Thursday, June 29, 2023

ज़ख्म जो भरे नहीं

    हवाई जहाज अपनी जगह हैं। रेलगाड़ी अपनी जगह। भारत देश के अनेकों लोगों के लिए हवाई यात्रा आज भी किसी सपने जैसी ही है। शायद ही ऐसा कोई देशवासी होगा, जिसने रेल यात्रा न की हो। हर किसी के लिए सहज और सुगम भारतीय रेल कई सक्षम लोगों को भी जहाजों की तुलना में बेहतर प्रतीत होती है। रेल में आरामदायक यात्रा का जो सुख मिलता है, वो हवाई जहाज में कहां नसीब होता है। जहाज से यात्रा करने पर भले ही समय की बचत हो जाती है, लेकिन यात्रा का असली मजा तो दुनिया के सबसे बड़े नेटवर्कों में से एक भारतीय रेल ही देती है। गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों को यात्रा का सुखद अहसास कराने वाली रेलें जब दुर्घटनाग्रस्त हो जाती हैं, तब बहुत डराती हैं। हर किसी का मन घबराने लगता है। 

    अभी हाल ही में ओडिशा के बालेश्वर में हुए भयावह रेल हादसे में लगभग 300 लोगों की मृत्यु तथा अनेकों के घायल होने के पीड़ादायी सच ने रेलयात्रियों को चिंतित कर दिया। ऐसा भी नहीं कि देश में इससे पहले कोई रेल दुर्घटना न हुई हो। लेकिन, जब बुलेट ट्रेन की बात होती है। वंदे भारत ट्रेन सफलता पूर्वक चलायी जा रही है, तब रेल यात्रा का सुरक्षित न होना भयभीत तो करता ही है। रेलवे की लापरवाही, पुरानी पटरियों की जर्जरता और सुरक्षा साधनों का अभाव जिस कमजोरी की ओर इशारा करता है उसकी अनदेखी अपने देश में वर्षों से होती चली आ रही है। भारत में हुई रेल दुर्घटनाओं के इतिहास को देखते हुए कारणों की जांच-परख कर जो सावधानी बरती जानी चाहिए थी, उसके अभाव का प्रतिफल है यह रेल दुर्घटना। जब भी कोई रेल दुर्घटना होती है तब मंत्रियों, संत्रियों को अतीत की गलतियों का ख्याल आता है। इससे पहले शासन और प्रशासन के महारथी बेफिक्र रहते हैं। 

    बीते 15 साल में भारतीय रेल में 10 रेलमंत्री बदल गए, लेकिन रेल हादसों की तस्वीर लगभग जस की तस है। फिर भी अपनी पीठ थपथपाने के लिए सत्ताधीश यह दावे करने से नहीं सकुचाते कि अब तो रेल दुर्घटनाएं नहीं के बराबर होती हैं। विपक्षी ही ज्यादा शोर मचाते हैं। यह भी हैरत की बात है कि हर रेल हादसे में अधिकांश वही यात्री मौत के हवाले होते हैं, जो जनरल बोगी में सफर कर रहे होते हैं। अनेकों यात्रियों की तो पहचान ही नहीं हो पाती। बेचारे लावारिस मौत मर जाते हैं। रेलों के आपस में टकराने से होने वाली जानलेवा दुर्घटनाओं के अलावा अपने देश में इंसानी भूल, हड़बड़ी और भागादौड़ी की वजह से लोगों की जानें जाने का सिलसिला बना रहता है। अचानक प्लेटफार्म बदलने की वजह से मची भगदड़ से लोगों के मरने तथा घायल होने के समाचारों से भी हम सब वाकिफ हैं। अभी हाल ही में नोएडा में एक चलती मालगाड़ी की छत पर दो युवक मालगाड़ी पर स्टंट करते नज़र आए। दोनों कॉलेज के छात्र हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट करने और धड़ाधड़ लाइक पाने के इरादे से दोनों वीडियो (रील) बना रहे थे। बीस-इक्कीस साल के इन युवकों ने अपनी मांसपेशियां दिखाने के लिए शर्ट उतार फेंकी थी और तेजी से दौड़ती गाड़ी की छत पर झूम-झूम कर ऐसे नाच रहे थे, जैसे किसी पब या शादी समारोह में मौजमस्ती कर रहे हों। वक्त से पहले श्मशान घाट पहुंचाने वाले उनके इस खतरनाक तमाशे ने मुझे उस दुर्घटना की याद दिला दी, जो अक्टूबर, 2018 में अमृतसर में इंसानी लापरवाही की वजह से घटी थी। अमृतसर में दशहरा के त्योहार के अवसर पर हजारों लोग पटरियों पर जमा हो गए थे। दरअसल, जिस मैदान में रावण दहन का कार्यक्रम आयोजित था, उसी के निकट स्थित थीं ये रेल की पटरियां, जहां से धड़ाधड़ गाड़ियां आती-जाती रहती थीं। भीड़ को टिकाये रखने के लिए जब नेताओं के भाषण का दौर चल रहा था, तभी इस बीच आंधी की तरह दौड़ती एक ट्रेन पटरियों पर जमा भीड़ को चीरते हुए गुजरी, जिससे लगभग 60 जीते-जागते इंसान लाशों में तब्दील हो गए और अनेकों स्त्री-पुरुष और बच्चे घायल हो गए। 

