पढने हैं। उन्हें दूसरों से कमतर न आंका जाए। शिक्षकों ने तो मान लिया था कि यह अंधा सामान्य बच्चों की तरह पढाई नहीं कर पायेगा, लेकिन अनिल ने साबित कर दिखाया कि वह किसी से कम नहीं है। जैसे दूसरे छात्र हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास, पालिटिकल साइंस और संस्कृत पढते हैं वैसे ही उसने उन्हें न सिर्फ जाना और समझा बल्कि दक्षता भी हासिल की। अपने मेहनत के बलबूते पर सीबीएसआई की मेरिट लिस्ट में आने वाले अनिल ने शिक्षकों की सोच को बदल दिया। उन्हें दिल्ली के सेंट स्टीफंस में इंगलिश ऑनर्स में एडमिशन मिल गया। पढाई के साथ-साथ उन्होंने नाटकों और भाषण प्रतियोगिताओं में भी जमकर हिस्सा लिया और नाम कमाया। दिल्ली यूनीवर्सिटी से एमफिल और पीएचडी करने के बाद वे १९७७ में रामजस कॉलेज में अंग्रेजी पढाने लगे। यह गरिमामय पद उन्हें आसानी से नहीं मिला। अधिकतर लोग यही मानते थे कि जो देख नहीं सकता वह दूसरों को पढा-लिखा भी नहीं सकता। यह तो मात्र एक पडाव था। उसके बाद उन्होंने और भी कई डिग्रियां हासिल करते हुए दृष्टिहीनों के अधिकारों की लडाई के प्रति खुद को समर्पित कर दिया। कई किताबे भी लिखीं। इस संघर्ष के महारथी को २०१४ में 'नैशनल अवार्ड' से सम्मानित किया गया। प्रोफेसर अनिल का कहना है कि यह तो अभी शुरुआत है। आगे बहुत कुछ करना बाकी है।
एस. रामकृष्णन की नौसेना में जाने की प्रबल तमन्ना थी। अपनी चाहत को पूरा करने के लिए उन्होंने खूब मेहनत की। सैन्य परिक्षण के दौरान उन्हें एक पेड से नीचे प्लेटफॉर्म पर कूदना था, लेकिन संतुलन बिगड गया। तय जगह के स्थान पर जमीन पर जा गिरे। इस दुर्घटना ने उन्हें अपंग बना दिया। शरीर के अधिकांश हिस्से निष्क्रिय हो गये। सभी सपनों की मौत हो गई। जीवन चुनौती-सा लगने लगा। जो युवक सैनिक बनकर देश की सेवा करना चाहता था उसकी दूसरों पर आश्रित रहने की नौबत आ गयी। ऐसे विकट काल में घर-परिवार और रिश्तेदारों ने पूरा साथ दिया। कुछ समय गुजरने के बाद उन्होंने दाल-रोटी के लिए अपने गांव में ही प्रिंटिंग प्रेस शुरू की, लेकिन लोगों के अविश्वास और असहयोग के कारण शीघ्र ही प्रेस पर ताला लगाना पडा। इस हकीकत ने उन्हें बेहद आहत किया कि अधिकांश लोग शारीरिक रूप से अक्षम इन्सान को पूरी तरह से नाकाबिल समझ लेते हैं। उस पर भरोसा ही नहीं करते। समाज की इसी बेरूखी ने उन्हें हिलाकर रख दिया और उनके मन-मस्तिष्क में यह विचार आया कि अपने देश में जो हजारों-लाखों दिव्यांग हैं क्यों न उनके लिए कुछ किया जाए। उनकी निराशा को आशा में बदला जाए। वे भी हंसते-खेलते हुए स्वाभिमान के साथ जीवन जी सकें। लोगों को भी बताया और समझाया जाए कि विकलांगता कोई बाधा नहीं है। यह तो हालातों का थोपा एक पडाव है जिसे दिव्यांग आसानी से पार कर सकते हैं। जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है। उन्होंने अपने विचार को सार्थक करने के लिए 'अमर सेवा संगम' नामक संस्था की स्थापना की जिसका सेवा कार्य अनवरत फैलता ही चला गया। किसी भी अच्छे काम की शुरूआत रंग लाती ही है। संगठन पूरी तरह से दिव्यांगों के प्रति समर्पित है। संगठन के लोगों के द्वारा हर उम्र और हर तरह के दिव्यागों की उनकी जरूरत के अनुसार मदद की जाती है। दिव्यांग शिशुओं की उनके जन्म से ही विशेष देखभाल करने वाली 'अमर सेवा संस्था' का काम आज आठ सौ से ज्यादा गांवों तक पहुंच चुका है। दिव्यांगों के लिए पूरी तरह से अपना जीवन समर्पित कर चुके एस. रामकृष्णन बताते हैं - हमारे पारदर्शी व्यवहार के कारण संस्था को देखते ही देखते सफलता मिलती चली गई और पता ही नहीं चला कि कैसे तीस वर्ष बीत गये। मैं मानता हूं कि अक्षमता की अवधारणा धीरे-धीरे खत्म हो रही है। पूरी तरह से अक्षम लोग भी खुलकर जीना चाहते हैं। उनकी इस भावना की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। उन्हें यह कतई नहीं लगना चाहिए कि ईश्वर ने उन्हें इस रूप में धरती पर भेज कोई बेइन्साफी की है।

Thursday, December 13, 2018

क्यों भयभीत हैं देशवासी?

नेता ही नहीं गुंडे-बदमाश हत्यारे भी अब भीड का सहारा लेकर अपनी ताकत दिखाने लगे हैं। उस दिन सरे बाज़ार तीन लोगों की हत्या करने वाले कुख्यात बदमाश को पुलिस पेशी के लिए अदालत में लायी तो वहां पर उसके उत्साहवर्धन के लिए अच्छी-खासी भीड जुटी थी, जो नारे लगा रही थी- "दादा मत घबराना हम तुम्हारे साथ हैं। कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता।" भीड में शामिल हट्टे-कट्टे बदमाशों के सामने पुलिसवाले दबे-दबे लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि अगर उन्होंने हत्यारे के समर्थकों को रोकने-टोकने की कोशिश की तो वे उन्हीं पर टूट पडेंगे। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में बेकाबू भीड के द्वारा एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या कर दिये जाने के बाद कुछ खाकी वर्दीधारियों का मनोबल टूटा है और वे भीड से खौफ खाने लगे हैं। यह भी सच है कि जो पुलिस वाले अपने कर्तव्य के पालन के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार रहते हैं उन्हें भले ही इंस्पेक्टर की हत्या ने चिन्ता और दहशत में न डाला हो, लेकिन जिन्होंने खाकी वर्दी महज नौकरी बजाने के लिए पहनी है उन्हें कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। वे ऐसा कोई भी जोखिम लेने से बचना चाहेंगे, जिससे उनकी जान को खतरा हो। हालांकि भीड के हाथों पुलिसकर्मी को मौत के घाट उतार देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। आए दिन वर्दीधारियों के पिटने और अपमानित किये जाने के वीडियो और तस्वीरें सामने आती रहती हैं, जिनमें किसी वर्दीधारी पर कोई नेता थप्पडबाजी करते तो भीड उनकी वर्दी फाडती दिखायी देती है। यहां तक छुटभैय्ये नेता भी उन्हें धमकाते और गाली-गलोच करते नजर आते हैं।
यह हकीकत यही दर्शाती है कि लोगों का कानून के प्रति भय और सम्मान कम होता चला जा रहा है। प्रश्न यह भी है कि जब पुलिस वाले ही असुरक्षित हैं तो वे जनता की सुरक्षा कैसे कर पाएंगे? यह बहुत ही चिन्तनीय सच्चाई है कि भारतवर्ष में ऐसे लोग लोकतंत्र को लगातार आहत कर रहे हैं, जो कानून के रास्ते पर चलना पसंद नहीं करते। उन्हें थाने में जाकर शिकायत दर्ज करवाना समय की बर्बादी लगता है। दरअसल उन्होंने मान लिया है कि कानून की कमजोरी और वर्दीवालों की ढिलायी चरमसीमा पर है। भरे बाजार जब कोई मासूम बच्चा छोटी-मोटी चोरी करता पकडा जाता है तो उसे दंडित करने के लिए फौरन लोग एकत्रित हो जाते हैं और उसे पीट-पीटकर लहुलूहान कर देते हैं। इसी तरह से किसी सडकछाप मजनूं को सबक सिखाने के लिए आजकल महिलाएं उसकी ऐसे चप्पलों और थप्पडों से धुनायी करने लगती हैं जैसे इस देश में कानून-कायदों का खात्मा हो चुका हो। हम और आप वर्षों से देखते चले आ रहे हैं कि अपनी मांगें मनवाने के लिए जब लोग भीड बनकर सडक पर उतरते हैं तो सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने में जरा भी देरी नहीं लगाते। यहां तक कि आम नागरिकों की कारें और दूकानें तक फूंक दी जाती हैं। भीड जानती है कि वह कितनी भी हिंसा कर ले, उसका कुछ नहीं बिगडने वाला। भीड को सज़ा मिलने के बहुत ही कम उदाहरण हैं। बडे-बडे अपराधों को अंजाम देकर भी भीड में शामिल लोग बच जाते हैं। उनकी शिनाख्त ही नहीं हो पाती। अगर होती भी है तो उनके 'आका' उन्हें बचा ले जाते हैं। यही वजह है कि ऐसे अराजक किस्म के लोगों को न तो कानून का भय बचा है और न ही पुलिस-प्रशासन का। उत्तर प्रदेश में जब योगी ने सत्ता संभाली थी तब उन्होंने बडे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि अब जनता बेखौफ हो जाए। सूबे के गुंडे-बदमाश अगर खुद में सुधार नहीं लाएंगे तो उन्हें खदेडने में किंचित भी देरी नहीं लगायी जाएगी। कानून का पालन करने वालो का सम्मान होगा। उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी और कानून तोडने वालों की हड्डी-पसलियां तोडकर रख दी जाएंगी। आज लोग पूछ रहे हैं कि योगी जी आखिर आपका वादा पूरा क्यों नहीं हो पाया? प्रदेश में गो-भक्ति के नाम पर बेकाबू भीड हत्याएं और मारपीट करने में जरा भी नहीं सकुचाती! अमन चैन के आकांक्षी नागरिकों के चेहरे उतरे हुए हैं। उन्हें हर पल यही डर सताता रहता है कि कहीं वे भीडतंत्र का शिकार न हो जाएं। क्या यही है असली रामराज्य जिसके आपने सपने दिखाये थे? आपको तो प्रदेश की जनता की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने की बजाय 'राम मंदिर' और गाय की ज्यादा चिन्ता है। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कि गोवध निषेध होने के बावजूद भी गोवंश के काटे जाने के मामले सामने आते रहते हैं। कुछ पेशेवर लोग गोवंश की हत्या करने से बाज नहीं आ रहे। ऐसा होना यकीनन सरकार तथा पुलिस प्रशासन की विफलता को दर्शाता है। यह भी जान लें कि गाय को अगर करोडों लोग माता मानते हैं, पूजते हैं तो अन्य वर्गों के लोगों को भी उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। आखिर देश को किस रास्ते पर चलाया जा रहा है? गाय के नाम पर इन्सानों का दानव बनने के चित्र अच्छे भविष्य के संकेत नहीं दे रहे। भारत के प्रधानमंत्री तक कह चुके हैं कि "गोरक्षा के नाम पर अस्सी प्रतिशत लोग गोरखधंधा करते हैं। ऐसे संगठनो की शिनाख्त कर सरकार को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।"  प्रधानमंत्री ने तो सच कहने में देरी नहीं लगायी। फिर भी गोरक्षा के नाम पर हिंसा होती रही। गोरक्षकों ने कानून को अपने हाथ में लेना नहीं छोडा।

Thursday, December 6, 2018

राजनीति के छोटे-बडे सफेदपोश गुंडे


उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री राजनीति के पुराने खिलाडी हैं। मुख्यमंत्री बनने से पहले भी विवादास्पद बयानबाजी करते रहे हैं। वे जानते-समझते हैं कि उनके कटु बोल कैसा कहर ढा सकते हैं। जिस विरोधी पर निशाना साधा जा रहा है उसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी। वह किस आक्रामक अंदाज के साथ पलटवार करेगा। तेलंगाना विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने पुराने अंदाज में यह कहकर अच्छी-खासी तालियां बटोर खुद की पीठ थपथपा ली - "अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है तो ओवैसी को ठीक उसी तरह तेलंगाना से भागना होगा, जैसे निजामों को हैदराबाद से बाहर भागना पडा था।" जैसा होता आया है वैसा ही हुआ। योगी के इन चुनावी उकसाऊ बोलवचनों ने ओवैसी बंधुओं को बेकाबू और आग बबूला कर दिया। उनके पलटवार करने का वही पुराना तरीका था, जिसके लिए वे जाने और पहचाने जाते हैं। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष व हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने ललकारते और दहाडते हुए जवाब भी दिया और सवाल भी दागा कि - "सुनो उत्तरप्रदेश के सीएम, ये हिंदुस्तान मेरे बाप का मुल्क है... जब पिता का मुल्क है तो बेटा कैसे निकलेगा यहां से। आप तारीख तो जानते नहीं, हिस्ट्री में जीरो हैं। अगर पढना नहीं आता तो पढने वालों से पूछो, अरे पढते तो मालूम होता कि निजाम हैदराबाद छोडकर नहीं गए, उनको राज प्रमुख बनाया गया था। चीन से जब जंग हुई तो देश के लिए इन्हीं निजाम ने अपना सोना दिया था।
सांसद असदुद्दीन के छोटे भाई अकबरुद्दीन तो पूरी तरह से गुंडों की मुद्रा में आकर ताल ठोकने लगे कि हमारी १०० पीढ़ियां हैदराबाद में छाती तानकर रहेंगी। हम आपसे लडेंगे और पराजित करेंगे। योगी में दम नहीं कि वह हमें पाकिस्तान भेज सके। यह वही अकबरुद्दीन है, जो देश के प्रधानमंत्री को 'हमें मत छेडो चायवाले' कहकर उनकी खिल्ली उडाता रहा है। यह बदजुबान यह धमकी भी देता रहा है कि अगर भारत की पुलिस कुछ घंटों के लिए अपनी आंखें और कान बंद कर ले तो वह और उसके साथी हिंदुओं के होश ठिकाने लगाने का दम रखते हैं। दरअसल ओवैसी बंधुओं के बदमाशों वाले तेवरों के प्रशंसकों की भी अच्छी-खासी तादाद है, जो भारत वर्ष को बारूद के ढेर पर बैठाना चाहते हैं और मौका देखकर तबाही और हाहाकार मचाना चाहते हैं। यह हमेशा योगी जैसे बेलगाम सत्ताधीशों और नेताओं के मुंह खुलने की राह ताकते रहते हैं। ओवैसी बंधुओं की तरह ही समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां भी अपनी मर्यादाहीन विषैली जुबान के लिए कुख्यात हैं। यही कुख्याति उन्हें चुनाव में जितवाती है। आजम खां के भी ढेरों प्रशंसक और अनुयायी हैं, जिनका मकसद ही भडकाऊ भाषण देकर देश का माहौल बिगाडना है। मर्यादाहीन और भडकाऊ भाषा का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करने में जहां योगी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वहीं कुछ साध्वियां भी समय-समय पर ज़हर उगलती रहती हैं। केंद्रीय मंत्री निरंजन ज्योति ने राजधानी दिल्ली में आयोजित एक चुनावी आमसभा में यह कहकर मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ दी थीं कि "आप रामजादों को चुनेंगे अथवा हरामजादों को।" हरामजादे शब्द का इस्तेमाल गाली के रूप में होता है, लेकिन साध्वी मंत्री ने मतदाताओं के सामने इसका उच्चारण ऐसे किया जैसे यह उनके लिए सहज बात हो। ऐसी गालियां उनके रोजमर्रा जीवन का अंग हों। अभद्र भाषा के जरिए अपने विरोधियों को नीचा दिखाने वाले नेता हर पार्टी में हैं। इनकी चमडी इतनी मोटी है कि इन्हें कितना भी लताडो, लेकिन कोई फर्क नहीं पडता। एक तरह से देखें तो यह सरासर गुंडागर्दी है। धमकाने-चमकाने और डराने का काम तो गुंडे करते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं कि यह भी अपने किस्म के सफेदपोश ताकतवर गुंडे ही हैं। इनमें कोई छोटा गुंडा है तो कोई बडा।
अपशब्द बोलने वाले नेताओं और मंत्रियों को तालियों की गडगडाहट सुनकर लगता है कि जनता को गालियां सुनने में बडा मज़ा आता है। उनके अपशब्द सुनकर मतदाता उनकी पार्टी के प्रत्याशी को वोट देने को तत्पर हो जाते हैं। इसलिए कुछ नेताओं ने मर्यादाहीन भाषा और गाली-गलौच को वोट बटोरने का हथियार बना लिया है। गालीबाज भले ही कुछ तमाशबीनों द्वारा पीटी गई तालियों की गडगडाहट को सुनकर गद्गद् हो जाते हों, लेकिन सच तो ये भी है कि अधिकांश देशवासी शालीनता और सज्जनता के आकांक्षी हैं। वे उन नेताओं को कतई पसंद नहीं करते, जो अपना आपा खोने में देरी नहीं लगाते। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम एक ऐसे देश के वासी हैं, जहां पर साधु-साध्वियों को बेहद सम्मान दिया जाता है। उनके सामने नत-मस्तक होने में गर्व महसूस किया जाता है। जिन्हें खास दर्जा देकर अपना प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है अगर वही नेता का लिबास धारण करते ही शातिर नेताओं की तरह सत्ता की भूख में पागल और मर्यादाहीन होकर नफरत के बीज बोने लगें तो चिंता  और पीडा के साथ-साथ भगवा प्रेमी होने की शर्मिंदगी तो होगी ही। अक्सर यह देखा गया है कि हर दंगे के पीछे नेताओं का भी कहीं न कहीं हाथ होता है। यह नेता ही होते हैं, जो अपने कार्यकर्ताओं को भडकाते और उकसाते हैं और यह कार्यकर्ता 'भीड' बन जाते हैं। इस भीड में कई असामाजिक तत्व भी शामिल हो जाते हैं। इसी तरह की भीड कभी गौमाता की रक्षक होने का झंडा लहराते हुए 'अखलाक' को मौत के घाट उतार देती है। तो कभी किसी को पीट-पीटकर अधमरा कर देती है। इनकी सुरक्षा के लिए यदि कोई वर्दी वाला सामने आता है तो वह भी नहीं बच पाता। यहां तक कि ऐसी नृशंस हत्याओं की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी को भी गोलियों से भून कर जश्न मनाया जाता है।

Thursday, November 29, 2018

क्यों नहीं रुकता सिलसिला?

