Thursday, August 28, 2014

मीडिया और मोदी मंत्र

इन दिनों मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से खफा है। सभी को पता है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में मीडिया का कितना बडा योगदान है। मीडिया ने यूपीए-२ के कार्यकाल के गडबड घोटालों का पर्दाफाश किया। मीडिया ही कई महीनों तक महंगाई, भ्रष्टाचार की खबरों की सुर्खियां बनाता रहा और जनता को बताता रहा कि अक्षम और भ्रष्ट कांग्रेस के चंगुल से अगर देश को नहीं निकाला गया तो देश पूरी तरह से गर्त में समा जाएगा। चाहे न्यूज चैनल हों, अखबार हों, सोशल मीडिया हो सभी ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाया। लेकिन पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया को तो अपनी सफलता का श्रेय देते हैं, लेकिन अखबारों और न्यूज चैनलों से दूरी बनाकर जैसे उनका तिरस्कार करते दिखायी देते हैं। जो लोग मोदी को करीब से जानते हैं उनका कहना है कि गुजरात दंगों के बाद मीडिया के द्वारा जिस तरह से नरेंद्र मोदी को लगातार कटघरे में खडा किया गया उससे उनके दिल में मीडिया के प्रति खटास आ गयी। उन्होंने लगभग सभी न्यूज चैनलों और अखबार वालों से दूरी बनानी शुरू कर दी। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले मोदी इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया से मित्रता बनाये रखने में यकीन रखते थे। उस दौर में वे पत्रकारों के साथ बतियाते और चुटकलेबाजी करते देखे जाते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनमें बदलाव आता चला गया। गुजरात दंगों के बाद जब उन्हें 'खलनायक' के तौर पर पेश किया जाने लगा तो उनकी सहनशीलता भी जवाब देने लगी। एक बार उन्होंने कहा था कि अखबारों में छपने वाली कैसी भी खबर हो, बीस मिनट बाद तो वह रद्दी में तब्दील हो जाती है। दरअसल मोदी की यही चाहत और नीति रही है कि मीडिया उन पर किसी भी हालत में हावी न होने पाए।
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेंद्र मोदी अपने उसूल पर चल रहे हैं। आमतौर पर सभी प्रधानमंत्री किसी जाने-माने पत्रकार को अपना मीडिया सलाहकार बनाते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने अभी तक किसी को मीडिया सलाहकार नियुक्त नहीं किया है। नरेंद्र मोदी परम्पराओं में यकीन नहीं रखते। इसीलिए ही उन्होंने विदेशी दौरों में पत्रकारों को साथ ले जाना बंद कर दिया है। इससे पत्रकारों के उस जमात को धक्का लगा है जो जोड-जुगाड कर प्रधानमंत्रियों के साथ विदेश यात्राएं करने की आदी रही है। कई अखबारों के संपादक और मालिक प्रधानमंत्रियों के दौरों की राह देखा करते थे, क्योंकि उन्हें मुफ्त में यात्राएं करने और मौजमस्ती का अवसर मिलता था। नरेंद्र मोदी की देखा-देखी मंत्री और सांसद भी मीडिया से कतराने लगे हैं। बताते हैं कि मंत्रियों और नौकरशाहों को यह कहा गया है कि वे मीडिया से तभी बात करें जब बहुत जरूरी हो। दरअसल नरेंद्र मोदी को सोशल मीडिया से ज्यादा लगाव है। लोकसभा चुनाव से पहले ही वे सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग कर लोगों से जुडते रहे हैं। उन्होंने मंत्रियों और पार्टी के सांसदों को निर्देश दे दिया है कि सरकारी योजनाओं और अन्य क्रियाकलापो की लोगों को जानकारी सोशल मीडिया के माध्यम से देने की अधिकतम कोशिश करें।
मीडिया मोदी पर यह आरोप लगाने से भी नहीं चूक रहा है कि चुनाव के दौरान तो उन्होंने मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया। साक्षात्कारों की झडी लगा दी जिनकी वजह से देशवासियों ने उन्हें जाना और समझा और उनके प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा किया। लेकिन अपना काम निकल जाने के बाद मोदी का मीडिया से आंखें फेर लेना अचंभित करने वाली बात है। जाने-माने पत्रकार एच.