Thursday, July 22, 2021

शोहरत

    डॉक्टर रंजन कुमार को फेसबुक से चिपका देख उसकी पत्नी का पारा चढ़ जाता है। कल रात को जब डॉ.रंजन लघुशंका के लिए उठा तो उसके हाथ में मोबाइल देख पत्नी फटकारने की मुद्रा में आ गई, ‘ये तो हद की भी इंतिहा हो गई। सब कुछ बर्बाद करने के बाद भी जब देखो तब फेसबुक खोलकर बैठ जाते हो। मुझे तो चिंता होने लगी है कि ये कहीं सचमुच का पागल बना कर तुम्हें पागल खाने न पहुंचा दे। तुम्हरी देखा-देखी अब तो बेटी भी मोबाइल से चिपकी रहती है। मुझे उसके भविष्य की भी चिंता सताने लगी है। अरे, अपनी नहीं तो कम अज़ कम मेरी नींद का तो ख्याल कर लिया करो। तुम अच्छी तरह से जानते हो कि बत्ती जलते ही मेरी नींद में खलल पड़ जाती है और यहां तुम हो कि आधी रात को एकाएक किसी न किसी बहाने उठकर बैठ जाते हो। तुम्हारे इस नशे के कारण मुझे सारी रात करवटें बदल-बदल कर काटनी पड़ती है। तुम्हारा क्या है...सुबह बारह बजे तक खर्राटों वाली नींद लेते रहते हो। मरण तो मेरा है जो समय पर बिस्तर न छोड़ूं तो बच्चे शोर मचाने लगते हैं उनकी भी कोई गलती नहीं। उन्हें सुबह आठ बजे तक स्कूल पहुंचना होता है। पत्नी बोलते-बोलते अंतत: शांत हो गई।
    डॉ. रंजन फेसबुक में मगन रहा। उसने शाम को अपनी ‘रक्तदान’ वाली जो फोटू फेसबुक पर डाली थी, उसमें उसे उतने लाइक नहीं मिले थे, जितने की उसे चाहत थी। डॉ. रंजन को फेसबुक के दोस्तों पर गुस्सा आने लगा। आदान-प्रदान के दस्तूर को भी निभाना नहीं जानते, ऐसी दोस्ती किस काम की...! बीमार होने के बावजूद वह आज गिरते-पड़ते दोपहर को रक्तदान शिविर में रक्तदान करने पहुंच गया था। बड़ी मुश्किल से एक अनजान औरत को तस्वीर लेने के लिए मनाया था। उसी तस्वीर को फेसबुक पर अपलोड करने के बाद कई मित्रों की पोस्ट पर कमेंट्स किये थे। धड़ाधड़ लाइक भी किया था। पांच हजार मित्र होने के बावजूद इतने घण्टों में ‘लाइक’ का आंकड़ा मात्र पचास तक ही पहुंच पाया था।  
    दरअसल, रंजन को कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही नाम कमाने और चर्चा में आने का चस्का लग गया था। तभी उसने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। उसे तब बड़ी तकलीफ होती थी जब उसकी लिखी कविताओं को कहीं छापा नहीं जाता था। कई बार उसने दैनिक अखबारों के कार्यालयों के चक्कर काटे, लेकिन संपादकों को उसकी कविताएं पसंद नहीं आयीं। फिर भी कभी-कभार उसकी चार-छह लाइनों की तुकबंदी कहीं छपती तो वह खुशी में झूमने लगता। अपनी अनगढ़ कविता की पंक्तियों को अपने दोस्तों को सुनाने तथा दिखाने के लिए उतावला हो उठता। इसी दौरान उसने कहानियां लिखने की भी कोशिश की, लेकिन दाल नहीं गली। वह जब भी किन्हीं जाने-माने लोगों के बारे में अखबारों में प़ढ़ता तो अपना नाम और फोटो देखने की उसकी इच्छा और बलवति हो जाती।