    देश की सबसे भयावह रेल दुर्घटनाओं में से एक ओडिशा के बालेश्वर में हुई रेल दुर्घटना के तीसरे दिन ओडिशा के जाजपुर रेलवे स्टेशन पर छह मजदूर अपनी ही गलती की वजह से मालगाड़ी की चपेट में आ गए। मूसलाधार बारिश से बचने के लिए यह श्रमिक किसी सुरक्षित स्थान पर जाने की बजाय मालगाड़ी के नीचे जाकर बैठ गए। तभी थोड़ी देर के बाद गाड़ी चल पड़ी और उन्हें निकलने का मौका भी नहीं मिल पाया और अपनी जान से हाथ धो बैठे। ओडिशा में कोरोमंडल एक्सप्रेस हादसे के बाद जो यात्री किसी तरह से बच गए उनके अब भी बड़े बुरे हाल हैं। ट्रेन हादसे के हफ्तों बाद भी परिजनों को अपनों के शव नहीं मिल पाए हैं। उन्हें शव को पाने के लिए दर-दर भटकने को विवश होना पड़ रहा है। बिहार के बेगुसराय जिले के बारी गांव की बसंती देवी अपने पति के शव के लिए कई दिनों से एम्स के पास एक सुनसान इलाके में स्थित गेस्ट हाउस में डेरा डाले है। उसके पति मजदूरी करते थे। उन्हीं की बदौलत भरा-पूरा घर चलता था। नितांत अकेली पड़ चुकी पांच बच्चों की इस मां की समझ में नहीं आ रहा कि वह अब कैसे गुजारा करेगी। ऐसी ही स्थिति पूर्णिया के नारायण की है, जिसे अपने उस पोते के शव का इंतजार है, जो नौकरी की तलाश में कोरोमंडल एक्सप्रेस से चेन्नई जा रहा था। अपनों को हमेशा-हमेशा के लिए खो चुके ऐसे और भी कई बदनसीब हैं, जिनकी जिन्दगी रो-रो कर कटने वाली है। उनके जख्मों का भर पाना कतई आसान नहीं। यह भी अत्यंत पीड़ादायी हकीकत है कि अभी तक कई शवों को पहचाना नहीं जा सका है। वे कौन थे, कहां से आये थे, शायद ही इसका कभी पता चल सके। अस्पताल में भर्ती कुछ घायलों को इतना गहरा सदमा लगा है, जिससे वे जब- तब चीखने लगते हैं। कोई हंसने तो कोई फूट-फूट कर रोने लगता है। डॉक्टरों का कहना है कि इन्हें स्वाभाविक स्थिति में लौटाने के लिए भरसक प्रयास हो रहे हैं फिर भी समय तो लगेगा ही...।

Thursday, June 22, 2023

रोल मॉडल

    आज दुनिया के कई लोग जब हंसना भूल गये हैं, तब कुछ कलाकार दूसरों को खूब हंसा और गुदगुदा रहे हैं। उन्हीं में से एक बड़ा नाम है, कपिल शर्मा। कहते हैं कि दुनिया का सबसे मुश्किल काम है लोगों को हंसाना। यह काम कपिल ने बड़ी महारत के साथ कर दिखाया है और कॉमेडी किंग का खिताब पाया है। लेखकों और विभिन्न कलाकारों से हमेशा यह उम्मीद की जाती है कि उनका चरित्र और व्यवहार उनके लेखन और प्रस्तुतिकरण के अनुकूल हो। जो प्रवचनकार, कवि, कथाकार, अभिनेता दोहरे चरित्रवाले होते हैं, उन्हें लोगों की निगाह से गिरने में देरी नहीं लगती। दरअसल, यह तो अपने पेशे के प्रति बेवफाई है। अच्छा और निर्भीक आचरण और रहन-सहन हर अच्छे कलाकार की पहचान भी है और अटूट पूंजी भी। दूसरों को मुसीबतों का सामना करने की सीख और खुद पर ़जरा-सी विपत्ति आते ही भाग खड़े होना कायरों, कपटियों और धोखेबाजों की फितरत है। कपिल के कॉमेडी मंच पर हास्य की फुलझड़ियां छोड़ लोगों को जीभरकर जीना सिखाने वाले कॉमेडियन तीर्थानंद ने भी दोबारा खुदकुशी करने की कायराना हरकत कर मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं। उसकी किस्मत अच्छी थी, कुशल डॉक्टरों की मेहनत से वह बच गया। कॉमेडी सर्कस में दर्शकों को हंसाने की कलाकारी दिखा चुके तीर्थानंद ने फेसबुक पर लाइव जाकर अपनी खुदकुशी का तमाशा दिखाया। लाइव वीडियो में कॉमेडियन ने किसी महिला के साथ लिव-इन में रहने के बाद मिले धोखे और छल का पहले तो जीभर कर रोना रोया। फिर इसके तुरंत बाद एक गिलास में ़जहर डालकर उसे गटक लिया। फेसबुक पर दिखायी गई इस ‘सर्कस’ को जब उनके कुछ दोस्तों ने देखा तो वे भागे-भागे उसके घर जा पहुंचे। तीर्थानंद फर्श पर बेहोश पड़ा था। दोस्तों ने तुरंत अस्पताल पहुंचाकर अपना फर्ज निभाया। तीर्थानंद ने पहले भी दिसंबर, 2021 में फेसबुक लाइव के दौरान इसी तरह का कायराना धमाका कर अपने चाहने वालों की धड़कनें बढ़ायी थीं और सवालों के घने जंगल में भटकाने के लिए छोड़ दिया था। दर्शकों के चेहरे पर चमक लाने वाला कॉमेडियन खुद अंदर से कितना कमजोर और खोखला है, यह उसने दूसरी बार तमाशा कर बता दिया है। यह शख्स किसी भी दृष्टि से ‘हीरो’ कहलाने का हकदार नहीं। इसकी करनी और कथनी के अंतर से ही इसके घटिया कलाकार होने का पता चलता है। 

