Thursday, December 30, 2010

शराब, युवा और कलम के सिपाही

शाही ब्याह के अवसर पर अपने रिश्तेदारों, मित्रों, स्नेहियों और शुभचिं‍तकों को सादर आमंत्रित करने के लिए छपवायी जाने वाली निमंत्रण पत्रिका भी काफी मायने रखती है। बदलते समय के साथ-साथ इसमें भी तरह-तरह के प्रयोग होते रहते हैं। वैसे यह भी हकीकत है कि अधिकांश निमंत्रण पत्रिकाओं में ऐसा कोई आकर्षण नहीं होता जिसे वर्षों तक याद रखा जा सके। दरअसल इस महत्वपूर्ण कार्य को महज रस्म अदायगी मान लिया जाता है और किसी पुराने निमंत्रण कार्ड की नकल कर नया निमंत्रण कार्ड तैयार करवा लिया जाता है। इसलिए जिन्हें इनके जरिये निमंत्रित किया जाता है वे कार्यक्रम की तारीख और स्थल की जानकारी पाने के लिए पत्रिका पर सरसरी नजर दौडाते हैं और फिर उसे किसी कोने के हवाले कर देते हैं।बीते सप्ताह मुझे शहर के युवा पत्रकार मयूर रंगारी की शादी की निमंत्रण पत्रिका मिली। संयोग से उस समय मैं फुरसत में था इसलिए पत्रिका को ध्यान से पढने लगा। पत्रिका में तथागत बुद्ध के शाश्वत संदेश को पढने के बाद मेरे अंदर काफी देर तक विचार-मंथन चलता रहा। सर्वप्रथम मैं चाहता हूं कि आप भी इस संदेश को अवश्य पढें:हे मानवतुम शेर के सामने जाते हुए मत डरना,क्योंकि वह शौर्य की पहचान है।तुम तलवार के नीचेसिर रखने से मत घबराना,क्योंकि वह शूरता की निशानी है।तुम आग में कूदने से मत हिचकिचाना,क्योंकि वह वीरता की परीक्षा है।तुम पर्वत की चोटी से कूद पडनाक्योंकि वह पराक्रम कीपराकाष्ठा है।लेकिन तुम शराब सेसदा भयभीत रहनाक्योंकि वह पाप, गरीबी और अनाचार की जननी है...।मेरे प्रिय पाठकों के मन में यकीनन यह जिज्ञासा उठ सकती है कि उपरोक्त पंक्तियों में ऐसी कौन-सी नयी बात है जिस पर इतना चिं‍तन किया जाए। दरअसल बात उस पत्रकार बिरादरी की है जो नशे की गुलाम हो चुकी है। कितने तो ऐसे हैं जो चौबीस घंटे टुन्न रहते हैं। बिना पिये उनकी कलम और जुबान ही नहीं चलती। कुल मिलाकर आज की तारीख में पत्रकारों की जो छवि बन चुकी है उसे सुखद तो कतई नहीं कहा जा सकता। लोगों के मन में यह धारणा भी घर कर चुकी है कि अधिकांश पत्रकार अपने मिशन से भटक चुके हैं। शराब और कबाब उनकी कमजोरी बन चुके हैं। युवाओं को पत्रकारिता इसलिए भी लुभाती है क्योंकि यहां पर मुफ्त की शराब की कोई कमी नहीं होती। बडे-बडे उद्योगपतियों, बिल्डरों और राजनेताओं की पत्रकार वार्ताओं में दारू और मुर्गे का जो जश्न चलता है वह नये पत्रकारों को एक ऐसी नयी दुनिया ले जाकर छोड देता है जहां से वे वापस नहीं आना चाहते। यह शराब ही है जो न जाने कितने पत्रकारों को भटका चुकी है और स्वर्गवासी बना चुकी है। यह सिलसिला अनवरत चलता चला आ रहा है। कुछ ही ऐसे होते हैं जो पत्रकारिता के तयशुदा लक्ष्य से नहीं भटकते। उन्हें शराब, कबाब, शबाब और लिफाफों की महक अपनी गिरफ्त में नहीं ले पाती। ऐसे में जब मैंने एक युवा पत्रकार की शादी की निमंत्रण पत्रिका में शराब के असली चरित्र को उजागर करने वाली उपरोक्त पक्तियां पढीं तो अचंभित रह गया। मन में यह विश्वास भी जागा कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। उम्मीद की किरणें बची हुई हैं। देश के युवा वर्ग को शराब की बुराइयों से अवगत कराने और इससे दूर रहने की प्रेरणा जितने प्रेरक ढंग से पत्रकार दे सकता है और कोई नहीं।राजनेताओं और सरकार से तो ऐसी कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है। उन्हें तो येन-केन-प्रकारेण अपना खजाना भरने की लगी रहती है। इनके लिए यह तथ्य कोई मायने नहीं रखता कि देश के युवाओं को शराब हिजडा बना रही है। जी हां हाल ही में डॉक्टरों के दल ने सर्वेक्षण कर सनसनीखेज खुलासा किया है कि ज्यादा शराब पीने के कारण युवकों की सेक्स की शक्ति कम होती जा रही है। वे लगभग नकारा होते जा रहे हैं। मुंबई, औरंगाबाद, पुणे और सोलापुर के युवाओं से की गयी अंतरंग बातचीत के बाद यह तथ्य उजागर हुआ है कि चालीस प्रतिशत से ज्यादा युवाओं ने अत्याधिक शराब को गले लगाने के कारण अपनी जिं‍दगी बरबादी के कगार पर पहुंचा दी है। इन युवाओं की पत्नियों से चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला है कि अपने पति के घोर शराबी होने के कारण वे काफी चिं‍तित और परेशान रहती हैं। पति के मुंह से आने वाली शराब की गंदी बदबू उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होती। शराब पीने के बाद पति का बदला हुआ रवैय्या और अमानवीय व्यवहार भी काफी आहत करने वाला होता है। ऐसे में कई महिलाएं पथभ्रष्ट होने को विवश हो जाती हैं। उन्हें जीवनपर्यंत 'चरित्रहीन' के कलंक के साथ जीना-मरना पडता है। जिसके साथ सात फेरे लिये उसी की नशाखोरी की लत के चलते अवैध संबंधों को मजबूरन ढोने की यातना तक भोगनी पडती है।