आत्महत्या करने से पहले अनीसिया बत्रा काफी देर तक छत पर रेलिंग के सहारे टेक लगाकर खडी रही। उसके मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के विचारों की आंधियां चलती रहीं। उसने अत्याधिक शराब पी रखी थी फिर भी उसने अपने होश नहीं खोये थे। वह सोच रही थी तब उसके होश कहां गुम हो गये थे जब वह मयंक के प्यार में अंधी हो गई थी। माता-पिता और तमाम रिश्तेदारों की एक ही राय थी कि मयंक निहायत ही गंदा इन्सान है। उसकी अतरंग सहेली निहारिका ने तो उसके समक्ष मयंक की पूरी पोल-पट्टी ही खोलकर रख दी थी। मयंक ने कभी निहारिका पर भी डोरे डाले थे। पूर्व मिस इंडिया व अभिनेत्री निहारिका को मयंक ने उसके २९वें जन्मदिन पर आयोजित पार्टी में महंगी अंगूठी भेंट की थी और शादी का प्रस्ताव रखा था। उसने अपने सीने पर निहारिका के नाम का टैटू भी बनवा लिया था, लेकिन कुछ समय बाद निहारिका को जब पता चला कि मयंक एक दिलफेंक इन्सान होने के साथ-साथ मनोरोगी व हिंसक है तो उसने उससे दूरियां बना ली थीं। इसके बाद मयंक जानवरों की तरह अजीब-अजीब हरकतें करते हुए उसे खत्म करने की धमकियां देने लगा था। वह इतनी भयभीत हो गई थी कि कई दिनों तक दोस्तों के यहां छिपी रही। अनीसिया ने अपनी वर्षों पुरानी सहेली की बातों पर भरोसा न करते हुए मयंक के साथ शादी कर सभी को चौंका दिया था। कुछ हफ्तों तक मयंक का व्यवहार ठीक-ठाक रहा, लेकिन धीरे-धीरे निहारिका की कही हर बात सच होने लगी तो उसने अपना माथा पीट लिया। मयंक में प्रेमी और पति वाले गुण तो थे ही नहीं। वह तो हद दर्जे का लालची, हिंसक और शक्की इन्सान था। कभी भी हाथ उठा देता और गाली-गलौच पर उतर आता। अनीसिया जर्मन एयरलाइंस लुफ्तांश में एयरहोस्टेस थी। उसकी पहचान का दायरा काफी विस्तृत था। मयंक को तो उसका किसी से बात करना भी नहीं सुहाता था। वह किसी भी पुरुष को उसका यार और आशिक घोषित कर उसके चरित्र पर लांछन लगाने लगता। रोज-रोज के झगडों ने अनीसिया को थका दिया।
एक सर्वे के अनुसार वर्तमान में भी महिलाओं पर पुरुषों का आतंक बना हुआ है। लगभग एक तिहाई शादीशुदा महिलाएं पुरुषों की पिटायी का शिकार होती चली आ रही हैं। विडंबना तो यह भी है कि अधिकांश महिलाएं पतियों के सभी जुल्मों और अन्यायों को चुपचाप सह लेती हैं। कहीं कोई शिकायत तक नहीं करतीं। यह भी घोर हैरानी भरा सच है कि इस तरह की मारपीट की घटनाएं जिन घरों में घटती हैं वहां से भी विरोध की कोई आवाज नहीं निकलती। निजी मामला मानकर चुप्पी साध ली जाती है। चुप रहने के लिए विवश कर दिया जाता है। जिन पढी-लिखी महिलाओं को पता है कि हिंसक पुरुषों को सबक सिखाने के लिए देश में घरेलू हिंसा कानून बनाया गया है वे भी पति और परिवार की बदनामी के भय से मूक बनी रहती हैं। कुछ महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य के लिए घरेलू हिंसा की आग में ताउम्र जलना स्वीकार कर लेती हैं तो कुछ अनीसिया की तरह आत्महत्या कर लेती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि यह जीवन हारने और पीठ दिखाने के लिए नहीं मिला है। परमात्मा ने यह जीवन देकर हमारा सम्मान किया है। यह उसकी तरफ से दिया गया सर्वोत्तम उपहार है। उपहार का कभी अपमान नहीं किया जाता। यह भी कहा और लिखा जाता रहा है कि महिलाओं के पूरी तरह से शिक्षित तथा आत्मनिर्भर होने पर ही पुरुषों/पतियों की गुंडागर्दी पर लगाम लग सकती है। पढी-लिखी महिलाओं में अपना नया रास्ता चुनने, बोलने और विरोध करने का खुद-ब-खुद साहस आ जाता है। अगर यह निष्कर्ष, कथन और सोच सही है तो यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि अच्छी-खासी नौकरी करने वाली अनीसिया ने आत्महत्या क्यों की? वह पढी-लिखी भी थी और आत्मनिर्भर भी। जिसने कभी लोगों की परवाह नहीं की। अपने सभी अहम फैसले खुद लेकर अपनों और गैरों को चौंकाया। बगावत करने की हिम्मत रखने वाली युवती को मानसिक रोगी, लडाकू पति से फौरन अलग होकर नयी जिन्दगी जीने से किसने रोका था! कोई रोकता भी तो वह कहां मानने वाली थी। अनीसिया ने आत्महत्या कर चिंतनीय अपराध तो किया ही है।
ऐसा ही अपराध बीते सप्ताह इंटरनेशनल गोल्ड मेडलिस्ट एथलीट पलविंदर चौधरी ने कर डाला, जिसकी उम्र महज अठारह वर्ष ही थी। देश के होनहार खिलाडियों में उसकी गिनती होने लगी थी। रांची में २०१५ में आयोजित नेशनल चैंपियनशिप में पलविंदर चौधरी ने अंडर-१६ कैटिगरी में १०० मीटर की रेस १०.१ सेकंड में पूरी कर नेशनल रिकॉर्ड की बराबरी कर अपने अच्छे भविष्य के संकेत दिए। साथ ही उन्हें साकार भी कर दिखाया। दिल्ली के साई हॉस्टल में रहकर बडे जोशो-खरोश के साथ १०० और २०० मीटर रेस की तैयारी में जुटे पलविंदर के कमरे में पंखे से लटकर आत्महत्या करने की जब खबर आयी तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ। माता-पिता, रिश्तेदार और यार-दोस्त सन्न रह गए। हर किसी की आंखों से आंसू बह रहे थे और सवालों की भीड जवाब पाने को उत्सुक थी। "वह तो बेहद जुनूनी खिलाडी था। देश हो या विदेश, जहां भी दौडा, गोल्ड लेकर ही आया। अब उसके दिलो-दिमाग पर केवल ओलम्पिक ही छाया हुआ था। किसी भी सूरत में वह गोल्ड लाने के लिए पागल हुआ जा रहा था। ओलंपिक के प्रति उसकी दिवानगी उसके दिमाग में इस कदर हावी हो गई थी कि उसने एक हाथ पर ओलम्पिक के सिंबल का टैटू तक गुदवा लिया था। कल ही तो फोन पर उससे बात हुई थी। ऐसा कुछ भी नहीं लगा था जो ऐसी अनहोनी की ओर इशारा करता।" यह कहना था पलविंदर के पहले कोच अजीतकुमार का जो उसे बचपन से जानते थे। आत्महत्या करने से लगभग पंद्रह दिन पूर्व युवा खिलाडी पलविंदर ने अपने किसान पिता को खुराक के लिए कुछ पैसे भेजने को कहा था। पिता ने उसे आश्वस्त किया था कि जैसे ही धान बिक जाएगी पैसे उसके पास पहुंच जाएंगे। हर खिलाडी को स्वयं को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए पौष्टिक खाद्य पदार्थ लेने जरूरी होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पलविंदर धन के अभाव के चलते उनसे वंचित था। खिलाडी बेटा अपनी जगह परेशान था और किसान पिता की वही मजबूरी थी, जो लगभग हर किसान की नियति बन चुकी है। देश का अन्नदाता अपने ही परिवार की ढंग से परवरिश नहीं कर पाता। हर वर्ष हजारों किसान फांसी के फंदे पर झूलकर या जहर खाकर आत्महत्या कर लेते हैं। कोई भी किसान शौकिया मौत को गले नहीं लगाता। आर्थिक तंगी ही उसे यह कदम उठाने को विवश करती है। सरकारें किसानों की सहायता के लिए सरकारी तिजोरियों के मुंह को खोलने का ऐलान तो करती हैं, लेकिन किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा बढता ही चला जाता है। किसानों के हिस्से का धन पता नहीं कहां गायब हो जाता है? ३१ अक्टूबर २०१८ की रात फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के टीवी कार्यक्रम 'कौन बनेगा करोडपति में महाराष्ट्र के एक किसान ने देश के अन्नदाता की हकीकत बयां कर करोडों लोगों की आंखें भिगों दीं। साहूकारों और बैंकों पर आश्रित रहने वाला भारत का मेहनतकश आम किसान इतना भी नहीं कमा पाता कि वह अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी और अन्य जरूरी सुविधाएं हासिल कर सके। उसकी पत्नी का मंगलसूत्र तक साहूकार के पास गिरवी रहता है। दिल को दहला और रुला देने वाली किसान की दास्तां को सुनकर अमिताभ बच्चन भी बेहद भावुक हो गये। उन्होंने किसानों की सहायता करने के लिए धनपतियों से अपील की और खुद भी खुले हाथों से सहयोग देने का ऐलान किया। कुछ लोगों ने इसे अभिनेता की नौटंकी कहते हुए कहा कि यह तो भावुकता में कहे गये ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल राजनेता और सत्ताधीश अक्सर करते रहते हैं।  केबीसी के मंच से उतरने के बाद उन्हें कुछ भी याद नहीं रहेगा। महाराष्ट्र के हों या उत्तर प्रदेश के... किसान तो किसान हैं। सभी की तकलीफें और चिंताएं एक समान हैं। अमिताभ ने अपने कथन को साकार करने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने उत्तर प्रदेश के १३९८ किसानों के चार करोड पांच लाख रुपये के बैंक कर्जे को चुका दिया। उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा है कि उनके लिए यह बहुत संतुष्टि का पल है कि महाराष्ट्र के बाद वह उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए कुछ कर पाए।

Friday, November 23, 2018

नेताओं और मीडिया का ख्वाब

जनता अगर खामोश है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बेवकूफ है। अनाडी और अंधी है। नेता और मीडिया पता नहीं इस सच को समझने को तैयार क्यों नहीं हैं। साफ-साफ दिखायी दे रहा है कि अधिकांश मीडिया और राजनेता आपस में मिले हुए हैं। देश के कम पढे-लिखे आम आदमी को भी पता चल गया है कि कौन-सा न्यूज चैनल किसके साथ है और किस-किस अखबार के मालिकों ने राजनेताओं और सत्ताधीशों की गुलामी स्वीकार कर ली है। तयशुदा राजनेताओं और दलों के इशारों पर तेजी से अंधों की तरह दौड रहे पत्रकार और संपादक अभी भी इस भ्रम में हैं कि वे जो लिखेंगे और कहेंगे उस पर जनता फौरन यकीन कर लेगी। अधिकांश नेताओं की भी यह उम्मीद बरकरार है कि उनकी काठ की हांडी हमेशा चढती रहेगी। वोटरों की भीड बेवकूफ बनती आयी है और बनती रहेगी। चौबीस घंटे रोजी-रोटी के चक्कर में उलझे रहने वाले गरीबों को तो अपने जाल में फंसाना कोई मुश्किल काम नहीं है। पैसा पानी की तरह बहाओ और हर चुनाव जीत जाओ। विरोधी हमारे खिलाफ कितना भी चीख-चिल्ला लें, लेकिन जब तक अखबार और न्यूज चैनल वाले साथ हैं तब तक हमारा बाल भी बांका नहीं हो सकता। नेताओं का अहंकार सभी सीमाएं पार करता चला जा रहा है।
एक समय ऐसा था जब चुनाव के समय विरोधियों के लिए सम्मानजनक भाषा का इस्तेमाल किया जाता था। एक-एक शब्द सोच-समझ कर बोला जाता था। अब तो तहजीब और शालीनता की हत्या करने में कोई संकोच नहीं किया जा रहा। छोटे ही नहीं, बडे नेता भी गाली-गलौच करना शान की बात समझते हैं। उनके मुंह से चोर, रावण, नाली का कीडा, नीच, कुत्ता, कमीना, यमराज, नपुंसक, बंदर और मौत का सौदागर जैसे एक-दूसरे को गुस्सा दिलाने और नीचा दिखाने वाले तेजाबी शब्द ऐसे निकलते हैं जैसे उन्होंने अपनी सारी शिक्षा-दीक्षा सडक छाप बदमाशों की पाठशालाओं से ग्रहण की हो। एक-दूसरे के मुंह पर थूकने और जूता मारने को उतारू रहने वाले ऐसे ही नेताओं की बहुत ब‹डी जमात विधायक और सांसद बनने में सफल होती चली आ रही है। कुछ प्रत्याशी मतदाताओं को रिझाने के लिए ऐसी-ऐसी ऊटपटांग हरकतें करने में भी नहीं सकुचाते जो उन्हें हंसी का पात्र बना देती हैं। मध्यप्रदेश के इन्दौर की सांवर सीट से भाजपा के उम्मीदवार ने तो चाटुकारिता की सारी हदें ही पार कर दीं। एक घर में जब वे वोट मांगने के लिए पहुंचे तो बरामदे में रखे जूठे बर्तनों को मांजने लगे। महिला उन्हें रोकती रही, लेकिन वे पूरे बर्तन धोने के बाद ही वहां से इस आश्वासन के साथ विदा हुए कि इस घर के सभी सदस्यों का वोट उन्हें ही मिलेगा। इसी तरह एक और तस्वीर शहर गुना में देखी गई जहां पर सपा प्रत्याशी जगदीश खटीम अपने जनसंपर्क के दौरान रास्ते में मिलने वाले हर राहगीर के पैर पक‹डने लगे। उन्होंने तब तक पैर नहीं छोडे जब तक सामने वाले ने वोट देने का प्रबल आश्वासन और जीत का आशीर्वाद नहीं दिया।
लगभग हर पार्टी जान-समझ चुकी है कि चुनाव के दौरान जारी किये जाने वाले उनके घोषणापत्र पर अब लोग कतई यकीन नहीं करते। वे अच्छी तरह से जान गये हैं कि पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा होते हैं। चुनाव जीतने के लिए किये जाने वाले दूसरे छल-प्रपंचों की तरह ही घोषणापत्रों के माध्यम से भी मतदाताओं की आंख में धूल झोंकी जाती है। अब एक नया खेल खेलते हुए जनता को सब्जबाग दिखाने वाले राजनीतिक दलों ने संकल्प पत्र और वचन पत्र जारी करने प्रारंभ कर दिये हैं। 'संकल्प' और 'वचन' ऐसे शब्द हैं जो बोलने और लिखने में ही खासे प्रभावी और वजनदार प्रतीत होते हैं। फिर भी इस नयी चाल को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव में जिन धाकड नेताओं को टिकट नहीं मिली उन्होंने अपनी असली औकात दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। कुछ नेता तो अपने समर्थकों के कंधों पर सिर रखकर बच्चों की तरह रोते-बिलखते नज़र आये। इनमें से कुछ महानुभावों ने अपने बडे नेताओं पर टिकट बेचने का आरोप भी मढ दिया। जब तक इन्हें पार्टी टिकट देती रही तब तक सब ठीक था। टिकट नहीं मिली तो पार्टी के वो सर्वेसर्वा भी बेईमान हो गए जिनके समक्ष यह नतमस्तक होते रहते थे। जैसे ही उन्हें दूसरी पार्टी की टिकट मिली तो अपनी उस वर्षों की साथी पार्टी की हजार बुराइयां भी गिनाने लगे जिसके प्रति अटूट निष्ठा का दावा करते नहीं थकते थे। दरअसल नेता हों या मालिक, पत्रकार, संपादक, अधिकांश व्यापारी और कारोबारी हो गये हैं। इनकी नज़र हमेशा कमायी पर लगी रहती है। इससे नुकसान तो देश और समाज को हो रहा है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है जिसका एकमात्र धर्म है निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ सच और सिर्फ सच का चेहरा दिखाना। आज आप कोई भी न्यूज चैनल खोलिए तो आपको हिंदू, मुसलमान और मंदिर-मस्जिद का शोर सुनायी देगा। कृषि, किसान, गांव, बेरोजगारी और लगातार बढती असमानता की खबरें तो न्यूज चैनलों और अखबारों से गायब हो गई हैं। ३२ से ४८ पेज के अखबार जिनका लागत मूल्य ही बीस से तीस रुपये होता है उन्हें पांच से सात रुपये में कैसे बेचा जा रहा है यह कोई बहुत बडे शोध का विषय नहीं है। मीडिया ही धन बटोरने का बहुत बडा माध्यम बन गया है। पत्रकारिता के नाम पर, पत्रकारिता की आड में बडी-बडी शैतानियां और लूटमारियां चल रही हैं। हैरतअंगेज डकैतियां हो रही हैं और इनमें शामिल हैं वो सत्ताधीश, नेता और मीडिया के दिग्गज जो सच्चे देशसेवक होने के साथ-साथ पूरी तरह से ईमानदार होने का दिन-रात ढोल पीटते हुए सभी देशवासियों को पूरी तरह से अंधा और बहरा बनाने के ख्वाब देख रहे हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है और ना ही, कभी हो पायेगा...।

Thursday, November 15, 2018

यह कैसी नृशंसता और आक्रामकता?