    वास्तविक नायक के तमगे के हकदार तो ये चेहरे हैं, जो जिद और जुनून की जीती-जागती मिसाल हैं। इन्हें बार-बार सलाम करने की इच्छा होती है। गुजरात के शहर अहमदाबाद में अपने 16 साल के सफल कार्यकाल के दौरान एक वकील ने लगभग 140 दंपत्तियों का तलाक रुकवाने का इतिहास रच दिया। इन वकील महोदय को किसी टूटते घर-परिवार को उजाड़ने की बजाय बसाने में अपार खुशी मिलती है। इसी सफलता को वकील साहब अपनी असली फीस मानते हैं। जो मिला ठीक, नहीं मिला तो भी ठीक। कभी भी किसी को फीस के लिए परेशान नहीं करते। कहावत है कि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या? लेकिन, वकील साहब ऐसी किसी भी चिन्ता में नहीं पड़ते। तय है कि गुजरात हाईकोर्ट में वर्षों से प्रैक्टिस कर रहे वकील साहब की उतनी आमदनी नहीं, जितनी अन्य वकीलों की। उनकी इस परोपकारी आदत से उनकी पत्नी शुरू से ही बहुत परेशान रहती थीं। वह उन्हें बार-बार कहतीं कि ज़रा दूसरे वकीलों को भी देखो जो आज करोड़ों में खेल रहे हैं। उनके पास कार, कोठी, बंगले तथा दुनियाभर की सुख-सुविधाएं हैं। उनका परिवार हर तरह के मौज-मजे कर रहा है। दूसरी तरफ तुम हो, जिसने वकालत जैसे कमाई के धंधे को जनसेवा का माध्यम मान लिया है। हमारे भी बाल-बच्चे हैं। उनके कई तरह के खर्चे हैं। लेकिन, संतोषी प्रवृति वाले वकील साहब सुनकर भी अनसुना कर देते। घर में कलह-क्लेश बढ़ता चला गया। पत्नी उनका साथ छोड़ अलग रहने लगी। अदालत में भी तलाक का केस चलने लगा। दूसरों के घर को उजड़ने से बचाने वाला वकील अपनी पत्नी को समझाने में नाकामयाब रहा। अंतत: अब तलाक भी हो गया है। दोनों की एक बेटी है, जो लॉ की पढ़ाई कर रही है। बेटी अपने पिता को अपना आदर्श मानती है। तलाक होने के बाद वह अपने रोल मॉडल के साथ खुशी-खुशी रह रही है। वह भी अपने ईमानदार वकील पिता की राह पर चलते हुए टूटते घर-परिवारों को किसी भी तरह से बचाने की प्रबल पक्षधर और आकांक्षी है...। 

    राजस्थान के गौरव योगी को आंख की बीमारी है। उन्हें माइनस 12 नंबर का चश्मा लगा है। नाममात्र ही देख पाते हैं। यही नहीं गौरव का बायां हाथ भी पूरी तरह से काम नहीं करता। आंख और हाथ से लाचार होने के बावजूद उसने राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की सीनियर सेकेंडरी डीफ, डंब एंड सीडब्ल्यूएसएन परीक्षा-2023 में सभी विषयों में 100 में से 100 अंक हासिल कर असली हीरो होने का पुरजोर डंका बजाया है। अपनी लगन और मेहनत से दिव्यांगता को मात देने वाले गौरव ने इस सच को आत्मसात कर लिया है कि शारीरिक कमियां और विविध परेशानियां उस रूई से भरे झोले की तरह होती हैं, जिसे दूर से बस देखते रहोगे तो बहुत भारी दिखेगा और यदि उठा लोगे तो एकदम हल्का-फुल्का लगेगा। दूरदर्शी और विचारवान गौरव को भविष्य में आईएएस अधिकारी बनना है। नागपुर की 16 वर्षीय साची बोखर ऐसी दिव्यांग बेटी हैं, जिनके हाथ बिलकुल काम नहीं करते। फिर भी साची ने अपने पैरों से लिखकर दसवीं कक्षा की परीक्षा में 80 प्रतिशत अंक प्राप्त कर इन पंक्तियों को चरितार्थ कर दिखाया हैं,

‘‘मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं,

जिनके सपनों में जान होती है, 

सिर्फ पंखों से कुछ नहीं होता,

हौसलों से उड़ान होती है।’’

    सांची को पढ़ाई के साथ-साथ ड्राईंग एवं डांस का शौक है। उसकी भविष्य में सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनने की चाहत है।

Thursday, June 15, 2023

चुप रहने वालों को चिल्लाना भी आता है...

