Thursday, May 31, 2012

भेडि‍यों को पहचानो

वो भी एक दौर था जब शिक्षा के क्षेत्र में विद्वानों और चरित्रवानों की उपस्थिति को नितांत आवश्यक समझा जाता था। आज तो हालात यह हैं कि लम्पट किस्म के लोग भी इस क्षेत्र में घुसपैठ कर चुके हैं। नेताओं और उद्योगपतियों ने कालेजों और स्कूलों को दूकानों में तब्दील करके रख दिया है। ऐसे में पढाने वाले सेल्समैन की भूमिका में हैं और सेल्समैन का मालिक के फायदे के लिए काम करना जरूरी होता है। नहीं तो उसका पत्ता कटने में देरी नहीं लगती। मालिक को भी हमेशा ऐसे सेल्समैन की तलाश रहती है जो उसकी कमायी में भरपूर योगदान दे। उसे उनके चरित्र से कोई लेना-देना नहीं होता। नेताओं के मेडिकल और इंजिनियरिंग कालेजों में लाखों की वसूली की जाती है। उस काम को अंजाम देने में चाटूकार किस्म के प्रोफेसर और प्राचार्य खासी भूमिका निभाते हुए वर्षों तक टिके रहते हैं। धन वसूलने की उनकी यह भूमिका जगजाहिर हो चुकी है। लोगों ने इसे मजबूरीवश स्वीकार भी कर लिया है। पर अब तो कई स्कूल और कालेज अय्याशी के अड्डे भी बन चुके हैं। जहां पर छात्राओं की इज्जत पर खुलेआम डाका डाला जा रहा है। भोली-भाली छात्राओं की मासूमियत के साथ जिस तरह से छेडछाड की जा रही है उससे यह भय भी सताने लगा है कि शिक्षा का क्षेत्र कहीं चरित्रहीनों और निर्लज्जों का अखाडा न बनकर रह जाए।
पंजाब देश का एक ऐसा प्रदेश है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां महिलाओं को भरपूर इज्जत बख्शी जाती है। मां, बहनों और बेटियों पर बुरी नजर डालने वालों का कचूमर निकाल कर रख दिया जाता है। इसी पंजाब के मनासा जिले में स्थित गल्र्स हाईस्कूल के अय्याश प्रिं‍सिपल की बीते सप्ताह ऐसी धुनाई की गयी कि उसकी आने वाली पीढि‍यां भी नहीं भूल पायेंगी। यह प्रिं‍सिपल छात्राओं को पढाना-लिखाना छोड अश्लील फिल्मों में डूबा रहता था। क्लास रूम में मोबाइल फोन पर छात्राओं के सामने नंगी फिल्में देखने में उसे बडा मजा आता था। अगर उसकी नीयत में खोट नहीं होती तो वह इस दुष्कर्म को एकांत में भी अंजाम दे सकता था। पर उसकी मंशा ही यही होती कि अश्लील फिल्म देखकर छात्राओं की भावनाएं भडकें और शारीरिक संबंध बनाने के लिए उतावली हो जाएं। वासना की अंधी गलियों में भटकते प्रिं‍सिपल की हरकतों का छात्राओं ने कई बार विरोध किया। आधुनिक शिक्षण क्षेत्र का यह महर्षि सुधरने की बजाय छात्राओं पर भद्दी टिप्पणीयां करते हुए देख लेने की धमकियां देने लगा। आखिरकार छात्राओं को अहसास हो गया कि इसका सुधरने का इरादा नहीं है। ऐसे में अगर कुछ नहीं किया गया तो बात और बिगड सकती है। अंतत: सजग छात्राओं ने अपने अभिभावकों को उसकी निर्लज्ज करतूतों से अवगत करा दिया। अभिभावक आग बबूला हो उठे। उन्होंने प्रिं‍सिपल को क्लास रूम में ही रंगे हाथ पकडा और जूते-चप्पलों, घूसों और थप्पडों की बरसात करने के बाद पुलिस के हवाले करने में कतई देरी नहीं लगायी। जेल की सलाखों के पीछे पहुंचने के बाद यह वासना का पुजारी सुधरेगा या नहीं यह तो बाद की बात है, लेकिन इससे उन पथभ्रष्टों को जरूर सबक मिलेगा जो नैतिकता और मर्यादा की बलि चढकर दूसरों की बेटियों की इज्जत पर दाग लगाने की फिराक में रहते हैं।