यह हमारे उस समाज का चित्र है जहां पहुंचे हुए साधु-संन्यासी बुद्धिजीवी और चिं‍तक रहते हैं। शराब इंसान का नैतिक पतन तो करती है साथ ही न जाने कितने अपराधों और हत्याओं की जननी भी है। नागपुर शहर में सन २०१० में लगभग ९० हत्याएं हुई। इन अधिकांश हत्याओं के पीछे शराब और अवैध संबंधों का बहुत बडा योगदान रहा है। पर सरकार को मूकदर्शक बने रहने में ही अपनी भलाई नजर आती है। शहर मयखानों में कैसे तब्दील होते चले जा रहे हैं उसका सटीक उदाहरण है महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर। देश के हृदय स्थल में बसी इस संतरा नगरी में वर्तमान में ५७५ बीयर बार, ११३ अंग्रेजी वाइन शॉप, २७५ देसी शराब दुकान और ६ क्लब हैं। यह तो हुई वैध मयखानों की बात। चालीस लाख से ऊपर की जनसंख्या वाले इस शहर में शराब के अवैद्य ठिकानों की तादाद और भी ज्यादा है। इनकी पूरी लिस्ट पुलिस और आबकारी विभाग के कमाऊ पूतों की जेब में रहती है।महाराष्ट्र सरकार को शराबियों से कुछ ज्यादा ही लगाव है। उससे उनकी तकलीफ देखी नहीं जाती। यही वजह है कि अब तो नागपुर में ही सैकडों बीयर शॉप खुल रही हैं जहां पर कॉलेज और स्कूलों के छात्र-छात्राओं को भी निस्संकोच बीयर गटकते हुए देखा जा सकता है। जिन लडके-लडकियों की जेबें उन्हें यह शौक पूरा करने की इजाजत नहीं देतीं वे भी आपस में चंदा जमाकर बीयर शॉपी के सामने शान से लाइन लगाये खडे नजर आते हैं। सियासियों के लिए यह देश की तरक्की की निशानी है। मयूर रंगारी जैसे कुछ सजग पत्रकार इस बर्बादी के मंजर को देखकर चिं‍तित और दुखी होते हैं और महापुरुषों के संदेश छपवाते और कलम चलाते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसों की पहल और अनुसरण से ही सोये हुए लोग जागते हैं और धीरे-धीरे कारवां बनता चला जाता है...।

Thursday, December 23, 2010

कब तक मूकदर्शक बने रहेंगे नरेंद्र मोदी?

आज से तीस वर्ष पहले तक कांग्रेस ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर अपना एकाधिकार समझती थी। पर इधर के कुछ वर्षों से देश की दीगर राजनीतिक पार्टियां भी इस राष्ट्रीय संत के प्रति अपना अधिकार और जुडाव दर्शाने लगी हैं। दरअसल उनका भी इस हकीकत से साक्षात्कार हो गया है कि अगर देशभर के मतदाताओं के दिल में जगह बनानी है तो महात्मा गांधी के नाम का सहारा लेना ही होगा। कांग्रेस ने गांधी के नाम को भुना कर वर्षों तक देश और प्रदेशों में भरपूर सत्ता-सुख भोगा है। जब भाजपा जैसी पार्टियां गांधी के नाम की माला जपती हैं तो कांग्रेस अंदर ही अंदर कसमसा कर रह जाती है, पर कुछ कह और कर नहीं पाती। यह कांग्रेस ही है जिसने राष्ट्रपिता के नाम को अमर रखने के लिए क्या-क्या नहीं किया। देश भर में उनके नाम पर असंख्य अस्पताल, स्कूल-कॉलेज खुलवाये। बाग-बगीचों और चौक-चौराहों का नामकरण भी किया। दरअसल कांग्रेस ने यह सब कुछ अपना वोट बैंक बढाने के लिए किया। देश की अन्य राजनीतिक पार्टियां अंधी नहीं हैं। कांग्रेस का गणित समझने में उन्हें ज्यादा देरी नहीं लगी। वे भी महात्मा गांधी के नाम की माला जपने लगीं। यह सिलसिला अब हर कहीं उफान पर है। पर गांधी के नाम का जितना फायदा कांग्रेस को मिला उतना और किसी अन्य पार्टी के नसीब में नहीं आया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तमाम नशों के खिलाफ थे। उनका मानना था कि शराब इंसान की बरबादी की असली जड है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सच्चे गांधीवादी थे इसलिए उन्होंने गुजरात में नशाबंदी को अमलीजामा पहनाया। इसके पीछे उनका यह उद्देश्य भी था कि बापू की जन्म स्थली गुजरात नशों और नशेडि‍यों से मुक्त रहे। यह