Wednesday, October 31, 2018

चिन्तन को विवश करते तीन चित्र

अहमदाबाद में रहने वाले पच्चीस वर्ष की उम्र के निशांत पटेल को श्री कृष्ण के प्रेरक चरित्र ने इस कदर अपने मोहपाश में बांधा कि उसने सदा-सदा के लिए कृष्णभक्त हो जाने का निर्णय ले लिया। शुरू-शुरू में उसके इस्कॉन मंदिर जाने के सिलसिले से उसके माता-पिता काफी प्रसन्न थे। उन्हें यह देखकर अच्छा लगता था कि उनके बेटे ने अच्छी राह पकडी है। वह नियमित मंदिर जाता है और कृष्ण भक्ति में लीन रहता है। आज के जमाने में जहां अधिकांश दूसरे लडके गलत शौक और ऊटपटांग संगत के चलते अपने भविष्य को दांव पर लगा देते हैं, वहीं उनका बच्चा सद्गुणों का भंडार है। सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन बेटे ने यह कहकर माता-पिता के पैरों तले की जमीन खिसका दी कि अब उसने हमेशा-हमेशा के लिए इस्कान मंदिर में प्रभु अर्चना में लीन रहने और जनसेवा का निर्णय ले लिया है। अब उसका अपने परिवार से कोई नाता नहीं रहेगा। रात भर माता-पिता उसे समझाते रहे। उसे उसके दायित्व और कर्तव्य की याद दिलायी गई, लेकिन वह नहीं पसीजा। सुबह होते ही युवक ने घर त्याग दिया। माता-पिता का तो चैन ही लुट गया। जिस बेटे को उन्होंने अपने खून पसीने की कमायी खर्च कर इंजीनियर बनाया था, वही बुढापे का सहारा बनने की बजाय दगा दे गया था। करीबी रिश्तेदारों, शुभचिन्तकों ने उन्हें यह कहकर तसल्ली दी कि कुछ दिनों के बाद जब उसे अपनी इकलौती बहन और आपकी याद सतायेगी तो वह खुद-ब-खुद घर दौडा चला आएगा। तीन साल बीतने के बाद भी जब जवान बेटे ने बूढे मां-बाप और शादी के योग्य हो चुकी बहन की सुध नहीं ली तो वे अपने करीबियों को साथ लेकर इस्कॉन मंदिर जा पहुंचे। वहां पर उन्होंने मंदिर के कर्ताधर्ताओं पर अपने बेटे को गुमराह करने का आरोप लगाकर खूब हंगामा मचाया। बेटा गहरी चुप्पी साधे रहा। एकाध बार उसने यह जरूर कहा कि उसने अपनी मर्जी से इस्कॉन मंदिर की शरण ली है। बेटे के अडिग रवैये को देखकर सभी की समझ में आ गया कि इस समस्या का आसानी से समाधान नहीं होगा। अंतत: वे यह सोचकर थाने जा पहुंचे कि पुलिस वालों की सलाह और धमकी-चमकी का संन्यासी बेटे पर जरूर असर पडेगा। युवक को भी थाने में बुलवाया गया। वहां पर भी सभी ने उसे उस दौर की याद दिलाने की कोशिश की जब वह बच्चा था और माता-पिता उस पर स्नेह की बरसात करते नहीं थकते थे। उन्होंने अपनी हैसियत से ज्यादा उसे सुख-सुविधाएं उपलब्ध करवायीं। उम्दा कॉलेज में दाखिला दिलवाकर इंजीनियर बनाया। आज जब उनका ध्यान रखने, उनके सपने पूरे करने की उसकी जिम्मेदारी है तो वह भाग खडा हुआ है। अच्छी संतानें ऐसा कभी नहीं करतीं। वो तो माता-पिता की सेवा को ही अपना धर्म मानती हैं। माता-पिता और बहन की अनदेखी कर उसे कभी भी सुख-चैन नहीं मिल पायेगा। माता-पिता और बहन की फरियाद और सिसकियां पुलिस वालों की आंखों को नम करती रहीं, लेकिन वह पत्थर की मूर्ति बना रहा। अन्तत: पुलिस अधिकारियों ने यह कहकर अपना पल्ला झाड लिया कि वे इस मामले में कुछ नहीं कर सकते। उनका बेटा कोई नादान बच्चा नहीं है, जिसे जबरन घर में कैद कर दिया जाए। हर बालिग की तरह उसे भी अपनी मनमर्जी का निर्णय लेने और कहीं भी रहने का कानूनी अधिकार है। माता-पिता फिर भी नहीं माने। उनका रोना-गाना चलता रहा। इस बीच युवक ने खडे होकर उन्हें प्रणाम किया और मंदिर चला गया।