पंजाब से लगा हरियाणा प्रदेश भी वासनाखोरों से अछूता नहीं है। यहां भी स्कूलों और कालेजों में लडकियां महफूज नहीं हैं। सोनीपत जिले के खानपुर गांव में भगत फूलसिं‍ह महिला विश्वविद्यालय में दिनदहाडे एक छात्रा पर बलात्कार किया गया। यह कुकर्म करने वाले और कोई नहीं बल्कि हॉस्टल के संचालक और उसके दो साथी हैं। बलात्कार की शिकार छात्रा इतनी आहत और विचलित हो गयी कि उसकी रूलायी थमने का नाम नहीं ले रही थी। सहेलियों के लगातार पूछने पर उसने आपबीती बतायी तो वे भी सन्न रह गयीं। उनका खून खौल उठा और वे फौरन हॉस्टल के वार्डेन के पास जा पहुंची। वार्डेन ने शिकायत को इस अंदाज से सुना कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। वे उपदेश झाडने लगे। उनका कहना था घर की बात घर में ही रहनी चाहिए। बाहर जाने से सभी की बदनामी होती है। समझदारी इसी में है कि छोटी-छोटी बातों को मुद्दा न बनाया जाए। जो होना था, वह हो गया। अब उसे भूल जाना उस लडकी के हित में है जिसका यौन शोषण हुआ है। आखिर उसे शादी भी करनी है। अगर बदनामी हो गयी तो कौन शरीफ आदमी उससे ब्याह रचायेगा? वार्डेन के रवैय्ये से खफा छात्राएं विश्व विद्यालय के रजिस्ट्रार तथा कुलपति के पास गई तो उन्होंने भी चुप्पी साध लेने की अमूल्य सलाह दे डाली। कुलपति महोदय को चिं‍ता सता रही थी कि अगर यह बात बाहर चली गयी तो विश्वविद्यालय की बेहद बदनामी होगी। उन्हें छात्रा की इज्जत के लुट जाने का कोई मलाल नहीं था। इसी विश्वविद्यालय में तीन माह के भीतर तीन छात्राओं को आत्महत्या करने के लिए क्यों विवश होना पडा इस पर अभी तक रहस्य का पर्दा पडा हुआ है। प्रशासन 'बलात्कार' की भनक भी किसी को पडने देना नहीं चाहता था। बलात्कारियों के हिमायती नजर आने वाले कुलपति की सीख को नजर अंदाज कर छात्राओं ने आखिर वो कर दिखाया जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। दो हजार से अधिक छात्राएं सडक पर उतरीं और विश्वविद्यालय के ऊंचे ओहदों पर बैठे भेडि‍यों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग पर अड गयीं। उनके तीखे नारों ने लोगों की आंखें खोल दीं। वार्डेन, रजिस्ट्रार और कुलपति जैसों के चेहरों पर जितना भी थूका जाए कम है। पर क्या विश्वविद्यालय प्रशासन की कमीनगी का पर्दाफाश करने के लिए सडकों पर उतरने वाली लडकियों को शाबाशी देने के साथ-साथ नमन नहीं किया जाना चाहिए?

