Thursday, February 27, 2020

क्या सच सामने आयेगा?

कुछ बातें, साजिशें और विषैली शब्दावली भुलाये नहीं भूलती। दंश की तरह चुभती है। दिल और दिमाग के इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाती है। ऐसा भी होता है कि बिना सोचे-समझे बार-बार भडकाऊ और अनर्गल बोल बोलने वाले अंतत: मज़ाक के पात्र बन कर रह जाते हैं। वे जिन लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं वे भी उनकी नहीं सुनते। एआईएमआईएम के नेता वारिस पठान ने कलबुर्गी की एक जनसभा में चुनौती देते हुए कहा कि १५ करोड मुसलमान १०० करोड हिन्दुओं पर भारी पडेंगे। अभी तो सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही बाहर निकली हैं, तो पूरा देश परेशान हो गया। जब पूरा मुस्लिम समुदाय एकजुट होकर बाहर निकलेगा तब देखना देश की क्या हालत होगी। हमने ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख लिया है।
यह नेता, यह उग्रवादी जिसका अपनी जुबान पर अंकुश नहीं, जिसे यह भी खबर नहीं कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जो भीड एकत्रित हुई उसमें मुस्लिमों के साथ-साथ हिन्दू और सिखों का भी समावेश है। तुम सच को दरकिनार कर मरने-मारने की बातें कर रहे हो! धिक्कार हैं तुम्हारी नेतागिरी पर। तुम्हारी भडकाऊ घटिया सोच पर। यह देश जिसका नाम हिन्दुस्तान है, वह तुम जैसे जडहीन बद्दिमाग नेताओं को हमेशा नकारता आया है। सजग जनता की निगाह में तुम और कपिल शर्मा जैसे तमाम बद्जुबान नेता 'जोकर' हैं, जिन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। भाजपा के नेताओं ने 'गोली मारो सालों को' तथा 'ट्रंप के जाने के बाद सबक सिखायेंगे' जैसी धमकियां देकर खुद को तुम्हारे समकक्ष खडा कर लिया है। इसके साथ ही भाजपा की छवि भी धूमिल की है। हिन्दुस्तान की तमाम अमनपरस्त जनता मिलजुल कर रहने में यकीन रखती है। सर्वधर्म समभाव के शत्रुओं की फितरत से वह खूब वाकिफ हैं। तुम जैसे कई शैतान आए और गए। उनका नामों-निशान भी मिट गया। तभी तो हिन्दुस्तान छाती ताने खडा था, खडा है और खडा रहेगा। कोई भी ताकत इसे डिगा नहीं सकती। झुका नहीं सकती। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ देशवासियों को भडकाने वाले और विषैली भाषणबाजी करने वाले इन्सानियत के शत्रु कितनी भी कोशिशें कर लें, लेकिन उनके सपने कभी पूरे नहीं होंगे।
बेंगलुरु में नागरिकता कानून संशोधन कानून के खिलाफ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल पार्टी के मंच पर अमूल्या नाम की एक युवती ने पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाये। पाकिस्तान के प्रति सम्मान और भारत माता का अपमान करने वाली यह युवती पत्रकारिता की छात्रा है। टुकडे-टुकडे गैंग के पदचिन्हों पर चल रही यह युवती भडकाऊ भाषण देने में पारंगत कर दी गई है। अपने देश में पिछले कुछ वर्षों में एक महारोग बडी तेजी से फैला है, जिसका नाम है, 'कन्हैया रोग'। इस रोग के शिकार खुद को किसी 'क्रांति दूत' से कम नहीं समझते। इनमें मीडिया की सुर्खियां पाने की जबरदस्त भूख है। यह स्वयंभू क्रांतिकारी चौबीस घण्टे इसी उधेडबुन में लगे रहते हैं कि टुकडे-टुकडे गैंग के सरगना कन्हैया कुमार की तरह किस तरह से रातों-रात चर्चित हुआ जाए। यह 'कन्हैया रोगी' भीड देखते ही अपना संयम खो देते हैं। हिन्दुस्तान मुर्दाबाद और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने लगते हैं। मीडिया का एक वर्ग इन्हें नायक दिखाने-बताने