Saturday, November 26, 2022

 दिल दहलाने वाला क्रूर सच

    संतरा नगरी नागपुर का रहने वाला था, भरत कालीचरण उर्फ अक्कु यादव। हवस का पुतला, जिसकी नस-नस में वहशियत और हैवानियत समायी हुई थी। जवानी की दहलीज पर पैर धरने से पहले ही उसने जुर्म की दुनिया में अपनी धाक जमा ली थी। जहां वह रहता था, वहीं उसने बलात्कारों और हत्याओं की झड़ी लगा दी। अपनी हवस मिटाने के लिए न तो उसने कभी उम्र देखी और ना ही समय का ध्यान रखा। उसकी अंधी वासना का शिकार बनने वाली महिलाओ में दस साल की बच्चियों से लेकर साठ-सत्तर वर्ष की नारियों तक का समावेश रहता था। जब भी वह अपने इलाके में निकलता तो युवतियां अपने घरों में कैद हो जातीं। माताएं अपनी बच्चियों को घरों में छिपा लेतीं। उसकी जिस महिला पर भी बुरी नज़र पड़ती, वह उसे अपना शिकार बना कर ही दम लेता। पहले तो वह बड़ी निर्दयता से उसकी अस्मत लूटता फिर हवस की आग ठंडी हो जाने पर उसकी राक्षसी क्रूरता के साथ हत्या कर देता। अपने शिकार को तड़पा-तड़पा कर मारने में उसे मनचाहे सुख और आनंद की अनुभूति होती थी। मासूम पोती के सामने दादी पर बलात्कार कर गुजरने वाले अक्कु यादव के अंतहीन गुनाहों की हर खबर खाकी वर्दीधारियों को थी, लेकिन कानून के अधिकांश रखवाले अंधे और बहरे बने हुए थे। कई पुलिस वाले उसके साथ बैठकर खाते-पीते, मौज मनाते और मनचाही रिश्वत की सौगात पाते थे। बलात्कार, डकैती, फिरौती, लूटपाट और खून की नदियां बहाने में माहिर अक्कु यह मान चुका था कि नागपुर की धरती पर उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। कानून-कायदे उसके लिए नहीं बने हैं। शहर के लोग उससे खौफ खाते हैं। वक्त पड़ने पर वह कई नेताओं के काम आता है और वे भी उसका साथ निभाते हैं। अक्कु की पहुंच और दहशत के चलते हद से ज्यादा त्रस्त और परेशान हो चुकी महिलाओं ने ही आखिरकार उससे हमेशा-हमेशा मुक्ति पाने की राह निकाल ली।
    वो 13 अगस्त 2004 की दोपहर थी, जब अक्कु को पुलिस के शाही संरक्षण में अदालत में पेश करने के लिए लाया गया था। अक्कु अपनी ही मस्ती में बेफिक्र और बेखौफ था। पुलिस वालों की छत्रछाया में काफी देर तक वह अपने शुभचिंतकों से बोलता-बतियाता रहा। घरवालों तथा अपने खास दोस्तों का हाल-चाल भी जाना। तभी एकाएक कोर्ट का गेट तोड़ लगभग 200 महिलाएं वहां आ पहुंची और इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता अक्कु पर अंधाधुंध मिर्च पावडर और पत्थरों की बरसात होने लगी। हाथों में तीक्ष्ण हथियार लिए भीड़ देखते ही देखते उस पर टूट पड़ी। किसी ने उसके हाथ-पैर काटे तो किसी ने उसके गुप्तांग का ही सफाया कर अपना गुस्सा उतारा। उसके जिस्म पर तब तक चाकू, छुरियां घोंपी जाती रहीं, जब तक उसने अंतिम सांस नहीं ली। कुछ ही मिनटों में 32 वर्षीय खौफनाक हत्यारे, बलात्कारी का काम तमाम कर भीड़ वहां से चलती बनी। ‘अक्कु कांड’ ने शहर के गुंडे बदमाशों की आंखें खोल दीं। कुछ वर्ष तक अक्कु यादव की तरह गुंडई दिखाने वाला कोई नया चेहरा डर के मारे सामने नहीं आया। छोटे-मोटे बदमाश जरूर आतंक मचाते रहे। अक्कु की पागल कुत्ते की तरह की गई हत्या के ठीक 18 साल बाद फिर एक बदमाश ने जैसे ही सिर उठाया तो महिलाएं मौका पाते ही अपनी पर उतर आईं। वर्ष 2022 के नवंबर महीने में फिर एक नराधम भीड़ के हाथों कुत्ते की मौत मरने जा रहा था, लेकिन उसकी किस्मत अच्छी थी, बच गया। उन्तालीस वर्षीय बाल्या जनार्दन कई तरह के नशे करता। नशे में धुत होते ही वह नग्न हो जाता और राह चलती महिलाओं से अश्लील छेड़छाड़ करने लगता। उसके मुंह से बलात्कार की धमकियां और गंदी-गंदी गालियां फूटने लगतीं। पहले तो महिलाएं नजरअंदाज करती रहीं, लेकिन उसकी गुंडई नहीं थमी। वह भी अक्कु की तरह लड़कियों तथा औरतों के जिस्म पर गंदी निगाहें गढ़ाये रहता था। मौका पाते ही उन्हें दबोच भी लेता था। एक रात एमडी के नशे में जब वह एक 65 वर्षीय महिला के साथ अश्लील हरकतें करते हुए जबरदस्ती कर रहा था तभी महिलाओं की भीड़ ने उसे घेर लिया। इस भीड़ में कुछ ऐसी थीं, जिन्हें बाल्या अकसर परेशान करता रहता था। वे उसे सबक सिखाना चाहती थीं। आज उनके लिए अच्छा मौका था। सभी छिछोरे बाल्या की धुनाई में जुट गईं। इसी दौरान उसने अपने एक बदमाश नशेड़ी दोस्त को भी वहां बुला लिया था। भीड़ ने तो बाल्या के घर को भी फूंकने का इरादा कर लिया था। भीड़ में से ही जोर-जोर से आवाजें आने लगीं, ‘‘अब ज्यादा मत सोचो, इसका भी अब अक्कु जैसा हाल कर दो। यह भी कभी नहीं सुधरने वाला।’’ बाल्या को महिलाओं के हाथों बुरी तरह से पिटता देख उसका साथी वहां से भाग खड़ा हुआ। इसी दौरान किसी ने पुलिस तक खबर पहुंचा दी। पुलिस ने बड़ी मुश्किल से उसे गुस्सायी महिलाओं से मुक्त करवाया, जिससे एक और ‘अक्कु हत्याकांड’ होते-होते रह गया।
    भीड़ ने अच्छा किया, बुरा किया इस पर अपने-अपने मत हैं, लेकिन एक प्रश्न यह भी है कि जब कानून के रखवाले बिक जाएं और गुंडे-मवाली लोगों का जीना हराम कर दें, महिलाओं को अपनी इज्जत लुटती और खतरे में पड़ती नजर आने लगे तो वे क्या करें? यह तो हुई बाहर के अपराधियों की बात। बाहर के अपराधी दिख जाते हैं। जैसे-तैसे उन्हें सबक भी सिखा दिया जाता है, लेकिन घर के भीतर, अपनों की शर्मनाक अक्षम्य बर्बरता और वहशी दरिंदगी का क्या?
महाराष्ट्र की सांस्कृतिक नगरी पुणे की 12वीं कक्षा की छात्रा की आपबीती किसी भी संवेदनशील इंसान का माथा घुमा सकती है और इस सुलगते सवाल में उलझा सकती है कि क्या खून के रिश्ते इतनी नीचता और गंदगी भरे हो सकते हैं? यह किशोरी जब मात्र बारह-तेरह वर्ष की थी तब उसके 33 वर्षीय चाचा ने कई बार उस पर बलात्कार किया। किशोरी ने चाचा की काली करतूत के बारे में अपने 70 वर्षीय दादा को बड़े आहत मन से फफक-फफक कर बताया, तो उन्होंने भी अपने कपूत को डांटने-फटकारने की बजाय अपनी ही पोती से छेड़खानी और बलात्कार करना प्रारंभ कर दिया। तब किशोरी उत्तरप्रदेश में अध्ययनरत थी। उसी दौरान उसने चिट्ठी के माध्यम से अपने पिता को चाचा और दादा की हैवानियत की जानकारी दी, लेकिन उन्होंने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। 2018 में उसने चाचा और दादा के घर को छोड़ा और पुणे अपने पिता के पास आ गई। बाप तो चाचा और दादा से भी बदतर नीच निकला। वह भी जब-तब बड़ी बेहयायी के साथ उसके शरीर से खेलने लगा। रिश्तों को शर्मसार कर देने वाली इस वहशियत का हाल ही में तब खुलासा हुआ जब किशोरी ने छह सालों से हो रहे यौन शोषण की जानकारी अपनी कॉलेज की यौन उत्पीड़न के मामले को देखने के लिए बनाई गई ‘विशाखा कमेटी’ को दी। अपना अथाह दर्द बयां करते वक्त एक बेटी रो रही थी और सुनने वाले भी बड़े गहरे सदमे में थे...।

Thursday, November 17, 2022

 यादों की संदूक

    वो दिन ही अजीब था। सुबह से ही उदासी ने घेर रखा था। फिर भी मैं अपने ‘राष्ट्र पत्रिका’ के कार्यालय में खबरों पर नज़रें गढ़ाये था। जैसे-तैसे सम्पादकीय भी लिख ली थी। दोपहर ने शाम की तरफ सरकना प्रारंभ कर दिया था। यही कोई पांच बजे के आसपास मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर गिरीश पंकज का नाम चमक रहा था। उन्होंने बड़े गमगीन स्वर में बताया कि श्री रमेश नय्यर नहीं रहे। अभी कुछ देर पहले ही मुझे उनके निधन का समाचार मिला है। इस अत्यंत दु:खद को सुनते ही दिल धक्क से रह गया। यह कैसे हो गया? अभी पांच दिन पहले ही उनका फोन आया था! मैंने तुरंत श्री रमेश नय्यर जी के सुपुत्र संजय नय्यर को फोन लगाया। मेरी आवाज भी भर्रायी हुई थी। उधर संजय का भी यही हाल था। उन्होंने बताया कि पापा पिछले कुछ हफ्तों से काफी बीमार थे। आज चार बजे के आसपास तबीयत कुछ ऐसी बिगड़ी कि यह अनहोनी हो गयी।