के. दुआ कहते हैं कि सरकार और मीडिया एक दूसरे के बगैर नहीं रह सकते। सरकार, मीडिया की सूचना की भूख मिटाने का एकमात्र बडा माध्यम है तब सरकार के लिए भी उसकी महत्ता इसलिए है क्योंकि मीडिया के जरिए ही वह जनता तक पहुंचती है। भारत में अब तक इंदिरा गांधी को छोड दिया जाए तो लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के मीडिया के साथ बहुत ही मधुर संबंध रहे हैं। उन्होंने आपातकाल के दौरान मीडिया पर सेंसरशिप लगा दिया गया था। हालांकि बाद में इंदिरा गांधी ने अपने संबंध मीडिया से सुधारने की कोशिश की। अटल बिहारी वाजपेयी समय-समय पर मीडिया के जरिए जनता से संवाद कायम करते थे। उन्होंने मीडिया का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर किया। हालांकि इसके बाद मनमोहन सिंह पर मीडिया से दूरी बनाने का जरूर आरोप लगा। मनमोहन सिंह ने बहुत कम बार प्रेस कांफ्रेंस की जिससे उनकी छवि मीडिया से मुंह छिपाने वाली बन गई थी। हमें यहां यह समझने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री का जनता के प्रति उत्तरदायित्व है। जब आप मीडिया से रूबरू होते हैं तो जनता तक आपकी बात पहुंचती है। देश के लिए नीतियां बनाने और गर्वर्नेंस में भी मीडिया काफी सहयोगी साबित होती है। जनता के मूड को पता करने के लिए मीडिया एक सशक्त साधन है। सरकार और मीडिया एक-दूसरे के साथी हैं। इस साथ और भरोसे के सतत बने रहने में ही देश की भलाई है। १५ अगस्त के दिन लाल किले पर दिये गये मोदी के भाषण ने आम जनता को आश्वस्त किया है कि वे देश का कायाकल्प करके ही दम लेंगे। उनका यह कहना है कि न तो मैं खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा... करोडों देशवासियों के दिल को छूने का काम कर गया। उनके इस कथन के बाद मंत्री, सांसद और नौकरशाह सतर्क हो गये हैं। फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं। उनकी विदेश यात्राओं पर भी बंदिश लग गयी है। यानी मोदी का असर तो दिखायी देने लगा है।

Thursday, August 21, 2014

खोटे सिक्कों की अहमियत

भारतीय राजनीति के कुछ चेहरे ऐसे हैं जो बद और बदनाम होने के बावजूद अपना असर बनाये रखते हैं। उन्हें चाहने वालों की संख्या घटती-बढती रहती है, लेकिन फिर भी उनकी राजनीति का सूरज अस्त नहीं होता। लालूप्रसाद यादव को ही लें। इस शख्स ने कितनी जेल यात्राएं कीं मीडिया का निशाना बनता रहा, फिर भी उसे कभी शर्म नहीं आयी। अभी कुछ महीने पहले ही जब चारा घोटाला के मामले में लालू को जेल भेजा गया था तो यह अनुमान भी लगने लगे थे कि इनका अब जेल में ही स्थायी ठिकाना रहेगा। लेकिन शातिर राजनेता जेल से बाहर आने के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर लालू जैसे चालू नेता की तो हर राजनीतिक पार्टी को जरूरत होती है। इनका किसी एक दल से तो कभी स्थायी जुडाव होता नहीं। 'जहां दम वहां हम' की नीति पर चलते हुए जनता को बेवकूफ बनाते रहते हैं और अपनी खिचडी पकाते रहते हैं। खैर जेल से बाहर आते ही लालू फिर ऐसे सक्रिय हो गये जैसे वे जेल नहीं, किसी तीर्थ यात्रा पर गये थे। लोकसभा चुनाव में भले ही लालू को करारी मात मिली हो, लेकिन उनके लटके-झटके कायम हैं। कम ही ऐसे नेता हैं जिनमें लालू जैसी बेशर्मी और नाटकीयता की भरमार हो। मतलबपरस्ती भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। कुर्सी के लिए मर मिटने तक का जज्बा है उनमें। सिद्धांतों से कभी उनका कोई नाता नहीं रहा। ऐसे लोगों के कारण ही इस कहावत को बल मिलता है कि राजनीति में कोई भी दुश्मनी स्थायी नहीं होती। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नितिश कुमार से फिर लालू ने दोस्ती कर उपरोक्त कहावत को चरितार्थ कर ही दिया है। अब दोनों मिलकर सत्ता सुंदरी की बाहों में समाने को आतुर हैं। लेकिन उनका यह सपना आसानी से पूरा होने वाला नहीं।
