Thursday, December 31, 2020

और ख्वाब छिन गये!

    पिछले कई दिनों से आलम यह था कि चित्रा हेमनाथ के सपनों में आने लगी थी। दिन-रात वह उसके रूप के जादू में खोया रहता। हेमनाथ चित्रा का दिवाना तो उस दिन ही हो गया था, जब उसने उसे पहली बार टीवी शो में देखा था। एकदम हुस्नपरी, जबरदस्त कातिल मुस्कान। हेमनाथ बडा कारोबारी था। उसके पास कार, बंगला सबकुछ था। कमी थी तो बस मनपसंद खूबसूरत जीवनसाथी की। चित्रा से रूबरू मिलने के बाद उसने निश्चय कर लिया कि वह उसे अपना बना कर ही रहेगा। चित्रा को भी हेमनाथ भा गया था। चित्रा के दोस्तों ने भी उसकी तारीफें ही की थीं। उसे भी ऐसे ही किसी साथी की तलाश थी, जो सिर्फ उसे दिल से चाहे। पर्दे पर दिखने वाली चित्रा कामराज से नहीं, उससे दिल खोलकर सच्चा प्यार करे। तमिल फिल्मों की इस मशहूर अभिनेत्री को अच्छी तरह से पता था उसके लाखों चाहने वाले हैं, जो उसकी एक झलक पाने और सबकुछ लुटाने को बेकरार रहते हैं। उसकी किसी भी धारावाहिक में मौजूदगी टीआरपी बढाने के लिए पर्याप्त है।
    वह भी डूबकर अभिनय करती थी। फिल्म और सीरियल के काल्पनिक किरदार को साकार करने में कोई कसर नहीं छोडती थी। फिल्म हो या टीवी सीरियल, दर्शकों को तो मनोरंजन चाहिए। मनोरंजन भी एक-सा नहीं। किस्म-किस्म का। अभिनेत्री चित्रा हर कलाकारी में पारंगत हो चुकी थी। बिंदास, चुलबुली और मिलनसार लोकप्रिय अभिनेत्री से शादी करने की इच्छा रखने वालों की कतार लगी थी, लेकिन मनोकामना पूरी हुई हमेशा बन-ठन कर रहने वाले चेन्नई के युवा व्यापारी हेमनाथ की। बाकी सभी मन मसोस कर रह गये। २०२० के अगस्त महीने में दोनों की सगाई हो गई। २०२१ के जनवरी महीने में शादी करने के पक्के मंसूबे के साथ दोनों एक साथ एक ही छत के नीचे रहने लगे। दोनों के कुछ हफ्ते तो बडे मज़े से गुजरे, लेकिन उसके बाद हेमनाथ का असली चेहरा चित्रा को भयभीत करने लगा। वह उसे छोटी-छोटी बात पर डांटने और कटु बोल सुनाने लगा। दरअसल, हेमनाथ चाहता था कि चित्रा उसकी मर्जी के अनुसार चले। विभिन्न टीवी सीरियल्स और फिल्मों में चित्रा के अंतरंग दृश्य उसका खून खौलाने लगे। उसे तो उसका परफ्यूम लगाना और मेकअप करना भी शूल की तरह चुभने लगा। कल तक जिसको देखे बिना उसे चैन नहीं मिलता था, अब वह उसे चाकू-छुरी-सी लगने लगी, जिसका काम ही दूसरों को आमंत्रण देकर घायल करना था। जब कभी दोनों कहीं घूमने-फिरने जाते तो उस दौरान यदि कोई चित्रा के नजदीक आने की कोशिश करता तो हेमनाथ अपना आपा खोकर उसकी पिटायी करने से भी नहीं चूकता। उसका बस यही कहना था कि चित्रा पर उसी का एकाधिकार है। उसके अभिनेत्री होने के यह मायने तो नहीं कि कोई भी उसकी सुंदरता पर मोहित होकर उसे घूरने लगे। कोई भी ऐरा-गैरा उससे बतियाने तथा छूने को ललचाने लगे। हेमनाथ भूल गया कि चित्रा अभिनेत्री है। उसके अभिनय से प्रभावित होकर ही वह उसके मोहपाश में बंधा था। उस पर डोरे डाले थे। कई दिन तक उसके ईर्द-गिर्द चक्कर काटे थे। अब वह उस पर अभिनय छोडने का दबाव बनाने लगा था। चित्रा इसके लिए कतई राजी नहीं थी।
    हेमनाथ ने उसको सबक सिखाने के लिए अंधाधुंध मारना-पीटना प्रारंभ कर दिया। ऐसी-ऐसी पाबंदिया लगा दीं, जिससे चित्रा का दम घुटने लगा। उसने हाथ-पांव जोडे। बार-बार याद दिलाया कि वह सिर्फ देह नहीं, एक सशक्त नारी है। उसकी अपनी एक खास पहचान है। वह भी आजादी की उ‹डान भरने की अधिकारी है, लेकिन हेमनाथ की वहशियत कम होने की बजाय बढती चली गई। उसकी आतंकी यातनाओं ने चित्रा के शरीर के साथ उसके दिल-दिमाग को इस कदर आहत किया कि वह ९ दिसंबर की रात फांसी के फंदे पर झूल गयी। दूसरों को अपनी मर्जी और जिंदादिली के साथ जीवन जीने की सलाह देने वाली महज २९ वर्ष की अभिनेत्री जब आत्महत्या करने जा रही होगी तब उसके मन में क्या रहा होगा?