में बहुत बडी भूमिका निभाता चला आ रहा है। वैसे भी अधिकांश अखबारों, न्यूज चैनलों, संपादकों और पत्रकारों ने भी अपने-अपने गुट और गिरोह बना लिये हैं। सभी की अपनी-अपनी भूख और कामनाएं हैं। २०१४ से पहले जिनकी भरपूर पूछ-परख होती थी, सभी स्वार्थ सधते थे, तब की सरकार के मंत्री उनके इशारे पर चलते थे, लेकिन भाजपा की सरकार में अब कोई उन्हें घास नहीं डालता तो उनके तेवर बदल गये हैं। उनकी पत्रकारिता का धर्म बदल गया है। यह 'रोगी मीडिया' दिन-रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की सिर्फ कमियां ही गिनाते रहता है। दूसरी तरफ 'भोगी मीडिया' है, जिसका सरकारीकरण हो चुका है। उसका बस एक ही काम है मोदी की चरणवंदना करते रहना।
सच तो यह है कि नागरिकता संशोधन कानून का समर्थन तथा विरोध करने वालों की भीड में कुछ ऐसे लोग शामिल हो गये हैं, जिनका राष्ट्रप्रेम और अहिंसा से कोई वास्ता नहीं है। इनका उद्देश्य ही साम्प्रदायिक सद्भाव के परखच्चे उडाकर देशभर में अशांति और दहशत फैलाना है। इस विकटकाल में पत्रकारिता कटघरे में है। दंगों के समाचार देने में निष्पक्षता नहीं बरती जा रही है। देश जल रहा है। साजिशों की बारूद बिछाई जा चुकी है। उपद्रवियों के पत्थर और गोलियां निर्दोषों की जान ले रही हैं। पुलिस वाले भी मौत के घाट उतारे जा रहे हैं। अस्पतालों के बिस्तर घायलों से भरे पडे हैं। राजधानी दिल्ली का ऐसा डरावना चेहरा पहले कभी नहीं देखा गया। हिंसा की जो तस्वीरें आ रही हैं उनसे पूरे देश में दहशत है। आम जन में अथाह गुस्सा है। नफरत फैलाने वालों को समय रहते यदि काबू कर लिया जाता तो हालात इतने बदतर नहीं होते। हाथों में डंडे, लाठियां, रॉड और तमाम हिंसा का सामान लिए जानी-अनजानी भीड का दिल्ली को युद्ध का मैदान बना देना यही दर्शाता है कि शासन और प्रशासन ने पूरी तरह से सतर्कता नहीं बरती। अधिकांश खाकी वर्दी वालों ने अपनी ड्यूटी ढंग से नहीं निभायी। वे अपना हाथ बांधे खडे रहे। विभिन्न तस्वीरें उनके बेबस और तमाशबीन बने रहने की चीख-चीख कर गवाही देती हैं, और यह भी बताती हैं कि दंगाई, जिनका कोई धर्म नहीं होता उन्होंने जी भरकर आतंक मचाया। पत्थरबाजी की, वाहन, घर और दुकानें जलायीं।

Thursday, February 20, 2020

सुनो, हिन्दू-मुसलमान

जिन्हें नहीं मानना, वे भले ही न मानें, लेकिन दिल्ली की जनता ने बता दिया है कि देश और देशवासी क्या चाहते हैं। अगर उन्हें देश के गद्दारों को गोली मारो... जैसे नारे पसंद होते तो आम आदमी पार्टी को फिर से विधानसभा चुनावों में भारी-भरकम जीत नहीं मिलती। यह चुनाव भारत और पाकिस्तान के बीच की लडाई भी नहीं था। भावावेश में की गई तमाम बयानबाजियां औंधे मुंह जा गिरीं। ऐसे में यह नहीं होता तो क्या होता? इतिहास गवाह है, नफरत हमेशा हारती रही है। हैवानियत को मुंह की खानी पडी है। इंसानियत की हमेशा जीत हुई है। यह तो राजनीति और राजनेताओं की नासमझी है, बौनापन है, जिन्हें सच समझ में नहीं आता। वे हकीकत को जानना-परखना नहीं चाहते।