Thursday, May 24, 2012

नादान नहीं है जनता

आसमान पर उडने वालों को एक न एक दिन जमीन पर आना ही पडता है। शासकों को पता नहीं कौन इस भ्रम में डाल देता है कि उनका सितारा कभी नहीं डूब सकता। जो राजनेता लोकतंत्र और वोटरों के मिज़ाज़ की सच्चाई को नजरअंदाज नहीं करते उन्हें सत्ता में होने या न होने से कोई फर्क नहीं पडता। उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री बहन मायावती के दरबारियों ने उनको हमेशा अंधेरे में रखा। बहन जी भी उजाले यानी हकीकत से परहेज करने लगी थीं। कहते हैं कि उनके पास प्रजा की फरियाद सुनने के लिए वक्त ही नहीं रहता था। कहां और किस जगह किस-किस की मूर्तियां स्थापित करनी हैं और अमरत्व को पाना है इसी जद्दोजहद में उन्होंने अपना कीमती वक्त गंवा दिया। उन्हें याद ही नहीं रहा कि हाड-मांस के जीते-जागते पुतलों ने उन्हें सत्ता किस लिए सौंपी है। वे मगरूर होती चली गयीं और जनता से भी दूर हो गयीं। आखिरकार जनता ने उन्हें सबक सिखा ही दिया। सत्ता खोने के बाद बहन जी के होश ठिकाने आ गये। उन्हें उन मीडिया वालों की भी याद हो आयी जिन्हें अपने मुख्यमंत्रित्व काल में वे अक्सर दुत्कारा और फटकारा करती थीं और उनसे दूरी बनाये रखने में अपनी भलाई समझती थीं। एक पुरातन कहावत है चोर की दाढी में तिनका। इस कहावत की सार्थकता आज भी बरकरार है।
मायावती को मीडिया के समक्ष उपस्थित होने के लिए कोई ठोस मुद्दा और कारण नहीं सूझ रहा था। उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह से मात खाने के बाद भी उन्हें यही लगता है कि वे इस पराजय की हकदार नहीं थीं। उनके साथ घोर धोखा और अन्याय हुआ है। उनके शत्रु आज भी उनके पीछे लगे हैं। राजनेता अपना भाषण खुद लिखते हैं या दूसरों से लिखवाते हैं इस बाबत कभी कोई सवाल-जवाब नहीं किये जाते। पत्रकार भी जानते-समझते हैं कि यह जमात दूसरों की कलम और दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल करती है। ऐसे बिरले ही हैं जो मौलिक सोच रखते हों और लिखने और पढने में पारंगत हों।
जब मायावती यूपी की मुख्यमंत्री थीं तब यह कहा जाता था कि बसपा की सरकार को शशांक शेखर, पीएल पुनिया और सतीशचंद्र मिश्रा जैसे लोग चला रहे हैं। बहनजी तो सिर्फ सत्ता सुख भोगते हुए आराम फरमाती रहती हैं। तब तो उन्होंने चुप्पी साधी हुई थी पर अब जब वे सत्ता में नहीं हैं कि तो उन्होंने फरमाया है कि कोई दूसरा नहीं बल्कि मैं पूरे होशो हवास के साथ खुद अपनी सरकार चला रही थी। तब भी अपना भाषण मैं खुद लिखती थी और आज भी सतीशचंद्र मिश्रा और दारासिं‍ह चौहान जैसे सांसद मेरा लिखा ही संसद में पढते हैं। यानी वे संसद में वही बोलते हैं जो बहनजी चाहती हैं।
