Friday, October 28, 2011

वो दिन कब आयेगा?

कांग्रेस सांसद संजय निरुपम स्वयं को उत्तर भारतीयों का एक सशक्त नेता मानते हैं। कभी शिवसेना में रह चुके हैं इसलिए बोलने के मामले में किसी भी तरह का जोखिम लेने को तत्पर रहते हैं। खुद को चर्चा में बनाये रखने की कला का भी उन्हें खूब ज्ञान है। ऐन दिवाली से पहले नागपुर में हुए उत्तर भारतीयों के सम्मेलन में उन्होंने फरमाया कि मुंबई की लाइफ लाइन उत्तर भारतीयों के हाथ में है। अगर ये लोग एक दिन के लिए भी काम बंद कर दें तो मुंबई ठप हो जाएगी। संजय का तीर निशाने से जरा भी नहीं चूका। शिवसेना के कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे आग बबूला हो उठे। उनका बयान आया कि मुंबई की रफ्तार को रोकने की कोशिश करने वालों के होश ठिकाने लगा दिये जाएंगे। कार्यकर्ता भी जोश में आ गये। शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने मुंबई में विभिन्न स्थानों पर संजय निरुपम के दीवाली की शुभकामनाओं वाले पोस्टरों पर कालिख पोत डाली तो कांग्रेस के कार्यकर्ता भी पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी उद्धव ठाकरे के पोस्टरों के साथ जैसे को तैसा की कहावत को चरितार्थ कर अपनी मनोकामना पूरी कर डाली। जुबानी जंग ने पोस्टर जंग की शक्ल अख्तियार कर ली। इसका भी खूब प्रचार हुआ। कांग्रेस और शिवसेना दोनों ने फटाके और फुलझडि‍यां छोडने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। वैसे भी संजय निरुपम जब से कांग्रेस में आये हैं तब से खुद को कांग्रेस का वफादार सिपाही साबित करने के अभियान में लगे हैं। जब वे शिवसेना में थे तब जी भरकर कांग्रेस की ऐसी-तैसी किया करते थे। उनके बुलंद तेवरों को देखते हुए ही उन्हें शिवसेना के मुखपत्र सामना का कार्यकारी संपादक बनाया गया था। उनके संपादकत्व में प्रकाशित होने वाले सामना के अंकों में कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी को भी नहीं बख्शा जाता था। तब शिवसेना उत्तर भारतीयों पर जब-तब टूट पडा करती थी पर संजय निरुपम मौन रहते थे। इसी मौन के इनाम के तौर पर शिवसेना ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाने का मौका भी दिया था। जब उन्हें लगा कि शिवसेना में ज्यादा दिनों तक दाल नहीं गलने वाली तो उसे नमस्कार कर कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने कुछ साल तक इंतजार करवाया फिर लोकसभा का चुनाव लडवाया। शिवसेना के समय की बोयी फसल काम आयी और वे चुनाव जीत गये। वर्तमान में वे मुंबई में कांग्रेस के सांसद हैं और उनकी सोच और भाषा बदल गयी है। अब वे उत्तर भारतीयों के जबरदस्त हितैषी हो गये हैं। इसी का नाम राजनीति है जो फिलहाल इस देश में चल रही है। शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे ने अपने अखबार सामना की सम्पादकीय में समर्थकों को आह्वान किया कि इस बार कांग्रेस नरकासुर का वध करके दिवाली मनाएं।गौरतलब है कि नरकासुर एक राक्षस था, जिसका भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से संहार किया था। नरकासुर ने सोलह हजार लडकियों को कैद कर रखा था और उन पर बेहद जुल्म ढाता था। श्री कृष्ण ने सभी लडकियों को जालिम की कैद से मुक्ति दिलवायी थी। इसी उपलक्ष्य में दिवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी मनायी जाती है।