Thursday, December 29, 2016

बदलाव की इबारत

उन दिनों प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। घर में होने वाली रोज-रोज की कलह का उसकी पढाई पर भी असर पडने लगा था। सहेलियां भी हैरान थीं कि वह पढाई-लिखाई में लगातार पिछडती क्यों जा रही है। वह हर वक्त खामोश और उदास रहने लगी थी। सहेलियां उसकी परेशानी की वजह पूछतीं तो वह रूआंसी हो जाती। वह आखिर उन्हें कैसे बताती कि उसके शराबी पिता के कारण उनका घर नर्क बन चुका है। मां का तो जीना ही मुहाल हो गया है। शराब के नशे में धुत पिता जब-तब मां पर हाथ उठा देते हैं। गाली-गलौज का तो अनवरत सिलसिला चलता रहता है। आर्थिक हालात इतने खराब हो गये हैं कि किसी-किसी दिन तो पूरे परिवार को भूखे पेट सोना पडता है। छोटे-भाई बहन हमेशा डरे-सहमे रहते हैं। शराब के गुलाम हो चुके पिता ने काम पर जाना भी बंद कर दिया था। समाज में बदनामी होने लगी थी। एक दिन मां की सहनशीलता जवाब दे गई। वह आत्महत्या के इरादे से घर छोडकर चली गई। प्रियंका के पैरोंतले की जमीन ही खिसक गई। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे लगा कि उसका दिमाग सुन्न हो गया है। वह काफी देर तक जडवत बैठी रही। फिर जैसे-तैसे उसने खुद को संभाला और अपनी मां को खोजने के लिए निकल पडी। काफी देर खोजने के बाद मां मिली तो दोनों मां-बेटी गले लगकर रोती रहीं। मां घर वापस आने को तैयार ही नहीं थी। बुरी तरह से बिखर चुकी मां को प्रियंका ने किसी तरह से मनाया और घर वापस ले आई। अंधेरा घिर आया था। पिता घर में बेसुध सोये थे। प्रियंका ने पहले कभी भी पिता के सामने मुंह नहीं खोला था, लेकिन आज वह किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का दृढ फैसला कर चुकी थी। उसने पिता को झिंझोड कर जगाया। हडबडाये पिता ने उसे घूरा जैसे कह रहे हों कि तुमने मुझे नींद से जगाने की जुर्रत कैसे की? प्रियंका ने पिता के हाव-भाव के प्रत्युतर में कहा, 'पापा आज तो आप फैसला कर ही लीजिए कि आपको शराब के साथ जीना है, या हमारे साथ। हमें अब एक पल भी नहीं रहना है ऐसे नर्क में। आप तो नशे में धुत रहते हैं और आसपास के लोग हम पर हंसते हैं, ताने कसते हैं। आपको तो पता ही नहीं होगा कि हमें किस तरह से नज़रें झुका कर चलना पडता है। हर निगाह हमें देखकर यही कहती प्रतीत होती है कि इनके पिता तो हद दर्जे के शराबी हैं, निकम्मे हैं जो चौबीस घण्टे नशे में धुत रहते हैं। यदा-कदा जब कभी होश में आते हैं तो लडते-झगडते रहते हैं। पापा आप वर्षों से मम्मी को यातनाएं देते चले आ रहे हैं, लेकिन अब बर्दाश्त की हर सीमा पार हो चुकी है। आपके जुल्मों से तंग आकर आज मम्मी आत्महत्या करने चली थी। मैं उन्हें बडी मुश्किल से मना कर घर लाई हूं। अब आप बता ही दीजिए कि मम्मी तथा हम सबको आप जिन्दा देखना चाहते हैं या यह चाहते है कि हम सब आत्महत्या कर लें।'
एक ही झटके में इतना कुछ कह गई बेटी की धौंकनी की तरह चलती सांसों की आवाज़ ने पिता को हतप्रभ कर दिया। उन्होंने बेटी के इस उग्र रूप की कभी कल्पना नहीं की थी। बेटी ने भी तो कभी उनके सामने खडे होने की हिम्मत नहीं की थी। किसी भी पिता के लिए वो पल बहुत भारी होते हैं जब उसकी औलाद के मुख से उसके प्रति रोष का लावा और बगावती स्वर फूटते हैं। फिर बेटी का वार तो बहुत ज्यादा वार करता है। पिता के पास बेटी के सवालों का कोई जवाब नहीं था। उन्होंने अपनी नजरें झुका लीं। प्रियंका अपने पिता की आंखों से बहते आंसुओं को देखकर खुद को संभाल नहीं पायी और उनके गले से जा लगी। पिता ने भी बेटी का माथा चूमा और वादा किया कि अब वे शराब को कभी हाथ भी नहीं लगायेंगे। पिता के द्वारा शराब से हमेशा-हमेशा के लिए दूरी बनाने पर प्रियंका को जैसे दुनिया भर की खुशियां मिल गर्इं। घर में सुख-शांति लौट आई। प्रियंका को गांव के कुछ और लोगों के घोर शराबी होने के बारे में भी पता था। उसने सोचा कि जब उसके समझाने पर उसके पापा शराब छोड सकते हैं तो उसकी समझाइश का असर दूसरों पर क्यों नहीं हो सकता! धीरे-धीरे उसने हर पीने वाले के घर में दस्तक देनी शुरू कर दी। अपनी आपबीती से अवगत कराने के साथ-साथ शराब से होनेवाले भयंकर दुष्परिणामों के बारे में बताया। उसकी मेहनत रंग लायी। कई पियक्कडों ने शराब से तौबा कर ली। प्रियंका वर्तमान में ८-१० लडकियों के साथ मिलकर शराबबंदी और लडकियों को जागृत करने के अभियान में लगी है। सभी लडकियां आसपास के गांवों में जाकर अशिक्षा और नशे के खिलाफ अपना स्वर बुलंद कर लोगों को जगाती हैं। २०१६ के दिसंबर महीनें में नशाखोरी, अंधविश्वास और अशिक्षा के खिलाफ लडाई लडने वाली जिन लडकियों को इन्दौर में सम्मानित किया गया उसमे प्रियंका का भी समावेश है।