मायावती यहीं ही नहीं रुकीं। उन्होंने यूपी की वर्तमान समाजवादी पार्टी की सरकार पर जमकर तीर चलाये। उनका कहना है कि सपा के कार्यकर्ता अपनी पहले वाली हरकतों को दोहरा रहे हैं। हफ्ता वसूली और अपहरण की घटनाएं बढ रही हैं। कारोबारी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। दलितों पर होने वाले अत्याचारों की कोई सीमा नहीं रही। हद तो यह कि थानों में रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जाती। पुलिस वालों के सामने अपराधी अपने वाहनों पर सपा के झंडे लगाकर बेखौफ घूमते हुए अपराधों को अंजाम देने में लगे हैं। राज्यसभा सदस्य बनने के बाद पहली बार संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करने वाली मायावती को यूपी रसातल में जाता नजर आ रहा है। दूसरी तरफ प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि मायावती ने प्रदेश की ऐसी दुर्गति करके रख दी है कि जिसे सुधारने में वक्त तो लगेगा ही। पंद्रह दिनों के भीतर कानून व्यवस्था में सुधार लाने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री यह भी बताने से नहीं चूकते कि पिछले कुछ वर्षों में गलत नीतियों एवं प्रशासनिक कर्मियों के कारण राज्य विकास के मामले में काफी पिछड गया है। प्रदेश के प्रति व्यक्ति की आय राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति की लगभग आधी है। उन्होंने अधिकारियों से कहा है कि हम सभी को मिलकर प्रदेश के विकास कर सकारात्मक आधार तैयार करना होगा ताकि लोगों को परिवर्तन की सुखद अनुभूति हो।
हमारा तो यही कहना है कि जिस जनता ने मायावती को सत्ता से बाहर किया है उसे अखिलेश यादव से बहुत उम्मीदें हैं। अगर वे खरे नहीं उतरे तो जनता युवा नेताओं पर भी भरोसा करना छोड देगी। सुनने में आ रहा है कि अधिकारियों और बाबुओं ने उनकी नाक में दम कर रखा है। प्रशासन में कई लोगों की दखलअंदाजी से भी उन्हें फैसले लेने में कठिनाई हो रही है। कहने को तो अखिलेश प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं पर पिता मुलायम सिं‍ह यादव के इशारों पर भी उन्हें नाचना ही पडता है। ऐसे में अखिलेश के भी बहनजी जैसे हाल न हो जाएं, सोच कर डर लगता है। हालांकि इससे उनका कुछ नहीं बिगडेगा। भुगतना तो उसी आम जनता को ही पडेगा जिसे नये 'राजा' से बहुतेरी उम्मीदें हैं।