एक तरह से उनकी तरफ से गांधी बाबा को एक श्रद्धांजलि थी और देश की जनता को संदेश भी था कि सच्चे कांग्रेसी अहसान फरामोश नहीं होते। गुजरात में नशाबंदी लागू हुए वर्षों बीत गये। मोरारजी देसाई जैसे गांधीवादी भी नहीं रहे। नकलियों और नकलचियों की अच्छी खासी जमात ने कांग्रेस पर कब्जा जमा लिया। पर सवाल यह भी उठता है कि क्या वास्तव में गुजरात में दारू बंदी के अभियान को पूरी तरह से सफलता मिल पायी? क्या बापू की जन्म स्थली में शराब नहीं मिलती और बिकती? इन पंक्तियों के लेखक ने बीते सप्ताह अहमदाबाद और सूरत में कुछ दिन के प्रवास के दौरान जो नजारा देखा उससे स्पष्ट हो गया है कि गुजरात में दारू बंदी महज ढकोसला है। नेताओं और नौकरशाहों की जेबों को लबालब करने वाला सहज उपलब्ध माध्यम है।यह भी कडवा सच है कि औद्योगिक और व्यापारिक नगरी सूरत में जिस तरह से खुलेआम शराब बिकती है उससे शासन और प्रशासन का चेहरा बेनकाब हो जाता है। इस शहर के गोलवाड इलाके में चौबीस घंटे शराब बिकती है। मुख्य सडक से जुडी गलियों में सैकडों घर 'बार' में तब्दील हो चुके हैं। शराब के शौकीन जैसे ही यहां प्रवेश करते हैं शराब बेचने वाले चेहरे उन्हें निमंत्रण देने लगते हैं। दरअसल इन लोगों ने अपने-अपने घरों में विभिन्न किस्म की शराब तथा बीयर के साथ सोडा और नमकीन आदि की भरपूर व्यवस्था की हुई होती है। महिलाएं भी साकी का रोल निभाती देखी जाती हैं। इन गलियों में उन ठेलों की भरमार रहती है जहां पर अंडे, आमलेट और अन्य मांसाहारी खान-पान का प्रबंध रहता है। भीड इतनी अधिक रहती है कि सडक पर चलना भी मुश्किल हो जाता है। बडे ही सुनियोजित तरीके से वर्षों से चले आ रहे ड्राई प्रदेश में अवैध शराब के इस धंधे पर किसी भी सरकार ने अंकुश लगाने की पहल नहीं की! बताते हैं कि कई पुराने और नये नेता इसी धंधे की बदौलत आबाद हैं। उनकी राजनीति की दुकान की बरकत बनी हुई है। पुलिस वाले भी यहां आते हैं। अपना काम कर निकल जाते हैं। वैसे बताने वाले यह भी बताते हैं कि अधिकांश पुलिस वाले यहां दस्तक देने में घबराते हैं। पुरानों ने यहां पर अपनी धाक जमा रखी है। यही हाल पत्रकारों का भी है। अवैध शराब बेचने वालों में प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है। मार-काट भी होती रहती है। हाल ही में एक शख्स को मौत के घाट उतार दिया गया।जिस तरह से सूरत के गोलवाड में चौबीस घंटे खुलेआम शराब मिल जाती है, वैसे ही हाल लगभग पूरे गुजरात के हैं। बाहर से आने वाले व्यापारी यहां की चखने के बाद बडी शान से अपने शहरों में जाकर बताते हैं कि कहने को तो गांधी के गुजरात में शराब पर पाबंदी हैं, पर ब्लैक में जितनी चाहो उतनी ले लो...। शासन और प्रशासन की नाक काटती यह शराब मंडी इतनी अधिक प्रचारित हो चुकी है कि दूसरे प्रदेशों से आने वाले व्यापारियों को इधर-उधर दिमाग खपाने की जरूरत नहीं पडती। सूरत और अहमदाबाद में प्रति दिन लाखों कपडे और हीरे के व्यापारी आते हैं। स्थानीय व्यापारियों की भी बहुत बडी संख्या है जिनकी रात शराब के बिना नहीं कटती। जानकारों का कहना है कि सूरत, अहमदाबाद जैसे महानगरों में ही इतनी अवैध शराब बिकती है, जिसका साल भर का आंकडा अरबों-खरबों में है। दमन भी करीब है, जहां से बेहिसाब शराब ट्रकों, जीपों और अन्य वाहनों में भरकर लायी जाती है और गुजरात के कोने-कोने में पहुंचायी जाती है। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी ने इस अरबों-खरबों के अवैध धंधे को रोकने के प्रयास किये थे, पर उन्हें भी अपने हाथ वापिस खींच लेने पडे। उन्हीं की पार्टी के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और मंत्रियों के तार इस गोरखधंधे के खिलाडि‍यों से अंदर तक वर्षों से जुडे हैं। कई नये-पुराने कांग्रेस के खिलाडी भी बहती गंगा में हाथ धोते चले आ रहे हैं। चुनाव लडने और दीगर शौक-पानी पूरे करने के लिए नेताओं और गुंडे-बदमाशों के लिए तो यह सदाबहार बैंक है, जहां से वे जब चाहें माल वसूल सकते हैं। ऐसे में अब, जब मोदी तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बन गये हैं, तब उनसे यह आशा तो की जा रही है वे गुजरात के माथे पर लगे इस कलंक को धोने की हिम्मत दिखाएं। शराब बंदी के ढोंग