    ३० नवंबर २०२० को डॉ. शीतल आमटे ने खुद को जहरीला इंजेक्शन लगाकर मौत की नींद सुला दिया। डॉ. शीतल एक समाजसेवी थी। बहुत बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी थी। वह देश और दुनिया में प्रख्यात समाजसेवी, पद्मविभूषण तथा मेगसेसे अवॉर्ड से सम्मानित मुरलीधर देवीदास आमटे यानी बाबा आमटे की पोती थीं। शीतल की खुदकुशी की खबर भी अविश्वसनीय तथा स्तब्धकारी थी। अखबारों और न्यूज चैनलों में जैसे ही उनकी आत्महत्या की खबर आयी तो लोगों को बाबा आमटे याद हो आये, जिन्होंने छह सौ एकड जमीन के मालिक जागीरदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद मानवसेवा का मार्ग चुना। कुष्ठ रोगियों को भला चंगा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति और उम्र लगा दी। मुरलीधर के बाबा आमटे बनने की कहानी भी कम स्तब्धकारी नहीं है। नागपुर के विधि महाविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद देश का नामी-गिरामी वकील बनने का सपना देख रहे मुरलीधर के जीवन में बरसात की उस रात ने भूचाल-सा ला दिया, जब उसने देखा कि एक कुष्ठरोगी कूडे-कचरे में रेंग रहे कीडों को खाकर अपनी भूख मिटा रहा है। दूसरे लोगों की तरह मुरलीधर के लिए उसे नजरअंदाज कर पाना संभव ही नहीं हो पाया। बेचैनी, आत्मग्लानि के साथ-साथ इस सवाल ने उसे कसकर जकड लिया कि गंदगी तथा कीडों-मकोडों को खाकर जिन्दा यह कुष्ठरोगी, जिससे सभी दूरी बनाते हैं, हिकारत भरी निगाह से देखते हैं, आखिर है तो वह एक इनसान ही। क्या वह अकेला पडा-पडा मर जाए! आखिर उसका कसूर क्या है? मुरलीधर ने पहले तो तूफानी बारिश से बचाने के लिए उसके सिर पर तिरपाल खडी की। फिर खाना खिलाया। उसका इलाज करवाया और सतत देखभाल की।
कुछ हफ्तों के बाद उस कुष्ठरोगी ने मुरलीधर की बाहों में दम तोड दिया। वह तो चला गया, लेकिन मुरलीधर की तो सोच ही बदल गई। मौज-मज़े के साथ जीवन जी रहे धनवान पिता के जवान बेटे ने अपनी राह ही बदल ली। उसका पूरी तरह से कायाकल्प हो गया। कुष्ठ रोग को मिटाने के लिए मुरलीधर ने कोलकाता जाकर कुष्ठरोग निवारण का विशेष वैद्यकीय प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर उसके बाद अपनी पत्नी साधनाताई आमटे के साथ मिलकर १९४९ में चंद्रपुर जिले के वरोरा में 'आनंदवन' की स्थापना की। साधनाताई भी संपन्न परिवार में पली बढी थीं। दोनों जुनूनियों ने समाज से बहिष्कृत अत्यंत दयनीय स्थिति में दिन काट रहे कुष्ठरोगियों के प्रति खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। दो झोपड़ियों में प्रारंभ हुए आनंदवन में न केवल कुष्ठरोगियों का इलाज किया जाता था बल्कि उन्हें अपने पैरों पर खडे होकर कमाने-खाने के लायक भी बनाया जाता था। अपने जीवन काल में दोनों ने हजारों का जीवन संवारा और सम्मान भी दिलवाया। उनके निस्वार्थ सेवाभाव की ख्याति चारों ओर फैलती चली गयी। देश और दुनिया के लिए आनंदवन प्रेरणास्थल बनता चला गया। महात्मा गांधी के अनुयायी बाबा आमटे को पूरी तरह से तिरस्कृत और अछूत जाति के लोगों की सेवा करने के कारण तरह-तरह की धमकियां भी झेलनी पडीं। संत बाबा आमटे जानते थे कि शारीरिक कोढ से कहीं बहुत अधिक खतरनाक बीमारी तो मन का कोढ है, जिसका कोई इलाज नहीं है। उनके इस सद्कार्य से प्रभावित होकर देश-विदेश के कई दानवीरों ने भी दिल खोलकर सहायता का हाथ बढाया।
बाबा और उनकी पत्नी ने ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का शंखनाद करते हुए आनंद निकेतन आर्टस, सार्इंस, कामर्स तथा कृषि महाविद्यालय, नेत्रहीन बच्चों के लिए आनंद विद्यालय तथा और भी कई जनहितकारी संस्थाओं की स्थापना की। कुष्ठरोगियों, अंधों और अपंगों के इलाज और उनमें आत्मबल जगाने का महान कार्य करने वाले बाबा आमटे का ९४ वर्ष की दीर्घायु में स्वर्गवास हो गया। अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित इस महामानव को बीस वर्ष से एक असाध्य बीमारी ने जक‹ड रखा था, जिसके कारण उन्हें वृद्धावस्था में निरंतर खडे रहना पडता था या फिर लेटे रहना प‹डता था। फिर भी उन्होंने अपने सेवाकार्य से मुंह नहीं चुराया। युवकों की तरह डटे रहे। आनंदवन अब एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। उनके पुत्र विकास आमटे और डॉ. प्रकाश आमटे तथा उनका पूरा परिवार जनसेवा में जुटा है। आनंदवन में हर वर्ष ‘वृक्ष महोत्सवङ्क मनाया जाता है। अतिथियों का स्वागत-सत्कार स्वस्थ हो चुके रोगी ही करते हैं।
देश और दुनिया को हतप्रभ कर देने वाले कोरोना काल में ३० नवंबर को हुई डॉ. शीतल आमटे की खुदकुशी आनंदवन में चल रहे मनमुटाव, वर्चस्व और कलह का नतीजा थी। डॉ. शीतल दिव्यांग विशेषज्ञ थीं। दिव्यांगों की देखरेख और उनके इलाज के लिए खुद को समर्पित कर चुकी डॉ. शीतल आनंदवन में चल रही कुछ संदिग्ध गतिविधियों से असंतुष्ट थी। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए इतना भर बताना काफी है कि आनंदवन जैसी परोपकारी संस्था अंतत: पारिवारिक कलह का केंद्र बन गयी। डॉ. शीतल के ब‹डे भाई को पांच साल पहले ‘महारोगी सेवा समिति नामक ट्रस्टङ्क से धांधली के आरोप के कारण निकाल दिया गया था। दरअसल, शीतल अनियमितता और घपलेबाजी के सख्त खिलाफ थी। इसलिए उनकी संदिग्ध चेहरों के साथ पटरी नहीं बैठती थी। इसी वजह से उनके अपने भी दूरी बनाने लगे थे। विरोध जताने लगे थे। जो वह नहीं चाहती थी वह भी जबरन होने लगा था। २९ नवंबर को डॉ. शीतल ने ‘वॉर एंड पीसङ्क शीर्षक से एक पेंqटग सोशल मीडिया पर पोस्ट की और ३० नवंबर को इस दुनिया से ही विदा हो गर्इं। डॉ. शीतल आमटे ने शिक्षार्जन के दौरान भी कई अवॉर्ड प्राप्त किए। शिक्षा, चिकित्सा और पर्यावरण पर काम करने के साथ-साथ उन्हें पेंqटग का भी बहुत शौक था।