सूरत के करोडपति परिवार में जन्मे भाई-बहन ने सांसारिक मोह-माया और तमाम भौतिक सुखों को त्यागने का निर्णय ले लिया है। ९ दिसंबर को सूरत में आयोजित होने वाले दीक्षा समारोह में बीस वर्षीय यश साधु तो उनकी बाईस वर्षीय बहन आयुषी संन्यासिन बन जाएंगी। उनके पिता का अच्छा खासा कपडे का व्यापार है। करोडों की संपत्ति है। घर में नौकर-चाकर हैं, कई कारें हैं। यश पढाई पूरी करने के पश्चात अपने पिता के कपडे के व्यवसाय से जुड तो गये, लेकिन कुछ ही महीनों के बाद उन्हें लगा कि वे इस काम के लिए नहीं बने हैं। प्रभु ने उन्हें कुछ और ही करने के लिए इस धरती पर भेजा है। माता-पिता भी समझ गए कि बेटा अशांत रहता है। काम-धंधे में उसका बिलकुल मन नहीं लगता। आयुषी को तो वर्षों पहले ही मां ने संन्यास लेने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था। वे अक्सर कहतीं कि वे बेटी की शादी करने के बजाय उसे माता के रूप में देखना चाहती हैं। बहन आयुषी ने जब भाई को बेहद उदास पाया तो उसने उसे संन्यास लेने की सलाह दे डाली। भाई तो जैसे इसी मौके की राह देख रहा था। आलीशान हवेलीनुमा घर में रहने और कारों की सवारी करने वाले दोनों भाई-बहन अब पैदल चलेंगे। उनके बदन पर महंगे कपडों की बजाय एकदम साधारण सफेद सूती कपडे होंगे। पूरी तरह से सात्विक भोजन करना होगा। दोनों को बडी बेसब्री से ९ दिसंबर का इंतजार है।
एक लोकप्रिय धारावाहिक में भगवान श्रीकृष्ण का किरदार निभाकर लोकप्रियता के शिखर को छूने वाले अभिनेता सौरभ जैन इन दिनों अपनी छवि को लेकर खासे परेशान हैं। उन्हें जहां-तहां ज्ञानवान होने का दिखावा करना पडता है। हर जगह भीड उनसे प्रवचन सुनने को लालायित रहती है। लोग उन्हें सचमुच का भगवान मानते हैं। उनसे जिस तरह के व्यवहार और हावभाव की अपेक्षा की जाती है उसमें खरा उतर पाना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है। उनकी तमन्ना है कि लोग उन्हें भगवान नहीं, आम इंसान समझें। भीड की आशाओं पर खरा उतरने के लिए उन्हें हमेशा चेहरे पर जबरन मुस्कान का नकाब लगाये रखना पडता है। 'महाकाली : अंत ही आरंभ है' में भगवान शिव की भूमिका निभा चुके सौरभ इन दिनों धारावाहिक 'पोरस' में खलनायक की भूमिका निभा रहे हैं। उनकी खुशी देखते ही बनती है। अब वो दिन दूर नहीं, जब वे आजाद पंछी की तरह उड सकेंगे। खलनायक का किरदार उन्हें बनावटी जीवन से मुक्ति दिलायेगा।

Wednesday, October 17, 2018

एकता और भाईचारे के हत्यारे

हम भारतवासी क्या चाहते हैं? ऐसे-वैसे यह जो मंजर हमारे सामने हैं क्या इन्हीं की चाहत थी हमें? रोना तो इस बात का है कि देशवासियो के मन की बात न तो नेता जानना चाहते हैं और न ही शासक। उन्हीं की मनमानी चल रही है। अपनी ही बात थोपने में उन्हें तसल्ली होती है। सुकून मिलता है। क्या सत्ताधीशों की निगाह से इस तरह की शर्मनाक भयावह खबरें नहीं गुजरती हैं, "गुजरात में उत्तर भारतीयों के खिलाफ भडके विरोध ने हिंसक रूप ले लिया है। कंपनी से घर लौट रहे बिहार के एक युवक की कुछ लोगों ने पीटकर हत्या कर दी। वारदात के बाद से उत्तर भारतीयों में जबर्दस्त दहशत का माहौल है। ज्ञातव्य है कि बिहार के गया जिले का रहने वाला अमरजीत रोजाना की तरह पंडेश्वरा इलाके में स्थित मिल की शिफ्ट खत्म कर घर लौट रहा था। इसी दौरान भीड ने उसे घेर कर लाठी-रॉड, लात-घूसों से हिंसक जानवरों की तरह तब तक मारा-पीटा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। मृतक बीते पंद्रह वर्षों से अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था। ध्यान रहे कि मृतक के पिता एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं। यह कैसी विडंबना है कि भारतवर्ष में ही भारतवासी पिटते रहते हैं उनकी निर्मम हत्याएं होती रहती हैं और सत्ताधीश मौन रहते हैं। स्वार्थी नेता जनता की भावनाओं को भडकाते