लोगों के जीवन में खुशियां और बदलाव लाने वाले देवदूत आसमान से नहीं टपकते। उनका जन्म तो इसी धरती पर होता है। वैसे भी हमारा देश बडा अनोखा है। यहां हवा-हवाई चमत्कारों को नमस्कार किया जाता है। कोई धूर्त किसी पत्थर पर सिंदूर लगाकर सडक के किनारे रख देता है तो हम उस पत्थर को ही देवता मान अपना सिर झुका लेते हैं। धीरे-धीरे अनुसरण करने वालों की भीड बढने लगती है और नियमित पूजा-पाठ का सिलसिला आरंभ हो जाता है। अपने यहां इंसानों को पहचानने में बहुत देरी लगा दी जाती है। देश की राजधानी दिल्ली के अनेक लोगों के लिए आज ओमनाथ शर्मा उर्फ मेडिसन बाबा का नाम खासा जाना-पहचाना है। पैरों से चालीस फीसदी दिव्यांग होने के बावजूद उनका जनसेवा का अटूट ज़ज्बा देखते बनता है। ८० वर्षीय यह मेडिसन बाबा लोगों से दवाएं मांग कर जरूरतमंदों को निशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रतिदिन कई किमी पैदल चलते हैं। उन्होंने २००८ में लक्ष्मीनगर में मेट्रो हादसे के बाद कई लोगों को दवा की कमी के चलते तडपते और रोते-बिलखते देखा। उस दर्दनाक मंजर ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। तब उन्होंने अपनी जमा-पूंजी से दवाएं खरीदीं और जरूरतमंदों की सहायता की। वो दिन था और आज का दिन है कि उनका असहायों और गरीबों को सहायता पहुंचाने का सिलसिला थमा नहीं है। उन्होंने मेट्रो की दुर्घटना के बाद ही निर्णय कर लिया था कि अब वे अपना समस्त जीवन जनसेवा को समर्पित कर देंगे। तभी से उन्होंने घर-घर जाकर दवाईयां इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। शुरू-शुरू में जब वह किसी अनजान घर में जाकर दवा की मांग करते तो लोग सवाल-जवाब करने के साथ-साथ तानाकशी और हंसी उडाने से नहीं चूकते थे। उन्हें जरूरतमंदो की सेवा के अभियान में लगे एक वर्ष ही हुआ था कि एक दिन कुछ व्यक्तियों ने उन्हें रोका और कहा कि आप न तो फार्मासिस्ट हो और न ही डॉक्टर, फिर ऐसे में दवाएं कैसे बांट सकते हैं? उसके बाद उन्होंने दवाइयां चैरिटेबल ट्रस्ट और अस्पतालों में देनी शुरू कर दीं। लोगों का उनपर विश्वास बढने लगा। धीरे-धीरे आर्थिक मदद की बरसात होने लगी। दवाओं का ढेर लगने लगा। ऐसे में मेडीसन बाबा ने किराये का घर लेकर एक हिस्से में आशियाना और दूसरे हिस्से में दवाखाना बनाकर फार्मासिस्ट रख लिया। जरूरतमंदो को इस दवाखाने से दवाएं तो मिलती ही हैं साथ ही अगर कोई चिकित्सक या अस्पताल गरीबों के लिए दवा या जीवनरक्षक उपकरण मांगते हैं तो उन्हें उपलब्ध कराए जाते हैं। उनके यहां आज लाखों रुपये की दवाएं जमा हो चुकी हैं। बहुत से लोग खुद दवा पहुंचाने आते हैं। देश-विदेश से लोग दवाइयों के पार्सल भी भेजते हैं, लेकिन मेडिसन बाबा अभी भी लोगों के घरों में जाकर दवा मांगते है। वे उन्हें जागरूक करते हैं कि घर में बची दवा फेंके नहीं, इसे किसी जरूरतमंद तक पहुंचाएं।
यदि किसी गरीब मरीज की किडनी फेल है या कैंसर पीडित है तो बाबा अपने पास से दवाएं खरीदकर देते हैं। हर माह ४० हजार रुपये से ज्यादा की दवा खरीदते हैं। बाबा कहते हैं कि बाजार में दवाएं बहुत महंगी बिकती हैं। कई परिवार दवा खरीदने में ही तबाह हो जाते हैं। सरकार को कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए जिससे कम अज़ कम गरीबों को तो दवाएं सस्ती मिलें।
कुछ लोग अपने-अपने तरीके से प्रेरक बदलाव की इबारत लिख रहे हैं। उन्हें न नाम की भूख है और ना ही ईनामों की। वे तो बडी खामोशी से अपने काम में लगे हैं। बिहार के गोपालगंज के डीएम ने वो काम कर दिखाया जिसे अधिकांश अधिकारी करने से कतराते हैं। दरअसल उच्च पदों पर विराजमान अफसर बने-बनाये सांचे और किताबों से बाहर निकल ही नहीं पाते। हुआ यूं कि गोपालगंज के एक गांव के दबंगों ने स्कूल में मिड-डे मील बनाने वाली सुनीता देवी के हाथ से बना खाना खाने पर पाबंदी लगाने का फरमान सुना दिया। उनका तर्क था कि विधवा के हाथों से बना खाना अशुद्ध हो जाता है। उसे खाने से सेहत और दिमाग पर बहुत बुरा असर पडता है। इस घटिया और शर्मनाक फरमान की खबर जब राहुल कुमार तक पहुंची तो वे खुद स्कूल जा पहुंचे। वहां पर उन्होंने जमीन पर बैठकर सुनीता देवी के हाथों से बना खाना सबके सामने खाया। राहुल कुमार को उन लोगों से सख्त नफरत है जो अंधविश्वास फैलाते हैं और तरह-तरह की बुराइयों को पालने-पोसने में अपनी सारी ताकत झोंक देते हैं।

Thursday, December 22, 2016

अब नहीं तो कब?

