Thursday, December 31, 2020

और ख्वाब छिन गये!

    पिछले कई दिनों से आलम यह था कि चित्रा हेमनाथ के सपनों में आने लगी थी। दिन-रात वह उसके रूप के जादू में खोया रहता। हेमनाथ चित्रा का दिवाना तो उस दिन ही हो गया था, जब उसने उसे पहली बार टीवी शो में देखा था। एकदम हुस्नपरी, जबरदस्त कातिल मुस्कान। हेमनाथ बडा कारोबारी था। उसके पास कार, बंगला सबकुछ था। कमी थी तो बस मनपसंद खूबसूरत जीवनसाथी की। चित्रा से रूबरू मिलने के बाद उसने निश्चय कर लिया कि वह उसे अपना बना कर ही रहेगा। चित्रा को भी हेमनाथ भा गया था। चित्रा के दोस्तों ने भी उसकी तारीफें ही की थीं। उसे भी ऐसे ही किसी साथी की तलाश थी, जो सिर्फ उसे दिल से चाहे। पर्दे पर दिखने वाली चित्रा कामराज से नहीं, उससे दिल खोलकर सच्चा प्यार करे। तमिल फिल्मों की इस मशहूर अभिनेत्री को अच्छी तरह से पता था उसके लाखों चाहने वाले हैं, जो उसकी एक झलक पाने और सबकुछ लुटाने को बेकरार रहते हैं। उसकी किसी भी धारावाहिक में मौजूदगी टीआरपी बढाने के लिए पर्याप्त है।
    वह भी डूबकर अभिनय करती थी। फिल्म और सीरियल के काल्पनिक किरदार को साकार करने में कोई कसर नहीं छोडती थी। फिल्म हो या टीवी सीरियल, दर्शकों को तो मनोरंजन चाहिए। मनोरंजन भी एक-सा नहीं। किस्म-किस्म का। अभिनेत्री चित्रा हर कलाकारी में पारंगत हो चुकी थी। बिंदास, चुलबुली और मिलनसार लोकप्रिय अभिनेत्री से शादी करने की इच्छा रखने वालों की कतार लगी थी, लेकिन मनोकामना पूरी हुई हमेशा बन-ठन कर रहने वाले चेन्नई के युवा व्यापारी हेमनाथ की। बाकी सभी मन मसोस कर रह गये। २०२० के अगस्त महीने में दोनों की सगाई हो गई। २०२१ के जनवरी महीने में शादी करने के पक्के मंसूबे के साथ दोनों एक साथ एक ही छत के नीचे रहने लगे। दोनों के कुछ हफ्ते तो बडे मज़े से गुजरे, लेकिन उसके बाद हेमनाथ का असली चेहरा चित्रा को भयभीत करने लगा। वह उसे छोटी-छोटी बात पर डांटने और कटु बोल सुनाने लगा। दरअसल, हेमनाथ चाहता था कि चित्रा उसकी मर्जी के अनुसार चले। विभिन्न टीवी सीरियल्स और फिल्मों में चित्रा के अंतरंग दृश्य उसका खून खौलाने लगे। उसे तो उसका परफ्यूम लगाना और मेकअप करना भी शूल की तरह चुभने लगा। कल तक जिसको देखे बिना उसे चैन नहीं मिलता था, अब वह उसे चाकू-छुरी-सी लगने लगी, जिसका काम ही दूसरों को आमंत्रण देकर घायल करना था। जब कभी दोनों कहीं घूमने-फिरने जाते तो उस दौरान यदि कोई चित्रा के नजदीक आने की कोशिश करता तो हेमनाथ अपना आपा खोकर उसकी पिटायी करने से भी नहीं चूकता। उसका बस यही कहना था कि चित्रा पर उसी का एकाधिकार है। उसके अभिनेत्री होने के यह मायने तो नहीं कि कोई भी उसकी सुंदरता पर मोहित होकर उसे घूरने लगे। कोई भी ऐरा-गैरा उससे बतियाने तथा छूने को ललचाने लगे। हेमनाथ भूल गया कि चित्रा अभिनेत्री है। उसके अभिनय से प्रभावित होकर ही वह उसके मोहपाश में बंधा था। उस पर डोरे डाले थे। कई दिन तक उसके ईर्द-गिर्द चक्कर काटे थे। अब वह उस पर अभिनय छोडने का दबाव बनाने लगा था। चित्रा इसके लिए कतई राजी नहीं थी।
    हेमनाथ ने उसको सबक सिखाने के लिए अंधाधुंध मारना-पीटना प्रारंभ कर दिया। ऐसी-ऐसी पाबंदिया लगा दीं, जिससे चित्रा का दम घुटने लगा। उसने हाथ-पांव जोडे। बार-बार याद दिलाया कि वह सिर्फ देह नहीं, एक सशक्त नारी है। उसकी अपनी एक खास पहचान है। वह भी आजादी की उ‹डान भरने की अधिकारी है, लेकिन हेमनाथ की वहशियत कम होने की बजाय बढती चली गई। उसकी आतंकी यातनाओं ने चित्रा के शरीर के साथ उसके दिल-दिमाग को इस कदर आहत किया कि वह ९ दिसंबर की रात फांसी के फंदे पर झूल गयी। दूसरों को अपनी मर्जी और जिंदादिली के साथ जीवन जीने की सलाह देने वाली महज २९ वर्ष की अभिनेत्री जब आत्महत्या करने जा रही होगी तब उसके मन में क्या रहा होगा?
    ३० नवंबर २०२० को डॉ. शीतल आमटे ने खुद को जहरीला इंजेक्शन लगाकर मौत की नींद सुला दिया। डॉ. शीतल एक समाजसेवी थी। बहुत बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी थी। वह देश और दुनिया में प्रख्यात समाजसेवी, पद्मविभूषण तथा मेगसेसे अवॉर्ड से सम्मानित मुरलीधर देवीदास आमटे यानी बाबा आमटे की पोती थीं। शीतल की खुदकुशी की खबर भी अविश्वसनीय तथा स्तब्धकारी थी। अखबारों और न्यूज चैनलों में जैसे ही उनकी आत्महत्या की खबर आयी तो लोगों को बाबा आमटे याद हो आये, जिन्होंने छह सौ एकड जमीन के मालिक जागीरदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद मानवसेवा का मार्ग चुना। कुष्ठ रोगियों को भला चंगा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति और उम्र लगा दी। मुरलीधर के बाबा आमटे बनने की कहानी भी कम स्तब्धकारी नहीं है। नागपुर के विधि महाविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद देश का नामी-गिरामी वकील बनने का सपना देख रहे मुरलीधर के जीवन में बरसात की उस रात ने भूचाल-सा ला दिया, जब उसने देखा कि एक कुष्ठरोगी कूडे-कचरे में रेंग रहे कीडों को खाकर अपनी भूख मिटा रहा है। दूसरे लोगों की तरह मुरलीधर के लिए उसे नजरअंदाज कर पाना संभव ही नहीं हो पाया। बेचैनी, आत्मग्लानि के साथ-साथ इस सवाल ने उसे कसकर जकड लिया कि गंदगी तथा कीडों-मकोडों को खाकर जिन्दा यह कुष्ठरोगी, जिससे सभी दूरी बनाते हैं, हिकारत भरी निगाह से देखते हैं, आखिर है तो वह एक इनसान ही। क्या वह अकेला पडा-पडा मर जाए! आखिर उसका कसूर क्या है? मुरलीधर ने पहले तो तूफानी बारिश से बचाने के लिए उसके सिर पर तिरपाल खडी की। फिर खाना खिलाया। उसका इलाज करवाया और सतत देखभाल की।
कुछ हफ्तों के बाद उस कुष्ठरोगी ने मुरलीधर की बाहों में दम तोड दिया। वह तो चला गया, लेकिन मुरलीधर की तो सोच ही बदल गई। मौज-मज़े के साथ जीवन जी रहे धनवान पिता के जवान बेटे ने अपनी राह ही बदल ली। उसका पूरी तरह से कायाकल्प हो गया। कुष्ठ रोग को मिटाने के लिए मुरलीधर ने कोलकाता जाकर कुष्ठरोग निवारण का विशेष वैद्यकीय प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर उसके बाद अपनी पत्नी साधनाताई आमटे के साथ मिलकर १९४९ में चंद्रपुर जिले के वरोरा में 'आनंदवन' की स्थापना की। साधनाताई भी संपन्न परिवार में पली बढी थीं। दोनों जुनूनियों ने समाज से बहिष्कृत अत्यंत दयनीय स्थिति में दिन काट रहे कुष्ठरोगियों के प्रति खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। दो झोपड़ियों में प्रारंभ हुए आनंदवन में न केवल कुष्ठरोगियों का इलाज किया जाता था बल्कि उन्हें अपने पैरों पर खडे होकर कमाने-खाने के लायक भी बनाया जाता था। अपने जीवन काल में दोनों ने हजारों का जीवन संवारा और सम्मान भी दिलवाया। उनके निस्वार्थ सेवाभाव की ख्याति चारों ओर फैलती चली गयी। देश और दुनिया के लिए आनंदवन प्रेरणास्थल बनता चला गया। महात्मा गांधी के अनुयायी बाबा आमटे को पूरी तरह से तिरस्कृत और अछूत जाति के लोगों की सेवा करने के कारण तरह-तरह की धमकियां भी झेलनी पडीं। संत बाबा आमटे जानते थे कि शारीरिक कोढ से कहीं बहुत अधिक खतरनाक बीमारी तो मन का कोढ है, जिसका कोई इलाज नहीं है। उनके इस सद्कार्य से प्रभावित होकर देश-विदेश के कई दानवीरों ने भी दिल खोलकर सहायता का हाथ बढाया।
बाबा और उनकी पत्नी ने ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का शंखनाद करते हुए आनंद निकेतन आर्टस, सार्इंस, कामर्स तथा कृषि महाविद्यालय, नेत्रहीन बच्चों के लिए आनंद विद्यालय तथा और भी कई जनहितकारी संस्थाओं की स्थापना की। कुष्ठरोगियों, अंधों और अपंगों के इलाज और उनमें आत्मबल जगाने का महान कार्य करने वाले बाबा आमटे का ९४ वर्ष की दीर्घायु में स्वर्गवास हो गया। अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित इस महामानव को बीस वर्ष से एक असाध्य बीमारी ने जक‹ड रखा था, जिसके कारण उन्हें वृद्धावस्था में निरंतर खडे रहना पडता था या फिर लेटे रहना प‹डता था। फिर भी उन्होंने अपने सेवाकार्य से मुंह नहीं चुराया। युवकों की तरह डटे रहे। आनंदवन अब एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। उनके पुत्र विकास आमटे और डॉ. प्रकाश आमटे तथा उनका पूरा परिवार जनसेवा में जुटा है। आनंदवन में हर वर्ष ‘वृक्ष महोत्सवङ्क मनाया जाता है। अतिथियों का स्वागत-सत्कार स्वस्थ हो चुके रोगी ही करते हैं।
देश और दुनिया को हतप्रभ कर देने वाले कोरोना काल में ३० नवंबर को हुई डॉ. शीतल आमटे की खुदकुशी आनंदवन में चल रहे मनमुटाव, वर्चस्व और कलह का नतीजा थी। डॉ. शीतल दिव्यांग विशेषज्ञ थीं। दिव्यांगों की देखरेख और उनके इलाज के लिए खुद को समर्पित कर चुकी डॉ. शीतल आनंदवन में चल रही कुछ संदिग्ध गतिविधियों से असंतुष्ट थी। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए इतना भर बताना काफी है कि आनंदवन जैसी परोपकारी संस्था अंतत: पारिवारिक कलह का केंद्र बन गयी। डॉ. शीतल के ब‹डे भाई को पांच साल पहले ‘महारोगी सेवा समिति नामक ट्रस्टङ्क से धांधली के आरोप के कारण निकाल दिया गया था। दरअसल, शीतल अनियमितता और घपलेबाजी के सख्त खिलाफ थी। इसलिए उनकी संदिग्ध चेहरों के साथ पटरी नहीं बैठती थी। इसी वजह से उनके अपने भी दूरी बनाने लगे थे। विरोध जताने लगे थे। जो वह नहीं चाहती थी वह भी जबरन होने लगा था। २९ नवंबर को डॉ. शीतल ने ‘वॉर एंड पीसङ्क शीर्षक से एक पेंqटग सोशल मीडिया पर पोस्ट की और ३० नवंबर को इस दुनिया से ही विदा हो गर्इं। डॉ. शीतल आमटे ने शिक्षार्जन के दौरान भी कई अवॉर्ड प्राप्त किए। शिक्षा, चिकित्सा और पर्यावरण पर काम करने के साथ-साथ उन्हें पेंqटग का भी बहुत शौक था।
लोग कितने भी आधुनिक हो गये हों, लाख स्त्री को बराबरी का दर्जा देने के ढोल पीटे जा रहे हों, लेकिन कटु सच तो ये है कि आज भी हमारे समाज में पुरुषवादी प्रवृत्ति बहुत गहरे तक अपनी ज‹डे जमाये हुए है। पिता, पति, भाई के रूप में पुरुष ही नारी की जगह तय करते हैं। अधिकांश परिवारों में बेटे के लिए बेटी, बहन के सपने तहस-नहस करने में संकोच नहीं किया जाता। कल भी यही माना जाता था कि बेटियां तो परायी होती हैं। परिवार की इज्जत तो पति और बेटे की वजह से ही है। पुरुषों के अधीन रहना ही स्त्री की नियति है। उसे पुरुषों को रोकने-टोकने, समझाने, राज करने और हुक्म चलाने का कोई अधिकार नहीं। पुरुष जो कहे, करे और बोले बस वही नारी करे तो ही सही...। वर्ना...।

Thursday, December 24, 2020

अस मानस की जात

कोरोना का आतंक जब चरम पर था। लाखों लोग आर्थिक रूप से टूट गये थे। तबाह हो गये थे। लॉकडाउन ने उन्हें घरों में कैद कर दिया था। तब भी कई घटिया अंधी सौदागर प्रवृति के लोग अपनी कमीनगी से बाज नहीं आ रहे थे। अस्पतालों में सफेद कपडों में कोरोना से दिन-रात जंग लडते डॉक्टरों तथा नर्सों को अपना निशाना बना रहे थे। वे भूल गये थे कि डॉक्टर और नर्से ईश्वर का ही रूप हैं, जो अपने जीवन को खतरे में डालकर कोरोना के मरीजो को बचा रहे हैं। इस घोर संकट के समय देश के कई महानगरों, नगरों में मकान मालिकों ने जबरन उनसे घर खाली करवा लिए। उनका सामान तक सडकों पर फेंकवा दिया। उनके आसपास के लोग उन्हें संदेह की नजरों से देखते हुए उनसे यह सोचकर दूरी बनाते देखे गये कि उनकी वजह से उन्हें कोरोना वायरस का संक्रमण हो जायेगा। हां, यह भी सच है कि कुछ अस्पताल और वहां के लालची डॉक्टर कोरोना वायरस से बचाने की बजाय मरीजों को अंधाधुंध लूट रहे थे। ऐसे अपना बैंक बैलेंस बढा रहे थे, जैसे उनके लिए यह कोई सुअवसर हो। एक तरफ जहां महामारी को लेकर लोगों के मन में खौफ था। वहीं छोटी-छोटी चीजों के अभाव से लोग जूझ रहे थे, तो वहीं धन की भूख ने कितनों को अंधा बना दिया। पता नहीं वो कौन-सी ताकत थी, जो उनसे ठगी और लूटमारी करवाती रही। साइबर क्रिमिनल्स भी पूरी तरह से सक्रिय हो गये। वे मेल भेजकर लोगों को धमकाते रहे कि हमें पैसे भेजो नहीं तो कोरोना वायरस का शिकार बना देंगे। कोरोना के चिन्ताजनक काल में कई ऐसे दानवीर भी सामने आये, जिन्होंने पीड़ितों की दिल खोलकर सहायता की। गरीबों ने भी अमीरी दिखायी। मिल-बांटकर खाया। इतना ही नहीं खुद भूखे सोये, लेकिन दूसरों को भूखे नहीं सोने दिया। उन्हें अपने घर में पनाह दी। जिन लोगों के अंदर की मानवता मर चुकी है उन्हें अपने आसपास भूख से कराहते बच्चों के रोने-बिलखने की आवाज़ें नहीं सुनायी दीं। अपने सामने मरते लोगों और बिछी लाशों को भी उन्होंने अनदेखा कर दिया। वे तो बस अपनी धन-धुन में मगन रहे। उनके लिए नये-नये भेष धर यह कमायी का अभूतपूर्व अवसर था।
उत्तर प्रदेश के हाथरस में गधे के गोबर से मसाले बनाने वाले धनपशु पकड में आए। उन्होंने बाकायदा नकली मसाले बनाने का कारखाना खडा कर लिया था। उन्हें पता था कि पूरा शासन प्रशासन बीमारी से जूझने में व्यस्त है। उनके गंदे जानलेवा कारोबार पर नज़र रखने और धावा बोलने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं है। गधों के गोबर, एसिड, भूसा और हानिकारक रंगों से तैयार मसालों को चमकदार पैकेटस में भरने के बाद उन पर नामी-गिरामी ब्रांड का नाम लिखकर लाखों रुपये के वारे-न्यारे कर लिये गए। इन सौदागरों की दलील और सफाई यह है कि जब बाबा रामदेव गाय का मूत्र पिलाकर करोडों रुपये की कमायी कर सकते हैं तो हम अपने देशवासियों को गोबर क्यों नहीं खिला सकते। योग गुरू की तरह हम भी व्यापार ही तो कर रहे हैं।
तू डाल डाल मैं पात पात की कहावत को चरितार्थ करने की तो जैसे प्रतिस्पर्धा ही चल रही थी। अपनी ही इंसानी जात के सभी शत्रु तो कभी पकड में नहीं आते। मध्यप्रदेश के शहर इंदौर की महू तहसील के निकट स्थित एक गांव में ऐसे मिलावटखोर पकड में आये जो कीडों को मारने वाले कीटनाशक से काली मिर्च को चमकाते थे और उसका वजन बढाने के लिए घातक रसायन, नारियल का बूरा व स्टार्च मिलाते और बाजार में खपाते थे। जिस व्हाइट ऑइल से काली मिर्च को चमकाया जा रहा था, उससे सांस संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। अमूमन इसका उपयोग पत्तियों में लगने वाले कीट पतंगों को मारने के लिए किया जाता है। खाद्य पदार्थों में इसकी मिलावट से इन्सानों को कई तरह की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं। उन्हें डॉक्टरों के चक्कर काटने और बिस्तर पकडने को मजबूर होना पडता है। यह हमारा ही समाज हैं, जहां पर एक से एक शैतान भरे पडे हैं। उनके लिए इंसानी जान की कोई कीमत नहीं। उन्हें बस धन चाहिए। यही उनका ईमान है, धर्म है, मां, बाप, भाई, बहन, बच्चे, रिश्तेदार सबकुछ है। तभी तो जहां एक ओर कोरोना वायरस ने कोहराम मचा रखा तब वो ठगी के नये-नये तरीके ईजाद कर रहे थे। साइबर क्रिमिनल्स तो धमका-चमका रहे थे, लेकिन यह तो मौत के सामान पहुंचाते हुए मौत के मुंह में पहुंचा रहे थे। नीच सौदागरों को पता था कि गंभीर कोरोना मरीजों की जान बचाने के लिए प्लाज्मा चढाया जाता है। यह प्लाज्मा कोरोना को मात देकर स्वस्थ हो चुके मरीजों से लिया जाता है। क्योंकि उनके प्लाज्मा में कोरोना से लडने के लिए एंटीबॉडी तैयार हो चुकी होती है। उनका प्लाज्मा कोरोना के गंभीर मरीजों को चढाने से उनके शरीर में भी वही एंटीबॉडी डेवलप होती है और वे तेजी से कोरोना को मात देकर स्वस्थ हो जाते हैं। धन-पशुओं को यह भी जानकारी थी कि देश में कोरोना मरीजों की संख्या ज्यादा है और प्लाज्मा दान करने वाले कम हैं। बस फिर क्या था वे लग गये अपने काली कमायी के काम में और धडाधड नकली बनावटी प्लाज्मा बनाने और बेचने लगे। दतिया में घटिया मिलावटी प्लाज्मा चढाने से जब एक मरीज की मौत हुई तो तब प्लाज्मा के सौदागरों के खतरनाक गिरोह का पता चला। इस गिरोह के हत्यारे पंद्रह-बीस हजार में नकली प्लाज्मा बेच रहे थे। नकली प्लाज्मा चढाये जाने से मरीज की मौत होने पर परिजनों ने डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए हंगामा ख‹डा कर दिया। इस प्लाज्मा को बीस हजार रुपयों में खरीदा गया था। पुलिसिया पूछताछ में यह सच सामने आया कि नकली प्लाज्मा बेचने वाले तभी सक्रिय हो गये थे, जब उन्हें इसके महत्व की जानकारी मिली थी। उनके इस खतरनाक खेल से और भी कई लोगों की जानें गई होंगी, यह तो तय है। नकली प्लाज्मा खपाये जाने के गोरखधंधे में जिन डॉक्टरों ने साथ दिया, यकीनन वे तो ईश्वर के रूप नहीं, हद दर्जे के लुटेरे और शैतान हैं...।

Thursday, December 17, 2020

अपराधी, कौन अपराधी?