    हर वर्ष की तरह इस वर्ष की दीपावली के दिन भी शुभकामनाएं और बधाई देने के लिए मैंने श्री रमेश नय्यर को फोन लगाया था, लेकिन उन्होंने नहीं उठाया। ऐसा बहुत कम होता था। उसके बाद एक बार फिर और अगले दिन तीन-चार बार फोन लगाने पर जब उनसे बातचीत नहीं हो पायी तो मैं चिंतित हो गया। दिवाली के पांचवें दिन मेरे मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर नय्यर भाई साहब का नाम देखकर बहुत खुशी हुई। मेरे अभी नमस्कार कहा ही था कि वे शिकायती अंदाज में कहने लगे कि इस बार दीपावली पर मेरी याद नहीं आयी! मेरे यह बताने पर कि मैंने तो पांच-छह बार मोबाइल लगाया, लेकिन आपने ही नहीं उठाया। कुछ पलों तक दीपावली की शुभकामनाएं...बधाई के बाद उन्होंने मेरी पत्नी और बहू से भी कुछ देर तक बातचीत की। मैंने उन्हें भाभी जी के साथ नागपुर आने का अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि मुझे नागपुर आना, तुमसे मिलना हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन अभी तुम मिलने आ जाओ। उन्होंने यह नहीं बताया कि वे बीमार हैं। यही उनका स्वभाव था। अपनी तकलीफ को छुपाये रखते हुए दूसरों की उलझनों और मुसीबतों को दूर करने में अपनी जी-जान लगा देते थे।
    वो 1993 का साल था। बिलासपुर में स्थित धर्म अस्पताल में जिस रात मेरे पिताजी ने अंतिम सास ली उस दिन भी सुबह से ही मैं बहुत उदास और घबराया हुआ था। रमेश नय्यर मेरे लिए सगे भाई से भी बढ़कर थे। जब भी मिलते अभिभावक की तरह स्नेह और आशीर्वाद की अमृत धारा की बरसात कर देते। रात को बिस्तर पर नींद नहीं आयी। आखों के सामने नय्यर भाई साहब का चेहरा घूमता रहा। यादों की संदूक में संजोकर रखी किताब के पन्ने खुलते चले गए। वो सन 1978-79 के दिन थे, जब बिलासपुर से दैनिक ‘लोकस्वर’ का प्रकाशन प्रारंभ होने वाला था। तब मैं कटघोरा में रायपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘देशबंधु’ का संवाददाता था। मेरी लिखी कहानियां देश-प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। परिवार के कपड़ा व्यवसाय में मेरा मन नहीं लगता था। साहित्य की दुनिया से लगाव होने के कारण बिलासपुर और रायपुर जाना और लेखकों-पत्रकारों से मिलना-मिलाना होता रहता था। बिलासपुर के व्यंग्यकार, पत्रकार स्वर्गीय विजय मोटवानी उम्र में तो मुझसे छोटा था, लेकिन समझ के मामले में बड़ों को भी मात देने की क्षमता रखता था। उसके बड़े भाई ओम मोटवानी ने ही मुझे विजय से मिलवाया था। ओम और मैं सीएमडी कॉलेज में सहपाठी रहे थे। एक दिन शाम को जब मैं सदर बाजार स्थित मोटवानी बंधुओं की रेडिमेड कपड़े की दुकान पर पहुंचा तो उसने मुझे एक दुबले-पतले पत्रकार युवक से मिलवाया। यह गिरीश पंकज थे, जिन्होंने बाद में खुद को पूरी तरह से साहित्य के प्रति समर्पित करते हुए अनूठा कीर्तिमान रचा। यह सिलसिला अभी सतत बना हुआ है। उसी शाम हम तीनों पुराने बस स्टैंड के पास स्थित दैनिक लोकस्वर कार्यालय गये। वहां नय्यर जी से मेरी प्रथम भेंट हुई। पहली मुलाकात में ही नय्यर जी ऐसे मिले जैसे वर्षों के परिचित हों। लगभग घंटा भर तक अखबारी जगत और इधर-उधर की बातें होती रहीं। चाय-कॉफी का दौर भी चला। कटघोरा, पौड़ी उपरोड़ा का संवाददाता तथा लोकस्वर में नियमित कॉलम लिखने का मौखिक अनुबंध भी हो गया। तब के मध्यप्रदेश और अब के छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से दैनिक लोकस्वर का प्रकाशन होते ही उसकी दूर-दूर तक चर्चाएं होने लगीं। निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता का डंका बजने लगा। जिस सच को दूसरे अखबार छिपाते थे, उसे बेखौफ उजागर करने की वजह से प्रचार-प्रसार के मामले में लोकस्वर ने अल्पकाल में जो इतिहास रचा उसकी चर्चा आज भी होती है। लोकस्वर की अल्पकाल में अभूतपूर्व प्रगति की एक खास वजह संपादक श्री रमेश नय्यर की संपादकीय भी रही, जिसे पढ़ने के लिए कई सजग पाठक खास तौर पर लोकस्वर खरीदते थे। कुछ दुकानदार तो उनकी कलम के इतने मुरीद हो गये कि उनकी लिखी संपादकीय की कटिंग को फ्रेम करवाकर दुकानों में लगाते थे। अत्यंत