दीपावली का दिन था। उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में कुछ बच्चे अपने घर के बाहर खेल-कूद रहे थे। हर उत्सव पर बच्चों को मिठाई की चाह रहती है। फिर दिवाली तो मिठाइयों, दीपों, पटाखों तथा अपने और बेगानों में आदर, स्नेह की वर्षा करने का त्योहार है। वैसे बडों का भी मिठाई के प्रति लगाव और खिंचाव जगजाहिर है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय परंपरागत मिठाइयों को तरह-तरह की चाकलेटों ने मात दे दी है। अधिकांश बच्चों को चाकलेट बहुत भाती हैं। मोहल्ले में बच्चे खेलने में मस्त थे। तभी एक अधेड वहां पहुंचा। उसने एक बच्ची को अपने पास बुलाकर कहा कि यह बहुत बढ़िया चाकलेट है इसे खाने में तुम्हें बहुत मज़ा आयेगा। बच्ची खुशी के मारे झूमने लगी। वैसे भी हमारे यहां के मासूम बच्चे बडों पर फौरन यकीन कर लेते हैं। मात्र तीन वर्ष की बच्ची कुछ समझ पाती इससे पहले ही उस शख्स ने चाकलेट के नाम पर बच्ची के मुंह में जलता हुआ सुतली बम रख दिया। बम को तो फटना ही था। बम के फटते ही बच्ची के मुंह के चिथडे उड गए। खून के फव्वारे छूटने लगे। बच्ची के रोने की आवाज जैसे ही मां के कानों तक पहुंची तो वह घर से बाहर आई। उसकी बच्ची लहू से सनी सडक पर तडप रही थी। बच्ची के साथ खेल रहे बच्चों ने मां को सारी बात बताई। मां ने किसी तरह से खुद को संभाला और पडोसियों की मदद से घायल बच्ची को अस्पताल ले गई। बच्ची के क्षत-विक्षत मुंह और उसकी तडपन को देखकर डॉक्टर भी हिल गए। एक डॉक्टर को तो रुलाई आने लगी। डॉक्टर फौरन उसके इलाज में लग गए। मुंह के साथ-साथ बच्ची की जीभ पूरी तरह से फट चुकी थी। पटाखे के विषैले कण भी शरीर में प्रवेश कर गये थे। डॉक्टरों को उसके इलाज के लिए काफी परिश्रम करना पडा। मुंह पर पचास टांके लगाये गए। टांके लगाते समय बच्ची की दर्द के मारे रोने और कराहने की आवाज पूरे अस्पताल में गूंज रही थी और मां बेहोश हो चुकी थी।
एक जमाना था जब बडों की सलाह और नसीहत को सुनकर उस पर अमल करने में संकोच नहीं किया जाता था, लेकिन अब हालात बदल गये हैं। अधिकांश लोग अपनी मनमानी करना चाहते हैं। उन्हें किसी की सलाह और सुझाव शूल और थप्पड से लगते हैं। अमृतसर से टाटानगर जा रही जलियांवाला बाग एक्सप्रेस ट्रेन में एक उम्रदराज सजग महिला ने ट्रेन में सिगरेट पी रहे तीन युवकों को टोका तो वे महिला से ही हिंसक जानवरों की तरह भिड गये। अपनी मां के साथ बदतमीजी से पेश आने वाले युवकों को बेटे ने जब समझाने की कोशिश की तो युवकों ने बेटे और बहू की लात-घूसों से पिटायी कर दी। बेटे के हस्तक्षेप करने के कारण युवक इतने अधिक उग्र हो गये और उसकी मां की फिर से इस तरह से पिटायी करने लगे जैसे उससे उनकी पुश्तैनी दुश्मनी हो। महिला को बचाने के लिए कोई भी यात्री सामने नहीं आया। सभी भय के मारे दुबक कर बैठे रहे। मारपीट करने वाले दो युवक चेनपुलिंग करके रास्ते में उतरकर भाग गए, जबकि एक को पकड कर पुलिस के हवाले कर दिया गया। लहुलूहान महिला को अस्पताल पहुंचाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। यह महिला ट्रेन के जनरल कोच में बैठकर अपने बहू-बेटे के साथ छठ-पूजा का त्योहार मनाने के लिए बिहार में स्थित अपने गांव जा रही थी, लेकिन दुष्टों ने तो रास्ते में ही उसकी जान ले ली। समझ में नहीं आता कि कुछ लोग इतने निर्मम और हिंसक क्यों हो जाते हैं। उन्हें न अपनी और न ही दूसरों की मान-मर्यादा का ख्याल रहता है।
नागपुर शहर के एक नामी क्लब में दिवाली मिलन के कार्यक्रम में एक व्यापारी को बीच-बचाव करना बहुत महंगा पड गया। व्यापारी अपने परिवार के साथ बनठन तन कर क्लब के द्वारा आयोजित कार्यक्रम मैं यह सोचकर पहुंचा था कि आज पुराने मित्रों से मुलाकात होगी। एक दूसरे के गले मिलेंगे। हालचाल जानेंगे और दिल खोलकर मौज-मज़ा करेंगे। नगरों-महानगरों में क्लब का मेम्बर बनने का मकसद ही यही होता है कि शहर के नामी-गिरामी प्रतिष्ठित लोगों से मेलजोल बढे और ऐसा गोपनीय, सुरक्षित और आत्मीय माहौल मिले जो अन्यत्र दुर्लभ होता है। क्लबों में आम होटलों, बीयर बारों और मनोरंजन स्थलों की तरह आम लोगों का आना-जाना नहीं होता। इसलिए उच्च अधिकारी, वकील, जज, उद्योगपति, मंत्री, विधायक, मीडिया के दिग्गज तथा तरह-तरह के बडे कारोबारी मोटी फीस देकर क्लब के मेंबर बनते हैं।
उस रात भी मेल-मुलाकात के कार्यक्रम में शहर की कई नामी-गिरामी हस्तियां मौजूद थीं। इसी दौरान व्यापारी लघुशंका के लिए बाथरूम गया तो वहां पर उसने देखा कि एक युवक को कुछ लोग बुरी तरह से पीट रहे हैं, जिससे उसके सिर से बेतहाशा खून बह रहा है। व्यापारी ने उन्हें युवक की पिटायी करने से रोका-टोका तो उन्होंने उसी पर बीयर की बोतलों और कांच के गिलासों की बरसात कर लहुलूहान कर दिया। गंभीर रूप से घायल व्यापारी को अस्पताल ले जाया गया, जहां पर उसके सिर और चेहरे पर तीस टांके लगाकर बडी मुश्किल से उसकी जान बचायी जा सकी। सच तो यही है कि भागा-दौडी के इस दौर में लोगों की सहन शक्ति खोती चली जा रही है और आक्रामक प्रवृत्ति बढती चली जा रही है। खुद को ही सही मानने वाले लोग दूसरों की सुनना ही नहीं चाहते। अधैर्य और गुस्सा उन्हें अनियंत्रित करने में किंचित भी देरी नहीं लगाता। बच्चे भी बडी तेजी से इस आदत और रोग के शिकार हो रहे हैं। बीते वर्ष महाराष्ट्र के यवतमाल शहर में एक स्कूली छात्र ने अपने ही सहपाठी की पत्थर से कुचलकर हत्या कर दी थी। छोटी उम्र में किये गए हत्या जैसे इस बडे अपराध के पीछे सिर्फ यही वजह थी कि उसके द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया छात्र उसे अक्सर चिढाता था...।

Friday, November 9, 2018

ऐसा ही है...

कल एक युवा लेखक की मौत हो गई। उसके मित्र तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने में लीन हो गए। इन मित्रों में कुछ कहानीकार थे, कुछ कवि थे तो कुछ व्यंग्यकार। चंद पत्रकार भी शामिल थे। उसके अति शुभचिन्तकों, कवि मित्रों को उसके असमय जाने का अत्यंत दु:ख था। अभी तो उसने साहित्य के आकाश पर चमकना शुरू किया ही था। व्यंग्यकार और पत्रकार मित्र भी शोकाकुल थे, लेकिन वे खुद को यह कहने और बताने से रोक नहीं पा रहे थे कि वह हद दर्जे का शराबी था। अगर उसने पीने पर नियंत्रण रखा होता तो ऐसे अचानक परलोक नहीं सिधारता। कुछ बुद्धिजीवियों की राय थी कि उसका समय पूरा हो गया था। ऊपर वाले के आगे किसी की नहीं चलती। देश के कई साहित्यकार मय के दिवाने रहे हैं। गोपालदास 'नीरज', सआदत हसन मंटो, हरिशंकर परसाई, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, रविंद्र कालिया, खुशवंत सिंह आदि ने शराब के प्यालों में डूब कर ही प्रभावशाली साहित्य की रचना की है। इनमें मंटो को छोडकर कुछ ने बहुत अच्छी तो कुछ ने ठीक-ठाक उम्र पायी। खुशवंत सिंह तो प्रतिदिन अपने तय समय पर मयखोरी करने के बावजूद निनायनवें साल तक जिन्दा रहकर अपने अंदाज से लेखन के साथ-साथ मौज मस्ती करते रहे।
अपने यहां आधुनिक तथा खुले विचारों के हिमायती होने के जितने दावे किये जाते हैं उन सब में पूरी की पूरी सत्यता नहीं होती। भारतवर्ष में आज भी महिलाओं को खुले अंदाज में चलता-फिरता देखकर पुरुषों की बहुत ब‹डी जमात भौचक्क रह जाती है। तरह-तरह के बोल और कटाक्ष किये जाते हैं। मर्द कहीं भी कुछ भी पीने और करने को स्वतंत्र हैं, लेकिन स्त्री के लिए अथाह बंदिशों की वकालत करने वाले सीना ताने खडे नजर आते हैं। उनका मानना है मौज-मस्ती के सभी साधन पुरुषों के लिए बने हैं। महिलाओं के लिए तो इनकी कल्पना करना भी वर्जित है। कुछ दिन पूर्व गोवा में छुट्टियां मनाने गई एक युवा फिल्म अभिनेत्री ने अपनी कुछ तस्वीरें इंस्टा अकाउंट पर शेयर कीं। इन तस्वीरों में एक तो उसने बिकिनी पहन रखी थी, दूसरे उसके हाथ में शराब का गिलास शोभायमान था। शराब के साथ सिगरेट पीती अभिनेत्री की तस्वीरों पर लोगों ने गालियों की बौछार के साथ आपत्ति जताते हुए उसे एक बुरी घटिया नारी घोषित कर दिया। आजाद ख्याल अभिनेत्री ने विभिन्न प्रतिक्रियाओं के जवाब में लिखा : हां मैं शराब पीती हूं और स्मोक भी करती हूं। पर आप यह भी जान लें कि छुपाने में नहीं, खुलकर सामने आने में विश्वास रखती हूं। मैं कैसी नारी हूं इसका आकलन करने का हक किसी को भी नहीं है। शराब और सिगरेट पीने वाली औरत को आप एक बुरी औरत कैसे कह सकते हैं? मुझे ऐसा कतई नहीं लगता कि मैं इन नशों के चक्कर में अपनी जिन्दगी बर्बाद कर रही हूं। मैं कोई बेरोजगार नहीं हूं। मेरे पास करने को बहुत कुछ है। मैं एक ऐसी सफल एक्ट्रेस और डांसर हूं जो देश की बहुत बडी मायानगरी मुंबई में अपने दमखम पर रहती है।
यह हकीकत किसी से छिपी नहीं है कि संभ्रांत समाज में लडकियां और महिलाएं खुलकर शराब पीती हैं। ड्रग्स भी लेती हैं। नामी क्लबों और बडी पार्टियों में पढी-लिखी और अच्छे परिवारों की नारियां शराब, वाइन, शैम्पेन पीकर बहकती नज़र आती हैं। यह उनके लिए फैशन है। आधुनिकता की निशानी है। एक सर्वे बताता है कि भारतवर्ष में पुरुषों के हमलों का शिकार होने वाली एक तिहाई तथाकथित आधुनिक महिलाएं नशे में होने के कारण विरोध कर पाने में असमर्थ होती हैं। विभिन्न अध्ययनों में यह भी पाया गया कि दो में से एक यौन हमला उन पुरुषों के द्वारा किया गया जो शराब के नशे में थे।
यह सच भी चौंकाने वाला है कि शराब के खिलाफ हुए अधिकांश आंदोलनों में ग्रामीण महिलाओं ने ही सक्रियता दिखायी है। बिहार जहां पर नीतीश कुमार ने सरकार बनाने के बाद फौरन बाद शराब बंदी की घोषणा की थी उसका वास्तविक श्रेय महिलाओं को ही जाता है। दरअसल, समाज में शराब की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं को ही उठाना पडता है। शराबी पति के कारण उन्हें आर्थिक समस्याओं के साथ-साथ घरेलू हिंसा का शिकार होना पडता है। जहरीली और नकली शराब की वजह से होने वाली मौतों का भयावह असर अंतत: महिलाओं को ही झेलना पडता है। पिछले महीने ओडिशा के झारसुगडा जिला मुख्यालय से ११ किलोमीटर दूर श्रीपुरा गांव में महिलाओं ने कई हफ्तों तक शराब भट्टी के समक्ष तंबू गाड कर अपने विरोध का प्रदर्शन किया। इस गांव में पुरुष तो शराब का नशा करते ही थे, बच्चों को भी इसका आकर्षण अपनी ओर खींचने लगा था। कुछ बच्चे भी चोरी-छिपे शराब भट्टी तक पहुंचने लगे थे। ओडिशा के अलग-अलग जिलों में इससे पहले भी शराब बंदी के लिए कुछ आंदोलन हो चुके हैं, लेकिन इस आंदोलन ने शराब भट्टी मालिकों की नींद उडा दी। यह नशीला धंधा हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाए इसके लिए महिलाएं चौबीस घंटे भट्टी की निगरानी करती थीं। प्रशासन की नींद उडाकर रख देने वाले इस आंदोलन में महिलाओं की एकता देखते ही बनती थी। अपने घरेलू कामकाज से निवृत्त होकर वे बारी-बारी से आंदोलन स्थल पर आकर बैठ जातीं और शराब के खिलाफ नारेबाजी करती रहतीं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए गांव के कुछ युवक तंबू के आसपास मौजूद रहते।
खुद को नशे के हवाले करने के लिए जान गवां देने वालों के बारे में क्या कहा जाए? दिल्ली के नांगलोई रेलवे स्टेशन के पास रेलवे ट्रैक पर बैठकर शराब पी रहे तीन लोगों की ट्रेन की चपेट में आने से मौत हो गई। जब यह शराबी ट्रैक पर बैठकर शराब पी रहे थे तब लोको पायलट ने उन्हें ट्रैक से हटने को कहा था, लेकिन इसके बावजूद वे वहां डटे रहे और जाम से जाम टकराते रहे। धीरे-धीरे उन्होंने इतनी अधिक चढा ली कि नशे ने उनको पूरी तरह से बेसुध कर दिया। इसी दौरान दिल्ली-बीकानेर एक्सप्रेस ट्रेन आई और उन्हें कुचलते हुए निकल गई। नशे में ट्रेन की चपेट में आने वाले यह तीनों पियक्कड रेलवे लाइन के किनारे बनी झुग्गियों में रहते थे। देश की राजधानी सहित लगभग पूरे देश में रेलवे लाइनों के किनारे झुग्गियां बनी हुई हैं जहां पर तमाम असुविधाओं के बावजूद हजारों लोग रहते हैं। इनमें से कुछ मजबूर और बेबस हैं और कई आदतन अपराधी हैं। पुलिस जांच में यह सच उजागर हो चुका है कि इन झुग्गियों में तरह-तरह के अपराध और अपराधी जन्मते और पलते-बढते हैं। झुग्गियों में रहने वाले बदमाश रेलगाडियों में चोरी, लूटपाट और झपटमारी को आसानी से अंजाम देकर झुग्गियों की संकरी गलियों में गायब हो जाते हैं। रेलवे प्रशासन की आंखें कभी भी नहीं खुल पातीं।