पहले नज़र इस खबर पर...
एक बेकसूर, युवक ने दहेज उत्पी‹डन के आरोपों को २३ साल तक झेला। पुलिस की मार खायी, जेल की यात्रा भी की। केस के वक्त उसकी उम्र २२ साल थी। मौजूदा समय में उसकी उम्र ४५ साल है और वह दो बच्चों का पिता है। २३ साल पहले उसकी भाभी ने उस पर तथा परिवार के अन्य सदस्यों के खिलाफ दहेज प्रताडना का मुकदमा दर्ज कराया था। मुकदमा दर्ज होते ही उसका तो सुख-चैन लुट गया। जो दिन नहीं देखने थे, वो देखे। वकीलों की जेबें भरीं और खुद कंगाली झेली। दो दशक का लंबा समय खुद को बेकसूर साबित करने के लिए अदालत के चक्कर काटने में गुज़र गया। खाकी वर्दी वालों ने भी तरह-तरह से परेशान कर नींद हराम करने में कोई कमी नहीं की। रिश्तेदारों और दोस्तों ने भी खुलकर बातचीत करनी बंद कर दी। अडोसी-पडोसी, रिश्तेदार तथा यार दोस्त भी निरंतर कटु वचनों के शूल चुभोते रहे। अंतत: कोर्ट में आरोप साबित नहीं हो पाया और उसे क्लीनचिट मिल गई, लेकिन उसके उन २३ वर्षों का क्या जो बेहद चिन्ता और परेशानी में बीते?
अब यह दूसरी खबर...
श्रीनगर के शम्सवाडी इलाके में रहने वाले निसार को निर्दोष होने के बावजूद २३ साल की यातनाभरी कैद की सजा भोगनी पडी। निसार ने सोलह साल की उम्र में अपने परिवार के कश्मीरी शॉल के कारोबार में रूचि लेनी प्रारंभ कर दी थी। पिता खुश थे। बेटा उनके कारोबार में साथ देने लगा था। पिता का अपने पुश्तैनी शॉल के कारोबार को अधिकतम ऊंचाइयों तक ले जाने का इरादा था। अकेले होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा था, लेकिन अब मेहनती और महत्वाकांक्षी बेटे के हाथ बटाने के कारण उन्हें लगने लगा था कि अब वो दिन दूर नहीं जब उनके व्यापार का मनचाहा विस्तार होगा और खूब धन बरसेगा। चारों तरफ भरपूर खुशियां ही खुशियां होंगी। निसार कारोबार के सिलसिले में ही नेपाल गया था। इसी दौरान २१ मई १९९६ को नई दिल्ली के लाजपतनगर में हुए बम धमाके के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इस धमाके में १३ लोगों की मौत और ३९ लोग जख्मी हुए थे। निसार ने बताया कि उसे गिरफ्तार तो नेपाल से किया गया था, लेकिन पुलिस ने मीडिया और अदालतों के सामने दावा किया कि उसे मसूरी से पकडा गया। उसकी गिरफ्तारी की तारीख भी उसे हिरासत में लेने के नौ दिन बाद की दर्शायी गयी। उन नौ दिनों के दौरान बडी बेरहमी से मारने-पीटने के बाद पहले मीडिया और फिर कोर्ट में पेश किया गया। गिरफ्तारी के वक्त वह था तो सोलह साल का, लेकिन पुलिस ने उसकी उम्र लिखी उन्नीस साल। बाद में उसके जन्म के प्रमाणपत्र भी दिखाए गये, लेकिन उनकी अनदेखी करते हुए उसे राजस्थान के समलेगी में एक बस में हुए धमाके का भी आरोपी बना दिया गया, जिसमें १४ लोग मारे गये थे। राजस्थान की जिस जेल में उसे रखा गया वहां चौबीस घण्टे घना अंधेरा रहता था। लोहे के दरवाजे में मात्र एक सुराख था, जिससे नाम मात्र की हवा और रोशनी आती थी। तीन महिने तक नहाना नसीब नहीं हो पाया। सिर के बालों, भौहों और दाढी तक में जुओं ने डेरा जमा लिया। बाद में दिल्ली की तिहाड जेल लाकर बंद कर दिया गया। जहां के हालात राजस्थान की जेल से कुछ बेहतर थे, लेकिन यहां पर भी कैदी ठूस-ठूस कर भरे थे। ७५ कैदियों की क्षमता वाली बैरक में लगभग दो सौ लोग कैद थे। यहां पर खूंखार कैदियों का राज चलता था। कभी दिल्ली तो कभी राजस्थान की जेल में सडने को मजबूर निसार ने छूटने की उम्मीद ही छोड दी थी। मुकदमा qखचता ही चला जा रहा था। कभी जज का तबादला हो जाता था, तो कभी गवाह हाजिर नहीं होते थे। qकचित भी कोई सबूत नहीं था, जो निसार को धमाकों से जो‹डता। अंतत: निसार को रिहाई तो मिली, लेकिन तब तक उसकी जिन्दगी के २३ साल बरबाद हो चुके थे। फिर भी निसार का आत्मबल अभी जिन्दा था। नये सिरे से जिन्दगी की शुरुआत के संकल्प के साथ वह घर लौटा, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद कोरोना की बीमारी की वजह से फिर से घर में ही कैदी बनकर रहने की नौबत आ गयी। २३ साल तक बंद जेल में रहने के बाद खुली जेल में सांस लेते निसार को लोगों के तरह-तरह के सवालों ने भी खासा परेशान किया। कई बार तो ऐसा भी होता कि वह किसी रिश्तेदार के आने से पहले ही अपने कमरे में चला जाता और उसके जाने के बाद ही बाहर निकलता। अभी भी हालात वैसे के वैसे हैं। कोई जब पूछता है कि आगे क्या करने का इरादा है, तो ऐसा लगता है कि सवाल की बजाय सीने में तीर मारा गया है। उसे हर हालत में कोई काम चाहिए। रोजगार के लिए पैसे नहीं हैं और नौकरी देने को कोई तैयार नहीं। सभी डरते हैं। उनकी निगाह में वह अभी भी अपराधी है। खूंखार हत्यारा है। उसके जेल में कैद होने के दौरान पिता चल बसे थे। निसार जैसे न जाने कितने लोग हैं, जिन्हें पुलिस की साजिश और गलती का शिकार होकर अपनी जिन्दगी के कई कीमती साल खोने पडे हैं। दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें नहीं लौटा सकती। पुलिस की वजह से कितने बेकसूर जेलों में सड रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। किसी को इसकी चिन्ता भी नहीं है।
एक के बाद एक निर्मम हत्याएं कर देश की राजधानी दिल्ली में दहशत फैलाने वाले एक सीरियल किलर ने अदालत में अपना बयान दर्ज कराते हुए बताया था कि वह तो बिहार से रोजी-रोटी कमाने के इरादे से दिल्ली आया था, लेकिन पुलिस ने उसे हत्यारा बना दिया। वह जिस इलाके में सब्जी बेचता था, वहां का बीट कांस्टेबल उससे बार-बार वसूली करता था। जब कभी वह उसकी मांग पूरी नहीं कर पाता तो वह उसे मारता-पीटता तथा झूठे मुकदमे दर्ज करवा देता। उसके कारण कई बार उसे जेल जाना पडता था। उसे खाकी वर्दीधारी पर बडा गुस्सा आता था, लेकिन वह उसका तो कुछ बिगाड नहीं सकता था। इसलिए उसने अपना गुस्सा उतारने तथा पुलिस को चुनौती देने के लिए निर्दोष लोगों की गर्दनें काटनी शुरू कर दीं। सीरियल किलर को फांसी की सजा सुनाते हुए अदालत ने पुलिस व्यवस्था पर जो तल्ख टिप्पणी की वो यकीनन काबिलेगौर है, "अभी तो इस व्यवस्था के कारण एक हत्यारा पैदा हुआ है, लेकिन अगर यही सिलसिला चलता रहा तो न जाने कितने सीरियल किलर व्यवस्था को चुनौती देने के लिए जन्म लेंगे। यही समय है, जब इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।" लगभग आठ वर्ष पूर्व अदालत के द्वारा व्यक्त किये गए खतरे और चिन्ता पर किसी ने भी गौर नहीं किया। जो हालात तब थे, वो आज भी हैं...।
भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। इसी वजह से जेलों की बदहाली खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। यह भी गजब ही है कि जेल में बंद कुल कैदियों में आधे से ज्यादा विचाराधीन कैदी हैं। उनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है। इनमें कई कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं फिर भी वर्षों से जेल में कैद हैं। कई कैदी तो ऐसे भी हैं, जो अपने आरोप के लिए संभावित सजा की अवधि से कहीं बहुत अधिक समय जेल में बिना कुछ सिद्ध हुए बिताने को मजबूर हैं। उनकी कोई सुननेवाला भी नहीं है। यह अधिकांश आरोपी इतने सक्षम ही नहीं हैं, कि वे अपने लिए कोई अच्छा-सा वकील रख सकें। यह सच भी अत्यंत स्तब्धकारी है कि देश भर की जेलों में उच्च शिक्षित कैदियों की अच्छी-खासी तादाद है। इनमें अधिकांश इंजीनियरिंग और मास्टर्स की डिग्री रखने वाले लोग हैं। टेक्निकल की डिग्री रखने वाले ज्यादातर कैदियों पर दहेज, हत्या और दुष्कर्म के आरोप हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे भी हैं, जिनपर आर्थिक अपराधों के आरोप लगे हैं। मानवता का तकादा और नियम तो यह कहता है कि विचाराधीन कैदियों को अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाए, लेकिन उन्हें अपराधी मानकर यातनाएं दी जाती हैं। जेलों को सुधार गृह की बजाय यातना स्थल बना दिया गया है। सच तो यह है कि जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दण्डित करने के साथ-साथ स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी है। इसी उद्देश्य से ही जेलों में कैदियों को पढने-लिखने से लेकर कौशल विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराये जाते हैं। बावजूद इसके अधिकांश जेलों में कैदियों के साथ कहीं कम तो कहीं ज्यादा पशुओं जैसे सलूक का दस्तूर ही सतत चला आ रहा है।

Thursday, December 10, 2020

कैसे टूटे परिपाटी?

 कोरोना के चरम दहशती काल ने लोगों की आंखें खोल दीं। भय के मारे अच्छे-अच्छों के पसीने छूट गये। कई चल बसे। कइयों की जान पर बन आयी। इस अभूतपूर्व अकल्पनीय समय में भी कुछ भ्रष्टाचारी तो जैसे बिलकुल निर्भय थे। सबकुछ थम गया, लेकिन वे नहीं थमे। बेखौफ होकर बेईमानी करते रहे। जी-भरकर रिश्वत लेते रहे और वो सब करते रहे जो उनकी फितरत रही है। ओडिशा में स्थित भुवनेश्वर के वन अधिकारी ने तो कमाल ही कर डाला। लॉकडाउन के दौरान जब सभी अपने-अपने घरों में बंद थे तब इस मौजपरस्त अधिकारी ने बीसियों बार चार्टर्ड प्लेन से पटना, मुंबई, दिल्ली और पुणे की यात्राएं कीं। वो भी अकेले नहीं, बल्कि अपने पूरे परिवार तथा यार दोस्तों के साथ। इन यात्राओं के दौरान उनके ठहरने के ठिकाने रहे बडे-बडे आलीशान फाईव तथा सेवन स्टार होटल, जहां करोडों रुपये लुटाकर भरपूर मौज-मज़े किये गए। इस वन अधिकारी पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कसे जाने के बाद पता चला कि इस आधुनिक राजा-महाराजा ने अपने बेटे और खुद के लिए चार प्राइवेट बॉडी गार्ड रखे हुए हैं। हर बॉडीगार्ड को पचास हजार रुपये महीने की तनख्वाह के साथ-साथ और भी बहुत-सी सुविधाएं उपलब्ध करवायी जा रही हैं। उसकी भुवनेश्वर, मुंबई, पुणे, बिहार और राजस्थान में स्थित भव्य कोठियों में एक साथ छापेमारी करने पर जो अरबों की सम्पत्ति और भौतिक सुख-सुविधाओं का सामान मिला उसे देखकर जांच टीम भी स्तब्ध रह गई। उसने अय्याशी के लिए पुणे में एक विशाल फार्म हाऊस किराये पर ले रखा है, जिसका हर महीने का किराया पांच लाख रुपये है। उसके रिश्तेदारों के यहां से तो करोडों रुपये मिले ही, ड्राइवर के यहां से भी ढेर सारी धन-दौलत मिली।
जिस देश के आम आदमी की जिन्दगी रोटी, कपडा और मकान के जुगाड में खत्म हो रही है वहां पर भ्रष्ट नेताओं की राह पर दौडते ऐसे अनेक नौकरशाह हैं, जिन्हें अपने कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं हैं, उन्हें तो बस बंगले, कोठियां, फार्महाऊस, कारें, सोना- चांदी और शहंशाहों वाली सभी सुख-सुविधाएं चाहिए। इसके लिए वे दिन-रात बेइमानी, घूसखोरी, लूटमारी कर रहे हैं। फिर भी उन्हें अपना भ्रष्टाचार राजनेताओं के भ्रष्टाचार से छोटा लगता है। वैसे दोनों यही मानते हैं कि समुद्र में से एक लोटा जल निकाल लेने से विशाल समुद्र को कोई फर्क नहीं पडता। उसके पानी में किंचित भी कमी नहीं होती, जबकि सच यह है कि इन लुटेरों के कारण ही देश की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है। भारत के संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना ही नहीं की होगी कि राजनेता, सत्ताधीश और नौकरशाह रिश्वतखोरी का ऐसा तांडव मचायेंगे कि भ्रष्टाचार के मामले में भारत दुनिया के सभी देशों को पछाडते हुए पहले नंबर पर पहुंच जाएगा। जी हां, ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की २०२० के दिसंबर माह में आयी रिपोर्ट में यह शर्मनाक सच पूरी दुनिया के सामने लाया गया है, जिससे हर भारतवासी अच्छी तरह से वाकिफ हैं, फिर भी खामोश हैं, बेबस हैं।
वर्षों पहले भू-आंदोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे ने कहा था कि, 'भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार हो गया है। जब सभी लोग भ्रष्टाचार करने लगें तो वह भ्रष्टाचार न होकर शिष्टाचार हो जाता है। भ्रष्टाचार तभी तक है, जब कुछ लोग उसे करें, लेकिन सब लोग उसे अपना लें तो वह भ्रष्टाचार न होकर शिष्टाचार हो जाता है। अधिकांश ईमानदारी का ढोल पीटने वालों की समस्या यह भी है कि उन्हें रिश्वतखोरी करने का मौका नहीं मिलता। इसलिए भ्रष्टों के खिलाफ चीखते-चिल्लाते रहते हैं। इस दौरान जैसे ही उन्हें धन की चमक दिखायी जाती है तो वे अपना ईमान बेचकर उनके साथ खडे हो जाते हैं, जो कल तक उनकी निगाह में पूंजीपति, शोषक, लुटेरे, बेईमान, देश के शत्रु तथा और भी बहुत कुछ थे। राजनीति और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर पहले कभी शोर भी मचता था, लेकिन अब सब चलता है वाली बात हो गई है। जब कोई ऑटो चलाने और पावभाजी का ठेला लगाने वाला चतुर इंसान राजनीति में प्रवेश कर विधायक बनता है और चंद वर्षों में अरबपति बन जाता है तो किसी को कोई हैरानी नहीं होती। सब जानते हैं कि राजनीति से बढ़िया देश में आज कोई और धंधा नहीं है। यहां शान-शौकत और दबंगई के साथ लूटमार करने की पूरी-पूरी आजादी है। यदि कोई जांच एजेंसी भी उसके काले कारनामों की जांच करती है तो दबंग पार्टी और सत्ता भी उसके बचाव में आकर खडी हो जाती है।
इस कलमकार को वो बीते दिन आज भी याद हैं, जब विभिन्न सरकारी विभागों में बहुत डर-डर कर रिश्वतखोरी होती थी। छोटे स्तर के कर्मचारी ही घूस लेते थे। उनकी पूरी कोशिश होती थी कि उनकी रिश्वतखोरी की जानकारी बडे अधिकारी तक न पहुंचे। यदा-कदा जब उच्च अधिकारी को भ्रष्टाचार की खबर लगती थी तो वे ऐसी सख्त कार्रवाई करते थे, जिससे दूसरे बेईमान भी सतर्क हो जाते थे, लेकिन अब तो अधिकांश ब‹डे से बडे अधिकारी भी अथाह भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। खुद भी लूटमारी करते हैं और अपने सहयोगियों को भी खुली छूट देते हुए उनसे भी हिस्सेदारी पाते हैं। जब कोई खुद आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हो तो वह दूसरों पर कार्रवाई तो क्या उंगली उठाने से भी कतरायेगा। यही सच भारत के राजनेताओं और सत्ताधीशों का है, जिनकी नाक के नीचे नौकरशाही बेखौफ होकर लूट-खसोट मचाये है। कभी-कभार कोई भ्रष्टाचारी नौकरशाह पक‹ड में आता है, तो वह खबर बन जाता है, लेकिन उसे कहीं न कहीं पक्का यकीन होता है कि उसे उसके वो ‘आकाङ्क बचा ही लेंगे, जिनके साथ उसकी मधुर साझेदारी है।

Thursday, December 3, 2020

हैवानी वासना का अंतिम इलाज?