प्रभावी संपादक, लेखक होने के साथ-साथ नय्यर जी एक कुशल वक्ता भी थे। दुबले-पतले हाजिर जवाब नय्यर जी से किसी भी विषय पर बातचीत की जा सकती थी। लतीफों... चुटकलों तथा शेरो-शायरी से उन्हें मौसम बदलना भी खूब आता था। अपने उसूलों के पक्के श्री नय्यर जी बिलासपुर में मात्र डेढ़-दो साल रहे, लेकिन उनके मित्रों की तादाद देखकर यही लगता था कि वे तो यहीं के बाशिंदे हैं। व्यक्ति को पहचानने की भी उनमें अद्भुत क्षमता थी। बहुत ही शांत, सहज और सरल जीवन जीने वाले नय्यर जी को कभी भी ऊंची आवाज में बोलते नहीं देखा गया। उनका कोई सहयोगी यदि कभी कोई गलती भी कर देता तो उस पर इस अंदाज से गुस्सा होते कि उसे बुरा नहीं लगता था। नये पत्रकारों को मार्गदर्शन देने तथा प्रोत्साहित करने में सदैव अग्रणी रहे नय्यर जी जब भी कार्यालय की केबिन में होते तो उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था। वे हर किसी से समभाव से मिलते। देशबंधु, युगधर्म, एमपी क्रानिकल, लोकस्वर, ट्रिब्यून, नवभास्कर, संडे ऑबजर्वर, समवेत शिखक में कार्यरत रहने के दौरान उन्होंने नये पत्रकारों तथा लेखकों का पूरे मन से मार्गदर्शन किया। उन सभी के दिलों में आज भी नय्यर जी के प्रति अपार श्रद्धा और सम्मान है। नय्यर जी जब बिलासपुर में थे तभी मेरा दैनिक श्रम बिंदु के संपादक शिव श्रीवास्तव से परिचय हुआ, जो कालांतर में पक्की और सच्ची मित्रता में तब्दील हो गया। शिव श्रीवास्तव भी नय्यर जी को अपना आदर्श तथा गुरू मानते थे। नय्यर जी के लोकस्वर छोड़कर रायपुर जाने के बाद जब भी मैं रायपुर जाता तो उनसे मिलकर ही चैन पाता। व्यापार में अभिरूचि नहीं होने के कारण मैं कटघोरा छोड़ने का मन बना चुका था। शिव श्रीवास्तव को जब मेरी तकलीफ के बारे में पता चला तो उन्होंने नय्यर जी से कोई हल निकालने का अनुरोध किया। नय्यर जी ने तुरंत हल भी पेश कर दिया। रायपुर के सत्ती बाजार में उनकी दुकान, जिसमें कभी ‘महानदी प्रकाशन’ चलता था, उसकी चाबी मुझे थमा दी। मैंने नाहटा बिल्डिंग में स्थित इस दुकान पर कपड़े का व्यवसाय प्रारंभ कर दिया तथा पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में पूरी तरह से सक्रिय हो गया। अखबार की नौकरी से परिवार चलाना संभव नहीं था। जब नय्यर जी नवभास्कर के संपादक थे, तब उन्होंने मुझे कुछ पंजाबी के कथाकारों की किताबें देते हुए कहा कि इनका हिंदी अनुवाद कर नवभास्कर में भेजते रहो। हर महीने तीन-चार पंजाबी कहानियों का हिंदी अनुवाद नवभास्कर में प्रकाशित होने से मुझे प्रतिमाह लगभग पांच-छह सौ मिलने लगे। यह सिलसिला उनके नवभास्कर छोड़ने तक बना रहा। रायपुर में सात-आठ साल तक व्यवसाय और पत्रकारिता की दो नावों की सवारी करते-करते निराशा ने मुझे घेर लिया। तनाव और हताशा ने मुझे इतना अस्वस्थ कर दिया कि महीनों अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। तब नय्यर जी ने मुझे समझाया कि खुलकर पत्रकारिता करना ही मेरे लिए हितकारी होगा। तब नागपुर में मेरा इलाज चल रहा था। जब मैं काफी हद तक स्वस्थ हो गया तो मैंने दो-ढाई वर्ष तक विभिन्न अखबारों में नौकरी करने के बाद पहले साप्ताहिक ‘विज्ञापन की दुनिया’ और उसके बाद ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। अवरोध और तकलीफे तो कई आयीं, लेकिन हिम्मत को जिन्दा रखे रहा। नागपुर से दोनों साप्ताहिकों के सफलतापूर्वक संचालन पर श्री नय्यर जी को वैसी ही खुशी और तसल्ली हुई, जो एक पिता को होती है। उनके आकस्मिक निधन के बाद मैंने यह भी जाना कि वे तो अनेकों पत्रकारों, लेखकों के लिए ऐसे घने वृक्ष थे, जिसकी छाया कड़ी से कड़ी धूप से बचाये रखती है। यह उनकी सर्वप्रियता का ही सुखद परिणाम है कि राजकुमार कॉलेज से प्रगति कॉलेज तिराहा (चौबे कॉलोनी) मार्ग का नामकरण उनके नाम पर करने की घोषणा कर दी गई है।

Thursday, November 10, 2022

राजनीति का खूनी चक्का