तब पिता जिन्दा थे। उनकी शहर के मेन बाजार में बड़ी-सी रेडिमेड कपड़ों की दुकान थी। रंजन भी उनका हाथ बंटाता था। इसी दौरान उसने शहर में आयोजित होने वाले विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाना प्रारंभ कर दिया था। आयोजकों से नजदीकी बनाने के लिए अपनी जेब भी ढीली करनी शुरू कर दी। किसी छपास रोगी की देखा-देखी उसने नियमित ऐसे रक्तदान शिविरों में जाकर रक्तदान करना भी प्रारंभ कर दिया, जहां पर नेताओं और मंत्रियों के कारण भीड़ उमड़ती थी और उनके रक्तदान महाकल्याण की खबरें शहर के समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थीं। रंजन की हमेशा किसी मंत्री या बड़ी हस्ती के करीब खड़े होने की कोशिश होती। उसकी कुछ फोटोग्राफरों से भी पहचान हो चुकी थी, जिन्हें वह पहले से ही कुछ दान-दक्षिणा देकर अपनी असरदार तस्वीर लेने को तैयार कर लेता था। बाद में जब हर हाथ में मोबाइल आ गए तो उसे उनकी ज्यादा जरूरत नहीं रही। अब तो जो भी आसपास दिखता उसे अपना मोबाइल देकर फोटो लेने की विनती कर देता। धीरे-धीरे रंजन के पास अखबारों में छपी खबरों का विशाल भंडार जमा होता चला गया। उसने इनकी कटिंग काट कर कई फाइलें तथा एलबम तैयार कर लीं। इन्हें वह अपने घर के ड्राइंगरूम में रखी टेबल पर ऐसे सज़ाकर रखता कि आने वाले किसी भी मेहमान की उन पर नज़र पड़ ही जाती। बातचीत के दौरान वह अपनी खबरों तथा तस्वीरों से सजी-संवरी एलबम उन्हें ऐसे दिखाता जैसे कोई महान लेखक अपनी मौलिक कृति ज्ञानवान पाठक, समीक्षक के समक्ष पेश कर उसकी तारीफ तथा मूल्याकंन का सुख पाता है। इसी दौरान देश के विभिन्न शहरों में स्थित उन संस्थाओं से भी उसका संपर्क होता चला गया जो धन लेकर समाजसेवक, प्रकांड विद्धान, राष्ट्र सेवक साहित्य श्री, राष्ट्र प्रेमी, धर्माचार्य, सर्वश्रेष्ठ बिजनेसमैन आदि-आदि के प्रमाण पत्र तथा सम्मान पत्र देती थीं। पैसा फेंकने में हमेशा तत्पर रहने वाले रंजन को मेरठ की एक संस्था ने मोटी रकम की ऐवज में डॉक्टर की पदवी से भी नवाज दिया।  तब से वह अपने नाम से पहले ‘डॉक्टर’ लगाने लगा। पिता चल बसे थे। अब तो वह मन का राजा था। नाम चमकाने तथा लोगों की नजरों में बने रहने की उसकी अपार लालसा के बारे में शहर ही नहीं, दूर-दूर के लोगों को पता चलता गया। कई धन की लालची संस्थाएं उसे निमंत्रित करने लगीं। वह उन्हें मोटा चंदा देकर मंच पर आसीन होने का आनंद लेता। जब वह मंच पर होता तो उसका सीना चौड़ा हो जाता। एक से एक चमकती शील्ड, प्रमाणपत्र, सम्मान पत्र और डिग्री पर डिग्री शोकेस में सजती चली गयी।
    आज तो सब खत्म हो चुका है, लेकिन तब पत्नी रोती-कलपती रहती थी कि दुकानदारी में ध्यान दो, लेकिन उसने उसकी एक नहीं सुनी। जब भी कोई उसे बुलाता, दुकान नौकरों के भरोसे छोड़कर चल देता। आखिरकार वही हुआ जो होता आया है...। एक समय ऐसा आया जब दुकान पूरी तरह से खाली हो गई। सामान नहीं होने के कारण ग्राहकों ने दुकान की तरफ झांकना तक बंद कर दिया।
    सोचते-सोचते जब रंजन को नींद आने लगी तब उजाला हो चुका था। पत्नी, बेटी और बेटे के लिए नाश्ता और टिफिन तैयार करने में लग चुकी थी। वह रंजन को लेकर भी बेहद चिंतित रहती है। पिता की छोड़ी विरासत को कुछ ही साल में तबाह करके रख देने वाले पति के प्रति उसके मन में गुस्सा और सहानुभूति दोनों है। अब तो रंजन की जेब भी पूरी तरह से खाली हो चुकी है। इन दिनों बस उसका एक ही काम है, फेसबुक पर विभिन्न पोस्ट तथा तस्वीरें डालकर कमेंट्स और लाइक्स का बड़ी बेसब्री से इंतजार करना...। जब कमेंट्स और लाइक मनमाफिक नहीं मिलती तो वह उदास हो जाता है। इस गम के दौर में भी वह दूसरों को लाइक देने में कंजूसी नहीं करता। सजग पत्नी को तो अपने पति की बर्बादी की वजह बताने में ही शर्म आती है...। दुकान के खाली हो चुके शोकेस में सजायी गई शील्डों, सम्मान पत्रों के साथ रखी पचासों तस्वीरें उसे गुस्सा दिलाती हैं, जिनमें मंचों पर पुरस्कृत होता रंजन नेताओं और खाकी वर्दी वालों के साथ मुस्कुराता नज़र आता है।