    सात वर्ष की बालिका के साथ दुष्कर्म! पढने, सुनने और सोचने भर से घबराहट, गुस्सा और कंपकंपी-सी होने लगती है। हर मासूम बेटी का चेहरा सामने आ जाता है। इस दुनिया में कौन है जो किसी भी नादान बच्ची पर कुकर्म के कहर की कल्पना कर सकता है? कोई वास्तविक संवेदनशील इंसान तो कतई नहीं। फिर आखिर यह किस धरा के लोग हैं, किस मिट्टी के बने हैं, जो बार-बार इंसानियत को लज्जित कर रहे हैं। इन शैतानों, हैवानों, बीमारों का कोई इलाज है भी या नहीं? २२ नवंबर २०२० के दिन नागपुर के पारडी इलाके में रहने वाली एक मां शाम को मेहनत-मजदूरी कर घर लौटी तो उसने अपनी सात वर्ष की मासूम बिटिया को दर्द के मारे कराहते पाया। बच्ची ने मां को बताया कि मकान मालिक ने उसकी यह रक्तरंजित दशा की है। बिटिया की चिन्ताजनक हालत देखकर मां सब समझ गई। वह तुरंत बच्ची को लेकर थाने गई। पुलिस ने जांच कर चालीस वर्षीय बलात्कारी के खिलाफ दुष्कर्म और पोक्सो एक्ट सहित विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया। यह सच निरंतर जगजाहिर हो रहा है कि हमारे समाज में, कुछ पढे-लिखे, विकृत मानसिकता के लोग भी हैं, जो ऊपर से बडे सभ्य और शालीन दिखते हैं, लेकिन उनकी घटिया, क्रूर मनोवृत्ति बडी घिनौनी और डरावनी है। उन्हें मासूम बेबसों पर जुल्म ढाने में अथाह आनंद की अनुभूति होती है। सोचिए... मात्र डेढ साल की बच्ची की समझ ही कितनी होती है, लेकिन शैतान तो शैतान हैं।
    छत्तीसगढ के बालोद के अंतर्गत आने वाले एक गांव सिवनी में एक खाकी वर्दी वाले ने जिस दरिंदगी के साथ इंसानियत को तहस-नहस करते हुए हैवानियत की सभी हदें पार कीं, उससे हर संवेदनशील शख्स का खून खौल गया। सिवनी में ही रहती हैं एक लोकगायिका। कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन में लोकगायिका के सारे कार्यक्रम रद्द हो गये थे। आर्थिक संकट ने घेर लिया था। इसी दौरान उन्होंने पुलिस के सिपाही को अपने मकान का एक कमरा किराये पर दे दिया था। एक रात शराब के नशे में धुत सिपाही लोकगायिका के कमरे में जा पहुंचा और उससे वो रुपये वापस मांगने लगा, जो भारी किल्लत के चलते लोकगायिका ने उससे उधार लिये थे। दरअसल, सिपाही का इरादा कुछ और था, जो पूरा नहीं हो पाया तो उसने कमरे में खेल रही उसकी डेढ साल की बेटी को उठाया और अपने कमरे में ले जाकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और बच्ची की पिटायी करते हुए कहने लगा कि, मैं तुम्हारा पिता हूं। तू मुझे पापा बोल। जिस बच्ची को अभी बोलना ही नहीं आता था वह उसे पापा कैसे कहती, लेकिन वहशी पर तो पापा बुलवाने का अंधा जुनून सवार था। अपनी इसी आतंकी जिद में वह बच्ची के चेहरे, हाथ, पेट, जांघों और पैरों पर जलती हुई सिगरेट दागता चला गया। बच्ची की जलन के मारे तडप-तडप कर रोने की आवाज सुनकर डरी-सहमी मां दरवाजा पीटती रही। मां की चीख-पुकार सुनकर पडोसी भी पहुंच गये। सभी ने मिलकर बडी मुश्किल से दरवाजा खुलवाया। फर्श पर पडी बेटी की हालत देखकर मां तो बेहोश हो गई। किसी तरह से उसे होश में लाया गया। बच्ची के चेहरे और पूरे बदन पर सिगरेट के गहरे निशान देखकर पडोसियों की भी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। दरिंदे पुलिसिये ने सिगरेट खत्म हो जाने के बाद मासूम की बेल्ट से भी पिटायी की थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने जांच करने के पश्चात बताया कि मासूम को ५० बार सिगरेट से बडी बेरहमी से दागा गया है। पुलिस ने अपनी बिरादरी के खूंखार अपराधी को बचाने के लिए हल्की धाराएं लगायीं। जब मीडिया में यह खबर आयी तो पुलिस को कडी कार्रवाई करने को विवश होना पडा।
    चित्रकूट के चालीस वर्षीय इंजीनियर नेपचास से अधिक बच्चों को अपनी हैवानियत का शिकार बनाने के साथ-साथ उनके अश्लील वीडियोज और फोटो उतारकर उन्हें 'पोर्न साईटस' पर बेचकर करोडो रुपये कमा लिए। पिछले दस साल से बेखौफ होकर इस घृणित काम को अंजाम देते चले आ रहे इंजीनियर की शादी २००४ में हुई थी। उसकी खुद की कोई संतान नहीं है। वह गरीब परिवार के बच्चे-बच्चियों को चाकलेट, मोबाइल, कपडे, खिलौने उपहार में देकर यौन शोषण के लिए बडी आसानी से अपने जाल में फांस लेता था। सीबीआई को उसके पास के मोबाइल, पेन ड्राइव एवं लेपटॉप से लगभग ८० चाईल्ड पोर्न वीडियो व छह सौ तस्वीरे मिलीं। बच्चों के इस यौन शोषक की करतूतों का सिलसिला २०१२ से ही प्रारंभ हो गया था, लेकिन पुलिस, पैसा और समाज के ठेकेदार उसे बचाते रहे। यदि तभी उस पर ईमानदारी से पुलिसिया डंडा चलता तो वह बच्चों के अश्लील फोटोज तथा वीडियोज को इंटनेशनल पोर्न साइटस पर बेखौफ अपलोड करके हराम की कमायी कर अरबपति नहीं बन पाता। उसने अपने इस गुनाह की पत्नी को भी भनक नहीं लगने दी। अपने पति की गिरफ्तारी से शर्मसार पत्नी ने खुद को घर में बंद कर लिया। किसी को अपना मुंह दिखाने की उसकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी।
    दिल और दिमाग को कहीं दफना कर चलो एक बार मान लेते हैं कि गैर तो गैर होते हैं, उनसे इंसानियत तथा अपनत्व की कैसी आशा, लेकिन जन्मदाता, पिता का यह घिनौना चेहरा और शर्मनाक विषैली करतूत? संतरा नगरी नागपुर में एक फला-फूला विशाल इलाका है मोमिनपुरा। यहां के ३८ वर्षीय एक शख्स की पत्नी का डेढ वर्ष पूर्व इंतकाल हो गया। उसकी दो बेटियां हैं। बडी बेटी चौदह वर्ष की और छोटी तेरह वर्ष की। कोरोना काल में स्कूल बंद थे। दोनों बच्चियां चौबीस घण्टे घर में रहने को मजबूर थीं। वैसे भी बच्चों के लिए अपने घर से ज्यादा और कोई सुरक्षित जगह होती ही नहीं, लेकिन नराधम पिता ने मौका पाते ही पहले तो बडी बेटी को अपनी अंधी हवस का शिकार बनाया फिर कुछ दिनों के बाद छोटी बेटी को भी नहीं छोडा। इसी दौरान उसने एक महिला से शादी भी कर ली, जो पहले से ही एक बच्ची की मां थी। दुनिया के सभी रंग देख चुकी पत्नी ने एक रात जब पति को अपनी ही बेटी के साथ कुकर्म करते देखा तो उसके पैरोंतले की जमीन ही खिसक गई। उसके बाद तो दिन-रात उसे अपनी ही बेटी की सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी। नींद में होती तो बुरे-बुरे सपने आते। अभी शादी को ज्यादा दिन भी नहीं हुए थे। उसके मन में यह यकीन बैठ गया कि जिसने अपनी बेटियों को नहीं बख्शा वह उसकी बेटी पर भी अपनी वासना की गाज गिरा कर ही दम लेगा। समझदार मां चुपचाप शैतान पति का घर छोडकर चली गई।
सौतेली मां के चले जाने के बाद दोनों बच्चियां अपने मामा के घर जा पहुंची। उन्हें डरी-सहमी देख मामी ने जब वजह पूछी तो यह घिनौना सच सामने आया। एक सामाजिक कार्यकर्ता को जब इस हकीकत की खबर लगी तो थाने में शिकायत दर्ज करवाई गई। बलात्कारी पिता को गिरफ्तार कर लिया गया। इस खबर को पहले बस्ती और बाद में पूरे शहर में फैलने में देरी नहीं लगी। गुस्सायी भीड ने थाने का घेराव कर अपनी ही बेटियों के बलात्कारी दरिंदे बाप को फांसी के फंदे पर लटकाने की मांग की आवाज़ बुलंद की। देखते ही देखते भय, चिन्ता और तनाव का माहौल बन गया...।
    अपने देश हिन्दुस्तान में वर्षों से बलात्कारियों, नारियों के हिंसक हत्यारों, दुराचारियों को भरे चौराहे फांसी पर लटकाने, नपुंसक बनाने की मांग की जा रही है। इसके लिए न जाने कितने आंदोलन हुए, कडा कानून भी बना, लेकिन शैतानों-हैवानों की दरिंदगी में कमी नहीं आयी। पडोसी देश पाकिस्तान में भी अपने ही देश जैसे हालात हैं। वहां भी महिलाएं बेहद असुरक्षित हैं। वहां पर भी सभी बलात्कारों की रिपोर्ट थाने में दर्ज नहीं होती। लोग शर्म से बताते नहीं, छिपाते हैं। वहां के कुछ धर्म गुरु और मौलाना महिलाओं को लेकर सतत बदजुबानी करते रहते हैं। उन्हें पर्दे में रहने और सिर झुका कर चलने का फरमान सुनाते हुए बलात्कारियों के हौसले बढाते रहते हैं। जब जुल्म हद से बढ जाए तो उसका खात्मा करना जरूरी है। यहां पर पाकिस्तान ने हिंदुस्तान से बाजी मारते हुए बलात्कारियों, दुष्कर्मियों को  नपुंसक बनाने के कानून पर सैद्धांतिक रूप से सहमति दे दी है। औरत को मात्र देह मानने और उसकी अस्मत पर डाका डालने वालों का अंग-भंग न करते हुए आप्रेशन से नकारा बनाने के प्रावधान की सर्वत्र प्रसंसा की जा रही है। अपने देश में भी जिस तरह से बच्चियां और महिलाएं असुरक्षित हैं और निर्भया कांड के बाद बनाया गया नया कडा कानून भी खौफ पैदा नहीं कर पाया तो ऐसे में दुष्कर्म के दोषियों को नपुंसक बनाने के कानून को बनाने में क्या कोई हर्ज है...?

Thursday, November 26, 2020

राष्ट्र, राष्ट्रभक्त और नमकहराम



चित्र : १ - अपने तो अपने होते हैं। घर, परिवार, बच्चों का मोह और कर्तव्यबोध हर सजग इंसान को एक मधुर सूत्र में बांधे रखता है। अपने देश और अपनी जडों के प्रति लगाव के धागे भी कभी कमजोर नहीं पडते। कानपुर में रहने वाले सत्तर वर्षीय शमसुद्दीन पाकिस्तान की जेल में आठ वर्ष तक यातनाएं भोगने के बाद जब इस दीपावली पर अपने घर लौटे तो खुशी के मारे उनके आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। यह खुशी थी अपने वतन लौटने की तथा अपनों से मिलने-मिलाने की, जिसे पाने की उन्होंने उम्मीद ही छोड दी थी। शमसुद्दीन १९९२ में अपने किसी जान-पहचान के व्यक्ति के साथ नब्बे दिन के विजिट वीजा पर प‹डोसी देश पाकिस्तान गये थे। १९९४ में उन्हें पाकिस्तान की नागरिकता भी मिल गई। शमसुद्दीन को इस बात की ब‹डी पी‹डा होती थी कि उन्हें पाकिस्तान में अविश्वास और संदेह भरी ऐसी निगाहों से ऐसे देखा जाता था। जैसे वे जेब में कोई बम लेकर चल रहे हों। इसी बीच २०१२ में पाकिस्तानी पुलिस ने जासूसी के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया। उनके लिए यह बहुत ब‹डा आघात था। अपना मुल्क छोडकर आने की गलती की ऐसी सज़ा की तो उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। जेल में दिन-रात उन्हें यातनाएं दी जातीं। कभी नींद लगती तो जूते और डंडों की बरसात शुरू हो जाती। हर पल मौत की आहट दिल की धडकनें बढाती रहती। अपनों से दूर होने का अहसास और किसी से न मिल पाने की विवशता उन्हें पल-पल रूलाती। उन पर चौबीस घण्टे बस यही आतंकी दबाव रहता कि वे स्वीकार कर लें कि उन्हें भारत सरकार ने जासूसी करने के लिए पाकिस्तान भेजा है। उन्हें खूंखार कैदियों से भी पिटवाया जाता। अंदर तक बुरी तरह से तोड देने वाले हालातों के शिकंजे में त‹डपते इस उम्रदराज शख्स ने तो यही मान लिया था कि उनका बचना मुश्किल है। उन्होंने तो मौत के आगोश में समाने के लिए खाना-पीना भी बंद कर दिया था, लेकिन जब पाकी जेल के कारिंदे उनसे अपना मनचाहा उगलवाने में नाकामयाब रहे तो उन्हें रिहा कर दिया गया।
१४ नवंबर २०२० के दिन जब शमसुद्दीन की घर वापसी हुई तो उनके परिजन घण्टों खुशी से उनके गले लगकर रोते रहे। सभी ने उनके जिन्दा वापस लौटने की आशा ही छो‹ड दी थी। अपने बडे-बुजुर्ग को अपने बीच पाकर उनके मुंह से बस यही शब्द निकल रहे थे कि इस बार की दीवाली तो उन्हें सारी उम्र याद रहेगी। शमसुद्दीन भी यही कहते रहे कि मेरे अपने देश भारत में जो सुकून और अपनापन है वो और कहीं नहीं। मैं तो हर किसी को यही कहूंगा कि अपना देश, अपनी माटी को छो‹डकर और कहीं दूसरे देश जाने की भूल कभी न करना। खासतौर पर पाकिस्तान तो बिलकुल भी नहीं, जहां की सत्ता और व्यवस्था हैवानों के क्रूर हाथों में है।
चित्र : २ - माता-पिता, भाई-बहन दिवाली की तैयारी में जुटे थे। सभी को अपने सैनिक बेटे, भूषण सतई का इंतजार था, जो दिवाली पर घर आने वाला था, लेकिन अचानक खबर आयी, भारत-पाक-नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना की ओर से की गई भीषण गोलाबारी के दौरान उनका दुलारा शहीद हो गया है। नागपुर के निकट स्थित काटोल के रहने वाले शहीद नायक भूषण सतई २०११ में भारतीय सेना में भर्ती हुए थे। अपने नौ वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने सेना की विभिन्न मुहिम में हिस्सा लेकर अपनी दिलेरी का परिचय दिया था। पाकिस्तान की सेना को मुंहतोड जवाब देकर शहीद होने वाले भूषण सतई की अंतिम यात्रा में पूरा गांव उम‹ड प‹डा। अथाह शोक में भी गर्व समाहित था। पूरा इलाका 'अमर रहे-अमरे रहे शहीद भूषण अमर रहे' के नारों से गूंज रहा था। अपने जवान बेटे की शहादत पर पिता का सीना चौडा हो गया था। उनके दिल से निकले इन शब्दों ने स्पष्ट कर दिया कि उनके लिए अपने राष्ट्र के क्या मायने हैं, "मेरा २८ साल का बेटा शहीद हो गया है। हमारे लिए यह कठिन समय है, लेकिन मुझे अत्यंत गर्व हो रहा है कि मेरे बेटे ने पाक के नापाक इरादों पर पानी फेर दिया। पाकिस्तान सेना को मुंहतोड जवाब देकर मेरे भूषण और उसके साथियों ने मेरा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है। देश की रक्षा करते-करते मेरे दुलारे को शहादत मिली है। मुझे नाज़ है उस पर।"
अपने दिल-दिमाग और आंखों में अपने भाई की तस्वीर को संजोये बहन सरिता खुद को बडी भाग्यशाली मान रही थी। उसका प्यारा भैय्या भाई दूज के दिन तिरंगे में लिपट कर उससे अंतिम बार मिलने आया था। देशभक्ति का इससे ब‹डा उपहार और कोई नहीं हो सकता। छोटे भाई ने अपने बडे भाई की शहादत को सलाम करते हुए उनके सपने को पूरा करने की प्रतिज्ञा की तो गांव के कई युवक-युवतियों ने सेना में भर्ती होकर पाकिस्तान को सबक सिखाने की कसम खायी।
चित्र : ३ - एक मशहूर गायक इन दिनों दुबई में तरह-तरह के अपने राग अलाप रहा है। हिन्दुस्तान में उसने अपार धन भी पाया और सम्मान भी। भारतवासी हर कलाकार को आदर-सम्मान देना जानते हैं। सोनू निगम की भी झोली भर दी गई। फिर पता नहीं उसमें क्यों और कैसा अहंकार आया कि उसे विदेशी जमीन भाने लगी। उससे एक साक्षात्कार में पूछा गया कि क्या आपका बेटा भी गायक बनना चाहता है? उसका प्रत्युत्तर था कि, "अगर उसकी इच्छा होगी तो मैं उसे रोकूंगा नहीं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि वह भारत में सिंगर बने। वह अब भारत में नहीं, दुबई में रहता है। मैंने उसे पहले ही भारत से निकाल दिया है।" ऐसे अहसानफरामोश, नमकहरामों पर किसे गुस्सा नहीं आयेगा! जिस देश ने इन्हें फर्श से अर्श पर पहुंचाया उसके प्रति यह अपमानजनक बोल, यह बताने के लिए काफी हैं कि यह गायक कितना गिरा हुआ घटिया इंसान है।  
ऐसे कुछ शैतान और भी हैं, जो भारत माता और उसकी सरहदों के रखवाले शूरवीर सैनिकों के अपमान से बाज नहीं आ रहे हैं। समस्त राष्ट्रभक्तों का खून-खौलाते और उन्हें आहत करते इन बददिमागों को देश के लिए अपना जीवन बलिदान करने वाले सैनिकों का सम्मान करने में कमतरी का अहसास होता है। यह वही चेहरे हैं जो अपने न्यूज चैनलों पर लगातार भौंकते हुए दावा करते रहते हैं कि हम-सा कोई नहीं। हमारी मनपसंद राजनीतिक पार्टी तथा हम ही हैं जो देश की नैय्या पार लगा सकते हैं। जवानों के हत्यारे नक्सलियों को अपनी गोद में बिठाने तथा उनका गुणगान करने वाले कुछ अखबार तथा एनडीटीवी जैसे न्यूज चैनल वाले आतंकवादियों को तो शहीद करार देते हैं और देश पर कुर्बान होने वाले शहीदों के लिए तू-तडाक की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। आतंकवादियों के द्वारा जवान फूंक दिये गये, मार गिराये गये, मर गये, मारे गये यह देश के उन चैनलों की भाषा है, जिनके कर्ताधर्ता और संपादक विदेशी पुरस्कार झटकने के फेर में भारत माता तथा उसके सपूतों का घोर अपमान कर अपनी असली औकात दिखा रहे हैं।

Thursday, November 19, 2020

ऐसा भी, खोना-पाना!

अपने अखबार के कार्यालय से घर लौटते समय छापरू चौक पर स्थित एक दवाई की दुकान पर लगी ग्राहकों की भीड अक्सर मेरा ध्यान खींच लेती है। इस दवाई की दुकान की तरह नागपुर शहर में चार दवाई दुकानें और भी हैं, जिनका मालिक एक ही शख्स था, जिसने बीते वर्ष आत्महत्या कर ली। जरीपटका के निवासी इस व्यापारी की खुदकुशी की खबर मैंने अखबारों में ही पढी थी। लगभग तीस लाख की आबादी वाले शहर नागपुर में अक्सर आत्महत्याएं होती ही रहती हैं, लेकिन इस आत्महत्या ने मुझे काफी विचलित कर सोचने को मजबूर कर दिया था। अखबार में छपी फिल्मी हीरो-सी तस्वीर मेरे मन-मस्तिष्क में बैठ-सी गई थी। उसकी उम्र पचास के आसपास थी। बहुत महत्वाकांक्षी था। चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते करोडों में खेलने लगा था। अपने व्यापार को अपार ऊंचाइयां प्रदान करने की अभिलाषा रखने वाले इस शख्स को किसी ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए उकसाया तो वह फिल्में बनाने लगा। उसने खुद को पर्दे पर देखने की तमन्ना भी पूरी कर ली, लेकिन कोई भी फिल्म नहीं चली।
फिल्मों और फिल्मी सितारो की चकाचौंध में उसका ध्यान कुछ ऐसा भटका कि अपने चलते कारोबार को देखने की उसके पास फुर्सत नहीं रही। फिल्म निर्माण के लिए साहूकारों से करोडों की रकम भारी ब्याज पर लेने की नौबत ने उसकी सुख-शांति छीन ली। दवाओं की बिक्री का पैसा भी फिल्मों की भेंट चढने से दुकानें खाली होती चली गर्इं। ज्यों-ज्यों कर्जा बढता गया, तनाव उसका दिन-रात का साथी बनता चला गया। इस चक्कर में नशा करना रोजमर्रा की बात हो गई। शराब तो वह पहले से पीता था। अब नींद को आमंत्रित करने के लिए किस्म-किस्म की महंगी ड्रग भी लेने लगा। घर का माहौल भी अशांत हो गया। दिन-रात नशे में धुत रहने वाले कायर नशेडी का पत्नी पर हाथ उठने लगा। पत्नी की जब बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो गई तो वह बच्चों के साथ अलग रहने चली गई।
किसी जमाने में छाती तानकर चलने वाला लालची रईस लेनदारों से मुंह छिपाते-छिपाते इस कदर शर्मसार, भयभीत और परेशान हो गया कि एक रात वह फांसी के फंदे पर झूल गया और अखबारों और न्यूज चैनलों की सनसनीखेज खबर बन गया। उसे जानने वालों को जब उसकी खुदकुशी की खबर मिली तो उनका कहना था कि यह तो होना ही था। सभी का अनुमान था कि अब उसकी सभी दुकानों पर ताले लग जायेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो डरपोक, सुविधाभोगी तो हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से चला गया, लेकिन उसकी दुकानों के शटर एक दिन भी नहीं गिरे।
लगभग सात-आठ महीने के बाद छापरू चौक की चिरपरिचित दुकान में मैंने जबरदस्त तब्दीली देखी तो देखता ही रह गया। बाजू की दुकान को भी उससे मिला दिया गया था। अब वह एक नहीं दो शटर वाली दुकान है, जहां पर हर समय खरीददारों की भीड लगी रहती है। इसके साथ ही उसकी अन्य दुकानों का भी जो विस्तार तथा कायाकल्प हुआ है वह किसी चमत्कार से कम नहीं। ऐसा भी नहीं, कि जब वह जीवित था तब इन दवाई की दुकानों पर ग्राहकों का अभाव रहता था। उसकी अच्छी-खासी कमायी हो रही थी, लेकिन उसके ध्यान के भटकने के कारण धीरे-धीरे कंगाली छाने लगी थी। ग्राहक आते थे, लेकिन दवाएं नहीं मिलने के कारण दूसरी दुकान का रूख करने लगे थे।
सच तो यह है कि समय किसी की परवाह नहीं करता। नागपुर शहर में एक इंसान सडक पर स्थित एक होटल में कप-प्लेट धोने को मजबूर है। लगभग पांच वर्ष पूर्व वह खुद का आइसक्रीम पार्लर चलाता था और पांच-सात नौकर उसके निर्देशों और आदेशों का पालन करते थे। कल तक वह आज़ाद था और आज वह गुलामों जैसी ज़िन्दगी जी रहा है। अपनी बर्बादी की वजह वह खुद है। उसका आइसक्रीम पार्लर जोर-शोर से चलता देख वर्ष २०१४ में किसी ने उसके कान में मंत्र फूंका कि यह किस छोटे से धंधे में अपनी उम्र गला रहे हो। चलो मैं तुम्हें नंबर दो का ऐसा सस्ता सोना दिलाता हूं, जिससे तुम रातों-रात करोडपति बन जाओगे। चमकते सोने के झांसे में उसने रातों-रात अपने पार्लर को मिट्टी के मोल बेचने के साथ-साथ अपने करीबी रिश्तेदारों, यार-दोस्तों से चालीस-पचास लाख जुटाये और सोने के सौदागरों के साथ मुंबई जा पहुंचा। सोना बेचने वाले गिरोह के लोगों ने सोने का वजन कराकर उसे सौंप दिया। मुंबई से लौटते समय खाकी वर्दीधारियों ने उसे तस्करी के आरोप में दबोच लिया। उसके तो हाथ-पांव फूल गये। उनको भी रिश्वत देनी पडी। बाद में पता चला कि यह तो उनकी 'गेम प्लान' का हिस्सा था। पूरी तरह से बरबाद होने के गम में उसकी पागलों जैसी हालत हो गयी। किसी नये-धंधे के लिए उसके पास एक कौडी भी नहीं बची। उसने अपनी पहचान वालों के समक्ष फिर से हाथ फैलाये, लेकिन कोई भी उसे कर्ज या उधार देने को तैयार नहीं हुआ। ऐसे में बस एक ही रास्ता जो उसे नज़र आया, वह आज सबके सामने है...।
भावनगर के महुआ तहसील के रहने वाले भानू भाई को किसी मामले को लेकर दस साल की जेल हो गई। तब उनकी उम्र पचास वर्ष थी। सज़ा होने पर मातम मनाने और रोने-गाने की बजाय एमबीबीएस कर चुके भानू भाई ने जेल में ही पढाई-लिखायी की और ३१ डिग्रियां हासिल कर देश और दुनिया में अपना सिक्का जमाया। जब वे जेल से बाहर आए तो उन्हें बडे आदर-सम्मान के साथ न सिर्फ सरकारी नौकरी मिली बल्कि उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस, एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड, यूनिक वल्र्ड रिकॉर्ड, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड, वल्र्ड रिकॉर्ड इंडिया और यूनिवर्सल रिकॉर्ड फोरम तक में दर्ज हो गया। सरकारी नौकरी करते हुए कर्मवीर भानू भाई ने पिछले पांच वर्षों में अब २३ और डिग्रियां हासिल कर ली हैं। यानी अब तक वे ५४ डिग्रियां ले चुके हैं...!