रहते हैं। देश का संविधान कहता है देश का नागरिक कहीं भी जाने और कमाने-खाने के लिए स्वतंत्र है। फिर भी कभी मुंबई तो कभी आसाम तो कभी और कहीं भारतवासी पिटते और मिटते चले आ रहे हैं? पीटने और हत्याएं करने वाले उनका दोष तो बताएं? ऐसा लगता है कि कुछ नेता और अराजकतत्व खून-खराबा करने के अवसरों की राह ताकते रहते हैं। ३१ अक्टूबर १९८४ के दिन भारतवर्ष की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो निजी सिक्ख सुरक्षा गार्डों ने बडे ही वहशियाना तरीके से गोलियां बरसाकर हत्या कर दी। सभी भारतवासी उदासी के सागर में डूब गए, लेकिन शाम होते-होते देश की राजधानी में हजारों सिक्ख परिवारों पर बेकाबू भीड का तांडव टूट पडा। कई सिक्खों को जिन्दा जला दिया गया। कितनों के घर और उनकी तमाम सम्पत्ति फूंक दी गयी। यह आग देखते ही देखते पूरे देश में फैल गई थी। यह सब हुआ था कुछ स्वार्थी नेताओं के भडकाने और सुरक्षा व्यवस्था के बेहद कमजोर होने के कारण। कुछ कांग्रेसी नेताओं की सिक्ख दंगों में स्पष्ट भागीदारी दिखायी दी थी। अपने शीर्ष नेताओं और पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने के इस तरीके की बाद में तो जैसे परंपरा ही चल पडी।
एक १४ महीने की बच्ची से रेप के मामले में बिहार के एक युवक को पकडा गया तो सारे के सारे बिहारियों को बलात्कार का दोषी मानकर उन पर जुल्म ढाने का सिलसिला चला दिया गया! गुजरात में करीब १ करोड औद्योगिक श्रमिक हैं और इनमें से ७० प्रतिशत गैर गुजराती हैं। इन गैर गुजरातियों में ज्यादातर हिन्दी भाषी राज्य बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के ही रहने वाले हैं। यह श्रमिक वर्षों से गुजरात में कार्यरत रहकर प्रदेश के विकास में अपना योगदान देते चले आ रहे हैं। गुजरात का सूरत कपडे और हीरे के लिए जाना जाता है। अहमदाबाद में भी कपडे की बहुत बडी मंडी है। ऐन दशहरा, दीपावली से पहले गुजरात बनाम बाहरी के इस जलजले से जहां उत्पादन घटा वहीं उत्तर भारतीयों पर हुए हमलों के कारण गुजरात की छवि पर भी आघात पहुंचा है। अरबों-खरबों का जो नुकसान है उससे भी व्यापारी और उद्योगपतियों के चेहरे उतर गए हैं। हजारों श्रमिकों को भुखमरी और पलायन की पीडा झेलनी पडी। इस सारे खेल के पीछे नेताओं का हाथ देखा गया। यह वो नेता हैं जिन्हें इंसानी जिंदगियों से ज्यादा सत्ता प्यारी है। आग लगाकर हाथ सेंकने वाले ऐसे नेताओं का चेहरा हर दंगे के पीछे छिपा होता है। २७ फरवरी २००२ को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती ट्रेन के एस-६ कोच में अराजक भीड के द्वारा आग लगाए जाने से ५९ कार सेवकों की मौत हो गई थी। इसके परिणामस्वरूप पूरे गुजरात में जो साम्प्रदायिक दंगे हुए उन्हें तो कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इन दंगों के सोलह साल बाद भी पीडितों के जख्म भर नहीं पाये हैं। गुजरात में बीते वर्ष पटेलों को आरक्षण देने की मांग को लेकर जो आंदोलन हुआ उसमें करोडों की सरकारी संपत्ति को आग के हवाले कर दिया गया। कुछ लोगों को अपने प्राण भी गंवाने पडे। इस हिंसक आंदोलन ने हार्दिक पटेल को राजनीति में स्थापित कर दिया। २०१६ में हरियाणा में हुए जाट आरक्षण को लेकर हुई हिंसा भी संपूर्ण देशवासियों को हिला गयी। हफ्तों तक प्रदेश के कई जिलों में तनाव बना रहा। जाटों ने गैर जाटों के वर्षों की मेहनत से खडे किये व्यापार, दुकानों, मॉल्स, घरों को बडी बेदर्दी से जला डाला। इस आग ने आपसी संबंधों और भाईचारे को भी राख में तब्दील कर दिया। हरियाणा के विभिन्न शहरों में बेखौफ हुई लूट, तोडफोड और आगजनी कहने को तो भीड ने की, लेकिन इसके असली खलनायक नेता ही थे जिनसे प्रदेश की सत्ता छिन गई थी।