    घड़ी के कांटे बता रहे थे कि दोपहर के दो बज चुके हैं। उदास और निराश रंजन ने बड़ी मुश्किल से बिस्तर छोड़ा। चाय पिलाने के बाद पत्नी ने जो बताया उससे जो उसके हाथ-पैर कांपने लगे। सुबह करीब दस बजे मोहल्ले की एक कॉलेज गर्ल की किसी सिरफिरे ने चाकू घोंपकर निर्मम हत्या कर दी। हट्टा-कट्टा काला-कलूटा हत्यारा युवक किसी तरह कुछ पड़ोसियों के पकड़ में आ गया और उन्होंने उसे पुलिस के सुपुर्द कर दिया था। पुलिसिया पूछताछ में उसने बताया कि युवती उसकी फेसबुक फ्रेंड थी। छह महीने पहले दोनों दोस्त बने थे फ्रेंड रिक्वेस्ट युवती ने ही भेजी थी। दोस्ती के तुरंत बाद उसी ने चैटिंग की शुरुआत की थी। बार-बार कहती रहती, ‘‘मुझे तुम से प्यार हो गया है। अब तो कोरोना भी ठंडा पड़ गया है। जल्दी मिलने आ जाओ। खूब मौज-मस्ती करेंगे।’’मोबाइल नंबर देने की पहल भी उसी ने की थी। मेरी हर फोटो पर लाइक की झड़ी लगा देती और ऐसी-ऐसी कमेंट्स लिखती कि मैं मिलने को बेकरार हो गया। मिलने का दिन भी उसी ने सुझाया था। उसने वीडियो कॉल में मादक अंगड़ाई लेते हुए बताया था कि मकान मालिक कुछ दिनों के लिए बाहर गये हुए हैं। तुम बस उड़कर आ जाओ। मैं भी उसे पाने को उतावला था इसलिए अमृतसर से यहां आ पहुंचा। होटल के कमरे में नहा-धोकर जब उसके घर पहुंचा तो मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी, लेकिन वह मुझे देखते ही जली-कटी सुनाने लगी, तुम तो कपटी और धोखेबाज इंसान हो। फेसबुक में तो अपनी ऐसी-ऐसी आकर्षक तस्वीरें डालते रहे, जिन्हें देखकर मैं तुम पर लट्टू होती चली गई। तुम्हें देखने के बाद तो मुझे डर लगने लगा है। फौरन दफा हो जाओ यहां से...। हजारों मील की लंबी रेलयात्रा कर मैं उसके पास पहुंचा था और उसने दुत्कारते हुए दरवाजा ही बंद कर लिया। ऐसे में मेरा खून खौल गया और चाकू घोंपकर मैंने उसे वो मौत दे दी, जिसकी वह हकदार थी...हत्यारे की हिंसक सोच ने पुलिस अधिकारी के खून को खौला दिया और उन्होंने उसे तब तक पीटना जारी रखा जब तक वह अधमरा नहीं हो गया।

Thursday, July 15, 2021

अंतहीन फिल्म

    वो भी क्या दिन थे जब मैं और साहित्यकार मित्र गिरीश पंकज रात का शो सायकल पर बैठकर देखने जाया करते थे। आधा रास्ता सायकल गिरीश चलाते तो आधा रास्ता मैं। वो मोटर सायकलों, स्कूटरों के नहीं पैदल और सायकल के दिन थे। पांच-सात सौ की पगार थी, लेकिन शहजादाओं वाले ठाठबाट थे। कई वर्ष बीत जाने के बाद भी बिलासपुर की प्रताप, लक्ष्मी, मनोहर और बिहारी टाकीज की याद आ जाती है। सदर बाजार का वो मारवाड़ी भोजनालय भी यादों में है जहां की शुद्ध घी से चुपड़ी पतली-पतली रोटियां और रविवार को विशेष तौर पर परोसी जाने वाली मिठाई-कलाकंद या गुलाब जामुन अभूतपूर्व तृप्ति और उत्सव का अहसास कराते थे। अब भी जब कभी हम दोनों मिलते हैं, तो उन दिनों को याद कर तरंगित हो जाते हैं। काश! वो दिन फिर हमारे हिस्से में आते।