     देश के नागरिकों के आपसी व्यवहार से ही देश की अच्छी और बुरी छवि बनती है। एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, आदर-सम्मान और समानता की सोच देश ही नहीं वहां के रहनेवालों का भी सम्मान बढ़ाती है। इससे देश की एकता का भी पता चलता है। हम देशवासी जब अमृत महोत्सव मना रहे हैं, भारत की तरक्की के गीत गा रहे हैं, तब धड़ाधड़ सुर्खियां पातीं दलितों पर अत्याचारों की खबरें उत्सव, महोत्सव की गरिमा को कमतर करते हुए यह भी कहे जा रही हैं कि, जब तक हर भारतवासी को अपने अंदाज से जीने, रहने, खाने, पीने और उत्सव मनाने की आजादी नहीं, तब तक कोई भी महोत्सव अधूरा है। बेहतरीन आकर्षक परिधान धारण करने, खाने-पीने, रहने, पाने-भोगने तथा देश में कहीं भी आने-जाने की सभी को आजादी है, लेकिन कुछ लोगों को सिर्फ अपनी खुशी सुहाती है। दूसरों को हंसते-मुस्कराते देखना भी उन्हें हर्गिज गवारा नहीं। वे इस सच को पूरी तरह से भूल गये हैं कि मनुष्य जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से ऊंचा या नीचा होता है। 

    गुजरात के एक गांव में तथाकथित ‘उच्च जाति’ के कुछ लोगों ने एक दलित युवक को जब धूप के चश्मे और नये परिधान में देखा तो वे उसपर यह कहते हुए भूखे शेर की तरह टूट पड़े कि, तू आजकल बहुत ऊंची उड़ान भर रहा है। तेरे पर काटने ही पड़ेंगे। उनके हाथ में लाठियां थीं और जुबान पर गंदी-गंदी गालियां। अपने बेटे को पिटता देख मां बचाने के लिए दौड़ी-दौड़ी आई तो उसे भी निर्दयता से मर्यादाहीन होकर मारा गया तथा जिस्म से कपड़े तार-तार कर दिए गए।

    उत्तर प्रदेश के शहर अमेठी में दलित समाज के तीन नाबालिग बच्चों को बिजली के खम्भे से बांधकर कू्ररता के साथ पीटा गया। बच्चों को बचाने-छुड़वाने की बजाय वहां मौजूद लोग तमाशबीन बन म़जा लेते रहे। किसी को भी बच्चों पर किंचित रहम नहीं आया। बिजली के खंभे का करंट बच्चों की जान भी ले सकता था। इन बच्चों पर एसीसी सीमेंट फैक्टरी से स्क्रैप चोरी करने का आरोप था। 13 से 15 वर्ष के इन बच्चों को पुलिस के हवाले करने की बजाय उनपर ऐसी तालीबानी क्रूरता और गुंडागर्दी इसलिए बरपी, क्यूंकि वे गरीब, दलित और शोषित हैं? बच्चों के मां-बाप ने अपने बच्चों की गलती स्वीकार कर माफी भी मांग ली, लेकिन ठेकेदार के लठैतों का मन नहीं पसीजा। महाराष्ट्र के एक गांव में एक 24 वर्षीय दलित युवक को पीट-पीटकर मार डाला गया। हत्यारे गांव में उसके द्वारा बढ़-चढ़करअंबेडकर जयंती का आयोजन करने से गुस्साये थे। इसी तरह से मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के छतरपुर इलाके में शादी के अवसर पर घोड़े पर सवार एक दलित युवक पर पथराव करने की खबर ने हमारे यहां के समाज का बदरंग चेहरा दिखा दिया। यूं तो देशभर में दलितों पर अमानवीय कहर ढाने की खबरें आती रहती हैं, लेकिन उत्तरप्रदेश, राजस्थान और बिहार तो इस मामले में खासे बदनाम हैं, जहां कुछ शैतान जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हुए सतत अशांति फैलाने में लगे रहते हैं। इन मदमस्त घमंडियों को दलितों का शानो-शौकत के साथ रहना, चलना, गाना, तरक्की कर सीना तानकर चलना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कई पढ़े-लिखे विद्वान किस्म के लोग भी दलितों को अपनी जूती के नीचे रखने की नीच हरकतें करते देखे जा सकते हैं। उत्तरप्रदेश के महोबा गांव में एक दलित छात्रा ने विद्यालय में रखे घड़े का पानी क्या पी लिया कि उसे अपमानित कर स्कूल से भगा दिया गया। रोती-बिलखती छात्रा ने घर जाकर जब पिता को शिक्षक की बदसलूकी की जानकारी दी तो पिता विद्यालय पहुंचे तो शिक्षक ने उनसे भी अभद्रता करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्हें जातिसूचक गालियां देकर वहां से भगा दिया गया। स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मन-मस्तिष्क में इन ऊंचे लोगों के द्वारा कैसे-कैसे विष बोए जा रहे हैं उसकी जीती जागती हकीकत है यह खबर, जिसमें बताया गया है उच्च जाति के बच्चों ने स्कूल में खाना बनाने वाली दलित औरत के हाथ का बना खाना खाने से स्पष्ट इनकार कर दिया। यह खबर भी बहुतों ने जरूर पढ़ी होगी कि तामिलनाडु में एक ग्राम परिषद की बैठक के दौरान दलित महिला पंचायत अध्यक्ष और ग्राम परिषद की वार्ड सदस्य को जमीन पर बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया, जबकि अन्य सदस्यों के लिए आन-बान और शान के साथ कुर्सियां उपलब्ध थीं।