कोई भी अनशन, मांग और आंदोलन शांतिपूर्वक होना चाहिए, लेकिन अपने देश में ऐसा कम ही होता है। नेताओं की बिरादरी भीड को उकसाती है और बेकसूरों पर हमले शुरू हो जाते हैं। लूटमारी करने के लिए अराजक तत्व भी उस भीड में शामिल हो जाते हैं और स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि आंदोलन का नेतृत्व नेताओं के हाथ से निकलकर गुंडे-बदमाशों, लुटेरों के हाथ में चला जाता है। हर हिंसक आंदोलन किसी न किसी नये नेता को भी जन्म देता है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि महाराष्ट्र के मुंबई में भी दूसरे प्रदेशों, खासकर उत्तर भारतीयों के खदेडने और मारने-पीटने की हरकतें होती रही हैं और कई लाठीबाज नेताओं को सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला है। यह नेता उस भीड के दम पर अपने सपने साकार करते हैं जिसे भडकाना और आक्रामक बनाना बहुत आसान होता है। दंगे और लूट-फसाद कर जिन बेकसूरों की जिन्दगी भर की कमायी स्वाहा कर दी जाती है, जिनके निर्दोष परिजनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, उनके दिल पर क्या बीतती है इसे बेरहम नेता तो समझने से रहे। दरअसल, सोचना तो उन्हें चाहिए, जिनके पास अपना दिमाग है फिर भी नेताओं का नकाब ओढे 'दुष्टों' के इशारे पर भीड बन लूटमार और खून-खराबे पर उतर जाते हैं। वर्षों पुराने रिश्तों और भाईचारे का कत्ल करने में किंचित भी देरी नहीं लगाते...।

Friday, October 12, 2018

नकाब नोचने की पहल

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। भारत ही दुनिया का एकमात्र देश है जहां नारी को पूजा जाता है। नारी के बिना पुरुष अधूरा है। यदि पुरुषों को नारियों का साथ नहीं मिलता तो वे सफलता के कीर्तिमान बनाने के लिए तरसते रह जाते। जुल्म करने वाले से कहीं ज्यादा दोषी होता है जुल्म सहने वाला। इस इक्कीसवीं सदी में नर और नारी एक समान हैं। नारियों को पुरुषों से डरने की कोई जरूरत नहीं। कोई भी पुरुष यदि उन पर अत्याचार करता है तो उन्हें उसके होश ठिकाने लगाने में देरी नहीं करनी चाहिए। चुप्पी से बहुत खतरनाक नतीजें निकलते हैं। दुष्कर्मियों का सच सामने नहीं आने से उनके हौसले बढते चले जाते हैं। इस काम में हर किसी को साथ देना चाहिए। ऐसी और भी कई बडी-बडी बातें जो सुनने और कहने में कितनी अच्छी लगती हैं, लेकिन हकीकत? सडकों, चौराहों, अस्पतालों, स्कूलों, महाविद्यालयों, अखबारों, न्यूज चैनलों के कार्यालयों, राजनीति, फिल्मी क्षेत्रों और बडे-बडे विभिन्न संस्थानों में स्त्रियों की इज्जत पर खतरा हमेशा मंडराता रहता है। प्रवचनकार, फिल्म स्टार, राजनेता, वकील यहां तक कि कुछ जज आदि भी महिलाओं पर टूट पडने को आतुर रहते हैं और बडी-बडी बातें करने वाले तमाशबीन बने रहते हैं।
पिछले दिनों फिल्म अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने यह कहकर खलबली मचा दी कि दस वर्ष पूर्व एक फिल्म की शूटिंग  के दौरान उसका यौन उत्पीडन किया गया। तब भी उसने इस कुकृत्य का खुलकर विरोध किया था, लेकिन अभिनेता के रसूख के चलते उसकी किसी ने नहीं सुनी और अधिकांश लोगों ने यौन उत्पीडक अभिनेता का साथ दिया था। अभिनेत्री ने दस वर्ष बाद फिर से जैसे ही मुंह खोला तो कुछ और अभिनेत्रियों ने भी अपना दर्द बयां करना प्रारंभ कर दिया। तनुश्री के दस वर्ष बाद आरोपों की झडी लगाने से कई लोगों ने सवाल भी उठाए कि अभिनेत्री ने इतने वर्षों तक चुप्पी क्यों साधे रखी। कहीं न कहीं कोई गडबड तो है। अभिनेत्री तनुश्री की कहानी को