    उन दिनों राजेश खन्ना, संजीव कुमार, जितेंद्र, धर्मेंद्र, मुमताज, राखी, हेमामालिनी आदि के जलवे थे। राजेश खन्ना की दो रास्ते, आराधना, सफर, खामोशी, आनंद तो संजीवकुमार की संघर्ष और खिलौना जैसी फिल्मों को देखने के लिए जबरदस्त भीड़ उमड़ा करती थी। दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद की सजीव अदाकारी के दिवाने भी कम नहीं थे। पर्दे के नायक तथा नायिका की तकलीफें और परेशानियां दर्शकों को चिन्ता में डाल देती थीं। फिल्म के अंत में हीरो की मौत असहज और उदास कर देती थी। कुछ फिल्में मनोरंजन के साथ-साथ रुलाती भी थी। फिल्मों में मिलने-बिछड़ने, धोखा देने, धोखा खाने के दृश्यों को देखकर लड़कियां और महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी भाव विभोर होकर अपनी आंखें गीली कर लेते थे। सिनेमा हॉल के अंदर प्रवेश करते ही तनाव गायब हो जाता था। बेफिक्र होकर फिल्म का आनंद लिया जाता था। तब आज सी भागम भाग नहीं थी।
फिल्मी हीरो, हीरोइन वाकई आसमान के चमकते सितारे थे। धरती पर कम ही उनके पांव पड़ते थे। उन्हें देखने के लिए भीड़ ऐसे पगला जाया करती थी जैसे वे कोई फरिश्ते हों। इन फरिश्तों के निजी जीवन के बारे में छपने वाली खबरें भी लोगों को आकर्षित करती थीं। कितनी फिल्मी पत्रिकाओं की रोजी-रोटी उल्टी-सीधी गप्पबाजी से चलती थी। कुछ अभिनेता अपनी फिल्म को हिट करवाने के लिए भी अपने बारे में ऐसे-ऐसे किस्से गढ़वाते और छपवाते थे, जिससे लोग मनोरंजित होते थे और उनकी कल्पनाओं के घोड़े दौड़ने लगते थे। बेमेल इश्क के खेल में धोखे खाये भी जाते थेे और दिये भी जाते थे। समय तो बदलता ही है। उसका रथ कहां रुकता है।
    मोबाइल के इस युग में बहुत कुछ बदल गया है। इसी बदलने के तारतम्य से मुझे चाकलेटी सितारों पर भारी पड़ने वाले अभिनेता ओमपुरी की याद आ रही है, जिनकी फिल्म अर्धसत्य ने दर्शकों के दिमाग के ताले खोल दिये थे और शासन-प्रशासन के भ्रष्ट चेहरे को बेनकाब कर सोचने को विवश कर दिया था। कालांतर में नामी-गिरामी सितारों का साक्षात्कार लेना मेरा पसंदीदा काम होता चला गया। गिरीश पंकज ने साहित्य के क्षेत्र में तेजी से झंडे गाड़ने प्रारंभ कर दिये। तब ऐसे-ऐसे हीरो और हीरोइन से मिलना सहज होता चला गया था, जिनकी फिल्में देखे बिना कभी चैन नहीं आता था। ऊबड़-खाबड़ चेहरे वाले अभिनेता ओमपुरी से दिल्ली के कनॉट प्लेस के काफी हाऊस में अचानक हुई मुलाकात बाद में हल्की-फुल्की दोस्ती में तब्दील हो गयी थी। एक समय ऐसा भी आया जब ये मंजा हुआ अदाकार अपनी ही पत्नी नंदिता की दुष्टता और गद्दारी से टूट गया था। पत्नी पत्रकार थी। 48 साल के ओमपुरी का 26 साल की नंदिता पर दिल आ गया था। बहुत भरोसा करते थे वे अपनी पत्रकार पत्नी पर, लेकिन उसी पत्नी ने अपने पति पर एक ऐसी किताब लिख डाली जो वास्तव में ओमपुरी का काला इतिहास थी। कोई भी पति अपनी पत्नी से सच नहीं छुपाता। ओमपुरी ने किन्हीं मधुर पलों में अपनी वो कमियां और भूलें उजागर कर दीं जिन्हें छिपाये रखना जरूरी था, लेकिन नंदिता तो उनकी पत्नी थी। पूरा भरोसा था उस पर लेकिन उसने भरोसे का कत्ल करने से पहले यह भी नहीं सोचा कि पति को अय्याश साबित कर नाम कमाने की भूख अच्छे-खासे रिश्ते को तबाह कर देगी। नंदिता की बेवफाई ने ओमपुरी को शराबी बना दिया। इतना ही नहीं उसने तो एक पिता को अपने बेटे से मिलने पर भी बंंदिशें लगा दीं। 2017 की एक रात शराब के नशे में इस महान कलाकार की हार्ट अटैक से मौत हो गई, लेकिन नंदिता को कोई फर्क नहीं पड़ा।