Thursday, November 1, 2018

कुछ मैं लडूँ, कुछ तुम लडो

जो अच्छी तरह से जानते हैं कि दिवाली पर बेतहाशा पटाखों का चलाना पर्यावरण के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी बेहद हानिकारक है, वे भी दिवाली की रात अंधाधुंध पटाखे जलाने से बाज नहीं आते। पटाखे फोडने में धनवानों की तो जैसे रात भर प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। कितने लोगों के हाथ-पांव जल जाते हैं, आंखों की रोशनी चली जाती है इसकी भी खबरें अखबारों और न्यूज चैनलों पर आती हैं, लेकिन फिर भी फटाकेबाजों की आंखें नहीं खुलतीं। इसी जहरीले सच से अवगत होने के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने दिवाली पर केवल रात आठ बजे से दस बजे के बीच पटाखे जलाने की अनुमति दी है। दीपावली को दीपों के बजाय सिर्फ और सिर्फ आतिशबाजी का उत्सव मानने वाले कई लोगों को अदालत का यह निर्णय कतई नहीं सुहाया। सोशल मीडिया पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आयीं। कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय भी हिंदुओं के त्योहारों पर टेढी नज़र रखते हुए भेदभाव की नीति अपनाता है।
यह लगातार देखा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर ऐसे कटुता प्रेमी छाते चले जा रहे हैं, जिनका एकमात्र मकसद किसी को लांछित करना, भ्रम फैलाना, अपनी भडास निकालना, विवाद खडे करना और अपशब्दों की बरसात करना ही है। उन्हें अब यह कौन बताये और समझाये कि सर्वोच्च न्यायालय धर्म का चश्मा लगाकर अपने निर्णय नहीं सुनाता। उसे हर भारतवासी की फिक्र रहती है। उसे मतलबी नेताओं के समकक्ष खडा करना अनुचित है जो जात-धर्म की राजनीति करते चले आ रहे हैं। विभिन्न डॉक्टर लोगों को सचेत करते रहे हैं कि पटाखे जलाने पर जो कार्बन मोनोक्साइड और कार्बन डायऑक्साइड गैस पैदा होती है वह सांस के साथ हमारे रक्त में चली जाती है। रक्त में घुलकर यह शरीर के विभिन्न हिस्सों को भारी क्षति पहुंचाती है। इसके अलावा जब पटाखे जलते हैं तो उनकी चिंगारियां आकाश की ओर जाती हैं, इससे पेडों पर रह रहे और आकाश में उड रहे पक्षी घायल हो जाते हैं। पटाखों में ऐसे-ऐसे रसायन होते है जो किडनी और लीवर को नुकसान पहुंचाते हैं। नर्वस सिस्टम पर असर डालने के साथ-साथ आंखों में जलन पैदा करते हैं। पटाखों में पाया जाने वाला क्रोमियम नामक रसायन त्वचा को तो हानि पहुंचाता ही है, फेफडों के कैंसर का कारक भी बन सकता है। और भी कई तकलीफों के जन्मदाता पटाखों पर आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर विरोध जताने वालों की सोच पर तरस के साथ-साथ गुस्सा भी आता है।
अपने यहां इंसानी जिंदगी का कोई मोल नहीं है। धन के लोभी सिर्फ और सिर्फ अपने हित की ही सोचते हैं। पर्यावरण के दूषित होने से कितने-कितने इंसानों और प्राणियों को असमय परलोक सिधारना पडता है इसकी चिन्ता वे कभी भी नहीं करते। देश में हर जगह खनन माफिया पर्यावरण को चौपट करते हुए लूटपाट मचाये हैं। यह कितनी चौंकाने वाली सच्चाई है कि राजस्थान में अरावली पर्वत माला की ३४ पहाडियों को उखाडकर गायब कर दिया गया। धन के लालची बेखौफ होकर पहाडों, तालाबों और पेडों को गायब कर पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचा रहे हैं और हम और आप कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। शासन और प्रशासन ने तो जैसे अंधे बने रहने की कसम खा ली है। यह भी सच है कि इस लूटकर्म में शासकों के करीबी नेता और उनके साथी शामिल हैं। उत्सवों को मनाने में बरती जाने वाली लापरवाही कितनी मर्मांतक त्रासदी में तब्दील हो सकती है इसका भयावह मंजर १९ अक्टूबर, दशहरे की शाम अमृतसर के धोबीघाट पर देखने में आया। इस घटना ने जहां नेताओं की संवेदनहीनता उजागर की वहीं प्रशासन का बिकाऊ और अंधा चेहरा भी दिखा दिया। यह जानते-समझते हुए भी कि यह रेलपथ है फिर भी हजारों की संख्या में लोग वहां पर खडे होकर रावण दहन देख रहे थे। पटाखों के शोर के अलावा कुछ भी सुनायी नहीं दे रहा था। महज पांच सेकंड में एक १०० किमी की रफ्तार से दौडती ट्रेन लोगों को कुचलते हुए निकल गई। सैकडों लोग बुरी तरह से घायल हुए और बासठ लोगों की मौत हो गई। जिन लोगों ने यह खौफनाक मंजर देखा उनकी तो रातों की नींद ही उड गई। खाने-पीने की इच्छा मर गई। रेलवे फाटक से लगी खाली पडी जमीन पर रावण दहन का यह खूनी कार्यक्रम कांग्रेसी पार्षद के पुत्र ने करवाया था। अधिक से अधिक भीड जुटाने के लिए उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। इस हृदयविदारक घटना के बाद वह कराहते मौत से जूझते लोगों की सहायता करने की बजाय भाग खडा हुआ। पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी इस आयोजन में मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित थीं, लेकिन जैसे ही यह हादसा हुआ तो वे फौरन मंच से उतर कर फुर्र हो गर्इं। मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने इस दर्दनाक दुर्घटना को कुदरत का कहर बता कर इस हकीकत पर मुहर लगा दी कि नेताओं की कौम स्वार्थी भी होती है और निष्ठुर भी।
देश के लगभग हर प्रदेश में माफियाओं की समानांतर सत्ता चल रही है। रेत माफियाओं, शराब माफियाओं, कोल माफियाओं के साथ अन्य तमाम माफियाओं को बडे-बडे राजनीतिज्ञों का साथ और आशीर्वाद सर्वविदित है। देश का सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर सरकारों से जवाब-तलब करने के साथ-साथ समस्त देशवासियों को भी जागरूक करने में लगा रहता है। सरकारें कैसे अपना दायित्व निभा रही हैं, इसकी हम सबको पूरी खबर है। अधिकांश भारतवासी कौन से रास्ते पर चल रहे हैं इस पर भी तो चिंतन होना चाहिए। जब देखो तब भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर मचाया जाता है तो फिर सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार का खात्मा क्यों नहीं हो पा रहा है? इंडियन करप्शन सर्वे २०१८ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक साल में हमारे देश में रिश्वत देने के प्रचलन में बढोतरी हुई है। लोग खुद ही घूस देने को लालायित रहते हैं ताकि उनका काम हो जाए। सोचिए... ऐसे में देश की तस्वीर कैसे बदलेगी? दरअसल हम खुद को बदलने को तैयार ही नहीं हैं। दूसरों से ही तमाम उम्मीदें लगाये रहते हैं। लोगों की सोच पर कटाक्ष और सवाल दागती बालकवि बैरागी की लिखी यह पंक्तियां पढें और चिंतन-मनन करें:
आज मैंने सूर्य से बस जरा सा यूं कहा,
"आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यूं रहा?"
तमतमा कर वह दहाडा - "मैं अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पडो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लडूँ, कुछ तुम लडो।"
'राष्ट्र पत्रिका' के तमाम सजग पाठकों, संवाददाताओं, एजेंट बंधुओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं, संपादकीय सहयोगियों और शुभचिंतकों को दीपावली की अनंत शुभकामनाएं... बधाई।

Wednesday, October 31, 2018

चिन्तन को विवश करते तीन चित्र

अहमदाबाद में रहने वाले पच्चीस वर्ष की उम्र के निशांत पटेल को श्री कृष्ण के प्रेरक चरित्र ने इस कदर अपने मोहपाश में बांधा कि उसने सदा-सदा के लिए कृष्णभक्त हो जाने का निर्णय ले लिया। शुरू-शुरू में उसके इस्कॉन मंदिर जाने के सिलसिले से उसके माता-पिता काफी प्रसन्न थे। उन्हें यह देखकर अच्छा लगता था कि उनके बेटे ने अच्छी राह पकडी है। वह नियमित मंदिर जाता है और कृष्ण भक्ति में लीन रहता है। आज के जमाने में जहां अधिकांश दूसरे लडके गलत शौक और ऊटपटांग संगत के चलते अपने भविष्य को दांव पर लगा देते हैं, वहीं उनका बच्चा सद्गुणों का भंडार है। सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन बेटे ने यह कहकर माता-पिता के पैरों तले की जमीन खिसका दी कि अब उसने हमेशा-हमेशा के लिए इस्कान मंदिर में प्रभु अर्चना में लीन रहने और जनसेवा का निर्णय ले लिया है। अब उसका अपने परिवार से कोई नाता नहीं रहेगा। रात भर माता-पिता उसे समझाते रहे। उसे उसके दायित्व और कर्तव्य की याद दिलायी गई, लेकिन वह नहीं पसीजा। सुबह होते ही युवक ने घर त्याग दिया। माता-पिता का तो चैन ही लुट गया। जिस बेटे को उन्होंने अपने खून पसीने की कमायी खर्च कर इंजीनियर बनाया था, वही बुढापे का सहारा बनने की बजाय दगा दे गया था। करीबी रिश्तेदारों, शुभचिन्तकों ने उन्हें यह कहकर तसल्ली दी कि कुछ दिनों के बाद जब उसे अपनी इकलौती बहन और आपकी याद सतायेगी तो वह खुद-ब-खुद घर दौडा चला आएगा। तीन साल बीतने के बाद भी जब जवान बेटे ने बूढे मां-बाप और शादी के योग्य हो चुकी बहन की सुध नहीं ली तो वे अपने करीबियों को साथ लेकर इस्कॉन मंदिर जा पहुंचे। वहां पर उन्होंने मंदिर के कर्ताधर्ताओं पर अपने बेटे को गुमराह करने का आरोप लगाकर खूब हंगामा मचाया। बेटा गहरी चुप्पी साधे रहा। एकाध बार उसने यह जरूर कहा कि उसने अपनी मर्जी से इस्कॉन मंदिर की शरण ली है। बेटे के अडिग रवैये को देखकर सभी की समझ में आ गया कि इस समस्या का आसानी से समाधान नहीं होगा। अंतत: वे यह सोचकर थाने जा पहुंचे कि पुलिस वालों की सलाह और धमकी-चमकी का संन्यासी बेटे पर जरूर असर पडेगा। युवक को भी थाने में बुलवाया गया। वहां पर भी सभी ने उसे उस दौर की याद दिलाने की कोशिश की जब वह बच्चा था और माता-पिता उस पर स्नेह की बरसात करते नहीं थकते थे। उन्होंने अपनी हैसियत से ज्यादा उसे सुख-सुविधाएं उपलब्ध करवायीं। उम्दा कॉलेज में दाखिला दिलवाकर इंजीनियर बनाया। आज जब उनका ध्यान रखने, उनके सपने पूरे करने की उसकी जिम्मेदारी है तो वह भाग खडा हुआ है। अच्छी संतानें ऐसा कभी नहीं करतीं। वो तो माता-पिता की सेवा को ही अपना धर्म मानती हैं। माता-पिता और बहन की अनदेखी कर उसे कभी भी सुख-चैन नहीं मिल पायेगा। माता-पिता और बहन की फरियाद और सिसकियां पुलिस वालों की आंखों को नम करती रहीं, लेकिन वह पत्थर की मूर्ति बना रहा। अन्तत: पुलिस अधिकारियों ने यह कहकर अपना पल्ला झाड लिया कि वे इस मामले में कुछ नहीं कर सकते। उनका बेटा कोई नादान बच्चा नहीं है, जिसे जबरन घर में कैद कर दिया जाए। हर बालिग की तरह उसे भी अपनी मनमर्जी का निर्णय लेने और कहीं भी रहने का कानूनी अधिकार है। माता-पिता फिर भी नहीं माने। उनका रोना-गाना चलता रहा। इस बीच युवक ने खडे होकर उन्हें प्रणाम किया और मंदिर चला गया।
सूरत के करोडपति परिवार में जन्मे भाई-बहन ने सांसारिक मोह-माया और तमाम भौतिक सुखों को त्यागने का निर्णय ले लिया है। ९ दिसंबर को सूरत में आयोजित होने वाले दीक्षा समारोह में बीस वर्षीय यश साधु तो उनकी बाईस वर्षीय बहन आयुषी संन्यासिन बन जाएंगी। उनके पिता का अच्छा खासा कपडे का व्यापार है। करोडों की संपत्ति है। घर में नौकर-चाकर हैं, कई कारें हैं। यश पढाई पूरी करने के पश्चात अपने पिता के कपडे के व्यवसाय से जुड तो गये, लेकिन कुछ ही महीनों के बाद उन्हें लगा कि वे इस काम के लिए नहीं बने हैं। प्रभु ने उन्हें कुछ और ही करने के लिए इस धरती पर भेजा है। माता-पिता भी समझ गए कि बेटा अशांत रहता है। काम-धंधे में उसका बिलकुल मन नहीं लगता। आयुषी को तो वर्षों पहले ही मां ने संन्यास लेने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था। वे अक्सर कहतीं कि वे बेटी की शादी करने के बजाय उसे माता के रूप में देखना चाहती हैं। बहन आयुषी ने जब भाई को बेहद उदास पाया तो उसने उसे संन्यास लेने की सलाह दे डाली। भाई तो जैसे इसी मौके की राह देख रहा था। आलीशान हवेलीनुमा घर में रहने और कारों की सवारी करने वाले दोनों भाई-बहन अब पैदल चलेंगे। उनके बदन पर महंगे कपडों की बजाय एकदम साधारण सफेद सूती कपडे होंगे। पूरी तरह से सात्विक भोजन करना होगा। दोनों को बडी बेसब्री से ९ दिसंबर का इंतजार है।
एक लोकप्रिय धारावाहिक में भगवान श्रीकृष्ण का किरदार निभाकर लोकप्रियता के शिखर को छूने वाले अभिनेता सौरभ जैन इन दिनों अपनी छवि को लेकर खासे परेशान हैं। उन्हें जहां-तहां ज्ञानवान होने का दिखावा करना पडता है। हर जगह भीड उनसे प्रवचन सुनने को लालायित रहती है। लोग उन्हें सचमुच का भगवान मानते हैं। उनसे जिस तरह के व्यवहार और हावभाव की अपेक्षा की जाती है उसमें खरा उतर पाना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है। उनकी तमन्ना है कि लोग उन्हें भगवान नहीं, आम इंसान समझें। भीड की आशाओं पर खरा उतरने के लिए उन्हें हमेशा चेहरे पर जबरन मुस्कान का नकाब लगाये रखना पडता है। 'महाकाली : अंत ही आरंभ है' में भगवान शिव की भूमिका निभा चुके सौरभ इन दिनों धारावाहिक 'पोरस' में खलनायक की भूमिका निभा रहे हैं। उनकी खुशी देखते ही बनती है। अब वो दिन दूर नहीं, जब वे आजाद पंछी की तरह उड सकेंगे। खलनायक का किरदार उन्हें बनावटी जीवन से मुक्ति दिलायेगा।

Wednesday, October 17, 2018

एकता और भाईचारे के हत्यारे

हम भारतवासी क्या चाहते हैं? ऐसे-वैसे यह जो मंजर हमारे सामने हैं क्या इन्हीं की चाहत थी हमें? रोना तो इस बात का है कि देशवासियो के मन की बात न तो नेता जानना चाहते हैं और न ही शासक। उन्हीं की मनमानी चल रही है। अपनी ही बात थोपने में उन्हें तसल्ली होती है। सुकून मिलता है। क्या सत्ताधीशों की निगाह से इस तरह की शर्मनाक भयावह खबरें नहीं गुजरती हैं, "गुजरात में उत्तर भारतीयों के खिलाफ भडके विरोध ने हिंसक रूप ले लिया है। कंपनी से घर लौट रहे बिहार के एक युवक की कुछ लोगों ने पीटकर हत्या कर दी। वारदात के बाद से उत्तर भारतीयों में जबर्दस्त दहशत का माहौल है। ज्ञातव्य है कि बिहार के गया जिले का रहने वाला अमरजीत रोजाना की तरह पंडेश्वरा इलाके में स्थित मिल की शिफ्ट खत्म कर घर लौट रहा था। इसी दौरान भीड ने उसे घेर कर लाठी-रॉड, लात-घूसों से हिंसक जानवरों की तरह तब तक मारा-पीटा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। मृतक बीते पंद्रह वर्षों से अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था। ध्यान रहे कि मृतक के पिता एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं। यह कैसी विडंबना है कि भारतवर्ष में ही भारतवासी पिटते रहते हैं उनकी निर्मम हत्याएं होती रहती हैं और सत्ताधीश मौन रहते हैं। स्वार्थी नेता जनता की भावनाओं को भडकाते रहते हैं। देश का संविधान कहता है देश का नागरिक कहीं भी जाने और कमाने-खाने के लिए स्वतंत्र है। फिर भी कभी मुंबई तो कभी आसाम तो कभी और कहीं भारतवासी पिटते और मिटते चले आ रहे हैं? पीटने और हत्याएं करने वाले उनका दोष तो बताएं? ऐसा लगता है कि कुछ नेता और अराजकतत्व खून-खराबा करने के अवसरों की राह ताकते रहते हैं। ३१ अक्टूबर १९८४ के दिन भारतवर्ष की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो निजी सिक्ख सुरक्षा गार्डों ने बडे ही वहशियाना तरीके से गोलियां बरसाकर हत्या कर दी। सभी भारतवासी उदासी के सागर में डूब गए, लेकिन शाम होते-होते देश की राजधानी में हजारों सिक्ख परिवारों पर बेकाबू भीड का तांडव टूट पडा। कई सिक्खों को जिन्दा जला दिया गया। कितनों के घर और उनकी तमाम सम्पत्ति फूंक दी गयी। यह आग देखते ही देखते पूरे देश में फैल गई थी। यह सब हुआ था कुछ स्वार्थी नेताओं के भडकाने और सुरक्षा व्यवस्था के बेहद कमजोर होने के कारण। कुछ कांग्रेसी नेताओं की सिक्ख दंगों में स्पष्ट भागीदारी दिखायी दी थी। अपने शीर्ष नेताओं और पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने के इस तरीके की बाद में तो जैसे परंपरा ही चल पडी।
एक १४ महीने की बच्ची से रेप के मामले में बिहार के एक युवक को पकडा गया तो सारे के सारे बिहारियों को बलात्कार का दोषी मानकर उन पर जुल्म ढाने का सिलसिला चला दिया गया! गुजरात में करीब १ करोड औद्योगिक श्रमिक हैं और इनमें से ७० प्रतिशत गैर गुजराती हैं। इन गैर गुजरातियों में ज्यादातर हिन्दी भाषी राज्य बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के ही रहने वाले हैं। यह श्रमिक वर्षों से गुजरात में कार्यरत रहकर प्रदेश के विकास में अपना योगदान देते चले आ रहे हैं। गुजरात का सूरत कपडे और हीरे के लिए जाना जाता है। अहमदाबाद में भी कपडे की बहुत बडी मंडी है। ऐन दशहरा, दीपावली से पहले गुजरात बनाम बाहरी के इस जलजले से जहां उत्पादन घटा वहीं उत्तर भारतीयों पर हुए हमलों के कारण गुजरात की छवि पर भी आघात पहुंचा है। अरबों-खरबों का जो नुकसान है उससे भी व्यापारी और उद्योगपतियों के चेहरे उतर गए हैं। हजारों श्रमिकों को भुखमरी और पलायन की पीडा झेलनी पडी। इस सारे खेल के पीछे नेताओं का हाथ देखा गया। यह वो नेता हैं जिन्हें इंसानी जिंदगियों से ज्यादा सत्ता प्यारी है। आग लगाकर हाथ सेंकने वाले ऐसे नेताओं का चेहरा हर दंगे के पीछे छिपा होता है। २७ फरवरी २००२ को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती ट्रेन के एस-६ कोच में अराजक भीड के द्वारा आग लगाए जाने से ५९ कार सेवकों की मौत हो गई थी। इसके परिणामस्वरूप पूरे गुजरात में जो साम्प्रदायिक दंगे हुए उन्हें तो कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इन दंगों के सोलह साल बाद भी पीडितों के जख्म भर नहीं पाये हैं। गुजरात में बीते वर्ष पटेलों को आरक्षण देने की मांग को लेकर जो आंदोलन हुआ उसमें करोडों की सरकारी संपत्ति को आग के हवाले कर दिया गया। कुछ लोगों को अपने प्राण भी गंवाने पडे। इस हिंसक आंदोलन ने हार्दिक पटेल को राजनीति में स्थापित कर दिया। २०१६ में हरियाणा में हुए जाट आरक्षण को लेकर हुई हिंसा भी संपूर्ण देशवासियों को हिला गयी। हफ्तों तक प्रदेश के कई जिलों में तनाव बना रहा। जाटों ने गैर जाटों के वर्षों की मेहनत से खडे किये व्यापार, दुकानों, मॉल्स, घरों को बडी बेदर्दी से जला डाला। इस आग ने आपसी संबंधों और भाईचारे को भी राख में तब्दील कर दिया। हरियाणा के विभिन्न शहरों में बेखौफ हुई लूट, तोडफोड और आगजनी कहने को तो भीड ने की, लेकिन इसके असली खलनायक नेता ही थे जिनसे प्रदेश की सत्ता छिन गई थी।
कोई भी अनशन, मांग और आंदोलन शांतिपूर्वक होना चाहिए, लेकिन अपने देश में ऐसा कम ही होता है। नेताओं की बिरादरी भीड को उकसाती है और बेकसूरों पर हमले शुरू हो जाते हैं। लूटमारी करने के लिए अराजक तत्व भी उस भीड में शामिल हो जाते हैं और स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि आंदोलन का नेतृत्व नेताओं के हाथ से निकलकर गुंडे-बदमाशों, लुटेरों के हाथ में चला जाता है। हर हिंसक आंदोलन किसी न किसी नये नेता को भी जन्म देता है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि महाराष्ट्र के मुंबई में भी दूसरे प्रदेशों, खासकर उत्तर भारतीयों के खदेडने और मारने-पीटने की हरकतें होती रही हैं और कई लाठीबाज नेताओं को सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला है। यह नेता उस भीड के दम पर अपने सपने साकार करते हैं जिसे भडकाना और आक्रामक बनाना बहुत आसान होता है। दंगे और लूट-फसाद कर जिन बेकसूरों की जिन्दगी भर की कमायी स्वाहा कर दी जाती है, जिनके निर्दोष परिजनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, उनके दिल पर क्या बीतती है इसे बेरहम नेता तो समझने से रहे। दरअसल, सोचना तो उन्हें चाहिए, जिनके पास अपना दिमाग है फिर भी नेताओं का नकाब ओढे 'दुष्टों' के इशारे पर भीड बन लूटमार और खून-खराबे पर उतर जाते हैं। वर्षों पुराने रिश्तों और भाईचारे का कत्ल करने में किंचित भी देरी नहीं लगाते...।

