Thursday, October 27, 2022

अय्याश ‘पिताजी’ की हिंसक बाबागिरी

    यौन शोषण, बलात्कार और हत्याओं के जुर्म में जेल में कैद डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम को ऐन दिवाली से पहले फिर से पैरोल के नाम पर पूरे 40 दिन की छुट्टी मिल गई। कभी बीमार मां से मिलने तो कभी उसकी किसी और मांग और इच्छा का सम्मान करते हुए बड़ी आसानी से उसे जेल से अस्थायी रिहाई मिलती चली जा रही है। लोग भी हैरान हैं कि जिस अय्याश को यौन शोषण, बलात्कार और दो हत्याएं करने के अक्षम्य अपराध में कुल मिलाकर 60 साल की सज़ा दी चुकी है, वह किसकी मेहरबानी और आशीर्वाद पर जब देखो तब खुली हवा में मौजमस्ती करने का मदमस्त उपहार पा जाता है। विश्वासघाती, बलात्कारी, हत्यारा राम रहीम इस बार भी जब जेल की कोठरी से बाहर आया तो उसके कट्टर श्रद्धालुओं, नेताओं और समाज के भिन्न-भिन्न रंगधारी चेहरों ने खुशी से झूमते हुए महकते फूलों के बड़े-बड़े हारों और गुलदस्तों से स्वागत किया, जैसे वह कोई महान आत्मा हो, जिसका सदियों के इंतजार के बाद आसमान से धरा पर आगमन हुआ हो। जेल से लौटे राम रहीम के दर्शन करने पहुंची भीड़ में शामिल एक महिला से पत्रकार ने पूछा कि जिस धूर्त को नारियों के देह शोषण के चलते सज़ा हो चुकी है, जो हद दर्जे का अनाचारी है, आप उससे मिलने के लिए क्यों आई हैं? आप जैसी पढ़ी-लिखी औरतों को तो ऐसे असंतों से घृणा करते हुए कोसों दूर रहना चाहिए! सजी-धजी उस नारी ने बड़े गर्व के साथ कहा कि वे हमारे देवता हैं, पथ प्रदर्शक हैं, वे गलत हो ही नहीं सकते। कुछ झूठों के आरोपों को हम क्यों सच मान लें? आज के कलयुगी जमाने में तो संत-महात्माओं पर कीचड़ उछालने के षडयंत्रों को कुछ शैतानों ने अपना पेशा बना लिया है। हमारे ‘पिताजी’ तो एकदम 24 कैरेट का सोना हैं। आपको उनके चेहरे की चमक दिखायी नहीं देती, जो आज भी पहले की तरह बनी हुई है?
    ‘‘आप जगजाहिर सच को भूल रही हैं। मैं ही आपको याद दिलाए देता हूं आपके इन तथाकथित ‘पिताजी’ को 2002 के बलात्कार के एक केस में दोषी ठहराए जाने के बाद अगस्त 2017 में पंचकुला में एक विशेष सीबीआई अदालत ने बीस साल की कड़ी कैद की सज़ा सुनाई थी। उसके बाद 2019 में सच्चे, निर्भीक पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की निर्मम हत्या के मामले मेें तीन अन्य लोगों के साथ इन्हें भी दोषी माना गया था। 2021 में सीबीआई की ही एक विशेष अदालत ने इस कुकर्मी को 2002 में डेरा के पूर्व प्रबंधक रंजीत सिंह की क्रूर राक्षसी तरीके से की गई हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। कुल मिलाकर 60 साल जेल की कोठरी में रहना है इसे। क्या आप अदालत के फैसलों को भी हवा-हवाई मानती हैं?’’