यह कोई पहला मौका नहीं था जब बाल ठाकरे ने कांग्रेस को निशाने पर लिया हो। उत्तर भारतीयों की तारीफ करना संजय निरुपम को भले ही महंगा न पडा हो पर कांग्रेस के दिग्गज तो हिल ही गये। वैसे भी पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस हिलडुल ही तो रही है। जिसे देखो वही उसकी जमीन खिसकाने पर उतारू है। डॉ. मनमोहन सिं‍ह के राज में जिस तरह से महंगाई में निरंतर इजाफा होता चला जा रहा है उससे आम आदमी बहुत बुरी तरह से खिन्न है। विरोधी दलों और नेताओं को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गयी है। जो देशवासी सोचने-समझने में सक्षम हैं वे नेताओं की तमाशेबाजी को देखकर हतप्रभ हैं। मुल्क की मूल समस्याओं पर ध्यान देने और सोचने की किसी भी दल और नेता के पास फुर्सत नहीं दिखती। सभी एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी में जुटे हैं। भ्रष्टाचार और काला धन देश की सबसे भयंकर समस्याएं है। देश की आधी से ज्यादा जनता वर्तमान व्यवस्था से नाखुश है। कुछ लोगों ने इस काली व्यवस्था को बदलने की ठानी है पर इसमें राजनीति आडे आ रही है। जन आंदोलन करने वालों को तरह-तरह से प्रताडि‍त किया जा रहा है। सत्ता का सुख भोग रहे राजनेता इस तथ्य को भी भूल गये हैं कि आम जनता ने उन्हें भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के लिए चुना है। होना तो यह चाहिए था कि देश की तरक्की के रास्ते में आने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए बिना पार्टीबाजी के दलदल में धंसे सभी नेता एक मंच पर खडे नजर आते। पर नजारा तो हैरान और परेशान करने वाला है। भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अलख जगाने वालों के खिलाफ भी कुछ चेहरे 'एकजुट' हो चुके हैं। उन्हें हर किसी में खोट नजर आता है। ऐसे में आम जनता के दिमाग में यह सवाल भी कुलबुलाने लगा है कि अगर हिं‍दुस्तान में सभी चोर और अपराधी हैं तो फिर साधु कौन है? आखिर वो वक्त कब आयेगा जब राजनीति को किनारे रख आम आदमी के हित में सोचा और किया जायेगा?यकीन मानिए अब लोग बयानों और भाषणों से उकता गये हैं। जो जिसके जी में आता है बोल देता है और खुद को नायक का दर्जा देने पर तुल जाता है। देश भर के अखबारों, न्यूज चैनलों में वही नेता छाये नजर आते हैं जो विवाद खडा करने में माहिर हैं। गंभीर और विचारवान नेताओं को हाशिये में डालने और वाचालों की वाह-वाही करने के षडयंत्र को इस देश की आम जनता भी समझने और परखने लगी है इसलिए देश में जनक्रांति के आसार भी नजर आ रहे हैं जिसे न सत्ताधारी भांप पा रहे हैं और न ही वे जो सत्ता हथियाने की फिराक में हैं।

Thursday, October 20, 2011

पर्दे के पीछे के शिकारी

लोग हैं कि चैन से जीने नहीं देते। बोलो तो तकलीफ। चुप रहो तो तरह-तरह के शक-शुबहा। अन्ना हजारे पिछले कुछ महीनों से लगातार बोल रहे थे। समझदार हैं, इसलिए उन्होंने जान लिया कि लोग अब बोर होने लगे हैं। हर मामले में उनकी टांग फंसाई कई लोगों को रास नहीं आ रही है। उनके साथी प्रशांत भूषण पर भी जो हमला हुआ उससे भी वे सोचने को विवश हो गये कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो बात बिगड सकती है। बात न बिगडे इसलिए उन्होंने कुछ दिनों तक बात ही न करने का निर्णय ले डाला। अन्ना के मौन व्रत धारण करने के बाद अन्य लोगों ने धडाधडा बोलना शुरू कर दिया। अन्ना ने मौन व्रत धारण करने से पहले जब यह कहा कि स्वास्थ्य और आत्मिक शांति के लिए वे यह मार्ग अपनाने जा रहे हैं तो कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिं‍ह चुप नहीं