Friday, October 12, 2018

नकाब नोचने की पहल

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। भारत ही दुनिया का एकमात्र देश है जहां नारी को पूजा जाता है। नारी के बिना पुरुष अधूरा है। यदि पुरुषों को नारियों का साथ नहीं मिलता तो वे सफलता के कीर्तिमान बनाने के लिए तरसते रह जाते। जुल्म करने वाले से कहीं ज्यादा दोषी होता है जुल्म सहने वाला। इस इक्कीसवीं सदी में नर और नारी एक समान हैं। नारियों को पुरुषों से डरने की कोई जरूरत नहीं। कोई भी पुरुष यदि उन पर अत्याचार करता है तो उन्हें उसके होश ठिकाने लगाने में देरी नहीं करनी चाहिए। चुप्पी से बहुत खतरनाक नतीजें निकलते हैं। दुष्कर्मियों का सच सामने नहीं आने से उनके हौसले बढते चले जाते हैं। इस काम में हर किसी को साथ देना चाहिए। ऐसी और भी कई बडी-बडी बातें जो सुनने और कहने में कितनी अच्छी लगती हैं, लेकिन हकीकत? सडकों, चौराहों, अस्पतालों, स्कूलों, महाविद्यालयों, अखबारों, न्यूज चैनलों के कार्यालयों, राजनीति, फिल्मी क्षेत्रों और बडे-बडे विभिन्न संस्थानों में स्त्रियों की इज्जत पर खतरा हमेशा मंडराता रहता है। प्रवचनकार, फिल्म स्टार, राजनेता, वकील यहां तक कि कुछ जज आदि भी महिलाओं पर टूट पडने को आतुर रहते हैं और बडी-बडी बातें करने वाले तमाशबीन बने रहते हैं।
पिछले दिनों फिल्म अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने यह कहकर खलबली मचा दी कि दस वर्ष पूर्व एक फिल्म की शूटिंग  के दौरान उसका यौन उत्पीडन किया गया। तब भी उसने इस कुकृत्य का खुलकर विरोध किया था, लेकिन अभिनेता के रसूख के चलते उसकी किसी ने नहीं सुनी और अधिकांश लोगों ने यौन उत्पीडक अभिनेता का साथ दिया था। अभिनेत्री ने दस वर्ष बाद फिर से जैसे ही मुंह खोला तो कुछ और अभिनेत्रियों ने भी अपना दर्द बयां करना प्रारंभ कर दिया। तनुश्री के दस वर्ष बाद आरोपों की झडी लगाने से कई लोगों ने सवाल भी उठाए कि अभिनेत्री ने इतने वर्षों तक चुप्पी क्यों साधे रखी। कहीं न कहीं कोई गडबड तो है। अभिनेत्री तनुश्री की कहानी को पंख लगाये मीडिया ने जो दस वर्ष पूर्व उतना तेज नहीं था जब फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने कथित तौर पर उसके साथ छेडछाड की थी। नाना पाटेकर जहां अपने उग्र स्वभाव के लिए जाने जाते हैं, वहीं किसानों के प्रति उनकी हमदर्दी ने उन्हें एक नेक इन्सान की ख्याति दिलवायी है। प्राकृतिक आपदा और कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिवारों की आर्थिक सहायता करने वाले नाना पर अभिनेत्री के द्वारा बेखौफ होकर आरोप लगाने के बाद कुछ लोग अभिनेत्री के पक्ष में खडे नजर आए तो अधिकांश की यही प्रतिक्रिया आई कि ऐसा परोपकारी शख्स किसी महिला की इज्जत के साथ खिलवाड नहीं कर सकता। तनुश्री प्रचार की भूखी है इसलिए यह नाटक कर रही है।
सच तो यह है कि तनुश्री ने चोट खायी महिलाओं को चुप्पी तोडने और पापियों के नकाब को नोचने के लिए बिगुल फूंका है। फिल्म निर्माता महेश भट्ट की बेटी पूजा भट्ट, जो कभी फिल्मी दुनिया का जाना-माना नाम थी, की भोगी हुई पीडा अधिकांश भारतीयों की मानसिकता की सच्ची तस्वीर पेश कर देती है- 'मैं एक शराबी के साथ रिलेशनशिप में थी। वो मुझे बेतहाशा मारता-पीटता था। मैंने जब अपना दर्द लोगों के समक्ष उजागर किया तो मुझे ही सवालों के कटघरे में खडा कर दिया गया। सच तो यह है कि जब भी महिलाएं अपने साथ होने वाली बेइन्साफी पर मुंह खोलती हैं तो लोग उसे ही शंका की निगाह से देखने लगते हैं। तनुश्री का मामला भी काफी गंभीर है। इसकी सघन जांच होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह भी है कि जांच करेगा कौन? माना कि नाना पाटेकर जनसेवा करते हैं इसका मतलब यह तो नहीं कि तनुश्री की आवाज दबा दी जाए। कोई भी नारी बेवजह किसी पर इस तरह से आरोप नहीं लगाती। कभी पत्रकारिता में अपने नाम का परचम लहराने वाले एम.जे. अकबर जो वर्तमान में केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री हैं, उनपर भी एक महिला पत्रकार ने आरोप जडा है कि वे हद दर्जे के अय्याश हैं। खूबसूरत महिलाओं को देखते ही अनियंत्रित हो जाते हैं। वह भी उनकी गलत हरकत का शिकार हो चुकी है। यह अकबर ही थे जिन्होंने महिला पत्रकार को शराब पीने और बिस्तर पर चिपक कर बैठने के लिए विवश किया था। वैसे तो अकबर बहुत शालीन किस्म के शख्स दिखते हैं, लेकिन वे अश्लील फोन कॉल्स, मैसेज और असहज टिप्पणियां करने में पारंगत हैं। एक अन्य शुभा राव नाम की महिला ने रहस्योद्घाटन किया है कि वे नौकरी के लिए साक्षात्कार देने गर्इं थीं, जहां पर एम.जे. अकबर ने उसके साथ बहुत गंदी हरकत की।
फिल्मों में नेक प्रेमी, पिता और भाई की भूमिका निभाने वाले आलोक नाथ पर भी विनीत नंदा नामक महिला ने बीस वर्ष पूर्व बलात्कार करने का आरोप लगाकर सफेदपोशों के छिपे सच को उजागर करने का साहस दिखाया है जिसे बहुतेरी स्त्रियां लोकलाज के चलते दबा-छुपा लेती हैं। मेरे प्रिय पाठक मित्रों को याद दिलाना चाहता हूं कि कुछ वर्ष पूर्व इसी फिल्मी नगरी के एक तेजी से उभरते अभिनेता शाइनी आहूजा पर उसकी घरेलू नौकरानी ने बलात्कार का आरोप लगाया था। देशभर के न्यूज चैनलों ने इस खबर को सात-आठ दिन तक घसीटा था। आहूजा की गिरफ्तारी के बाद अदालत ने भी अभिनेता को दोषी करार देकर क‹डी सजा सुनायी थी। आहूजा की इस शर्मनाक कारस्तानी की लगभग हर फिल्म वाले ने भत्र्सना की थी और लगभग हर फिल्म अभिनेत्री ने उसके साथ काम करने से इनकार कर दिया था। एक बात और भी गौर करने लायक है कि तब भी यह कहने वालों की कमी नहीं थी कि अभिनेता को फंसाया गया है। नौकरानी को मोहरा बनाकर अभिनेता के भविष्य को तबाह करने की साजिश की गई है। नौकरानी पर धन के लालच में बलात्कार की कहानी गढने के भी आरोप लगे थे। इसके बाद चार-पांच फिल्मों में लीड रोल कर चुके शाइनी आहूजा को नई फिल्में मिलनी ही बंद हो गई थीं। शरीफ लोग उसकी परछाई से भी नफरत करने लगे थे। अभिनेता का यह बयान भी आया था कि सारा खेल आपसी रजामंदी का था।
यह हमारे यहां का दस्तूर है कि 'ऊंचे लोगों' को चरित्रवान होने का प्रमाणपत्र देने में जरा भी देरी नहीं की जाती। यदि कोई आम आदमी जब ऐसे शर्मनाक कृत्य करता है तो भीड भी उसे सबक सिखाने का ठेका ले लेती है। इसी भीड को नामी-गिरामी हस्तियों के समक्ष नतमस्तक होने की लाइलाज बीमारी लगी हुई है। इस भीड में वो चेहरे भी शामिल हैं जो तब मूकदर्शक बन जाते हैं जब उनसे दहाडने की अपेक्षा की जाती है।
वतन के मीडिया, कानून और अदालतों के कारण भी अच्छे भले इन्सान ताउम्र असमंजस का शिकार रहते हैं। उनका आखिर तक असली सच से साक्षात्कार नहीं हो पाता। अपने खोजी टीवी कार्यक्रमों के जरिए कई अपराधियों को पुलिस की गिरफ्त में लाने वाले न्यूज एंकर सुहैब इलयासी को सन २००० में अपनी पत्नी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अखबारों और न्यूज चैनल वालों ने उसे पत्नी का हत्यारा घोषित कर दिया था। ट्रायल कोर्ट ने भी २०१७ में सुहैब को उम्र कैद देते हुए कहा था कि उसने न सिर्फ अपनी पत्नी अंजू की हत्या की बल्कि उसे आत्महत्या दिखाने की भी कोशिश की। कई वर्षों तक जेल की सींखचों में कैद रहे सुहैब का बस यही कहना था कि वह हत्यारा नहीं है। उसकी पत्नी ने आत्महत्या की है। पूरे सत्रह वर्ष तक मामला घिसटता रहा और अभी हाल ही में हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटते हुए इलयासी को पत्नी की हत्या के जुर्म से बरी कर दिया है। जब यह फैसला सुनाया गया तब भी सुहैब जेल में था।

Thursday, October 4, 2018

पितरों का सत्कार...जिन्दों को दुत्कार

कुछ हकीकतें..., खबरें भ्रम तोड देती हैं। आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। इन्हें पढने और समझने के बाद दिल और दिमाग में यह इच्छा बलवति हो जाती है कि यह सच उन लोगों तक भी पहुंचना चाहिए जिन्होंने अंतिम रूप से यह मान लिया है कि भारत का अब भगवान ही मालिक है। फरिश्ते भी अगर धरती पर उतर आएं तो भी इसकी दिशा और दशा नहीं बदल सकते। यहां पर तो जहां-तहां लालची और मतलबी भरे पडे हैं जो सिर्फ अपने भले की ही सोचते हैं।
लेकिन सच तो यह है कि अपने ही देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के इस तरह की सोच और धारणाओं को बदलने में लगे हैं। उन्हीं में शामिल हैं नागपुर निवासी जगदीश खरे जो पिछले पच्चीस वर्षों से ऐसा काम करते चले आ रहे हैं जिसे करने में अधिकांश लोग कतराते हैं। नाक पर हाथ रखकर भाग खडे होते हैं। लगातार फैलते शहर में आत्महत्याओं के होने का सिलसिला बडा पुराना है। विभिन्न समस्याओं से परेशान और अपने जीवन से निराश हो चुके लोगों को खुदकुशी किसी मुक्ति के मार्ग से कम नहीं लगती। ऐसे लोग रेल की पटरियों, तालाबों और कुंओं आदि को आत्महत्या का सबसे उपयुक्त माध्यम मानते हैं। नागपुर में गांधी सागर, अंबाझरी, फुटाला समेत कई अन्य तालाब, नदियां और नाले हैं जहां पर हजारों लोग खुदकुशी कर चुके हैं। यह भी कह सकते हैं कि यह सिलसिला कभी रूकने वाला नहीं है। जब भी कोई पानी में कूदकर आत्महत्या करता है तो अक्सर उसकी लाश खराब हो जाती है। ज्यादा दिन तक पानी में रहने के कारण बदबू मारने लगती है। ऐसे में लोग उसके नजदीक जाने में कतराते है, लेकिन जगदीश खरे ऐसे खरे समाजसेवी हैं जिनके जीवन का एक मात्र मकसद ही पानी से मृतदेहों को बाहर निकालना है। वे इसकी बिलकुल चिन्ता नहीं करते कि शव कितना सड चुका है। उससे कैसी दमघोटू दुर्गंध आ रही है। वे यह काम धन कमाने के लिए नहीं, मानवता का धर्म निभाने के लिए करते हैं। बिना किसी भेदभाव के पानी से मृत देहों को बाहर निकालने वाले जगदीश खरे को उनकी पत्नी का भरपूर सहयोग और साथ मिलता है। उन्होंने शहर और आसपास के विभिन्न तालाबों, नदियों, नालों और खदानों से २२०० मृतदेहों को बाहर निकालने की जो समाजसेवा की है उसके लिए 'लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड  रिकार्डस' में भी उनका नाम दर्ज हो चुका हैं। अनेक संस्थाओं के द्वारा सम्मानित किये जा चुके जगदीश खरे बताते हैं कि २३ मई १९९४ में उनके दोस्त के भाई ने गांधी सागर तालाब में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। कई घंटों तक पानी में पडे रहने के कारण शव काफी खराब हो चुका था। शव को निकालना तो दूर बदबू के कारण कोई भी नजदीक जाने को तैयार नहीं था। यहां तक कि महानगर पालिका के अग्निशामक दल के लोगों ने भी हाथ झटक लिए थे। इस चक्कर में समय बीतता चला जा रहा था। सडांध बढती चली जा रही थी। यह देख वे बिना डगमगाए पानी में कूद गए और शव को बाहर निकाला। इसके बाद तो जब भी कोई कहीं पानी में डूबता या आत्महत्या करता तो पुलिस, अग्निशामक दल और विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं उन्हें फौरन जानकारी देतीं और वे भी तुरंत हाजिर हो जाते। वे कहते हैं कि यह वे जब तक जिन्दा हैं तब तक यह सिलसिला बरकरार रहेगा। एक हजार से अधिक लोगों को पानी में डूबने से बचाने वाले इस देवदूत को २०१६ में दिल्ली में एक मीडिया हाऊस द्वारा पुरस्कार स्वरूप जो पांच लाख रुपये दिए गये उनसे भी एक एंबुलेंस खरीदकर थाने के सुपुर्द कर दी ताकि जनसेवा का रथ सतत चलता रहे।
अनजान लोगों के लिए समय निकालना हर किसी के बस की बात नहीं। यहां तो हालात यह हैं कि अपनों को भी अनदेखा किया जा रहा है। समय की कमी की मजबूरी का राग छेडा जा रहा है। बुजुर्ग मां-बाप और अन्य-बुजुर्गों के लिए तो अधिकांश संतानों और निकट जनों के पास समय ही नहीं है। कितने लोग तो ऐसे हैं जो बिस्तर से आने वाली बदबू के कारण अपने माता-पिता, दादा-दादी आदि के कमरे में जाने से कतराते हैं। यही वो लोग हैं जो पितृपक्ष में अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए रिश्तेदारों, मित्रों को लजीज खाना खिलाते हैं और दान-पुण्य करते हैं। दुनिया छो‹ड चुके अपनों के लिए समय निकाल लेते हैं और अपने जीवित असहाय बुजुर्गों की कोई कद्र नहीं करते। अपनों को याद करने और उनकी सेवा करने के लिए उनके पितर बन जाने की प्रतीक्षा करने वालों की भीड में कुछ अपवाद भी हैं जिनके पास अपने वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी आदि के लिए समय की कोई कमी नहीं रहती। ऐसे ही मेरे एक मित्र हैं शरद सक्सेना जो बिलासपुर में रहते है। कुछ दिन पूर्व ही उनकी माताश्री ९२ साल की उम्र में परलोक सिधार गर्इं। शरद उद्योगपति भी हैं और समाजसेवी भी। उन्हें कभी भी अपनी बिस्तर पर पडी माताश्री के लिए समय निकालने में कोई दिक्कत नहीं हुई। शरद के पास भी परमसत्ता के द्वारा निर्धारित उतना ही समय रहता था जितना कि बेबस माता-पिता की देखभाल के लिए समय न मिलने का रोना रोनेवालों के पास होता है। उनके पास नियमित बैठना, बातचीत करना और साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना उनकी दिनचर्या का अंग था। उनकी सेवा और पूरी तरह से देखभाल करना ही इस बेटे के जीने का मकसद बन चुका था। ऐसे बेटे ही उम्मीद का दीया जलाए रखते हैं। वे मांएं भी परमात्मा को धन्यवाद देते हुए खुद को बेहद खुशकिस्मत मानती हैं जिन्हें ऐसी संतानें नसीब होती हैं।
इस सच को भी जान लें कि अपनी ही संतानों और परिजनों के द्वारा की जाने वाली अवहेलना के कारण उम्रदराज पुरुषों और महिलाओं की आत्महत्याओ की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में जबरदस्त इजाफा हुआ है। यह हकीकत भी बेहद स्तब्धकारी है कि दुनिया में आत्महत्या करने वाली हर तीसरी महिला भारतीय है। १९९० से २०१६ के बीच आत्महत्या के आंकडों में चालीस प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। भारत में २०१६ में अनुमानित तौर पर २,३०,३१४ लोगों ने आत्महत्या की। अपनी जान देना आसान नहीं होता। फिर भी खुदकुशी करने वालों की संख्या का बढना चिन्ता का विषय तो है ही। एक जानी-मानी महिला, जिन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की, का कहना है आत्महत्या करना कतई आसान नहीं है। एक समय था जब मुझे लगता था कि मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा है। जीने के सभी रास्ते बंद नजर आने लगे थे। मेरी बस यही इच्छा होती थी कि जल्द से जल्द खुद का खात्मा कर दूं। मैंने पहली बार अठाहरवीं मंजिल से कूदकर मर जाना चाहा, लेकिन डर ने मेरे कदम रोक दिए। दूसरी बार मैंने कई नींद की गोलियां निगल लीं। मेरी हालत बिगड गई। पूरे तीन साल तक अस्पताल में इलाज चलता रहा तब कहीं जाकर मैं मौत के मुंह से लौट पायी। तभी से मेरी आंखें खुल गर्इं। यह सच भी मेरी समझ में आया कि जीवन में अपनों के प्रबल साथ का होना बहुत जरूरी है। अपनों का मतलब है बुरे वक्त में साथ खडे होने वाले वे सभी शुभचिन्तक जिनकी प्रेरणा और सलाह मनोबल बढाती है।
महिला पुलिस अधिकारी शालिनी शर्मा आत्महत्या करने की ठान चुके लोगों को अपने तरीके से समझाकर उनके इरादे को बदलने में कामयाब रही हैं। वे कहती हैं कि हालात किसी भी व्यक्ति को जान देने को विवश कर सकते हैं। जब बर्दाश्त करने की क्षमता जवाब दे जाती है तो अच्छा भला इंसान भी खुद का हत्यारा बन जाता है। कई बार क्षणिक आवेग भी बेकाबू कर देता है। फिर भी अगर आत्महत्या करने के लिये उतारू लोगों के विचारों को किसी तरह से मोडा जाए तो उन्हें बचाया जा सकता है। शालिनी को वो दिन बार-बार याद हो आता है, जब उन्होंने तकरीबन तीस साल की एक महिला को अठारहवीं मंजिल से कूदने से किसी तरह से बचाया था। शालिनी का ध्यान जब उसकी तरफ गया तो वे तेजी से दौडती हुई छत पर जा पहुंची जहां से वह महिला बस छलांग लगाने जा ही रही थी। शालिनी ने महिला को फौरन दबोचने की बजाय उसके दिमाग पर हावी जिद और आवेश के पलों को शांत करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने उससे सवाल किया कि तुम्हें पता भी है कि तुम्हारी इस गलती से तुम्हारे माता-पिता पर क्या गुजरेगी! वे तो जीते जी मर जाएंगे। महिला का जवाब था कि मेरी जिन्दगी पूरी तरह से तबाह हो चुकी है। कुछ भी नहीं बचा है। शालिनी ने उसे सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि सबकुछ बचा है अभी। इस अनमोल जिन्दगी को ऐसे ही खत्म करना अपराध है। यह भी जान लो कि अगर तुम कूदी तो मैं भी कूदकर अपनी जान दे दूंगी। मेरी आंखों के सामने तुम्हारा मरना मेरी बहुत बडी असफलता और नाकामी होगी। जब वह महिला उनकी बातों में उलझी थी तो उनकी टीम ने महिला के करीब जाकर उसका हाथ पकड लिया। महिला के विचार बदल चुके थे। यह महिला वकील है। आज उसने वकालत के क्षेत्र में खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है। समाज सेवा में भी सक्रिय है।