पंख लगाये मीडिया ने जो दस वर्ष पूर्व उतना तेज नहीं था जब फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने कथित तौर पर उसके साथ छेडछाड की थी। नाना पाटेकर जहां अपने उग्र स्वभाव के लिए जाने जाते हैं, वहीं किसानों के प्रति उनकी हमदर्दी ने उन्हें एक नेक इन्सान की ख्याति दिलवायी है। प्राकृतिक आपदा और कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिवारों की आर्थिक सहायता करने वाले नाना पर अभिनेत्री के द्वारा बेखौफ होकर आरोप लगाने के बाद कुछ लोग अभिनेत्री के पक्ष में खडे नजर आए तो अधिकांश की यही प्रतिक्रिया आई कि ऐसा परोपकारी शख्स किसी महिला की इज्जत के साथ खिलवाड नहीं कर सकता। तनुश्री प्रचार की भूखी है इसलिए यह नाटक कर रही है।
सच तो यह है कि तनुश्री ने चोट खायी महिलाओं को चुप्पी तोडने और पापियों के नकाब को नोचने के लिए बिगुल फूंका है। फिल्म निर्माता महेश भट्ट की बेटी पूजा भट्ट, जो कभी फिल्मी दुनिया का जाना-माना नाम थी, की भोगी हुई पीडा अधिकांश भारतीयों की मानसिकता की सच्ची तस्वीर पेश कर देती है- 'मैं एक शराबी के साथ रिलेशनशिप में थी। वो मुझे बेतहाशा मारता-पीटता था। मैंने जब अपना दर्द लोगों के समक्ष उजागर किया तो मुझे ही सवालों के कटघरे में खडा कर दिया गया। सच तो यह है कि जब भी महिलाएं अपने साथ होने वाली बेइन्साफी पर मुंह खोलती हैं तो लोग उसे ही शंका की निगाह से देखने लगते हैं। तनुश्री का मामला भी काफी गंभीर है। इसकी सघन जांच होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह भी है कि जांच करेगा कौन? माना कि नाना पाटेकर जनसेवा करते हैं इसका मतलब यह तो नहीं कि तनुश्री की आवाज दबा दी जाए। कोई भी नारी बेवजह किसी पर इस तरह से आरोप नहीं लगाती। कभी पत्रकारिता में अपने नाम का परचम लहराने वाले एम.जे. अकबर जो वर्तमान में केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री हैं, उनपर भी एक महिला पत्रकार ने आरोप जडा है कि वे हद दर्जे के अय्याश हैं। खूबसूरत महिलाओं को देखते ही अनियंत्रित हो जाते हैं। वह भी उनकी गलत हरकत का शिकार हो चुकी है। यह अकबर ही थे जिन्होंने महिला पत्रकार को शराब पीने और बिस्तर पर चिपक कर बैठने के लिए विवश किया था। वैसे तो अकबर बहुत शालीन किस्म के शख्स दिखते हैं, लेकिन वे अश्लील फोन कॉल्स, मैसेज और असहज टिप्पणियां करने में पारंगत हैं। एक अन्य शुभा राव नाम की महिला ने रहस्योद्घाटन किया है कि वे नौकरी के लिए साक्षात्कार देने गर्इं थीं, जहां पर एम.जे. अकबर ने उसके साथ बहुत गंदी हरकत की।
फिल्मों में नेक प्रेमी, पिता और भाई की भूमिका निभाने वाले आलोक नाथ पर भी विनीत नंदा नामक महिला ने बीस वर्ष पूर्व बलात्कार करने का आरोप लगाकर सफेदपोशों के छिपे सच को उजागर करने का साहस दिखाया है जिसे बहुतेरी स्त्रियां लोकलाज के चलते दबा-छुपा लेती हैं। मेरे प्रिय पाठक मित्रों को याद दिलाना चाहता हूं कि कुछ वर्ष पूर्व इसी फिल्मी नगरी के एक तेजी से उभरते अभिनेता शाइनी आहूजा पर उसकी घरेलू नौकरानी ने बलात्कार का आरोप लगाया था। देशभर के न्यूज चैनलों ने इस खबर को सात-आठ दिन तक घसीटा था। आहूजा की गिरफ्तारी के बाद अदालत ने भी अभिनेता को दोषी करार देकर क‹डी सजा सुनायी थी। आहूजा की इस शर्मनाक कारस्तानी की लगभग हर फिल्म वाले ने भत्र्सना की थी और लगभग हर फिल्म अभिनेत्री ने उसके साथ काम करने से इनकार कर दिया था। एक बात और भी गौर करने लायक है कि तब भी यह कहने वालों की कमी नहीं थी कि अभिनेता को फंसाया गया है। नौकरानी को मोहरा बनाकर अभिनेता के भविष्य को तबाह करने की साजिश की गई है। नौकरानी पर धन के लालच में बलात्कार की कहानी गढने के भी आरोप लगे थे। इसके बाद चार-पांच फिल्मों में लीड रोल कर चुके शाइनी आहूजा को नई फिल्में मिलनी ही बंद हो गई थीं। शरीफ लोग उसकी परछाई से भी नफरत करने लगे थे। अभिनेता का यह बयान भी आया था कि सारा खेल आपसी रजामंदी का था।