१६ दिसंबर २०१२ को राजधानी दिल्ली में चलती बस में एक लडकी के साथ ६ वहशियों ने सामूहिक बलात्कार किया था और उसे बस से फेंक दिया था। बाद में २९ दिसंबर को उसकी मौत हो गई थी। पीडिता का नाम सामने नहीं आने देने के उद्देश्य से उसे नाम दिया गया था... 'निर्भया'। निर्भयाकांड ने देश के संपूर्ण जनमानस को भीतर तक हिला कर रख दिया था। पूरे देश में रोष की ज्वाला भडक उठी थी। जगह-जगह पर कैंडल मार्च निकाले गए थे। बलात्कारियों को नपुंसक बनाने और भरे चौराहे फांसी पर लटकाने की पुरजोर मांग की गई थी। निर्भयाकांड की चौथी बरसी पर राजधानी फिर शर्मसार हो गई। वक्त बीत गया, लेकिन दिल्ली नहीं बदली। बलात्कारियों के हौसले पस्त नहीं हुए। दिल्ली के समीप स्थित नोएडा की रहने वाली एक बीस वर्षीय युवती रात करीब दस बजे एम्स के पास बस स्टैंड पर खडी थी। तभी वहां एक गाडी वाला आया और उसने लिफ्ट देने की पेशकश की। युवती उस कार में बैठ गई। बीच रास्ते में मोतीबाग के पास कार चालक ने उसके साथ छेडछाड शुरू कर दी और फिर दुष्कर्म कर मौके से फरार हो गया। जिस कार में दुष्कर्म किया गया उस पर गृह मंत्रालय का स्टीकर लगा हुआ था। इसी स्टीकर को देखकर ही युवती आश्वस्त हो गई थी कि वह अपने गंतव्य स्थल तक सुरक्षित पहुंच जाएगी। यह घटना यह भी बताती है कि मनचलों, अय्याशों के दिलों में किसी किस्म का कोई खौफ नहीं है। कार चालक तीन घण्टे तक कार को दिल्ली की सडकों पर घूमाता रहा, लेकिन कहीं भी उसे किसी पुलिस वाले ने नहीं रोका। इससे ही स्पष्ट हो जाता है कि हमारे यहां की पुलिस कितनी सजग रहती है।
राजधानी के उतमनगर में एक नाबालिग लडकी को पहले शराब पिलायी गई फिर उस पर सामूहिक बलात्कार किया गया। नशे में धुत पीडिता किसी तरह से घर पहुंची और मामले की जानकारी परिजनों को दी। निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बडे-बडे वादे किए गए थे, लेकिन हकीकत में हालात जस के तस हैं। निर्भया कांड के बाद कानून में बदलाव किया गया। फिर भी बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आयी। दिल्ली में आज भी महिलाएं असुरक्षित हैं। दिल्ली पुलिस से महिला अपराध पर मिले आंकडे बताते हैं कि वर्ष २०१२ से २०१४ में महिलाओं के खिलाफ अपराध में ३१४४६ एफआइआर दर्ज हुर्इं और सिर्फ १४६ लोगों को सजा मिली। यानी अधिकांश अपराधी किसी न किसी तरह से बच निकलते हैं। वैसे यह भी सच है कि दुराचार के कई मामले तो पुलिस थानों तक पहुंचते ही नहीं। इसी से पता चल जाता है कि अपराधियों के मन में कोई खौफ क्यों नहीं है। ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब राजधानी से दस-बारह महिलाओं और लडकियों के गायब होने और उन पर बलात्कार होने की खबर न आती हो। राजधानी की जनसंख्या १ करोड ७५ लाख के आसपास है। इसमें महिलाएं करीब ८० लाख हैं। महिलाओं की इतनी बडी आबादी पर दिल्ली पुलिस में सिर्फ ७४५४ महिला पुलिस कर्मी तैनात हैं। थानों में उनकी तैनाती न के बराबर है। ऐसे में अधिकांश महिलाओं की सुरक्षा रामभरोसे है। दिल्ली में गुंडे और बदमाश जिस तरह से बेखौफ होकर महिलाओं का जीना हराम करते हैं उससे लगता नहीं कि यह देश की राजधानी हैं जहां प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, नौकरशाह आदि बडी शान से रहते हैं। ४० फीसदी महिलाओं के साथ आते-जाते समय छेडछाड की जाती है। वहीं, करीब ४१ फीसदी महिलाएं बसों, मेट्रो व ट्रेनों में छेडछाड का शिकार होती हैं। बाकी महिलाओं से बाजार व भीड वाले स्थानों पर बदसलूकी की जाती है।
१६ दिसंबर २०१६ को दिल्ली एवं देश के विभिन्न शहरों में श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर निर्भया को याद किया गया। लोगों का गुस्सा इस बात को लेकर था कि चार साल बीत गए, लेकिन निर्भया को न्याय नहीं मिल पाया है। देश-दुनिया को झकझोरने वाली इस घटना के बाद महिला सुरक्षा को लेकर जो तमाम इंतजाम के दावे किये थे, सिर्फ कोरे वादे ही रह गए। अपनी बेटी के इंसाफ के लिए घर की दहलीज पार करने वाली निर्भया की मां आशादेवी ने अपना दर्द इन शब्दों में उजागर किया : बेटी की पीडा को याद कर आज भी मैं सिहर उठती हूं। उस घटना के बाद से हमारी जिन्दगी पूरी तरह से बदल गई है। शायद ही कोई दिन ऐसा आया हो जब हम खुलकर हंस पाए हों। कभी-कभी मुझे लगता है कि ठीक ही हुआ उनकी बेटी मर गई, नहीं तो अब तक न्याय न मिलने के कारण वह शायद घुट-घुट कर मर जाती।