    ‘‘दुनिया की किसी भी कोर्ट-कचहरी से ज्यादा हमें तो बस अपने ‘पिताजी’ पर ही पक्का यकीन है। हमारे ‘पिताजी’ की वर्षों की तपस्या और मेहनत से बनी छवि को कोई भी साज़िश खत्म नहीं कर सकती। फिर हकीकत तो आपके सामने भी है...। उनके ऑनलाइन सत्संग में हाजिरी लगाने के लिए अपार भीड़ का तांता लगा है। यह सारा का सारा हुजूम क्या बेवकूफ और पागल है? और हां यह भी तो आपने देखा और सुना होगा कि अपने देश में निर्दोष आदमी को भी फांसी के फंदे पर लटका दिया जाता है।’’ सजायाफ्ता राम रहीम के पक्ष में बोलने के लिए कमर कसकर आई महिला और भी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन पत्रकार ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।
    उम्रकैद की सजा काट रहे राम रहीम के ऑनलाइन सत्संग में हजारों महिलाओं, युवक, युवतियों, नेताओं, सरकारी अधिकारियों और उद्योगपति, व्यापारियों की कतारें लगी रहीं। हरियाणा के शहर करनाल की मेयर रेणु बाला ‘पिताजी’ के समक्ष नतमस्तक होकर घंटों खड़ी रहीं। उन्होंने उससे अपना आशीर्वाद बनाये रखने की फरियाद की। भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने भी सत्संग में पहुंचकर ‘शैतान’ का हौसला बढ़ाया। बलात्कारी के समर्थकों की भीड़ ने बता दिया कि उनके मन में अपने ‘पिताश्री’ के प्रति कितना सम्मान और आस्था है। दरअसल उसके कट्टर अनुयायियों में गरीबों, दलितों और शोषितों की संख्या अच्छी-खासी है, जो उसे मान-सम्मान से ‘पिताजी’ बुलाते हैं। इनके लिए गुरमीत सिंह राम रहीम का इशारा, कोई बात सीधा आदेश होती है, जिसका पालन करना अंधभक्त अपना कर्तव्य और धर्म मानते हैं। अपने अनुयायियों का उद्धार करने और धर्म के नाम पर धोखाधड़ी, लूटमार, बलात्कार करने वाले राम रहीम के झांसे में आने वालों में पढ़े-लिखे लाखों स्त्री-पुरुष हैं, जिनकी श्रद्धा अब भी बरकरार है। इसी का फायदा नेता पहले भी उठाते रहे हैं और अब भी उन्हें काफी उम्मीदें हैं। हरियाणा में एक विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव से पहले उसके पैरोल पर जेल से छूटने के पीछे सत्ता और राजनेताओं की भूमिका स्पष्ट नज़र आती है। पूरे देश में उसके 6 करोड़ अनुयायी होने का दावा किया जाता है। पंजाब और हरियाणा में तो उसके अंधभक्त जहां-तहां भरे पड़े हैं, जो सीधे तौर पर लगभग 40-50 विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनाव को प्रभावित करते रहे हैं।
    यह तथ्य भी अत्यंत विचारणीय है कि बलात्कार की हर खबर सभ्य समाज में क्रोध की आग जलाती है। हर किसी के रक्त में उबाल आ जाता है। बलात्कारी के खिलाफ मोर्चे, कैंडल मार्च निकाले जाते हैं। यहां तक कि उस दरिंदे को चौराहे पर गोली से उड़ाने, नपुंसक बनाने के पुरजोर स्वर सुनने को मिलते हैं, लेकिन यह नराधम अपने आश्रम में आने वाली युवतियों की अस्मत लूटता रहा। हत्याएं तक कर डालीं, लेकिन देश का तथाकथित जागृत समाज सोया रहा। पत्रकारों ने भी खामोशी का दामन थामे रखा। जिस सजग पत्रकार ने अपने अखबार में उसके काले चिट्ठे को उजागर किया उसकी इसने हत्या करवा दी। लोगों की अंध भक्ति ने ही एक शैतान को भगवान बना दिया। अंधी भीड़ नतमस्तक भी होती रही और धन भी बरसाती रही। देखते ही देखते उसके आलीशान आश्रम बनते चले गए। जहां वह बेखौफ होकर भोग-विलास करता रहा। महंगी से महंगी लग्जरी कारों में खूबसूरत लड़कियों के साथ सैर-सपाटे जारी रहे और करुणा, दया, शांति, क्षमा और भाईचारे के पाठ को ताक पर रखकर हिंसा का शैतानी तांडव मचाता रहा। राम रहीम... इस नाम को सुनने और बोलने में कितनी शांति और पवित्रता बरसती है। ऐसा लगता है इस नाम के शख्स की नस...नस में इंसानियत का अपार वास होगा। आम इंसानों वाली बुराइयों से तो इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होगा। विधाता ने इसे मानव और मानवता के कल्याण के लिए इस धरा पर भेजा होगा, लेकिन इस राम रहीम ने तो भक्तों के भरोसे और धारणा की धज्जियां ही उड़ा दीं। फिर भी अंध विश्वासी अभी भी जागने को तैयार नहीं हैं।

Thursday, October 20, 2022

कब मिटेंगे यह अंधेरे?