    नेताओं के प्रलोभनों और बड़े-बड़े सपनों के मायाजाल में फंसकर न जाने कितने लोग पाते तो कुछ भी नहीं, उल्टे अपना सब कुछ गंवा और लुटा बैठते हैं। कपटी नेताओं और समाजसेवकों को दूसरों की जिन्दगी से खेलने और अपनों की जिंदगी को संवारने का भरपूर हुनर आता है। नकाब पर नकाब और मुखौटे लगाने में भी कोई उनका सानी नहीं। कभी-कभी उनकी चालाकी उन्हीं पर भारी भी पड़ जाती है। उन्हीं के विश्वासपात्र उन्हें ऐसी गहरी चोट दे देते हैं कि वे उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कर पाते।
    कश्मीर को अशांत बनाये रखने में वहां के धूर्त नेताओं तथा अलगाववादियों की खासी भूमिका रही है। अपने मतलब को साधने के लिए इन्होंने कितने खून खराबे करवाये, बचपन लूटे और जवानियों को नेस्तनाबूत किया उसका किसी के पास कोई हिसाब नहीं। इन्हीं के बहकावे में आकर अपनी जिंदगी के कई साल मटियामेट करने वाले फारूख की जब आंखें खुलीं तो उसके पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। तब फारूख मात्र सोलह वर्ष का था, जब अलगाववादियों ने उस पर अपना मायाजाल फेंका और वह भी उसमें ऐसा फंसा कि पढ़ाई-लिखायी छूट गई। कई अन्य कश्मीरी किशोरों और युवकों की तरह फारूख का ब्रेनवाश कर पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवाद की ट्रेनिंग के लिए ले जाया गया। ट्रेनिंग देने वालों में पाकिस्तानी सेना के अफसर भी थे और आतंकी भी। ग्रेनेड फेंकने तथा हर तरह के हथियारों को चलाने के साथ-साथ मार्शल आर्ट्स और पहाड़ों पर चढ़ने की ट्रेनिंग देते हुए दिन-रात उसके दिमाग में भरा गया कि जहां तुम जन्मे हो... रहते हो वो कश्मीर गुलामी की जंजीरों में जकड़ा है और गुलामी से बड़ा और कोई अभिशाप नहीं होता। किसी का गुलाम होने से अच्छा है मर जाना। कश्मीर की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने से बड़ा पुण्य और कोई हो ही नहीं सकता। इस फर्ज को निभाते हुए मरने वालों को हमेशा याद रखा जायेगा।
    कश्मीर में तैनात भारतीय सेना पर हमला करने वाले आतंकियों के जत्थे में शामिल रहे फारूख को शुरू-शुरू में तो हत्याएं और खून खराबा करते हुए यही लगता रहा कि वह यह सब अपने कश्मीर की बेहतरी के लिए कर रहा है। कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति मुशिर उल हक की हत्या के बाद उसे हकीकत का आभास हुआ। फारूख की तब तो आंखें खुली की खुली रह गईं जब उसने देखा कि कश्मीर की आजादी के लिए उकसाने वाले अलगाववादी नेताओं के यहां तो धन की बरसात हो रही है। उन्होंने आलीशान होटल बनवा लिए हैं। वे महंगी कारों में चलते हैं। आलीशान कोठियों में भोग-विलास भरा जीवन जी रहे हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं और दूसरों के बच्चों के हाथों में बंदूकें पकड़वाकर आम कश्मीरियों की हत्याएं करवा रहे हैं। फारूख ने 1991 में आत्मसमर्पण कर दिया। आठ साल की जेल काटी। जेल से बाहर आने के बाद फारूख ने भटके कश्मीरी युवाओं को नेताओं का असली चेहरा दिखाते हुए समझाना प्रारंभ कर दिया कि अलगाववादी नेता और पाकिस्तान ने पढ़ाये-लिखाये आतंकी सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए तुम्हें गुमराह कर रहे हैं। इनका मकसद कश्मीर की भलाई करना नहीं, कश्मीर को किसी भी तरह से भारत से अलग करना है। इसलिए इनके बहकावे में आने का मतलब है, अपनी बर्बादी और मौत। कश्मीर में बीते वर्षों में मतलबी नेताओं ने जिस तरह से बच्चों, किशोरों और युवकों के हाथों में पत्थर और हथियार थमा कर अपनी दुष्टता दिखाने का चक्र चलाये रखा और खुद तमाशा देखते हुए सुरक्षित मौजमस्तीवाला जीवन जीते रहे उसका पर्दाफाश हो चुका है।