यह कहा भी जाता है कि देरी से मिला न्याय भी अन्याय के बराबर होता है। निर्भया के माता-पिता भी ऐसी ही पीडा के दौर से गुजर रहे हैं। उनका दु:ख देश की हर निर्भया का दु:ख है। ध्यान रहे कि निर्भया गैंगरेप में छह आरोपी शामिल थे। इसमें एक आरोपी राम सिंह ने तिहाड जेल में फांसी लगा ली थी जबकि छठा आरोपी जुवेनाइल था। जिसे जुवेनाइल कोर्ट ने तीन साल तक जुवेनाइल होम में रखने का आदेश दे रखा था। तीन साल जुवेनाइल होम में रखने के बाद उसे छोड दिया गया था। निचली अदालत से चारों को फांसी की सजा सुनाई गई थी जिसके बाद इन्होंने हाईकोर्ट में अपील की थी और हाईकोर्ट ने भी इन्हें फांसी की सजा सुनाई थी। जिसके बाद इनकी ओर से सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी जिस पर सुनवाई हो रही है। यह बेहद चिन्ता की बात है कि निर्भया कांड के बाद जिस तरह से देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए थे, जागृति की लौ दिखायी दी थी वह धीरे-धीरे धीमी पड गई। इस घटना के बाद राजधानी में महिला अपराध में ५३ प्रतिशत से लेकर २०० फीसदी तक का ग्राफ बढा है। नया कानून भी वो खौफ पैदा नहीं कर सका जिसकी उम्मीद थी। यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि निर्भया गैंगरेप के आरोप में पकडे गए सभी आरोपियों का शैक्षणिक, सामाजिक स्तर पिछडा हुआ था। वे नशे के आदी थे। गलत संगत में पड जाने के कारण वे भटक चुके थे। १५ से १८ साल की उम्र में यदि कोई समझाने-बुझाने वाला नहीं हो तो भटकाव की कोई सीमा नहीं होती। इस उम्र के लडकों को कानून और समाज का भय नहीं लगता। उन्हें लगता है कि पकड भी गए तो ज्यादा से ज्यादा पिटाई होगी और जेल जाने की नौबत आएगी। किसी भी अपराध को अंजाम देने के बाद होने वाली बदनामी और भविष्य के बर्बाद होने का उनके मन में ख्याल ही नहीं आता। देखने में यह भी आया है कि कुछ नाबालिग लडके जानबूझकर बार-बार अपराध करते है। कुछ को अपराध करने के लिए प्रेरित किया जाता है। देश के बेरोजगार, अशिक्षित युवकों की भी कुछ ऐसी ही सोच है। उन्हें कानून का डर नहीं सताता। इसलिए अपराधों को अंजाम देने से नहीं कतराते। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बच्चियां घरों में भी महफूज नहीं हैं। बाहर के हालत किसी से छिपे नहीं हैं। उन पर सरेआम फब्तियां कसी जाती हैं। छेडछाड की जाती है और हम तमाशबीन बने रहते हैं। यह सच बहुत पीडा देता है कि जब हमारी बहन-बेटी पर कोई बुरी नजर डालता है तो हमारा खून खौल उठता है। मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं और दूसरों की बहन बेटियों की अस्मत लुटते देखकर भी आंखें बंद कर लेते हैं। चुप्पी साध लेते हैं। हमारी यही प्रवृत्ति अपराधियों का मनोबल बढाती है। इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस हर जगह मौजूद नहीं रह सकती। युवतियों के लिए भी सतर्कता बरतना जरूरी है। उन्हें किसी भी अपरिचित से कभी लिफ्ट नहीं लेनी चाहिए। बलात्कार की घटनाएें किसी सबक से कम नहीं हैं। अगर अब नहीं जागे तो फिर कब जागेंगे?

Thursday, December 15, 2016

कुछ तो सोचा होता...

जेल में बंद नेताजी की तस्वीर देखी। सफेद दाढी और उतरा हुआ चेहरा। यही नेताजी जब आजाद थे तो उनके चेहरे की रौनक देखते बनती थी। सत्तर साल की उम्र में भी उनके सिर के काले बालों को देखकर लगता था कि वे अपने चेहरे-मोहरे के प्रति कितने सजग रहते हैं। खुद को दलितों और शोषितों का नेता घोषित करने वाले इस शख्स ने कम समय में नाम भी पाया और कुख्याति भी बटोरी। जिधर दम, उधर हम की नीति पर चलने वाले नेताजी की सत्ता परिवर्तन के बाद ऐसी दुर्गति होगी इसकी तो किसी ने कल्पना ही नहीं की थी। उनके विरोधी भी मानते थे कि इस भुजबली का सूरज कभी भी अस्त नहीं होगा। नेताजी महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री भी रह चुके हैं। सत्ता का सुख भोगने और माया हथियाने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी। अपने घर-परिवार के सभी सदस्यों को कुछ ही वर्षों में खाकपति से अरबपति बनाने वाले इस धुरंधर ने अपने उन साथियों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जिन्होंने उनका हर मौके पर साथ दिया। जब उन्होंने शिवसेना छोडी और राष्ट्रवादी कांग्रेस का दामन थामा तो कई शिवसैनिक उनके साथ हो लिए। उनके ऐसे सभी साथी आज आर्थिक बुलंदी पर विराजमान हैं। लेकिन जैसे ही नेताजी के बुरे दिन आए सभी ने मुंह फेर लिया। उनको जेल में भेजे जाने के बाद सभी ने ऐसी चुप्पी साध ली जैसे कि वे नेताजी को जानते ही न हों। भारतीय राजनीति में अक्सर ऐसा ही होता आया है। उगते सूरज को सभी सलाम करते हैं। महाराष्ट्र के इस स्वयंभू दलित नेता का जो हश्र हुआ उससे कितनों ने शिक्षा ली इस बारे में बता पाना मुश्किल है। राजनीति और भ्रष्टाचार के बाज़ार में एक कहावत प्रचलित है कि जो पक‹डा गया... वह चोर... बाकी सभी ईमानदार और साहूकार। अपने देश का यह इतिहास रहा है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद सौ में से नब्बे नेता बेइमान हो ही जाते हैं। लालच उन्हें अपनी गिरफ्त में ले ही लेता है। भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार करते चले जाते हैं। यह भी सच है कि सभी बेईमान, रिश्वतखोर नेता पकड में नहीं आते। नेताजी को इसी बात का गम है। अकेले उन पर ही गाज क्यों गिरी! उन्हीं की पार्टी में सत्ता की मलाई खाने वाले और भी कई बदनाम चेहरे थे, लेकिन उन पर आंच भी नहीं आयी। उनकी पार्टी के दिग्गजों ने भी उनका साथ नहीं दिया। बडी बेदर्दी से मुंह फेर लिया। कार्यकर्ताओं ने भी ज्यादा शोर-शराबा नहीं मचाया। हां कुछ कार्यकर्ताओं ने सरकार पर यह आरोप जरूर लगाया कि दलितों के मसीहा को जबरन फंसाया गया। आज के जमाने में कमाता कौन नहीं। राजनीति भी तो एक धंधा है। सितारा चमकने के बाद भी यदि फक्कड के फक्कड रह जाएं तो राजनीति में आने का मतलब ही क्या...?