    इन खबरों को पढ़-सुनकर किसे गुस्सा नहीं आता होगा। मन भी दहल जाता होगा। मस्तिष्क में यह सवाल भी तीर चलाता होगा कि क्या यह वही दुनिया है, जहां हम रह रहे हैं? गुजरात के जुनागढ़ में एक पिता को अपनी बेटी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इस अंधविश्वासी शैतान ने पुत्र प्राप्ति की लालसा में नवरात्र अष्टमी की रात बेटी की बलि चढ़ा दी। बिटिया मात्र 14 बरस की थी। उसे अपने पिता पर बहुत भरोसा था। वह तो उसे अपना भाग्य विधाता और भगवान मानती थी, लेकिन इसी भगवान को इस बात का मलाल था कि उसके यहां बेटा पैदा क्यों नहीं हुआ? यह बेटी किस काम की। यह तो पराया धन है। एक न एक दिन दूसरे के यहां विदा हो जाएगी। बेटे ही पिता की विरासत के वारिस होते हैं। उन्हीं से वंश चलता है। पहचान होती है।
जब इंसान के अंदर का मतलबी शैतान जाग जाता है, तो उसके लिए खून के रिश्ते अपनी अहमियत खोने लगते हैं। गांव के स्कूल में नौवीं कक्षा में पढ़ रही यह बिटिया जब बाप को खटकने लगी तो उसे उसमें कई दोष नज़र आने लगे। उसे यह सच याद नहीं रहा कि बेटियों को तो कलेजे से लगा कर रखा जाता है, लेकिन उसके दिल का घेरा तो बहुत संकीर्ण था। उस पर किसी तांत्रिक ने उसके कान भर दिये कि बेटी में तो ‘बुरी शक्ति का साया है’ जो उसे भी तबाह करके छोड़ेगा। कहीं का नहीं रहने देगा। हाथ में कटोरा पकड़वाकर ही दम लेगा। बस फिर क्या था। जन्मदाता राक्षस बन गया। दिन-रात बेटी को मारने-पीटने लगा। सात दिन तक उसे न खाना दिया गया और ना ही पीने को पानी। भूख-प्यास से अधमरी हो चुकी बच्ची की बलि चढ़ाने के बाद हैवान बाप फिर से उसके जिंदा होने के लिए चार दिन तक तांत्रिक क्रियाएं करता रहा। मर चुकी बच्ची आखिर कैसे जीवित होती? पांचवें दिन बेटी का अंतिम संस्कार कर दानव को लगा कि अब वह चैन की नींद सोयेगा, लेकिन पाप का घड़ा तो फूट कर ही रहता है। जब लोगों को पता चला तो उनका गुस्सा फूट पड़ा। उनका बस चलता तो वे उसका खात्मा ही कर देते, लेकिन पुलिस के रोकने और समझाने पर हत्यारे बाप की हत्या होते-होते रह गयी।
    केरल के पथनाम थिट्टा जिले के एलंधूर गांव में रहने वाले एक अधेड़ पति-पत्नी पर फिर से जवान होने का ऐसा भूत सवार हुआ कि वे उन तांत्रिकों की शरण में जा पहुंचे, जिनका दावा था कि वे बूढ़ों को जवान बना सकते हैं। गरीब को अमीर बनाना भी उन्हें बखूब आता है। इस उपलब्धि को पाने के लिए तांत्रिक ने उन्हें दो महिलाओं की बलि देकर भगवान को खुश करने की बात कही तो यौन सुख के भूखे पति-पत्नी सहर्ष तैयार ही नहीं हुए, बल्कि तांत्रिक के मार्गदर्शन में दो महिलाओं को अपने मायावी जाल में फंसाकर उनको मौत के घाट भी उतार दिया। इस हैवानियत को ‘बलि’ का नाम दिया गया। दोनों निर्दोष महिलाओं की नृशंस हत्या करने के बाद उन्होंने उनके शरीर से निकले रक्त को दिवारों पर छिड़का। एक महिला के शव के 56 टुकड़े किए और उन्हें पका कर खाया। दोनों दरिंदों ने महिलाओं के स्तन भी काटकर रख लिए।
    