के ढोल की चीरफाड कर कोई ऐसा कदम उठायें कि अभी तक जो अथाह धन राशि नेताओं, नौकरशाहों और माफियाओं की तिजोरी में जाती रही है, वह शासन के खाते में जमा हो। वैसे भी अब गुजरात में शराब बंदी के क्या मायने हैं? जब बंदी होने के बाद भी धडल्ले से शराब बिकती चली आ रही है, तो 'शराब बंदी' के इस ढोंग को बरकरार रखने का कोई तुक नहीं दिखता। यह भी तय है कि मोदी जब गुजरात से शराब बंदी हटाने का ऐलान करेंगे, तो तूफान उठेगा कि यह तो बापू का सरासर निरादर है। महात्मा गांधी का निरादर करने वाले ही ज्यादा शोर मचायेंगे। सौदागर किस्म के राजनीतिज्ञों का असली धर्म-कर्म ही यही है। वैसे भी यह पूरा देश महात्मा गांधी की कर्मस्थली रहा है। जब पूरे देश में शराब बिकती है और हर प्रदेश की तिजोरी में अरबों-खरबों रुपये का राजस्व जमा होता है तो फिर गुजरात क्यों वंचित रहे? गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए यह अग्नि परीक्षा है। उनके पास दो ही रास्ते हैं या तो गुजरात में शराब पर पूरी तरह से पाबंदी लगवायें या फिर दूसरे प्रदेशों की तरह वैध शराब बिकने के रास्ते खोल दें। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि नरेंद्र मोदी को इस सारे गोरखधंधे की जानकारी न हो। गुजरात में धडल्ले से अवैध शराब का मिलना और बिकना एक तरह से उस नरेंद्र मोदी के माथे पर कलंक है जो ईमानदारी से प्रदेश के विकास में लगे हुए हैं। क्या नरेंद्र मोदी इस कलंक को नहीं धोना चाहेंगे?

Thursday, December 16, 2010

हुक्मरानों की मक्कारी

अक्ल के अंधों को भले ही हकीकत समझ में न आ रही हो पर भारत वर्ष का हर सजग नागरिक देख और समझ रहा है कि लोकतंत्र की जडों को खोखला करने और उसमें तेजाब डालने वाले हाथों की गिनती बढती ही चली जा रही है। देश का हित चाहने वाले आम आदमी के हाथ से बहुत कुछ छूटता चला जा रहा है। सत्ता के कंधों पर सवार दौलतमंद देश को नीलामी की मंडी में तब्दील करने में सफल होते दिखायी दे रहे हैं। जिन्हें देश को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है वे भी लगभग समझौतापरस्त हो चुके हैं। इस परिपाटी के खिलाफ यदा-कदा कोई आवाज उठाता भी है तो उसे भी कटघरे में खडा करने के षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं। यह सच्चाई पूरी तरह से उजागर हो चुकी है कि देश की संसद और विधान सभाओं में थैलीशाहों की सल्तनत चलती है। गरीब आदमी सांसद या विधायक बनने की सोच भी नहीं सकता। राज्यसभा के चुनाव तो सिर्फ और सिर्फ धनवीरों की ताकत का अखाडा बनकर रह गये हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान ने बडे ही पते की बात कही है कि राज्यसभा की सीटें बिकती हैं। जिनके पास विधायकों को खरीदने का दम होता है वही राज्यसभा का सदस्य बन जाता है। यकीनन यह देश का दुर्भाग्य ही है कि शराब किं‍ग विजय माल्या जैसे लोग राज्यसभा में पहुंचने लगे हैं। देश और दुनिया को शराब के नशे में धकेलने वाला शख्स अपने फायदे की ही सोच सकता है। विजय माल्या की तरह और भी कई उद्योगपति, भूमाफिया, खनिज माफिया और गुंडे बदमाश किस्म के लोग विधायकों की खरीद फरोख्त कर राज्यसभा के सांसद बन लोकतंत्र का मजाक उडाते दिखायी देते हैं। राज्यसभा का चुनाव आम आदमी लड ही नहीं सकता। राज्यसभा की सीट के बदले बडे-बडे सौदों को अंजाम दिया जाता है। अधिकांश राजनीतिक पार्टियां उन्हीं रईसों को टिकट देती हैं जो उनकी झोली भरने में सक्षम होते हैं।संविधान निर्माताओं का राज्यसभा की स्थापना के पीछे बहुत बडा उद्देश्य छिपा हुआ था। बहुतेरे ईमानदार, देशप्रेमी नागरिक ऐसे भी होते हैं, जिनकी चाहत होती है कि देश के लिए कुछ खास किया जाए परंतु वे चुनावी दांव-पेंचों की उलझन से बचना चाहते हैं। उनके संस्कार भी उन्हें इस उलझन में फंसने की इजाजत नहीं देते। लोकसभा चुनाव में करोडों रुपये फूंकने पडते हैं। ईमानदार आदमी के लिए इतनी दौलत जुटाना आसमान से तारे तोडने जैसा है। यही वजह है कि बडे-बडे उद्योगपति, धन्नासेठ, भूमाफिया जिनके गोदामों में काले धन का जखीरा भरा पडा है वे हंसते-हंसते लोकसभा का चुनाव लडते हैं। जीत हासिल करने के लिए अच्छे बुरे कार्यकर्ताओं के साथ-साथ गुंडे मवालियों की फौज को भी