रह पाये। उन्होंने गोली दागी कि झूठ बोल रहे हैं अन्ना। भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के चलते जेल भेज दिये गये कर्नाटक के भाजपाई पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा को लेकर दागे जाने वाले सवालों से बचने के लिए उन्होंने मौन साध लिया है। आरोपों-प्रत्यारोपों के इस जमाने में असली सच की तह तक पहुंच पाना बेहद मुश्किल होता चला जा रहा है। बहरहाल, अन्ना टीम के एक दमदार सदस्य हैं संतोष हेगडे जिनके चलते येदियुरप्पा को यह दिन देखने पडे हैं। उन्होंने बडी ही वजनदार बात कही है कि जरूरत से ज्यादा बोलने पर बेशुमार गलतियां होती चली जाती हैं। वैसे चुप्पी के भी कई मायने होते हैं। यह चुप्पी ही है जो कुछ लोगों के चेहरे पर खूब फबती है। अपने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह अक्सर चुप रहते हैं। पर लोग हैं कि उसमें भी अर्थ खोजते रहते हैं। देश और दुनिया के कई महानुभावों को उनकी मंद-मंद मुस्कराहट और चुप्पी बहुत भाती है। वे चाहते हैं कि हिं‍दुस्तान का यह पी.एम. यूं ही अपना काम करता रहे। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा उनकी खामोशी के जबरदस्त मुरीद हैं। वे यह रहस्योद्घाटन भी कर चुके हैं कि वैसे तो मनमोहन सिं‍ह बोलते नहीं पर जब बोलते हैं तो उन्हें पूरा संसार सुनता है। वैसे यह कला हर किसी के नसीब में नही होती। दिग्विजय सिं‍ह जैसे लोग जब बोलते हैं तो लोग सुनते कम और खीजते ज्यादा हैं।अन्ना कांग्रेस पर जब खुलकर तीर चलाने लगे तो दिग्गी राजा उन्हें भाजपा और संघ के हाथों की कठपुतली घोषित करने लगे। प्रशांत भूषण ने कश्मीर में जनमत-संग्रह की फुलझडी क्या छोडी कि जहां-तहां बम फटने लगे। कुछ लोगों ने प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट के उनके चेंबर में जा घेरा और घूसों और मुक्कों की बरसात कर दी। अपने देश में ऐसे पच्चीस-पचास बुद्धिजीवी हैं जो मानवाधिकार के नाम पर ऊलजलूल बकवास करते रहते हैं। प्रशांत भूषण के देश को तोडने और आहत करने वाले बयान ने अन्ना को भी हैरत में डाल दिया। मौनव्रत में रहने के बावजूद वे अपना आक्रोश दबा नहीं पाये। उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा कि मैं आज भी कश्मीर के लिए पाकिस्तान से लडने और अपनी कुर्बानी देने के लिए सहर्ष तैयार हूं। उन्होंने देशवासियों को याद दिलाया कि वे देश के सजग सैनिक रहे हैं और भारत-पाक युद्ध में भाग लेकर अपने माथे पर गोली भी झेल चुके हैं। उस गोली का निशान आज भी उनके माथे पर कायम है। यकीनन अन्ना का देश प्रेम बेमिसाल है। ऐसे में प्रशांत भूषण जैसे देश तोडक मनोवृत्ति के शख्स का उनकी टीम में रहना नहीं सुहाता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह तो नहीं है कि आप कश्मीर को भारत से अलग करने की बात करने लगें। प्रशांत भूषण माओवादियों के पक्ष में भी निरंतर बयानबाजी कर देशवासियों को निराश करते रहे हैं। पर फिर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमत होने पर हिं‍सा का मार्ग अपनाना कतई उचित नहीं लगता। उत्तर प्रदेश की यात्रा के दौरान टीम अन्ना के अरविं‍द केजरीवाल पर चप्पल फेंक दी गयी। उन पर चप्पल फेंकने वाले युवक जितेंद्र पाठक का कहना है कि केजरीवाल देश की जनता को बरगलाने में लगे हैं। कल तक इसी युवक को केजरीवाल में देश को जगाने वाला एक देशभक्त नजर आ रहा था। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में चले अन्ना के आंदोलन में भी भाग ले चुका है। प्रशांत भूषण पर हमला करने वाला तेजिं‍दर सिं‍ह बग्गा भी अन्ना हजारे के समर्थन में तिहाड जेल के बाहर जोरदार प्रदर्शन कर चुका है। गजब की सच्चाई तो यह भी है कि जितेंद्र पाठक कांग्रेस पार्टी और बग्गा भारतीय जनता युवा मोर्चा की कार्यकारिणी में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं। ऐसे में यह भी लगने लगा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चलायी जा रही अन्ना हजारे की मुहिम को राजनीति के शिकारी लहुलूहान कर खत्म कर देने पर उतारू हैं। अरविं‍द केजरीवाल पर चली चप्पल को नजअंदाज नहीं किया जा सकता। इस चप्पल को जिस हाथ ने उछाला है उसके पीछे और भी कई दिमाग हो सकते हैं। इनकी शिनाख्त करना बेहद जरूरी है। इस देश में कई ताकतें ऐसी हैं जो भ्रष्टाचार के रावण का दहन नहीं होने देना चाहतीं। इसलिए वे भ्रष्टाचार के अंधेरे के खिलाफ मशाल उठा कर चल रहे हर चेहरे को संदिग्ध दर्शाने पर तुली हैं। हम मानते हैं कि इस दुनिया के हर इंसान में कोई न कोई छोटी-मोटी कमी और कमजोरी होती है पर इसका अर्थ यह नहीं कि जो काम अभी तक किसी ने नहीं किया हो, उसी काम को करने के लिए अगर देश के चंद जुनूनी चेहरे सामने आये हैं तो उनकी हौसला-अफजाई करने की बजाय बेवजह टांग खिं‍चाई की जाए। ऐसे में तो असली समस्या धरी की धरी रह जाएगी और पर्दे के पीछे बैठकर तीर चलाने वालों का मकसद पूरा हो जायेगा। दरअसल अब वो समय आ गया है जब इस देश की आम जनता को साजिशकर्ताओं की अनदेखी कर भ्रष्टाचार के खिलाफ लडने के लिए आगे आने वाले योद्धाओं का भरपूर साथ देना चाहिए। सच्चे इंसान की पहचान कर पाना ज्यादा मुश्किल काम नही है। अगर हम इस दायित्व को निभाने में सफल होंगे तभी देश का हर नागरिक खुशहाल होगा और दिवाली की जगमगाहट पर कुछ लोगों का नहीं बल्कि हर किसी का अधिकार होगा। आप सबको दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, October 13, 2011

अंडा खाये फकीर

एक ही हफ्ते में दो धुरंधरों की किताबों का विमोचन हुआ। पहले हैं चेतन भगत जो कि नामी-गिरामी लेखक हैं। दूसरे हैं राजनीतिक नितिन गडकरी जो संघ की मेहरबानी से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन हवा में उड रहे हैं। युवाओं के चहेते लेखक चेतन भगत की नई किताब 'रिवोल्यूशन २०२०:लव, करप्शन, एंबिशन' बाजार में आते ही हाथों हाथ बिक गयी। भारत वर्ष में जहां दमदार माने-जाने हिं‍दी लेखकों की किताब के किसी भी संस्करण की चार-पांच सौ से ज्यादा प्रतियां नहीं छपतीं वहीं चेतन की अंग्रेजी में लिखी इस किताब की दस लाख प्रतियां छापी गयी हैं और हैरत की बात यह भी है कि पहले ही दिन दो लाख से ज्यादा किताबों की रिकॉर्ड तोड बिक्री हो गयी। बनारस की एक प्रेम कहानी में रचे-बसे चेतन के इस उपन्यास में शैक्षणिक जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार की सच्ची तस्वीर पेश की गयी है। चेतन ने किताब लिखने से पहले कई बार बनारस की गलियों की खाक छानी। देश की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं का अंदरूनी हाल-चाल भी जाना।