यह हमारे यहां का दस्तूर है कि 'ऊंचे लोगों' को चरित्रवान होने का प्रमाणपत्र देने में जरा भी देरी नहीं की जाती। यदि कोई आम आदमी जब ऐसे शर्मनाक कृत्य करता है तो भीड भी उसे सबक सिखाने का ठेका ले लेती है। इसी भीड को नामी-गिरामी हस्तियों के समक्ष नतमस्तक होने की लाइलाज बीमारी लगी हुई है। इस भीड में वो चेहरे भी शामिल हैं जो तब मूकदर्शक बन जाते हैं जब उनसे दहाडने की अपेक्षा की जाती है।
वतन के मीडिया, कानून और अदालतों के कारण भी अच्छे भले इन्सान ताउम्र असमंजस का शिकार रहते हैं। उनका आखिर तक असली सच से साक्षात्कार नहीं हो पाता। अपने खोजी टीवी कार्यक्रमों के जरिए कई अपराधियों को पुलिस की गिरफ्त में लाने वाले न्यूज एंकर सुहैब इलयासी को सन २००० में अपनी पत्नी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अखबारों और न्यूज चैनल वालों ने उसे पत्नी का हत्यारा घोषित कर दिया था। ट्रायल कोर्ट ने भी २०१७ में सुहैब को उम्र कैद देते हुए कहा था कि उसने न सिर्फ अपनी पत्नी अंजू की हत्या की बल्कि उसे आत्महत्या दिखाने की भी कोशिश की। कई वर्षों तक जेल की सींखचों में कैद रहे सुहैब का बस यही कहना था कि वह हत्यारा नहीं है। उसकी पत्नी ने आत्महत्या की है। पूरे सत्रह वर्ष तक मामला घिसटता रहा और अभी हाल ही में हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटते हुए इलयासी को पत्नी की हत्या के जुर्म से बरी कर दिया है। जब यह फैसला सुनाया गया तब भी सुहैब जेल में था।

Thursday, October 4, 2018

पितरों का सत्कार...जिन्दों को दुत्कार

कुछ हकीकतें..., खबरें भ्रम तोड देती हैं। आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। इन्हें पढने और समझने के बाद दिल और दिमाग में यह इच्छा बलवति हो जाती है कि यह सच उन लोगों तक भी पहुंचना चाहिए जिन्होंने अंतिम रूप से यह मान लिया है कि भारत का अब भगवान ही मालिक है। फरिश्ते भी अगर धरती पर उतर आएं तो भी इसकी दिशा और दशा नहीं बदल सकते। यहां पर तो जहां-तहां लालची और मतलबी भरे पडे हैं जो सिर्फ अपने भले की ही सोचते हैं।
लेकिन सच तो यह है कि अपने ही देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के इस तरह की सोच और धारणाओं को बदलने में लगे हैं। उन्हीं में शामिल हैं नागपुर निवासी जगदीश खरे जो पिछले पच्चीस वर्षों से ऐसा काम करते चले आ रहे हैं जिसे करने में अधिकांश लोग कतराते हैं। नाक पर हाथ रखकर भाग खडे होते हैं। लगातार फैलते शहर में आत्महत्याओं के होने का सिलसिला बडा पुराना है। विभिन्न समस्याओं से परेशान और अपने जीवन से निराश हो चुके लोगों को खुदकुशी किसी मुक्ति के मार्ग से कम नहीं लगती। ऐसे लोग रेल की पटरियों, तालाबों और कुंओं आदि को आत्महत्या का सबसे उपयुक्त माध्यम मानते हैं। नागपुर में गांधी सागर, अंबाझरी, फुटाला समेत कई अन्य तालाब, नदियां और नाले हैं जहां पर हजारों लोग खुदकुशी कर चुके हैं। यह भी कह सकते हैं कि यह सिलसिला कभी रूकने वाला नहीं है। जब भी कोई पानी में कूदकर आत्महत्या करता है तो अक्सर उसकी लाश खराब हो जाती है। ज्यादा दिन तक पानी में रहने के कारण बदबू मारने लगती है। ऐसे में लोग उसके नजदीक जाने में कतराते है, लेकिन जगदीश खरे ऐसे खरे समाजसेवी हैं जिनके जीवन का एक मात्र मकसद ही