Monday, September 29, 2014

अभिनेत्री की टुच्ची राजनीति

उनका नाम है हेमा मालिनी। तडक-भडक और खूबसूरती से उन्हें जन्मजात लगाव है। खुशहाली और खुशहाल चेहरे उनकी पहली पसंद हैं। गरीबी और बदहाली से उनका कभी कोई वास्ता नहीं पडा, इसलिए गरीबों, बेबसों और वक्त के मारों की तौहीन करने, कोसने और दुत्कारने के मौके तलाशती रहती हैं। अभिनेत्री को तो याद भी नहीं रहता कि वे धार्मिक नगरी मथुरा की सांसद हैं। जब मीडिया उन्हें बार-बार याद दिलाता है कि भाजपा की मेहरबानी से अब वे लोकसभा की सदस्य भी बन गयी हैं तब कहीं जाकर उनकी तन्द्रा टूटती है। कुछ घंटो के लिए अभिनेत्री मथुरा जाती हैं तो नानी याद आ जाती है। अकेली जान और इतने सारे काम...। किसे सुलझायें और किस-किस की सुनें। यहां तो उनकी झलक पाने के लिए लोगों की भीड लग जाती है। असली तकलीफों के मारे तो उन तक पहुंच ही नहीं पाते। ऐसे में बेचारी फिल्मी नारी अपने संसदीय क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं से रूबरू हो तो कैसे? वैसे भी उनका मन पता नहीं कहां-कहां भटकता रहता है। इसलिए बचकाने बोलों के ढोल पीटकर लोगों का मनोरंजन करती नजर आती हैं। उन्हें जागरूक लोगों का गुस्सा तो कतई नजर नहीं आता। पिछले दिनों उन्होंने वृंदावन के एक आश्रम का दौरा किया। मथुरा संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है वृंदावन। इसी नगरी में हजारों विधवाएं बडी दयनीय स्थिति में रहती हैं। जब उन्हें कहीं और ठौर नहीं मिलता तो वे यहां चली आती है। यहां उन्हें सुकून और शांति मिलती है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। अधिकांश विधवाएं मंदिरों में कीर्तन करती हैं। कई ऐसी भी हैं जिन्हें भीख मांगकर जैसे-तैसे दिन काटने पडते हैं। मंदिरों में घंटों भजन करने वाली विधवाओं को मंदिर प्रशासन द्वारा बडी मुश्किल से पांच-दस रुपये की खैरात दी जाती है। इस घोर महंगाई के युग में पांच-दस रुपये में क्या होता है। मोटा चढावा पाने वाले मंदिरों के कर्ताधर्ता विधवाओं के साथ ऐसा शर्मनाक मजाक करते हैं कि देखने और सोचने वालों का भी सिर शर्म से झुक जाता है। वैसे भी अंधाधुंध धन की आवक के चलते अब मंदिर, मंदिर नहीं रहे। यहां भी कारोबार और कारोबारियों ने अपनी पैठ बना ली है। इस देश में जिस रफ्तार से शोरुम खुलते हैं उसी तरह से देखते ही देखते मंदिर तन जाते हैं। भक्तों की भीड लगने में देरी नहीं लगती। चढाने वाले चढाते हैं और कमाने वालों की तिजोरियां भरती चली जाती हैं।