Thursday, November 12, 2020

एक और कसम

"तुम्हारा तो हर हाल में इस दलदल से दूर रहने का वादा था?"
"क्या करती अपने बू‹ढे मां-बापूजी और छोटी बहन को चुपचाप मौत का निवाला बनते देखती रह जाती...!"
"इन बदनाम पगडंडियों पर फिसल-फिसल कर चलने के अलावा और भी तो रास्ते हैं, जिन पर चलने से तुम्हारा मान-सम्मान बना रहता। तुमने तो मेरे भरोसे के कत्ल के साथ-साथ अपना भविष्य भी चौपट करने की भूल कर दी!"
"आदरणीय पत्रकार महोदय, यह जीवन भी बडा अजीब है। कब किसके साथ क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। जिस तरह से कोरोना ने करो‹डों लोगों को तबाह कर दिया। लाखों की मौत हो गयी। उसकी किसी ने कभी कल्पना की थी? मैं तो लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर पढाई-लिखायी में लीन थी। बाबूजी कभी-कभार जिद करके कमाने-धमाने के लिए घर से बाहर चले जाते थे। इधर-उधर से थोडी-बहुत सहायता भी मिल रही थी, लेकिन अचानक एक दिन मां और बाबूजी को खांसी, जुकाम और बुखार ने जकड लिया। कोविड-१९ का टेस्ट करवाया तो पॉजिटिव निकलने पर डर के मारे हम सबके हाथ-पांव फूल गये। हर सुख-दु:ख में साथ देने का आश्वासन देने वाले रिश्तेदारों तथा पडोसियों को जैसे ही दोनों के कोरोना संक्रमित होने की खबर लगी तो सहायता का हाथ बढाना तो दूर सबने हमारे घर के आसपास फटकने से भी तौबा कर ली। दोनों को अस्पताल में भर्ती कराने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। पहले तो डॉक्टर आनाकानी करते रहे, लेकिन जब मैंने उन्हें पूरी तरह से यकीन दिलाया कि जो भी फीस होगी पांच-सात दिन में जमा करा दूंगी। तब कहीं जाकर उन्होंने अपने हाथ-पैर चलाने प्रारंभ किये। पांच हजार रुपये मैंने एडवांस भी जमा करवा दिये।
दूसरे कोरोना मरीजों के परिजनों से यह पता चल गया था कि कम-अज़-कम पचास-साठ हजार रुपये तो लगेंगे ही। डॉक्टरों के लिए कमायी का यह सुनहरा मौका है। उन्हें अपनी मजबूरी बताते हुए लाख रोते-गाते रहो, लेकिन वे किसी पर भी रहम नहीं करते। मेरे पास तो सोने-चांदी के कोई जेवर भी नहीं थे, जिन्हें साहूकार को बेचकर अस्पताल की फीस दे पाती। मेरे पढने-लिखने के इंतजाम के लिए घर पहले ही गिरवी रखा जा चुका था। मेरे पास एक अपना जिस्म ही था, लेकिन लॉकडाउन में ग्राहक ढूंढना आसान नहीं था। हां, मुझे यह जरूर पता था कि हमारे समुदाय की लडकियां, औरतें हमेशा की तरह इन दिनों भी हाइवे से गुजरने वाले ट्रकों के ड्राइवरों की वासना पूर्ति कर घर परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का प्रबंध कर रही हैं, लेकिन मेरे सामने तो इलाज के लिए मोटी रकम के जुगा‹ड की घोर समस्या थी। काफी सोच-विचार करने के पश्चात अंतत: रात को मैं हाइवे पर स्थित उस कुख्यात ढाबे पर जा पहुंची, जहां से कभी मां ने वेश्यावृति की शुरुआत की थी। अपनी पूरी जवानी इस बदनाम धंधे में कुर्बान कर देने वाली मां ने कसम खायी थी कि अपनी बेटियों को इस नर्क में कभी नहीं जाने देगी, लेकिन...। ढाबे के मालिक को जब मैंने अपनी समस्या से अवगत कराया तो उसे मुझ पर बडा रहम आया। उसने फौरन कुछ अनजान चेहरों से मिलवा दिया।
जिस देह व्यापार से मुझे नफरत थी उसी ने चार दिन में मेरी पहाड-सी समस्या का समाधान कर दिया। दो दिन तक दर्द से तडपती रही। मां-बाबूजी स्वस्थ होकर घर आ गये। मां को जब मेरे बिकने की हकीकत पता चली तो वह घण्टों रोती रही। तसल्ली देने के लिए मैंने ही उन्हें समझाया और याद दिलाया कि हमारा बांछडा, बेड़िया तथा सांसी समुदाय पेट पालने के लिए सदियों से ही देह व्यवसाय करता चला आ रहा है। दूसरों के यहां जहां बेटों के जन्मने पर खुशियां मनायी जाती हैं, हमारे यहां तो बेटी का होना शुभ माना जाता है। खूब ढोल-नगाडे बजाये और गीत-गाने गाये जाते हैं। कई दिनों तक जश्न का जोश इस उमंग की तरंग में डूबा रहता है कि रोजगार में इजाफा करने के लिए घर में एक और नारी देह का आगमन हुआ है।
फिर अब तो हमारे समुदाय के लोगों की धन की भूख इस कदर बढ गयी है कि दूसरे समाज की लडकियों को भी खरीदकर अपने परंपरागत पेशे में खपाया जाने लगा है। बडे गर्व के साथ मासूम बच्चियों को जिस्मफरोशी में धकेलने वाले हमारे समुदाय के लोगों को मेहनत-मजदूरी करने में लज्जा आती है। बहू-बेटियों को बेचकर पेट भरने वाले लोगों की भीड में अपवाद स्वरूप मेरे मां-बाबूजी जैसे लोग भी हैं, जो बेटियों को बाजार की हवा नहीं लगने देना चाहते, लेकिन कोई न कोई मजबूरी, उनके सपनों का खून कर देती है। सरकार ने भी घोषणाएं और दावे तो बहुत किए, करोडों का फंड देने की घोषणा भी की, लेकिन हमारा समुदाय वहीं का वही है। यह सरकारी धन पता नहीं किनके पास जाता है। हम तक आया होता तो किंचित तो सुधार के लक्षण नजर आते! सरकार के साथ-साथ मेरी नाराज़गी और शिकायत तो आपकी पत्रकार बिरादरी से भी है, जो हमारे समुदाय की औरतों, लडकियों और बच्चियों के प्रति दिखावटी सहानुभूति दर्शाते हैं। हमारे बारे में जो खबरें तथा लेख लिखे, छापे जाते हैं वे निमंत्रित करते आकर्षक विज्ञापन ज्यादा लगते हैं, उन्हीं को पढकर पता नहीं कहां-कहां से लोग हमारे ठिकानों तक दौडे चले आते हैं। उन्हें हमारी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और बदहाली तो नहीं दिखती, नारी देह जरूर दिखती है। हर किसी ने यह मान लिया है कि उसे विधाता ने धरती पर पुरुषों की वासना की आंधी को शांत करने के लिए ही भेजा है।"
"लेकिन अब तो तुम्हारे माता-पिता बीमारी से मुक्त हो चुके हैं। जो हुआ उसे भूल जाओ। अपनी पढाई-लिखाई की तरफ ध्यान दो। अब बस यही सोचकर खुद को तसल्ली दो कि कोई बुरा सपना देखा था, जिसने कई कटु अनुभवों से साक्षात्कार कराकर तुम्हारी आंखें खोल दीं। भविष्य में तुम्हें अपने समुदाय में बदलाव लाने के लक्ष्य की पूर्ति के लिए बहुत संभल-संभल कर चलना है।"
"कौन सी दुनिया में रह रहे हैं पत्रकार महोदय! अब आपको वो सच भी बताये देती हूं, जिसे मैंने आपसे छिपाये रखने की सोची थी। मां-बाबूजी को कोरोना से मुक्त होने के बाद भी अस्पताल से छुट्टी नहीं दी जा रही थी। लालची डॉक्टरों की जिद थी जब तक बाकी के और चालीस हजार रुपये नहीं भरे जाएंगे तब तक उन्हें उनकी कैद में रहना होगा। जोरदार तमाशा-सा खडा कर दिया गया था। पचास हजार तो मैं दे चुकी थी। बाकी की फीस को चुकाने के लिए अब मुझे कई हफ्तों से देहभोगी डॉक्टरों के बिस्तर पर बिछना पड रहा है। दोनों डॉक्टर तो अपनी मनमानी करते ही हैं, अपने दोस्तों को भी बुला लेते हैं। इसे मैं उनकी भलमानस कहूं या कुछ और... रात भर मेरी देह के साथ खिलवाड करने के पश्चात कभी-कभार पांच-सात हजार की मेरी वेश्यावृत्ति की फीस देना नहीं भूलते। उसी से मां-बाबू जी की दवाई, छोटी बहन की पढाई और घर का चूल्हा जल रहा है।"
"देखो, अब कोरोना की बीमारी का प्रकोप काफी कम हो चुका है। तुम अपनी इस भयावह दुनिया से बाहर निकलने की ठान लोगी तो सब ठीक हो जाएगा। किसी बडे सुरक्षित शहर में रहने और पढने का पूरा प्रबंध मेरे जिम्मे रहा।"
"क्या पत्रकार जी! आपको अभी भी मैं वो बच्ची लग रही हूं, जिससे आप सात साल पहले मिले थे। अब पूरे सत्रह साल की हो गई हूं। यहां की और वहां की दुनिया की सच्चाई मेरे से छिपी नहीं है। हर जगह वहशी दरिंदे भरे पडे हैं। अखबार में आज सुबह ही मैंने यह खबर पढी है,  "पुणे के निकट स्थित एक गांव में बीती रात शौच करने के लिए निकली एक महिला को किसी वहशी इंसान ने दबोच लिया। जब महिला के प्रतिरोध के कारण वह बलात्कार नहीं कर पाया तो उसने उसकी आंख ही निकाल ली...।"
"ऐसी वारदातें तो अब अपने देश में रोजमर्रा का खेल हैं, लेकिन तुमने जो किया, उससे मेरा दिल टूट गया है।"
"आप चिन्ता न करें। एक कसम टूट गई तो उसे जाने दें। मेरा एक बार फिर से वादा है कि अपनी छोटी बहन को कभी भी नहीं बहकने दूंगी। उसे इतना पढाऊंगी-लिखाऊंगी और जगाऊंगी कि वह अपनी सारी उम्र आपके सपने को साकार करने में लगा देगी। वो कसम तो टूट गई, लेकिन इस कसम को अपने जीते-जी तो कभी भी टूटने और बिखरने नहीं दूंगी।"
१५ अगस्त १९४७ के दिन जन्मे पत्रकार, स्वतंत्र कुमार ने जब से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा तभी से मध्यप्रदेश के मंदसोर जिले में महिलाओं के जागरण और उत्थान में लगे हैं। उन्हें कुछ लडकियों को देह धंधे के कीचड से बाहर निकालने में सफलता भी मिली है। उनका एकमात्र लक्ष्य और हार्दिक तमन्ना है कि कोई भी लडकी बिकने को मजबूर न हो।

Saturday, November 7, 2020

वो भी और यह भी

चित्र १ - हर समझदार इंसान अपनी पसंद के लोगों से जुडना पसंद करता है। उसे उनसे जुडकर और मिलकर हार्दिक प्रसन्नता होती है, सुकून भी मिलता है, जिनकी अभिरूचि उसके जैसी होती है। धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को अगर अपने जैसे सत्संगी मिल जाएं तो उनके लिए इससे बडी उपलब्धि कोई और हो ही नहीं सकती। ललितपुर की २५ वर्षीय कमलेश, कृपालु महाराज की परम भक्त है। कृपालु महाराज के सतसंग और प्रवचनों में लीन रहने में उसे अपार सुख मिलता था। फेसबुक पर भी उसके जितने मित्र थे, सभी धार्मिक और सात्विक प्रवृत्ति के थे। इसी तारतम्य में विदिशा निवासी चंद्रजीत ने फेसबुक पर माधव ठाकुर के नाम से फर्जी आईडी बनाकर खुद को कृपालु महाराज का अनन्य भक्त बताते हुए कमलेश से मित्रता कर ली। कुछ दिनों के बाद उन दोनों में फोन पर भी बातचीत होने लगी। चंद्रजीत ने कमलेश पर अपनी लच्छेदार बातों का ऐसा जादू चलाया कि दोनों का मिलना-मिलाना भी शुरू हो गया। फिर दोनों ने शादी भी कर ली। शादी के कुछ दिनों के बाद ही वह कमलेश को अपना असली रंग दिखाने लगा। उसने अपनी पत्नी कमलेश के अश्लील वीडियो बनाकर वायरल कर दिए। इतना ही नहीं यह शैतान धार्मिक सोच-विचार वाली पत्नी से जबरन मोबाइल एप पर अश्लील वीडियो कॉलिंग करवाकर धन कमाने लगा। कहा नहीं मानने पर वह हैवानों की तरह उसे मारता-पीटता और लहुलूहान कर देता। इतना भयावह धोखा खाने वाली कमलेश ने हिंसक, वहशी, धोखेबाज के खिलाफ थाने पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज करवायी तो भेद खुला कि दोस्ती, शादी और धोखा देना तो उसका धंधा है। महज दसवीं तक पढा यह धूर्त पहले से शादीशुदा है। कमलेश ने बताया कि वह इस शातिर के सम्मोहन के जाल में इस कदर फंस गई थी कि उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। तभी तो वह पचास हजार रुपये नगद तथा १५ लाख के जेवर समेट कर उसके साथ भाग खडी हुई और भोपाल के आर्य समाज मंदिर में फौरन शादी तक कर ली।
चित्र २ - बरेली का बिलाल मंदिर जाता था। माथे पर चंदन का टीका लगाता था। उसके हाथ में कलावा भी बंधा रहता था। आठवीं में फेल होने के बाद उसने पढाई-लिखायी से नाता तोड लिया था, लेकिन फिर भी वह खुद को दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र बताता था। वह जिस अंदाज के साथ चलता-फिरता, उठता, बैठता, बतियाता था उससे लोग उसे काफी पढा-लिखा और हाईक्लास सोसाइटी से जुडा मान लेते थे। लडकियां भी उसके आकर्षक तडक-भडक वाले दिखावे के जाल से बच नहीं पाती थीं। दो साल पहले जिस ल‹डकी ने उसके खिलाफ छेडछाड की शिकायत की थी। मामला पुलिस थाने तक भी गया था। वही लडकी जब घर छोडकर बिलाल के साथ भाग खडी हुई तो हंगामा मच गया। बीएससी कर रही लडकी का आठवीं फेल संदिग्ध चरित्रवाले लडके के साथ फुर्र हो जाना हर किसी को चौंका गया। विभिन्न हिन्दू संगठन आग-बबूला होकर सडक पर उतर आये। थाने में तोडफोड कर दी। पुलिस को भीड पर लाठियां बरसानी पडीं। राजस्थान में अजमेर दरगाह इलाके के एक होटल से पुलिस ने दोनों को जब दबोचा तो छात्रा के नाम से दो फर्जी आधार कार्ड बरामद हुए। एक पर माहिरा तो दूसरे पर राखी नाम दर्ज था। लाखों रुपये भी मिले, जिन्हें छात्रा घर से चुराकर भागी थी। खुद को खाकी वर्दीवालों से घिरा देख छात्रा भडकते हुए बोली, "हमने कोई गुनाह नहीं किया है। उसके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती भी नहीं हुई। वह अपने प्रेमी के साथ निकाह करना चाहती है। वह १९ साल की बालिग है।" उसने घर जाने से भी इंकार कर दिया। बिलाल को चोरी-धोखाधडी के आरोप में जेल तो लडकी को नारी निकेतन भेज दिया गया।
चित्र ३ - फरीदाबाद में कॉलेज से लौटती निकिता की गोली मारकर हत्या कर दी गई। निकिता का कसूर इतना ही था कि उसे अपने धर्म से अटूट प्यार था। वह तौसीफ के साथ जीवनभर के बंधन में बंधने को तैयार नहीं थी। उनकी जब पहली मुलाकात हुई थी, तब हत्यारे ने अपना नाम राहुल बताया था। उसके इस छल-कपट भरे झूठ ने निकिता को सचेत कर दिया था, लेकिन तौसीफ धर्म बदलकर शादी के लिए उसके पीछे पडा रहा। निकिता का इंकार उसे शूल की तरह चुभा और उसने उसकी हत्या कर दी। यह कैसा प्यार था? सच्चे प्रेमी कभी ऐसे नहीं होते। वक्त आने पर जान दे देते हैं, भूलकर भी कभी मौत नहीं देते! २०२० के अक्टुबर महीने में निकिता की नृशंस हत्या करने वाले तौसीफ ने २०१८ में भी निकिता के साथ हैवानी हरकत की थी, लेकिन कुत्ती राजनीति यहां भी अपने हरामीपने से बाज नहीं आयी। हरियाणा की राजनीति में तौसीफ के परिवार का दखल और दबदबा रहा है। पुलिस भी राजनेताओं के इशारे पर नाचती आयी है। दोषी तो निकिता के परिजन भी हैं। तब यदि उन्होंने बदनामी के भय तथा नेतागिरी करने वाले दबंगों के खौफ में आकर समझौता नहीं किया होता तो तौसीफ की उद्दंडता, बदनीयती और कातिल हौसलों की उडान एक स्वाभिमानी लडकी पर धर्म बदलकर शादी करने का आतंकी दबाव बनाने का साहस ही नहीं कर पाती।
चित्र ४ - उम्रदराज़ पत्नी हिन्दू है, पति मुसलमान। ४५ साल पहले दोनों विवाह सूत्र में बंधे थे। किसी ने अपना धर्म नहीं बदला। दोनों में आज भी उतना प्यार है, जितना तब था। दोनों का एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर सम्मान भी है और अटूट विश्वास भी। हिन्दू पत्नी रोजा रखती है, तो मुस्लिम पति गणपति की आरती करते हैं। दोनों की बडी मज़े से कट रही है। अखबारनवीसी करने वाली आनम खान २००८ में कॉलेज की पढाई के दौरान सुकांत शुक्ला के आकर्षण में बंधीं। कालांतर में दोनों लिव इन में रहने लगे। दोनों के परिवार वाले खुले दिल-दिमाग के थे। २०१४ में बिना धर्म बदले दोनों ने शादी कर ली। शादी के छह साल बाद भी दोनों खुश हैं। उनका धर्म भले ही अलग है, लेकिन दोनों के परिवार एक हैं। हर खुशी और गम के मौके पर एक साथ नज़र आते हैं। लगता ही नहीं कि वे अलग-अलग धर्म से ताल्लुक रखते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कबीर और वीना की शादी १९ साल पहले हुई थी। दीपक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से हैं, वीना प्रगतिशील मुस्लिम परिवार से। दोनों की कॉलेज में पढाई के दौरान दोस्ती हुई। दोनों के विचार आपस में मिलते-जुलते थे। सामाजिक कार्यों में अभिरूचि थी। प्रगाढ दोस्ती के प्यार में तब्दील होने के बाद जब शादी करने की ठानी तो उन्होंने भी स्पेशल मैरिज एक्ट का रास्ता चुना। आज उनका एक बेटा है, जिसका नाम है सूफी सिद्धार्थ कबीर। उसकी कोई जाति या धर्म नहीं है। उसकी सोच भी अपने माता-पिता जैसी ही है। प्यार धर्म को देखकर नहीं होता। यह तो बस हो जाता है। इस पर किसी का बस नहीं। फिर यह कोई जुर्म भी तो नहीं, जो हंगामा बरपा हो। प्यार मोहबत में जात-पात, अमीरी, गरीबी का भी क्या काम। यह तो दिल के दिल से जुडने की वो पवित्र अवस्था है, जो कुर्बानी देना सिखाती है। एक-दूसरे का ताउम्र साथ देने के वचन की मधुर जंजीरों में बंधे रहने के संकल्प को कभी कमजोर नहीं होने देती। महज शादी के लिए धर्म परिवर्तन, धोखा और लव जेहाद, हैवान और शैतान दिमागों की उपज है। कट्टर हिन्दू परिवार के शैलेंद्र और मुस्लिम नीलिमा जाफरी ने ११ साल की दोस्ती के बाद २०१० में कोर्ट में जाकर शादी तो कर ली, लेकिन दिक्कत उस समय आयी जब उसके यहां बेटी आलिया का जन्म हुआ। उन्हें अस्पताल में बेटी का बर्थ सर्टिफिकेट पाने के लिए एक फार्म भरना था। जिसमें धर्म वाले कॉलम में अपने धर्म का नाम लिखना आवश्यक था। शैलेंद्र ने यह काम पत्नी नीलिमा के जिम्मे छोड दिया। नीलिमा ने फार्म लेकर उसमें लिखा- हिन्दू। दोनों की आज दो बेटियां हैं आलिया और आभार्या। दोनों स्कूल में प्रार्थना के सेशन में गायत्री मंत्र का पाठ करती है। यहीं नहीं लखनऊ में मोहर्रम पर पूरी शिद्दत से शिरकत करती हैं। दोनों बेटियां किसी भी धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र हैं।
अलग धर्म के युवक-युवती में प्यार होना कोई नयी बात नहीं। इतिहास में एक से एक उदाहरण भरे पडे हैं। हमारे संविधान ने भी तो प्रेमियों के लिए दरवाजें खोल रखे हैं। स्पेशल मैरिज एक्ट जिसे १९५४ में लाया गया, वह अलग-अलग धर्मों को मानने वालों को विवाह सूत्र में बंधने का अधिकार देता है, लेकिन अधिकांश लोगों को इस संविधान के बारे में पता ही नहीं है। इसलिए तरह-तरह के तकलीफदायक मंजर सामने आ रहे हैं और डरा रहे हैं।