अपने महान भारत देश में न जाने कितनी कुरीतियां और पुरातन परंपराएं हैं। विचार धाराएं जो औरतों के शोषण और अपमान की शर्मनाक दास्तान का निर्लज्ज दस्तावेज हैं। इज्जत और धर्म के नाम पर नारियों को प्रताड़ित करने और उनका देह शोषण की वर्षों पुरानी देवदासी प्रथा को इस आधुनिक काल में भी बड़ी बेशर्मी से खाद-पानी दिया जा रहा है। देवदासी यानी देवों की कथित दासियां, गुलाम... जिनका पग-पग पर देह शोषण किया जाता है, बचपन और जवानी छीनकर बुढ़ापे में दर-दर भीख मांगने और दिवारों से सिर पटकने के लिए असहाय छोड़ दिया जाता है। नारी जाति का घोर अपमान करने वाले इस नीच कर्म में मां-बाप भी सहभागी होते हैं। रमाबाई जब मात्र दस साल की थी, तभी उसके माता-पिता उसे देवदासी बनाने के लिए मंदिर ले गए और उसे पुरोहित को भेंट स्वरूप सौंप दिया, जैसे वह कोई खरीदी और बेची जाने वाली कोई वस्तु हो। उम्रदराज पुरोहित उसे देवता से मिलवाने के नाम पर वर्षों तक उसकी देह से खेलता रहा। इस दौरान वह दो बेटियों और एक बेटे की मां बनी और देखते ही देखते उसकी उम्र भी ढल गई।
    होना तो यह चाहिए था कि नारी की पूजा करने वाले देश में यह जालिम प्रथा जन्म ही नहीं लेती। किन्हीं दुष्टों ने नारियों की भावनाओं को रोंदने, उनके जिस्म को भोगने के लिए हजारों साल पहले इसके बीज बोए और कालांतर में यह बीज पेड़ बन गये। उन्हें काटा ही नहीं गया! मंदिरों में नारी के देह शोषण की कल्पना करने से ही चिंता, दहशत और घबराहट होने लगती है, लेकिन आखिर यह सच तो है ही। नारी के देह शोषण की यह परंपरा आज भी जिन्दा है। उत्तर भारत में भी कहीं-कहीं यह अंगद के पांव की तरह टिकी हुई है। सरकारों ने इस कुप्रथा बनाम नर्कप्रथा पर बंदिश लगाने की बहुतेरी कोशिशें कीं, लेकिन धर्म की आड़ में चलने वाले इस अंधी वासना के कुचक्र पर धर्म के सौदागरों ने विराम नहीं लगने दिया। 1982 में कर्नाटक सरकार और 1988 में आंध्रप्रदेश सरकार नारियों के साथ खिलवाड़ करने वाली इस देवदासी प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर चुकी है। फिर भी एक अनुमान के अनुसार कर्नाटक में देवदासियों की संख्या सत्तर हजार, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में अस्सी हजार के पार है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि देवदासियों को ओडिसा में महारी यानी ‘महान नारी’ कहा जाता है। जो अपनी देह को काबू में रखना जानती हैं। महाराष्ट्र एवं अन्य प्रदेशों में उनके लिए अलग-अलग संबोधन हैं।
    विभिन्न उत्सवों और महोत्सवों के विशालतम देश में अंधविश्वास, नारी शोषण, व्याभिचार, बलात्कार, नृशंस हत्याएं और कट्टरवाद को देखकर मन मस्तिष्क में कई-कई प्रश्न खड़े होते हैं। क्या हमारे यहां त्योहार मात्र दिखावा और तमाशाबाजी हैं। दशहरा, दीपावली जैसे उत्सव मात्र मन बहलाने का जरिया हैं? इन त्योहारों पर सदियों से अपने घर-आंगन की सफाई करते और दीप जलाकर अंधेरे को भगाते देशवासी कुरीतियों, अपराधों के घने अंधेरे से अभी तक मुक्त क्यों नहीं हो पाए? उत्सवों की सार्थकता तो उनके अर्थ और मर्म को समझते हुए उनका अनुसरण करने में है। सदियों दर सदियां बीत गईं। हम इक्कसवीं सदी में भी पहुंच गये, लेकिन उन अंधेरों को पूरी तरह से दूर करने का साहस नहीं जुटा पाए, जो देश के माथे पर कलंक समान विद्यमान हैं।

Thursday, October 13, 2022

राहुल गांधी की यात्रा

    मेरा राजनेताओं पर लिखने का बहुत कम मन होता है। जब किसी नेता की दक्षता, कार्यप्रणाली, जिद्द, जुनून और आम जनता से जुड़ने की ललक बहुत अधिक प्रभावित करती है तो यह कलम खुद-ब-खुद चल भी जाती है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी और सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी वर्षों से राजनीति में झंडे गाड़ने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं, लेकिन दाल नहीं गल रही। भारतीय राजनीति के लिए उन्हें नाकाबिल मानने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। वे उनकी बहन प्रियंका गांधी को उनसे बेहतर मानते हैं। उन्हें प्रियंका गांधी में उनकी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चेहरा नज़र आता है, जिन्होंने कई वर्षों तक भारत की सत्ता संभालते हुए अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। गांधी परिवार ने देश की जो सतत सेवा की है और अपना सबकुछ कुर्बान करते हुए राष्ट्रप्रेम के पवित्र जज़्बे को बरकरार रखा है, उसे देशवासी कभी भी नहीं भूल सकते। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस पार्टी को मजबूत बनाये रखने में भी गांधी परिवार का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि गांधी परिवार ही कांग्रेस के शरीर की रीढ़ की हड्डी है, लेकिन आज यह हड्डी कमजोरी की गिरफ्त में है। पार्टी लगातार पतन की ओर जा रही है। कभी देश के हर प्रदेश में इसका शासन हुआ करता था, लेकिन आज उसकी जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है।
    कांग्रेस की दशा को सुधारने के लिए गांधी परिवार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। फिलहाल हम बात राहुल गांधी की करना चाहते हैं, जो कांग्रेस को फिर से पटरी पर लाने के लिए कमर कसे हुए हैं। नेताओं की खिल्ली उड़ाना, मीम बनाना, व्यंग्य बाण चलाना और चुटकलेबाजी करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि, पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को उपहास का पात्र बना कर रख दिया गया है। उनकी पप्पू की जो छवि बनायी गई है, उससे हर कोई वाकिफ है। आलू से सोना बनाने, बाइस रुपये लीटर में आटा लाने जैसे पचासों जोक हैं, जो सोशल मीडिया में भरे पड़े हैं। मनोरंजन प्रेमी इन्हें सुन-सुन कर मनोरंजित होते हैं। अपना दिल बहलाते हैं और उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। जिनकी गंभीरता से देखने-सोचने की आदत है उन्हें बड़ी चिंता और पीड़ा होती है। राहुल उन्हें इतने अज्ञानी तो नहीं लगते, जितने प्रचारित होते चले आ रहे है। सबसे ज्यादा तकलीफ, पीड़ा और शर्मिंदगी तो उन कांग्रेसियों को होती है, जिनकी दाल-रोटी ही पार्टी के दम पर चलती है। कुछ को छोड़ दें तो अधिकांश कांग्रेसी ऐसे है, जिनकी अपनी कोई कभी दमदार छवि नहीं रही। येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस की टिकट पाना और गांधी परिवार के गीत गाते हुए चुनाव जीत जाना उनका मुकद्दर रहा है। वे तो बस यही चाहते हैं कि कांग्रेस की कमान हमेशा गांधी परिवार के हाथों में ही रहे। कोई दूसरा इस पार्टी का अध्यक्ष बनने की सोचे भी नहीं। किसी नेता के बोले तथा कहे गये शब्दों के अर्थ का अनर्थ करना राजनीतिक विरोधियों की आदत है, लेकिन क्या मीडिया ने भी बिना विचारे यही राह पकड़ ली है? बड़े से बड़े भाषा के धुरंधर अक्सर बोलते-बोलते नियंत्रण छूट जाने से बहक जाते हैं। फिर राहुल कोई हिंदी के पारंगत विद्वान भी नहीं हैं। राहुल को भी अपनी कमियों, भूलों और त्रुटियों का भान तो होगा ही...। देश और दुनिया में उनकी कैसी बौनी छवि बना दी गई है, इसकी भी उन्हें खबर न हो ऐसा तो हर्गिज नहीं हो सकता।