हेमा को समझ में ही नहीं आया कि उन्हें करना और कहना क्या है। उन्होंने विधवाओं की मूलभूत समस्याओं पर गौर करने की बजाय उनपर कीचड उछाल कर अपनी अक्ल के दिवालियेपन का सबूत पेश कर दिया। वे फटाक से बोल पडीं कि बंगाल और बिहार से आने वाली विधवाओं ने इस पवित्र नगरी की तस्वीर को बिगाडकर के रख दिया है। इनकी अंटी में अच्छी-खासी रकम होती है फिर भी यह आदतन भीख मांगती हैं। वृंदावन में हजारों विधवाएं भरी पडी हैं। यह नगरी अब और विधवाओं का बोझ नहीं ढो सकती। अच्छा तो यही होगा कि विधवाएं अपने-अपने प्रदेश में वापस लौट जाएं। बंगाल और बिहार में भी मंदिरों की कमी नहीं हैं। वे बडे आराम से वहां रह सकती हैं। अभिनेत्री ने शिवसेना की तर्ज पर अलगाव के बीज बोने की चेष्टा करने की भूल तो कर डाली, लेकिन जब तालियों और वाहवाही के बदले गालियां बरसने लगीं तो चेहरे का सारे का सारा मेकअप ही उतर गया। किसी दूसरे के लिखे डायलाग बोलना जितना आसान होता है, उतना ही मुश्किल होता है सच की तह तक जा पाना। हवा में उडती फिरती अभिनेत्री ने विधवाओं पर निर्मम कटाक्ष तो कर दिया, लेकिन उन्हें उनकी मजबूरी नजर नहीं आयी। यह सच है कि वृंदावन में रहने वाली ७५ प्रतिशत विधवाओं का नाता पश्चिम बंगाल से है। पति की मौत के बाद उन्हें किसी का सहारा नहीं मिलता। जमीन-जायदाद के लालच में अपने भी बेगाने हो जाते हैं। रुढ़िवादी परंपराओं के चलते वे पुनर्विवाह भी नहीं कर पातीं। इन विधवाओं को अपनों के द्वारा ही इस कदर प्रताड़ित किया जाता है कि वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जाती हैं और अंतत: उन्हें वृंदावन में आकर पनाह लेनी पडती है। बिहार और अन्य प्रदेशों की बेसहारा विधवाओं को भी यह धार्मिक नगरी हाथोंहाथ अपनाती है। कुछ विधवाएं तो इतनी कमजोर होती हैं कि उन्हें वृंदावन में भीख मांगने को विवश होना पडता है। कुछ का दैहिक शोषण भी होता रहता है। यह भी कटु सच है कि अपना घर-परिवार छोडने को मजबूर कर दी जाने वाली अधिकांश विधवाएं अनपढ और छोटी जाति की होती हैं। इन्हें अपने गांव में कोई काम नहीं मिलता। शहर भी दुत्कार देते हैं। ऐसे में बेचारी अगर वृंदावन चली आती हैं तो कौन-सा गुनाह करती हैं? यह विधवाएं किसी को कोई कष्ट नहीं देतीं। इनकी तो सारी उम्र ही कष्ट भोगते हुए कट जाती है, लेकिन हेमा ने इन्हें 'बाहरी' करार देकर अपने ओछेपन का ही परिचय दिया है। यह देश सबका है। हर नागरिक को कहीं भी रहने की आजादी है। असहाय विधवाएं पलायन को क्यों विवश होती हैं इस पर चिंतन-मनन कर कोई रास्ता निकालने की जरूरत है, न कि उन्हें फालतू मानकर दुत्कारने की। उन्हें उनका हक दिलाने की जिम्मेदारी भी जनप्रतिनिधियों पर है। सांसद ही यदि ऐसी टुच्ची और विभाजनकारी सोच रखेंगे तो देश का क्या होगा? हेमा मालिनी जैसी नारियों की सोच की अपनी एक सीमा है। उससे आगे वे जा ही नहीं सकतीं। उनसे किसी भी तरह के विकास और परिवर्तन की उम्मीद रखना बेमानी है। विधवाओं को कोसने वाली सांसद के मन में शायद ही कभी यह सवाल आया होगा कि विधवाओं को ही क्यों ऐसे दिन देखने पडते हैं? ...विधुरों को आखिर ऐसी शर्मनाक स्थितियों का सामना क्यों नहीं करना पडता?

Thursday, September 18, 2014

असली नायक कौन...और खलनायक कौन?