लालू प्रसाद यादव की तरह ही अमर सिंह भी सत्ता के जबरदस्त भूखे हैं। वे किसी जमाने में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के दायें हाथ कहलाते थे। इस दायें हाथ ने समाजवादी का मुखौटा ओढकर अरबों-खरबों की अवैध माया जुटायी। भ्रष्टाचार और बेइमानी का ऐसा रिकार्ड बनाया कि जिसके सामने लालू प्रसाद भी बेहद बौने हैं। दरअसल अमर सिंह का भी राजनीति में आने का एक ही मकसद था, जैसे-तैसे माल कमाना और अपार धन का मालिक बन जाना। अपने इस मकसद में उन्होंने भरपूर कामयाबी पायी। उन्होंने उद्योगपति अनिल अंबानी से लेकर अमिताभ बच्चन तक के साथ करीबी रिश्ते बनाये। अमर सिंह रिश्ते बनाने में जितने माहिर हैं तोडने में भी उतने फुर्तीले हैं। अमिताभ बच्चन के तो भाई कहलाने लगे थे अमर सिंह। अमिताभ भी उन्हें अपना बडा भाई कहते नहीं थकते थे। लेकिन जो दोस्ती स्वार्थों पर टिकी होती हैं उसमें स्थायित्व होने का सवाल ही नहीं उठता। इन दिनों अमर सिंह न्यूज चैनलों पर अमिताभ और उनकी पत्नी को कोसते नजर आते हैं। वे जया बच्चन को तो हद दर्जे की मतलबी महिला घोषित कर चुके हैं। जया की वजह से ही मुलायम सिंह और उनकी दोस्ती में दरार पडने का भी रोना रोते रहते हैं। अमर सिंह के हिस्से में भी जेलयात्रा आयी थी। लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडा। लालू अगर बेशर्म हैं तो अमर महा बेशर्म। ऐसे लोगों के कारण राजनीति को 'वेश्या' तक कहा जाता है और नेताओं पर गालियों की बौछार होती रहती है। जिस अमर सिंह को मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी से बाहर कर दिया था उसी को उन्होंने पिछले दिनों हंसते-हंसते गले लगा लिया। समाजवादी पार्टी के ही कार्यक्रम में अमर सिंह मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। यानी बिछडे यार फिर से एक हो सकते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि मुलायम सिंह अमर सिंह को पार्टी से निकालना ही नहीं चाहते थे। कमाऊ पूत हमेशा प्यारा होता है। अमर सिंह तो कमाऊ यार थे जो खुद भी खा रहे थे और मुलायम का भी घर भर रहे थे। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मजबूरन मुलायम सिंह को कडा निर्णय लेना पडा। अपने नेता से अलग होने के बाद अमर सिंह ने यहां-वहां काफी हाथ-पैर मारे, लेकिन मुंह की खानी पडी। अमर सिंह ने मुलायम सिंह की कमियों को उजागर करने का कोई भी मौका नहीं छोडा। जहां जाते वहीं मुलायम तथा उनके परिवार की बेवफाई की दास्तान के पन्ने खोल देते। पर अमर सिंह को किसी ने भी घास नहीं डाली। सभी दल और नेता जिस थाली में खाने, उसी में छेद करने की उनकी नीति से वाकिफ हैं। फिर भी नेताजी को अमर की कमी खलती रही। लोकसभा के चुनावों में हुई शर्मनाक हार ने मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास करा दिया।
दरअसल, गलती अमर सिंह की भी थी। वे खुद को पार्टी से बडा मानने लगे थे। उन्हें लगता था कि उनके बिना नेताजी चार कदम भी नहीं चल पायेंगे। चार साल के अलगाव ने दोनों को एक-दूसरे की अहमियत का अहसास दिला दिया है। वैसे अमर सिंह जमीनी नेता तो कतई नहीं हैं। सत्ता के बदनाम दलालों में उनकी गिनती की जा सकती है। जोड-तोड में माहिर हैं। अपना काम निकालने के लिए किसी भी पार्टी के नेता, उद्योगपति, माफिया से दोस्ती गांठ सकते हैं। बिफरने और दंडवत होने की कला में उनका कोई सानी नहीं है।
मुलायम सिंह यादव को अपने लाडले अखिलेश सिंह यादव पर बडा नाज था। मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने प्रदेशवासियों को इतना अधिक निराश किया है कि अब शायद ही वे दोबारा सत्ता पा सकें। प्रदेश की जनता तो विधानसभा के चुनावों का इंतजार कर रही है। वह बेटे और बाप को ऐसा करारा सबक सिखाना चाहती है कि जिसे वे उम्र भर न भूल पाएं। ऐसे में मुलायम को लगता है कि अमर सिंह ही उनके कोई काम आ सकते हैं। यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि  सत्ता का दलाल अमर सिंह मुलायम की बिगडी तकदीर संवारता है या फिर घिसी-पिटी लुटिया को पूरी तरह से डूबो कर रख देता है। वैसे इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति के बाजार में खोटे सिक्कों की भी अहमियत बनी रहती हैं।

Thursday, August 14, 2014

ऐसे गूंगे और बहरे सांसद किस काम के?