    राहुल की मां सोनिया गांधी का सपना है, बेटा भारत देश का प्रधानमंत्री बने। बेटा भी हर चुनाव पर मेहनत करता है। खून पसीना बहाता है, फिर भी सफलता हाथ नहीं लगती। बहन प्रियंका वाड्रा की भी भाई को पीएम बनते देखने की तीव्र लालसा है। मोदी सरकार ने उनके ‘कमाऊ’ पति राबर्ट वाड्रा का जीना हराम कर रखा है। भाई सत्ता पाये तो सभी को चैन आए। हर कांग्रेसी के सपने को साकार करने तथा अपनी छवि बदलने के लिए राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ बड़े जोरों-शोरों से चल रही है। उनके साथ चल रहे यात्रियों के हाथों में जो तख्तियां हैं उनमें लिखा है, ‘यह यात्रा देश में फैली नफरत के खिलाफ एक आगाज़ है। अब न डरेंगे, न झुकेंगे, न रूकेंगे।’ महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से प्रभावित... प्रेरित भारत को जोड़ने की इस पैदल यात्रा का मज़ाक उड़ाने वालों के अपने-अपने तर्क हैं। उन्हें यात्रा के दौरान राहुल का एक बूढ़ी औरत को अपने हाथों से पानी देना और एक छोटी बच्ची के जूते बांधना मीडिया में छाने का तमाशा लगता है। यात्रा के ही दौरान राहुल गांधी का जमीन पर बैठकर मां सोनिया के ढीले जूते के फीते कसना भी उनके लिए महज नाटक-नौटंकी है।
    राहुल का आम लोगों से मिलना, बोलना-बतियाना, यात्रा में शामिल साथी नेताओं से हंसी ठिठोली करना, रास्ते में मिलने वाले बच्चों को गोद में उठाना, गले लगाना और बेफिक्री के साथ पकोड़े, समोसे खाते और गन्ना चूसते हुए मुस्कराना जन समर्थन में बढ़ोत्तरी कर रहा है। राहुल लोगों को बता रहे हैं कि किस तरह से उनकी छवि को बिगाड़ने के लिए हजारों करोड़ रुपये फूंके जा रहे हैं। भाजपा पर उनके लगातार तीर चल रहे हैं। लोग देख और सुन रहे हैं। वे बार-बार कहते हैं कि उनकी यह पैदल यात्रा भाजपा व आरएसएस द्वारा फैलाई गई हिंसा के खिलाफ है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में नदारद रहे लोग आज नायक बनने का षड़यंत्र रच रहे हैं। उन्हें कामयाबी भी मिल रही है। कांग्रेस और उनके नेताओं ने आजादी की लड़ाई लड़ी। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू ने देश के लिए अपनी जान दे दी, लेकिन इन्होंने क्या किया? तब आरएसएस अंग्रेजों की सहायता और सावरकर उनसे धनसुख पा रहे थे। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से पहले भी राहुल भाजपा, संघ और वीर सावरकर को अपने तीखे निशानों पर लेते रहे हैं। वे डटकर सामना भी कर रहे हैं। भाजपा के लोगों ने उन पर कई बार माफी मांगने का दबाव डाला, लेकिन उनका बस यही जवाब आया कि मैं कभी भी माफी नहीं मांगूंगा। मेरा नाम राहुल सावरकर नहीं, राहुल गांधी है। नेहरू-इंदिरा की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संघर्षरत राहुल से देशभर के तमाम कांग्रेसियों को बहुत उम्मीदें है। वे उन्हें हमेशा उग्र तेवरों के साथ सधे हुए अंदाज में अपनी बात रखते हुए देखना चाहते हैं। राहुल को महात्मा गांधी का वारिस मानने वाले इन चेहरों को तब-तब बड़ा अच्छा लगता है, जब वे संघ को गांधी का हत्यारा कहकर चुनावी सभाओं की भीड़ बढ़ाते हैं। भाजपा और नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधी राहुल गांधी यह भी कह चुके हैं कि मेरी सत्ता और दलगत राजनीति में किंचित भी दिलचस्पी नहीं। मैं जिस देश भारत से प्यार करता हूं उसे पूरी तरह से जानना और समझना चाहता हूं। देश के लोगों और देश की धरती को करीब से देखने के लिए भारत जोड़ो यात्रा पर निकले राहुल गांधी कहते हैं कि वो इस यात्रा के नेतृत्वकर्ता नहीं, हिस्सा भर हैं। कांग्रेसियों के लाख अनुरोध के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी के प्रति अरूचि दिखाने वाले राहुल गांधी अपने मकसद में कितने कामयाब होते हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा, लेकिन राहुल की यात्रा के कुछ वीडियो इस कलमकार ने बड़ी एकाग्रता से देखे हैं। एक वीडियों में अपने सहयात्रियों को बताते नज़र आते हैं कि जब मैं खुद को थका हुआ पाता हूं, तो मेरी निगाह अपने साथियों पर जाती हैं, जो घुटनों के दर्द से परेशान है, पांव में छाले पड़ गये हैं, बीमार हो रहे हैं, फिर भी बेपरवाह चलते चले जा रहे हैं। उनकी लगन और हिम्मत मुझे बहुत प्रेरित करती है। जिस तरह से राहुल उनसे प्रेरणा पाते हैं, वैसे ही साथी पदयात्री भी तो उन्हें देखकर नयी ऊर्जा से सराबोर हो रहे होंगे। राहुल का यह अंदाज और नया चेहरा नयी उम्मीद तो जगाता ही है...।