    आजादी के बाद यही कपटी काम पूरे भारत में किस्म-किस्म के नेताओं की स्वार्थी कौम ने अपने-अपने अंदाज से करने में कोई कमी नहीं की है। राजनीतिक दलों के मुखियाओं से लेकर उनके छोटे-बड़े नेताओं ने जिन कार्यकर्ताओं की बदौलत सत्ता का स्वाद चखा वे तो वहीं के वहीं रह गए, उनकी जवानी बुढ़ापे में बदल गई, लेकिन नेताओं तथा उनके परिजनों के हिस्से में इतना अधिक धन और सुख-सुविधाएं आयीं कि देखने वालों की आंखें तक चुंधिया गईं। सत्तालोलुप नेताओं ने नैतिकता और ईमानदारी को भी ताक पर रख दिया। बहुत कम नेताओं ने आमजन के हित की सोची। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और अपराधी अंकुशहीन हो गए। पुल और पटरियां उखड़ती रहीं। अफसर, ठेकेदार मालामाल होते रहे। बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मोरबी में नवनिर्मित पुल के ध्वस्त होने से लगभग डेढ़ सौ जिन्दा इंसान मुर्दों में तब्दील हो गये। इनमें पुरुष भी थे। महिलाएं भी थीं। बच्चे, युवा और बूढ़े सभी थे। पुल को बनाने का ठेका अपने ही खास आदमी को दिया गया था, जिसकी पुल के निर्माण से ज्यादा सरकारी धन पर नज़र थी। उसकी तिजोरी में तो करोड़ों रुपये जमा हो गए, लेकिन किस कीमत पर?
    अभी कुछ दिन पहले यह कलमकार देश के प्रदेश छत्तीसगढ़ में कुछ सजग पत्रकार मित्रों के बीच बैठा था। वे डंके की चोट पर बता रहे थे कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को चौबीस घंटे अपनी कुर्सी बचाये रखने की चिंता खाये रहती है। आम जनता की चिंता करने से ज्यादा दिल्ली में बैठे अपने आकाओं को हर तरह से प्रसन्न रखने की कवायद में लगे रहते हैं। उनकी कुर्सी को छीनने की तिकड़में लगाने वालों ने उनकी रातों की नींद ही उड़ा रखी है। बातों ही बातों में स्वर्गीय अजीत जोगी की काली दास्तानों का भी जिक्र चल पड़ा। जिन्होंने कलेक्टर, सांसद और मुख्यमंत्री रहते इतनी काली माया बटोरी, जिसे संभाल पाना मुश्किल हो गया। करोड़ों-अरबों रुपयो को सुरक्षित ठिकाने पर लगाने के लिए कई तिकड़में करनी पड़ीं। कुछ विश्वासपात्रों को उन्होंने करोड़ों रुपये यह सोचकर अमानत के तौर पर सौंपे कि वक्त आने पर इशारा करते ही वापस मिल जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विश्वासपात्रों को विश्वासघाती बनने में देरी नहीं लगी। हराम की कमायी ऐसे ही लुटती है। कुदरत ने भी जोगी को अपंग कर ऐसी सज़ा दी कि चलने-फिरने के लायक ही नहीं रहे। अभी हाल ही में फेसबुक पर मैंने रायपुर के साहित्यकार मित्र स्वराज करुण के भेजे किसी फिल्म के अल्पांश को देखा। उसे देखते ही माथे की नसें फटती-सी लगीं। सरकारी पुल के टूट जाने पर कई लोग मारे गये। उन्हीं में शामिल है एक पिता का मासूम बेटा। पिता अथाह गुस्से, गैस सिलेंडर और पिस्टल के जोर पर कुछ सफेदपोशों को अपने कब्जे में किये हुए है। नेता, मंत्री, इंजीनियर, सरकारी ठेकेदार इनमें शामिल हैं। वह उनसे जानना चाहता है कि करोड़ों रुपयों से बना यह पुल एकाएक कैसे ढह गया? पहले तो कोई भी कुछ भी उगलने को तैयार नहीं होता, लेकिन जब आंखों से अंगारे उगलती आंखें और जुबान उन्हें मौत के मुंह में सुलाने का भय दिखाती है तो ठकेदार बताता है कि खिलाने-पिलाने के कारण मजबूत पुल का निर्माण नहीं हो पाया। पिता पूछता है कि किसे खिलाना पड़ा? तो उसकी उंगली मंत्री की ओर इशारा करती है। भय से कांपता मंत्री अपनी सफाई देता है कि सारा धन अकेले मैंने नहीं खाया। जिस राजनीतिक पार्टी की बदौलत हम सत्ता का स्वाद चखते चले आ रहे हैं उसे चलाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों के फंड की जरूरत पड़ती है। फिर हम भी तो चुनाव के वक्त मतदाताओं को रिझाने के लिए क्या कुछ नहीं करते। कई बार अपनी सारी जमा पूंजी दांव पर लगा देते हैं। इस सारी सर्कस और धंधे को चलाने के लिए जो अपार धन लगता है वह सब इसी मौत के खेल के भ्रष्टाचार से ही तो आता है। इसमें अकेले हम कसूरवार नहीं। देश की जनता भी तो है, जो सबकुछ देखती-समझती है, लेकिन फिर भी हम जैसों को जीत का सेहरा पहनाकर विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक की कुर्सी पर बैठाती है...।

Thursday, November 3, 2022

उनका कसूर? ...हैं बेकसूर!!