Thursday, September 27, 2018

कब खुलेंगी आंखें?

एक बलात्कारी के लिए यह बहुत बडी सजा है जब उसकी पत्नी यह ऐलान कर दे कि वह अब इस बलात्कारी का मुंह नहीं देखना चाहती। रेवाडी में हुए सामूहिक बलात्कार के आरोपी पंकज की पत्नी ज्योति ने पुलिस चौकी में पहुंचकर कहा कि वह अपने पति की करतूतों से शर्मसार है और आज के बाद उसका पंकज से कोई रिश्ता नहीं है। पुलिस उसे फांसी दे या गोली मार दे उसे इससे कोई मतलब नहीं। ऐसे शैतान किसी के नहीं होते। उससे शादी करके वह बहुत पछता रही है। इस साहसी पत्नी का यह कहना भी एकदम दुरुस्त है कि पंकज ने उसके साथ धोखाधडी की है। यह हद दर्जे का अहसान-फरामोश है। यह सच ही तो है कि कोई भी शादीशुदा आदमी जब ऐसे दुराचार करता है तो उसकी अपनी पत्नी के प्रति वफादारी खत्म हो जाती है। रिश्तों में भरोसे का होना जरूरी है। ऐसी करतूतें उस विश्वास के परखच्चे उडा कर रख देती हैं जो पति, पत्नी के प्रगाढ संबंधों की बुनियाद होता है। आस्था और यकीन के टूटने का धमाका तो बहुत जोर से होता है, लेकिन अपराधी किस्म के लोग बहरे और अंधे बने रहते हैं। इसे उनकी फितरत भी कह सकते हैं। यह सच बार-बार दिल को दहला कर रख देता है कि शासन और प्रशासन की लाख कोशिशों के बाद भी नारियों के साथ होने वाली धोखाधडियों और बलात्कारों का तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा है। कम उम्र की बच्चियों को भी बख्शा नहीं जा रहा है। जिस तरह से कोई भूखा जंगली जानवर मौका पाते ही शिकार को दबोच लेता है, वैसे व्याभिचारी मासूम बच्चियों को अपनी वासना का शिकार बना रहे हैं।
दिल्ली के सीमापुरी थाना में घर से प्रसाद लेने के लिए मंदिर के लिए निकली एक सात वर्षीय बच्ची को नशे में धुत प‹डोसी युवक बहला-फुसलाकर सुनसान पार्क में ले गया। रस्सी से उसके हाथ-पैर बांधे और बेखौफ होकर दुष्कर्म कर डाला। इतना ही नहीं इस दरिंदे ने मासूम के प्राइवेट पार्ट में प्लास्टिक की बोतल भी डाल दी। बच्ची के शोर मचाने पर उसकी बुरी तरह से पिटाई भी कर दी। खून से लथपथ बच्ची किसी तरह से घर पहुंची और आपबीती बतायी। उसे फौरन अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसकी हालत अभी भी नाजुक बनी हुई है। इस हृदयविदारक घटना के बारे में नेताओं को जैसे ही पता चला तो वे राजधानी के पूरी तरह से असुरक्षित होने और बलात्कारियों के हाथों का खिलौना बनने का पुराना राग अलापने लगे। यह कहना व्यर्थ भी है और ज्यादती भी कि अकेले राजधानी में ही बलात्कारों की झडी लगी है। सच तो यह है कि आज देश के लगभग तमाम महानगर, नगर और गांव अनाचारियों के कहर से कराह रहे हैं।
इसी हफ्ते बुलंदशहर से सटे एक गांव में दिनदहाडे दुष्कर्म की दो वारदातों को अंजाम दिया गया। नौ साल की एक बच्ची अपने घर के बाहर खेल रही थी, तभी एक पडोसी की उस पर गंदी नजर पड गई। उसने बडी चालाकी से बच्ची को खेत में ले जाकर शराब पिलाई और कुकर्म कर डाला। घायल बच्ची का अस्पताल में इलाज चल रहा है। इसी तरह से एक तेरह वर्षीय बच्ची को पडोस का एक युवक बहला-फुसला कर अपने साथ ले गया और इस कदर हैवान बन गया कि बच्ची तडपती रही और वह शैतानियत का खेल खेलता रहा। सुबह से घर से लापता हुई बच्ची जब शाम को घर लौटी तो उसकी हालत देखकर माता-पिता के होश उड गए। उन्होंने बच्ची को अस्पताल में भर्ती करवाया, जहां डॉक्टर भी लाख कोशिशों के बाद भी उसे बचा नहीं सके। पिछले कुछ महीनों से देश में स्थित कई आश्रमों और आश्रय स्थलों का जो सच सामने आ रहा है उससे यह सवाल भी दिमाग को मथता है कि अब किस पर यकीन किया जाए। कौन है भरोसे के लायक? जिन आश्रय स्थलों में असहाय बेटियों, मां, बहनों को मान सम्मान के साथ रखा जाना चाहिए था उन्हें सभी तरह की सुविधाएं मुहैया करवायी जानी चाहिए थीं, वहां पर उनका यौन शोषण हो रहा है। उन्हें अय्याशों के बिस्तरों तक पहुंचाकर सेक्सवर्कर बनाया जा रहा है। हैवानियत की सभी हदें पार करनेवालों ने अंधी, गूंगी, बहरी कुदरत की मार से सदा डरी सहमी रहने वाली लडकियों को अमानवीय यातनाएं देकर उनकी जीने की इच्छा ही छीन ली है। इससे भयावह शैतानियत और क्रूरता और कोई नहीं हो सकती। इसे अंजाम देने वाले बदमाश भी जाने-पहचाने चेहरे हैं, जिन्होंने साधु-संत, कथावाचक, नेता, समाजसेवक, पत्रकार आदि-आदि का मुखौटा अपने चेहरे पर लगा रखा है।
हाल ही में एक युवक को लूटमारी करते हुए रंगेहाथ पकडा गया। पुलिस अधिकारी ने उससे जानना चाहा कि अच्छे घर-परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद उसने यह अपराध की राह क्यों चुनी तो उसका जवाब था कि साहब मैंने कई महीनों तक मेहनत-मजदूरी करके भी देख ली, लेकिन उतना धन हाथ में नहीं आया जितना मैं चाहता था। धोखाधडी, चोरी-चक्कारी और लूटमारी कर मैंने कुछ ही हफ्तों में इतना माल जमा लिया जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। युवक का यह कथन... यह जवाब यकीनन स्तब्ध करने वाला है और इन सच से भी उन सभी की आंखें खुल जानी चाहिए जो बाबाओं के चक्कर में घनचक्कर बन आगा पीछा नहीं सोचते। एक महिला और उसकी बेटी की अस्मत लूटने वाले आशु भाई गुरुजी ने बाबा... संत का चोला इसलिए ओढा क्योंकि संतई के धंधे में अंधी कमायी है। अंधविश्वासी अपने आप खिंचे चले आते हैं। धर्मप्रेमी महिलाओं की कतार लग जाती है। आशु भाई गुरुजी ने यह विस्फोट कर भी कम दिलेरी नहीं दिखायी कि दरअसल वह तो मुसलमान है। उसने जब देखा कि तंत्र-मंत्र, साधना का जाल फेंककर लोगों को बडी आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है तो वह आसिफ मोहम्मद खान से 'आशु भाई गुरुजी ज्योतिषाचार्य' बन गया। यह नाम धारण करते ही धर्मप्रेमी लोग उसकी तरफ आकर्षित होने लगे।
उसकी दुकानदारी अच्छी-खासी चल रही थी। अगर वासना के भंवर में नहीं फंसता तो वह बडा हिन्दू धर्म गुरू भी बन जाता।

Thursday, September 20, 2018

सबक की लकीरें

भारत में इंसानी जिन्दगी जितनी सस्ती है उतनी और कहीं नहीं है। प्रशासन और सरकार के अंधेपन की सज़ा आम आदमी को भुगतनी पडती है। मेहनती, ईमानदार भारतवासी कल भी त्रस्त थे और आज भी बेहद निराश हैं। राजनेता और बुद्धिजीवी अपनी मस्ती में हैं। उन्हें भाषणों और उपदेशों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। वतन में स्वच्छता अभियान जोरों पर है। हाथ में झाडू थामे साफ सुथरे कपडों में सजे बडे और छोटे नेताओं की तस्वीरें प्रतिदिन अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर जगह पाती हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि पहले कचरे का ढेर लगाया जाता है फिर झाडू घुमाने का नाटक कर फोटुएं खिंचवायी जाती हैं। यह नाटक पिछले-दो-तीन वर्षों से तो धडल्ले से चल रहा है और चमचे तालियां पीट रहे हैं। अपने यहां दिखावे की कद्र होती है और खून-पसीने बहाने वालों को कीडा-मकोडा समझा जाता है। इस खबर की तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया होगा कि बीते हफ्ते देश की राजधानी में सीवर की सफाई करते हुए पांच सफाई कर्मी मारे गए। ऐसे हादसे अक्सर होते रहते हैं। न प्रशासन सबक लेता है और ना ही सरकार जागती है। हर दुर्घटना के बाद जांच के आदेश दे दिए जाते हैं। इस तरह के हादसों को रोकने के लिए नियम-कानून भी बनाये गए हैं। अदालतें भी कह चुकी हैं कि सफाई कर्मियों की जान के साथ खिलवाड नहीं होना चाहिए। उन्हें समुचित सुरक्षा उपकरणों के साथ ही टैंकों की सफाई के काम में लगाया जाना चाहिए। राजधानी में सीवर की सफाई करते हुए जो सफाई कर्मी मौत के शिकार हुए उनके पास किसी भी तरह के सुरक्षा उपकरण नहीं थे। गरीब मजदूर आवाज भी नहीं उठा पाते। ठेकेदार का हुक्म बजाने के सिवाय उनके पास और कोई रास्ता नहीं होता। यह भी गौर करने वाली बात है कि जब राजधानी की यह तस्वीर है तो देश के छोटे-मझोले शहरों-कस्बों में श्रमिकों की क्या हालत होगी। देश को स्वच्छ बनाने के लिए अपना खून-पसीना बहाने वालों की कुर्बानियां लेने के इस खेल के पीछे अधिकाधिक धन कमाने की लालसा और भ्रष्टाचार का भी बहुत बडा हाथ है। लालची ठेकेदारों के लिए मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं होती। इसलिए वे उनकी सुरक्षा के प्रति कतई चिन्तित नहीं रहते। सुरक्षा के उपकरणों पर खर्च करना उन्हें अपने पैसे की बर्बादी लगता है। उन्हें पता होता है कि इन असहायों की मौत पर कोई आवाज उठाने और आंसू बहाने के लिए ख‹डा नहीं होता।
शहरवासियों की सुख-सुविधाओं के लिए खुद की जान की बाजी लगा देने वाले सफाई कर्मियों, श्रमिकों के परिवार वाले इंसाफ के लिए तरसते रह जाते हैं। यहां भी धनबल जीत जाता है। कौन नहीं जानता कि अदालतों में चलने वाली कानूनी लडाई सिर्फ और सिर्फ पैसे और समय का खेल है। देश की अदालतों में मुकदमों के मामले इतने लंबे चलते हैं कि फैसले के इंतजार में लोगों की मौत तक हो जाती है। अदालतों में काम करने वालों की लापरवाहियां और गडबडियां भी न्याय की राह में अवरोध खडे करती हैं। फिर भी अदालतों में भीड बढती चली आ रही है। जेलों में भेड-बकरियों की तरह कैदी भरे पडे हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जिन्होंने कोई अपराध ही नहीं किया। वकीलों को मोटी फीस देने का उनमें दम नहीं है इसलिए जेल में सडना उनकी नियति है।
शहर मिर्जापुर की गंगादेवी को इंसाफ पाने के लिए एक ऐसी लंबी लडाई लडनी पडी जो देश की अदालतों की भयावह सच्चाई पेश करती है। १९७५ में यह केस शुरू हुआ था और इसका फैसला २०१८ में आया है, जबकि गंगादेवी की २००५ में ही मौत हो चुकी है। हुआ यूं कि जमीन विवाद के एक मामले में १९७५ में मिर्जापुर जिला जज ने गंगादेवी के खिलाफ प्रापर्टी अटैचमेंट का नोटिस जारी किया था। इस पर गंगादेवी ने सिविल जज के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी थी। तब वह महज ३७ वर्ष की थी। दो साल बाद १९७७ में कोर्ट ने गंगादेवी के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन उसकी मुसीबत यहीं पर खत्म नहीं हुई। जिला अदालत ने उसे कोर्ट में केस के ट्रायल के दौरान फीस के रूप में ३१२ रुपये जमा करने को कहा। इस रकम की तब बहुत बडी कीमत थी। गंगादेवी ने इधर-उधर से जुगाड कर राशि जमा कर रसीद भी ले ली, लेकिन जब वह अपने फैसले की कॉपी लेने के लिए कोर्ट पहुंची तो पाया गया कि उसने दस्तावेजों में ३१२ रुपये की फीस जमा करने की रसीद नहीं लगाई है। दरअसल वह रसीद कहीं गुम गई थी। कोर्ट ने गंगादेवी को फिर से ३१२ रुपये की फीस भरने को कहा, लेकिन गंगादेवी ने इसका विरोध किया। इसके बाद कोर्ट में इसी फीस को लेकर ४१ साल तक सुनवाई चली। इस केस की फाइल ११ जजों के पास गई, लेकिन गंगादेवी की याचिका अटकी रही। अंतत: जब २०१८ के अगस्त माह में मिर्जापुर के सिविल जज ने गंगादेवी के पक्ष में फैसला सुनाया तो उस समय गंगादेवी ही इस दुनिया में मौजूद नहीं थी, जज ने यह भी माना कि फाइल में गडबडी के कारण यह केस वर्षों तक चलता रहा। गंगादेवी को बेवजह कोर्ट के चक्कर काटने पडे और तकलीफें झेलनी पडीं। यकीनन इस गडबडी के लिए कोई बाबू ही दोषी था। ऐसे बाबूओं का ही अदालतों में राज चलता है। रिश्वत लिए बिना तो यह कोई काम ही नहीं करते। बाबू अगर चाहता तो रास्ता निकल सकता था और गंगादेवी को इतने वर्षों तक कोर्ट की यातनाएं नहीं झेलनी पडतीं।
मैंने अपने इस जीवन की यात्रा के दौरान यही देखा और समझा है कि अमीरों से ज्यादा गरीब स्वाभिमानी और त्यागी होते हैं। अमीर किसी पर उपकार करने के बाद जबरदस्त ढोल पीटते हैं, लेकिन गरीब बडी शांति से वो प्रेरक काम कर देते हैं जिनसे यदि चाहें तो वतन के नेता और समाजसेवक भी सबक ले सकते हैं। ग्रेटर नोएडा के अंतर्गत आने वाले गांव दादुपुर की ५६ वर्षीय राजेशदेवी गांव की ऊबड-खाबड सडक पर गिरने से बुरी तरह से जख्मी हो गई। सिर पर गंभीर चोट लगी। बेहोश होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने २५ टांके लगाए। होश में आते ही उसने संकल्प लिया कि मैं इस सडक को दुरुस्त करा कर ही दम लूंगी। अब किसी को ऐसे घायल नहीं होने दूंगी। सडक को ठीक करवाने के लिए उसने जनप्रतिनिधियों और अफसरों के दरबार में अपनी गुहार लगायी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। ग्राम प्रधान और विधायक बखूबी जानते थे कि राजेशदेवी के घर के सामने से जाने वाला रास्ता १० साल से टूटा हुआ है। यहां हमेशा नाली के पानी और कीचड से होकर गुजरना पडता है। हर चुनाव के मौके पर यह वादा भी किया जाता था कि चुनाव जीतने के बाद इस सडक का कायाकल्प कर दिया जाएगा। वे चुनाव तो जीतते रहे, लेकिन वादा पूरा नहीं हुआ। राजेशदेवी नेता नहीं है। आम भारतीय है। उसने टूटी सडक को ठीक करवाने के लिए अपने मकान का आधा हिस्सा डेढ लाख में बेचा और सडक ठीक करवाने के काम में लगा दिया। इस परोपकारी महिला का पति और बेटा मजदूरी करते हैं।