नेताजी का जब सितारा बुलंदी पर था तब वे सिर्फ चाटूकारों से ही घिरे रहते थे। दलितों और शोषितों के हित में उन्होंने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जिसका डंके की चोट पर उल्लेख किया जा सके। वे तो बस बेखौफ माल बनाने में ही व्यस्त रहे। उन्हें यकीन था कि वे राजनीति के अजेय यौद्धा हैं। किसी में इतना दमखम नहीं जो उन्हें परास्त कर सके। यही अहंकार आखिरकार उन्हें ले डूबा। आय से अधिक अथाह सम्पत्ति बनाने के खेल में धरे गए। वैसे काली कमायी के मामले में अम्मा यानी जयललिता भी पीछे नहीं थीं। फिर भी उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि प्रदेश की जनता उन्हें अपने करीब पाती थी। दरअसल, जयललिता ने लोगों के दिलों पर राज किया। जयललिता ने नेताजी की तरह धन को ही सर्वोपरि नहीं माना। उन्होंने गरीबों का पूरा-पूरा ख्याल रखा। उन्हें मुफ्त भोजन की सुविधाएं उपलब्ध करवायीं। सरकारी अस्पतालों में गरीबों का निशुल्क इलाज और बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा मुहैय्या करवाकर तामिलनाडु के जन-जन की प्रिय नेता बन गयीं। उनके नहीं रहने पर प्रदेश के असंख्य लोग खुद को असहाय समझने लगे। अथाह दु:ख के सागर में डूब गए। लगभग पांच सौ लोगों ने आत्महत्या कर ली। भारत वर्ष में किसी नेता के प्रति इतना समर्पण और आत्मीयता कभी नहीं देखी गयी।
अपने यहां उन भ्रष्टाचारी नेताओं को भी बर्दाश्त कर लिया जाता है जो ईमानदारी से जनसेवा करते हैं। लेकिन वो महाभ्रष्ट जनता को चुभने लगते हैं जो सिर्फ अपना घर भरने का काम करते हैं। भारतवर्ष के अधिकांश राजनीतिक दल भी भ्रष्टाचार के जन्मदाता हैं। बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती के बारे में तो यही कहा और माना जाता है कि बहनजी उन्हीं धनवानों को चुनावी टिकट देती हैं जो उन्हें मोटी थैलियां थमाते हैं। पार्टी फंड के नाम पर भी विभिन्न दलों के द्वारा जमकर वसूली की जाती है। २००५ से २०१३ के बीच भाजपा, कांग्रेस, बसपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस, सीपीआई और सीपीएम ने ६००० हजार करोड के लगभग चंदा बटोरा। इस चंदे को देने वाले अधिकांश लोगों के अते-पते नदारद थे। राजनीति दलों को अपना काला धन सफेद करने में कभी भी दिक्कत का सामना नहीं करना पडता। आयकर कानून उनपर मेहरबान रहता है। यह कितनी हैरानी की बात है कि जो दल देश और प्रदेश चलाते हैं उन्हें २० हजार रुपये से कम मिलने वाले चंदे की राशि का स्त्रोत यानी दानदाता का नाम ही नहीं बताना पडता। अपने देश में चुनाव कैसे लडे जाते हैं इसका भी सभी को पता है। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में काले धन की बरसात कर दी जाती है। ऐसे नाममात्र के प्रत्याशी होते हैं जो चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित राशि खर्च करते हैं। अब तो स्थानीय निकाय के चुनावों में भी अंधाधुंध खर्च किया जाने लगा है। खर्च की सीमा २ लाख रुपये तय होने के बावजूद २५ से पचास लाख रुपये फूंक दिया जाना तो आम हो चुका है। राजनेता और विभिन्न दल लोगों के जीवन में सुधार लाने के कितने इच्छुक हैं इसकी खबर, समझ और जानकारी तो हर देशवासी को है। वह अंधा नहीं है। उसे स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि जिसे भी लूट का मौका मिलता है वह बेखौफ अपनी मनमानी कर गुजरता है। सरकार की किसी भी नयी योजना का बंटाढार करने के लिए भ्रष्टाचारी हमेशा कमर कसे रहते हैं। नोटबंदी के बाद कई सफेदपोश नकाब हो गये। यहां तक की इस अभियान को पलीता लगाने में कई बैंक वाले भी पीछे नहीं रहे। गुजरात और महाराष्ट्र के कई सहकारी बैंकों में करोडों रुपये के काले धन को सफेद किया गया। यह भ्रष्टाचार का ही कमाल है कि नोटबंदी के बाद आम आदमी एक-एक नोट के लिए परेशान होता रहा वहीं काले धन को सफेद करने के खिलाडी नये नोटों की गड्डियों और बंडलों से खेलते देखे गए। बडे-बडे बैंक अधिकारियों ने ही काले धन को सफेद करने के लिए भ्रष्टाचारियों का पूरा-पूरा साथ देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। करोडों रुपयों के नोट अवैध रूप से बदलवाने के आरोप में आरबीआई के एक अधिकारी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि लगभग नब्बे प्रतिशत बैंक कर्मी और अफसर पूरी ईमानदारी से दिन-रात काम करते रहे। कुछ की काम करते-करते मौत भी हो गयी। लेकिन पांच-दस प्रतिशत भ्रष्टों ने पूरा खेल बिगाड दिया। नोटबंदी के घपले में २०० से अधिक बैंक कर्मियों-अफसरों को निलंबित किया गया। तीस के आसपास की गिरफ्तार भी हुई। २०१६ के दिसंबर महीने में हिन्दुस्तान के पूर्व वायु सेना प्रमुख ए.पी.त्यागी की गिरफ्तारी ने तो पूरे देश को चौंका दिया। भारत के इतिहास में यह पहली घटना है जब सेना प्रमुख रहे किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया है। यह सवाल कलमकार को सतत परेशान करता है कि उच्च शिखर पर विराजमान महानुभाव ऐसे भ्रष्टाचार को कैसे अंजाम दे देते हैं जो राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में भी आता है। किसी विद्वान ने कहा है कि, जिस देश के शासक पूरी तरह से ईमानदार नहीं होते वहां भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को पहचानना मुश्किल होता चला जाता है। भ्रष्ट नेताओं की लीक पर चलने वाले तमाम भ्रष्टाचारी यह भी जानते हैं कि पक‹ड में आने के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगडने वाला। नेताजी की तरह उन्हें भी जेल में कम और आलीशान निजी अस्पताल में ज्यादा से ज्यादा रहने से कोई नहीं रोक सकता। किसी भी बडी बीमारी का बहाना बनाओ और जेल जाने की बजाय अस्पताल के बिस्तर पर आराम से लेटे रहो। मिलने-मिलाने के लिए आने वालों की भीड यही आभास देगी कि किसी फाइव स्टार होटल में छुट्टियां मना रहे हैं।

Thursday, December 8, 2016

इन्हें कौन सुधारे?