Thursday, October 29, 2020

नारे... नारे... कितने नारे?

बड़ा पुराना रोग है। छूटे तो कैसे छूटे! पुरुष होने का अहंकार बचपन से उनका सच्चा साथी बना हुआ है। ऐसे में उसे कैसे त्याग दें! यह उनसे नहीं होगा। चाहे लोग कितना रोकते-टोकते समझाते रहें। औरतों की तौहीन करना, उन्हें बार-बार नीचा दिखाना इनकी फितरत है। यह देश के नेता हैं। नारी को कल भी अपने पैर की जूती समझते थे और आज भी तिरस्कार करने से बाज नहीं आते। मतदाता भी इनके लिए इंसान नहीं सामान हैं, जिसका प्रयोग कर फेंक देते हैं, भूल जाते हैं। भोले-भाले अधिकांश मतदाता जिन्हें अपना कीमती वोट देकर सांसद, विधायक बनाते हैं, उन्हें फरिश्तों जैसा सम्मान भी देते हैं। यही फरिश्ते जब अपनी असली औकात दिखाते हैं, तो हंगामा बरपा हो जाता है।
रात के दस बजे वह खानदानी युवा नेता, सांसद क्या कर रहा था, कैसी हालत में था, कौन सी खिचड़ी पका रहा था इसकी परवाह किये बिना अपनी मुसीबत से परेशान एक युवक ने उनसे बड़े हक के साथ मोबाइल पर बात की। उसने अपने क्षेत्र के सांसद को अपनी समस्या से अवगत कराया, लेकिन उधर से फटकार और दुत्कार मिली। 'मैं तुम्हारे बाप का नौकर नहीं। तुमने भले ही मुझे वोट दिया होगा, लेकिन खरीद तो नहीं लिया है। मेरी आजादी छीनने की गुस्ताखी करने का किसी को अधिकार नहीं।'  दरअसल, मदद के बदले अपने सांसद से डांट खाने वाले युवक की दुकान से बीस बोतल देशी शराब पकड़ी गई थी। जब उसने उन्हें फोन लगाया तब वह पुलिस की गिरफ्त में था। उसके मन में आया होगा कि पुलिस वालों के सामने अपने सांसद से बात कर धौंस जमाने में कामयाब हो जायेगा। पुलिस वाले उसे वैसे ही छोड़ देंगे, जैसे विधायकों, सांसदों तथा मंत्रियों के पाले-पोसे अपराधियों को ये लोग बड़ी इज्जत के साथ विदा कर देते हैं।
वैसे भी कोई ऐरा-गैरा इन 'ऊंचे लोगों' को फोन लगाने की हिमाकत नहीं करता। जिन्हें इनकी मित्र-मंडली की कारस्तानियों का पता होता है वही ऐसा हौसला दिखाता है। नेताओं की मित्र मंडली में शरीफों के साथ-साथ कुख्यात भी शामिल होते हैं, जिनके बचाव के लिए अक्सर पुलिस थानों के लैंडलाइन तथा मोबाइल फोन बजते रहते हैं। अगर यह युवक भी सांसद का करीबी होता तो इस कदर बेइज्ज़त नहीं किया जाता। दरअसल, वह एक आम मतदाता है, जिसने खुद को खास समझने की महाभूल की और सहयोग के बदले शाब्दिक जूता खाया। यह हिंसा तो अपने देश के नेताओं के खून में चौबीस घण्टे छलांगे लगाती रहती है, जिसकी वजह से सदियों पहले 'महाभारत' हुई थी। ७२ साल का एक पका-पकाया नेता अपने चुनावी भाषण के दौरान मर्यादा का गला घोटते हुए महिला विधायक को 'आइटम' करार देकर तालियां बटोरता है। खुद को 'आइटम' कहे जाने पर वह महिला फूट-फूटकर रोते हुए कहती है, यह उम्रदराज राजनेता पहले भी मेरे साथ बदसलूकी करता रहा है। मैं जब भी इससे मिली इसने कभी इज्जत नहीं दी। दूसरी महिलाएं तो इसकी बगल की कुर्सी पर बैठती थीं, लेकिन मेरे लिए तो इसके सामने कुर्सी पर बैठने की ही मनाही थी। दलित नेत्री की पार्टी के नेता और कार्यकर्ता शोर मचाते हुए सड़क पर उतर आते हैं। अनशन-वनशन करते हुए दहाड़ते हैं कि यह तो भारतीय दलित महिला का घोर अपमान है। दलितों के साथ होने वाला शर्मनाक दूजाभाव है। जिसको 'आइटम' कहकर अपमानित किया गया है वह कोई अनपढ़-गंवार नारी नहीं, पढ़ी-लिखी साहित्यप्रेमी सुलझी हुई महिला हैं।
दरअसल, महिला विरोधी मानसिकता वाले अधिकांश पुरुष नेता मानते हैं कि जिस तरह से फिल्म को हिट कराने के लिए आइटम गर्ल को नचवाया जाता है वैसे ही राजनीति की दुकान पर ग्राहकों (वोटरों) को खींचने के लिए महिलाओं को आगे लाया जा रहा है। इन महिलाओं में अक्ल-वक्ल तो है नहीं, बस महिला होने का फायदा उठा रही हैं। मतदाता भी इन्हें राजनीति की आइटम मानकर वोट देते हैं और जीतवाते हैं। ऐसी घटिया सोच वाले नेताओं के व्यवहार, दर्द, तिरस्कार और उपेक्षा के दंशों की कटु स्मृतियां सदियों से दलितों, शोषितों के दिल और दिमाग के तहखाने में जमी पड़ी हैं। होना तो यह चाहिए था कि राजनेता इन विषैली यादों को भुलवाने में सहायक होते, लेकिन यह तो जख्मों को कुरेद रहे हैं। बार-बार हरा कर रहे हैं।  
राजेश्वरी सरवण तामिलनाडु में एक ग्राम पंचायत की अध्यक्ष हैं। वे दलित हैं इसलिए उनके साथ जातीय आधार पर भेदभाव किया जा रहा है। गणतंत्र दिवस पर उन्हें राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराने दिया गया। ग्राम पंचायत की बैठकों के दौरान जहां अन्य सदस्य कुर्सी पर विराजते हैं, दलित अध्यक्ष को कुर्सी तक नहीं दी जाती, जमीन पर ही बैठने को विवश किया जाता है। अपमान के दंश से बचने के लिए राजेश्वरी ने स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में भाग ही नहीं लिया। राजेश्वरी के अंदर गुस्सा भरा पड़ा है। रोष तथा पीड़ा भरे स्वर में कहती हैं, 'हमें बार-बार अपमान का विष पीने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि हम दलित हैं, अछूत हैं!'
बिहार के दरभंगा जिले में एक १४ वर्ष की लड़की से बलात्कार के बाद उसकी नृशंस हत्या की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरीं। इस लड़की ने एक बाग से आम चुराया था, नाबालिग को उसी चोरी की मिली यह सज़ा! इस सज़ा में डर छुपा है। देश में तेजी से बढ़ती दलित शक्ति से कई सत्ताखोर घबराये हुए हैं। इसलिए दलित बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं पर अत्याचार कम होने की बजाय बढ़ रहे हैं। अपने आपको महान समझने के भ्रम में जी रहे शातिर राजनेताओं के अंदर की ईर्ष्या, गंदगी, बेहूदगी बाहर आ रही है और वे निरंतर बेनकाब हो रहे हैं। उन्हें सशक्त दलित महिलाओं का राजनीति में आना कतई नहीं सुहा रहा है। दलितों, वंचितों, गरीबों, किसानों की सुध लेने की बजाय देश में जहां-तहां उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। उनके बच्चों के लिए शिक्षा एक सपना है। रहने को घर नहीं, खाने को भोजन नहीं। आजादी के ७४ साल बाद भी घोर अभावों में उनकी जिन्दगी गुज़र रही है। मुफलिसी, जुल्म, अवहेलना, दुत्कार की मार बढ़ती ही चली जा रही है। फिर भी रोज़ खबरें आती हैं कि सरकारें असहायों के विकास के लिए यह कर रही हैं, वो कर रही हैं। हर वर्ग तथा समाज की नारियों को बिना किसी भेदभाव के हर तरह से सशक्त बनाया जा रहा है। बच्चियां पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
सच को मोटे-मोटे परदों और नकाबों में छुपाने और झूठ पर झूठ बोलने की नेताओं की आदत जाती नहीं दिखती। देश के सजग साहित्यकार भेदभाव की पीड़ा भोगते तमाम वंचितों के दर्द को बयां करने से नहीं चूक रहे हैं। जो देश में दिख रहा है, हो रहा है, उसे उजागर करने का धर्म वे पूरी तरह से निभा रहे हैं। देश के जमीन से जुड़े विख्यात साहित्यकार डॉ. इंद्र बहादुर सिंह ने लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व यह पंक्तियां लिखी थीं। आईना दिखाती यह पंक्तियां आज भी कितनी-कितनी सच्ची-सार्थक हैं, इसका पता तो देश का चेहरा देखकर चल जाता है...
"सड़ी-गली ये सारी व्यवस्था अखबारों पर जिन्दा है।
मेरे देश बधाई तुझको, तू नारों पर जिन्दा है।।
बस्ती का एक-एक सूरमां बस्ती छोड़ के भाग गया।
मिल-जुलकर रहने का नारा दिवारों पर जिन्दा है।।
समय तेरी बलिहारी तूने कैसे-कैसे ढोंग रचे।
बुद्धि पर इतराने वाला दरबारों पर जिन्दा है।।"

Thursday, October 22, 2020

वंश, मोक्ष और मुक्ति

खबरें खुश करती हैं। खबरें उदास करती हैं। खबरें आशा तथा उत्साह की राह पर ले जाती हैं। खबरें ही पीड़ा, वेदना तथा घोर निराशा के कगार पर ले जाकर छोड़ देती हैं। यह जानकर बड़ा अच्छा लगा कि बेटे और बेटियों को लेकर काफी लोगों की सोच बदल रही है। अब वो जमाना नहीं रहा, जब बेटियों पर पुत्रमोह भारी पड़ता था। बेटे के नहीं होने पर मायूसी छायी रहती थी। मुझे अपने मामाजी याद आ रहे हैं, जिन्होंने पांच बेटियों के पिता बन जाने के बाद भी खुद को नहीं रोका। यह तो अच्छा हुआ कि पांच बेटियों के बाद उनके यहां बेटे ने जन्म ले लिया। उनकी तो जिद थी कि जब तक बेटा नहीं होगा, उनका प्रयास जारी रहेगा। जिस पंजाब तथा हरियाणा में बेटे की चाहत की जिद में दस-दस बेटियों के जन्मने के बाद भी विराम नहीं लगता था, अब वहां पर भी लोग बदल रहे हैं। उनकी सोच में परिवर्तन दिखायी देने लगा है। एक या दो बेटियों के होने के बाद परिवार नियोजन अपनाया जा रहा है। लड़की के जन्म लेने पर खुशियां मनायी जा रही हैं। जिस तरह से लड़के के पैदा होने पर खुद को सौभाग्यशाली माना जाता था, अब लड़की के आगमन पर भी खुद को खुशनसीब समझने वालों की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। दत्तक लेने के मामले में भी बेटियां बाजी मार रही हैं। वो जमाना और समय लुप्त होने को है, जब अनाथ आश्रमों में लड़के को गोद लेने वाले दंपतियों की कतारें लगती थीं। कोने में दुबकी लड़की की तरफ तो देखा तक नहीं जाता था, लेकिन अब अधिकांश दंपति अपनी गोद में बिटिया की किलकारी की गूंज सुनना चाहते हैं। शहरों में ही नहीं, गांवों में भी बेटे की पैदाइश की जिद में कमी आने के पीछे की वजह है कि लड़कियों का 'कुलदीपकों' से कमतर न होना। लड़कियों के आत्मबल, साहस और जुनून को पिछले कुछ वर्षों में अच्छी तरह से देखा और परखा गया है। अवसर मिलते ही कई लड़कियोें ने उन बुलंदियों को छूकर दिखाया है, जिसके बारे में अधिकांश लोगों की यह राय रहती थी कि वहां तक तो लड़के ही पहुंच सकते हैं। लड़कियों के बस की बात कहां...!
मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में पली-बढ़ी सायली को २५ जनवरी २०२० के दिन देश के महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रीय सम्मान देकर सम्मानित किया। ढेर सारी प्रशंसा भी की। सायली की बचपन से ही कुछ अलग हटकर करने की तमन्ना थी। हालात और परिस्थितियां कतई अनूकुल नहीं थीं फिर भी जिद की पक्की सायली ने हार नहीं मानी। लोग तो उसका मज़ाक उड़ाने से बाज नहीं आते थे कि गरीब परिवार की लड़की होकर ऐसे सपने देख रही हो, जिन्हें पूरा करना अच्छे खासे सम्पन्न लड़कों के बस की बात नहीं। सायली आत्मबल के दमखम में कम नहीं थी। तभी तो उसने पुलिस कमिश्नर बनकर दिखाया और वो वर्दी पहनी, जो कभी उसका सपना थी। कई गौरवशाली पुरस्कारों से सम्मानित युवा आईपीएस सायली अपने अटूट साहस तथा नये-नये प्रयोगों के लिए जानी जाती हैं। जब वे बिहार के पटना साहिब की पुलिस अधीक्षक थीं, तब वहां पर एक बलात्कार हुआ था। मामला काफी संवेदनशील था। गुस्से में बेकाबू हो चुकी भीड़ के उन्मादी तेवर और मारकाट के इरादे भांपने के बाद पुरुष वर्दीधारियों के पसीने छूटने लगे थे। डर कर भागने का विचार भी उनके मन में आया था, लेकिन साहसी सायली ने बड़ी हिम्मत के साथ विपरीत परिस्थितियों में इस चुनौती का सामना कर नारी होने की सार्थकता का जो प्रदर्शन किया, उससे पुरुषों ने भी दांतो तले उंगली दबा ली। इस महिला खाकी वर्दीधारी ने हमला करने पर उतारू हो चुकी हजारों की भीड़ से किंचित भी खौफ न खाते हुए ललकारा और भीड़ की तरफ दौड़ने लगीं। उनका यह आक्रामक रूप देखकर लोग दुम दबाकर इधर-उधर दौड़ने लगे। बॉडीगार्ड भी अपनी निर्भीक अधिकारी के पीछे-पीछे दौड़ रहा था। भीड़ का पीछा करते-करते वे एक छोटी-संकरी-सी गली तक जा पहुचीं। वहां पर डंडे, लाठी तथा विभिन्न हथियारों से लैस असमाजिक तत्वों ने उन्हें घेरने की कोशिश की। उनकी तो उन्हें वहीं खत्म कर देने की प्रबल मंशा थी। तभी संयोग से उस गली से एक सायकल सवार गुजर रहा था, जिससे उन्होंने सायकल मांगी और फिर उस पर बैठकर गुंडई दिखाते बदमाशों के पीछे भागीं। महिला अधिकारी को सायकल से पीछा करते देख गुंडे ठंडे पड़ गये। उनकी हिम्मत जवाब दे गई और एक-एक कर भाग खड़े हुए। उसके बाद पटना साहिब के अशांत क्षेत्र में पूरी तरह से शांति तो स्थापित हुई ही, तमाम कुख्यात असामाजिक तत्व भी उनसे खौफ खाने लगे। आज भी लोग जब उस घटना को याद करते हैं, तो उनकी आंखों के सामने अदम्य साहसी सायली का चेहरा घूमने लगता है। उस दिन यदि उन्होंने पीठ दिखा दी होती तो तय था कि कई पुलिस वाले गुस्सायी भीड़ की हिंसा का शिकार हो जाते। तब रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल थे। उन्होंने इस कर्तव्यपरायण आदर्श नारी की काफी सराहना की थी और एक समारोह में प्रशस्तिपत्र देकर सम्मानित किया था। सायली को पुलिस सेवा में मात्र दस वर्ष ही हुए हैं, लेकिन पुरस्कार तथा सम्मान पाने के मामले में उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भी पीछे छोड़ दिया है। बिहार के अररिया जिले में धाकड़ छवि माने जाने वाले पुलिस अधिकारी भी दुर्दांत अपराधियों के दिमाग को दुरुस्त नहीं कर पाते, लेकिन सायली ने यहां पर भी अपनी कार्यक्षमता की गज़ब की छाप छोड़ी। बोगस मतदान और हिंसक घटनाओं के लिए कुख्यात अररिया में शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव सम्पन्न करवाने का श्रेय भी उन्हें जाता है। यह उनके काम करने के तौर-तरीके तथा निर्भीक तथा अनुशासित छवि का ही प्रतिफल है, कि २०१९ के लोकसभा चुनाव में एक भी बोगस मतदान का केस दर्ज नहीं हुआ और ना ही कहीं कोई हिंसक घटना हुई।
पिछले दिनों ग्वालियर में एक बारह-तेरह साल की लड़की मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की कार के सामने बेखौफ आकर खडी हो गई। मुख्यमंत्री की सुरक्षा में लगे अफसर कुछ कह और समझ पाते उससे पहले मुख्यमंत्री ने उसे अपने पास बुलाया और वजह पूछी। लड़की ने बिना घबराये उन्हें अपनी समस्या बतायी कि मेरी मां को कैंसर हो गया है। यहां के डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये हैं। मुझे आपकी मदद चाहिए। मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। जब मुझे कहीं से पता चला कि आप ग्वालियर आये हैं तो मैंने आप से मिलने का यह रास्ता चुना। आप कहने को तो प्रदेश की हर लड़की के मामा हैं, लेकिन आपके निकट पहुंचना आसान नहीं। ऐसे में आप आम लोगों की समस्याओं से अवगत ही नहीं हो पाते। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को बहादुर लड़की की पूरी मदद करने का निर्देश देने के साथ उसका मोबाइल नंबर भी ले लिया। इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि लड़कियों के मन में अपने माता-पिता और परिजनों के प्रति जो आदर, स्नेह और अपनत्व होता है, उसका आधा हिस्सा भी लड़कों में नहीं होता। बेटियां अपने अभिभावकों के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने के ऐसे-ऐसे उदाहरण पेश कर रही हैं, जिनकी पहले कल्पना तक नहीं की जाती थी। बेटिया अब श्मशान घाट जाने से नहीं घबरातीं। पिता की चिता को मुखाग्नि देने की पहल करने वाली बेटियो ने कई परंपराओं को तोड़ने का साहस दिखाया है। फिर भी जब छोटी-छोटी बच्चियों पर बलात्कार और नृशंस दुराचार की खबरें सुनने-पढने में आती हैं तो बड़ी तकलीफ होती है। यह जानकर भी मन बहुत आहत होता है कि अभी भी कुछ दुष्ट लोग हैं, जो लड़की के जन्म लेने पर मातम मनाते हैं। बेटियां उनके लिए अशुभ तो बेटे सौभाग्यशाली हैं, जो वंश को आगे बढाते हैं। यही लोग ही बेटी के जन्म लेने पर उसे कचरे के ढेर पर या अनाथ आश्रम में छोड़कर निर्ममता तथा दरिंदगी का इतिहास लिखते हैं।
मैंने अपने इस जीवन-काल में बेटियों के एक से बढ़कर एक दुश्मन देखे हैं, लेकिन बदायूं में एक शैतान हैवान ने जो क्रूर अपराध कर्म किया है, वह तो मानवता को शर्माने तथा दिल को रूलाने वाला है। मैंने जब यह खबर पड़ी तो मेरे रोंगटे ही खड़े हो गये। दिल तथा दिमाग को क्षत-विक्षत कर देने वाली इस खबर को मेरे लिए तो ताउम्र भूला पाना मुश्किल होगा- "बेटे की चाहत में कई हैवान देखे, लेकिन ऐसा पहली बार देखा..., जिसने यह पता लगाने के लिए पत्नी का पेट ही फाड़ डाला कि उसके गर्भ में बेटा है या बेटी। बदायूं शहर के नेकपुर मोहल्ले में गली नंबर तीन में रहने वाले पन्नालाल पांच बेटियों का पिता है। जब उसकी पत्नी छठवीं बार गर्भवती हुई तो उसे फिर से बेटी के होने का भय सताने लगा। पन्नालाल ठीक-ठाक कमाता था। उसकी पत्नी ने भी परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार और उठाव लाने के लिए घर पर ही छोटी-सी किराना दुकान खोल ली थी। दुकान वही संभालती थी। उसे बेटियों के पैदा होने का कोई गम नहीं था। उसकी तो यही कोशिश और दिली तमन्ना थी कि वे उन्हें पढ़ाए-लिखाए और अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाए। लेकिन पन्नालाल वंश के आगे न बढने की चिन्ता में पगलाया था। वह प्रतिदिन रात को शराब पीता और फिर अनीता को बेटा पैदा न करने की सज़ा देने लगता। यह मारपीट उसने तब से प्रारंभ कर दी थी, जब से उसके यहां दूसरी बेटी ने जन्म लिया था। उसे बेटियों से सख्त नफरत थी। उन्हें वह अपने मोक्ष के मार्ग की बाधा मानता था। जब पत्नी आठ महीने की गर्भवती हुई तो उसके दिमाग में भूचाल आने लगा। रातों की नींद उ‹ड गई। एक रात उसने जमकर शराब पी और हमेशा की तरह पत्नी से मारपीट करने लगा। पत्नी ने दिलासा देने के अंदाज में समझाया कि ईश्वर पर भरोसा रखो। सब ठीक होगा, लेकिन उस बेसब्र शैतान ने चीखते हुए कहा कि, मैं प्रसूति के समय का इंतजार नहीं कर सकता। मैं तो आज ही सबकुछ जानकर रहूंगा। नशे में धुत हैवान ने हंसिया से पत्नी का पेट फाड़ डाला। लहुलूहान पत्नी की पेट की आंतें बाहर निकल गईं। परिवार व पास-पड़ोस में कोहराम मच गया। अस्पताल में अनीता का ऑपरेशन कर बच्चे को बाहर निकाला गया। वह बेटी नहीं, बेटा था...। जिसकी वंश और मोक्ष प्रेमी दरिंदे पिता ने ही हत्या कर दी...।"