    आजादी के इतने वर्षों के बाद भी अपने देश में कई गांव, कस्बे ऐसे हैं, जहां पर दलितों को सार्वजनिक कुंओं पर पानी नहीं भरने दिया जाता। देश के कई मंदिरों में उनके लिए जाना सख्त मना है। उन्हें सम्मानजनक नौकरी देने में भी आना-कानी की जाती है। भारतवर्ष के प्रधानमंत्री ने बड़े आहत मन से कहा है कि हमारे दलित भाई-बहनों पर हो रहे अत्याचार के मामलों के चलते उनका सिर शर्म से झुक जाता है। दरअसल, कुछ ऊंची जाति के लोग बदलते वक्त को स्वीकारने को तैयार नहीं। अब उन्हें कौन बताये और समझाये कि जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है, जिन्हें सहना आता है, उन्हें सीना तानकर कहना और विरोध करना भी आता है। इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद दलितों पर हो रहे हमलों को लेकर कहते हैं कि दलितों में आ रही जागरुकता और मजबूती कुछ लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रही। पहले दलितों पर हिंसक हमले नहीं होते थे। छोटी-मोटी मारपीट की घटनाएं होती रहती थीं, लेकिन पिछले 10-15 सालों से हिंसक वारदातें बेतहाशा बढ़ी हैं। जैसे-जैसे दलितों की तरक्की हो रही है, वैसे-वैसे उनपर हमले बढ़ रहे हैं। यह कानूनी समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक समस्या है। समाज के लोगों को खुले मन के साथ इस पर चिंतन-मनन करना चाहिए।

Thursday, June 8, 2023

बदलाव की मशाल

    एक खबर पढ़ी। दुनिया इन दिनों अकेलेपन से लड़ रही है। सच्चे दोस्त नदारद हैं। इंसान का इस तरह से खुद को अकेला महसूस करना बड़ा खतरनाक है। किसी अमेरिकन संस्था का सर्वे है कि अकेलापन एक दिन में 15 सिगरेट पीने के बराबर नुकसान करता है। यानी अकेलेपन से कैंसर एवं अन्य गंभीर रोगों का खतरा! कोरोना महामारी ने इंसानों को एकांतजीवी बनाने की नींव रखी। अपनों से भी पहले-सा लगाव नहीं रहा। बस एक ही भय कि कौन जाने कब यह दुनिया खत्म हो जाए। अपने हिस्से का जीवन जी लें। भरपूर मौजमस्ती कर ली जाए। सबकुछ समेट लिया जाए। दहशत, मतलबपरस्ती और भागम-भाग के ऩजारों के बीच कुछ खबरें ऐसी भी, जो बता रही हैं कि सुखद बदलाव के लिए कुछ लोग दूसरों की खुशी के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तत्पर हैं। यह लोग अतीत में नहीं, वर्तमान में जीने के पक्षधर हैं। इनका मानना है कि वर्तमान ही भविष्य बदल सकता है। इसलिए वे रूढ़िवादी सोच, कुप्रथाओं और बौद्धिक पिछड़ेपन से समाज को मुक्ति दिलाने की लड़ाई में अकेले ही बेखौफ अग्रसर हैं। 