लोग कितने भी आधुनिक हो गये हों, लाख स्त्री को बराबरी का दर्जा देने के ढोल पीटे जा रहे हों, लेकिन कटु सच तो ये है कि आज भी हमारे समाज में पुरुषवादी प्रवृत्ति बहुत गहरे तक अपनी ज‹डे जमाये हुए है। पिता, पति, भाई के रूप में पुरुष ही नारी की जगह तय करते हैं। अधिकांश परिवारों में बेटे के लिए बेटी, बहन के सपने तहस-नहस करने में संकोच नहीं किया जाता। कल भी यही माना जाता था कि बेटियां तो परायी होती हैं। परिवार की इज्जत तो पति और बेटे की वजह से ही है। पुरुषों के अधीन रहना ही स्त्री की नियति है। उसे पुरुषों को रोकने-टोकने, समझाने, राज करने और हुक्म चलाने का कोई अधिकार नहीं। पुरुष जो कहे, करे और बोले बस वही नारी करे तो ही सही...। वर्ना...।

Thursday, December 24, 2020

अस मानस की जात

कोरोना का आतंक जब चरम पर था। लाखों लोग आर्थिक रूप से टूट गये थे। तबाह हो गये थे। लॉकडाउन ने उन्हें घरों में कैद कर दिया था। तब भी कई घटिया अंधी सौदागर प्रवृति के लोग अपनी कमीनगी से बाज नहीं आ रहे थे। अस्पतालों में सफेद कपडों में कोरोना से दिन-रात जंग लडते डॉक्टरों तथा नर्सों को अपना निशाना बना रहे थे। वे भूल गये थे कि डॉक्टर और नर्से ईश्वर का ही रूप हैं, जो अपने जीवन को खतरे में डालकर कोरोना के मरीजो को बचा रहे हैं। इस घोर संकट के समय देश के कई महानगरों, नगरों में मकान मालिकों ने जबरन उनसे घर खाली करवा लिए। उनका सामान तक सडकों पर फेंकवा दिया। उनके आसपास के लोग उन्हें संदेह की नजरों से देखते हुए उनसे यह सोचकर दूरी बनाते देखे गये कि उनकी वजह से उन्हें कोरोना वायरस का संक्रमण हो जायेगा। हां, यह भी सच है कि कुछ अस्पताल और वहां के लालची डॉक्टर कोरोना वायरस से बचाने की बजाय मरीजों को अंधाधुंध लूट रहे थे। ऐसे अपना बैंक बैलेंस बढा रहे थे, जैसे उनके लिए यह कोई सुअवसर हो। एक तरफ जहां महामारी को लेकर लोगों के मन में खौफ था। वहीं छोटी-छोटी चीजों के अभाव से लोग जूझ रहे थे, तो वहीं धन की भूख ने कितनों को अंधा बना दिया। पता नहीं वो कौन-सी ताकत थी, जो उनसे ठगी और लूटमारी करवाती रही। साइबर क्रिमिनल्स भी पूरी तरह से सक्रिय हो गये। वे मेल भेजकर लोगों को धमकाते रहे कि हमें पैसे भेजो नहीं तो कोरोना वायरस का शिकार बना देंगे। कोरोना के चिन्ताजनक काल में कई ऐसे दानवीर भी सामने आये, जिन्होंने पीड़ितों की दिल खोलकर सहायता की। गरीबों ने भी अमीरी दिखायी। मिल-बांटकर खाया। इतना ही नहीं खुद भूखे सोये, लेकिन दूसरों को भूखे नहीं सोने दिया। उन्हें अपने घर में पनाह दी। जिन लोगों के अंदर की मानवता मर चुकी है उन्हें अपने आसपास भूख से कराहते बच्चों के रोने-बिलखने की आवाज़ें नहीं सुनायी दीं। अपने सामने मरते लोगों और बिछी लाशों को भी उन्होंने अनदेखा कर दिया। वे तो बस अपनी धन-धुन में मगन रहे। उनके लिए नये-नये भेष धर यह कमायी का अभूतपूर्व अवसर था।
उत्तर प्रदेश के हाथरस में गधे के गोबर से मसाले बनाने वाले धनपशु पकड में आए। उन्होंने बाकायदा नकली मसाले बनाने का कारखाना खडा कर लिया था। उन्हें पता था कि पूरा शासन प्रशासन बीमारी से जूझने में व्यस्त है। उनके गंदे जानलेवा कारोबार पर नज़र रखने और धावा बोलने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं है। गधों के गोबर, एसिड, भूसा और हानिकारक रंगों से तैयार मसालों को चमकदार पैकेटस में भरने के बाद उन पर नामी-गिरामी ब्रांड का नाम लिखकर लाखों रुपये के वारे-न्यारे कर लिये गए। इन सौदागरों की दलील और सफाई यह है कि जब बाबा रामदेव गाय का मूत्र पिलाकर करोडों रुपये की कमायी कर सकते हैं तो हम अपने देशवासियों को गोबर क्यों नहीं खिला सकते। योग गुरू की तरह हम भी व्यापार ही तो कर रहे हैं।
तू डाल डाल मैं पात पात की कहावत को चरितार्थ करने की तो जैसे प्रतिस्पर्धा ही चल रही थी। अपनी ही इंसानी जात के सभी शत्रु तो कभी पकड में नहीं आते। मध्यप्रदेश के शहर इंदौर की महू तहसील के निकट स्थित एक गांव में ऐसे मिलावटखोर पकड में आये जो कीडों को मारने वाले कीटनाशक से काली मिर्च को चमकाते थे और उसका वजन बढाने के लिए घातक रसायन, नारियल का बूरा व स्टार्च मिलाते और बाजार में खपाते थे। जिस व्हाइट ऑइल से काली मिर्च को चमकाया जा रहा था, उससे सांस संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। अमूमन इसका उपयोग पत्तियों में लगने वाले कीट पतंगों को मारने के लिए किया जाता है। खाद्य पदार्थों में इसकी मिलावट से इन्सानों को कई तरह की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं। उन्हें डॉक्टरों के चक्कर काटने और बिस्तर पकडने को मजबूर होना पडता है। यह हमारा ही समाज हैं, जहां