    महान फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार 98 वर्ष की उम्र में चल बसे। इस दुनिया में जो भी आया है, उसे एक न एक दिन तो जाना ही होता है। दिलीप कुमार ने भरपूर जिन्दगी जी और इसमें अतुलनीय योगदान रहा उनकी पत्नी सायरा बानो का। सर्दी, जुकाम भी होता तो वे पति को अस्पताल ले जाने में देरी नहीं लगातीं। कितनी बार इलाज के लिए दिलीप कुमार अस्पताल ले जाए गये इसकी गिनती तो उनका इलाज करने वाले डॉक्टरों के पास भी नहीं होगी। वे भी सायरा के समर्पण को सलाम करते होंगे। सायरा बानो तो बस मौत के सामने दीवार बनकर डटी रहीं। कभी पत्नी तो कभी मां और बहन बनकर। इतनी देख-रेख और सेवा तो कोई मां ही कर सकती है। दिलीप कुमार ने भले ही किसी दूसरी औरत से कभी रिश्ते जोड़े हों, लेकिन सायरा ने कभी भी वफा का दामन नहीं छोड़ा। अपनी सारी नींदें कुर्बान कर दीं। पति तक किसी चिंता और गम की आंच नहीं पहुंचने दी। पति के चल बसने पर टूटे तन-मन से बोलीं, ‘मेरे जीने का मकसद ही नहीं रहा...।’
    अभिनेत्री मंदिरा बेदी कम उम्र में विधवा हो गयीं। मात्र 49 वर्ष के थे उनके पति राज कौशल। अचानक आये हार्ट अटैक से चल बसे। मंदिरा की तो सारी दुनिया ही लुट गई। दुखों के पहाड़ के बोझ तले दबी मंदिरा अंतिम समय तक पति के साथ बनी रहीं। जब पति के शव को अस्पताल से श्मशानघाट ले जाया गया तो काफी दूर तक अर्थी को पकड़े चलती रहीं। वे लोग जिनका काम ही बस आलोचना करना है उन्हें मंदिरा का पति की अर्थी को कंधा देना भारतीय परंपरा का अपमान लगा। कुछ विचारवानों ने उसकी मुड़ी-तुड़ी टी शर्ट और जींस पर तंज कसे। उनके विचार से उसे अपने पति की मौत का मातम तक मनाना नहीं आया। उसे अच्छी सुसंस्कृत नारी की तरह सफेद साड़ी या सलवार सूट पहन कर लोगों के सामने आना चाहिए था। सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ने की हिमाकत जो उसने की वह अक्षम्य अपराध है। ऐसे बुद्धिधारियों को हमारा यही कहना है कि जिस नारी को अचानक अपना पति खोना पड़े, वह तो अपनी सुध-बुध ही खो देगी। पति की लाश सामने पड़ी हो और पत्नी लोगों की पसंद का परिधान पहनने के लिए दौड़-भाग करने लगे, सोचकर ही अटपटा और शर्मनाक लगता है। यकीनन, मंदिरा ने वही किया जो एक अच्छी पत्नी के लिए जरूरी था, वह राज से सच्चा प्यार करती थी। सच्चे प्यार में नापतौल और नाटक-नौटंकी की कोई जगह हो ही नहीं सकती...।

Thursday, July 8, 2021

वार्तालाप

‘‘यार ये भी कोई बात हुई? किन्नर से शादी! ये आजकल के लौंडे आफत मचाये हैं। अरे, ऐसी भी क्या गर्मी कि मान-मर्यादा की ऐसी-तैसी करके रख दी!’’
‘‘गुरूजी, क्या फिर कोई नया खेल-तमाशा हो गया है?’’
‘‘पत्रकार जी, जो खबरें आपको पहले पता लगनी चाहिए उनसे तो अनभिज्ञ रहते हो। जब देखो तब बेकार की खबरों में ही उलझे रहते हो! कम अज़ कम अपने शहर में होने वाले धमाकों से तो बेखबर मत रहा करो।’’
‘‘गुरुजी, अब पहेलियां बुझाना छोड़ असली मुद्दे पर तो आएं। ऐसी कौन सी बिजली गिर पड़ी कि आपका तन-मन झुलसा हुआ है?’’