अचलपुर तहसील के येलीकापूर्णा मठ के मठाधिपति संत बालयोगी महाराज का नाम भले ही ज्यादा जाना-पहचाना न हो लेकिन उनके श्रद्धालुओं की संख्या अच्छी खासी है। ब्रह्मचारी की महान उपाधि से विभूषित महाराज के भक्त उन्हें भगवान मानते हैं। उनकी फोटो की पूजा करते हैं। लगभग एक हजार की जनसंख्या वाले येलकीपूर्णा गांव के किनारे महाराज का मठ है। उनके सभी भक्त यही समझते थे कि उनके आराध्य तलघर में ध्यान साधना में तल्लीन रहते हैं। लेकिन जैसे ही इस खबर का धमाका हुआ कि ब्रह्मचारी महाराज तो तलघर में रास लीला करते हैं तो सभी हतप्रभ रह गए। उन्होंने तलघर में छिपे कैमरे लगा कर रखे थे। इन्हीं कैमरों के जरिए यह शर्मनाक सच सामने आया कि जिनकी तस्वीर को घर-घर में पूजा जाता है वह साधु ईश्वर की आराधना की बजाय नारी की देह की साधना करता है। वह संत नहीं शैतान है। घोर भोगी और विलासी है। उनके देहपिपासु होने के सबूत के तौर पर नौ महिलाओं ने अपना दुखडा सुनाया और छह वीडियो फुटेज पुलिस को सोंपे गए जिनमें महाराज युवतियों के साथ बेखौफ वासना-साधना में लिप्त नजर आए।
सारा विश्व जानता है कि हिंदुस्तान धर्म की बहुत बडी मंडी है। इस मंडी में कुछ साधु- संत ऐसे हैं जो निष्कंलक हैं। धर्म के उपासक और मानवता के सच्चे पुजारी। उनसे मिलने और सुनने में आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। लेकिन बीते कुछ वर्षों से जिस तरह से कुछ साधुओं, बाबाओं, बापुओं, आचार्यों और प्रवचनकारों का नंगा सच उजागर होता चला आ रहा है उससे लोगों की आस्था तार-तार हुई है। इस श्रृंखला में सबसे पहले एक नाम आता है प्रवचनकार आसाराम बापू का, जिसने २०१२ में दिल्ली हुए सामूहिक बलात्कार के बाद यह प्रतिक्रिया दी थी कि जितने दोषी बलात्कारी हैं उतनी ही दोषी बलात्कार का शिकार हुई युवती भी है। अगर वह भगवान का नाम लेकर आरोपियों में से एक-दो का हाथ पकडकर उन्हें भाई कहकर संबोधित करती और उनके सामने गिडगिडाती तो उसकी इज्जत और जान बच सकती थी। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। इसलिए बलात्कारियों के लिए मौत का सजा का कानून नहीं बनना चाहिए। ऐसा निर्लज्ज बयान कोई सजग नागरिक तो नहीं दे सकता। कानून को तोडने और उसके भय से इधर-उधर भागने वाले अपराधी ही ऐसी शब्दावली उगल सकते हैं। आसाराम भी प्रवचनकार के चोले में दरअसल एक दुराचारी ही था। इसलिए तो उसने बलात्कारियों के प्रति सहानुभूति दर्शायी और बलात्कार का शिकार होने वाली युवतियों को भी बराबर का दोषी ठहराया।  इसी आसाराम को जब एक नाबालिग कन्या के साथ दुराचार करने के आरोप में जेल की  सलाखों के पीछे भेजा गया तो अधिकांश प्रबुद्ध जनों को हैरानी नहीं हुई। विचार ही इंसान की पहचान होते हैं। उसके चरित्र का दर्पण होते हैं। ऐसे गंदी सोच वाले प्रवचनकार का जब पर्दाफाश हुआ तो उसके लाखों अंधभक्त ठगे के ठगे रह गए। यह उसकी खुशकिस्मती थी कि उसका सिक्का वर्षों तक चलता रहा। उसके लाखों भक्त उसे भगवान से कम नहीं मानते थे। यह तो अच्छा हुआ कि उसका भांडा फूट गया, नहीं तो एक व्याभिचारी की तस्वीर की पूजा जारी रहती और उसका अनुसरण करने वाले भी बेखौफ दुराचार करने से नहीं कतराते। भक्तों की आस्था की धज्जियां उडाने वाले बाबाओं की कतार बहुत लम्बी है। कुछ बाबाओं ने तो शैतानों को भी मात देने का काम किया है। मालेगांव धमाकों के मास्टरमाइंड तथाकथित संत दयानंद पांडे ने भगवा वस्त्र धारण कर न जाने कितने दुष्कर्म किए। जब वह पकड में आया तो उसके लैपटाप ने जो सच उगले उससे खाकी वर्दीधारी भी अचंभित रह गए। उसे खुद याद नहीं था कि उसने कितनी महिलाभक्तों की अस्मत लूटी। उसका यह भी कहना था कि उसने कभी किसी के साथ जोर जबरदस्ती नहीं की। महिलाएं उसके प्रभावी व्यक्तित्व से आकर्षित होकर खुद-ब-खुद समर्पण कर देती थीं। साधु के भेष में शैतानी का तांडव करने वाले दयानंद पांडे में तनिक भी मानवता नहीं बची थी। उसने यह कबूल कर  अपने अंदर के हैवान का पर्दाफाश कर दिया कि वह तो ज्यादातर उन विधवाओं का देह शोषण करता था जिनका कोई सहारा नहीं होता था। वे सांत्वना और आश्रय के लिए उसके पास आती थीं और वह उनसे शारीरिक रिश्ते बनाने के जोड-जुगाड में लग जाता था। असंख्य महिलाओं