Thursday, September 13, 2018

तमाशा नहीं है ज़िन्दगी

शराब और सिगरेट की लत न जाने कितने लोगों की कुर्बानी ले चुकी है। अब यह शोध यकीनन हतप्रभ करने वाला है कि सोशल मीडिया की लत भी सेहत के लिए उतनी ही खतरनाक है जितना धूम्रपान और शराब पीना। विशेषज्ञों का यह निष्कर्ष सामने आया है कि सोशल मीडिया के अत्याधिक प्रयोग से तनाव और अवसाद बढता है। खुद की छवि के प्रति शंकाग्रस्त कर देने वाला यह नशा नींद उडा कर रख देता है। इसके लती वर्तमान में रहना छोडकर सपनों की दुनिया में विचरण करने लगते हैं। सोशल मीडिया पर लोगों की अच्छी-अच्छी तस्वीरें देखने से आत्मविश्वास में कमी आती चली जाती है। तनाव और डिप्रेशन का होना रोजमर्रा की बात हो जाती है। 'स्टेट्स ऑफ माइंड' की रिपोर्ट के मुताबिक सोशल मीडिया में इंस्टाग्राम सबसे अधिक खतरनाक है। यह युवाओं में हीन भावना को जगाता है और उन्हें मानसिक बीमार बनाता है। इसके बाद स्नैपचैट, फेसबुक का नंबर आता है। यह सोशल मीडिया ही है जिसने लोगों को स्वार्थी बना दिया है। इसके शिकार दूसरों की भावनाओं की ज्यादा कद्र नहीं करते। उन्हें अपनी तरक्की और अपने प्रचार की भूख जकडे रहती है। वे लोगों की सहायता करने की पहल करने में कतराते हैं।
दिनदहाडे भीडभाड वाली सडक पर बलात्कार होते हैं, दुर्घटनाएं होती हैं। लोग सडकों पर तडपते रहते हैं, लेकिन सहायता के हाथ नजर नहीं आते। कई संवेदनहीन लोग वीडियो बनाने में लग जाते हैं ताकि उसे सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों से अपने मित्रों तक पहुंचा कर पब्लिसिटी हासिल कर सकें। यह भी देखा जा रहा कि सोशल मीडिया के चक्कर में युवा आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्धता के जबरदस्त शिकार हो रहे हैं, जिसका खामियाजा उनके घर-परिवार के बुजुर्गों को भुगतना पड रहा है। उनका हालचाल जानने का समय ही छीन लिया है इस सोशल मीडिया ने। साठ प्रतिशत से अधिक युवक-युवतियों ने स्वीकारा है कि सोशल मीडिया में खोये रहने के कारण वे परिवार को कम समय दे पाते हैं। बुजुर्गों का सुख-दुख जानने का उन्हें समय ही नहीं मिलता। गौरतलब है कि अपने वतन में ६५ फीसदी आबादी ३५ साल से कम उम्र के युवाओं की है, जबकि १० फीसदी यानी १३ करोड सीनियर सिटीजंस हैं। इन १३ करोड बुजुर्गों में ६३ फीसदी महिलाएं हैं। सोशल मीडिया के कारण पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ज्यादा अकेलापन झेलना पड रहा है। मैं अपने ऐसे कई मित्रों को जानता हूं जिनके दिन की शुरुआत फेसबुक पर अपनी सेल्फी पोस्ट करने से होती है। विभिन्न मुद्राओं में अपनी सेल्फी चिपकाने वाले असंख्य युवक-युवतियों को ढेरों लाइक्स का बेसब्री से इंतजार रहता है। सेल्फी से शोहरत पाने का यह पागलपन पता नहीं कितने लोगों को निकम्मा और स्वार्थी बना चुका है और बना रहा है। यह क्या घोर ताज्जुब भरा सच नहीं है कि जिनके पास अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के लिए समय नहीं है वे फेसबुक, ट्वीटर और वाट्सअप पर बडी बेरहमी के साथ अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हैं। हर तीन-चार दिन बाद सेल्फी के चक्कर में युवाओं के दुर्घटनाग्रस्त होने के समाचार सुनने और पढने में आ रहे हैं। कई उम्रदराज स्त्री-पुरुष भी सेल्फी के क्रेज के कैदी हैं। वे भी सेल्फी के लिए बडे से बडा जोखिम लेते देखे जाते हैं। एक शोध में पाया गया है कि भारत एक ऐसा देश बन चुका है जहां पर सेल्फी लेने के अंधे जोश के चलते सबसे अधिक मौतें हुई हैं। समझदार समझे जाने वाले लोग भी सेल्फी के लिए उफनती नदियों में छलांग लगा देते हैं। रेल की पटरी पर खडे हो जाते हैं और कई बार जान से हाथ धो बैठते हैं। सोशल मीडिया पर लाइव जाकर आत्महत्या करने वाले लोग समाज को यह संदेश देते प्रतीत हो रहे हैं कि जिस तरह से उन्हें दूसरों से कोई मोह नहीं है वैसे ही वे खुद के प्रति भी अमानवीय और संवेदनहीन हैं।
इस सृष्टि में इंसान की जान से बढकर और कुछ नहीं है। 'जान है तो जहान है।' नेशनल ट्रामा केयर इन्स्टीट्यूट के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि विभिन्न दुर्घटनाओं के शिकार हुए २ लाख लोगों को समय पर उपचार यानी प्रथमोचार नहीं मिल पाने के कारण इस दुनिया से सदा-सदा के लिए विदायी लेनी पडती है। इनमें वो बदनसीब भी शामिल होते हैं जिन्हें सडकों पर लहूलुहान तडपते पडा देखकर हम हिन्दुस्तानी बडी शान से वीडियो बनाते हैं और यह सोचकर कि हम किसी के पंगे में क्यों पडें, अपने रास्ते चलते बनते हैं। दुर्घटना तो किसी के भी साथ हो सकती है। दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को जो समय पर सहायता उपलब्ध करा दे वही उसके लिए देवदूत होता है, भगवान होता है।
ऐसे ही एक मानवता के सच्चे पुजारी हैं राजू वाघ, जिन्हें दुर्घटना के शिकार हुए लोगों की मदद करने वाले फरिश्ते के रूप में जाना जाता है। मानव की सेवा को ही अपना धर्म मानने वाले नागपुर के इस युवक ने पांच हजार से अधिक दुर्घटनाग्रस्त लोगों को सही समय पर प्रथमोचार उपलब्ध करा उनकी जान बचायी है। राजू वाघ ने शहर में ऐसे कई लोग तैयार किये हैं जो दुर्घटना के शिकार किसी भी इंसान की मदद के लिए दौड पडते हैं। इन्हें घायलों के प्रथमोचार का प्रशिक्षण दिया गया है। राजू कहते हैं कि सडक पर दुर्घटना होते ही नागरिकों की जो भीड जुटती है उसका सबसे पहले ध्यान घायल के चेहरे पर जाता है और जब उसे तसल्ली हो जाती है कि वह उनकी पहचान का नहीं है तो वह धीरे-धीरे खिसक जाती है। लहूलुहान घायल व्यक्ति तडपता रहता है और कई बार उसकी मौत भी हो जाती है। लोगों की यह बेरहमी और कू्ररता उन्हें बहुत आहत करती है। यूं ही किसी को अपने प्राणों से हाथ न धोना पडे इसी ध्येय के साथ उन्होंने दुर्घटना के शिकारों की सहायता करने की ठानी है।

Thursday, September 6, 2018

काली किताब

ये किस किस्म के नेता हैं। यह नेता हैं भी या नहीं? इनकी नौटंकियां और नाटक तरह-तरह के सवाल खडे करते हैं। इनकी बोली, इनके तेवर और इनकी बेशर्मी विस्मित करती है। अपने बोलवचनों से लोगों को भडकाने, क्रोधित करने वाले नेताओं की तादाद बढती चली जा रही है। हर किसी का अपना-अपना अंदाज है जिनकी वजह से उनकी एक खास पहचान बनी और बन रही है। सर्वधर्म समभाव और आपसी भाईचारे की धज्जियां उडाकर नफरत की भाषा बोलने वाले नेताओं और उनके पिट्ठुओं की प्रचार की भूख की कोई सीमा नहीं दिखती। ऐसे लोगों को लगता है कि अगर उन्होंने खुद को बदल लिया तो उनकी राजनीति की दुकान बंद हो जाएगी। कोई उन्हें पूछेगा ही नहीं। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के हटा विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी की विधायक के बेटे ने कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को गोली मारने की धमकी देते हुए लिखा और कहा कि, "सुन ज्योतिरादित्य तेरी रगों में उस जीवाजी राव का खून है जिसने बुंदेलखंड की बेटी झांसी की रानी का खून किया था। अगर तुमने उपकाशी हटा में प्रवेश कर इस धरती को अपवित्र करने की जुर्रत की तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।" इस तरह की भाषायी गुंडागर्दी इस देश में आम होती चली जा रही है। अभी हाल ही में समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद को उत्तर प्रदेश के पूर्व नगर विकासमंत्री, कडवी जुबान के लिए कुख्यात आजम खां ने धमकी दी कि वे उनकी बेटियों को तेजाब से नहला देंगे। वक्त, हालात और मौका देखकर अपने सुर बदलने वालों का जब भी जिक्र आता है तो सबसे पहला नाम जो ध्यान में आता है वो है अमर सिंह का। अमर सिंह को सत्ता का दलाल भी कहा जाता है। 'जिधर दम उधर हम' की लीक पर चलने वाले इस राजनीति के कुख्यात शख्स का असली ईमान-धर्म क्या है, कोई नहीं जान पाया। फिर भी ताज्जुब यह है कि इस कुख्यात को राजनीति के हर बडे मंच पर सम्मान के साथ बैठाया जाता है। जमकर तारीफें की जाती हैं। जैसे वे इस सदी के बहुत बडे ईमानदार नेता हों और सज्जन पुरुष हों। कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बेहद करीबी रहे अमर सिंह का सारा का सारा अतीत कालिख से पुता हुआ है। इनका राजनीति में आने का मकसद ही मात्र धन कमाना था जिसमें इन्हें मनचाही सफलता मिली। सत्ता की दलाली और बिचौलिया की भूमिका निभाकर खरबपति बने अमर सिंह खुद स्वीकारते हैं कि वे दलाल भी हैं और जातिवादी भी। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के लिए चंदा जुटाने और विभिन्न क्षेत्रों की पहुंची हुई हस्तियों से रिश्ते बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले अमर सिंह सभी पार्टियों के राजनेताओं, उद्योगपतियों, फिल्म सितारों के करीबियों में शुमार रहे हैं। अमिताभ उन्हें बडा भाई कहते थे तो मुकेश और अनिल अंबानी को वे अपने छोटे भाई कहकर सीना ताने रहते थे। सहारा ग्रुप के प्रमुख सुब्रत राय जैसे धनपति भी इनके इशारों पर नाचते थे। नामी चेहरों के साथ दोस्ती और प्रगाढता के नाम पर अमर ने कई खेल खेले। अमर सिंह के जरिए न जाने कितने भ्रष्ट नेताओं का काला धन सहारा कंपनी में लगा और सुब्रत राय लाल होते चले गए। उसकी काफी लंबी कहानी है। सुब्रत राय ने जेल की सलाखों के पीछे जाने के बाद भी अपनी कंपनी में काला धन लगाने वाले नेताओं की जानकारी नहीं दी। अमिताभ बच्चन जब दिवालिया होने के कगार पर थे तब अमर ने उनकी लाज बचायी थी। यह बात दीगर है कि आज दोनों में छत्तीस का आंकडा है। दरअसल अमर की कभी भी किसी से लंबे समय तक निभ नहीं पायी। उनके समाजवादी पार्टी में सक्रिय रहने के दौरान कई ईमानदार समाजवादी पार्टी से किनारा कर गए। उनमें फिल्म अभिनेता राज बब्बर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व नगर विकास मंत्री आजम खां भी अमर की चालाकी, धूर्तता और धन वसूली का सतत विरोध करते रहे। इसलिए दोनों में जुबानी तलवारें चलती रहती हैं। आजम खां, अमर और मुलायम की गहरी दोस्ती के हर राज से वाकिफ हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि इन दोनों ने किस तरह से काली कमायी का अथाह साम्राज्य खडा किया है। अमर को बार-बार राज्यसभा का सदस्य बनाने की मजबूरी के पीछे की वजह भी आजम को ज्ञात है। ज्ञात रहे कि मुलायम-पुत्र अखिलेश के खुले विरोध के चलते अमर को समाजवादी पार्टी से बाहर कर दिया गया। फिर भी इन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया। यह भी कह सकते हैं कि इस्तीफा देने को विवश ही नहीं किया गया। मुलायम सिंह ने भी अपने खास दोस्त के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोला। भले ही अमर उनके बेटे अखिलेश की ऐसी-तैसी करते चले आ रहे हों और चाचा-भतीजा को लडवाकर समाजवादी पार्टी के टुकडे करने पर आमादा हों। अमर सिंह को 'परिवार तोडक' भी कहा जाता है। अच्छे भले घर-परिवारों के बीच फूट डालने में उनका कोई सानी नहीं है। अंबानी बंधुओं में दरार डालने और बंटवारे के बीज बोने में इस तमाशबीन की खासी भूमिका थी। प्रचार पाने के लिए किसी भी हद तक चले जाने को तैयार रहने वाले इस 'महापुरुष' ने हाल ही में पत्रकारों से कहा कि, 'मैं एक डरा हुआ पिता हूं, जिसकी बेटियों को तेजाब से नहलाने की धमकियां आजम खां दे रहे हैं। माना कि मैं एक बुरा आदमी हूं। विवादों से मेरा अटूट नाता रहा है, लेकिन मैं दो नाबालिग बेटियों का पिता हूं वे अभी पढ रही हैं। राजनीति से अंजान हैं। आजम की दुश्मनी मुझसे है। कुर्बानी लेनी है तो मेरी लें।' तिल को ताड बनाने की कला में माहिर इस 'सज्जन' से पत्रकार, संपादक जब मिलते हैं तो उनकी यही कोशिश होती है कि इनके मुंह से ऐसा कुछ निकले जो चटपटी खबर बन जाए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस 'महान आत्मा' की तारीफों के पुल बांधकर देशवासियों को अचंभित कर दिया। यह महाशय भी मोदी और भाजपा के गुणगान में लग गए। कल तक इन्हें भाजपा साम्प्रदायिक पार्टी लगा करती थी और आज सर्वधर्म समभाव के मार्ग पर चलने वाली पार्टी लगने लगी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति भी उनकी सोच बदल गई है। तभी तो कहा जाता है कि ऐसा निराला और अजूबा इंसान भारतीय राजनीति में और कोई नहीं है। यह कभी भी राजनीति के शीर्ष में नहीं रहे, लेकिन फिर भी राजनीति में छाये रहे। फिल्मी सितारों की तरह चर्चा में बने रहे। अपने अंदर कई रहस्य समेटे इस हरफनमौला की जीवनी का प्रकाशन एक विदेशी प्रकाशक करने जा रहा है। इस किताब में वो सबकुछ होगा, जिसे जानने के लिए लोग लालायित रहते हैं। अमर सिंह हमेशा कहते रहते हैं कि 'एनी पब्लिसिटी इज गुड पब्लिसिटी।' उनकी आनेवाली किताब के पीछे भी यही उद्देश्य छिपा है। दूसरों को बेनकाब कर निंदा के सुख में डूबे रहने वाले इस दुखियारे को हर किसी से सौ-सौ शिकायतें हैं। उन्होंने जिसका भला किया उसने भी बुरे वक्त में साथ नहीं दिया। वैसे इसमें नया क्या है? यही तो इस दुनिया की रीत है। प्रतिशोध की आग में जलते सिंह अपनी इस काली किताब में अमिताभ बच्चन की जमकर बखिया उधेडेंगे। मुलायम, सुब्रत राय, मुकेश, अनिल अंबानी से लेकर और भी कितने चेहरे उनके निशाने पर होंगे यह तो किताब के छपने के बाद ही पता चलेगा। चंद्रशेखर और देवगौडा जैसे पूर्व प्रधानमंत्रियों से भी उनकी करीबी रही है। यह भी तय है कि दूसरों को नंगा करने की ठाने यह शख्स खुद के कपडे उतारने से भी परहेज नहीं करेगा। अमर के वो साथी जो अभी जीवित हैं, वे बेहद घबराये हुए हैं। उन्हें दिन-रात यही चिन्ता खाये जा रही है कि उन्हें किताब में पता नहीं किस तरह से पेश किया जाने वाला है। यकीनन किताब धमाकेदार होगी। विदेशी प्रकाशक करोडों रुपये यूं ही तो नहीं देने जा रहा है।