ऐसी ही भूल और अक्खडता की गिरफ्त में हैं वो कट्टर चेहरे जो इस भ्रम में हैं कि वे अपने-अपने धर्म के लोगों के संरक्षक हैं। उन्हीं की ताकत की बदौलत ही हिन्दू और मुसलमान सुरक्षित हैं। अगर वे न हों तो पता नहीं क्या हो जाए। एक तरफ खुद को हिन्दुओं के सच्चे साथी तो दूसरी तरफ मुसलमानों के अधिकारों के एकमात्र रक्षक होने का दावा करने वाले भाषणवीर हैं, जिन्होंने देश की फिज़ा में विष घोलने की कसम खा रखी है। उन्हें हिन्दू और मुसलमानों का मिलजुलकर ईद, दिवाली, होली और अन्य उत्सव मनाना रास नहीं आता। अफसोस की बात तो यह भी है कि सर्वधर्म समभाव और अमन चैन के इन दुश्मनों के झूठ और अफवाहों के जाल में अच्छे-भले लोग भी फंस जाते हैं और तब जो मंजर सामने आते हैं उनसे पूरे विश्व में हिन्दुस्तान की छवि धूमिल होने में देरी नहीं लगती। अपने देश को विदेशों में बदनाम करने में कट्टरपंथियों और नेताओं के साथ-साथ हम लोगों का भी कम योगदान नहीं है। यह हम ही हैं, जो किसी के बहकावे में आने में देरी नहीं लगाते। सही और गलत का निर्णय दूसरों पर छोड इस हकीकत को भुला देते हैं कि किसी भी समस्या का हल संवाद से संभव है, जिद्द और विवाद से नहीं। देश को आजाद हुए ७२ वर्ष हो गये, लेकिन अभी तक हम राजनीति और सत्ता की चालाकियों को नहीं समझ पाये। अपने उन नेताओं को पहचानने का हुनर भी हममें नहीं आया, जिन्हें हम अपना कीमती वोट देकर अपना वर्तमान और भविष्य सौंप देते हैं। लोकतंत्र में चुने हुए सांसद और विधायक न सिर्फ हमारे प्रतिनिधि होते हैं, बल्कि क्षेत्र के अभिभावक भी होते हैं। उनके चरित्र, आचरण, बोलने के तौर-तरीकों से भी उनका आकलन होता है। उनके शब्द और विचार भी दूर-दूर तक अपना प्रभाव छोडते हैं। यह कितनी हैरत भरी सच्चाई है कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करने वाली प्रज्ञा ठाकुर और गुंडों, हत्यारों वाली आतंकी भाषा बोलने वाले अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे लोग चुनाव जीतकर सांसद और विधायक बन जाते हैं। कौन जितवाता है इन्हें? यकीनन हम ही...। कौन से प्रलोभन, भय और मजबूरी के चलते हमारा मत ब‹डी आसानी से उनकी झोली में चला जाता है, जिन्हें आग उगलने के सिवाय और कुछ नहीं आता। ऐसे नेता इधर भी हैं, उधर भी हैं। इन नेताओं को अच्छी तरह से पता है कि उनकी लोकप्रियता की वजह क्या है। इनके मन में तो सिर्फ ज़हर ही ज़हर है, लेकिन भाषणों में जनवाद, मानवतावाद, धर्म निरपेक्षता, बराबरी और न्याय पाने के नारे हैं। मजहब के नाम पर बैर कराना इनकी राजनीति भी है और धर्म भी। हिन्दू और मुसलमानों के बीच भेदभाव, मनमुटाव पैदा करने वाले यह नेता जनता को कभी कोई तरक्की का मार्ग नहीं दिखाते। इनकी तो सतत यही मंशा रहती है कि लोगों को असली मुद्दों से भटकाकर, आपस में लडवाकर धार्मिक मामलों में उलझाये रखा जाए। सबसे अफसोस की बात तो यह भी है कि नफरत की बोली बोलने वाले खलनायकों को अधिकांश न्यूज चैनलों के द्वारा नायक की तरह पेश किया जाता है। न्यूज एंकर खुद स्टुडियो में हिंसा भडकाने की भाषा बोलते हैं। देश को तोडने, आग लगाने के सपने देखने वाले नकाबपोशों, बदमाशों और उनके भडकाऊ नारों और बयानों को बार-बार इस तरह से दिखाया और सुनाया जाता है, जिससे दोनों तरफ गुस्सा और आग भडके। कट्टर और कट्टर हो जाएं, अपना आपा ही खो दें और मरने-मारने पर उतारू हो जाएं।
३० जनवरी को महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर जामिया में निकले रहे शांतिपूर्ण जुलूस पर गोपाल नामक एक युवक ने खुलेआम तमंचा लहराकर गोली चलायी। बडी दबंगता से उसने यह भी कहा, 'ये लो आज़ादी।' नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर लोगों को उकसाने और भडकाने वाले युवक शरजीत इमाम के हौसले इतने बढ गये कि वह देश के प्रदेश असम को देश से काटने की बातें करते हुए गांधी को फासिस्ट बताने लगा! आखिर ऐसे आतंकी, देश और समाज के दुश्मन, हत्यारों के प्रतिरूप आते कहां से हैं? कौन है इनका जन्मदाता, प्रेरक और आदर्श? जवाब से भी कोई नावाकिफ नहीं। यही उन्मादी उग्रवादी बाद में नेता बन जाते हैं, बना दिये जाते हैं। भिन्न-भिन्न नाम से अपनी राजनीतिक पार्टियां चलाने वाले इनके आका इन्हें विधानसभा और लोकसभा चुनाव की टिकट देकर चुनाव लडवाते हैं और अगर कहीं यह चुनाव जीतकर विधानसभा और संसद भवन पहुंच जाते हैं तो कैसे-कैसे शर्मिंदगी भरे मंजर सामने आते हैं उनसे भी हम और आप अनभिज्ञ नहीं हैं।