साम, दाम, दंड, भेद की नीति के साथ चुनाव प्रचार में झोंक देते हैं। चुनाव जीतें या हारें उन्हें खास फर्क नहीं पडता। पर जो लोग लोकसभा का चुनाव लडने में असमर्थ होते हैं उनके लिए देश सेवा का एकमात्र माध्यम है राज्यसभा परंतु राज्यसभा को तो थैलीशाहों और चाटूकारों की ऐशगाह बनाकर रख दिया गया है। बिकाऊ किस्म के पत्रकार, संपादक और अखबार मालिक राज्यसभा की दहलीज में पहुंचने लगे हैं। अधिकांश राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के कर्ताधर्ताओं को भी आरती गाने वाले इतने भाते हैं कि वे उनके काले इतिहास को नजरअंदाज कर राज्यसभा की टिकट थमा कर चुनाव में विजयी बनाने के सारे इंतजाम कर देते हैं।इस तथ्य को पूरी तरह से किनारे रख दिया गया है कि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और स्वच्छ छवि वाले देश के प्रति समर्पित उद्योगपतियों और सामाजिक क्षेत्र में ईमानदारी के साथ सक्रिय लोगों के बेहतरीन सुझावों और सेवाओं को लेने के ध्येय से ही राज्यसभा की सदस्यता का प्रावधान किया गया था। आजादी के १५-२० साल बाद तक जो चेहरे राज्यसभा में पहुंचे, उन्होंने वाकई देश की शान बढायी। हरिवंशराय बच्चन, पृथ्वीराज कपूर, नर्गिस दत्त, कुलदीप नैयर जैसे ईमानदार समर्पित चेहरों ने राज्यसभा का मान और सम्मान बढाया। किसी ने भी इनके नामों पर उंगली नहीं उठायी। पर इधर के वर्षों में राज्यसभा का काफी हद तक मजाक बना कर रख दिया गया है। कहने वाले तो यह भी कहने से नहीं चूकते हैं कि पार्टी फंड के लिए जिसमें जितनी मोटी थैलियां देने का दम होता है, उसके लिए उतनी ही राज्यसभा की सदस्यता आसान हो जाती है।आज राज्यसभा में ऐसे भी कई चेहरे हैं, जिन्होंने करोडों रुपये फूंक कर लोकसभा चुनाव लडा और बुरी तरह से हार गये। मतदाताओं ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और राज्यसभा की टिकट का जुगाड कर पिछले दरवाजे से देश की संसद में पहुंच गये हैं। इसे आप क्या कहेंगे? क्या यह लोकतंत्र और मतदाताओं का अपमान नहीं है? चुनाव में लगातार पिटने वाले कई चेहरे राज्यसभा में मटरगश्ती करते दिखायी देते हैं। यह सब 'माया' और संबंधों का कमाल ही है। यह थैलियां ही हैं, जो अपराधियों, दागियों और बदमाशों को भी राज्यसभा में पहुंचाती हैं। खेद की बात तो यह भी है कि ऐसे लोग केंद्रीय मंत्री भी बन जाते हैं और देश का 'लोक' और लोकतंत्र बेबस देखता ही रह जाता है। धन-बल और बाहुबल ने राज्यसभा की गरिमा को निश्चित ही बेहद नुकसान पहुंचाया है। पर इस मुद्दे पर कोई भी राजनीतिक पार्टी मुंह खोलने को तैयार नहीं है। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर में अमर-माल्या और महाजनी दलालों और सौदागरों का बोलबाला है। ऐसे में अगर देश में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का आंकडा हजारों-हजारों करोड को पार करता दिखायी दे रहा है तो इसमें हैरान होने वाली कौनसी बात है? जो चेहरे करोडों-अरबों फूंक कर संसद भवन पहुंचे हैं वे कोई साधु महात्मा नहीं हैं। उन्होंने अपार धन लुटाया है तो उसकी भरपाई तो करेंगे ही। किस में है दम जो उन्हें रोक सके? रही राज्यसभा में विद्वानों और कलाकारों को भेजने की बात तो यहां पर भी हर दर्जे की मक्कारी चलती है। हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया बच्चन, एम.एफ.हुसैन जैसों के गले माला पहनायी जाती है और इन जैसों को जबरन राज्यसभा का सदस्य मनोनीत कर दिया जाता है। यह ऐसे चेहरे हैं जो न तो देश की जन समस्याओं से वाकिफ होते हैं और न ही किसी किस्म के जानकार। इनका कभी मुंह भी नहीं खुलता। राज्यसभा में भेजे जाने लायक विद्वानों का तो जैसे जबरदस्त टोटा ही पड गया है। विद्वानों के नाम पर अक्सर ऐसे मस्खरों को राज्यसभा की शोभा बढाने के लिए भेज दिया जाता है जो चुटकलेबाजी में माहिर होते हैं।ऐसे में यदि यह कहा जा रहा है कि संसद का उच्च सदन राज्यसभा औचित्यहीन है। यानी इसकी आवश्यकता ही नहीं है, तो फिर इसमें गलत ही क्या है? अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश की जनता के खून-पसीने के अरबों-खरबों रुपये ढकोसले पर लूटते देखकर भी अंधे-बहरे बने हुक्मरानों के होश आखिर कौन ठिकाने लगायेगा?