Thursday, August 30, 2018

नींद है कि टूटती नहीं

देशभर के न्यूज चैनलों और अखबारों में अपराध और अपराधियों के बारे में जो तमाम खबरें प्रसारित और प्रकाशित की जाती हैं उनका एक बहुत बडा मकसद यही होता है कि लोग सावधान हो जाएं। देश और समाज के दुश्मनों को पहचानें और बिना खौफ खाए उनके खिलाफ आवाज़ उठाएं, लेकिन जो तस्वीर सामने है वह तो यही बता रही है कि अधिकांश लोग पढ और सुनकर भूल जाते हैं और जब तक खुद पर नहीं आती तब तक आंखें बंद किये रहते हैं, चुप्पी साधे रहते हैं। लुट-पिट जाने के बाद ही उनके होश ठिकाने आते हैं। लोगों ने अगर जागृत होने और सबक लेने की आदत पाल ली होती तो ऐसी खबरों पर काफी हद तक विराम लग जाता जो आतंक, हिंसा, देशद्रोह, धोखेबाजी, व्याभिचार, छलकपट, गुंडागर्दी का जीवंत दस्तावेज हैं।
नागपुर में एक ऐसे नटवरलाल को हथकडियां पहनायी गर्इं, जिसने तीन दर्जन महिलाओं को अपने जाल में फंसाया था। वह कभी खुद को शहर का बडा व्यापारी बताकर किसी महिला को अपना शिकार बनाता था तो कभी डॉक्टर बताकर। उसके निशाने पर ज्यादातर विधवा महिलाएं रहती थीं। वह शादी करने की इच्छुक महिलाओं की सेकंड शादी डॉट कॉम से जानकारी लेता था। इस जालसाज के चक्कर में कई महिलाओं ने अपने घर तक बेच दिए। वे उसके मायाजाल में फंस कर पूरी तरह से अंधी हो गई थीं। वह उन्हें जैसे नचाता वे वैसे नाचती रहीं। नाम, पेशा और रूप बदल-बदल कर महिलाओं के साथ शादी और अय्याशी करने वाले इस धूर्त की एक साथी थी जो कभी उसकी बहन बन जाती तो कभी पत्नी। महिलाओं को फांसने के लिए वह उसकी पूरी मदद करती थी। वर्धा निवासी एक तलाकशुदा महिला पर भी उसने सेकंड शादी डॉट कॉम नामक साइट के जरिए अपना जाल फेंका। उसने उसे बताया कि वह भी विधुर है और शहर का बडा व्यापारी है। महिला ने अपने परिजनों से सलाह लेने का हवाला देकर उसे कुछ दिन तक इंतजार करने को कहा, लेकिन उसने कुछ जानकारी देने के बहाने महिला को नागपुर आने को विवश कर दिया। महिला वर्धा से नागपुर पहुंची तो वह फौरन उसे कार में बैठाकर सुनसान इलाके की तरफ ले जाने लगा। इस बीच इस बेसब्रे ने उससे छेडछाड करनी शुरू कर दी। महिला को उसकी नीयत का भान हो गया और उसने तीव्र विरोध करते हुए कार रुकवायी और थाने जा पहुंची। पुलिसिया जांच के बाद बदमाश की हकीकत की परत-दर-परत पोल खुलती चली गयी। दो-तीन दिन में ही पांच-छह और महिलाएं थाने में पहुंच गर्इं। इन्हें भी शातिर ने अपना शिकार बनाकर लाखों रुपये एेंठ लिए थे।
पंजाब के लुधियाना शहर की एक २२ साल की युवती अपने फेसबुक फ्रेंड पर इस कदर आसक्त हुई कि वह उससे मिलने के लिए अकेली होटल में जा पहुंची। प्रेमी ने कोल्ड ड्रिंक में कोई नशीला पदार्थ मिलाया तो वह बेहोश हो गई। होश में आने के बाद उसे पता चला कि उसकी अस्मत लूटी जा चुकी है। करीब ढाई महीने पहले फेसबुक पर दोनों की दोस्ती हुई थी। एक दूसरे की पोस्टों के लिंक करने के साथ-साथ चेटिंग का भी सिलसिला शुरू हो गया। फिर एक दूसरे के मोबाइल नंबर शेयर किये गए। एक दिन दोस्त ने होटल में आने का आमंत्रण दिया तो वह खुद को रोक नहीं पाई। खुशी-खुशी पहुंच गई ऐसे बलात्कारी की गोद में, जिसने पता नहीं अब तक कितनी युवतियों को फेसबुक के माध्यम से अपना शिकार बनाया होगा और भविष्य में भी बनायेगा। लडके ही नहीं, लडकियां भी छल-कपट में बडी दिलेरी के साथ बुरे कामों में बाजी मार रही हैं। गाजियाबाद के एक युवक की सोशल साइट के जरिए एक युवती से दोस्ती हुई। दोस्ती और बातचीत के बाद दोनों में शारीरिक संबंध भी बन गए। एक दिन जब दोनों मौज-मस्ती कर रहे थे तो एक युवक वहां पहुंच गया जिसने युवक को बताया और धमकाया कि उसका अश्लील क्लिप बना लिया गया है। इसलिए उसे पांच लाख रुपये देने होंगे वर्ना अश्लील क्लिप को सार्वजनिक कर दिया जाएगा। युवक ने अपनी सोने की चेन और हजारों रुपये देकर पीछा छुडाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने। उनकी पांच लाख रुपये की मांग अभी भी बनी हुई है।
लेडी डॉन! वो भी दिल्ली में! दिल्ली तो भारतवर्ष की राजधानी है, कोई जंगल नहीं! आप कितना भी आश्चर्य करते रहें, लेकिन यह सच है। फिल्मी किरदारों को साकार करने का ठेका सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं ले रखा है। यह बात अलग है कि देश में नाममात्र की लेडी डॉन हुई हैं, लेकिन जितनी भी हुई हैं, उन्होंने खूब दहशत मचाकर अपने नाम का डंका बजाया। दिल्ली के संगम विहार में काला चश्मा पहनने वाली बशीरन तीन दशक से अधिक समय तक दहशत का पर्याय बनी रही। उसने न जाने कितने बच्चों को अफीम, गांजा, चरस और शराब का लती बनाते हुए अपराध के गुर सिखाए। इस शातिर महिला ने परायों और अपनों में कोई भेद न करते हुए अपने आठ बेटों और आठ पोतों को भी जुर्म की दुनिया में उतारकर अपनी ऐसी डरावनी छवि बनाई, जिससे लोग उसकी परछाई से भी खौफ खाने लगे। बडे से बडे अपराध को धंधे की तरह अंजाम देने वाली बशीरन ने हत्या, अपहरण से लेकर हाथ-पैर तोडने और धमकी-चमकी देने तक के रेट तय कर रखे थे। देश के कोने-कोने से कई सफेदपोश और गुंडे-बदमाश उसके पास आते थे और तयशुदा रकम देकर हत्याएं और अपहरण करवाते थे। अपने दुश्मनों की हड्डी-पसली तुडवाने के लिए बशीरन की शरण में आने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी थी। इससे उनका अपने इलाके में दबदबा बढ जाता था और आगे का काम भी आसान हो जाता था। भेष बदलने में माहिर ६२ वर्षीय बशीरन ने पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए अपने मकान और आसपास सीसीटीवी कैमरे लगवा रखे थे। जब भी उसे किसी खतरे का आभास होता तो वह घर के पीछे के दरवाजे से जंगल के रास्ते की ओर निकल भागती थी। इस लेडी डॉन ने कई सालों से पूरे इलाके के सरकारी बोरवेलों पर कब्जा कर रखा था। नागरिकों को घंटे के हिसाब से पानी देकर रकम वसूलती थी। भले ही पुलिस ने पिछले हफ्ते उसे किसी तरह से गिरफ्तार करने में सफलता पा ली, लेकिन इलाके के किसी भी निवासी ने उसके खिलाफ मुंह नहीं खोला। कल भी लोग उससे कांपते थे और आज भी खौफ खाते हैं। वे मानते हैं कि वह कुछ हफ्तों के बाद जमानत पर छूटकर बाहर आ जाएगी और अपने विशाल गिरोह के साथ आतंक मचायेगी। यह खौफनाक तस्वीर यकीनन यही दर्शाती है कि हमारे देश में सरकारें सोयी हुई हैं। जनप्रतिनिधि अपनी आखें बंद किये हैं और नौकरशाहों का तो कहना ही क्या...। जिन गुंडे, बदमाशों, हत्यारों से पुलिस डरती हो, दबोचने से पहले सौ बार सोचती हो, तो ऐसे में असहाय जनता से यह उम्मीद रखना बेमानी है कि वह अपने आसपास पनप रहे अपराधों और खूंखार अपराधियों को सबक सिखाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा देगी।

Thursday, August 23, 2018

बहुत बडी सीख दे गए अटल

"धरती को बौनों की नहीं
ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है
किंतु इतने ऊंचे भी नहीं कि
पांव तले दूब ही न जमे
कोई कांटा न चुभे
कोई कली न खिले
न बसंत हो, न पतझड हो
सिर्फ ऊंचाई का अंधड
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना"

यह उस राजनेता, पत्रकार, कुशल वक्ता, कवि की कविता है जिन्हें भारतीय राजनीति का अजातशत्रु कहलाने का गौरव हासिल हुआ। जिन्हें विरोधी भी उतना चाहते थे, जितना उनके समर्थक। क्या यह हैरान कर देने वाला सच नहीं है कि जो राजनेता पिछले एक दशक से मौन था, चलने-फिरने में लाचार था, चुप्पी जिसकी मजबूरी थी, लेकिन फिर भी उसकी लोकप्रियता जस की तस रही। ऐसा लगा ही नहीं वे अपने प्रिय देशवासियों की नजरों से दूर हैं। शारीरिक तौर पर निष्क्रिय होने के बावजूद देश की राजनीति में उनकी उपस्थिति सतत बनी रही। ऐसा इसलिए था क्योंकि वे एक ऐसे जननायक थे, जिनसे सभी दलों के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और आमजन दिल से जुडे हुए थे। अपना प्रेरणास्त्रोत मानते थे। हर किसी को उनपर भरोसा था। ९३ साल की उम्र में देश और दुनिया से विदायी लेने वाले कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी जिन्दादिली, कर्तव्यपरायणता, कर्मठता, निष्पक्षता और निर्भीकता की प्रतिमूर्ति थे। संसद हो या सडक, हर जगह सजग रहने वाले अटलजी उन नेताओं में शामिल नहीं थे, जो भीड से खौफ खाते हैं और खुद को किसी भी जोखिम में डालने से बचते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भडके सिख विरोधी दंगों के कारण संपूर्ण दिल्ली जल रही थी। दंगाई बेखौफ होकर सिखों की हत्या कर रहे थे। इंसानियत की तो जैसे मौत ही हो चुकी थी। अटलजी ने अपने बंगले के गेट के बाहर का भयावह नजारा देखा तो उन्होंने संभावित खतरे को फौरन भांप लिया। तलवारों, लाठियों और हाकियों से लैस गुंडे मवालियों की भीड ने सिखों को हत्या करने के इरादे से घेर रखा था। अटलजी तुरंत बंगले से निकल कर अकेले ही टैक्सी स्टैंड पर पहुंच गए। भीड ने अटलजी को तुरंत पहचान लिया। उन्होंने सभी को फटकारा। किसी ने भी उनके समक्ष मुंह खोलने की हिम्मत नहीं की और नजरें झुकाकर भाग खडे हुए। अगर अटलजी टैक्सी स्टैंड पहुंचने में थोडी भी देरी करते तो दंगाई अपना काम कर चुके होते। सिख ड्राइवरों और टैक्सियों को जला दिया गया होता। उसी दिन वे अपनी पार्टी के सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी के साथ तब के केंद्रीय गृहमंत्री पीवी नरसिंह राव से मिले और सारी घटना की विस्तार से जानकारी दी। जलती दिल्ली को बचाने के सुझाव पेश करते हुए सिखों को हर तरह की सुरक्षा देने का निवेदन किया। उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं को बुलाकर निर्देश दिया कि अपने कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर सिखों के कत्लेआम को हर कीमत पर रोकने में जुट जाएं।
पहले १३ दिन, फिर तेरह महीने और फिर लगभग पांच वर्ष तक हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री रहे अटलजी के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा सदस्य के उनके पहले कार्यकाल में उनका भाषण सुनकर कह दिया था कि यह कुशल वक्ता एक दिन जरूर देश की सत्ता पर काबिज होगा। अटलजी गजब के सिद्धांतवादी थे। वे अगर दांवपेंच और जोड-जुगाड के खिलाडी होते तो उन्हें मात्र तेरह दिनों में सत्ता नहीं खोनी पडती। विश्वास मत पर मतदान से पहले ही उन्होंने सदन के भीतर त्यागपत्र का ऐलान कर सबको चौंका दिया था। उन्होंने कहा था कि पार्टी तोडकर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा। भगवान राम ने कहा था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। अगर डरता हूं तो बदनामी से डरता हूं। चालीस साल का मेरा राजनीतिक जीवन खुली किताब है। कमर के नीचे वार नहीं होना चाहिए। नीयत पर शक नहीं होना चाहिए। मैंने यह खेल नहीं किया है। मैं आगे भी नहीं करूंगा।
मेरे विचार से अटलजी देश के पहले ऐसे नेता थे, जिनके भाषण को सुनने के लिए देशवासी लालायित रहते थे। बिलासपुर और रायपुर में उनके भाषण सुनने का सौभाग्य इस कलमकार को भी हासिल हुआ। मुझे अच्छी तरह से याद है कि भीड को रोके रखने के लिए उनका भाषण अंत में रखा जाता था। श्रोता भी उनका भाषण सुनने के मोह के चलते घंटों अपनी जगह से हिलते नहीं थे। अटलजी का आकर्षण फिल्मी सितारों पर भी भारी पडता था। मंच पर किसी नायक और नायिका के होने के बावजूद लोग सिर्फ और सिर्फ अटलजी को ही सुनना चाहते थे। उनके भाषणों में जहां हास-परिहास होता था, वहीं उनका एक-एक शब्द लोगों के मर्म को छूता था। आज भी यू-ट्यूब पर उन्हीं के भाषण सर्वाधिक सुने जाते हैं। युवा पीढी तो मंत्रमुग्ध हो जाती है। इशारों-इशारों में बडी-बडी बातें कह देने और व्यंग्य के तीर छोडने वाले अटल की शख्सियत का ही कमाल था कि विरोधी भी उनकी सशक्त वाक्शैली का लोहा मानते थे। एक बार राज्यसभा में विभिन्न पारिवारिक समस्याओं को लेकर चर्चा चल रही थी। सभी को लग रहा था कि अटलजी इस विषय पर चुप्पी साधे रहेंगे, लेकिन जब वे अपनी बात कहने के लिए खडे हुए तो कांग्रेस सांसद मार्गरेट अल्वा ने तपाक से कहा कि "अटलजी आप तो कुंआरे हैं। पारिवारिक समस्याओं की जानकारी तो शादीशुदा लोगों को ही होती है?" उन्होंने फटाक से जवाब दिया कि मैं अविवाहित जरूर हूं, लेकिन कुंआरा होने की कोई गारंटी नहीं है। उनकी इस साफगोई पर ठहाके और तालियां गूंजनें लगीं। वे एक ऐसे राजनेता थे, जो अपने विरोधियों की तारीफ करने में कोई कंजूसी नहीं करते थे। स्पष्टवादिता में भी कोई उनका सानी नहीं था। गुजरात के दंगों के समय तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई उनकी यह सीख आज के राजनेताओं के लिए बहुत बडी सीख है- "मेरा एक संदेश है कि वह राजधर्म का पालन करें। राजा के लिए, शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता। न जन्म के आधार पर और न ही संप्रदाय के आधार पर।" अटलजी अपने दिल की बात कहने में कभी कोई संकोच नहीं करते थे। भले ही सामने वाले को कितना ही बुरा लगे। एक बार राजधानी से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार के मालिक अपने संपादक के साथ अपने बेटे की शादी का निमंत्रण देने के लिए उनके निवास पर पहुंचे। उन्होंने दोनों का खूब आदर-सत्कार करते हुए उनके अखबार की भी तारीफ की। चाय-नाश्ते के बाद उन्होंने अपने अंदाज में कहा कि आप लोग तो अंतर्यामी हैं। पिछले दिनों आपके अखबार से ही मुझे पता चला कि मैंने अपने भांजे से दूरियां बना ली हैं और अपने घर में उनके प्रवेश पर भी बंदिश लगा दी है। अटल जी की यह शिकायत सुनते ही मालिक और संपादक दोनों पानी-पानी हो गए। कार्यालय पहुंचकर मालिक ने जब इस खबर के बारे में पता लगवाया तो पता चला कि मात्र अफवाह को संवाददाता ने कार्यालय में पहुंचाया था और संपादक ने बिना पुख्ता छानबीन किए उसे सुर्खियों के साथ अपने बहुप्रसारित दैनिक में प्रकाशित कर दिया था। मालिक ने उस लापरवाह संपादक को खूब डांटा-फटकारा और भविष्य में ऐसी खबरें न छापने की सख्त हिदायत दी। इस कलमकार के देखने में आया है कि अधिकांश कवि, लेखक जो लिखते हैं उनका आचरण उसके अनुकूल नहीं होता, लेकिन कवि अटल शब्द और कर्म को एकाकार करने में पूरी तरह से समर्थ थे। उन्होंने अपने गीतों के भाव को जी भरकर जिआ- "मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जिन्दगी सिलसिला, आजकल की नहीं... मैं जी भर जिआ, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा कूच से क्यों डरूं?"