‘यार पत्रकार, मैंने जबसे सुना है कि शहर के एक छोकरे ने हिजड़े से ब्याह रचाया है तो मेरा ब्लड प्रेशर ही बढ़ गया है। शर्म की बात तो यह भी है कि मां-बाप ने भी मंजूरी दे दी है।’’
‘‘गुरुजी, यह तो बड़ी अच्छी खबर है। मैं कल ही उनसे जाकर मिलता हूं। दोनों का साक्षात्कार लूंगा और अपने अखबार के पहले पेज पर छापूंगा। आज के दौर में ऐसे हिम्मती युवक बचे ही कहां हैं। हमारे समाज का फर्ज बनता है कि वे दोनों को सराहें, दिल खोलकर आदर-सत्कार करें।’’
‘‘तुम्हारी ऊलजलूल सोच को लेकर ही तो मुझे हमेशा बड़ा गुस्सा आता है। समाज को साफ-सुथरा रखना छोड़ गंदगी फैलाने की पैरवी में लगे रहते हो। मुझे तो लगता है कि किन्नर ने इस अच्छे-खासे छोकरे पर कोई जादू टोना कर दिया होगा। बड़ी चालू किस्म की है ये जमात। बिन बुलाये किसी के भी यहां पहुंच जाते हैं ये लोग। इनके नेटवर्क के सामने तो बड़े-बड़े जासूस फेल हैं। किसके यहां शादी होने वाली है, बच्चा होने वाला हैं, इन्हें सबसे पहले पता चल जाता है ये लोग भरोसे के तो कतई काबिल नहीं। अब तुम्हीं बताओ कि दुनिया में क्या खूबसूरत लड़कियों का अकाल पड़ गया है जो मर्दों को हिजड़ों के साथ सात फेरे लेने पड़ें! कल जब साक्षात्कार लेने जा ही रहे हो तो उससे यह पूछना नहीं भूलना कि क्या तुमने एमए बीएड की डिग्री मर्दों को फांसने के लिए ही ली है? अपने शिक्षा के ज्ञान को अपनी बिरादरी के लोगों के विकास में लगाती तो इतनी बड़ी डिग्गी सार्थक हो जाती, लेकिन इसकी असली मंशा तो किसी भी पुरुष को फांसने की ही रही होगी।
‘गुरुजी, आपने तो दो-दो शादियां की हैं। आपके समलैगिंक संबंधों पर तो फिल्म भी बन चुकी है। फिर भी लगता है कि इस सच को भूला बैठे हैं कि प्यार तो किसी से भी हो सकता है। आप ही तो लिखते और बताते आये हैं कि प्यार वो मधुर एहसास है जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। प्यार के सागर में गोते लगाने वाले प्रेमी किसी की परवाह नहीं करते। जीवन में अगर मनपसंद साथी मिल जाए तो जिंदगी सार्थक हो जाती हैं। युवक ने किन्नर में वही अपनापन ही तो देखा होगा जिसकी हर इंसान को तलाश रहती है। आपके विरोध और उलझन को देखकर मुझे कभी अखबार में पढ़ी यह खबर याद हो आयी है जिसमें बताया गया कि दक्षिण अफ्रीका में अब पुरुषों की तरह महिलाओं को भी एक से ज्यादा पति रखने की अनुमति देने पर विचार किया जा रहा है, लेकिन यह बात उन लोगों को चुभ रही है जो रूढ़ीवादी सोच रखते हैं। मानवाधिकार समूहों का मानना है कि एक से अधिक शादी का अधिकार सभी के लिए समान होना चाहिए। विख्यात व्यापारी और टीवी की एक जानी-मानी हस्ती की चार बीवियां हैं, लेकिन उन्हें भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा दिये जाने पर घोर आपत्ति है उनका कहना है कि महिलाएं कभी भी पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकतीं। उनकी सोच बिलकुल आपकी जैसी ही है। आपको तो किन्नर इंसान ही नहीं लगते। इसलिए उनके हक पाने के कदम को ही गलत मानते हैं।’’
‘‘पत्रकार, मुझे लगता है तुम्हारी अक्ल का भी दिवाला पिट चुका है। ज़रा आंखे बंद करके खूबसूरत से खूबसूरत हिजड़े के शरीर के नाप-जोख की कल्पना तो करो...। मेरा तो तन-बदन कांपने लगता है। हिजड़े के साथ जिस्मानी रिश्ता...। पत्नी का दर्जा!
‘‘गुरु जी, जिन लोगों को अपनी किन्नरों के रहन-सहन और तहजीब का ज़रा भी भान नहीं है, वे ही उन्हें हिकारत की नज़र से देखते हैं। आपने कभी गंभीरता से सोचने की तकलीफ  नहीं की...कि किन्नर भी औरत और मर्द की पैदाइश हैं, इनकी बदकिस्मत यही है कि इनके मां-बाप भी इनके जन्मने पर माथा पीटते रह जाते हैं। उन्हें अपनी ही संतान का परिचय देने में इसलिए शर्म आती है क्योंकि समाज इन्हें आपकी तरह बदनुमा दाग मानता है। किन्नरों को अपनों से जहां नफरत और दुत्कार मिलती है, वहीं किन्नर समाज अपने में समाहित कर लेता है। किन्नरों के समाज के भी अपने नियम-कायदे हैं जिन्हें तोड़ने पर दण्ड का प्रावधान है।’’
‘आप कितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन विधाता के विधान को नहीं बदल सकते। किन्नरों को शादी-ब्याह एवं अन्य खुशी के अवसरों पर नाचने-गाने और दुआएं देने के लिए ऊपर वाले ने धरती पर भेजा है। देखते नहीं, आजकल ये लोग अपराध भी करने लगे हैं। सड़कों, पार्कों, रेलगाड़ियों, बसों चौक-चौराहे, पर जबरन शरीफों को रोक कर पैसों की मांग करते हैं। नहीं देने पर गालियां और बददुआएं देने लगते हैं। कई भरे-पूरे गुदाज बदन वाली किन्नर तो वेश्यावृत्ति में भी लिप्त हैं।’
‘‘दरअसल आप को किसी का अच्छा पक्ष दिखता ही नहीं। आपने जो ठान लिया, बस उसी पर अटल रहते हैं। आपको तो पता भी नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने किन्नर समुदाय को हम सब की तरह माना है। स्त्री-पुरुष की तरह इन्हें भी थर्ड जेंडर की मान्यता मिल चुकी है। वे भी पैतृक संपत्ति के अधिकारी हैं।’’
‘‘पत्रकार जी, बड़ी-बड़ी बातें करना बड़ा आसान है, लेकिन सच ये है कि इनकी सहायता, सुरक्षा और अधिकरों के लिए कितने भी कानून बन जाएं, लेकिन हमारा समाज  इन्हें कभी भी अपने साथ नहीं बिठायेगा। आप लोग थर्ड जेंडर के तप और त्याग की लाख दलीलें देते रहो, लेकिन इन्हें करना वही है जिसके लिए ये पैदा हुए हैं। कभी एक शबनम मौसी विधायक बनी थी तो आप की जमात ने कितनी तालियां पीटी थीं। दो-चार किन्नरों के पढ़-लिख जाने और किसी ओहदे पर पहुंच जाने का यह मतलब तो नहीं कि इन्हें अपने सिर पर बिठा लिया जाए...?’’