पर एक से एक शैतान भरे पडे हैं। उनके लिए इंसानी जान की कोई कीमत नहीं। उन्हें बस धन चाहिए। यही उनका ईमान है, धर्म है, मां, बाप, भाई, बहन, बच्चे, रिश्तेदार सबकुछ है। तभी तो जहां एक ओर कोरोना वायरस ने कोहराम मचा रखा तब वो ठगी के नये-नये तरीके ईजाद कर रहे थे। साइबर क्रिमिनल्स तो धमका-चमका रहे थे, लेकिन यह तो मौत के सामान पहुंचाते हुए मौत के मुंह में पहुंचा रहे थे। नीच सौदागरों को पता था कि गंभीर कोरोना मरीजों की जान बचाने के लिए प्लाज्मा चढाया जाता है। यह प्लाज्मा कोरोना को मात देकर स्वस्थ हो चुके मरीजों से लिया जाता है। क्योंकि उनके प्लाज्मा में कोरोना से लडने के लिए एंटीबॉडी तैयार हो चुकी होती है। उनका प्लाज्मा कोरोना के गंभीर मरीजों को चढाने से उनके शरीर में भी वही एंटीबॉडी डेवलप होती है और वे तेजी से कोरोना को मात देकर स्वस्थ हो जाते हैं। धन-पशुओं को यह भी जानकारी थी कि देश में कोरोना मरीजों की संख्या ज्यादा है और प्लाज्मा दान करने वाले कम हैं। बस फिर क्या था वे लग गये अपने काली कमायी के काम में और धडाधड नकली बनावटी प्लाज्मा बनाने और बेचने लगे। दतिया में घटिया मिलावटी प्लाज्मा चढाने से जब एक मरीज की मौत हुई तो तब प्लाज्मा के सौदागरों के खतरनाक गिरोह का पता चला। इस गिरोह के हत्यारे पंद्रह-बीस हजार में नकली प्लाज्मा बेच रहे थे। नकली प्लाज्मा चढाये जाने से मरीज की मौत होने पर परिजनों ने डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए हंगामा ख‹डा कर दिया। इस प्लाज्मा को बीस हजार रुपयों में खरीदा गया था। पुलिसिया पूछताछ में यह सच सामने आया कि नकली प्लाज्मा बेचने वाले तभी सक्रिय हो गये थे, जब उन्हें इसके महत्व की जानकारी मिली थी। उनके इस खतरनाक खेल से और भी कई लोगों की जानें गई होंगी, यह तो तय है। नकली प्लाज्मा खपाये जाने के गोरखधंधे में जिन डॉक्टरों ने साथ दिया, यकीनन वे तो ईश्वर के रूप नहीं, हद दर्जे के लुटेरे और शैतान हैं...।

Thursday, December 17, 2020

अपराधी, कौन अपराधी?

पहले नज़र इस खबर पर...
एक बेकसूर, युवक ने दहेज उत्पी‹डन के आरोपों को २३ साल तक झेला। पुलिस की मार खायी, जेल की यात्रा भी की। केस के वक्त उसकी उम्र २२ साल थी। मौजूदा समय में उसकी उम्र ४५ साल है और वह दो बच्चों का पिता है। २३ साल पहले उसकी भाभी ने उस पर तथा परिवार के अन्य सदस्यों के खिलाफ दहेज प्रताडना का मुकदमा दर्ज कराया था। मुकदमा दर्ज होते ही उसका तो सुख-चैन लुट गया। जो दिन नहीं देखने थे, वो देखे। वकीलों की जेबें भरीं और खुद कंगाली झेली। दो दशक का लंबा समय खुद को बेकसूर साबित करने के लिए अदालत के चक्कर काटने में गुज़र गया। खाकी वर्दी वालों ने भी तरह-तरह से परेशान कर नींद हराम करने में कोई कमी नहीं की। रिश्तेदारों और दोस्तों ने भी खुलकर बातचीत करनी बंद कर दी। अडोसी-पडोसी, रिश्तेदार तथा यार दोस्त भी निरंतर कटु वचनों के शूल चुभोते रहे। अंतत: कोर्ट में आरोप साबित नहीं हो पाया और उसे क्लीनचिट मिल गई, लेकिन उसके उन २३ वर्षों का क्या जो बेहद चिन्ता और परेशानी में बीते?
अब यह दूसरी खबर...
श्रीनगर के शम्सवाडी इलाके में रहने वाले निसार को निर्दोष होने के बावजूद २३ साल की यातनाभरी कैद की सजा भोगनी पडी। निसार ने सोलह साल की उम्र में अपने परिवार के कश्मीरी शॉल के कारोबार में रूचि लेनी प्रारंभ कर दी थी। पिता खुश थे। बेटा उनके कारोबार में साथ देने लगा था। पिता का अपने पुश्तैनी शॉल के कारोबार को अधिकतम ऊंचाइयों तक ले जाने का इरादा था। अकेले होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा था, लेकिन अब मेहनती और महत्वाकांक्षी बेटे के हाथ बटाने के कारण उन्हें लगने लगा था कि अब वो दिन दूर नहीं जब उनके व्यापार का मनचाहा विस्तार होगा और खूब धन बरसेगा। चारों तरफ भरपूर खुशियां ही खुशियां होंगी। निसार कारोबार के सिलसिले में ही नेपाल गया था। इसी दौरान २१ मई १९९६ को नई दिल्ली के लाजपतनगर में हुए बम धमाके के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इस धमाके में १३ लोगों की मौत और ३९ लोग जख्मी हुए थे। निसार ने बताया कि उसे गिरफ्तार तो नेपाल से किया गया था, लेकिन पुलिस ने मीडिया और अदालतों के सामने दावा किया कि उसे मसूरी से पकडा गया। उसकी गिरफ्तारी की तारीख भी उसे हिरासत में लेने के नौ दिन बाद की दर्शायी गयी। उन नौ दिनों के दौरान बडी बेरहमी से मारने-पीटने के बाद पहले मीडिया और फिर कोर्ट में पेश किया गया। गिरफ्तारी के वक्त वह था तो सोलह साल का, लेकिन पुलिस ने उसकी उम्र लिखी उन्नीस साल। बाद में उसके जन्म के प्रमाणपत्र भी दिखाए गये, लेकिन उनकी अनदेखी करते हुए उसे राजस्थान के समलेगी में एक बस में हुए धमाके का भी आरोपी बना दिया गया, जिसमें १४ लोग मारे गये थे। राजस्थान की जिस जेल में उसे रखा गया वहां चौबीस घण्टे घना अंधेरा रहता था। लोहे के दरवाजे में मात्र एक सुराख था, जिससे नाम मात्र की हवा और रोशनी आती थी। तीन महिने तक नहाना नसीब नहीं हो पाया। सिर के बालों, भौहों और दाढी तक में जुओं ने डेरा जमा लिया। बाद में दिल्ली की तिहाड जेल लाकर बंद कर दिया गया। जहां के हालात राजस्थान की जेल से कुछ बेहतर