Thursday, February 13, 2020

फूट डालो, राज करो

यह कैसा दौर है! गोली वाली बोली बोली जा रही है। नफरत के बीज बोये जा रहे हैं। बच्चों के मुंह में कत्ल की धमकियां हैं। अधिकांश पत्रकार पक्षकार बन गये हैं। सच छुपाते हैं, झूठ का परचम लहराते हैं। अपना नफा-नुकसान देखकर पत्रकारिता की जा रही है। देश की लगभग सभी पार्टियों में कुछ ऐसे नेता हैं, जिनकी भाषा पर लगाम नहीं। हिन्दू-मुसलमान पर नफरत की राजनीति करने में कोई संकोच नहीं। खुद को सुर्खियों में बनाये रखने के लिए मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ रहे हैं। प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री जैसे सम्मानित पदों पर विराजमान नेताओं को गंदी, घिनौनी और विषैली शब्दावली से अपमानित किया जाने लगा है। घृणा की इबारतें लिखने वाले किसी को भी नहीं बख्श रहे हैं। यहां तक कि महात्मा गांधी के पूरे स्वतंत्रता आंदोलन को नाटक कहा जा रहा है। कुछ लोग पता नहीं कौन-सी आजादी चाहते हैं। उनकी देश को टुकडे करने वाली सोच चंद लोगों को भले ही भाती हो, लेकिन अधिकांश देशवासी खफा हैं। गुस्से में हैं।
इसमें दो मत नहीं कि महात्मा गांधी के प्रति अधिकांश भारतीयों में अपार श्रद्धा है। उनके लिए अहिंसा का यह पुजारी पूज्यनीय है। वंदनीय है, लेकिन कुछ लोग हैं, जिनके मन में बापू के प्रति श्रद्धा और सम्मान नहीं है। यह बात दीगर है कि उनके नेता महात्मा की प्रतिमा के समक्ष नतमस्तक हो उनके गुणगान में कोई कसर नहीं छोडते। भारतीय जनता पार्टी के सांसद अनंत हेगडे का यह कहना करोडों भारतीयों को चौंका गया कि पूरा स्वतंत्रता आंदोलन अंग्रेजों की सहमति से चला था। महात्मा गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन महज ड्रामा था। जिन स्वतंत्रता सैनानियों ने देश के लिए कोई बलिदान नहीं दिया, उन्होंने यह विश्वास दिलाया कि भारत को आजादी उपवास-सत्याग्रह से मिली है। दरअसल, ब्रिटिश डर गये थे और देश को आजादी उपहार में दे दी थी, लेकिन ऐसे लोग (महात्मा गांधी) महापुरुष बन गये।
इस तरह की बयानबाजी करने वाले नेताओं को अपना आदर्श मानने वाले लोग दलितों, शोषितों के मसीहा के बारे में तरह-तरह की बातें करते रहते हैं, लेकिन देश का आम आदमी तो उन्हें महामानव ही मानता है, जिन्होंने सत्य और शांति के मार्ग पर चलकर देश को आजादी दिलवायी। पूरी दुनिया को अहिंसा, शांति और भाईचारे का संदेश देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की ३० जनवरी १९४८ की शाम ५ बजकर १७ मिनट पर नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस निर्मम हत्याकांड ने पूरे विश्व को हिला कर रख दिया था। हर किसी की आंखों में आंसू थे। तब लार्ड माउन्टवेटन ने भीगे स्वर में कहा था कि ब्रिटानी हुकूमत इस कलंक से बच गई। भारत को आजादी दिलाने में अभूतपूर्व योगदान देने वाले महात्मा की हत्या उनके देश, उनके राज्य और उनके लोगों ने ही की है। अगर इतिहास बापू का निष्पक्ष मूल्यांकन करेगा तो उन्हें