    अरुण और गोपाल की हैरतअंगेज आपबीती जानकर मैं घंटों सोचता रहा कि यदि मैं उनकी जगह होता तो क्या करता। यही चिंता... यही सवाल आपके मन में भी हिलौरें मार सकता है। ज़रा इनके साथ हुए घोर अन्याय के बारे में गंभीरता से सोचें और जानें तो! हां यह भी जान लें कि अरुण और गोपाल जैसे न जाने कितने बेकसूरों को ऐसी ही अन्याय की सुलगती भट्टी में जलना पड़ता है। इन्होंने तो अपनी कह दी, लेकिन न जाने कितने बेकसूर अपने जख्मों को अपने अंदर समेटे घुट-घुट कर अनाम मौत का कफन ओढ़ अपराधी होने के कलंक के साथ इस दुनिया से ही चल देते हैं। किसी को कोई खबर नहीं होती। नागपुर के रेलवे स्टेशन पर उस दिन भी रेलगाड़ियों के आने और जाने, यात्रियों के चढ़ने और उतरने की गहमागहमी थी। हमेशा की तरह उस दिन भी कई लोग अपने रिश्तेदारों, मित्रों और अन्य करीबियों को छोड़ने और लेने आए थे। इसी भीड़ में खड़े थे एक्टिविस्ट अरुण फरेरा, जो किसी अपने पुराने प्रिय मित्र के आने की राह देख रहे थे। जिस ट्रेन से मित्र का आगमन होने वाला था उसके शीघ्र प्लेटफार्म पर आने की घोषणा हो चुकी थी। तभी अचानक अरुण ने खुद को 15 लोगों से घिरा पाया। वे कुछ जान-समझ पाते इससे पहले ही उन्हें धक्के मारकर स्टेशन से बाहर ले जाया गया और एक कार में धकेल दिया गया। चलती कार में उन पर धड़ाधड़ मुक्के, थप्पड़ और डंडे बरसते रहे। उनके शरीर से लहू बहता रहा। इसी दौरान उन्हें बताया गया कि वह नागपुर की एंटी नक्सल सेल की गिरफ्तारी में हैं। हतप्रभ अरुण उन्हें बताने की कोशिश में लगे रहे कि वे किसी गलतफहमी के शिकार हैं। उन्हें किसी ने झूठी जानकारी दी है, लेकिन उनकी जरा भी नहीं सुनी गई। दूसरे दिन शहर और देश के अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों की यही खास खबर थी, ‘एक खूंखार नक्सली को एंटी नक्सल सेल ने धर दबोचा है। कई वर्षों से नक्सली गतिविधियों में शामिल इस देशद्रोही के संगीन अपराधों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है...।’
    पुलिस कस्टडी में मुंह खुलवाने के लिए अरुण को राक्षसी तरीके से दिन-रात मारा-पीटा गया। गंदी-गंदी गालियों के साथ-साथ वो सारे हथकंडे भी अपनाये गये, जिनके लिए पुलिस खासी बदनाम है। अरुण यही कहते रहे कि हिंसा, मारकाट और नक्सलियों से उनका कभी कोई रिश्ता नहीं रहा। वह तो बस गरीबों, दलितों, शोषितों और हर वर्ग के वंचितों के हितैषी और मददगार हैं। जो इनके साथ अन्याय करते हैं, इनपर जुल्म ढाते हैं, उन्हीं के खिलाफ उनका वर्षों से युद्ध जारी है। जो पुलिसिये पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे, अरुण के बारे में पहले से ही अपनी पुख्ता राय और सोच बनाये हुए थे, वे कहां कुछ सुनने वाले थे। कुछ दिनों के पश्चात अरुण को जेल की उस अंडा सेल में डाल दिया गया, जिसका नाम सुनते ही अपराधी कांपने लगते हैं। पांच-छह फीट की इस सेल का आकार अंडे जैसा होता है, इसलिए इसे अंडा सेल कहा जाता है। पूरी तरह से बॉम्बप्रूफ इस सेल में हमेशा घुप्प अंधेरा रहता है। सांस लेने के लिए हवा की कमी 24 घंटे कैदी को अपने गुनाहों की याद दिलाने के साथ-साथ जानलेवा घुटन से भी रूबरू कराती रहती है।