थे, लेकिन यहां पर भी कैदी ठूस-ठूस कर भरे थे। ७५ कैदियों की क्षमता वाली बैरक में लगभग दो सौ लोग कैद थे। यहां पर खूंखार कैदियों का राज चलता था। कभी दिल्ली तो कभी राजस्थान की जेल में सडने को मजबूर निसार ने छूटने की उम्मीद ही छोड दी थी। मुकदमा qखचता ही चला जा रहा था। कभी जज का तबादला हो जाता था, तो कभी गवाह हाजिर नहीं होते थे। qकचित भी कोई सबूत नहीं था, जो निसार को धमाकों से जो‹डता। अंतत: निसार को रिहाई तो मिली, लेकिन तब तक उसकी जिन्दगी के २३ साल बरबाद हो चुके थे। फिर भी निसार का आत्मबल अभी जिन्दा था। नये सिरे से जिन्दगी की शुरुआत के संकल्प के साथ वह घर लौटा, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद कोरोना की बीमारी की वजह से फिर से घर में ही कैदी बनकर रहने की नौबत आ गयी। २३ साल तक बंद जेल में रहने के बाद खुली जेल में सांस लेते निसार को लोगों के तरह-तरह के सवालों ने भी खासा परेशान किया। कई बार तो ऐसा भी होता कि वह किसी रिश्तेदार के आने से पहले ही अपने कमरे में चला जाता और उसके जाने के बाद ही बाहर निकलता। अभी भी हालात वैसे के वैसे हैं। कोई जब पूछता है कि आगे क्या करने का इरादा है, तो ऐसा लगता है कि सवाल की बजाय सीने में तीर मारा गया है। उसे हर हालत में कोई काम चाहिए। रोजगार के लिए पैसे नहीं हैं और नौकरी देने को कोई तैयार नहीं। सभी डरते हैं। उनकी निगाह में वह अभी भी अपराधी है। खूंखार हत्यारा है। उसके जेल में कैद होने के दौरान पिता चल बसे थे। निसार जैसे न जाने कितने लोग हैं, जिन्हें पुलिस की साजिश और गलती का शिकार होकर अपनी जिन्दगी के कई कीमती साल खोने पडे हैं। दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें नहीं लौटा सकती। पुलिस की वजह से कितने बेकसूर जेलों में सड रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। किसी को इसकी चिन्ता भी नहीं है।
एक के बाद एक निर्मम हत्याएं कर देश की राजधानी दिल्ली में दहशत फैलाने वाले एक सीरियल किलर ने अदालत में अपना बयान दर्ज कराते हुए बताया था कि वह तो बिहार से रोजी-रोटी कमाने के इरादे से दिल्ली आया था, लेकिन पुलिस ने उसे हत्यारा बना दिया। वह जिस इलाके में सब्जी बेचता था, वहां का बीट कांस्टेबल उससे बार-बार वसूली करता था। जब कभी वह उसकी मांग पूरी नहीं कर पाता तो वह उसे मारता-पीटता तथा झूठे मुकदमे दर्ज करवा देता। उसके कारण कई बार उसे जेल जाना पडता था। उसे खाकी वर्दीधारी पर बडा गुस्सा आता था, लेकिन वह उसका तो कुछ बिगाड नहीं सकता था। इसलिए उसने अपना गुस्सा उतारने तथा पुलिस को चुनौती देने के लिए निर्दोष लोगों की गर्दनें काटनी शुरू कर दीं। सीरियल किलर को फांसी की सजा सुनाते हुए अदालत ने पुलिस व्यवस्था पर जो तल्ख टिप्पणी की वो यकीनन काबिलेगौर है, "अभी तो इस व्यवस्था के कारण एक हत्यारा पैदा हुआ है, लेकिन अगर यही सिलसिला चलता रहा तो न जाने कितने सीरियल किलर व्यवस्था को चुनौती देने के लिए जन्म लेंगे। यही समय है, जब इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।" लगभग आठ वर्ष पूर्व अदालत के द्वारा व्यक्त किये गए खतरे और चिन्ता पर किसी ने भी गौर नहीं किया। जो हालात तब थे, वो आज भी हैं...।
भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। इसी वजह से जेलों की बदहाली खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। यह भी गजब ही है कि जेल में बंद कुल कैदियों में आधे से ज्यादा विचाराधीन कैदी हैं। उनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है। इनमें कई कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं फिर भी वर्षों से जेल में कैद हैं। कई कैदी तो ऐसे भी हैं, जो अपने आरोप के लिए संभावित सजा की अवधि से कहीं बहुत अधिक समय जेल में बिना कुछ सिद्ध हुए बिताने को मजबूर हैं। उनकी कोई सुननेवाला भी नहीं है। यह अधिकांश आरोपी इतने सक्षम ही नहीं हैं, कि वे अपने लिए कोई अच्छा-सा वकील रख सकें। यह सच भी अत्यंत स्तब्धकारी है कि देश भर की जेलों में उच्च शिक्षित कैदियों की अच्छी-खासी तादाद है। इनमें अधिकांश इंजीनियरिंग और मास्टर्स की डिग्री रखने वाले लोग हैं। टेक्निकल की डिग्री रखने वाले ज्यादातर कैदियों पर दहेज, हत्या और दुष्कर्म के आरोप हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे भी हैं, जिनपर आर्थिक अपराधों के आरोप लगे हैं। मानवता का तकादा और नियम तो यह कहता है कि विचाराधीन कैदियों को अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाए, लेकिन उन्हें अपराधी मानकर यातनाएं दी जाती हैं। जेलों को सुधार गृह की बजाय यातना स्थल बना दिया गया है। सच तो यह है कि जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दण्डित करने के साथ-साथ स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी है। इसी उद्देश्य से ही जेलों में कैदियों को पढने-लिखने से लेकर कौशल विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराये जाते हैं। बावजूद इसके अधिकांश जेलों में कैदियों के साथ कहीं कम तो कहीं ज्यादा पशुओं जैसे सलूक का दस्तूर ही सतत चला आ रहा है।

Thursday, December 10, 2020

कैसे टूटे परिपाटी?