यह देश की आम औरत की कहानी है। एकदम सच्ची। बेरहम हालातों ने उसे ऐसी जगह लाकर खडा कर दिया है जहां उस पर उंगलियां ही उंगलियां उठ रही हैं। उसका नाता है उत्तर प्रदेश के एक गांव से। इस गांव की भी वैसी ही हालत है जैसी कि देश के अधिकांश ग्रामों की। महात्मा गांधी कहते थे कि असली भारत गांव में बसता है। सच कहते थे वे। गरीबी, बदहाली और बेरोजगारी आज भी लगभग हर गांव की पहचान है। इस कहानी की नायिका वह आम औरत है जो अपने दो बच्चों के साथ गांव में रहती है। रोजी-रोटी की तलाश में पति को देश की राजधानी दिल्ली जाना पडा। गांव रोजगार देने में सक्षम नहीं था। कोई भी मां खुद तो भूखी सो सकती है, लेकिन अपने बच्चों को रोटी के लिए तरसता नहीं देख सकती। उस औरत को जब कोई काम-धंधा समझ में नहीं आया तो उसने कच्ची शराब बनानी शुरू कर दी। बापू के गांव में पीने के लिए पानी भले ही न मिले, लेकिन शराब जरूर मिल जाती है। हर गली-कूचे में भरे पडे हैं पीने-पिलाने वाले। इसलिए उस औरत को भी यही धंधा फायदेमंद लगा। अच्छा-बुरा क्या है... इसमें उसने जरा भी अपना दिमाग नहीं खपाया।
वह धडल्ले से कच्ची शराब बनाकर बेचने लगी। बच्चों को पढाने और उनका पेट भरने लायक कमायी होने लगी। उसके यहां पियक्कडों का तांता लगने लगा। उसकी बनायी कच्ची शराब आसपास के गांव के पियक्कडों को भी ललचाने लगी। नशीली शराब बनाने में उसने महारत हासिल कर ली। शराब जब भट्टी पर च‹ढी रहती तो उसे पहले वह चखती और उसके बाद ग्राहकों के हवाले करती। चखते-चखते उसे मज़ा आने लगा। कडवाहट उसे भाने लगी। धीरे-धीरे उसे पीने की ऐसी लत लगी कि वह चौबीस घंटे नशे में धुत रहने लगी। राजधानी से लौटे पति ने पत्नी को बहुतेरा समझाया। दोनों में लडाई-झगडा होने लगा। पति का कहना था कि मां की देखा-देखी बच्चे भी शराबी बन जाएंगे। उनके भविष्य की ऐसी-तैसी हो जाएगी। कभी अपने बच्चों के लिए मर-मिटने वाली मां ने अपने पति की एक भी नहीं सुनी। सुनती तब जब होश में रहती। यहां तो दारू ने मां की ममता ही लूट ली थी। ऐसे में पति को अपनी भूल का एहसास हुआ। अगर उसने पत्नी को तब टोका और रोका होता जब उसने अवैध शराब के धंधे में कदम रखा था तो ऐसे शर्मनाक दिन न देखने पडते। दोषी तो वह भी कम नहीं। धन की चमक ने उसे भी अंधा बना दिया था। जब आंख खुली तब तक बहुत देरी हो चुकी थी।