पानी से मृतदेहों को बाहर निकालना है। वे इसकी बिलकुल चिन्ता नहीं करते कि शव कितना सड चुका है। उससे कैसी दमघोटू दुर्गंध आ रही है। वे यह काम धन कमाने के लिए नहीं, मानवता का धर्म निभाने के लिए करते हैं। बिना किसी भेदभाव के पानी से मृत देहों को बाहर निकालने वाले जगदीश खरे को उनकी पत्नी का भरपूर सहयोग और साथ मिलता है। उन्होंने शहर और आसपास के विभिन्न तालाबों, नदियों, नालों और खदानों से २२०० मृतदेहों को बाहर निकालने की जो समाजसेवा की है उसके लिए 'लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड  रिकार्डस' में भी उनका नाम दर्ज हो चुका हैं। अनेक संस्थाओं के द्वारा सम्मानित किये जा चुके जगदीश खरे बताते हैं कि २३ मई १९९४ में उनके दोस्त के भाई ने गांधी सागर तालाब में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। कई घंटों तक पानी में पडे रहने के कारण शव काफी खराब हो चुका था। शव को निकालना तो दूर बदबू के कारण कोई भी नजदीक जाने को तैयार नहीं था। यहां तक कि महानगर पालिका के अग्निशामक दल के लोगों ने भी हाथ झटक लिए थे। इस चक्कर में समय बीतता चला जा रहा था। सडांध बढती चली जा रही थी। यह देख वे बिना डगमगाए पानी में कूद गए और शव को बाहर निकाला। इसके बाद तो जब भी कोई कहीं पानी में डूबता या आत्महत्या करता तो पुलिस, अग्निशामक दल और विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं उन्हें फौरन जानकारी देतीं और वे भी तुरंत हाजिर हो जाते। वे कहते हैं कि यह वे जब तक जिन्दा हैं तब तक यह सिलसिला बरकरार रहेगा। एक हजार से अधिक लोगों को पानी में डूबने से बचाने वाले इस देवदूत को २०१६ में दिल्ली में एक मीडिया हाऊस द्वारा पुरस्कार स्वरूप जो पांच लाख रुपये दिए गये उनसे भी एक एंबुलेंस खरीदकर थाने के सुपुर्द कर दी ताकि जनसेवा का रथ सतत चलता रहे।
अनजान लोगों के लिए समय निकालना हर किसी के बस की बात नहीं। यहां तो हालात यह हैं कि अपनों को भी अनदेखा किया जा रहा है। समय की कमी की मजबूरी का राग छेडा जा रहा है। बुजुर्ग मां-बाप और अन्य-बुजुर्गों के लिए तो अधिकांश संतानों और निकट जनों के पास समय ही नहीं है। कितने लोग तो ऐसे हैं जो बिस्तर से आने वाली बदबू के कारण अपने माता-पिता, दादा-दादी आदि के कमरे में जाने से कतराते हैं। यही वो लोग हैं जो पितृपक्ष में अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए रिश्तेदारों, मित्रों को लजीज खाना खिलाते हैं और दान-पुण्य करते हैं। दुनिया छो‹ड चुके अपनों के लिए समय निकाल लेते हैं और अपने जीवित असहाय बुजुर्गों की कोई कद्र नहीं करते। अपनों को याद करने और उनकी सेवा करने के लिए उनके पितर बन जाने की प्रतीक्षा करने वालों की भीड में कुछ अपवाद भी हैं जिनके पास अपने वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी आदि के लिए समय की कोई कमी नहीं रहती। ऐसे ही मेरे एक मित्र हैं शरद सक्सेना जो बिलासपुर में रहते है। कुछ दिन पूर्व ही उनकी माताश्री ९२ साल की उम्र में परलोक सिधार गर्इं। शरद उद्योगपति भी हैं और समाजसेवी भी। उन्हें कभी भी अपनी बिस्तर पर पडी माताश्री के लिए समय निकालने में कोई दिक्कत नहीं हुई। शरद के पास भी परमसत्ता के द्वारा निर्धारित उतना ही समय रहता था जितना कि बेबस माता-पिता की देखभाल के लिए समय न मिलने का रोना रोनेवालों के पास होता है। उनके पास नियमित बैठना, बातचीत करना और साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना उनकी दिनचर्या का अंग था। उनकी सेवा और पूरी तरह से देखभाल करना ही इस बेटे के जीने का मकसद बन चुका था। ऐसे बेटे ही उम्मीद का दीया जलाए रखते हैं। वे मांएं भी परमात्मा को धन्यवाद देते हुए खुद को बेहद खुशकिस्मत मानती हैं जिन्हें ऐसी संतानें नसीब होती हैं।