ईसा और बुद्ध के समकक्ष रखेगा। गांधी की अहिंसक शक्ति का लोहा पूरे विश्व ने माना था। आज भी देश और दुनिया की निगाह में बापू बेमिसाल हैं। अद्वितीय हैं, लेकिन गोडसे के 'प्रेमी' इस सच को स्वीकारने को तैयार नहीं। आजादी के सत्तर साल बाद भी 'हत्यारे' के अनुगामी मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए ज़हर उगलते रहते हैं। अपना देश हिन्दुस्तान मौजूदा दौर में बडे गंभीर हालात से गुजर रहा है। सरकार और सत्ता भी अजीब-सी नींद की गिरफ्त में है। देश में बेरोजगारी चरम सीमा पर पहुंच चुकी है। उद्योग-धंधों की बेहद खस्ता हालत है। सार्वजनिक उपक्रम की नीलामी हो रही है। युवाओं को कुछ सूझ नहीं रहा है। वे भटकाव और आत्महत्या करने को विवश हैं। किसान आत्महत्याओं का सिलसिला बरकरार है। देश का सारा धन चंद उद्योगपतियों की तिजोरियों में जा रहा है। आम आदमी मातम मना रहा है। हालात यह हैं कि आम भारतीयों का नेताओं के प्रति मोह भंग हो गया है। उन्होंने उनसे सच्चाई और ईमानदारी की उम्मीद ही छोड दी है। देश को नफरत के खेल में उलझा दिया गया है। इस खतरनाक खेल में बडे-बडे नेता भी शामिल हैं। कुछ प्रत्यक्ष रूप में तो कुछ परोक्ष रूप में। देश में आदर्श चेहरों का घोर अकाल-सा पड गया है।
देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वालों को कटघरे में खडा करने वाले कितना भी ज़हर उगलते रहें, लेकिन हकीकत तो कुछ और है...। ओडिशा में संबलपुर से लगा एक गांव है, जिसका नाम है, भत्रा। लोग इसे भटारा भी कहते हैं। इस गांव में महात्मा गांधी का मंदिर बना है, जहां पर सुबह-शाम पूजा और रामधुन बजती है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर हाथ में तिरंगा लिए भारत माता की प्रतिमा है। भीतर हाथ में गीता लिए गांधीजी की बैठी हुई प्रतिमा है। गांव के सभी लोग बापू को भगवान मानते हैं। लगभग सभी घरों में उनकी तस्वीर लगी है। गांधी जी के इस मंदिर को १९७४ में बनवाया गया था। तभी से गांधीजी को भगवान के रूप में पूजा जा रहा है। महात्मा के इस गांव में कोई भी नशा नहीं करता। सभी मिलजुलकर रहते हैं। कभी कोई विवाद हो भी जाए तो गांधी जी की कसम खाकर दोनों पक्ष निपटारा कर लेते हैं। पुलिस तक मामले जाते ही नहीं हैं। आपसी सौहार्द से छुआछूत जैसी समस्याओं को जड से खत्म कर दिया गया है। कोई भी नई-नवेली बहू ससुराल में कदम रखने से पहले आशीर्वाद लेने के लिए गांधी मंदिर जाती है। बरेली के उम्रदराज शायर मोहम्मद इलियास सच्चे राम भक्त हैं। बापू को अपना आदर्श मानते हैं। उनकी तमन्ना है कि गांधी बाबा और श्रीराम के इंसानियत भरे पैगाम को देश के हर शख्स तक पहुंचाया जाए। वे कहते हैं,
"यह मंदिर और मस्जिद न
तुम्हारे काम आएंगे,
करोगे कत्ल सिर पर
खून के इल्जाम आएंगे
तुम्हारा जुल्म ही दुनिया में
जब बन जाएगा रावण,
मिटाने वो उसे फिर से
श्रीराम आएंगे।"

Thursday, February 6, 2020

गुमनाम जनसेवकों का सम्मान

अपने देश हिन्दुस्तान में ऐसे कई लोग हैं, जो प्रचार की चकाचौंध से दूर जनहित के कार्यों में सतत तल्लीन हैं। सच्ची इंसानियत का परचम फहराने वाले इन गुमनाम नायकों को किसी सम्मान और पुरस्कार की चाहत नहीं। यह तो बस दूसरों की निस्वार्थ सेवा को ही अपना धर्म और सम्मान मानते हैं। २६ जनवरी, गणतंत्र दिवस के अवसर पर जिन १४१ लोगों को पद्म पुरस्कार प्रदान किये गये, उनमें कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनका अधिकांश भारतीयों ने पहले कभी नाम ही नहीं सुना था। आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाली यही हस्तियां ही भारत का असली चेहरा हैं, जो समाजसेवा करने के इच्छुकों की प्रेरणास्त्रोत होने के साथ-साथ महान सीख की उज्ज्वल तस्वीर हैं। राजस्थान के शहर अलवर में कभी सिर पर मैला ढोने वाली उषा चौमर को पद्मश्री पुरस्कार दिये जाने पर उन्हें जानने वाले लोग स्तब्ध भी हैं और बेहद प्रसन्न भी। स्वच्छता की मुहिम के तहत किये गये उनके कार्यों के प्रशंसकों ने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि उन्हें इस शीर्ष सम्मानजनक पुरस्कार से नवाजा जाएगा। उषा चौमर तो अपने कर्तव्य और काम में लीन रहने में ही यकीन रखती हैं। उषा ने कभी भी किसी पुरस्कार की आकांक्षा नहीं की थी। माता-पिता बेहद गरीब थे। छोटी उम्र में ही उषा को मैला ढोने के काम में लगा दिया गया था। महज दस साल की उम्र में शादी कर दी गई थी। प्रतिदिन गंदगी और बदबू से जूझने वाली उषा को वो दिन भुलाये नहीं भूलते जब सफेदपोश दूरियां बनाकर रखते थे। भूले से भी किसी को छूने पर डांट और गंदी-गंदी गालियां खानी पडती थीं। जिनके घरों की सफाई करती थीं वे भी बडी नीची निगाह से देखते थे। प्यास लगने पर पानी तक पिलाने से कतराते थे। काफी अनुरोध करने पर अलग रखे कांच के गिलास में पानी भर देते थे, जिसे बडी शर्मिंदगी के साथ पीना पडता था। खुद के घर में भी पानी का कनेक्शन नहीं था। करीब दो किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पडता था। वहां भी अछूत होने के दंश से बार-बार घायल होना पडता था। कभी-कभी तो भगा भी दिया जाता था। ऐसे में नहाने और पीने के पानी तक के लाले पड जाते थे। सन २००३ में बिंदेश्वर पाठक की नई दिशा संस्था से जुडने के बाद उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। पाठक, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक हैं। उन्होंने सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करने के साथ-साथ मानव मल की सफाई में लगे अस्पृश्य कहे जाने वाले लाखों लोगों की मुक्ति और पुनर्वास के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया है। इस महान समाजसेवक ने ऐसे व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की जहां पर दलित महिलाओं को सिलाई, कढाई और ब्यूटी केयर का प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बना सिर पर मानव मल ढोने के शर्मनाक कार्य से मुक्ति दिलवाई जाती है। अन्य कई स्त्रियों की तरह उषा चौमर की भी जिन्दगी बदल गई। वह भी मैला ढोने के काम को छोडकर अचार और जूट के थैले बनाने के साथ-साथ अन्य कई कार्य करते हुए खुद तो आत्मनिर्भर बनी हीं, और भी कई महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाकर उनकी जिन्दगी संवार दी। उनकी आर्थिक स्थिति में अभूतपूर्व सुधार करने का कीर्तिमान रच कर लोगों को अचंभित कर दिया। जो सफेदपोश कल तक करीब आने से कतराते थे वे उनका गुणगान करने लगे। विभिन्न कार्यक्रमों में आमंत्रित कर मंचों पर आसीन करने लगे। स्वच्छता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाली यह जुझारू नारी अमेरिका सहित पांच देशों की यात्रा कर चुकी हैं। २००८ में उनके बनाये कपडों को पहन कर विदेशी मॉडलों ने मिशन सेनिटेशन के तहत यूएन की ओर से आयोजित कार्यक्रम में कैट वॉक किया था। कई संघर्षों से दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुकीं उषा अपनी बेटी को उच्च शिक्षा दिलवाने में जुटी हैं। उनका कहना