    इस आधुनिक दौर में भी कुछ कुरीतियों और विष-सी पुरातन परंपराओं ने भारतीय स्त्रियों का पीछा नहीं छोड़ा है। धर्म, इज्जत, मान-मर्यादा और संस्कारों के नाम पर जुल्म ढाने की प्रवृति आज भी कहर ढा रही है। पति की मौत के पश्चात गमगीन महिला की मांग का सिंदूर और उसकी चूड़ियों को तोड़ने के दृष्य कभी न कभी आपने भी जरूर देखे होंगे। विधवा होते ही अच्छी-खासी नारियों को सफेद लिबास पहनने को विवश करने का चलन कहीं कम तो कहीं ज्यादा आज भी बना हुआ है। उनकी आजादी पर अंकुश लगाने वाले कई परिवार आज भी संस्कारों के गीत गाते नहीं थकते। उनका मानना है कि पति को खोने के बाद पत्नी के लिए कुछ भी नहीं बचता। हंसी-खुशी, बोलना-बतियाना खत्म हो जाता है। परिवार और समाज से दूर सफेद परिधान में गम की काली चादर ओड़े रहना हर विधवा का मुकद्दर है। इसमें कहीं न कहीं ऊपर वाले की मर्जी भी है। इस निर्दयी परिपाटी को देखकर भी अक्सर यह सोच कर अनदेखा कर दिया जाता है कि यह तो सदियों से चली आ रही परंपरा है, जो सुहागन के विधवा होने की पहचान है। महाराष्ट्र के पुणे जिले की हवेली तहसील के मांजरी खुर्द की ग्राम सभा में एक ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है कि उनके गांव में अब पति की मौत के बाद महिला का न तो सिंदूर पोंछा जाएगा और न ही मंगलसूत्र तथा चूड़ियों को तोड़ा जाएगा। दरअसल हुआ यूं कि गांव के एक परिवार के युवक की आकस्मिक मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के दौरान उसकी पत्नी के शरीर से गहने निकालने के दस्तूर को निभाने की तैयारी चल रही थी, तभी सामाजिक कार्यकर्ता अशोक आव्हाले ने उनके परिवार के सदस्यों से इस प्रथा को बंद करने का आग्रह करते हुए कहा कि अपने जीवनसाथी की मृत्यु से दुखी और निराश महिला का सिंदूर पोंछना, मंगलसूत्र और चूड़ियां तोड़ना, पैर की बिछिया उतारना एक तरह से उसको असहाय-अलग-थलग और नीचा दिखाना-दर्शाना है। वर्षों से चली आ रही इस अमानवीय कुप्रथा को खत्म करने के लिए हम सभी को आज और अभी पहल करनी होगी। उनके इस सुझाव को सभी ग्रामीणों ने तुरंत स्वीकृति दे दी। 

    जब हर तरफ तरक्की और बदलाव की लहर चल रही है तब अपने देश में तंत्र-मंत्र, अंधविश्वास और भूतप्रेत के शक की बीमारी का सीना ताने रहना चिंतित करने के साथ-साथ शर्मिन्दगी के दंश भी चुभोता है। सामंती सोच और अंधविश्वास की जंजीरों में जकड़े लोगों को दबे-कुचले पुरुषों तथा गरीब, असहाय महिलाओं को प्रताड़ित करने के बहानों की सतत तलाश रहती है। उनके खेतों की फसलें सूख जाएं, उजड़ जाएं, कुंओं का पानी नदारद हो जाए या फिर किसी को कोई जानलेवा बीमारी जकड़ ले तो दबंगों का ध्यान गरीबी, बदहाली से लड़ती अकेली औरत पर सबसे पहले जाता है। अभी हाल ही में झारखंड के एक गांव में कुछ लोगों ने डायन होने के शक में एक महिला को घर से जबरन उठाया और चौराहे पर लाकर मारपीट करने के बाद गांवभर में निर्वस्त्र घुमाया। उनकी मंशा तो उसे मौत के घाट उतार देने की थी, लेकिन कुछ समझदार लोगों के विरोध के चलते उनकी नहीं चल पाई। 

    वर्षों पहले ऐसा ही कुछ हुआ था बीरबांस गांव की छुटनी महतो के साथ, लेकिन उसने भाग खड़े होने की बजाय तंत्र-मंत्र और अंधश्रद्धा की जंजीरों में जकड़े अंधे-बहरे जुल्मियों का डट कर सामना करने की ठानी थी। छुटनी 12 साल की थी तभी घरवालों ने उसका ब्याह कर दिया था। वो वर्ष 1995 का कोई दिन था, जब उसके पड़ोसी की बेटी बीमार हो गई थी। कुछ लोगों ने तुरंत छुटनी पर शक की उंगलियां ताननी शुरू कर दीं कि इसी ने बच्ची पर कोई टोना-टोटका किया है, जिससे उसने एकाएक बिस्तर पकड़ लिया है। पंचायत ने भी छुटनी को डायन घोषित करने में देरी नहीं लगायी थी। उस पर पांच सौ रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था। छुटनी ने जुर्माना भर दिया, लेकिन ग्रामीणों का उसके प्रति संदेह और रोष यथावत बना रहा। इसी दौरान एक सुबह छुटनी के मन में विचार आया कि उसने जब कुछ गलत किया ही नहीं तो सज़ा क्यों भुगती। किस गुनाह के लिए उसने तुरंत जुर्माना भर दिया? उसी दिन छुटनी ने कसम खाई कि अब वह शांत नहीं बैठेगी। बेकसूर औरतों को डायन घोषित कर प्रताड़ित करने वाले लोगों के खिलाफ खुलकर लड़ाई लड़ेगी। भले ही इसके लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। तब अपने ही समाज के अंधविश्वासी पुरुषों तथा स्त्रियों के खिलाफ लड़ाई लड़ना कोई आसान काम नहीं था। छुटनी को जैसे ही किसी महिला को डायन करार देने की खबर मिलती तो वह उसके पक्ष में डटकर खड़ी हो जाती और उस महिला को सहारा देकर उसका हौसला बढ़ाती। छुटनी की इस क्रांतिकारी पहल का जहां शुरू-शुरू में कई ग्रामीणों ने विरोध किया, लेकिन आज सभी उसके साथ खड़े नजर आते हैं। अकेली छुटनी अब तक 200 से ज्यादा महिलाओं को दबंगों की प्रताड़ना से बचाकर उनका पुनर्वास कर चुकी है। दुखियारी महिलाओं को जागृत कर उनकी हिम्मत बढ़ाने का कीर्तिमान रच रही छुटनी को 2021 में भारत सरकार के द्वारा ‘पद्मश्री’ सम्मान से नवाजा जा चुका है। आज छुटनी जहां से भी गुजरती है, वहां पर उसे सम्मानित करने वालों की कतार लग जाती है। दूर और आसपास के गांवों के आम और खास लोग भी उसे अपने यहां निमंत्रित कर फूले नहीं समाते। वे भी चाहते हैं कि उनके यहां भी कोई हिम्मती छुटनी सामने आए जो कुप्रथाओं के खिलाफ जंग लड़ने की पहल की मशाल जलाए।