Thursday, December 9, 2010

कैसी-कैसी बैसाखियां

हिं‍दुस्तान के अधिकांश नेताओं की जुबान फिसलने में देरी नहीं लगती। कई बार तो बेचारे खुद ही इतना फिसल जाते हैं कि जिन्दगी भर उठ नहीं पाते। यह भी लगभग तय हो चुका है कि नैतिकता को रोंदने में सियासी लोगों को पल भर का भी समय नहीं लगता। शब्दों के प्रयोग की मर्यादा से वंचित नेताओं की तादाद में इधर के कुछ वर्षों में अच्छा-खासा इजाफा होता देखा जा रहा है। अनुशासन, शिष्टाचार और मर्यादा का पाठ पढाने वाली पार्टी के मुखिया की तीखी वाणी कई बार सीधे और शालीन लोगों को आहत कर चुकी है पर उन्हें इससे कभी कोई फर्क नहीं पडा। वे अपने में मस्त हैं। उन्हें लगता है कि लोगों को उनका यह रंग-ढंग बहुत भाता है। उनका यही भ्रम उनकी पार्टी और उनको कब ले डूबे कहा नहीं जा सकता। अपने देश में ऐसे नेता भी हैं जिनके मुंह खोलते ही विवाद खडे हो जाते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार ऐसे मुंह फाडुओं से भरा पडा है जिनका गाली देने और कोसने का भी अंदाज निराला है। समाजवादी पार्टी के एक नेता हैं मोहम्मद आजम खां। उन्होंने हाल ही में एक जनसभा में अमर सिं‍ह को एक साथ दलाल, दल्ला और सप्लायर की उपाधि से विभूषित कर अपना रौद्र रूप दिखा दिया। आजम खां ने फरमाया कि सारा देश जानता है कि अमर सिं‍ह क्या हैं। कभी उन्हें सारा देश दलाल कहता था परंतु मेरी निगाह में वे हद दर्जे के दल्ले होने के साथ-साथ वो सडी-गली बैसाखी हैं जिसका कोई वुजूद ही नहीं होता। यह दल्ला बहुत बडा सप्लायर भी है। बात बडी सीधी-सी है कि आजम खां वर्षों तक अमर सिं‍ह के नजदीक रहे हैं। उन्होंने बहुत सोच समझ कर अपनी भडास निकाली है। यह भडास यह संकेत भी देती है कि वे अमर सिं‍ह को किसी पंजाबी स्टाईल की भारी-भरकम गाली से नवाजना चाहते थे पर 'दल्ला' घोषित कर चुप्पी साध गये। इस चुप्पी में अमर को ललकारने की खुली चुनौती छिपी थी। अमर को भी भडकने में ज्यादा देर नहीं लगी। उन्होंने सवाल दागा कि आजम खां बतायें कि मैंने उन्हें क्या-क्या सप्लाई किया है?... मैंने अगर मुंह खोला तो मुलायम सिं‍ह जेल में सडते नजर आयेंगे जिनकी बदौलत आज आजम खां इस कदर उचक रहे हैं। राजनीति में इस तरह की धमकियां देने के रिवाज का चलन बडा पुराना है। अमर सिं‍ह ने तो मुलायम की काली कमायी का पूरा चिट्ठा भी उजागर करने का ऐलान कर दिया है। पर यकीन जानिए ऐसा कतई नहीं होने वाला है। यह आरोप-प्रत्यारोप का तमाशा एक दूसरे का मुंह बंद करने का वही पुराना हथियार है जिसे सभी चोर-चोर मौसेरे भाई अजमाते और चलाते रहते हैं। यकीनन मुलायम सिं‍ह, आजम खां का और ज्यादा मुंह नहीं खुलने देंगे। यह भी तय है कि आजम खां, मुलायम सिं‍ह और अमर सिं‍ह के बहुत से राज़ जानते हैं। समाजवादी पार्टी से बाहर कर दिये गये आजम की फिर से घर वापसी हो चुकी है और अमर बनवास भोग रहे हैं। कोई उन्हें घास भी नहीं डाल रहा है। इसलिए अंदर ही अंदर बौखलाये और डरे हुए हैं। तभी तो अक्सर पोल खोलने की धमकियां देते रहते हैं ताकि सामने वाले की जुबान हद से ज्यादा न खुलने पाये। उनके इस अभियान में फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा और पांच सात अन्य पिट्ठू ही खडे नज़र आये। मुलायम सिं‍ह पर अपने राजनैतिक कैरियर के कुछ ही वर्षों के दरम्यान अरबों-खरबों रुपये की माया जुटाने के जनजाहिर आरोप हैं। अमर सिं‍ह की उनसे १४ वर्ष तक गहरी मित्रता रही है। कहा तो यह भी जाता है कि राजनीति के धंधे में दोनों बराबर के हिस्सेदार थे। ऐसे में जब एक हिस्सेदार दूसरे को जेल भिजवाने की धमकी देता है तो बात हज़म नहीं होती। पर अगर यह लोग ऐसी नौटंकियां नहीं करेंगे तो फिर इन्हें नेता कैसे माना