Thursday, October 15, 2020

और कितनी आज़ादी चाहिए?

एक हादसे में घायल बीस साल के युवक को अस्पताल वालों ने मृत घोषित कर दिया था। घर वाले दफनाने की तैयारी में थे। कब्र खोदी जा चुकी थी। इसी दौरान किसी परिजन को उसके शरीर में हरकत दिखाई दी। उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टरों ने बताया कि वह जिन्दा है। परिवार ने बताया कि घायल होने के बाद युवक को जिस प्रायवेट अस्पताल में भर्ती कराया गया था, वहां इलाज के दौरान उन्होंने सात लाख रुपये जमा करा दिये थे। चार-पांच दिन बाद अस्पताल प्रशासन ने और रकम की मांग की। हमारे पास देने को कुछ नहीं था। कुछ ही घण्टों के बाद उनके बेहोश बेटे को मृत घोषित कर दिया गया...।
एक सत्रह साल की इस देश की बेटी जेल में बंद अपने पिता से मिलने पहुंची थी। जेल के गेट के पास उसे दो युवक मिले, जिन्होंने उसके पिता को जेल से छुडाने का झांसा देकर उस पर बलात्कार किया और अश्लील वीडियो भी बना ली...। यह और इन जैसी पचासों खबरें महज खबरें नहीं हैं, जिन्हें पढ-सुनकर भुला दिया जाए। यह तो आस्था और भरोसे के कत्ल किये जाने की चिन्ताजनक दास्तानें हैं, जिनकी दहशत सतत बनी हुई है। भारत के पुरातन ग्रंथ कहते हैं कि, विश्वास के शीशे का धूमिल होना, दरकना, टूटना-फूटना सबसे ज्यादा चोट तथा पीडा देता है। यह शीशा एक बार जो टूटा तो जुडना मुश्किल। फिर भी अपने निजी फायदे और स्वार्थ के लिए यह अपराध बार-बार किया जा रहा है। अफसोस तो इस बात का भी है कि जिन पर अपराधियों को बेनकाब करने की जिम्मेदारी है, वे ही आज अपराधी की तरह कटघरे में खडे हैं। देश का मीडिया जिस पर कभी नाज़ था, आज तमाशा बनकर रह गया है। उसी के खिलाफ कई-कई शिकायतें हैं। हर तरफ नाराज़गी है। उसे दंडित किये जाने की मांग की जाने लगी है। इसलिए क्योंकि वह अब निष्ठुर सौदागर की तरह काम कर रहा है। अपनी जेब भरने के लिए धोखाधडी पर भी उतर आया है।
करोडों-करोडों रुपये के विज्ञापन हथियाने के लिए टीवी न्यूज चैनल वाले फर्जी लोकप्रियता दिखाकर विज्ञापनदाताओं की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। उन्हे किसी भी तरह से पैसा और दर्शक चाहिए। फर्जी दर्शकों से भी उन्हें परहेज नहीं। इसके लिए भले ही कितना छल-कपट और झूठ क्यों न बोलना पडे। उनकी एक पक्षीय आहत करने वाली खबरों की वजह से लोग अदालतों के दरवाजें खटखटाने लगे हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय को उसे आईना दिखाने के लिए आगे आना पड रहा है। जब कोरोना की महामारी फैल रही थी, तब एकाएक पूरे देश में यह खबर तेज आंधी की तरह फैलायी गयी कि राजधानी दिल्ली के निजामुद्दीन में आयोजित तबलीगी जमात के आयोजन में शामिल हुए मुसलमानों ने कोविड-१९ का संक्रमण देश के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाया है। जहां-जहां जमातियों के कदम पडे वहां-वहां पर कोरोना तूफानी गति से फैला है। पूरे देश में अजीब-सी दहशत छा गई थी। एक तो कोरोना की जानलेवा बीमारी और उस पर यह अनेकों मानव बम! हां अधिकांश न्यूज चैनलों ने ऐसे ही भय का माहौल बना दिया था। घृणा, तनाव और दूरियां बढाने की साजिशी मंशा दर्शाने वाली इस खबर को रबर की तरह खींचने की प्रतिस्पर्धा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। दिल्ली के निजामुद्दीन-मरकज में देश और विदेश के हजारों मुस्लिम बंधु शामिल हुए थे। तबलीगी जमात के इस आयोजन की समाप्ति के बाद उन्हें अपने-अपने स्थायी ठिकानों पर लौटना था, लेकिन इस बीच कोविड-१९ ने अपना शिकंजा तेजी से कसना प्रारंभ कर दिया। विदेश ही नहीं देश की भी हवाई, रेल, बस आदि की सेवाएं बंद हो गईं।
कोरोना काल में आयोजित तबलीगी गतिविधि को लेकर यदि न्यूज चैनलों ने शोर नहीं मचाया होता तो साम्प्रदायिक तनाव, घृणा और समाज को बांटने वाली प्रवृतियों को बल नहीं मिलता। कोविड-१९ के चिन्ताजनक काल में सोशल मीडिया पर भी मुसलमानों की गलत छवि पेश करने वाली ऐसी शंका तथा भेदभाव की आंधी नहीं चलती तो शहर की गली-गली में घूमकर सब्जी बेचने वाला रहमान आज भी जिन्दा होता। कल तक जो लोग उसकी ताजी सब्जी का इंतजार करते थे, अब उन्हें उसकी सब्जी में विष होने का संदेह होने लगा था। कुछ अति उत्साही, असामाजिक तत्वनुमा चेहरों ने उसकी इसलिए पिटायी भी कर दी... कि उसने उनके मोहल्ले में आने की जुर्रत ही क्यों की...! कमायी बंद हुई तो रहमान बीमार पड गया। कुछ दिनों के पश्चात इलाज के अभाव में वह चल बसा।
राजधानी में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने के लिए विदेशों से आये कुछ तबलीगी जमात के लोगों का नागपुर में आगमन हुआ था। कोविड-१९ के संकट के दिन उन्होंने यहां बडे इत्मीनान से गुजारे। प्रशासन ने कुछ दिन तक निर्धारित स्थान पर क्वारंटाइन भी किया। नारंगी नगर से विदा होते समय उनकी आंखे नम थीं। उनका कहना था कि इस शहर में उन्हें जो मान-सम्मान तथा अपनापन मिला उसे वे कभी भुला नहीं पाएंगे। सर्वधर्म समभाव के जीवन-सूत्र के प्रबल हिमायती नागपुरवासी दहशत और विकट संकट काल में सतत हौसला अफजाई कर हमें दिलासा देते रहे कि आपके साथ बेइंसाफी नहीं होगी। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने दूध का दूध और पानी का पानी कर हमारे माथे पर थोपे कलंक के दाग को मिटा ही दिया है। उन लोगों की भी आंखें खोली हैं, जिन्हें देश और दुनिया के सभी मुसलमान कोरोना फैलाने के महा षडयंत्र में शामिल लग रहे थे। यकीनन, कुछ समय जरूर लगा, लेकिन यह स्पष्ट तो हो गया है कि हिन्दुस्तान में कोरोना तबलीगी जमातियों की वजह से नहीं, लोगों की अपनी असावधानी की वजह से तेजी से फैला। न्यूज चैनलों ने सनसनी फैलाने तथा लोकप्रियता पाने के लिए पत्रकारिता को एक नहीं, हजार बार कलंकित किया।
ड्रग्स मामले में करीब एक महीना जेल में बिताने के बाद अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को जमानत मिल गई। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद न्यूज चैनलों ने रिया को घेरने का जो एक पक्षीय आतंकी अभियान चलाया, उससे भी तमाम मीडिया के प्रति यही राय बनी है कि इसने धन और नाम चमकाने के चक्कर में चिन्तन-मनन करना बंद कर दिया है। जिस तरह भूखा शेर मौका पाते ही शिकार पर झपटता है, उसी तरह से भारतीय मीडिया भी जिस किसी को भी लपेटता है, तो उसकी बडी निर्दयता के साथ चीर-फाड करने में लग जाता है। उसके खुद के शोर में शिकार की हर आवाज़ तथा फरियाद दबकर रह जाती है। उसकी सुनना मीडिया को अपना अपमान लगता है। उसके क्षेत्र में दखल देने की कुचेष्टा लगता है।
इस बेकाबू, लापरवाह मीडिया पर जब भी उंगली उठती है, तो उसकी तरफ से लट्ठ घुमाने के अंदाज में बस यही कहा जाता है कि कुछ दुष्ट हमारी अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने पर आमादा हैं। हम यह कदापि नहीं होने देंगे। दरअसल अधिकांश न्यूज चैनलों के कर्ताधर्ताओं ने यही मान लिया है कि यह आजादी सिर्फ उन्हीं के लिए है, दूसरों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। इनकी तरह कई लोग और भी हैं, जिनकी शैतानी हरकतों से देश परेशान है। देश को भी समझ में नहीं आ रहा है कि उन्हें कितनी आजादी चाहिए और कितने टुकडे...! इससे किसी को इंकार नहीं कि हर किसी को विरोध करने तथा अपनी बात कहने का पूरा हक है। शाहीन बाग में कई हफ्तों तक जबरन हुए धरने प्रदर्शन से दिल्लीवासियों को अथाह तकलीफें झेलनी पडीं। एक अच्छे-खासे सार्वजनिक स्थल को बंधक बनाया गया। किसी की भी नहीं सुनी गई। उससे भले ही कुछ लोगों को संतुष्टि मिली हो, लेकिन भारत माता आहत होकर रह गई। अपने अधिकारों के लंबे तमाशे में दूसरों के अधिकारों की लूट तथा तकलीफ देने की जिद की सबकी तरफ से खुलकर भर्त्सना नहीं की गयी। कुछ थाली छेदकों से भारत माता बहुत परेशान है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री व नेशनल कांफ्रेस के नेता फारूख अब्दुल्ला को यह कहते ज़रा भी लज्जा नहीं आयी कि चीन के समर्थन से जम्मू-कश्मीर में फिर से अनुच्छेद ३७० लागू करके ही दम लेंगे। यानी यह और इन जैसे शैतान, अहसानफरामोश, अशांति फैलाने और हिन्दुस्तान को नीचा दिखाने के लिए दुश्मन देश की शरण में जाने से भी नहीं हिचकिचाने वाले। इसलिए सावधान, भारत देश...! हमें खतरा बाहरी आतंकवादियों से कम, देश में उजागर तथा छिपे हुए गद्दारों से अधिक है...।