‘गुरु जी आप से तो भगवान भी नहीं जीत सकता, लेकिन जिस नये रिश्ते को लेकर आपने वार्तालाप प्रारंभ की थी, उस पर अपनी बात खत्म करते हुए मेरा तो बस यही मानना है कि देश तभी तरक्की करेगा जब ऐसे युवक सामने आएंगे। खुले दिल-दिमाग से थर्ड जेंडर को अपनाएंगे। इससे थर्ड जेंडर को अच्छी जिन्दगी के साथ-साथ अच्छी मौत भी नसीब होगी। आपको भले ही कोई फर्क नहीं पड़ता हो, लेकिन मेरा तो दिल दहल जाता है... बेचारे जीते जी तो अपमानित होते ही हैं, मृत होने पर भी अपने समाज के लोगों के द्वारा जूते-चप्पलों से पीटे जाते हैं...।

Thursday, July 1, 2021

क्या हो रहा है आसपास?

    हम कहां से चले थे, कहां जाना था और कहां आ गये हैं! सम्मान, इज्ज़त, मान-मर्यादा, शालीनता, संवेदनशीलता को तो जैसे अपराधी की तरह चौराहे पर खड़ा कर दिया गया है। जिन्हें थूकना है जीभरकर थूकें। वस्त्रहरण करना है तो बेखौफ होकर करते चले जाएं। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। आज़ाद देश के पूरी तरह से आज़ाद नागरिक जो हैं। दूसरों का मान-सम्मान और अधिव्यक्ति की स्वतंत्रता जाए चूल्हे में...।
    इन दिनों के डरावने नजारे कह रहे हैं कि दोषी तो वही है जो सबसे कमजोर कड़ी है। जितना जुल्म ढाना है, ढा लो, कोई कुछ नहीं बोलेगा। तमाशा देखने के लिए हजारों खड़े हो जाएंगे। बीती रात मैंने एक असहाय लड़की के साथ बलात्कार का वीडियो देखा। लाख कोशिशों के बाद भी भूल नहीं पा रहा हूं। इस वीडियो में पांच शैतान एक लड़की को दबोचे हुए हैं। इनमें एक औरत भी शामिल है। मासूम लड़की को शैतानी जोर-जबर्दस्ती के साथ वस्त्रहीन किया जा रहा है। एक उसके गुप्तांग में अंगूठा तो दूसरा बीयर की बोतल डाल रहा है। पीड़ा से तड़पती लड़की की चीख को दबाने के लिए उसके मुंह में कपड़ा भी ठूंस दिया जाता है। बेबस लड़की को पूरी तरह से अपने बस में करने के बाद उनकी हरकतें और अनियंत्रित होती चली जाती हैं। पगलाये सांड की तरह वे उसे गंदी-गंदी गालियां बकने लगते हैं। इस हैवानियत को देखकर बड़ा गुस्सा आया। नारी को पूजे जाने वाले देश में बेटियों को कैसे-कैसे हवस के भूखे भेड़ियों केे जुल्मों का शिकार होना पड़ रहा है। कुछ ‘प्रबुद्धजनों’ को लड़की के साथ हुई घोर अमानवीयता के इस शाब्दिक चित्रण पर आपत्ति हो सकती है, कहा जा सकता है कि बलात्कारियों ने तो निर्लज्जता की धज्जियां उड़ा दीं, लेकिन लिखने और बताने में भाषा का संयम तो रखा ही जा सकता है। खुल्लम खुला लिखने की क्या जरूरत?  ऐसे चरित्रवानों से यह सवाल कि जब तुम्हारी आंखों के सामने नंगा नाच हो रहा है, तुम सबकुछ देख रहे हो और चुप्पी इसलिए साधे हो कि तुम्हें मज़ा आ रहा है। तुम्हारे लिए तो यह तमाशा है। लेखक इस खून खौला देने वाले सच को लिखने-बताने में क्यों संकोच करे! जिन्हें नहीं मालूम उन्हें भी तो पता चले कि हम कैसे जंगल में रह रहे हैं, जहां जरा सी चूक हमारी बहन-बेटियों को हिंसक पशुओं का निवाला बना सकती हैं।