Thursday, October 6, 2022

अपनों को खोने की पीड़ा

    आकांक्षा फिल्मी पर्दे और टीवी पर चमकना चाहती थी। लोगों की नजरों में आने-छाने के लिए उसने मॉडलिंग के क्षेत्र में कदम रख दिए थे। अपने सारे सपनों को साकार करने के लिए उसमें शायद हौसले की कमी थी। यदि ऐसा नहीं होता तो मुंबई के अंधेरी में स्थित होटल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या नहीं करती। अचानक खुदकुशी कर इस जहां से विदा होने वाली आकांक्षा ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘मुझे माफ करना, कोई भी इस घटना के लिए जिम्मेदार नहीं है। मैं खुश नहीं हूं। मुझे शांति चाहिए।’ खुशी और शांति के लिए आत्महत्या! यह उपलब्धि तो जिन्दा रहकर ही हासिल होती है। मरने पर तो सारा खेल ही खत्म हो जाता है। आकांक्षा को यह सच किसी ने नहीं बताया होगा। पढ़ने-सुनने से भी दूर रही होगी। संघर्षों और मुश्किलों से छुटकारा पाने के लिए मौत को गले लगाने वाली इस तीस वर्षीय युवती की तरह ही नागपुर के बाइस वर्षीय युवक सोहन सिंह ने भी लेनदारों के तकादों से परेशान होकर ज़हर खा लिया। महत्वाकांक्षी सोहन ऑनलाइन फ्रूट डिलिवरी का काम करता था। वह भरपूर मेहनती था। धनवान बनने की उसकी प्रबल इच्छा थी। इसीलिए अपनी दोस्त के साथ भागीदारी में केक की छोटी-सी दुकान भी खोल ली थी। सोहन ने साहूकारों से जो कर्ज लिया था उसका समय पर भुगतान नहीं कर पा रहा था। अपनी रकम की वसूली के लिए जब लेनदारों का दबाव बढ़ा और धमकियां-चमकियां मिलने लगीं तो वह घबरा गया। कामधंधे में मन लगना भी कम हो गया। युवती से भी अनबन होने लगी।
    बिगड़े हालातों को शांत मन से सुधारने की बजाय उसने बिना कुछ ज्यादा सोचे-विचारे ज़हर तो निगल लिया, लेकिन बाद में उसे बहुत पछतावा हुआ। जब ज़हर का तेजी से असर होने लगा तो उसने किसी तरह से अपने भाई को फोन कर अपने पास बुलाया और हाथ जोड़ते हुए फरियाद की, ‘भाई किसी भी तरह से मुझे बचा लो। मैंने ज़हर खा लिया है, लेकिन मैं मरना नहीं, जीना चाहता हूं।’ सोहन के भाई के तो होश ही उड़ गये। उसने तुरंत अपनी पगड़ी उतारी। भाई को बाइक के पीछे बिठाया और उससे खुद को बांधा और तेजी से बाइक को दौड़ाते हुए अस्पताल पहुंचा। डॉक्टरों ने सोहन को बचाने के सभी उपाय किए, लेकिन जिद्दी मौत अंतत: उसे अपने साथ लेकर चलती बनी। उसकी जेब से ज़हर के दो पाउच भी मिले। देखते ही देखते लाश में बदल चुके छोटे भाई को बड़ा भाई बस देखे जा रहा था। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिसे सुबह एकदम ठीक-ठाक देखा था, रात को उसके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। बेबसी और गम की आंधी आंसू बन टपके जा रही थी और माथा पकड़े वह बस यही सोचे जा रहा था कि छोटे भाई ने यह क्या कर डाला! कोई तकलीफ थी तो बता देता। मिलजुलकर हल निकाल लेते। अभी तो उसने दुनिया ही कहां देखी थी। एक ही झटकें में सबको दुखी कर विदा हो गया। भाई की लाश को घर ले जाने का भी उसमें साहस नहीं था। मां-बाप पर क्या गुजरेगी। खून के रिश्ते ऐसे होते हैं, जिनके टूटने का गम होश उड़ा देता है। उस पर हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ने की पीड़ा तो इंसान को पूरी तरह से निचोड़कर रख देती है। उसे अंधेरे के सिवाय और कुछ दिखायी ही नहीं देता।