आज यह कौन नहीं जानता कि देश की अधिकांश बडी-बडी शिक्षण संस्थाएं लालची उद्योगपतियों, काले-पीले कारोबारियों और भ्रष्ट नेताओं की गिरफ्त में हैं। इन धनखोरों के कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए छात्रों को लाखों रुपये की रिश्वत देनी पडती है। बेचारे मां-बाप अपने बच्चों के सुनहरी भविष्य के लिए जैसे-तैसे रुपयों का इंतजाम कर निजी कॉलेज संचालकों की मंशा को पूरा करते हैं। प्रतिभा न होने के बावजूद थैलियां देकर डॉक्टर और इंजिनियर बनने वाले युवक जहां मौका मिलता है वहां भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते। इसे उनकी विवशता भी कहा जा सकता है। दिया है तो लेंगे भी। असली डाकू ये नहीं वो हैं जो माल कमाने के लिए स्कूल कॉलेज चलाते चले आ रहे हैं। यह ऐसे डकैत हैं जो जनता को भी लूटते हैं और सरकार को भी। सरकार की नादानी कहें या मिलीभगत कि वह इन्हें करोडों की जमीनें कौडि‍यों के भाव खैरात में दे दी जाती हैं। फिर भी इनका पेट नहीं भरता। इन धनपशुओं ने शिक्षा संस्थानों में विद्या दान की बजाय उसे बेचना शुरू कर दिया है। जिनकी जेबे भारी हैं उन्हीं की नालायक औलादें डॉक्टर और इंजिनियर बन रही हैं और देश में भ्रष्टाचार बढा रही हैं। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, हरियाना और जहां-तहां सत्ता का सुख भोग चुके राजनेताओं के स्कूल कॉलेज हैं। 'चौधरी', 'भाऊ', 'बाबू' जैसे तमाम नामधारी राजनीति में आते ही इसलिए हैं कि मेडिकल और इंजिनियर कॉलेज खोल अपने मंसूबे पूरे कर सकें। महाराष्ट्र में तो नेता विधायक बनते ही 'कॉलेज' हथिया लेते हैं और मंत्री बनने के बाद तो कॉलेजों की कतार लग जाती है।शासन से अधिकतम अनुदान ऎंठने के लिए निर्लज्ज धोखाधडी को भी बेखौफ होकर अंजाम दिया जाता है। महाराष्ट्र में कई शालाओं की जांच करने पर यह असलियत सामने आयी है कि संचालक फर्जीवाडा कर शासन को कई तरह से लूटते-खसोटते चले आ रहे हैं। छात्रों की संख्या कम होने के बावजूद कई गुना अधिक दर्शाकर अनुदान की लूटखोरी के खेल को खेलने के साथ-साथ शिक्षकों को नौकरी देने के नाम पर अच्छी-खासी ठगी की जाती है। मेडिकल कॉलेज, इंजिनियर कॉलेज से लेकर शाला, आश्रम शाला, जूनियर कॉलेज, हाईस्कूल और मतिमंद बच्चों के लिए चलने वाले स्कूलों की आड में शासन तथा जनता के करोडों-करोडों रुपये लूटने का जो शर्मनाक धंधा चल रहा है उसके रूकने और थमने के कहीं आसार नजर नहीं आते। इस लूटमारी से हर दल और हर नेता वाकिफ है। जिस दल की सरकार बनती है उसके नेता बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं।भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने शारीरिक वजन को घटाने में सफलता पा ली है। अब वे दिल्ली में अपना वजन बढाना चाहते हैं। वैसे भी जब से वे दिल्ली भेजे गये हैं तभी से उन्हें यह गम सताता रहा है कि महाराष्ट्र की तरह दिल्ली में उनकी दाल गल नहीं पा रही है। दिल्ली वाले उन्हें गाली-गलौज करने वाला नेता समझते हैं इसलिए उन्होंने आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर के हाथों अपनी एक किताब का लोकार्पण करवा डाला। 'विकास के पथ पर' नामक किताब में ओरिजनल और नया कुछ भी नहीं है जैसा कि चेतन भगत की किताब में है। गडकरी समय-समय पर जो भाषण देते रहे हैं उन्हीं का संग्रह मात्र है यह किताब। दिल्ली के प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब की कितनी प्रतियां बिकीं इस पर दिमाग खपाना बेकार की बात है। ऐसी किताबें न तो बिकती हैं और न ही इन्हें बेचने के लिए प्रकाशित किया जाता है। इन किताबों का मकसद खुद को बुद्धिजीवी साबित करना होता है। इन किताबों को आम पाठक न तो पढते हैं और न ही उनकी ऐसी कोई जिज्ञासा और इच्छा होती है। दरअसल यह संग्रहालयों की शोभा बढाती रहती