Thursday, June 1, 2023

आइए इनसे मिलें

    कठिन परिश्रम और लक्ष्य के प्रति अटूट समर्पण हो तो हर मुश्किल और अड़चन को मात देकर मनचाही सफलता और मंजिल पाई जा सकती है। इसे सिद्ध कर दिखाया है उन जूनूनी छात्रों ने, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों से डटकर जंग लड़ी और उस बुलंदी को छुआ जो दूसरों के लिए अकल्पनीय थी। उनकी आकाशी सफलता में उनके माता-पिता के योगदान के बारे में जानकर बस यही कहने को मन होता है कि ऐसे जन्मदाता अपनी संतान के लिए भगवान से कम नहीं। यह भी सच है कि प्रत्येक माता-पिता अपने बेटे-बेटी की लगभग हर चाहत को पूरा करने की कोशिश करते हैं। उन्हें उच्च शिक्षित करने के लिए रात-दिन खून पसीना बहाते हैं। कई संतानें सभी सुख-सुविधाओं में पलने-बढ़ने के बाद भी अपने माता-पिता के सपनों को पूरा नहीं कर पातीं। अत्याधिक धन उन्हें बिगाड़ देता है, लेकिन कुछ गरीबों के बच्चे वो कर दिखाते हैं, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं होती। शारीरिक कमजोरी को भी मात देने का उनका जिद्दी जज़्बा हर किसी को हतप्रभ कर देता है।

    सूरज तिवारी ने तो वाकई सभी को स्तब्ध कर दिया है। किसी को ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि वह यूपीएससी यानी यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा इतने अच्छे नंबरों से पास कर दिखायेगा। सूरज के प्रति लोगों की सोच और धारणा का कारण था, उसका अत्याधिक अपंग होना। 26 वर्षीय सूरज को 2017 में गाजियाबाद के दादरी में एक रेल दुर्घटना में अपने दोनों पैरों के साथ-साथ अपने दाहिने हाथ और बाएं हाथ की दो अंगुलियों को सदा-सदा के लिए खोना पड़ा था। कुछ माह पूर्व ही सूरज के बड़े भाई की मौत हुई थी। इन दोनों सदमों ने माता-पिता को अथाह दु:ख के समंदर में डुबो दिया था। दरअसल पूरे परिवार के लिए यह अत्याधिक चिंता, पीड़ा भरा वो काल था, जिससे बाहर निकलना आसान नहीं था। सूरज के पिता अदने से दर्जी हैं। तय है कि कमाई सीमित है। जैसे-तैसे दाल रोटी का ही इंतजाम हो पाता है। सूरज के दो अन्य भाई-बहन भी हैं। इस दुर्घटना के बाद सूरज के दिमाग ने तो काम करना ही बंद कर दिया था। हमेशा-हमेशा के लिए व्हील चेयर पर होने को मजबूर सूरज ने परिस्थितियों के समक्ष घुटने टेकने की साची,  लेकिन तब मां-बाप के साथ-साथ और भी कोई था जो अंदर से उसेे प्रेरित कर रहा था... ‘‘तुम अगर ठान लो तो कुछ भी असंभव नहीं। कब तक मां-बाप पर बोझ बने रहोगे? ऐसा जीना भी कोई जीना है?’’ सूरज ने बड़े दमखम के साथ खुद को डिप्रेशन के दौर से बाहर निकाला। टूटे-फूटे लस्त-पस्त शरीर की चिन्ता करने की बजाय दिमाग से काम लेते हुए यूपीएससी की परीक्षा की सघन तैयारियां प्रारंभ कर दीं। अपने पहले प्रयास में उसे असफलता मिली, लेकिन फिर भी हौसले का दामन नहीं छोड़ा। पिता भी दिन-रात अधिक से अधिक मेहनत कर धन कमाने और उसका मनोबल बढ़ाने में लगे रहते। अपने पिता की आशा पर खरा उतरने के लिए सूरज ने अध्ययन में दिन-रात एक कर दिया और अपने दूसरे प्रयास में यूपीएससी परीक्षा में शानदार सफलता हासिल कर दिखा दिया है कि सच्ची लगन और मेहनत इंसान की हर इच्छा को पूरा करती है। शारीरिक कमी और कमजोरी कोई मायने नहीं रखती। 