है कि महात्मा गांधी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे ऐसे बडे नेता हैं, जिन्होंने स्वच्छता का अभियान चलाकर देशवासियों को जगाया है। वह उन्हें राखी भी बांध चुकी हैं। गंदगी, बदबू और लानतभरी जिन्दगी को काफी करीब से देखने और भोगने वाली उषा चौमर आज दूसरों का जीवन संवारते हुए खुद भी सम्मान और शान से जी रही हैं। एक वो भी समय था जब वह जीना ही नहीं चाहती थीं तब तो वह मंदिर भी नहीं जा पाती थीं, जाने ही नहीं दिया जाता था, लेकिन अब प्रति दिन पूजा-अर्चना करती हैं।
मुन्ना मास्टर उर्फ रमजान खान और उनका परिवार कृष्ण भक्त है। उनके घर में जगह-जगह भगवान कृष्ण और राधा की तस्वीरें लगी हैं। रमजान खान को जब पद्मश्री दिए जाने की सूचना मिली तो वे गोशाला के मंदिर में प्रति दिन की तरह भजन कर रहे थे। रमजान खान को गोमाता की सेवा करने और श्याम के भजन गाने में बेहद आनंद मिलता है। भगवान कृष्ण और गाय पर उनके लिखे भजनों को लाखों लोग गाते हैं। उनके पिता मास्टर गफूर खान प्रख्यात संगीतज्ञ थे। वे प्राचीन जुगल दरबार मंदिर में राधाकृष्ण और सीताराम के भजन गाते थे। रमजान अपने पिता के साथ मंदिर जाते थे और वहां पर पिता के साथ भजन गायकी का रियाज करते थे। आगे चलकर वह खुद लोकप्रिय भजन गायक के साथ सर्वधर्म समभाव के संदेश वाहक बन गए। उन्होंने अपने चारों बेटों को संस्कृत में शिक्षा दिलायी। अपनी दो बेटियों का नाम लक्ष्मी और अनीता रखा। रमजान खान के एक बेटे फिरोज खान संस्कृत के प्रकांड विद्वान हैं, लेकिन यह सच बेहद चिंतनीय है कि विश्वविद्यालय के छात्रों को संस्कृत पढाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी गई। विरोध और विवाद के कारण उन्हें नौकरी छोडनी पडी। ताज्जुब है कि सरकार ने भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया!
चंडीगढ के निवासी जगदीश लाल आहूजा प्रतिदिन डेढ हजार से दो हजार लोगों को खाना खिलाते हैं। लंगर बाबा के नाम से प्रख्यात इस शख्स ने गरीबों, भूखों को भरपेट खिलाने के लिए अपनी करोडों की सम्पत्ति तक बेच डाली है। चालीस साल से मानवता का धर्म निभाते चले आ रहे इस महान इन्सान को जब पद्मश्री सम्मान, पुरस्कार दिए जाने की खबर मिली तो उन्हें पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। फिर बाद में काफी देर तक उनकी आंखों से आंसू बहते रहे। उनकी यही तमन्ना है कि लंगर सेवा करते हुए ही उनका दम निकले।
मोहम्मद शरीफ हजारों लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं। वे लोगों में 'शरीफ चाचा' के नाम से मशहूर हैं। अयोध्या के निवासी शरीफ चाचा के बेटे की २७ साल पहले हत्या कर दी गई थी। उसका शव लावारिस मानकर कहीं फेंक दिया गया था। अपने बेटे की मौत की खबर उन्हें एक महीने बाद मिली। उन्होंने बहुत खोजबीन की पर बेटे की लाश नहीं मिली। दिल को दहला देने वाली इस घटना के बाद उन्होंने लावारिस शवों के अंतिम संस्कार करने की जो प्रतिज्ञा की, उसे अभी तक निभा रहे हैं। खास बात यह भी है कि शव के धर्म की पहचान कर उसका अंतिम संस्कार उसी के रीति-रिवाज के अनुसार किया जाता है। उनका कहना है कि जब तक मैं जिन्दा हूं, तब तक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करता रहूंगा। वहीं उनके बडे बेटे ने कहा कि पिता के द्वारा शुरू किया यह मानवीय कार्य उनके बाद भी सतत जारी रहेगा। हमारा पूरा परिवार पिता को सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किये जाने पर बेहद खुश है।