हताश और निराश पति ने पंचायत का दरवाजा खटखटाया। ज्ञानवान पंचों ने महिला को समझाया और चेताया गया कि अगर घर-परिवार से प्यार है तो शराब छोड दो। शराब ज़हर है। सत्यानाशी है। इसने कभी भी किसी का भला नहीं किया। महिला ने पंचायत भवन में जुटी भीड की तरफ नजर दौडायी। आधे से ज्यादा उसके ग्राहक थे। कभी दिन में तो कभी रात में उसके यहां आ धमकते थे। कितनी पी जाते थे उन्हें भी पता नहीं होता था। उस महिला ने भरी पंचायत में ऐलानिया स्वर में अपना फैसला सुनाया कि वह अपना घर, पति और बच्चे तो छोड सकती है, लेकिन शराब नहीं। यही शराब ही उसकी जिन्दगी है। इसके बिना वह एक पल भी जिन्दा नहीं रह सकती। पंचायत दंग रह गयी। एक अनपढ औरत से उन्हें ऐसे करारे जवाब की उम्मीद नहीं थी।
एक दूसरी तस्वीर भी है। गुजरात में कहने को तो शराब बंदी है, लेकिन असली सच पीने वाले ही जानते हैं। हर शहर, गांव और कस्बे में असली और नकली शराब आसानी से उपलब्ध हो जाती है। आर्थिक नगरी सूरत में तो बाकायदा कई गलियां हैं जहां के घर मयखाने में तब्दील हो चुके हैं। यहां का विशालतम कपडा बाजार और डायमंड मार्केट देश ही नहीं दुनिया के लिए भी आकर्षिण केंद्र है। प्रतिदिन लाखों व्यापारियों का इस शहर में आना-जाना लगा रहता है। स्थानीय लोगों का हूजूम भी यह दर्शाता  है कि इस शहर में दम है। दमदार शहर में पीने वाले न हों...ऐसा कैसे हो सकता है! शराब से सजी-धजी गलियां सभी पीने वालों के स्वागत के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। किसी के लिए कोई बंदिश नहीं है। किसी भी ब्रांड की शराब, रम और बीयर चुटकी बजाते ही हाजिर हो जाती है। नमकीन से लेकर मांस-मटन और अंडों का भी इंतजाम हो जाता है। हर घर के सामने पीने वालों की भीड लगी रहती है। कुछ घरों के अंदर भी मेहमाननवाजी की जाती है। पुरुषों... बच्चों के साथ-साथ महिलाएं भी बडी तन्मयता के साथ साकी की भूमिका निभाती हैं। पियक्कडों को घरों में बैठकर पीने-पिलाने में जहां सुरक्षित होने का एहसास होता है, वहीं नयन सुख भी मिलता है। जिन-जिन घरों में महिलाएं शराब पिलाती हैं वहां पीने वालों की भीड यकीनन ज्यादा रहती है। पियक्कड जब नशे में चूर हो जाते हैं तो उन्हें संभालने का काम भी महिलाएं करती हैं। अधिकांश पुरुषों का बिना शराब पिये काम नहीं चलता। दूसरों को पिलाते-पिलाते वे भी हर दर्जे के नशेडी हो गये हैं। कुछ महिलाएं और युवतियां भी नशे में टुन्न रहती हैं। बच्चों को भी गिरते-पडते देखा जाता है। पुलिस आती है और अपनी मुट्ठी गर्म कर चली जाती है। नेताओं को भी उनका हिस्सा पहुंच जाता है। मय के नशे में सराबोर रहकर सतत आबाद रहने वाले मेले की खबर शासकों को न हो क्या यह संभव है? ऐसे में सोचिए और तय कीजिए कि इस कहानी का असली नायक कौन... और खलनायक कौन है?