जायेगा! यह लोग नेता की पदवी को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहते क्योंकि यही पदवी ही तो इनके लिए ऐसी ढाल है जिस पर गहरे से गहरे वार का असर नहीं होता। कानून के तेवर भी ठंडे पड जाते हैं। समाजवादी पार्टी में वापसी के फौरन बाद आजमा खां का अमर पर इस तरह से तीर छोडना सुप्रीमो मुलायम सिं‍ह को भी रास नहीं आया है। पर वे मजबूर हैं क्योंकि आजम खां एक ऐसे मुस्लिम नेता हैं जिनकी मुस्लिम वोटरों पर अच्छी-खासी पकड मानी जाती है। २००९ में आजम खां ने इसलिए समाजवादी पार्टी से नाता तोड लिया था क्योंकि मुलायम सिं‍ह ने कल्याण सिं‍ह को गले लगा लिया था। कल्याण सिं‍ह से मुलायम की दोस्ती करवाने में अमर का ही पूरा योगदान था। बावरी मस्जिद विध्वंस के आरोपियों में कल्याण सिं‍ह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। खुद कल्याण सिं‍ह को भी अयोध्या कांड का नायक कहे जाने पर कभी आपत्ति नहीं रही। ऐसे नेता के समाजवादी खेमे में आने से आजम खां का चिं‍तित और आहत होना लाजिमी भी था। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में मुलायम को कल्याण से की गयी दोस्ती की बहुत बडी कीमत चुकानी पडी। आजम खां जैसे मुसलमान नेता के किनारा करने के बाद बेचारे मुलायम ३९ लोकसभा सीटों से २३ पर जा अटके। १६ लोकसभा सीटों का घाटा कोई छोटी-मोटी चोट नहीं थी।आजम खां ने भी पार्टी से निकलने के बाद मुलायम पर कई तीर दागे थे। इन तीरों के उन पर कितने जख्म हुए इसका हिसाब उन्हीं के पास होगा। राजनीति में विषैले से विषैले वार भी मायने नहीं रखते। आजम खां तो मुस्लिम नेता हैं। मुलायम की मजबूरी से वे अच्छी तरह से वाकिफ रहे हैं जैसे अमर सिं‍ह वाकिफ हैं। आजम खां डेढ साल बाद समाजवादी पार्टी में लौट आये हैं। मुलायम ने भी राहत की सांस ली है। आगामी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के भरपूर साथ मिलने की उम्मीद फिर से जाग गयी है। देर-सवेर अमर सिं‍ह को भी लौटना ही है। भले ही कितने तीर चला लें...।

Thursday, December 2, 2010

राजधानी दिल्ली के दाग़

वैसे तो महिलाएं किसी भी शहर में पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं। पर दिल्ली की तो बात ही कुछ और है। दिल्ली तो देश की राजधानी है। यहां देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसद, विधायक और न जाने कितने-कितने महान लोग रहते हैं फिर भी यहां की सडकों पर युवतियों की इज्जत तार-तार कर दी जाती है...! यह चिं‍ता पूरे देश को सताये हुए है और देश के रहनुमा भ्रष्टाचार की लडाई और एक दूसरे के कपडों की उतरवाई में उलझे हुए हैं। उनके पास वक्त ही नहीं है कि इस इस गंभीर बीमारी पर ध्यान दे सकें। चिं‍तन मनन कर सकें कि उनकी नाक के नीचे बलात्कार, छेडछाड और प्रताडना के सिलसिले बेलगाम क्यों होते चले जा रहे हैं? नारियों ने यह क्यों मान लिया है कि बडे लोगों का यह महानगर नर्क बनता चला जा रहा है और उनकी अस्मत पर डाका डालने वाले दरिंदों को खुला छोड दिया गया है। यह दरिंदे जब मौका पाते हैं अपना काम कर जाते हैं और पुलिस ताकती रह जाती है। बस पीछे...पीछे भागती रह जाती है और बलात्कारी हत्यारे कहीं दूर निकल जाते हैं।माया नगरी मुंबई के बारे में कहा जाता है कि इसे कभी नींद नहीं आती। यह मायावी नगरी जागते रहने को अभिशप्त है। देश की राजधानी दिल्ली इस मामले में उलटी है। लगता है राजनेताओं ने इसे भांग पिला कर इतना मदहोश कर दिया है कि अब वह होश में ही नहीं आना चाहती। वह इस भयावह तथ्य से भी बेखबर और बेपरवाह है कि उसका दामन दागों से भरता चला जा रहा है।