Thursday, May 17, 2012

कुछ सडी हुई मछलियां

दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत की संसद के साठ वर्ष पूर्ण होने की खुशी में जश्न मनाया गया। साठ साल पूर्व १३ मई १९५२ को संसद के दोनों सदनों की गरिमामय शुरुआत हुई थी। देश के संसदीय लोकतंत्र के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर सभी पार्टियों के नेताओं ने अभूतपूर्व उत्साह का प्रदर्शन किया। लालूप्रसाद यादव जैसे नेता आक्रोष दिखाते नजर आये। उन्हें इस बात की पीडा थी कि कुछ लोग सांसदों के चरित्र पर उंगली उठाकर संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाते रहते हैं। लालू मार्का नेताओं को अब कौन समझाये कि वो भी एक जमाना था जब देश की संसद में पंडित जवाहरलाल नेहरु, आचार्य जे.बी. कृपलानी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे निष्कलंक राजनेता विराजमान रहा करते थे। उन पर निशाना साधने की शायद ही कोई जुर्रत कर पाता था। देश का हर नागरिक उन्हें सम्मान देता था। सम्मान आज भी मिलता है, पर सभी को नहीं। यह तो अच्छा है कि हिं‍दुस्तान में अभिव्यक्ति की आजादी है। नहीं तो लालू प्रसाद यादव, पप्पू यादव और शहाबुद्दीन जैसे भ्रष्ट्राचारी और बाहुबलि जिन्हें संसद भवन में पहुंचने का मौका मिलता रहा है अपने खिलाफ बोलने वालों की गर्दन ही दबोच डालते। कुछ बददिमाग नेताओं के सांसद बन जाने के कारण विधि बनाने वाली संस्था के लिए विधि निर्माण का काम गौण हो गया है। वर्तमान समस्याओं की अनदेखी कर उन विषयों पर समय नष्ट किया जाता है जिनसे आम आदमी को कोई फायदा नहीं होता। वर्षों पहले बनाये गये कार्टून में सांसद इस कदर उलझ कर रह जाते हैं कि जैसे देश के सामने और कोई समस्या बची ही न हो।
इस सच से कौन इंकार कर सकता है कि साठ वर्षों के दौरान संसद में अनेकानेक बदलाव आये हैं। अपवादों को छोड दें तो संसद और सांसदों का इतिहास यह विश्वास तो जगाता ही है कि इस देश की एकता को कोई भी खंडित नहीं कर सकता। पडोसी देश पाकिस्तान आजाद होने के बाद भी सही मायने में आजाद नहीं हो पाया। वहां पर लोकतंत्र को मजबूत जडें जमाने का अवसर अभी तक नहीं मिल पाया है। इस मामले में हम कितने खुशकिस्मत हैं, सारी दुनिया जानती भी है और स्वीकारती भी है। जो लोग सांसदों को कटघरे में खडे करते रहते हैं उनकी भी यह मंशा है कि ईमानदार लोग सांसद बन संसद भवन पहुंचे। उन्हीं की बदौलत ही देश की संसदीय प्रणाली मजबूत होगी और देश का सर्वांगीण विकास हो पायेगा। इस चिं‍ता और शिकायत को नकारा नहीं जा सकता कि वर्तमान में लोकसभा का चुनाव लडना हर किसी के बस की बात नहीं है। राष्ट्रभक्ति और ईमानदारी धन के सामने कमजोर पड जाती है और उन लोगों को भी सांसद बनने का मौका मिल जाता है जो संसद की गरिमा को बरकरार नहीं रख पाते। जिस राज्यसभा में विद्वानों, कलाकारों और राजनीति के धुरंधरों को पहुंचना चाहिए था वहां पर खनिज माफियाओं, शराब किं‍ग तथा तरह-तरह के अवैध धंधे करने वालों की उपस्थिति बढती चली जा रही है। यह भयावह तस्वीर उन्हें बेहद आहत करती है जो निरंतर देशहित में लगे रहते हैं।
साठ वर्ष के जश्न के अवसर पर संसद का एक अलग चेहरा नजर आया। नहीं तो होता यह है कि ज्यादातर समय शोर शराबे और एक दूसरे की टांग खिं‍चाई में निकल जाता है। भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवानी को जिस तल्लीनता और सम्मान के साथ सुना गया वह भी बेमिसाल था। यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पहली बार बडे इत्मीनान से भाषण देते हुए देखा गया। ऐसा कतई नहीं लग रहा था कि यह वही संसद है जहां कार्यकाही निरंतर बाधित होती रहती है और शोर शराबे और हंगामें का शर्मनाक सिलसिला बना रहता है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह ने याद दिलाया कि संसद के काम काज के घंटे घटते चले जा रहे हैं। यानी अधिकांश सांसद अपने दायित्व के प्रति गंभीर नहीं हैं। संसद का एक-एक मिनट कीमती होता है क्योंकि इस पर देश और दुनिया की निगाहें लगी रहती हैं और अच्छा खासा खर्चा होता है। सांसदो के द्वारा नोट लेकर प्रश्न पूछने का मामला सामने आने के बाद निश्चय ही संसद की गरिमा को चोट पहुंची थी। तब यह सवाल भी उठा था कि क्या यह वही संसद है जहां राम मनोहर लोहिया, जार्ज फर्नाडीस और चंद्रशेखर जैसी महान हस्तियां संसद को गौरवान्वित करते हुए आम आदमी की तकलीफों को निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ उठाती थीं। समाज सेवक अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे समाज सेवकों को देश की चिं‍ता हैं इसलिए वे सांसदो के आचरण को लेकर सवाल उठाते रहते हैं। कोई भी यह नहीं कहता कि सभी सांसद भ्रष्ट ओर निकम्मे हैं। कुछ सडी हुई मछलियों के कारण पूरे तालाब की कैसी दुर्गति हो जाती है इससे तो हर कोई वाकिफ है।