Thursday, September 11, 2014

लानत है इन पर

मुख्यमंत्री पता नहीं कौनसी दुनिया में रहते हैं? होश में रहने वाला कोई भी जिम्मेदार नेता ऐसी बातें तो नहीं करता जैसी कि वे करते हैं। अपनी ही मस्ती में अपना राग अलापने वाले बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की सोच पर गुस्सा भी आता है और दया भी। कैसे-कैसे नालायकों को सत्ता हासिल हो जाती है। जनता इन्हें बडी उम्मीदों के साथ वोट देती हैं, लेकिन यह उसके हित का तो कोई काम नहीं कर पाते। ऊल-जलूल बकते हुए लोगों का मनोरंजन करते रह जाते हैं। यकीनन जीतनराम मांझी का सूझबूझ से कोई वास्ता ही नहीं है। हर समस्या का हल अपनी जेब में लिए फिरते हैं। मुंह खोलने में किंचित भी देरी नहीं लगाते। जिस बिहार प्रदेश के मुखिया हैं वहां की तरक्की कर पाना उनके बस की बात नहीं दिखती। इसलिए दलितों और शोषितों को बरबादी के पाठ जरूर पढाने लगे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके प्रदेश के लोग होशो-हवास में रहें। उनके नक्कारेपन पर कोई उंगली न उठाए इसलिए बदहाल जनता को दारू में डूबकर तबाह होने की सीख देकर अपने हैरतअंगेज चरित्र के पन्ने खोलते चले जा रहे हैं। उनकी निष्क्रियता की हकीकत उजागर हो गयी है। उनमें जनता के हित में कुछ कर दिखाने का न तो दम है और न ही कोई इच्छा। बस टाइमपास करने में लगे हैं। लालू प्रसाद यादव की राह पर चलकर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। वे जानबूझकर इस सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे हैं कि शराब ने कितने घर उजाडे हैं और कितनों को बेमौत मारा है। पर लगता है कि वे भी उसी सुरा के गुलाम हैं जिसकी हिमायत करते हुए उन्होंने कहा है कि काम के बाद पावभर शराब पीकर सो जाने में कोई बुराई नहीं है। अपने कथन को जायज ठहराने के लिए यह बताना भी नहीं भूले कि असली संकट तो तब खडा होता है जब हमारे दलित भाई दिन-दहाडे बोतल चढाकर सडकों पर इधर-उधर घूमते और गिरते-पडते दिखायी देते हैं।
जिन दलितों के घरों में हफ्तों चूल्हे नहीं जलते और उन्हें खाली पेट सोना पडता है उनकी चिंता-फिक्र करने और उन्हें मेहनत करने की सीख देने की बजाय शराबी बनने के लिए प्रोत्साहित करने वाले मुख्यमंत्री को पत्रकारों ने जब यह बताया कि प्रदेश में इस कदर भुखमरी है कि हजारों लोग अन्न से वंचित हैं। उन्हें हफ्तों खाना नसीब नहीं हो पाता। ऐसे में उन्हें चूहे खाने को विवश होना पड रहा है, तो उन्होंने छाती तानकर कहा कि चूहे खाने में क्या बुराई है? चूहा खाना सेहत के लिए अच्छा है। मैंने भी कई बार चूहे के मांस का आनंद लूटा है। मदिरा के साथ चूहे के मांस खाओ और सभी गम भूल जाओ। वाकई नाटकीयता और बचकानेपन की यह हद है। अपने ही लोगों का भद्दा मजाक!
क्या कभी आपने किसी मुख्यमंत्री को कालाबाजारी और अवैध कारोबार करने वालों की पीठ थपथपाते देखा है? मांझी कहते हैं परिवार के सदस्यों के उदर निर्वाह के लिए लूटपाट और काले धंधे करने में कोई हर्ज नहीं है। जब मेहनत से काम न बने तो लूटमारी पर उतरने में कोई बुराई नहीं है। पापी पेट के लिए कुछ भी कर गुजरना अपराध नहीं, सदाचार है। यकीनन मांझी को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। अभी तक तो हम यही पढते आये हैं कि चोरी और हेराफेरी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लूट, लूट होती है, भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार होता है और अनाचार और व्याभिचार की और कोई और परिभाषा नहीं हो सकती। काले कारोबार को छोटा व्यापारी अंजाम दे या बडा... है तो अपराध ही। लेकिन बिहार के इस मुख्यमंत्री की विषैली सोच के क्या कहने! इस महाअजूबे मुख्यमंत्री के संस्कारित बेटे को जब एक होटल के कमरे में रंगरेलियां मनाते हुए दबोचा गया तो इनका बयान आया कि इसमें गलत क्या है? जवानी में तो यह सब आम है। मेरे बेटे ने थोडी मौजमस्ती क्या कर ली तो मीडिया ने तूफान खडा कर दिया। मेरा बेटा भी देश का आम नागरिक है। इस देश के हर नौजवान को अपनी गर्लफ्रेंड के साथ मौजमस्ती की छूट है। यानी मुख्यमंत्री जी को अवैध रिश्तों पर भी कोई आपत्ति नहीं। है न गजब की बात। सोचिए यदि देश के हर प्रदेश का मुख्यमंत्री इन जैसी घटिया सोच वाला हो जाए तो क्या होगा? दरअसल देश के विशाल प्रदेश बिहार की यही बदनसीबी है कि उसे कोई ढंग का मुखिया ही नहीं मिलता। इसलिए यहां के लोगों को दूसरे प्रदेशों में जाकर रोजगार तलाशना पडता है और प्रताडना झेलनी पडती है। लानत है ऐसे सत्ताधीशों पर जिन्हें सत्ता तो चलानी नहीं आती, लेकिन उसे पाने के लिए पगलाये रहते हैं। जनता भी ऐसे बेवकूफों को पता नहीं क्यों अपना कीमती वोट देती है और सतत बेवकूफ बनती रहती है।

Saturday, September 6, 2014

क्या हुआ पापा?