    मुंबई में गरबा खेलते समय दिल का दौरा पड़ने से युवा पुत्र की मौत हो गई। पिता भी वहीं थे। अपनी आंखों के सामने बेटे की मौत का सदमा उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और उनकी भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। कानपुर में एक परिवार के 35 वर्षीय बेटे विमलेश को कोरोना की दूसरी लहर ने झपट्ठा मारकर छीन लिया। घरवाले किंचित भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि विमलेश का अब केवल निर्जीव शरीर उनके सामने है। अस्पताल प्रशासन ने मृत्यु प्रमाणपत्र जारी कर शव को दाह संस्कार के लिए परिजनों के हवाले कर दिया। कुछ ही घंटों के बाद जब मृतक के अंतिम संस्कार की तैयारी की जा रही तभी मां ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि अभी भी मेरे दुलारे बेटे की धड़कने चल रही हैं। ऐसे में मैं उसकी अंत्येष्टि नहीं होने दूंगी। मां की जिद के सामने सभी ने हार मान ली और अंतिम संस्कार रद्द कर शव को घर में लाकर रख दिया गया। विमलेश की शिक्षित बैंक अधिकारी पत्नी, पिता, मां और भाई दिन-रात उसकी ऐसे सेवा करने लगे, जैसे बिस्तर पकड़ चुके किसी गंभीर रोगी का पल-पल ध्यान रखा जाता है और भूले से भी कोई भी भूल-चूक नहीं होने दी जाती। सुबह-शाम नियमित शव की गंगाजल और डेटॉल से साफ-सफाई, सुगंधित तेल से मालिश करने के साथ-साथ कमरे का एसी भी चौबीस घंटे चालू रखने का परिवार ने पक्का नियम बना लिया। बाहरी लोगों की घर के भीतर आने पर बंदिश लगा दी गई। रिश्तेदारों से भी दूरियां बना ली गईं। आसपास के लोगों में परिवार के इस अजब-गजब व्यवहार को लेकर तरह-तरह की बातें होने लगीं। सभी उन्हें मानसिक रोगी तो पुत्र मोह के कैदी मानकर दूरियां बनाते चले गये। लगभग डेढ़ साल तक बिस्तर पर पड़े निर्जीव शरीर के फिर से उठ खड़े होने का इंतजार परिवार के सभी सदस्य सतत करते रहे। पूजा-पाठ भी होता रहा। विमलेश का पांच वर्षीय बेटा प्रतिदिन शव के सामने खड़ा होकर ईश्वर से प्रार्थना करता कि उसके पिता को कोमा के चंगुल से निकालकर शीघ्र पूरी तरह से भला चंगा कर दें। परिजनों को विमलेश के फिर से जीवित हो उठने का कितना भरोसा था उसे इस सच से समझा जा सकता है कि वे कई महीनों तक ऑक्सीजन सिलेंडर लाते रहे और शव को आक्सीजन देते रहे। मां आखिर तक कहती रही कि मेरा बेटा बहुत थक गया था इसलिए गहरी नींद में सोया है। विमलेश की पत्नी तख्त पर पड़े पति के नियमित कपड़े बदलती और घर से बाहर निकलने से पहले उसका माथा चूमती। बाहर क्या हो रहा है, कौन-सा त्योहार आया-गया है, इससे वे पूरी तरह से बेखबर रहे। उन्हें तो बस विमलेश की चिंता थी। विमलेश को ठीक करने के लिए कुछ नामी डॉक्टरों को भी घर में इलाज के लिए बुलाते रहते। झोलाछाप डॉक्टरों ने भी जमकर चांदी काटी। लगभग चालीस लाख खर्च कर चुके परिवार ने तो अपने बेटे को चलता-फिरता देखने के लिए अपनी करोड़ों रुपये की पुश्तैनी जमीन-जायदाद तक बेचने की पक्की तैयारी कर ली थी, लेकिन इससे पहले किसी की शिकायत पर पुलिस घर पहुंच गई। समाजसेवकों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों के बहुत समझाने के बाद परिवार डेढ़ साल बाद बेटे का दाह संस्कार करने के लिए बेमन से माना।