की जिन्दगी बरबाद करने वाले इस शैतान ने अपने बेडरुम में हिडन कैमरे लगा रखे थे। महिला भक्तों के साथ अश्लील फिल्में बनाने की उसे लत लग चुकी थी। इसी तरह से जबलपुर का एक बाबा था विकासानंद। उसकी हर रात महिला भक्तों के साथ रंग रेलियां मनाने में बीतती थी। दिन में बाबागिरी और रात में भोग विलास की सभी सीमाएं लांघने वाला यह धूर्त यह दावा करता था कि वह भगवान और इंसान के बीच सशक्त माध्यम की भूमिका निभाता है। नीली छतरी वाले से उसके काफी  करीबी रिश्ते हैं। वह युवतियों के साथ झूला झूलते और स्विमिंग पूल में डुबकियां लगाते-लगाते भगवान से मिलाने के बहाने संत और भक्त के बीच के पवित्र रिश्ते को कलंकित कर प्रफुल्लित होता था।
देश की राजधानी दिल्ली में एक आधुनिक लिबासधारी बाबा कुछ वर्ष पूर्व पकड में आया था। उसकी इच्छाएं अनंत थीं। लोग उसे इच्छाधारी के नाम से जानते-पहचानते थे। कहने को तो वह संत था लेकिन असल में यह  कालगर्ल्स  सप्लायर था। कई वेश्याएं उसके संपर्क में रहती थीं। जब पुलिस का छापा पडा तो उसके आश्रम से कई डायरियां बरामद हुई थी जिनमें उसके नामी-गिरामी ग्राहकों के नाम दर्ज थे। कई राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों का उसके यहां आना-जाना था। वह दिन में भगवा वस्त्र धारण कर प्रवचन देता, रात को टी-शर्ट और जींस पैंट धारण कर अपने अनैतिक कारोबार में लिप्त हो जाता था।

Thursday, December 1, 2016

डायरी का पन्ना

पिता के द्वारा बेटी के साथ बर्बरता और दुराचार की हर खबर व्यथित कर देती है। आज तो हद ही हो गई। एक ही दिन में मानवता को कलंकित करती कई खबरों से रूबरू होना पडा। मन विचलित हो गया। नोएडा के नामी स्कूल में पढने वाली एक छात्रा ने अपने प्रधानाचार्य को रोते हुए बताया कि उसके पिता बीते दो साल से उसके साथ दुष्कर्म करते चले आ रहे हैं। उसकी मां की मौत हो चुकी है। उसके विरोध का पिता पर कोई असर नहीं होता। वे रोज रात को शराब के नशे में धुत होकर आते हैं और हर मर्यादा भूल जाते हैं। एक बेटी के द्वारा उजागर किये इस शर्मनाक सच ने प्रधानाचार्य के पैरों तले की जमीन खिसका दी। उन्होंने तुरंत पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवायी और वासना के गुलाम पिता को गिरफ्तार कर लिया गया। पानीपत में एक १७ वर्षीय बेटी ने अपने पिता के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी कि उसके पिता पिछले डेढ साल से उसका तथा उसकी छोटी बहन का यौन शोषण करता चला आ रहा है। छोटी बहन की उम्र मात्र बारह वर्ष है। मेडिकल रिपोर्ट में दोनों बहनों के साथ बलात्कार किये जाने की पुष्टि हुई। राजधानी दिल्ली में अपनी बारह वर्षीय बेटी पर बलात्कार का कहर ढाने वाले एक शैतान पिता को गिरफ्तार किया गया है। पिता शराबी है और मां दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा कर परिवार चलाती है। वह एक शाम को जब घर लौटी तो बेटी का रो-रो कर बुरा हाल था। उसने मां को पिता की दरिंदगी के बारे में बताया। मां ने अपने भाई को खबर दी और दोनों ने यही निर्णय लिया कि ऐसे अधर्मी पिता को हर हालत में सज़ा दिलवायी ही जानी चाहिए। नागपुर में भी एक वहशी पिता ने अपनी मनमानी कर पिता के नाम को कलंकित कर दिया। ५६ वर्षीय रामू नामक पिता की दो पुत्रियां और एक पुत्र है। वह अक्खड शराबी है। पत्नी और बच्चों की हाडतोड मेहनत की बदौलत घर चलता है। छह महीने पूर्व रामू की १६ वर्षीय भतीजी उसके यहां रहने के लिए आई थी। उसके माता-पिता का देहांत हो चुका है। किशोरी छठवीं तक पढी है। गांव में छिछोरे किस्म के लडके छेडछाड करते थे इसलिए वह भयभीत रहती थी। उसे बेहद असुरक्षा का अहसास होता था। इसलिए वह अपने बडे पिता के यहां रहने के लिए आ गई। एक दिन जब पत्नी और बच्चे कहीं बाहर गए हुए थे तब रामू ने उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला। किशोरी ने जब अपनी चाची और सौतेली बहनों को अपने साथ हुए दुष्कर्म की जानकारी दी तो उन्होंने उसे परिवार की इज्जत की खातिर मुंह बंद रखने की नसीहत दे डाली। रामू का हौसला बुलंद हो गया। उसने फिर से नीच हरकत को अंजाम देने की कोशिश की तो किशोरी सीधे थाने पहुंच गयी और वहां पर मौजूद पुलिस अधिकारियों