महान देश के महान नेता महान बोलवचनों से लोगों का ज्ञानवर्धन करते रहते हैं। हाल ही में एक सत्ताखोर ने फरमाया कि जब तक दुनिया है तब तक बलात्कार होते ही रहेंगे। उनकी मानें तो हिन्दुस्तान की धरती का बलात्कारों से कभी भी नाता नहीं टूटने वाला। बडा अटूट रिश्ता है। जहां देखो, वहां बलात्कार। न रिश्तों की परवाह और ना ही उम्र की कोई लाज शर्म!
हरियाणा के शहर रोहतक में बदमाशों की छेडछाड से तंग आकर दो लडकियों को आत्महत्या करने को मजबूर होना पडा। अपनी अस्मत को बचाने के लिए मौत को गले लगाने की यह घटना बताती है कि हमारे यहां की पुलिस कितनी निकम्मी है। उसने अपनी साख ही खो दी है। महिलाओं का तो उस पर से भरोसा ही उठ चुका है। अगर ऐसी बात नहीं होती तो गुंडो की सतायी युवतियां पुलिस थाने पहुंचतीं और अपनी फरियाद सुनातीं। लेकिन उन्हें खाकी वर्दी के नकारेपन का पता था। ऐसे में आत्महत्या ही उन्हें आखिरी रास्ता नजर आया।
देश की राजधानी दिल्ली में एक वासनाखोर शिक्षक की हैवानियत ने इंसानियत और भरोसे की चूलें हिला कर रख दीं। मां-बाप ने अपनी लाडली बिटिया को ज्ञान अर्जन के लिए इस शिक्षक के पास ट्यूशन के लिए भेजा था। लेकिन ट्यूटर ने सातवीं कक्षा में पढने वाली छात्रा को कोर्स की किताबों का पाठ पढाने और सिखाने की बजाय कुछ और ही हरकतें करनी शुरू कर दीं। वह उसे अपने कम्प्यूटर पर पार्न फिल्में दिखाते हुए सेक्स का पाठ पढाने लगा। मौका पाते ही उसने बलात्कार कर अपनी मंशा पूरी कर ली। फिर तो इसका सिलसिला-सा चल पडा। कुकर्मी ट्यूटर दो साल तक बालिका को धमका-चमका कर बलात्कार करता रहा। लडकी पढाई में पिछडती चली गयी। बीते सप्ताह लडकी की मां ने मोबाइल फोन में ट्यूटर द्वारा भेजे गए अश्लील मैसेज पढे तो उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी। ट्यूटर के विश्वासघात और गंदी हरकत पर उसे गुस्सा भी आया और रोना भी। उसने पति को पूरी कहानी बतायी। पिता गुस्से में आग बबूला हो उठे। उन्होंने लडकी को डांटा-फटकारा। शर्म के मारे लडकी का चेहरा उतर गया। वह इस कदर भयभीत हो गयी कि उसने घर में रखा डिटॉल पीकर खुदकुशी करने की कोशिश की। उसे अस्पताल पहुंचाया गया। डॉक्टरों ने किसी तरह से उसे बचा लिया।