हुक्मरानों की मेहरबानी से कैसे-कैसे लोग राज्यसभा में पहुंचा दिये जाते हैं। उनका राज्यसभा का सदस्य बनना और बनाया जाना प्रबुद्धजनों को बेहद चौंकाता है। राष्ट्रीय पुरस्कार देने में कौन सा मापदण्ड अपनाया जाता है, वो भी लोगों को समझ में नहीं आता। सैफ अली खान, जैसे हद दर्जे के लुच्चों को जब 'पद्मश्री' मिल जाती है तब माथा पीटने को जी चाहता है। सैफ अली खान फिल्म अभिनेता हैं। फिल्मी कलाकार के तौर पर उन्होंने ऐसा कोई परचम नहीं लहराया कि उन्हें इतना बडा पुरस्कार दे दिया जाता। इस देश में ऐसा ही चलता है। बडे-बडे शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, समाजसेवियों, साहित्यकारों कलाकारों और विद्वानों की पूछ नहीं होती और जोड-जुगाड में माहिर लोगों को हाथोंहाथ लिया जाता है। देश की आजादी का असली आनंद यही लोग उठा रहे हैं। फिल्म अभिनेत्री रेखा को राज्यसभा की सदस्यता दे दी गयी। क्यों दी गयी, इसका जवाब न दाता के पास है और न ही पाता के पास। रेखा ऐसी अभिनेत्री हैं जिनका विवादों में चोली-दामन का साथ रहा है। ऐसी ढेरो अभिनेत्रियां हुई हैं जिन्होंने रेखा से कई गुना अच्छा अभिनय कर दर्शकों को अपना मुरीद बनाया। लेकिन उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करने लायक नहीं समझा गया। घोर विवादास्पद रेखा में कांग्रेस के महारथियों ने पता नहीं कौन से ऐसे गुण देखे कि वे उस पर मेहरबान हो गये। रेखा ने कितने घर उजाडे और कितनी शादियां कीं इसकी गिनती उसे भी याद नहीं होगी। भारतीय कानून को अपंग समझने वाली फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी शादीशुदा फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र से शादी कर कितनी नारियों की आदर्श बनी होंगी और उन्होंने भी पता नहीं कितने बसे-बसाये घर उजाडे होंगे। ऐसी नारी को भाजपा ने पहले राज्यसभा की सदस्यता और अब मथुरा से सांसदी दिलवाकर भले ही चुनावी लाभ पाया हो, लेकिन युवा पीढी के लिए अच्छा आदर्श तो नहीं प्रस्तुत किया। घाट-घाट का पानी पी चुकी रेखा को कांग्रेस की मेहरबानी से सांसद बनाये जाने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया कि इतनी बडी उपलब्धि के लिए अच्छे चरित्र का होना कतई जरूरी नहीं है। कुख्यात और चरित्रहीन चेहरे भी लोकतंत्र के सभी बडे मंदिर में चहलकदमी करने के हकदार हो सकते हैं।
क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर चरित्र के मामले में यकीनन निष्कलंक हैं फिर भी उन्हे राज्यसभा का सांसद बनाना समझदार देशवासियों को रास नहीं आया। सचिन को 'भारतरत्न' देने पर किसी ने आपत्ति नहीं उठायी थी। वे इसके हकदार थे। लेकिन उनका सांसद बनाया जाना हैरतअंगेज और शर्मनाक खेल था, जो इस देश के साथ खेला गया। यह महान कार्य कांग्रेस ने तब किया जब उसका पतन काल था। कुछ कांग्रेसियों ने अपनी पार्टी की सुप्रीमों सोनिया गांधी को यह पाठ पढाया कि सचिन पर यह मेहरबानी करने के कई फायदे होंगे। युवा वर्ग तो पार्टी से जुडेगा ही, सचिन पार्टी के चुनाव प्रचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। सोनिया गांधी ने हामी भरने में जरा भी देरी नहीं लगायी और रेखा के साथ-साथ सचिन का नाम भी राष्ट्रपति के