प्रतिबंधित कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) का सदस्य होने समेत कुल 10 आरोपों के चक्रव्यूह में फंसाये गये अरुण चार साल आठ महीने बाद जमानत पर जेल से बाहर तो आ गए, लेकिन देशद्रोही होने के कलंक ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अपनों ने भी दूरियां बना लीं। जमानत के दो वर्ष बाद जब उनपर कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया तो उन्हें बरी कर दिया गया, लेकिन लोगों की उनके प्रति नक्सली वाली धारणा नहीं बदली। बेकसूर होने के बावजूद जेल की कड़ी सज़ा भुगतने वाले अरुण ने अपने कटु अनुभवों पर एक किताब भी लिखी। वंचितों की सहायता करने का उनका हौसला अभी भी जस का तस बना हुआ है। मुंबई में रहते हुए उन कैदियों को कानूनी सहायता दिलवाकर बाहर निकालने के अभियान में लगे हैं, जिन्हें आतंकवादी और नक्सली होने के झूठे आरोप में जेल में डाल दिया जाता है। अरुण को आज भी इस गम से छुटकारा नहीं मिला, जो वर्षों की अंधी कैद ने उन्हें दिया। कहीं न कहीं उनका कानून से भी भरोसा तो उठा ही है। एकदम निर्दोष होने पर भी दोषी मानते हुए प्रताड़ित किये गए अरुण फरेरा का क्षोभ कभी भी नहीं मिटने वाला। कानून के रक्षकों की बेइंसाफी भी शूल की तरह चुभती रहेगी।
    गोपाल शेंडे के साथ भी ऐसी ही बेइंसाफी हुई। उन्होंने जो अपराध किया ही नहीं था उसकी सात साल की सज़ा काटी। नागपुर में रहने वाले गोपाल मायानगरी मुंबई में स्थित एक होटल में व्यवस्थापक के पद पर कार्यरत थे। 19 जुलाई, 2009 को घाटकोपर रेलवे स्टेशन पर एक मतिमंद महिला किसी बलात्कारी की अंधी हवस का शिकार हो गई। देश की अत्यंत सतर्क, होशियार और उम्दा माने जाने वाली महाराष्ट्र पुलिस ने गोपी नाम के आरोपी के स्थान पर गोपाल को बलात्कार के आरोप में हथकड़ियां पहना दीं। उनकी सुनने की बजाय अपनी मनमानी कर डाली। जेल में जाने के बाद उनका पूरा परिवार ही बिखर गया। पत्नी ने किसी और का दामन थाम लिया। दोनों बेटियों को अनाथालय में पनाह लेनी पड़ी। मां की पागलों जैसी हालत हो गई। पिता को बेटे के बलात्कार के आरोप में जेल जाने के सदमे ने इस कदर आहत किया कि उनकी मौत हो गई। सत्र न्यायालय ने बलात्कार के संगीन आरोप में गोपाल को सात साल की सजा भी सुना दी! उन्होंने इसके विरोध में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तो 10 जून, 2015 को उन्हें निर्दोष रिहा कर दिया गया। सात साल बाद जब गोपाल जेल से बाहर आये तो पूरी तरह से तन्हा, बेबस और खाली हाथ थे। अदालत ने तो बेकसूर मानते हुए बरी कर दिया था, लेकिन लोगों की निगाह में गोपाल अभी भी बलात्कारी थे। कोई उन्हें नौकरी देने को तैयार नहीं था। कई दिन भूखे-प्यासे भटकते रहे। सब्र भी जवाब देता चला गया। किसी ने भी उनके साथ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखायी। आज भी उन्हें यही लगता है कि वे किसी ऐसी रेलगाड़ी पर सवार हैं, जो दिल को कंपकंपाते हुए धड़...धड़...धड़...धड़ करती किसी अंधेरी सुरंग से गुजर रही है और सुरंग है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही! पुलिस प्रशासन की महाभूल और नालायकी की वजह से अपने जीवन के अनमोल सात साल लुटा चुके गोपाल को सरकार से भी कोई मदद नहीं मिली है। समाज का वो तथाकथित सजग तबका भी अपनी आंखों पर पट्टी बांधे है, जो अन्याय के खिलाफ आंदोलन करने के लिए जाना जाता है। खुद को एकदम लाचार, हारा और लुटा हुआ महसूस करते गोपाल शेंडे की दोनों बेटियां अभी भी अनाथाश्रम में रह रही हैं!