 कोरोना के चरम दहशती काल ने लोगों की आंखें खोल दीं। भय के मारे अच्छे-अच्छों के पसीने छूट गये। कई चल बसे। कइयों की जान पर बन आयी। इस अभूतपूर्व अकल्पनीय समय में भी कुछ भ्रष्टाचारी तो जैसे बिलकुल निर्भय थे। सबकुछ थम गया, लेकिन वे नहीं थमे। बेखौफ होकर बेईमानी करते रहे। जी-भरकर रिश्वत लेते रहे और वो सब करते रहे जो उनकी फितरत रही है। ओडिशा में स्थित भुवनेश्वर के वन अधिकारी ने तो कमाल ही कर डाला। लॉकडाउन के दौरान जब सभी अपने-अपने घरों में बंद थे तब इस मौजपरस्त अधिकारी ने बीसियों बार चार्टर्ड प्लेन से पटना, मुंबई, दिल्ली और पुणे की यात्राएं कीं। वो भी अकेले नहीं, बल्कि अपने पूरे परिवार तथा यार दोस्तों के साथ। इन यात्राओं के दौरान उनके ठहरने के ठिकाने रहे बडे-बडे आलीशान फाईव तथा सेवन स्टार होटल, जहां करोडों रुपये लुटाकर भरपूर मौज-मज़े किये गए। इस वन अधिकारी पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कसे जाने के बाद पता चला कि इस आधुनिक राजा-महाराजा ने अपने बेटे और खुद के लिए चार प्राइवेट बॉडी गार्ड रखे हुए हैं। हर बॉडीगार्ड को पचास हजार रुपये महीने की तनख्वाह के साथ-साथ और भी बहुत-सी सुविधाएं उपलब्ध करवायी जा रही हैं। उसकी भुवनेश्वर, मुंबई, पुणे, बिहार और राजस्थान में स्थित भव्य कोठियों में एक साथ छापेमारी करने पर जो अरबों की सम्पत्ति और भौतिक सुख-सुविधाओं का सामान मिला उसे देखकर जांच टीम भी स्तब्ध रह गई। उसने अय्याशी के लिए पुणे में एक विशाल फार्म हाऊस किराये पर ले रखा है, जिसका हर महीने का किराया पांच लाख रुपये है। उसके रिश्तेदारों के यहां से तो करोडों रुपये मिले ही, ड्राइवर के यहां से भी ढेर सारी धन-दौलत मिली।
जिस देश के आम आदमी की जिन्दगी रोटी, कपडा और मकान के जुगाड में खत्म हो रही है वहां पर भ्रष्ट नेताओं की राह पर दौडते ऐसे अनेक नौकरशाह हैं, जिन्हें अपने कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं हैं, उन्हें तो बस बंगले, कोठियां, फार्महाऊस, कारें, सोना- चांदी और शहंशाहों वाली सभी सुख-सुविधाएं चाहिए। इसके लिए वे दिन-रात बेइमानी, घूसखोरी, लूटमारी कर रहे हैं। फिर भी उन्हें अपना भ्रष्टाचार राजनेताओं के भ्रष्टाचार से छोटा लगता है। वैसे दोनों यही मानते हैं कि समुद्र में से एक लोटा जल निकाल लेने से विशाल समुद्र को कोई फर्क नहीं पडता। उसके पानी में किंचित भी कमी नहीं होती, जबकि सच यह है कि इन लुटेरों के कारण ही देश की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है। भारत के संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना ही नहीं की होगी कि राजनेता, सत्ताधीश और नौकरशाह रिश्वतखोरी का ऐसा तांडव मचायेंगे कि भ्रष्टाचार के मामले में भारत दुनिया के सभी देशों को पछाडते हुए पहले नंबर पर पहुंच जाएगा। जी हां, ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की २०२० के दिसंबर माह में आयी रिपोर्ट में यह शर्मनाक सच पूरी दुनिया के सामने लाया गया है, जिससे हर भारतवासी अच्छी तरह से वाकिफ हैं, फिर भी खामोश हैं, बेबस हैं।
वर्षों पहले भू-आंदोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे ने कहा था कि, 'भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार हो गया है। जब सभी लोग भ्रष्टाचार करने लगें तो वह भ्रष्टाचार न होकर शिष्टाचार हो जाता है। भ्रष्टाचार तभी तक है, जब कुछ लोग उसे करें, लेकिन सब लोग उसे अपना लें तो वह भ्रष्टाचार न होकर शिष्टाचार हो जाता है। अधिकांश ईमानदारी का ढोल पीटने वालों की समस्या यह भी है कि उन्हें रिश्वतखोरी करने का मौका नहीं मिलता। इसलिए भ्रष्टों के खिलाफ चीखते-चिल्लाते रहते हैं। इस दौरान जैसे ही उन्हें धन की चमक दिखायी जाती है तो वे अपना ईमान बेचकर उनके साथ खडे हो जाते हैं, जो कल तक उनकी निगाह में पूंजीपति, शोषक, लुटेरे, बेईमान, देश के शत्रु तथा और भी बहुत कुछ थे। राजनीति और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर पहले कभी शोर भी मचता था, लेकिन अब सब चलता है वाली बात हो गई है। जब कोई ऑटो चलाने और पावभाजी का ठेला लगाने वाला चतुर इंसान राजनीति में प्रवेश कर विधायक बनता है और चंद वर्षों में अरबपति बन जाता है तो किसी को कोई हैरानी नहीं होती। सब जानते हैं कि राजनीति से बढ़िया देश में आज कोई और धंधा नहीं है। यहां शान-शौकत और दबंगई के साथ लूटमार करने की पूरी-पूरी आजादी है। यदि कोई जांच एजेंसी भी उसके काले कारनामों की जांच करती है तो दबंग पार्टी और सत्ता भी उसके बचाव में आकर खडी हो जाती है।
इस कलमकार को वो बीते दिन आज भी याद हैं, जब विभिन्न सरकारी विभागों में बहुत डर-डर कर रिश्वतखोरी होती थी। छोटे स्तर के कर्मचारी ही घूस लेते थे। उनकी पूरी कोशिश होती थी कि उनकी रिश्वतखोरी की जानकारी बडे अधिकारी तक न पहुंचे। यदा-कदा जब उच्च अधिकारी को भ्रष्टाचार की खबर लगती थी तो वे ऐसी सख्त कार्रवाई करते थे, जिससे दूसरे बेईमान भी सतर्क हो जाते थे, लेकिन अब तो अधिकांश ब‹डे से बडे अधिकारी भी अथाह भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। खुद भी लूटमारी करते हैं और अपने सहयोगियों को भी खुली छूट देते हुए उनसे भी हिस्सेदारी पाते हैं। जब कोई खुद आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हो तो वह दूसरों पर कार्रवाई तो क्या उंगली उठाने से भी कतरायेगा। यही सच भारत के राजनेताओं और सत्ताधीशों का है, जिनकी नाक के नीचे नौकरशाही बेखौफ होकर लूट-खसोट मचाये है। कभी-कभार कोई भ्रष्टाचारी नौकरशाह पक‹ड में आता है, तो वह खबर बन जाता है, लेकिन उसे कहीं न कहीं पक्का यकीन होता है कि उसे उसके वो ‘आकाङ्क बचा ही लेंगे, जिनके साथ उसकी मधुर साझेदारी है।

Thursday, December 3, 2020

हैवानी वासना का अंतिम इलाज?