पास राज्यसभा की सदस्यता हेतु नामांकन के लिए भिजवा दिया। दोनों महारथी राज्यसभा में पहुंच गए। कांग्रेस को उम्मीद थी यह दोनों सांसद लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के धुआंधार प्रचार अभियान में अपना करिश्मा दिखाएंगे। यानी उसके बडे काम आएंगे। पर इनके पास न तब समय था और न ही अब कोई समय है। यह तो शौकिया सांसद बने हैं। इन अहंकारियों को राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में अपनी कमतरी का अहसास होता है। यह तो खुद को सांसद से कहीं बहुत ऊंचा और महान समझते हैं। गौरतलब है कि संविधान निर्माताओं ने अलग-अलग क्षेत्रों की १२ श्रेष्ठतम हस्तियों को राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत करने की व्यवस्था की थी। लेकिन इस व्यवस्था में भी राजनीति हावी होती चली गयी। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी चलायी जिसके चलते अपने-अपने क्षेत्र में पूरी तरह से काबिल और प्रतिष्ठित लोगों को राज्यसभा में पहुंचने का उतना अवसर मिल ही नहीं पाया, जितने के वे हकदार थे। रेखा और सचिन तेंदुलकर की राज्यसभा में लंबे समय से अनुपस्थिति के बाद हंगामा मचा और यह मांग भी की गयी कि इन दोनों को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर देश पर उपकार करना चाहिए। साथ ही सरकार चलाने वालों तक यह आवाज पहुंचाने की कोशिश की गयी कि इस देश में ऐसी प्रेरक हस्तियों की कमी नहीं है जो वाकई बेहतरीन राज्यसभा सांसद साबित हो सकते हैं। गूंगों और बहरों को राज्यसभा में भेजने से अंतत: देश का ही नुकसान  होगा।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सबकुछ भूल जाओ। सोचिए जब राज्यसभा की सदस्यता के लिए ऐसे महारथियों को मनोनीत किया जाएगा जिनके कई और भी कामधंधे है तो वे राज्यसभा के प्रति कैसे समर्पित रह पाएंगे। उनका ध्यान तो अपने मूल कार्य पर केंद्रित रहेगा। सचिन ने भले ही क्रिकेट से संन्यास ले लिया हो, लेकिन उनके दीगर काम-धंधे बंद नहीं हुए हैं। उनका अधिकांश वक्त कमायी के चक्कर में बीत जाता है। रेखा की भी यही सच्चाई है। वे भी यदि कभी-कभार राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं तो गूंगी गुडिया की तरह बैठी नजर आती हैं। दूसरे सांसद उनसे मिलने और बातचीत करने को लालायित रहते हैं। राज्यसभा में भेजे जाने वाले अभिनेता हों या खिलाड़ी उन्हें देखने को सभी आतुर रहते हैं। वे भी अपनी झलक ऐसे दिखाते हैं जैसे इस धरती के भगवान हों।
राजनीतिक पार्टियों को भी राज्यसभा में उन्हीं लोगों को राज्यसभा में भेजना चाहिए जो देश के प्रति समर्पित हों। ज्ञानवान हों। प्रतिभाशाली हों। अपने क्षेत्र की विशेषताओं और समस्याओं पर बातचीत कर सकें। उनमें मौलिक चिंतन-मनन की क्षमता हो। राज्यसभा के प्रति सम्मान की भावना हो। उनकी योग्यता और विचारों से दूसरे सदस्यों के साथ-साथ देशवासी भी प्रभावित और लाभान्वित हों। विजय माल्या जैसे दारू के धंधेबाजों, अखबारों के जुगाडू मालिकों और शोषक किस्म के उद्योगपतियों ने राज्यसभा में पहुंचकर देश को ही लूटा है। उनसे देश के भले की उम्मीद करना बेमानी है। आजादी की ६८वीं वर्षगांठ पर क्या इस गंभीर विषय पर भी शासक कोई ध्यान देंगे?