बीते सप्ताह काल सेंटर में काम करने वाली एक युवती पर चार मर्दों ने बलात्कार कर डाला। वह युवती चार साल पहले कई सपनों के साथ दिल्ली आयी थी। दिल्ली ने उसके सपनों के चिथडे कर डाले। वह अपने एक सहकर्मी के साथ तडके दक्षिणी दिल्ली के मोती विलेज इलाके स्थित अपने घर जा रही थी। उसी समय देश की राजधानी के जवानों ने जबरन उसे अपनी कार में खींच लिया। इस तरह के गैंगरेप दिल्ली की पहचान बन चुके हैं। यही वजह है कि दिल्ली की नब्बे प्रतिशत महिलाएं घर से अकेले निकलने में घबराती हैं। सफर करना लाखों महिलाओं की मजबूरी है पर उन्हें बस में बैठने से डर लगता है। बसों और लोकल ट्रेनों में सफर करने वाले लोफर इतने बेखौफ हो चुके हैं कि शरीफ नारियों के साथ अभद्र व्यवहार करना उनकी आदत में शुमार हो चुका है। दिल्ली की सडकें, बाजार, मॉल, सिनेमाघर, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे जैसे अधिकांश सार्वजनिक स्थल महिलाओं के अकेले आने-जाने के लायक नहीं रहे। कुछ दिन पहले की ही बात है। एक नामी अभिनेत्री बडे उत्साह के साथ दिल्ली में आयोजित मैराथन दौड में भाग लेने के लिए आयी थी। उस भीड में हजारों लोग शामिल थे पर सडक छाप मजनुओं की हिम्मत तो देखिए कि उन्होंने बिना किसी की परवाह किये अभिनेत्री को घेर कर जिस्मानी छेडछाड शुरू कर दी। ऐसी शर्मनाक बदमाशियां किसी गांव-कस्बे में अंजाम दी जाएं तो एक बारगी उन्हें नजर अंदाज किया जा सकता है पर देश की राजधानी में ऐसा तांडव यकीनन मानवीय सभ्यता और नारी सम्मान की धज्जियां उडाता प्रतीत होता है। यह भी कहा जाने लगा है कि महानगरों में ऐसा होना आम बात है और यहां रहने वाली अधिकांश महिलाएं ऐसे हादसों की अभ्यस्त हो गयी हैं। ऐसा कह देना वाकई बहुत आसान है। जो लोग ऐसा मानते हैं उनसे यह सवाल पूछने की इच्छा हो रही है कि अगर उनकी मां-बहन-बेटी के साथ राह चलते बलात्कार या घिनौनी छेडछाड हो जाए तो उन पर क्या गुजरेगी? महानगर हों या फिर शहर अथवा गांव हर जगह नारियां सम्मान और सुरक्षा चाहती हैं। जो लोग यह मानते हैं कि महानगर हर तरह के जुल्म और आतंक सहना सिखा देते हैं उन्हें अपनी सोच बदल लेनी चाहिए। यह भी सच है कि जब तक खुद पर नहीं आती तब तक ऐसे बोलवचन दागने वालों के होश ठिकाने नहीं आते। देहरादून में रहने वाले एक 'सिं‍ह' को गिरफ्तार किया गया है। वासना के इस शातिर खिलाडी ने अपने यहां बतौर पेइंग गेस्ट रह रही युवतियों के बाथरूम में बडे ही शातिराना तरीके से वेब कैमरा फिट कर रखा था। वह कई वर्षों से पेइंग गेस्ट हाऊस चलाता चला आ रहा था, जहां पर ऐसी लडकियों को ही रखा जाता था जो नौकरीपेशा या फिर किसी निजी संस्थान की छात्राएं होती थीं। बाथरूम के गीजर में हिडेन कैमरा लगाकर बतौर पेइंग गेस्ट रहने वाली कितनी युवतियों की उसने नग्न फिल्में तैयार की होंगी इस माथापच्ची में देहरादून की पुलिस उलझी हुई है। पुलिस ने जब उससे इस कमीनगी को लेकर सवाल दागा तो उसका जवाब था कि वह यह सब अपने मनोरंजन के लिए करता था। उसे युवतियों के नग्न चित्र देखने में भरपूर संतुष्टि मिलती है। यह तो संयोग ही था कि इस सेक्स रोगी के यहां रहने वाली एक छात्रा की नहाते समय अचानक कैमरे पर नजर पड गयी और भांडा फूट गया। नहीं तो पता नहीं यह सिलसिला कब तक चलता रहता। वैसे भी ऐसे न जाने कितने सिलसिले हैं जो अबाध रूप से चलते चले आ रहे हैं और कभी भी पकड में नहीं आ पाते। यदा-कदा पकड में आते भी हैं तो कुछ दिन के शोर के बाद भुला दिये जाते हैं।कहते हैं कि छोटे हमेशा बडों से शिक्षा लेते हैं और उनका अनुसरण भी करते हैं। यह बात सिर्फ इंसानों पर ही लागू नहीं होती बल्कि मशीनी सभ्यता के गुलाम होते महानगरों और शहरों पर भी लागू होती है। तभी तो जो हाल दिल्ली के हैं कमोबेश वैसे ही हालात देश के अन्य शहरों के भी होते चले जा रहे हैं।