    क्या ये सच नहीं कि हिंसा, मारपीट और गंदी-गंदी गालियां तो आज हमारे घरों में घुसपैठ कर चुकी हैं। जो अश्लील गालियां कभी छुप-छुपाकर दागी जाती थीं और यह कोशिश भी होती थी कि बच्चों और महिलाओं तक उनकी तैजाबी आंच न पहुंचे, लेकिन आज चीख-चीखकर बकी और बकवायी जा रही हैं। कोविड-19 ने जो खालीपन और जबरन छुट्टियां दीं उस दौरान से वेब सीरीज़ का जो तूफानी दौर शुरू हुआ उसने तो पता नहीं कितनी मर्यादाओं के जिस्म को छलनी करके रख दिया। पहली बार ओटीटी प्लेटफार्म पर देखी एक सीरीज में जब धड़ाधड़ बलात्कार, मारकाट और सड़क छाप गालियां सुनीं तो दिल की धड़कनें बेकाबू होने लगीं। कुछ भी समझ में नहीं आया। इसे वेब सीरीज के निर्माता कौन सी दुनिया से ताल्लुक रखते हैं! क्या इनके घर में मां, बहनें और बच्चे, बुजुर्ग नहीं हैं? इस लेखक ने तय कर लिया कि ऐसी वेब सीरीज परिवार के साथ तो नहीं देखी जाएंगी। अश्लील गालियों के साथ-साथ और भी बहुत कुछ ऐसा है जिससे सिर्फ गुस्सा तथा शर्मिंदगी ही हासिल हुई। भरे पूरे परिवार की हर औरत का सम्मान और गरिमा होती है, लेकिन उसी नारी को बेटे और ससुर के साथ बिस्तर बाजी करते देख नज़रें झुका लेनी पड़ीं। इसके साथ ही इस सच को भी स्वीकारने को विवश होना पड़ा कि हमें उस दौर के द्वार पर पहुंचाया जा चुका है। जिसके अंदर ऐसे नाटकों का मंचन चल रहा है जिन्हें देखने से पहले निहायत ही बेशर्म होना जरूरी है ताकि आप अपने परिवार के साथ नंगा नाच देखकर भी तालियां पीटते रहें। सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के बीच नफरत की आग जलाने वाले महा गालीबाज ‘भाऊ हिंदुस्तानी’ जैसे कई चेहरे छाये हुए हैं। उसी की तरह कुछ बदतमीज नेता भी छाये हुए हैं। उन्हीं में से एक हैं गांधी परिवार की महान नेता,  मेनका गांधी कमजोरों की इज्ज़त से कैसे खेला जाता है, कोई इनसे सीखे। वे पशुप्रेमी तथा पर्यावरण प्रेमी हैं। उन्हें पशुओं के साथ क्रूर बर्ताव करने वालों पर गुस्सा आता है, लेकिन इस स्वयंभू महारानी ने किसी के भी कपड़े उतारने का ठेका ले रखा है। उन्हें याद ही नहीं रहता कि वे लोकसभा की सदस्य हैं। देश के जाने-माने राजनीतिक परिवार की बहू हैं। मेनका को बस याद हैं, वो भद्दी-भद्दी धमकियां और घटिया गालियां जो अपने कुछ चम्मचों को खुश करने के लिए बकती और रचती रहती हैं। इस गांधी परिवार की महारानी ने हाल ही में एक पशु चिकित्सक को ऐसे धमकाया जैसे कोई गली का बदमाश अपना दबदबा बनाये रखने के लिए गुंडागर्दी पर उतर आता है। चिकित्सक से किसी के पालतू कुत्ते के इलाज में कोई चूक हो गई थी। कुत्ता इस पूर्व केंद्रीय मंत्री के किसी करीबी का था। उस करीबी ने जानवरों से बेइंतहा (?) प्रेम करने वाली इस गुस्सैल नारी को कुत्ते के साथ हुई बेइंसाफी की जानकारी क्या पहुंचायी कि यह महान नारी अच्छे-खासे डॉक्टर की ऐसी-तैसी करते हुए उसकी नौकरी ही खा जाने की धमकियां देने लगी। मेनका के आतंकी गालीबाज चेहरे को देखकर इस प्रश्न का जवाब भी मिल गया है कि हिंसा और गाली-गलौच से भरपूर वेब सीरीज बनाने वालों को आखिर इतना हौसला और प्रेरणा कहां से मिलती है...।