Thursday, August 7, 2014

बदल रहे हैं बलात्कार के मायने

अब खबरों और कहानियों में फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। कई बार तो खबरों की रोचकता कहानियों को भी मात दे देती है। पहले छोटी सी खबर आती है फिर वही खबर धीरे-धीरे एक बडी कहानी बन जाती है। कितनी खबरें तो ऐसी भी होती हैं जो फौरन आयी-गयी हो जाती हैं। लेकिन बलात्कार की खबरों का तो जलवा ही खास होता है। नामी-गिरामी लोगों के द्वारा किये जाने वाले बलात्कारों पर खूब शोर मचता है। बडे-बडे चिन्तक बलात्कार पर दिमाग खपाते हैं। कुछ जाने-पहचाने विद्वान न्यूज चैनलों पर धडाधड जुबान लडाते हैं। पर बलात्कार हैं कि खत्म होते ही नहीं। सतत चलते रहते हैं। कभी यहां, कभी वहां। १२५ करोड की जनसंख्या वाले देश में बलात्कार सभी खबरों पर भारी पडते हैं। इन खबरों को बडी चतुराई से छापा और दिखाया जाता है। यही वजह है कि यह लोगों के दिलो-दिमाग में जोंक की तरह चिपकी रहती हैं। कइयों को पीडिता और बलात्कारी का नाम भी कंठस्त हो जाता है। स्कूल-कालेजों में फिसड्डी रहने वाले लडके लडकियां भी इनसे खूब मनोरंजित होते हैं। पढने तो पढने, पढाने वाले भी इससे अछूते नहीं रहते। मुंबई की एक २५ वर्षीय खूबसूरत मॉडल ने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी पर बलात्कार का आरोप जड दिया। यह खबर पलक झपकते ही देशभर के अखबारों और न्यूज चैनलों पर ऐसे छा गयी जैसे कहीं बहुत बडा तूफान आया हो। यह खबर रोज आनेवाली बलात्कारों की खबरों से ज्यादा अलग नहीं थी। इसमें भी वही सबकुछ था जो आजकल अक्सर होने वाले यौन शोषण के किस्सों में होता है। मामला एक बडे पुलिस अधिकारी से जुडा था। वैसे भी मुंबई पुलिस का बलात्कारों से पुराना नाता रहा है। मुंबई को मायानगरी भी कहा जाता है। यहां की माया बडी निराली है। जिसे समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। यहां सपने देखने वालों की भीड बसती है। पर सभी के सपने पूरे नहीं हो पाते। इस खबर की नायिका भी एक स्वप्नजीवी मॉडल है। दोनों की पुरानी जान-पहचान थी। मेल-मुलाकातें होती रहती थीं। एक दूसरे को उपहारों का आदान-प्रदान भी होता रहता था। अधिकारी ने मॉडल को साडी के विज्ञापन वाली फिल्म में काम भी दिलवाया था। ऐसी मेहरबानियों और करिबियो के बावजूद एकाएक मॉडल ने यह धमाका किया कि पुलिस अफसर ने उसे मुंबई के पांच सितारा होटल में मिलने के लिए बुलाया और एक कमरे में ले जाकर बलात्कार कर डाला। इसके बाद भी मॉडल अधिकारी से मिलती-जुलती और यौन शोषण करवाती रही। लगभग सात महीने बाद मॉडल की नींद टूटी कि उसकी इज्जत लूटी जा चुकी है। वह कहीं की नहीं रही। उसने फौरन पुलिस स्टेशन पहुंच कर अधिकारी की कारगुजारी की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। इस अनोखे बलात्कार पर तरह-तरह की बातें होती रहीं। पुलिस अधिकारी और मॉडल की कई आपत्तिजनक हालत की तस्वीरें सामने आने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया कि अधिकारी ने मॉडल से यौन संबंध बनाए। मोबाइल से भेजे गए मैसेज, विडियो क्लिप ने भी अधिकारी के वासना के दलदल में धंसे होने के पुख्ता सुबूत दे दिए। लेकिन एकाएक बलात्कार का बम फोडने वाली मॉडल को पाक-साफ मानने वालों ने अधिकारी को ही अकेला दोषी मानकर चिल्लाना शुरू कर दिया। यह तो अच्छा हुआ कि अचानक सच बाहर आ गया। उसी के वकील ने ही रहस्योद्घाटन कर दिया कि मॉडल ने रिएलिटी शो 'बिगबॉस' में पहुंचने के लिए ही यह सारा का सारा ड्रामा रचा। अधिकारी की किसी अन्य मॉडल से निकटता भी उसे खलने लगी थी।