    सात वर्ष की बालिका के साथ दुष्कर्म! पढने, सुनने और सोचने भर से घबराहट, गुस्सा और कंपकंपी-सी होने लगती है। हर मासूम बेटी का चेहरा सामने आ जाता है। इस दुनिया में कौन है जो किसी भी नादान बच्ची पर कुकर्म के कहर की कल्पना कर सकता है? कोई वास्तविक संवेदनशील इंसान तो कतई नहीं। फिर आखिर यह किस धरा के लोग हैं, किस मिट्टी के बने हैं, जो बार-बार इंसानियत को लज्जित कर रहे हैं। इन शैतानों, हैवानों, बीमारों का कोई इलाज है भी या नहीं? २२ नवंबर २०२० के दिन नागपुर के पारडी इलाके में रहने वाली एक मां शाम को मेहनत-मजदूरी कर घर लौटी तो उसने अपनी सात वर्ष की मासूम बिटिया को दर्द के मारे कराहते पाया। बच्ची ने मां को बताया कि मकान मालिक ने उसकी यह रक्तरंजित दशा की है। बिटिया की चिन्ताजनक हालत देखकर मां सब समझ गई। वह तुरंत बच्ची को लेकर थाने गई। पुलिस ने जांच कर चालीस वर्षीय बलात्कारी के खिलाफ दुष्कर्म और पोक्सो एक्ट सहित विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया। यह सच निरंतर जगजाहिर हो रहा है कि हमारे समाज में, कुछ पढे-लिखे, विकृत मानसिकता के लोग भी हैं, जो ऊपर से बडे सभ्य और शालीन दिखते हैं, लेकिन उनकी घटिया, क्रूर मनोवृत्ति बडी घिनौनी और डरावनी है। उन्हें मासूम बेबसों पर जुल्म ढाने में अथाह आनंद की अनुभूति होती है। सोचिए... मात्र डेढ साल की बच्ची की समझ ही कितनी होती है, लेकिन शैतान तो शैतान हैं।
    छत्तीसगढ के बालोद के अंतर्गत आने वाले एक गांव सिवनी में एक खाकी वर्दी वाले ने जिस दरिंदगी के साथ इंसानियत को तहस-नहस करते हुए हैवानियत की सभी हदें पार कीं, उससे हर संवेदनशील शख्स का खून खौल गया। सिवनी में ही रहती हैं एक लोकगायिका। कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन में लोकगायिका के सारे कार्यक्रम रद्द हो गये थे। आर्थिक संकट ने घेर लिया था। इसी दौरान उन्होंने पुलिस के सिपाही को अपने मकान का एक कमरा किराये पर दे दिया था। एक रात शराब के नशे में धुत सिपाही लोकगायिका के कमरे में जा पहुंचा और उससे वो रुपये वापस मांगने लगा, जो भारी किल्लत के चलते लोकगायिका ने उससे उधार लिये थे। दरअसल, सिपाही का इरादा कुछ और था, जो पूरा नहीं हो पाया तो उसने कमरे में खेल रही उसकी डेढ साल की बेटी को उठाया और अपने कमरे में ले जाकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और बच्ची की पिटायी करते हुए कहने लगा कि, मैं तुम्हारा पिता हूं। तू मुझे पापा बोल। जिस बच्ची को अभी बोलना ही नहीं आता था वह उसे पापा कैसे कहती, लेकिन वहशी पर तो पापा बुलवाने का अंधा जुनून सवार था। अपनी इसी आतंकी जिद में वह बच्ची के चेहरे, हाथ, पेट, जांघों और पैरों पर जलती हुई सिगरेट दागता चला गया। बच्ची की जलन के मारे तडप-तडप कर रोने की आवाज सुनकर डरी-सहमी मां दरवाजा पीटती रही। मां की चीख-पुकार सुनकर पडोसी भी पहुंच गये। सभी ने मिलकर बडी मुश्किल से दरवाजा खुलवाया। फर्श पर पडी बेटी की हालत देखकर मां तो बेहोश हो गई। किसी तरह से उसे होश में लाया गया। बच्ची के चेहरे और पूरे बदन पर सिगरेट के गहरे निशान देखकर पडोसियों की भी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। दरिंदे पुलिसिये ने सिगरेट खत्म हो जाने के बाद मासूम की बेल्ट से भी पिटायी की थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने जांच करने के पश्चात बताया कि मासूम को ५० बार सिगरेट से बडी बेरहमी से दागा गया है। पुलिस ने अपनी बिरादरी के खूंखार अपराधी को बचाने के लिए हल्की धाराएं लगायीं। जब मीडिया में यह खबर आयी तो पुलिस को कडी कार्रवाई करने को विवश होना पडा।