को वह सब कुछ बता दिया जिसे घर वाले छुपा कर अपनी इज्जत बचाये रखना चाहते थे। संतरानगरी नागपुर में ही एक पिता ने अपनी १४ वर्षीय बेटी के साथ दुष्कर्म का प्रयास किया तो बेटी ने उसका मुंह नोंच लिया। यह लडकी सातवीं कक्षा में अध्यन्नरत है। पिता की उम्र है ५६ वर्ष। एक दिन अकेले में पिता की अपनी बेटी पर ही नीयत खराब हो गई और उसने उसे निर्वस्त्र कर डाला। बेटी ने बचाव के लिए शोर मचाया, लेकिन कोई बचाने के लिए नहीं आया। आखिरकार बेटी ने शैतान पिता के चंगुल से बचने के लिए हाथ-पैर चलाने शुरू कर दिये। नाखूनों से उसका मुंह नोंचने के बाद वहां से भागते हुए वह पुलिस की शरण में पहुंच गयी। तब उसके शरीर पर एकमात्र तौलिया लिपटा हुआ था। बेटियों को बचाने के लिए एक ओर केंद्र और प्रदेश की सरकारें अभियान चला रही हैं वहीं दूसरी ओर कुछ लोग अपनी ही बेटियों के शत्रु बने हुए हैं। इस इक्कीसवीं सदी में भी बेटी होने की सज़ा महिलाओं और नवजात बच्चियों को दी जा रही है। दिल्ली के तिमारपुर में रहने वाले एक शख्स ने अपनी पहली बेटी को अल्ट्रासाउंड से जांच कराकर गर्भ में ही मार डाला। दूसरी बेटी पैदा हुई तो पत्नी का जीना हराम कर दिया। पत्नी ने बेटी को जन्म दिया इसलिए उसने अपने ससुर पर २० लाख का प्लाट देने का दबाव बनाया। जब ससुर ने असमर्थता जतायी तो जालिम और लालची पिता ने सारा का सारा गुस्सा अपनी नवजात पर उतारते हुए उसे जमीन पर पटक दिया। नरपशु का इतने में से भी दिल नहीं भरा। उसने अपने मां-बाप के साथ मिलकर पत्नी को जबरदस्ती जहर पिला दिया।
समझदार, संवेदनशील और परिपक्व माता-पिता सदैव अपनी संतान का भला चाहते हैं। उन्हें लगनी वाली छोटी-सी खरोंच उन्हें बेहद पीडा देती है। बच्चों की शरारतें उनमें नयी ऊर्जा का संचार करती हैं। वे अपने आंखों के सामने बच्चों को बडा होता देखना चाहते हैं। हर बेटी अपने पिता को अपना रक्षक मानती है। पिता की छत्रछाया में उसे अपार सुरक्षा की अनुभूति होती है। दुनिया की हर बेटी को यकीन होता है कि पिता के होते दुनिया की कोई काली छाया उसे छू तक नहीं सकती। बेटियां भी बेटों से कमतर नहीं हैं इसका जीता-जागता उदाहरण नागपुर की एक सडक पर देखने को मिला। छोटी उम्र में बडा काम उसका नाम है पारो। उम्र है महज दस वर्ष, लेकिन खेलने कूदने की उम्र में छह मीटर की ऊंचाई पर लटकी रस्सी पर चलकर जब वह हैरतअंगेज करतब दिखाती है तो देखने वालों के दिल की धडकन बढ जाती है। यकीनन यह हैरतअंगेज करतब दिखाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। लेकिन फिर भी यह बच्ची दिन में कई बार जान हथेली पर रखकर तमाशा दिखाती है और अपने पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाती है। तमाशा दिखाने से पहले सडक पर दोनों तरफ मोटी लकडी के सहारे रस्सी बांधी जाती है। करीब चार मीटर लम्बी व आठ-दस फीट ऊंची इस रस्सी पर पारो बडे सधे पांव से चलती है। तमाशे को और रोमांचक बनाने के लिए वह साइकिल रिंग रखकर पानी भरा लौटा सिर पर रखती है इसके बाद वह जब रस्सी पर चलती है तो देखने वाले स्तब्ध रह जाते हैं और तालियां गूंजने लगती हैं। पारो के पिता को ब्लड कैंसर है। अपनी इस बीमारी का उन्हें साल भर पहले पता चला। पहले वे ही रस्सी पर करतब दिखाते थे। जब उनकी तबीयत ज्यादा बिगडने लगी तो उन्होंने पारो को यह हुनर सिखाया। पिता जानते हैं कि वे कुछ ही दिन के मेहमान हैं। बेटी अपने पिता को स्वस्थ देखना चाहती है, इसलिए बिना थके दिन भर रस्सी पर चलकर इतना कमा लेना चाहती है, जिससे पिता की बीमारी का इलाज भी होता रहे और माता-पिता को दूसरों का मुंह न ताकना पडे। बेटियों को दुनिया में आने से रोकने और उनके साथ दुराचार करने वाले पिताओं की शर्मनाक खबरें वाकई चिन्ता में डाल देती हैं। ऐसे वहशियों के कारण ही पिता की श्रद्धेय छवि कलंकित हो रही है। पिता के अस्तित्व, कर्तव्य और अहमियत की जीवंत तस्वीर पेश करती अज्ञात कवि की यह पंक्तियां यकीनन काबिलेगौर हैं :
"पिता रोटी है
कपडा है, मकान है,
पिता नन्हे से परिंदे का आसमान है।
पिता है तो घर में प्रतिपल राग है,
पिता से मां की चूडी,
बिंदी सुहाग है,
पिता है तो
बच्चों के सारे सपने हैं
पिता है तो... बाजार के
सारे खिलौने अपने हैं...।"