    सिविल सेवा परीक्षा का इम्तिहान पास कर आईएएस अधिकारी बनने का सपना तो न जाने कितने लड़के-लड़कियां देखते हैं, लेकिन सभी की मंशा पूरी नहीं होती। दरअसल मात्र सपने देखने से कुछ नहीं होता। उन्हें हकीकत में बदलने के लिए पूरी ताकत लगानी पड़ती है। हार कर बैठने की भूल से हर पल बचना होता है। सिविल सर्विस परीक्षा 2021 में 46वीं रैंक प्राप्त करने वाली राम्या को अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए असफलताओं का भी मुंह देखना पड़ा। राम्या का यूपीएससी का सफर भी मुश्किलों भरा रहा, लेकिन जिद थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन हार नहीं माननी है। तंज कसने वालों को सफल होकर दिखाना है। राम्या का छठा प्रयास अंतत: रंग लाया। राम्या की मां भी बेटी के साथ डटकर साथ खड़ी रहीं। उन्होंने अपनी पुत्री का मनोबल कभी भी कमतर नहीं होने दिया। 

    नागपुर शहर के पवित्र स्थल दीक्षाभूमि स्थित डॉ. आंबेडकर कॉलेज की मेघावी छात्रा भूमिका बोदले के पिता ऑटो चालक हैं। उन्होंने अपनी बेटी को पढ़ाने-लिखाने का जो संकल्प लिया था, उस पर डटे रहे। बेटी ने भी कला संकाय में 80 प्रतिशत से अधिक नंबर लेकर उनके भरोसे को और बलवति बनाने का कीर्तिमान रच कर दिखा दिया है कि जिनकी कुछ बनने की चाह होती है उनके लिए कोई भी व्यवधान अवरोध नहीं बन सकता। भूमिका की मां दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा लगाती हैं। भूमिका को कालेज की पढ़ाई के साथ-साथ घर की जिम्मेदारी भी संभालनी होती थी, लेकिन फिर भी उसने पढ़ने-लिखने में कभी कोई कमी नहीं की।

    नागपुर में स्थित एलएडी की छात्रा सलोनी दृष्टिहीन है। उसने बारहवीं कक्षा में कला शाखा में 80 प्रतिशत अंक प्राप्त कर दिखा दिया कि जहां चाह होती है वहीं राह होती है। अंदर का उजाला हर अंधेरे का खात्मा कर देता है। दृष्टिहीनता कोई मायने नहीं रखती। सलोनी के पिता गांव में एक छोटी सी दुकान चलाते हैं। सलोनी नागपुर में अपने किसी रिश्तेदार के यहां रहकर अध्ययन करती है। उसने दिन-रात आडियो रिकॉर्डिंग सुनकर बारहवीं की पढ़ाई कर सफलता का परचम लहराया। सलोनी प्रशासकीय सेवा में जाकर देश की सेवा करने की अभिलाषी है। 

    गिरीश डोंगरे ने 69 प्रतिशत अंक प्राप्त किए। आप कहेंगे यह कौन सी बड़ी बात है। आजकल तो विद्यार्थी नब्बे-पंचानवें प्रतिशत नंबर तो चुटकियां बजाते ही पा जाते हैं। गिरीश यदि एकदम स्वस्थ होता तो उसका यहां जिक्र ही नहीं किया जाता। दरअसल, गिरीश को बचपन से सिकलसेल जैसी गंभीर बीमारी है। इस बीमारी के शिकार को जानलेवा पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इसके अधिकांश मरीज बिस्तर ही पकड़ लेते हैं। इस कष्टदायक बीमारी के कारण गिरीश के लिए परीक्षा केंद्र में बैठना ही अत्यंत मुश्किल था, लेकिन उसने जबरदस्त पीड़ा को झेलते हुए भी परीक्षा दी और इतने नंबर हासिल कर दिखाए, जो अधिकांश लोगों के लिए नगण्य हैं, लेकिन वह और उसके परिजन इतने में ही खुश और संतुष्ट हैं। गिरीश की ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद एक प्रभावी चित्रकार बनने की तमन्ना है। इंदौर के मृदुल पाल ने हाईस्कूल की परीक्षा में प्रदेश में शीर्ष स्थान हासिल किया हैै। मृदुल के परिवार की आर्थिक स्थिति कतई अच्छी नहीं। मां सिलाई का काम तो पिता स्विमिंग पूल के इंचार्ज हैं। उसका बड़ा भाई भी पढ़ाई कर रहा है। यानी खर्चों की तुलना में आमदनी नगण्य है। मृदुल को बचपन में ही समझ में आ गया था कि उसके जीवन का आगामी सफर संकटों और कंटकों भरा रहने वाला है। उसने इस स्थिति को खुशी-खुशी स्वीकारा। उसके साथ के छात्रों ने कोचिंग में लाखों रुपये खर्च किए, लेकिन मृदुल ने अपने दम पर यह सफलता हासिल की है। स्कूल में पढ़ाई करने के पश्चात घर में भी वह किताबों में डूबा रहता था। पढ़ाई के सिवाय उसका और कोई खास दोस्त नहीं। अपने काम से काम रखने वाला मृदुल खूब पढ़-लिखकर बड़ा आदमी तथा अपने माता-पिता का सहारा बनना चाहता है।