Thursday, May 10, 2012

आग जलनी चाहिए



विभिन्न सामाजिक मुद्दों को उठाने के लिए शुरू किये गये टीवी-शो'‘सत्यमेव जयते' की शुरुआत ही गजब की रही। इस शो में कन्या भ्रूण हत्या जैसे उस बेहद गंभीर मुद्दे को उठाया गया जिसे समय-समय पर देश के कई बुद्धिजीवी, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी उठाते रहे हैं। पर इस इकलौते शो ने तो कमाल ही कर डाला! जिस काम को अनेकों लोग वर्षों की मेहनत के बाद भी नहीं कर पाये उसे एक शो ने कुछ ही घंटों में कर दिखाया! इसे हम फिल्म अभिनेता आमिर खान के व्यक्तित्व के चमत्कार की सफलता भी मान सकते हैं। एक अकेले शख्स ने न जाने कितने लेखकों, पत्रकारों, नेताओं और तथाकथित समाजसेवकों को मात दे दी। कई लोगों को आपत्ति भी हो सकती है। पर जो सच है उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता। अपने देश के कुछ ऐसे प्रदेश हैं जहां कन्या भ्रूण हत्या पर लाख प्रयासों के बाद भी रोक नहीं लगायी जा सकी है। शहरों, कस्बों और ग्रामों में भ्रूण लिं‍ग परीक्षण की तो जैसे दूकानें ही खुल चुकी हैं। फौरन पता लगा लिया जाता है कि गर्भवती मां के पेट में लडका है या लडकी। लडकियों के दुश्मन ढेरों हैं इसलिए उनके भ्रूण को येन-केन-प्रकारेण नष्ट करने में देरी नहीं की जाती। लडकों से वंश चलता है इसलिए उनके भ्रूण पर आंच नहीं आने दी जाती। इक्कीसवीं सदी में भले ही बहुत कुछ बदल गया है पर लडकी को लेकर कई लोगों की सोच नहीं बदली है। उनके लिए लडकी का मतलब होता है, एक ऐसा बोझ जो जीवन भर पीछा नहीं छोडता। लडका कमाकर देता है और लडकी कमायी को खाती है। पढाई-लिखायी से लेकर शादी ब्याह तक मजबूरन धन लूटाना पडता है। बदले में कुछ भी मिलता-जुलता नहीं। देश के कई नामी-गिरामी डाक्टर वर्षों से भ्रूण लिं‍ग परीक्षण और गर्भपात के कुकर्म में साथ देते हुए अपनी तिजोरियां भरने में लगे हैं। ये डाक्टर अपने विवेक को बेचने के बाद भी सीना तानकर चलते हैं। वे जानते हैं कि वे हत्यारे हैं। कानून और मानवता के साथ खिलवाड कर रहे हैं। पर जहां कमाने की होड मची हो वहां दिल की कौन सुनता है?
पर इस सच को भी नजअंदाज नहीं किया जा सकता कि दमदार मार्केटिं‍ग के जरिये कुछ भी करवाया जा सकता है। बहरों के कान तक भी आवाज पहुंचायी जा सकती है। शासन और प्रशासन के मुंह पर थप्पड मारा जा सकता है। स्टार टीवी ने अभिनेता आमिर खान के साथ मिलकर वही तो किया है जिसे अभी तक कोई नहीं कर पाया था। अभिनेता ने जैसे ही सत्यमेव जयते कहा सारा देश जाग गया। वैसे यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह का वाक्य है जो देश के लगभग सभी पुलिस थानों में नजर आता है। लोग पढते हैं। व्यंग्य से मुस्कराते हैं और आगे बढ जाते हैं। अपने यहां के थानों की साख ही कुछ ऐसी है कि जहां अच्छे-खासे उपदेश अर्थहीन प्रतीत होते हैं। खैर जैसे ही अभिनेता ने सत्यमेव जयते के नारे के साथ कन्या भ्रूण की सच्चाई देश और दुनिया के सामने रखी तो कई लोग ऐसे हतप्रभ रह गये जैसे किसी ने पहली बार इस भयावह हकीकत से पर्दा उठाया हो। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि एक सैलिब्रेटी ने जैसे ही इस पुरातन समस्या को उठाया तो जनता तो जनता मंत्री-संत्री तक जाग उठने का नाटक करते नजर आये। राजस्थान के मुख्यमंत्री ने तो फौरन अभिनेता को मिलने का बुलावा भेज दिया। दोनों आपस में मिले भी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के अंदाज बता रहे थे कि अपने प्रदेश की इस जगजाहिर समस्या के बारे में उन्हें पहली बार सटीक जानकारी मिली है! मुख्यमंत्री ने अभिनेता को आश्वासन दिया कि कन्या भ्रूण समस्या से पूरी ताकत के साथ निपटा जाएगा। उन डाक्टरों को भी नहीं बख्शा जायेगा जो इस अपराध को रोकने की बजाय बढावा देते चले आ रहे हैं। ध्यान रहे कि शो में राजस्थान को लेकर गर्भपात और बेटियों के साथ होने वाले घोर अन्याय के कई उदाहरण पेश किये गये थे। कांची के शंकराचार्य ने भी गर्भपात पर रोक लगाये जाने की मांग दोहरा दी है। इस शो का असर ही कहेंगे कि उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्वास्थ्य विभाग के द्वारा छापा मारकर गर्भपात करने वाले डाक्टर को रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया गया।
देश के दूसरे शहरों में भी डॉक्टरी के नाम पर कसाईगिरी करने वाले बदमाशों के प्रति रोष और धडपकड की खबरें सुर्खियों में हैं। मेरे विचार से यह अच्छे बदलाव के संकेत हैं। जिसका श्रेय अभिनेता आमिर खान को जाता है। भले ही उन्होंने यह सफलता जबरदस्त मार्केटिं‍ग की बदौलत हासिल की हो, पर की तो है। ऐसे में इधर-उधर की बेसिर-पैर की बातों में उलझने की बजाय इस नयी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। किसी ने तो अपने हाथ में मशाल  थामी। दुष्यंत कुमार की गजल की पंक्तियां हैं:

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

Thursday, May 3, 2012

इसे कहते हैं कलाकारी

तब देश में फिल्म अभिनेता गोविं‍दा का जलवा था। फिल्में खूब चलती थीं। उनके चाहने वालों में हर वर्ग के लोग शामिल थे। राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं था परंतु कांग्रेस के चतुर, चालाक और शातिर नेता कृपाशंकर सिं‍ह और चाटूकार पत्रकार राजीव शुक्ला उन्हें कांग्रेस में लाने की ठान चुके थे। इन्हें यकीन था कि लोकप्रिय अभिनेता लोकसभा चुनाव जीतने में सक्षम है। उन्हीं दिनों मुंबई में कांग्रेस के एक कार्यक्रम में गोविं‍दा को आमंत्रित कर सोनिया गांधी के साथ मंच पर विराजमान करा दिया गया। गोविं‍दा गदगद हो गये। उन्होंने अपने भाषण में एक कविता पढी। दरअसल इस कविता में कांग्रेस सुप्रीमों की आरती गायी गयी थी। मैडम को फिल्मी नायक का यह अंदाज भा गया। लोकसभा चुनाव में गोविं‍दा को टिकट थमा दी गयी। यह उनकी लोकप्रियता का चमत्कार था कि वे भाजपा के एक दिग्गज नेता को पराजित कर सांसद बनने में सफल भी हो गये। उनके जीतने से भ्रष्टाचारी कृपाशंकर की साख बढ गयी और फिर धीरे-धीरे उसने इतनी दौलत बटोरी कि राजनीति के पुराने घाघ खिलाडि‍यों की आंखें फटी की फटी रह गयीं। अखबार में कलम घिसायी करने वाले राजीव शुक्ला के यहां भी दौलत बरसने लगी और उन्होंने न्यूज-२४ के कारोबार को अच्छी तरह से जमा लिया।
कृपाशंकर सिं‍ह और राजीव शुक्ला जैसे संदिग्ध नवधनाढ्य उन लोगों के आदर्श हैं जो राजनीति में प्रवेश करने के बाद येन-केन-प्रकारेण करोडों में खेलना चाहते हैं। गोविं‍दा सांसद तो बन गये पर उन वोटरों के लिए कुछ भी नहीं कर पाये जिन्होंने उन पर विश्वास जताया था। कांग्रेस ने उन्हें दूसरे प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार में झोंकने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। अपने देश में अभिनेताओं को देखने के लिए वैसे भी भीड उमड पडती है। कांग्रेस ने अभिनेता का खूब दोहन किया। पर 'हीरो' को दो नाव की सवारी इतनी महंगी पडी कि फिल्मों से भी जाते रहे। राजनीति उनके बस का रोग नहीं था, सो दूसरा लोकसभा चुनाव लडने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाये। जबरदस्ती के सौदे का यही हश्र होता है। राजीव शुक्ला ने फिल्म अभिनेता शाहरुख खान पर भी जाल फेंकने की बहुतेरी कोशिशें की थीं। पर कामयाब नहीं हुए। पर फिर भी कोशिशें जारी हैं। लगभग रिटायर हो चुकी फिल्म अभिनेत्री रेखा को दाना डालने में उन्हीं का हाथ है। रेखा ने भले ही फिल्मों में अभिनय कर नाम कमाया हो, पर जिस तरह से वे कपडों की तरह प्रेमी बदलती रहीं उससे उन्हें चरित्रवान नारी तो कतई नहीं कहा जा सकता। रेखा को राज्यसभा में लाने से यह तो पक्का हो गया है