    चित्रकूट के चालीस वर्षीय इंजीनियर नेपचास से अधिक बच्चों को अपनी हैवानियत का शिकार बनाने के साथ-साथ उनके अश्लील वीडियोज और फोटो उतारकर उन्हें 'पोर्न साईटस' पर बेचकर करोडो रुपये कमा लिए। पिछले दस साल से बेखौफ होकर इस घृणित काम को अंजाम देते चले आ रहे इंजीनियर की शादी २००४ में हुई थी। उसकी खुद की कोई संतान नहीं है। वह गरीब परिवार के बच्चे-बच्चियों को चाकलेट, मोबाइल, कपडे, खिलौने उपहार में देकर यौन शोषण के लिए बडी आसानी से अपने जाल में फांस लेता था। सीबीआई को उसके पास के मोबाइल, पेन ड्राइव एवं लेपटॉप से लगभग ८० चाईल्ड पोर्न वीडियो व छह सौ तस्वीरे मिलीं। बच्चों के इस यौन शोषक की करतूतों का सिलसिला २०१२ से ही प्रारंभ हो गया था, लेकिन पुलिस, पैसा और समाज के ठेकेदार उसे बचाते रहे। यदि तभी उस पर ईमानदारी से पुलिसिया डंडा चलता तो वह बच्चों के अश्लील फोटोज तथा वीडियोज को इंटनेशनल पोर्न साइटस पर बेखौफ अपलोड करके हराम की कमायी कर अरबपति नहीं बन पाता। उसने अपने इस गुनाह की पत्नी को भी भनक नहीं लगने दी। अपने पति की गिरफ्तारी से शर्मसार पत्नी ने खुद को घर में बंद कर लिया। किसी को अपना मुंह दिखाने की उसकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी।
    दिल और दिमाग को कहीं दफना कर चलो एक बार मान लेते हैं कि गैर तो गैर होते हैं, उनसे इंसानियत तथा अपनत्व की कैसी आशा, लेकिन जन्मदाता, पिता का यह घिनौना चेहरा और शर्मनाक विषैली करतूत? संतरा नगरी नागपुर में एक फला-फूला विशाल इलाका है मोमिनपुरा। यहां के ३८ वर्षीय एक शख्स की पत्नी का डेढ वर्ष पूर्व इंतकाल हो गया। उसकी दो बेटियां हैं। बडी बेटी चौदह वर्ष की और छोटी तेरह वर्ष की। कोरोना काल में स्कूल बंद थे। दोनों बच्चियां चौबीस घण्टे घर में रहने को मजबूर थीं। वैसे भी बच्चों के लिए अपने घर से ज्यादा और कोई सुरक्षित जगह होती ही नहीं, लेकिन नराधम पिता ने मौका पाते ही पहले तो बडी बेटी को अपनी अंधी हवस का शिकार बनाया फिर कुछ दिनों के बाद छोटी बेटी को भी नहीं छोडा। इसी दौरान उसने एक महिला से शादी भी कर ली, जो पहले से ही एक बच्ची की मां थी। दुनिया के सभी रंग देख चुकी पत्नी ने एक रात जब पति को अपनी ही बेटी के साथ कुकर्म करते देखा तो उसके पैरोंतले की जमीन ही खिसक गई। उसके बाद तो दिन-रात उसे अपनी ही बेटी की सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी। नींद में होती तो बुरे-बुरे सपने आते। अभी शादी को ज्यादा दिन भी नहीं हुए थे। उसके मन में यह यकीन बैठ गया कि जिसने अपनी बेटियों को नहीं बख्शा वह उसकी बेटी पर भी अपनी वासना की गाज गिरा कर ही दम लेगा। समझदार मां चुपचाप शैतान पति का घर छोडकर चली गई।
सौतेली मां के चले जाने के बाद दोनों बच्चियां अपने मामा के घर जा पहुंची। उन्हें डरी-सहमी देख मामी ने जब वजह पूछी तो यह घिनौना सच सामने आया। एक सामाजिक कार्यकर्ता को जब इस हकीकत की खबर लगी तो थाने में शिकायत दर्ज करवाई गई। बलात्कारी पिता को गिरफ्तार कर लिया गया। इस खबर को पहले बस्ती और बाद में पूरे शहर में फैलने में देरी नहीं लगी। गुस्सायी भीड ने थाने का घेराव कर अपनी ही बेटियों के बलात्कारी दरिंदे बाप को फांसी के फंदे पर लटकाने की मांग की आवाज़ बुलंद की। देखते ही देखते भय, चिन्ता और तनाव का माहौल बन गया...।
    अपने देश हिन्दुस्तान में वर्षों से बलात्कारियों, नारियों के हिंसक हत्यारों, दुराचारियों को भरे चौराहे फांसी पर लटकाने, नपुंसक बनाने की मांग की जा रही है। इसके लिए न जाने कितने आंदोलन हुए, कडा कानून भी बना, लेकिन शैतानों-हैवानों की दरिंदगी में कमी नहीं आयी। पडोसी देश पाकिस्तान में भी अपने ही देश जैसे हालात हैं। वहां भी महिलाएं बेहद असुरक्षित हैं। वहां पर भी सभी बलात्कारों की रिपोर्ट थाने में दर्ज नहीं होती। लोग शर्म से बताते नहीं, छिपाते हैं। वहां के कुछ धर्म गुरु और मौलाना महिलाओं को लेकर सतत बदजुबानी करते रहते हैं। उन्हें पर्दे में रहने और सिर झुका कर चलने का फरमान सुनाते हुए बलात्कारियों के हौसले बढाते रहते हैं। जब जुल्म हद से बढ जाए तो उसका खात्मा करना जरूरी है। यहां पर पाकिस्तान ने हिंदुस्तान से बाजी मारते हुए बलात्कारियों, दुष्कर्मियों को  नपुंसक बनाने के कानून पर सैद्धांतिक रूप से सहमति दे दी है। औरत को मात्र देह मानने और उसकी अस्मत पर डाका डालने वालों का अंग-भंग न करते हुए आप्रेशन से नकारा बनाने के प्रावधान की सर्वत्र प्रसंसा की जा रही है। अपने देश में भी जिस तरह से बच्चियां और महिलाएं असुरक्षित हैं और निर्भया कांड के बाद बनाया गया नया कडा कानून भी खौफ पैदा नहीं कर पाया तो ऐसे में दुष्कर्म के दोषियों को नपुंसक बनाने के कानून को बनाने में क्या कोई हर्ज है...?