पिछले वर्ष उत्तराखंड में आयी प्राकृतिक आपदा ने कितनी तबाही मचायी, कितनी जानें लीं और कितनों को अनाथ किया इसका पूरा लेखा-जोखा तो किसी के पास नहीं है। सरकारें तो कभी पूरा सच उजागर नहीं करतीं। इसी भीषण प्राकृतिक आपदा की शिकार हुई एक दस वर्षीय बच्ची अपने माता-पिता को खोने के बाद इधर-उधर भटक रही थी। उसे किसी ने सहारा नहीं दिया। बर्बादी और तबाही के बाद क्षेत्र में मचे हाहाकार के बीच सेना के एक फौजी ने उसे हेलीकॉप्टर में बैठाकर हरिद्वार पहुंचा दिया। जहां उसे एक महिला मिली। महिला उसे मेरठ ले गयी और जबरन कचरा बिनने के काम में झोंक दिया। बच्ची को यह काम रास नहीं आया तो वह फिर हरिद्वार जा पहुंची और भीख मांगने लगी। इसी दौरान एक उम्रदराज अय्याश ने उसे अपनी वासना का शिकार बना डाला। उसने यह भी नहीं सोचा कि यह अनाथ उसकी बिटिया जैसी है। वैसे गैरों को यह सीख देने से क्या फायदा...। अपने देश की धरती पर ऐसे नराधम भी हैं जो अपनी बेटियों की इज्जत को तार-तार करने से बाज नहीं आते। अपनी बहू-बेटियों से कुकर्म करने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती। ऐसे दुश्चरित्र पिताओं की खबरें जब बाहर आती हैं तो न जाने कितने संवेदनशील भारतीयों कर कलेजा कांप जाता है। उनका बस चले तो वे ऐसे जानवरों को भरे चौराहे पर गोली से उडा दें। इस अनंत पीडा और तकलीफ का आखिर हल क्या है? ऐसी तमाम खबरें जब सूर्खियां पाती हैं तो दिमाग जैसे काम करना बंद कर देता है। ऐसे में यह लघुकथा दिमाग में कौंधने लगती है। इसकी लेखिका हैं... गायत्री शर्मा। उन्होंने इसे बंगलुरु में ६ साल की बच्ची के साथ स्कूल में हुए बलात्कार की घटना से दुखी, क्रोधित, शर्मसार और अपराधबोध से ग्रसित होने पर लिखा है :
"बच्ची से बलात्कार के एक केस में अदालत तारीख पर तारीख देती रही। हर तरफ शक, सवाल, संदेह, गुस्सा, हडबडी, हिकारत... इतने साफ और उलझे केस के फैसले में भी इतना समय? और अंतत: एक दिन भरी अदालत में सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश ने बेहद अजीब और खौफनाक हरकत करते हुए अपना फैसला सुनाया। पैन के तेजवार से अपनी दोनों आंखों को फोडते हुए जज साहब ने दर्द से भरी, लेकिन ऊंची आवाज में कहा...'मैं अदालत में दर्ज हुए इस केस और कहीं भी दर्ज ना हुए ऐसे तमाम केसों के सभी दोषियों को दृष्टिहीन होने और लिंग भंग की सजा सुनाता हूं।'
अदालत के अंतिम फैसले के बाद पता नहीं ऐसा क्या हुआ, कि वहां खडे लगभग सारे पुरुषों ने हडबडाते हुए एक हाथ अपनी आंखों पर और दूसरा बैल्ट के नीचले हिस्से पर रखा! ...और मासूम पीडिता ने अपने हडबडाए पिता को झिंझोड़कर पूछा... "क्या हुआ पापा???"