Thursday, October 8, 2020

तब भी, अब भी

कई वर्ष पहले...। छत्तीसगढ में स्थित कटघोरा के हाईस्कूल के एक शिक्षक की बागी, शर्मनाक प्रेम कहानी के विस्फोट से जमीन हिल गयी थी। वहां के सीधे-सादे लोग बेहद हतप्रभ रह गये थे। उन्होंने जिसकी कभी कल्पना ही नहीं की थी, वो जो हो गया था...! शिक्षक का हंसता खेलता, अच्छा खासा परिवार था। ऐसे में उनका खुद से काफी छोटी उम्र की युवती से जुडना और शादी करने का निर्णय लेना कई वजह से चौंकाने वाला था। तब कटघोरा की कुछ गांव तो कुछ शहर जैसी आदर्श तस्वीर थी। उस युवती का पिछले कई दिनों से शिक्षक के घर आना-जाना था। कुछ दिन तक तो अडोसी-पडोसी, किसी ने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब शिक्षक घर में अकेले होते तब भी युवती के चुपके से आने और घण्टों बिताने की वजह से शिक्षक की पत्नी असहज होने लगीं। कटघोरा कोई बडा शहर तो था नहीं, जहां उनके मिलने-मिलाने की जानकारी छिपी रह जाती। साथ ही तब समाज में इतना खुलापन भी नहीं था कि इसे उनका नितांत व्यक्तिगत मामला मानकर नजरअंदाज़ कर दिया जाता। ऐसे में वही हुआ जो अमूमन होता है। तरह-तरह की बातें... चर्चाएं। गांव में होने वाली हर चर्चा की स्वरलहरी को शिक्षक ने तो अनसुना कर दिया, लेकिन उनकी पत्नी से रहा नहीं गया। वे युवती से जाकर मिलीं। युवती ने यह कहकर उन्हें शांत होने को विवश कर दिया कि वह तो सर को अपना बडा भाई मानती है। इतना ही नहीं उसने घर में आकर शिक्षक की कलाई पर राखी बांधकर सभी शंकाग्रस्त लोगों को अपनी सोच बदलने की वजह सौंप दी। राखी बांधने-बंधवाने के बाद तो दोनों बेखौफ यहां-वहां, कहीं भी घूमने-फिरने लगे। कभी-कभार कोरबा और बिलासपुर तथा रायपुर भी चले जाते। राखी के धागे ने उनकी राह की सभी जंजीरें तोड दी थीं। किसी को भी संदेह करने या प्रश्न करने का हक नहीं था, लेकिन जब युवती गर्भवती हुई तो कटघोरा का हर सजग इंसान और चप्पा-चप्पा बहन-भाई के पवित्र रिश्ते के घोर अपमान से ऐसे शर्मसार था, जैसे उनसे कोई अक्षम्य पाप और अपराध हो गया हो। शिक्षक और युवती ने तो बाद में शादी कर ली, लेकिन लोगों ने आसानी से किसी पर यकीन करने की आदत में बदलाव लाने की राह पकड ली। इतना बडा कांड होने के बावजूद शिक्षक की पत्नी के विरोध की कोई आवाज़ नहीं सुनी गयी। यह खबर जरूर सुनी-सुनायी गई कि दिलफेंक शिक्षक ने पत्नी का मुंह बंद करने के लिए आदिम मारपीट के बर्बर तरीके का भरपूर इस्तेमाल किया।
लगभग साढे चार दशक के लम्बे अंतराल के बाद इस दास्तान के याद आने की वजह बना मध्यप्रदेश के स्पेशल डीजी पुरुषोत्तम शर्मा का वायरल हुआ वह वीडियो, जिसमें वे निहायत क्रूरता के साथ अपनी पत्नी की पिटायी करते दिखायी दे रहे हैं। दरअसल, खाकी वर्दीधारी अधिकारी की पत्नी को अपने पतिदेव के बदचलन होने का पक्का यकीन था। इसी बात को लेकर पति-पत्नी में अक्सर विवाद होता रहता था। पत्नी ने उनकी जासूसी करनी प्रारंभ कर दी। इसी तारतम्य में वे जा पहुंची वहां... जहां उनका आना-जाना था। वे बेफिक्र होकर नयी नारी के साथ सोफे पर बैठे थे। पत्नी को देखते ही आग-बबूला हो गये। नारी भी सकपका गई। यह क्या हो गया! पत्नी जोर से चीखीं, "तो यह है वो बदचलन सौंदर्य सम्राज्ञी जिसके चक्कर में मुझे बरबाद करने की ठान ली है तुमने...?
"नहीं मैडम, आप गलत सोच रही हैं। मैं एक शादीशुदा खानदानी औरत हूं। आपके पति देव तो मेरे पितातुल्य हैं।"
"यह कैसा बाप-बेटी का रिश्ता है, जो नितांत एकांत में निभाया जा रहा है!" उससे इसका कोई जवाब नहीं मिलने पर पत्नी ने पति को घूरते हुए अपने सवाल का जवाब जानना चाहा तो वे यह कहते हुए वहां से भाग खडे हुए कि तुम्हें तो शक की पुरानी बीमारी है। पति को महिला के साथ रंगे हाथ पकडने के बाद पत्नी ने घर में कदम रखा ही था कि बौखलाये साहब ने मारना-पीटना प्रारंभ कर दिया। पत्नी ने भी जवाब में खूब हाथ पैर और मुंह चलाया। आयकर विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत पुत्र ने अपने माता-पिता के 'तांडवी युद्ध' का वीडियो बनाकर मध्यप्रदेश के गृहमंत्री, डीजीपी और मुख्य सचिव को भेजकर पिता को जहां कसूरवार ठहराया, वहीं बेटी पिता के समर्थन में आ खडी हुई। उसका कहना है कि मां मानसिक तौर पर इतनी अधिक बीमार हैं कि खुद को मारने की कोशिशें करती रहती हैं। इतना ही नहीं वो तो अपने घर को भी आग लगाने जा रही थीं। हम सबने किसी तरह से उन्हें नियंत्रित किया। अधिकारी की तथाकथित प्रेमिका ने भी थाने पहुंचकर अपनी शिकायत में कहा, "मैं एक चैनल की सम्मानित न्यूज एंकर हूँ। मैं जिस शख्स को अपना पिता मानती हूं उसे मेरा प्रेमी... यार प्रचारित कर मेरी छवि को कलंकित किया जा रहा हैं, तथा मेरी व्यक्तिगत जिन्दगी पर शर्मनाक कटाक्ष कर मुझे मानसिक रूप से बीमार करने की साजिश रची जा रही हैं।
वैसे महिला पत्रकारों और खाकी वर्दी वालों की करीबी मेल-मुलाकातों के बिस्तर तक पहुंचने की कई और भी सनसनीखेज दास्तानें हैं। उनमें से एक की तो लिखते-लिखते याद हो आई है...। राजधानी दिल्ली की शिवानी भटनागर एक तेजी से उभरती पत्रकार थीं। इंडियन एक्सप्रेस अखबार में काम करने वाली शिवानी का न्यूज के सिलसिले में तत्कालीन आईजी आर.के.शर्मा से मिलना-जुलना होता रहता था। इसी दौरान दोनों अनैतिक रिश्ते की डोर में बंध गये। कालांतर में शिवानी भटनागर, शर्मा पर शादी के बंधन में बंधने का दबाव डालने लगी। शादीशुदा पुलिस अधिकारी ने नये मौज-मजे के लिए पत्रकार को अपने जाल में फांसा था। जब उसने देखा कि अपना ज़िस्म न्योछावर कर चुकी युवती भारी पड रही है तो उसने किसी और की तलाश कर राह बदल ली।
२३ जनवरी १९९९ को शिवानी अपने फ्लैट में मृत पायी गई। महिला पत्रकार की नृशंस हत्या पर राजनीति भी हुई। कितने-कितने वर्ष बीत गये लेकिन, ऐसा लगता है कि तब और अब में कुछ सच नहीं बदले। भोपाल के पुलिस अधिकारी पुरुषोत्तम शर्मा ने भी अपनी पत्नी का मुंह बंद रखने के लिए किसी भी हद तक जाने में कोई कमी नहीं रखी। औरत का मुंह बंद रहे इसके प्रयास हमेशा किये जाते रहे हैं। जिस दिन शर्मा को अफसरी खोनी पडी उसी दिन उत्तरप्रदेश के हाथरस में एक लडकी की सामूहिक बलात्कार के बाद हुई मौत की दिल दहलाने वाली खबर ने देशभर में भूचाल-सा ला दिया। इस अमानवीय कांड ने दिल्ली के निर्भया कांड की याद ताजा करने के साथ खाकी वर्दीधारियों की मनमानी तथा असंवेदनशीलता का भयावह चेहरा भी दिखाया। खाकी वर्दी की पारिवारिक तथा व्यक्तिगत छवि जैसी भी हो, लेकिन फिर भी असहाय आम आदमी तो उसी से ही न्याय और सुरक्षा की उम्मीद रखता है।
पुलिसिया प्रताडना और सज़ा के वास्तविक हकदार तो अपराधी हैं। दलित परिवार की उन्नीस वर्षीय बेटी गुड़िया की चार दबंग दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार के दौरान गर्दन और रीढ की हड्डी तोडने के साथ-साथ जीभ भी काट दी, ताकि वह बोल ही न पाये। १४ सितंबर २०२० को इस क्रूर दुष्कर्म को बेखौफ होकर जिन हैवानों ने अंजाम दिया वे उसी गांव (बूलगढी) के जाने पहचाने ऊंची जाति के शैतान हैं।  २९ सितंबर को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में गुड़िया ने दम तोड दिया। बलात्कारियों ने इंसानियत की धज्जियां उडायी ही थीं, लेकिन तंत्र खासतौर पर पुलिस की अमानवीयता की पराकाष्ठा ने तो हर संवेदनशील भारतवासी के खून को खौला दिया। गुड़िया के शव को घर के देहरी तक ले जाने और मां-बाप को अपनी लाडली का चेहरा दिखाये बिना पुलिस और प्रशासन ने जबरन दाह संस्कार कर दिया। वो भी रात के ढाई बजे! घर-परिवार वाले हाथ जोड-जोडकर विनती करते रहे कि रात में अंतिम संस्कार की परंपरा नहीं है। सूर्योदय का तो इंतजार कर लें! लेकिन उनकी बिलकुल नहीं सुनी गई। उलटे उन्हें जबरन घर में कैद कर दिया गया। बंद कमरे में मां रोती-बिलखती रही। बच्ची को हल्दी लगाकर अपने घर के दरवाजे से अंतिम विदायी देने की अंतिम इच्छा का अनादर करने वाली पुलिस ने पूरे गांव की नाकेबंदी कर यह सोच और मान लिया कि किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा, लेकिन शर्मनाक सच बाहर आया... पूरे जोरशोर से आया। सलाम उस महिला पत्रकार तनुश्री पांडेय को जिसने डंडे-घूसे खाने के बाद भी खाकी वर्दी की गुंडई की हकीकत देशवासियों तक पहुंचायी। उसके मुंह को बंद करवाने की ताकतवर कोशिशें और साजिशें धरी की धरी रह गईं। असंख्य जुबानों पर ताले-जडवा चुके खाकी वर्दीधारी माथा पीटते रह गये। उसके बाद तो तनुश्री को भी लांछित करने और घेरने का सिलसिला चल पडा। वो काले कौए जो चौबीस घण्टे कांव-कांव करते रहते हैं वे भी गुड़िया के गांव पहुंच गये और दावे करने लगे कि हमने, हमारे न्यूज चैनल ने देशवासियों तक सबसे पहले इतनी हृदयविदारक खबर पहुंचायी है। वैमनस्य तथा भेदभाव को बढावा देने की अपनी राजनीति की दुकानें चलाने वाले विभिन्न नेता भी मैदान में आ गये। पक्ष और विपक्ष की शाब्दिक तलवारबाजी हमेशा की तरह सजग देशवासियों का सिरदर्द बढाती रही। मन-मस्तिष्क में कई सवाल भी कौंधते रहे। सरकार तो हर जगह हो नहीं सकती, लेकिन फिर भी कई 'दिमागवालों' को सरकार को कोसने के ऐसे मौकों का इंतजार रहता है। इसमें दो मत नहीं कि सरकार का खौफ होना चाहिए। उसका पूरी तरह से सतर्क तथा निष्पक्ष होना भी नितांत आवश्यक है, लेकिन हम और हमारा यह समाज आज कहां पर खडे हैं। यह जो बिगडैल युवा बलात्कारी, दुराचारी हैं, कहीं आकाश से तो नहीं टपके! इसी धरती पर ही जन्मे हैं, लेकिन उन्हें कभी भारतीय संस्कारों से परिचित ही नहीं कराया गया। इन्हें पढाया और समझाया नहीं गया कि दूसरों की मां-बहनों की भी कद्र करना हर किसी का कर्तव्य भी है और धर्म भी। जब तुम्हारी बहन-बेटी पर कोई झपटता है, तब तो तुम शेर बन जाते हो और दूसरे की बहू-बेटी पर आक्रमण होता देख बकरी बन जाना तुम्हारी कायरता और नपुंसकता की जीती-जागती निशानी है।

Thursday, October 1, 2020

मदारी और सपेरे

एक उत्पाती, नशेडी, महिलाओं तथा बच्चियों का दुश्मन हत्यारा बंदर पिछले तीन साल से जेल में कैद है। उसकी मौत खुली हवा में नहीं होगी। घरों की छतों और पेडों की डालियों पर कूदने-फांदने की आज़ादी भी उसने हमेशा-हमेशा के लिए खो दी है। अपने दुर्गुणों के कारण उसे वन विभाग के बडे से पजरे में ही अपने प्राण त्यागने होंगे। यह खूंखार बंदर एक बच्ची की हत्या कर चुका है। महिलाओं को देखते ही वह आग-बबूला हो जाता है। किसी खूंखार शत्रु की तरह बदला लेने के अंदाज में उन पर झपटता है और लहुलूहान करके ही दम लेता है। इस घोर आतंकी बंदर का नाम है कलुआ। कलुआ के हत्यारे और शैतान बनने के पीछे की कहानी उन इन्सानों से जुदा नहीं, जो नशे के गुलाम होकर वहशी हो जाते हैं और अंतत: अपना सबकुछ खो देते हैं। समाज उन्हें अपने साथ रहने लायक नहीं मानता। परिजन भी दूर रहकर कोसते हैं। इस बंदर के महा बिगडैल होने की भी वही वजह है जो अच्छे-भले इंसानों के तबाह होने की होती है। मिर्जापुर में एक तांत्रिक था, जो वशीकरण, मंत्र, काला जादू और तंत्र-मंत्र के लिए जाना जाता था। उसी ने बंदर को पाला था।
अपने यहां हजारों तरह के दुखियारे हैं, जिन्हें लगता है कि तंत्र-मंत्र, काला जादू, झाड-फूंक बडी काम की चीज़ है। इनसे बांझ औरत मां बन सकती है, अंधा देखने में सक्षम हो जाता है, बेवकूफ, नालायक इंसान को शानदार नौकरी मिल सकती है, दुनिया की सबसे खूबसूरत नारी को अपने वश में किया जा सकता है और दुश्मन को पलक झपकते बरबाद किया जा सकता है आदि-आदि। तांत्रिक को अपना धंधा जमाने में ज्यादा पापड नहीं बेलने पडे थे। उसकी रोज की हजारों रुपये की कमायी थी। हराम की कमायी इंसान को अवगुणों के गर्त में गिराकर ही दम लेती है। तांत्रिक को भी पहले शराब की लत लगी। फिर जैसे-जैसे आवक ब‹ढती गयी वह गांजा, भांग, अफीम, चरस का भी नशा करने लगा। इतना ही नहीं उसने बंदर को भी दिन-रात शराब पिलानी शुरू कर दी। तांत्रिक की तरह बंदर भी नशे में धुत रहने लगा। बंदर का मुंह और शरीर काला था इसलिए तांत्रिक ने उसका नाम कलुआ रख दिया। अत्याधिक शराब और ड्रग्स के कारण एक दिन तांत्रिक चल बसा। कलुआ को शराब मिलनी बंद हो गई। शराब के लिए वह तांडव मचाने लगा। देखते ही देखते उसका आतंक चरम पर पहुंच गया। महज एक महीने में उसने तीस से अधिक बच्चों को काटा। उसने महिलाओं तथा छोटी बच्चियों को चुन-चुनकर अपना शिकार बनाया। लगभग दो सौ महिलाओं को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होना प‹डा। उसके हमले की शिकार बनी अधिकांश मासूम बच्चियों की प्लास्टिक सर्जरी करवानी पडी। नशेडी, शातिर तांत्रिक के शागिर्द कलुआ ने एक बंदरिया को भी अपनी चेली बना लिया। यह चतुर और फुर्तीली बंदरियां अपने गुरू के प्रति कितनी श्रद्धावान और ईमानदार रही इसका पता तब चला जब वन विभाग और चि‹डयाघर की टीम ने कलुआ को पक‹डने की कोशिश की तो बंदरिया ने आवाज लगाकर उसे चौकन्ना कर दिया। कलुआ ने उसे पकडने आई टीम के नाक में दम कर दिया था। होश में जब उसे दबोचना मुश्किल हो गया तो उसे बेहोश करने की तैयारी की गई। कई दिनों तक छकाने के बाद कलुआ पकड में आया। दो इंजेक्शन लगाकर उसे बेहोश किया गया। वन अधिकारी कहते हैं कि यदि उसे जंगल में ले जाकर छोडा गया तो वह फिर से आबादी में आकर उत्पात मचा सकता है।
कलुआ तो जानवर है, लेकिन वो लोग कौन हैं, जो इंसानियत को शर्मिंदा करने के कीर्तिमान बना रहे हैं। एक तरफ नारियों की इज्जत को तार-तार करने और नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों की थू-थू करते हैं, दूसरी तरफ उनकी काली जिन्दगी पर बनी फिल्म को देखने के लिए टूट पडते हैं। महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, विवेकानंद, शहीद भगत qसह जैसे महानायकों पर बनी फिल्मों को देखना अपने अमूल्य समय की बरबादी मानते हैं। जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया उनकी फिल्म पांच-सात दिन भी सिनेमा हाल में टिक नहीं पाती। फिल्म निर्माता का दिवाला निकल जाता है। हर तरह के ड्रग के दलदल में धंसे शराबी, कबाबी संजय दत्त की काली फिल्म आसानी से धन लोलुप, चेतनाहीन निर्माता की पहले से भरी तिजोरी में पांच-सांत सौ करोड की और बरसात कर देती है। फिल्म का नायक ब‹डी शान और अभिमान के साथ महंगी से महंगी ड्रग लेता है, पानी की तरह शराब पीता है। गटर में गिरता-गिराता है फिर भी एक से एक खूबसूरत लडकियां उसकी गोद में समाती चली जाती हैं। पथभ्रष्ट नायक बडे गर्व के साथ बताता है कि अभी तक उसके जीवन में ऐसी सैकडों युवतियां आ चुकी हैं, जिन्हें उसने अपनी मर्दानगी का स्वाद चखाया है।
उस पर टीवी पर सतत होने वाला बेहूदा शोर-शराबा...! अंधा-बहरा बनने की प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता में अधिकांश न्यूज चैनलों ने गजब की महारत हासिल कर ली है। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि भारत में बच्चे भी नशे के गर्त में डूब चुके हैं। लगभग एक करोड ४८ लाख बच्चे और किशोर अल्कोहल, अफीम, कोकीन, चरस, भांग सहित और भी कई आधुनिक किस्म के नशे का सेवन कर रहे हैं। इन कम उम्र के बच्चों में शराब पीने के शौकीनों की संख्या बडी चौंकाने वाली है। दस से सत्रह वर्ष के तीस लाख बच्चों तथा किशोरों को शराब ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। चालीस लाख बच्चे तथा किशोर अफीम के गुलाम हैं। किसी और के नहीं, भारत सरकार के सर्वेक्षण से ही यह बेहद चौंकाने तथा डराने वाली हकीकत सामने आयी है। हमारी आंखों के सामने देश का वर्तमान और भविष्य बदहाली, बरबादी, बेहोशी तथा मौत की तरफ जा रहा है। उन्हें इसकी भी खबर है कि वो कौन मदारी हैं, जो अपने पिटारे से नशे के नाग-नागिनों को निकाल कर नौनिहालो को नर्क की तरफ धकेल रहे हैं। सपेरे की बीन की आवाज कानों को चीर रही है। फिर भी, हां फिर भी तथाकथित इज्जत की खातिर लुकाने-छिपाने तथा अंधे बने रहने की धूर्तता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।
गुरूग्राम के एक नामी स्कूल का एक बारहवीं का प्रतिभावान छात्र अपने स्कूल के दो साथियों के साथ गांजा बेचते पकडा गया है। वह तथा उसके साथी ड्रग लेते रहे हैं। उनका कहना है कि ड्रग लेने के बाद उनके बदन में फूर्ती आ जाती है। दिमाग तेजी से काम करने लगता है। बच्चों के माता-पिता तथा स्कूल चलाने वालों को जब उनके नशेडी होने का पता चला तो उन्होंने इस qचताजनक सच को छुपाना बेहतर समझा। उनका निवेदन था कि इस मामले को ज्यादा न उछाला जाए। बच्चों के भविष्य का सवाल है। बच्चों के साथ-साथ उनकी भी बदनामी होगी। पुलिस वाले भी ठंडे पड गये। मीडिया को भी खबर लगी, लेकिन वह भी गूंगा बना रहा। ऐसे कई-कई मामले और जहरीले सच हैं, जिनसे वह दूरी बनाये है। न्यूज चैनलों के संपादक, पत्रकार, एंकर बॉलीवुड की हर हस्ती को ऐसे दुत्कारते-फटकारते नज़र आ रहे हैं, जैसे उनकी बिरादरी के लोगों ने नशा करने से तौबा कर रखी है। मनोरंजन प्रेमियों को भले ही चैनलों पर हो रही बेतुकी चर्चाएं-परिचर्चाएं, चीख-चिल्लाहटें अच्छी लग रही हों, लेकिन अधिकांश भारतीय माथा पीट रहे हैं। यह कैसा बेशर्म और गैर जिम्मेदार मीडिया है? उसे कृषि बिल को लेकर सडक पर उतरे किसान और चक्का जाम करते उनके संगठन दिखायी नहीं देते। भारत के अधिकांश न्यूज चैनलों ने महामारी से मरते लोगों की परवाह करनी छोड दी है। महंगाई, बेरोजगारी से त्रस्त, अपने जमे-जमाये कारोबार, धंधों से हाथ धो चुके करोडों लोगों की उसे ज़रा भी चिन्ता नहीं। उसे चिन्ता है तो बस उस लापरवाह अभिनेता सुशांत कुमार की, जो खुद कई नशों का गुलाम था। हद दर्जे का आशिक मिज़ाज था। हर फिल्म के साथ उसकी प्रेमिका बदलती रही। बॉलीवुड की चकाचौंध की आंधी में तिनके की तरह उडता रहा। उसकी कमियां, कमजोरियां और अंधी मायावी लालसाएं उस पर भारी पडीं। अंतत: उसकी मौत भी पहेली बन गई। कई विद्वान किस्म के लोगों का कहना है कि जो इंसान दुनिया को छोड गया हो उसकी बुराई नहीं करनी चाहिए। उनसे हमारा भी यह सवाल कि... भले ही उसके चक्कर में, उसके रंग में रंगे उसके दोस्तों और जान-पहचान वालों को चौराहों पर नंगा करने का अभियान अनवरत चलाया जाता रहे। क्या इनका यही कसूर है कि वे जिन्दा हैं? यानी... जो मर जाए वो देवता और जो बच जाएं वो हत्यारे, अपराधी और शैतान?