हैं और यह भी दर्शाती रहती हैं कि नेता जी लेखक भी हैं...। यह बात भी लगभग हर किसी को पता है कि अधिकांश नेताओं के भाषण किसी और के लिखे होते हैं। नेता तो सिर्फ दूसरे के लिखे को मंच पर पढने का ही काम करते हैं। फिर भी नेताओं को अपने नाम से किताब छपवाने का 'सुख' तो मिल ही जाता है। ओरिजनल लेखक में कहां इतना दम कि वह नेता जी का विरोध कर सके। नेता तो नेता बडे-बडे अखबारों के संपादक भी दूसरों के लिखे संपादकीय लेखों के संग्रह की किताबें अपने नाम पर छपवा कर लेखक होने का गौरव हासिल कर लेते हैं। कई अखबार मालिक तो ऐसे भी हैं जो अपने तथा अपने दुलारे के नाम से बडे अधिकार के साथ वह कॉलम प्रकाशित करते चले आ रहे हैं जो दरअसल उनके संपादकीय सहयोगियों के द्वारा लिखा जाता है। मजे की बात तो यह भी है कि ऐसे कॉलम किताब का रूप भी पा लेते हैं जिस पर अखबार मालिक की फोटो परिचय सहित छपी रहती है...। इसे कहते हैं मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाये फकीर....।

Wednesday, October 5, 2011

राम कहां हैं?

त्योहारों का मौसम है। कुछ नेताओं की याददाश्त गुम हो चुकी है तो कुछ सपनों की बंजर-बगिया में फूल खिलाने के अभियान में लग गये हैं। सबसे पहले बात केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की। कोई कितनी भी पी ले पर वह इस कदर होश नहीं खोता जैसे चिदंबरम ने खोये हैं। वे सब कुछ भूल गये हैं। अगला-पिछला कुछ भी उन्हें याद नहीं है। देश के गृहमंत्री जिन पर देश की सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है वे ही अगर घपले-घापों के आरोप लगने पर यह कहें कि भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ... तो देश कैसे चलेगा! कुछ लोग तो अब यह भी मान चुके हैं कि यह देश चलना-फिरना भूल गया है। सत्ता-उपासकों ने इसके चक्के जाम करके रख दिये हैं। ऐसे लोग भी हैं जो यह कहते-फिरते हैं कि देश का सत्यानाश कर दिया गया है और जो सत्यानाशी हैं वे सर्कस के जोकर की तरह उछल-कूद रहे हैं। आइना हर किसी का चेहरा-मोहरा दिखा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी जब यह कहते हैं कि यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह ने इसी तरह से भ्रष्टाचार करने वालों को संरक्षण देना जारी रखा तो वे शीघ्र ही घोटालों की आंच में झुलसे नजर आएंगे और उनकी अगली केबिनेट की बैठक तिहाड जेल में होगी तो सुनने-पढने वालों को बरबस हंसी आ जाती है। दरअसल इस हंसी के पीछे भी एक गहरा व्यंग्य भाव छिपा होता है। जिस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में रिश्वतखोर बंगारू लक्ष्मण, भ्रष्टम मुख्यमंत्री येदियूरप्पा और रेड्डी बंधुओं जैसे खनिज माफियाओं का वर्चस्व रहा हो उस पार्टी के मुखिया का हर बयान आसानी से हजम नहीं किया जा सकता। वैसे खबर यह भी है कि करीब दस साल पहले टीवी पत्रकारों से सरेआम घूस लेते दिखने वाले भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पर गडकरी काफी मेहरबान हो गये हैं। उन्हें उन पर दया आने लगी है। इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के इस दलित नेता के निर्वासन का खात्मा करते हुए उन्हें तामिलनाडु में 'कमल' को खिलाने और चमकाने के काम पर लगा दिया है। वैसे यह तो तय है कि यह वर्ष तिहाड के नाम को रोशन करने वाले वर्ष के रूप में याद किया जायेगा। कितने-कितने महारथी तिहाड की शोभा बढा रहे हैं। न जाने कितने वर्षों से देशवासी ऐसे ऐतिहासिक