चरम भोग के इस परम दौर में कई सच कभी भी उजागर नहीं हो पाते। उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश पर एक महिला जज ने यौन उत्पीडन का संगीन आरोप लगाकर गजब की सनसनी फैलायी। महिला जज के अनुसार न्यायाधीश उन्हें आइटम डांस करने को मजबूर करते थे। जब उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई तो उन्होंने और भी घटिया व्यवहार करना शुरू कर दिया। न्यायाधीश की मनचाही इच्छा को पूर्ण करने से इनकार करने पर उनका काफी उत्पीडन किया गया। उनका सुदूरवर्ती स्थान पर तबादला कर दिया गया। जिससे वे इतनी अधिक आहत हुर्इं कि अंतत: उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया।
कोलकाता की ४२ वर्षीय महिला की फेसबुक के माध्यम से वीरभूमि में रहने वाले एक ३३ वर्षीय युवक से दोस्ती हो गयी। युवक ने फेसबुक पर अपनी विभिन्न फोटो डाल रखीं थीं। सभी में वह स्मार्ट और खूबसूरत नजर आता था। महिला युवक पर लट्टु हो गयी। फेसबुक पर कुछ दिनों की चैट के बाद महिला ने अपने अनदेखे दोस्त को कोलकाता आने और जश्न मनाने का निमंत्रण दे दिया। उसने उसे पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया कि उसका भरपूर स्वागत किया जाएगा। उसके मन की सभी इच्छाएं भी पूरी कर दी जाएंगी। युवक भी महिला से मिलने को उतावला था। निमंत्रण पाते ही वह महिला के घर जा पहुंचा। महिला उसे देखते ही घोर निराशा की चादर में लिपट कर रह गयी। उसे लगा जैसे किसी ने उसके साथ बहुत बडा धोखा किया हो। जिस युवक को वह अपना सबकुछ सौंपने के लायक समझ रही थी वह तो जैसे छल और धोखे का प्रतिरूप निकला। उसका मोटापा, नाटापन और बदसूरती महिला को इस कदर खली कि उसने उसे दुत्कार दिया। वासना के बुखार में तपता युवक येन-केन-प्रकारेण उससे शारीरिक संबंध बनाने की जिद पर अड गया। जब उसकी मंशा पूरी नहीं हुई तो उसने उसकी चाकू मार कर हत्या कर दी। इस खबर को पढने के बाद मैं बहुत देर तक सोचता रहा। मेरे मन में यह विचार आया कि यदि कहीं युवक फेसबुक की फोटो की तरह ही हट्टा-कट्टा और खूबसूरत होता तो महिला उसके साथ रंगरेलियां मनाने में देरी नहीं लगाती। अपनी वासना की भूख को मिटाने के लिए लंबा सफर तय कर कोलकाता पहुंचे आशिक की सभी मुरादें पूरी हो जातीं। लेकिन इस अवैध रिश्ते का अन्तत: तो वही हश्र होता जो अभी तक होता आया है। देह की भूख के लिए कत्ल कर देने से बडी कोई दरिंदगी नहीं हो सकती। ऐसे दिल को दहला कर रख देने वाले मंजर देख और सुनकर घबराहट होने लगती है। दिल बैठ जाता है। ऐसे में न प्यार की परिभाषा समझ में आती है और न ही व्याभिचार और बलात्कार की। सबकुछ जैसे गडमड हो गया है...।