Thursday, September 24, 2020

अधूरी किताब

अभी बीस दिन भी नहीं बीते जब राजेश रंजन से कितनी देर तक बातचीत हुई थी। उसने बताया था कि वह इन दिनों बेहद तनाव से गुजर रहा है। पिछले कुछ दिनों से खुद की तबीयत ढीली-ढीली थी। तीन दिन पहले उम्रदराज माता-पिता और बडे भाई कोरोना पॉजिटिव पाये गये हैं। सबकुछ बिखरा-बिखरा-सा लग रहा है। मैं यहां देहरादून में हूं और वे हजारों मील दूर अकेले सीतापुर में कोरोना से लड रहे हैं। सीतापुर कहने को तो शहर है, लेकिन वहां पर अच्छे अस्पतालों का अभाव शुरू से रहा है। सरकारी अस्पतालों पर लोग वैसे भी ज्यादा भरोसा नहीं करते। निजी चिकित्सालय और डॉक्टर मरीजों की जेबे खाली करने के लिए कुख्यात रहे हैं। उस पर इस आंधी की तरह आयी कोरोना की बीमारी ने तो अधिकांश डॉक्टरों को मरीजों के साथ लूटपाट करने का बहाना उपलब्ध करवा दिया है। धन के लालची ऐसे मुंह फाड रहे हैं, जैसे इससे पहले नोटों के दर्शन करने से वंचित रहे हों। अस्पताल में भर्ती करने से पहले डेढ-दो लाख रुपये जमा करने का फरमान सुनाते हैं, जैसे मरीजों के घर में ही नोटों की छपायी हो रही हो। मुझे जैसे ही खबर लगी, मैंने अपनी जीवनभर की जमा पूंजी के चार लाख रुपये मां-बाबू जी के पास भिजवा दिये थे। कल सुबह-सुबह फिर अस्पताल में भर्ती भैय्या का मैसेज आया कि और तीन लाख रुपये की तुरंत जरूरत है। बडे भाई की मांग ने मुझे असमंजस में डाल दिया। मुझे परेशान देख तुम्हारी भाभी ने अलमारी से अपने सारे सोने के गहने निकालकर मुझे सौंपते हुए कहा कि, 'ज्यादा मत सोचो...। फौरन अपनी पहचान वाले रोहित ज्वेलर्स के यहां जाकर इन्हें बेचो और जो भी रकम मिले भाई जी को भेज दो।' ज्वेलर्स ने गहनों का वजन कर बताया कि इस दस तोले सोने के मैं आपको तीन लाख दे सकता हूं। मैंने ज्वेलर्स को याद दिलाया कि इन दिनों प्रतिदिन अखबारों में सोने के भाव बढने की खबरें हैं। कल ही मैंने पढा था कि सोने का भाव पचपन हजार तक जा पहुंचा है। ऐसे में दस ग्राम के पचास हजार नहीं तो चालीस हजार तो दे दीजिए ताकि मेरी समस्या का समाधान हो जाए। ज्वेलर्स मेरी बात सुनकर मुस्कुराया, सर आप भी कौन-सी दुनिया में रहते हैं, जो अखबारों में छपी खबरों पर यकीन करते हैं। आपको पता होना चाहिए कि बाजार से रकम गायब हो गयी है। हम कैश के अभाव से जूझ रहे हैं। आप जैसे पांच-सात मुसीबत के मारे तो रोज अपने गहने बेचने चले आते हैं। हम तो उन्हें दस ग्राम के बीस-पच्चीस हजार थमाकर चलता कर देते हैं, लेकिन आपसे पुरानी पहचान है। उस पर आप लेखक और पत्रकार हैं, इसलिए आपका मान रख रहे हैं। आप चाहें तो कहीं दूसरे आभूषण विक्रेता के यहां जाकर पता लगा लें।
मेरे पास कोई और चारा नहीं था। तीन लाख लेकर भैय्या तक पहुंचा दिये। अब मेरी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि माता-पिता तथा भैय्या पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएं। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। उनसे मिलने की बडी तमन्ना है। देखते हैं कैसे कोई रास्ता निकलता हैं। राजेश से बात होने के ठीक तीसरे दिन सुबह सात बजे के आसपास मेरा सेलफोन बजा। देहरादून से रजनी भाभी थीं। राजेश रंजन की पत्नी...। "भाई साहब, मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं। आपके पुराने मित्र हैं इसलिए सुबह-सुबह आपको अपनी चिन्ता और पीडा से अवगत करा रही हूं। इन दिनों यह बहुत परेशान रहते हैं। ऐसी चिन्ता और घबराहट मैंने इनमें पहले कभी नहीं देखी। न ठीक से खाते-पीते हैं और न नींद लेते हैं। आधी रात को उठकर लिखने बैठ जाते हैं। कहते हैं कि मुझे हर हाल में अपना उपन्यास पूरा करना है। मेरे यह कहने पर कि ऐसी भी जल्दी क्या है, तो कहते हैं कि रजनी मेरे इस अधूरे उपन्यास के पात्र मुझे सोने नहीं देते। नींद लेने की कोशिश में होता हूं तो यह मुझे उठ खडा होने को मजबूर कर देते हैं। मैंने पहले भी कई कहानियां और उपन्यास लिखे हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। फिर जिन्दगी का भी क्या भरोसा। कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए और मेरी किताब अधूरी रह जाए। दिन में जब-तब दोस्तों को फोन लगाते रहते हैं। कोई दोस्त जब फोन नहीं उठाता तो उदास और बेचैन हो जाते हैं। आप ही इन्हें समझा सकते हो। मैं तो हार गई हूं...।" बोलते-बोलते रजनी भाभी चुप हो गर्इं। मैं समझ गया कि रो रही हैं।
दस कहानी संग्रह, पंद्रह उपन्यास और पांच व्यंग्य संग्रहों के प्रकाशन के साथ-साथ निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता करने में यकीन रखने वाले राजेश रंजन की तडप को मेरे साथ-साथ रजनी भाभी भी अच्छी तरह से समझती रही हैं। लगभग सात वर्ष पूर्व जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खात्मे तथा लोकपाल बिल पास करवाने के लिए देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में आंदोलन-अनशन की मशाल जलायी थी तब यह बेचैन लेखक, पत्रकार रातों-रात सबकुछ छोडकर राजधानी भाग खडा हुआ था। तब इसने बार-बार लिखा और कहा था कि हिन्दुस्तान में काफी वर्षों के बाद किसी निहायत ही ईमानदार, भरोसे के काबिल समाज सेवक ने नयी क्रांति का बिगुल फूंका है। उसकी तपस्या तभी पूरी तरह से रंग लाएगी, जब हर सजग भारतीय उसके साथ ख‹डा होगा। 'मैं अन्ना' की टोपी पहनकर राजेश तब तक रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर डटा रहा था, जब तक लोकपाल बिल पर सरकारी सहमति नहीं मिली। राजेश अपने शहर देहरादून लौट आया था...। सरकार भी बदल गयी थी, लेकिन वो दिन नहीं आये, जिनके लिए अन्ना हजारे ने आंदोलन... सत्याग्रह किया था। लोग उसका मजाक उडाते। व्यंग्य बाण चलाने वाली मित्रमंडली के सवालों के जवाब में आशावादी राजेश यही कहता कि दोस्तो, अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है...।
जब मुझे उसके गुजर जाने की खबर मिली तो ऐसा लगा कि किसी ने मेरे दिल और दिमाग को निचोडकर समंदर में फेंक दिया है। मैं लाख हाथ-पैर मारने के बावजूद भी बाहर नहीं निकल पा रहा हूं। यह कोविड-१९ और कितनों की जान लेगा? जब से कोरोना ने विकराल रूप अख्तियार किया है, अपनों को खोने की qचता दबोचे रहती है। सुबह का अखबार हाथ में लेते ही सबसे पहले नज़रें उस पन्ने पर टिक जाती हैं, जिस पर तस्वीर के साथ मृतकों की जानकारी दी गयी होती है। कोरोना की चपेट में आकर मौत के मुंह में समाने वालों की तादाद बढती ही चली जा रही है। पहले अखबार में 'निधन वार्ता' की जगह निर्धारित थी, जिसमें प्रतिदिन अधिक से अधिक बारह-पंद्रह की मौत तथा अंत्येष्टि की जानकारी छपी होती थी, लेकिन अब तो पूरा पेज भी कम प‹डता नज़र आता है।
चार सितंबर २०२० को रजनी भाभी ने कोरोना की चपेट में आकर राजेश रंजन के निधन की खबर दी। राजेश सोशल मीडिया से दूर रहता था। लिखने-पढने, दोस्ती करने तथा उसे दिल से निभाने के जुनून में मस्त रहने वाले इस लेखक-पत्रकार की असामयिक मौत की दोस्तों को भी खबर नहीं लगी। अकेली पड चुकी रजनी भाभी ने हर दोस्त को उसकी मौत की जानकारी दी। ५ सितंबर की दोपहर कवि, गज़लकार, मित्र सुशील साहिल की फेसबुक पर दिखी इस पोस्ट ने फिर रूला दिया : "आज मैंने अपना जीवन साथी खो दिया।" इन चंद शब्दों ने भावुक शायर पर बिजली की तरह गिरे गम के पहाड की वजह से नितांत अकेले प‹ड जाने की अथाह पीडा से रूबरू कराने के साथ गमगीन कर दिया। कोविड-१९ ने बडी बेदर्दी से जिनके अपनों को छीना, इसके कहर के दौरान नितांत अकेले पड गये, जिनके अपनों की असामयिक मौत हो गई, उन्हें हौसला और सांत्वना देने वालों की कमी को काफी हद तक सोशल मीडिया के विशेष प्लेटफार्म फेसबुक ने पूरा करने में जो भूमिका निभायी, वह अकल्पनीय थी। कुछ लेखक, संपादक पत्रकार, व्यापारी एवं विभिन्न पेशे से जुडे जागरूक लोग ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहकर अपने आभासी मित्रों के मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन में लगे रहते हैं। कोविड-१९ की जब ऐसे कुछ प्रतिष्ठित चेहरों पर एकाएक बिजली गिरी और उन्हें अपने स्वजनों को खोना प‹डा तो वे बेहद हताश, निराश और विचलित हो गये। उनके लिए गम के अथाह सागर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। ऐसे में सच्ची मित्रता निभायी सोशल मीडिया के जाने-अनजाने मित्रों ने। जो कल तक उन्हें दु:ख और संकट की घडी का डटकर मुकाबला करने की सीख देते थे, उन्हें टूटता बिखरता देख जाने-अनजाने मित्रों की नींद उड गयी। उन्होंने बार-बार उन्हें याद दिलाया कि देश और समाज के लिए वे कितने उपयोगी तथा मूल्यवान हैं। जो दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं उनका घबराना और डगमगाना उन्हें आहत कर रहा है। हर कोई चाहता है कि वे अपने उसी साहस के साथ खडे रहें, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। कोई भी नहीं चाहता कि उनकी किताब अधूरी रहे। सभी की उसको पढने की दिली तमन्ना है...।

Wednesday, September 16, 2020

बागी लडकी के कच्चे-पक्के बोल

तेरी भी चुप मेरी भी चुप की राह पर छलांगे मारती भीड में से एकाएक एक दुबली-पतली लडकी बाहर निकली और हंगामा बरपा दिया। वह शुरू से ही ऐसी रही है। सोलह साल की उम्र में घर से भाग खडी हुई। यह भागने-भगाने का काम तो अक्सर लडके करते आये हैं। इस लडकी ने लडकों वाली राह पकडने में कतई कोई संकोच नहीं किया। उसकी जिद थी मायानगरी मुंबई पहुंच कर नायिका बनना है। लाख विरोध, अवरोध पार करते हुए उसने अपने सपने को साकार कर दिखाया। सन २००६ में उसने अपनी पहली फिल्म 'गैंगस्टर' से ऐसा डंका पीटा, जिसकी आवाज अभी तक गूंज रही है। उसके पिता का सपना था कि बेटी डॉक्टर बने। उन्होंने जब बेटी की फिल्म देखी तो उनका माथा चकरा गया। वे भारी तनाव में आ गये। बेटी ने यह कौन सी माफियाओं की भयावह दुनिया की राह पकड ली! फिल्म में बिटिया का बोल्ड किरदार देखकर उन्हें वो दिन याद हो आये जब वे बेटे के खेलने के लिए प्लास्टिक की बंदूक लाते और उसके लिए गु‹िडया तो वह भडक उठती थी। लडने लगती थी कि यह कैसी बेइंसाफी है। मुझे भी बंदूक लाकर दो। बंद करो बेटे-बेटी के बीच भेदभाव।
पैंतीस फिल्मों में प्रभावी अभिनय कर तीन नेशनल अ‍ॅवार्ड जीत चुकी इस लडकी यानी अभिनेत्री कंगना रनौत के बगावती तेवर आज भी जस के तस हैं। बिना किसी गॉडफादर के दूर पहाडों से आकर फिल्मी नगरी मुंबई में धमाका मचाने वाली कंगना का विवादों से ब‹डा पुराना नाता रहा है। जहां पर हर कोई तौल-मोल कर बोलता है वहां पर वह बेखौफ अपना मुंह खोलने में देरी नहीं लगाती। कच्चे-पक्के बोल बोलती ही चली जाती हैं। अभिनेता सुशांत qसह राजपूत की मौत मिस्ट्री के बाद तरह-तरह की शंकाओं और आरोपों के साथ पूरे देश में शोर मचा। अभिनेत्री ने कुछ ज्यादा ही ताकत लगाते हुए राग छेड दिया कि मायानगरी के जर्रे-जर्रे में घर कर चुके नेपोटिज्म यानी भाई-भतीजावाद और घोर पक्षपात ने युवा अभिनेता की जान ले ली। ऊपर से चमकने वाली इस फिल्म नगरी के भीतर अंधेरा और निराशा ही निराशा है। उसने तो बॉलीवुड के दिग्गजों के ड्रग्स के लती होने का धमाका कर यह कह डाला कि वह फिल्म संसार के कई चमकते चेहरों को बेनकाब करने को तैयार है, जिनके ड्रग्स माफियाओं से करीबी संबंध हैं, लेकिन यह विस्फोटक रहस्योद्घाटन वह तभी करेगी जब उसे केंद्र सरकार पुख्ता सुरक्षा मुहैया करवाए। मुंबई पुलिस पर उसका कतई भरोसा नहीं। उससे तो उसे डर लगता है। कौन जाने वह कब क्या कर दे। तेज तर्रार अभिनेत्री की मुंबई पुलिस पर अविश्वास तथा संदेह जताने की हिमाकत पर कई लोगों ने आश्चर्य प्रकट किया। उसका विरोध होने लगा। शिवसेना और शिवसैनिक पलटवार की मुद्रा में आ गये। कहा गया कि अगर मुंबई में इतनी दहशत है तो यहां आने की जरूरत ही क्या है। चुप वह भी नहीं रही। ललकारने के अंदाज में सोशल मीडिया के माध्यम से जवाब फेंका कि मैं क्यों न आऊं मुंबई? क्या यह महानगर किसी के बाप की जागीर है या फिर पीओके है। मुंबई की पाक अधिकृत कश्मीर से की गई तुलना ने उसके कम अक्ल और संयमहीन होने की पराकाष्ठा का इज़हार कर दिया। इसके साथ ही यह संदेश भी दूर-दूर तक गया कि यह लडकी तो अहसानफरामोश है। जिस माया नगरी ने उसे बुलंदियों के आसमान तक पहुंचाया, धन-दौलत से मालामाल किया, उसी के प्रति इसके मन में qकचित भी आदर सम्मान नहीं। जो मुंह में आता है, बक देती है।
इसमें कोई शक नहीं कि अभिनेत्री के कडवे बोल कई लोगों को चुभे। खून भी खौला, लेकिन उनका क्या जिन्होंने उसे हरामखोर कहकर बाद में हरामखोर की परिभाषा ही बदल दी! अपनी छाती पर बुद्धिजीवी का तमगा लटकाये घूमते कुछ विद्वानों ने 'पद्मश्री' कंगना को चरित्रहीन घोषित करने के लिए खुद को गिराने में भी देरी नहीं लगायी। पता नहीं इस गिरावट के पीछे उनका कौन सा स्वार्थ और मजबूरी थी। किसी ने सोशल मीडिया पर अभिनेत्री की वो नग्न तस्वीरें फैला दीं जो उसके फिल्मी किरदार की मांग थीं। फिल्मों में निभाये गये रोल को ही उसके चरित्र का पैमाना बनाने वालों को अनेकों आम सजग जनों ने खूब लताडा, लेकिन उनकी सोच में कोई तब्दीली नहीं आयी। वे तो ढूंढ-ढूंढ कर उन तस्वीरों की नुमाइश करते रहे, जिनमें पर्दे की नायिका नाम मात्र के वस्त्रों में शराब, सिगरेट और ड्रग्स लेने में तल्लीन दिखीं। सच तो यह है कि कंगना ने तो बेवकूफी की ही, शासन और प्रशासन ने भी वो अक्लमंदी नहीं दिखायी, जिसकी अपेक्षा थी। आखिर उसे इतनी अधिक अहमियत देने की जरूरत ही क्या थी? ब‹डबोली अभिनेत्री पर वार करने के बहाने अन्य लोगों को भी चमकाया गया। उसके कार्यालय पर बुलडोजर चलाकर यह खुली चेतावनी दे दी गयी कि हमारे खिलाफ मुंह खोलोगे तो बच नहीं पाओगे! कंगना रनौत को केंद्र सरकार के द्वारा सुरक्षा मुहैया कराया जाना चर्चाओं और अनुमानों की झडी लगा गया। निकट भविष्य में उसके राजनीति में प्रवेश करने की बातें होने लगीं। कंगना का मुंबई पहुंचकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का नाम लेकर खरी-खोटी सुनाना और भाषा की मर्यादा तोडना अधिकांश भारतीयों को बिलकुल अच्छा नहीं लगा। वहीं गृहमंत्री महोदय का कंगना पर ड्रग लेने और काला जादू करने का बचकाना आरोप भी कतई नहीं जचा। अभिनेत्री स्वयं स्वीकार कर चुकी है कि एक दौर था जब वह ड्रग्स की आदी हो गई थी, लेकिन कालांतर में उसने खुद को योग और प्राणायाम की मदद से इस दलदल से बाहर निकाला। ऐसा लगता है 'काला जादू' का qढढोरा पीटने और सुनी-सुनायी बातों पर यकीन करने वाले मंत्री महोदय ऐसे प्राणी हैं जो घोर अंधश्रद्धा के भी शिकार हैं। तभी तो उन्होंने कंगना के 'काला जादू' का जोरदार डंका पीटने की बुद्धिमानी दिखाते हुए मित्रमंडली से अपनी पीठ थपथपवाली। मुंबई पुलिस की चुस्ती-फुर्ती, कर्तव्यपरायणता का अपना उज्जवल और प्रेरक इतिहास रहा है। तभी तो उसकी तुलना स्कॉटलैंड की पुलिस से की जाती है, जो अपराधियों को पाताल से भी खोज निकालने के लिए विख्यात है। लेकिन एक चिन्ताजनक सच जिसे मुंबई पुलिस के पूर्व आईपीएस अधिकारी योगेंद्र प्रताप qसह ने उजागर किया है उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
योगेंद्र प्रताप qसह ने वर्ष २००५ के आसपास भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी से इसलिए इस्तीफा दे दिया था क्योंकि उन्हें वहां पर बेहद घुटन होने लगी थी। वजह थी मंत्रियों का जबर्दस्त दबाव और दखलअंदाजी। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि हर खाकी वर्दीधारी ईमानदारी से अपना दायित्व निभाना चाहता है। मुझे नही पता था कि पुलिस अफसरों को सरकारें अपने इशारे पर नचाती हैं। मैंने खाकी वर्दी पहनने के साथ ही कसम खाई थी कि अन्याय, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी का कभी भी साथ नहीं दूंगा। किसी भी हालत में कभी भी रिश्वत नहीं लूंगा। किसी के दबाव में भी नहीं आऊंगा। उन्हें उनकी इस सोच के कारण अजीब निगाहों से देखा जाने लगा। जब वे रिश्वत लेते नहीं थे तो देते कहां से? धनप्रेमी गृहमंत्री मंत्री जी की कृपा से उनके साथ के आईपीएस अधिकारी आईजी बना दिये गये, लेकिन उन्हें प्रमोशन से कोसों दूर रखा गया। जिस पथभ्रष्ट अफसर की उन्होंने जांच की और दोषी पाया उसी को मंत्री की मेहरबानी से उनका बॉस बना दिया गया! जिन अराजकतत्वों, कू्रर अपराधियों, माफियाओं को उन्होंने कभी सरे बाजार पीटा और हथक‹िडयां पहनायीं, कालांतर में वही नेता का चोला पहनकर सांसद, विधायक, मंत्री बन गये। उनकी जी-हुजूरी करना उनके बस की बात नहीं थी। उन्होंने जैसे-तैसे बीस साल तक खाकी वर्दी पहने रखी और उस पर एक भी दाग नहीं लगने दिया। नौकरी छोडने के बाद इस निहायत ही ईमानदार अधिकारी ने मुंबई हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करते हुए गरीब असहाय लोगों को न्याय दिलवाया। उन्होंने अपने देखे और भोगे हुए कटु यथार्थ पर एक फिल्म भी बनायी। फिल्म के एक दृश्य में एक नये आईपीएस अफसर को एक हवलदार की ईमानदारी से प्रभावित होकर कभी भी रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार न करने की प्रतिज्ञा लेते हुए दिखाया गया है। वहीं दूसरी ओर एक महाभ्रष्ट और चाटूकार कमिश्नर को अपना कार्यकाल बढवाने के लिए गृहमंत्री के चरणों में गिडगिडाते हुए दिखाया गया है। मंत्रियों के माफियाओं से करीबी रिश्तों के सच को भी इस फिल्म में उजागर किया गया।
इस नुकीले सच को भी जान लें कि योगेंद्र प्रताप qसह की अफसरी के कार्यकाल में जो महान नेता, गृहमंत्री थे, वे वर्तमान शिवसेना, राकां, कांग्रेस की मिली-जुली सरकार में मंत्री हैं। माननीय मंत्री जी जेल की कोठरी में भी कई महीने गुजार चुके हैं। किस जुर्म में? यह भी क्या बताने की जरूरत है...!