अवसर की राह देख रहे थे। नोट के बदले वोट के चक्कर में जब से अमरसिं‍ह की गिरफ्तारी हुई है तब से देशवासियों के मन में कहीं न कहीं यह भरोसा तो जागा ही है कि कानून के रखवाले यदि चाहें तो हाई प्रोफाइल लोग भी सीखंचों के पीछे पहुंचाये जा सकते हैं। सरकारी भ्रष्टाचारियों की निरंतर होती गिरफ्तारियों से प्रफुल्लित भारतीय जनता पार्टी हमेशा की तरह काठ की हांडी में मसालेदार पुलाव बनाने की तैयारियों में जुट गयी है। इस पार्टी के दिग्गजों को दूसरों के घरों के जलने-फुंकने का सदैव इंतजार रहता है। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिं‍ह और वेकैंया नायडू को किसी ज्योतिष ने पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया है कि सन २०१२ में कभी भी मध्यावद्धि चुनाव होने तय हैं। दशहरे के बाद यानी ११ अक्टुबर से आडवाणी चालीस दिन की यात्रा पर निकलने वाले हैं। इस यात्रा का एक मकसद तो कांग्रेस को डराना है और दूसरा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के होश ठिकाने लगाते हुए उन्हें उनकी हैसियत से रूबरू कराना है। वैसे यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि कौन किस पर भारी पडता है। भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद को लेकर मोदी और आडवाणी के बीच चल रही लडाई को देख कर एक असली योद्धा की बरबस याद हो आती है। इसी जूझारू योद्धा ने पार्टी को खादपानी देकर सींचने में कोई कमी नहीं की। उसकी बोयी फसल को आज भी काटा जा रहा है। जी हां हम उन अटल बिहारी वाजपेयी का जिक्र कर रहे हैं जिनके अटूट परिश्रम और निष्कलंक छवि की बदौलत भारतीय जनता पार्टी ने लोगों के दिल में जगह बनायी थी। एक निष्पक्ष और निर्भीक राजनेता आज विश्राम की मुद्रा में है। आडवाणी दिखावे के तौर पर मोदी का कितना भी विरोध कर लें पर उनमें अटल जैसा साहस और आकर्षण पूरी तरह से नदारद है। यह अकेले और इकलौते अटल बिहारी वाजपेयी ही थे जिन्होंने मोदी को गुजरात में राजधर्म का पालन करने की सीख दी थी। यह भी सच है कि मोदी ने इसे सुन कर भी अनसुना कर दिया था। ऐसे में यह सोचना कि आडवानी मोदी को उनकी हैसियत दिखा पायेंगे यकीनन सपने देखने जैसी बात है। भाजपा में चल रहे पटका-पटकी के खेल को देखकर सजग देशवासी अब कतई अचंभित नहीं होते। वे तो सिर्फ अपना माथा पीटकर रह जाते हैं कि कुर्सी के भूखे नेताओं की वजह से हालात कहां से कहां जा पहुंचे हैं। देश के गृहमंत्री भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का साथ देने के आरोप में कटघरे में खडे हैं। जिस व्यक्ति पर देश की रक्षा का जिम्मा है वही असहाय की मुद्रा में यह कह रहा है कि उसे भूलने की बीमारी है। उनसे ज्यादा सवाल न किए जाएं। जिस देश के गृहमंत्री की याददाश्त का दिवाला पिट गया हो उस देश का क्या होगा सोचकर ही भय लगने लगता है। कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी जिस तरह से चुप और खामोश हैं उससे भी लोग बेहद विस्मित हैं। लगता है वे भी थकहार गयी हैं। हकीकत तो यही है कि मंदिर के नाम पर सत्ता पाने वाली भाजपा और कांग्रेस का हाथ जनता के साथ के नारे लगाने वाली कांग्रेस पूरी तरह से बेनकाब हो चुकी हैं। ऐसे में सियासत के खिलाडि‍यों की याददाश्त ने भले ही उन्हें धोखा दे दिया हो पर सजग देशवासियों के होश चुस्त और दुरुस्त हैं... इसलिए वे 'रावण' को जलाना तथा राम को पूजना कभी भी नहीं भूलते। पर रावणों की भीड में राम कहां हैं?