कि सांसद बनने के लिए चरित्रवान होना जरूरी नहीं है। नाम होना चाहिए। भले ही इज्जत पर दाग लगाकर कमाया गया हो। सोनिया गांधी और बच्चन परिवार के बीच की कटुता जगजाहिर है। समाजवादी मुलायम सिं‍ह यादव बच्चन परिवार पर इसलिए मेहरबान रहे हैं क्योंकि उनकी गांधी परिवार से नहीं जमती। अमिताभ बच्चन की पत्नी जया बच्चन को भी वे इसी वजह से राज्यसभा के लिए मनोनीत करते चले आ रहे हैं। कांग्रेस के द्वारा रेखा को राज्यसभा लाने के पीछे भी यहीं राजनीति काम कर रही है। रेखा अमिताभ की पूर्व प्रेमिका हैं। जाहिर है अब उसकी अमिताभ के साथ नहीं पटती। दुश्मन के दुश्मन से दोस्ती करने को भी राजनीति कहते हैं। कांग्रेस ने रेखा को जया बच्चन के सामने खडा कर जो गेम खेला है उसके परिणाम भी शीघ्र सामने आ जाएंगे। देश के जाने-माने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को भी राज्यसभा में लाने वाले यही राजीव शुक्ला ही हैं। हालांकि सचिन का कहना है कि साढे बाइस साल तक क्रिकेट की सेवा के फलस्वरूप उन्हें इस सम्मान से नवाजा गया है। सचिन की तरह क्रिकेट की सेवा करने वाले और हैं। पर मैडम की उन पर कभी दया-दृष्टि नहीं हो पायी। राजीव शुक्ला का भी उन पर ध्यान नहीं गया। सचिन का यह बयान भी आया कि वे क्रिकेटर ही रहेंगे। राजनीति के दरवाजे से कोसों दूर रहेंगे। सचिन के राज्यसभा के लिए मनोनयन के फौरन बाद भाकपा नेता गुरुदास कामत ने सवाल उठाया कि सौरभ गांगुली ने कौन-सा पाप किया है जो उन्हें इसके लायक नहीं समझा गया। तय है कि क्रिकेट के अलावा और भी खेल इस देश में खेले जाते हैं पर सरकारें क्रिकेटरों पर ही मेहरबान रहती हैं। हॉकी, कबड्डी, फुटबाल जैसे हिं‍दुस्तानी खेलों और खिलाडि‍यों की कोई पूछ-परख नहीं होती। यह कैसा न्याय है? इस मामले में भारतीय जनता पार्टी भी कम नहीं है। उसे भी नामी-गिरामी फिल्म और टीवी वाले ही दिखते हैं। शादीशुदा धर्मेंद्र से सात फेरे लेने वाली हेमा मालिनी और स्मृति ईरानी को राज्यसभा में इसलिए जगह मिल जाती है, क्योंकि वे लोकप्रिय होने के साथ-साथ खूबसूरत भी हैं। वोटरों को लुभा सकती हैं। वैसे भी राजनीति लेन-देन का खेल है। यहां रिकार्ड बनाना आसान नहीं है। टांगे खींचने वाले नाक में दम करके रख देते हैं। सचिन वाकई बहुत भोले हैं।
यह भी हो सकता है कि कांग्रेस सचिन को अपने आंगन में मूर्ति की तरह सजा कर रखने की सोच चुकी हो, क्योंकि उसे मालूम है कि पुरानी मूर्तियां आकर्षण खो चुकी हैं। निष्कर्ष यही है कि देशवासी उन्हें ताउम्र क्रिकेट खेलते देखना चाहते हैं पर राजनीति के सौदागर कुछ और ही ठान चुके हैं। हर कोई जानता है कि राजनीति और मतलबपरस्ती एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सचिन कोई दूध पीते बच्चे नहीं जो इतना भी न समझते हों।