इस सच को भी जान लें कि अपनी ही संतानों और परिजनों के द्वारा की जाने वाली अवहेलना के कारण उम्रदराज पुरुषों और महिलाओं की आत्महत्याओ की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में जबरदस्त इजाफा हुआ है। यह हकीकत भी बेहद स्तब्धकारी है कि दुनिया में आत्महत्या करने वाली हर तीसरी महिला भारतीय है। १९९० से २०१६ के बीच आत्महत्या के आंकडों में चालीस प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। भारत में २०१६ में अनुमानित तौर पर २,३०,३१४ लोगों ने आत्महत्या की। अपनी जान देना आसान नहीं होता। फिर भी खुदकुशी करने वालों की संख्या का बढना चिन्ता का विषय तो है ही। एक जानी-मानी महिला, जिन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की, का कहना है आत्महत्या करना कतई आसान नहीं है। एक समय था जब मुझे लगता था कि मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा है। जीने के सभी रास्ते बंद नजर आने लगे थे। मेरी बस यही इच्छा होती थी कि जल्द से जल्द खुद का खात्मा कर दूं। मैंने पहली बार अठाहरवीं मंजिल से कूदकर मर जाना चाहा, लेकिन डर ने मेरे कदम रोक दिए। दूसरी बार मैंने कई नींद की गोलियां निगल लीं। मेरी हालत बिगड गई। पूरे तीन साल तक अस्पताल में इलाज चलता रहा तब कहीं जाकर मैं मौत के मुंह से लौट पायी। तभी से मेरी आंखें खुल गर्इं। यह सच भी मेरी समझ में आया कि जीवन में अपनों के प्रबल साथ का होना बहुत जरूरी है। अपनों का मतलब है बुरे वक्त में साथ खडे होने वाले वे सभी शुभचिन्तक जिनकी प्रेरणा और सलाह मनोबल बढाती है।
महिला पुलिस अधिकारी शालिनी शर्मा आत्महत्या करने की ठान चुके लोगों को अपने तरीके से समझाकर उनके इरादे को बदलने में कामयाब रही हैं। वे कहती हैं कि हालात किसी भी व्यक्ति को जान देने को विवश कर सकते हैं। जब बर्दाश्त करने की क्षमता जवाब दे जाती है तो अच्छा भला इंसान भी खुद का हत्यारा बन जाता है। कई बार क्षणिक आवेग भी बेकाबू कर देता है। फिर भी अगर आत्महत्या करने के लिये उतारू लोगों के विचारों को किसी तरह से मोडा जाए तो उन्हें बचाया जा सकता है। शालिनी को वो दिन बार-बार याद हो आता है, जब उन्होंने तकरीबन तीस साल की एक महिला को अठारहवीं मंजिल से कूदने से किसी तरह से बचाया था। शालिनी का ध्यान जब उसकी तरफ गया तो वे तेजी से दौडती हुई छत पर जा पहुंची जहां से वह महिला बस छलांग लगाने जा ही रही थी। शालिनी ने महिला को फौरन दबोचने की बजाय उसके दिमाग पर हावी जिद और आवेश के पलों को शांत करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने उससे सवाल किया कि तुम्हें पता भी है कि तुम्हारी इस गलती से तुम्हारे माता-पिता पर क्या गुजरेगी! वे तो जीते जी मर जाएंगे। महिला का जवाब था कि मेरी जिन्दगी पूरी तरह से तबाह हो चुकी है। कुछ भी नहीं बचा है। शालिनी ने उसे सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि सबकुछ बचा है अभी। इस अनमोल जिन्दगी को ऐसे ही खत्म करना अपराध है। यह भी जान लो कि अगर तुम कूदी तो मैं भी कूदकर अपनी जान दे दूंगी। मेरी आंखों के सामने तुम्हारा मरना मेरी बहुत बडी असफलता और नाकामी होगी। जब वह महिला उनकी बातों में उलझी थी तो उनकी टीम ने महिला के करीब जाकर उसका हाथ पकड लिया। महिला के विचार बदल चुके थे। यह महिला वकील है। आज उसने वकालत के क्षेत्र में खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है। समाज सेवा में भी सक्रिय है।