Thursday, August 31, 2017

धूर्त और बहुरूपिये

नाम राम रहीम। लेकिन उनके संस्कारों और नेक कर्मों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। इंसां होने का दावा करने वाले शैतान गुरमीत ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि उसे अपने दुष्कर्मों की सज़ा मिलेगी। उसके सत्ताधीशों से प्रगाढ रिश्ते थे। नेता, अफसर उसके यहां आकर चरणवंदना करते थे। प्रशासन उसके इशारों पर नाचता था। इसलिए वह पूरी तरह से बेफिक्र होकर दुष्कर्म पर दुष्कर्म करता रहा और जिसने भी उसके खिलाफ आवाज़ उठाई उसकी इस दुनिया से रवानगी कर दी गई। फिर भी सदियों से चली आ रही यह कहावत कि 'ऊपर वाले के यहां देर है, अंधेर नहीं' चरितार्थ हो गई। डेरा सच्चा के सर्वेसर्वा गुरमीत को केन्द्रीय जांच ब्यूरो की विशेष अदालत ने अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार करने के संगीन अपराध में बीस साल की कडी सजा सुनायी। खुद को भगवान का दूत कहने वाला गुरमीत फैसला सुनते ही फूट-फूट कर रोया। हाथ जोडकर उसने दया की भीख मांगी। उसके हाथ-पैर कांपने लगे। वह बार-बार माफी की भीख मांगता रहा और कहता रहा है कि उसने जीवन पर्यंत बेबसों, गरीबों, दलितों, शोषितों की मदद की है। लाखों लोगों को नशे से मुक्ति दिलवायी है, वेश्याओं का उद्धार किया है, विधवाओं को आश्रय दिया है और समाज के लिए ऐसे कई काम किये हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन माननीय जज पर कोई असर नहीं पडा। उन्होंने तो गुरमीत के काले सच की पूरी किताब पढने-जांचने के बाद ही यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। गुरमीत की नीच हरकतों का पिटारा तो २००२ में ही खुल गया था जब पीडित साध्वी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर डेरा सच्चा सौदा के सिरसा डेरे में साध्वियों से दुष्कर्म किये जाने की शिकायत कर गुरमीत के संत नहीं, कुसंत होने का सारा काला-चिट्ठा पूरे सबूतों के साथ पेश किया था। तब होना तो यह चाहिए था कि यह खबर देश के तमाम अखबारों के पहले पन्ने पर जगह पाती, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। गुरमीत का अथाह रसूख और धनबल काम कर गया और अधिकांश नामी-गिरामी, बडे-बडे पत्रकारों, संपादकों और मालिकों ने बिकने में देरी नहीं लगायी। गुरमीत ने अपने व्याभिचारी चेहरे को छुपाने के लिए देश के बडे-बडे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में चार-चार-आठ-आठ पेज के ऐसे-ऐसे विज्ञापन छपाने शुरू कर दिए जिनमें उसे ईश्वर का एकमात्र ऐसा दूत दर्शाया गया जिसका इस धरती पर आगमन ही गरीबों की सेवा और नारी कल्याण के लिए हुआ है। पत्रकारिता के इस बिकाऊ और घोर अंधेरे दौर में उजाले की किरण के रूप में तब एक पत्रकार ने गुरमीत के काले कारनामों को उजागर करने का बीडा उठाया। इस पत्रकार का नाम था, रामचंद्र छत्रपति। वे सिरसा से एक सांध्य दैनिक 'पूरा सच' का प्रकाशन करते थे जिसकी खबरें उसके नाम के अनुरुप होती थीं। उन्होंने बेखौफ होकर साध्वी की चिट्ठी को 'पूरा सच' में प्रकाशित करने के साथ-साथ उसके तमाम काले कारनामें लगातार उजागर करने का अभियान चला दिया। इससे गुरमीत की तो चूलें ही हिल गयीं और वह इस कदर बौखलाया कि उसने निष्पक्ष निर्भीक पत्रकार की हत्या करवा दी। इस निर्मम हत्या पर कहीं कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। एक पाखंडी के द्वारा करवायी गई इस निर्मम हत्या को महज एक आम खबर मानकर भुला दिया गया और अब जब गुरमीत को जेल में ठूंसा गया तो देश के तमाम मीडिया को रामचंद्र छत्रपति की कुर्बानी की याद हो आयी। विभिन्न न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों में छत्रपति की निर्भीक पत्रकारिता के चर्चे होने लगे। जिन दैनिक अखबारों के मालिकों और संपादकों ने तब छत्रपति के द्वारा भेजी गई साध्वी की चिट्ठी और गुरमीत के डेरों में चलने वाले हवस के खेल की सच्चाई को छापने से इन्कार कर दिया था वे भी अब यही लिखते और कहते नजर आ रहे हैं कि पत्रकार हो तो रामचंद्र जैसा, जिसने गुरमीत जैसे दानव से लोहा लेकर सजग पत्रकारिता का मान और सम्मान बढाया। सच तो यह है कि अगर तब देश का सारा मीडिया पाखंडी गुरमीत के पर्दाफाश में जुट जाता तो उसके कुकर्मों की शर्मनाक यात्रा और आगे नहीं बढ पाती। मीडिया ही है जो लोगों को जगा सकता है। यह काम नेताओं के बस का नहीं है। उन्हें तो जहां से वोट मिलते दिखते हैं, वहीं पर वे भीख का कटोरा लेकर पहुंच जाते हैं। अय्याश गुरमीत को सजा सुनाये जाने के बाद कई अंधभक्तों के होश ठिकाने आ गये हैं और उन्होंने वासना के कीचड में सने ढोंगी की तस्वीरों को कचरे और नालियों के हवाले करना शुरू कर दिया है। यह उनके साथ किये गए विश्वासघात से उपजा गुस्सा है। यह नफरत उन हवस के पुजारियों के लिए चेतावनी है जो साधु का लिबास धारण कर भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। गुरमीत जैसे कई और धूर्तों का जाल जहां-तहां फैला है। इनके कई खरीदे हुए चेले होते हैं जो भोले-भाले लोगों को फांसने के लिए दिन-रात इनके गुणगान के प्रचार में लगे रहते हैं। इनके निशाने पर अनपढ और गरीब लोग ज्यादा होते हैं जिन्हें बताया जाता है कि बाबा उनकी सभी समस्याओं का खात्मा कर सकते हैं। उनकी सभी मनचाही मुरादें पूरी हो सकती हैं। निराश और हताश लोग बडी आसानी से उनके झांसे में आ ही जाते हैं। गुरमीत के भी ऐसे ही अंधभक्त शिष्यों की संख्या लाखों-करोडों में थी जो 'चमत्कार' पर यकीन रखते थे। बाबाओं के अनुयायियों की संख्या के आधार पर ही उनकी कीमत, रूतबा तय होता है। गुरमीत के डेरों में उनके लाखों भक्तों को वोट में तब्दील करने के लिए विभिन्न पार्टियों के राजनेता उसके आगे-पीछे दौडते रहते थे। वे उसके यहां नतमस्तक होने के लिए बार-बार हाजिरी लगाते रहते थे। 'इस हाथ ले, उस हाथ दे' की नीति पर चलने वाला गुरमीत उन्हें भरोसा दिलाता था कि उसके लाखों भक्तों के वोटों पर सिर्फ उन्हीं का हक है। इन्हीं वोटों के लालच में ही वर्षों तक कांग्रेस गुरमीत पर कई तरह की मेहरबानियों की बरसात करती रही। चार कांग्रेसी सांसदों ने सीबीआई के डायरेक्टर पर पावन रिश्तों के हत्यारे गुरमीत का केस बंद करने का जबर्दस्त दबाव बनाकर उसके हौसले को बुलंद किया था। भारतीय जनता पार्टी पर भी कांग्रेस की परंपरा निभाने के आरोप हैं।
गुरमीत की तथाकथित बेटी हनीप्रीत ने डंके की चोट पर कहा कि, "हरियाणा में विधानसभा के चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी से यह डील हुई थी कि पार्टी के सत्ता में आने के बाद भरपूर राहत प्रदान की जाएगी और बलात्कार का मुकदमा खत्म कर दिया जाएगा। गुरमीत ने भाजपा के दिग्गज नेताओं पर यकीन कर डेरा के प्रभाव वाली २८ विधानसभा सीटों पर भाजपा के पक्ष में मतदान करने का फरमान जारी किया था। मनोहरलाल खट्टर ने ही चुनाव के वक्त गुरमीत की मुलाकात अमित शाह से कराई थी। गुरमीत को पूरा यकीन था कि उसके साथ धोखा नहीं होगा। सीबीआई कोर्ट की ओर से उसे बलात्कार का दोषी ठहराए जाने के बाद यह तय हो गया है कि भाजपा के दिग्गज नेताओं ने वोट के लालच में सत्ता प्राप्ति के लिए बाबा के साथ धोखा किया है।"

Thursday, August 24, 2017

आज़ादी...आज़ादी...आज़ादी?

कितने युवा ऐसे हैं जो सच्चे प्यार की परिभाषा को आत्मसात करने को तैयार ही नहीं हैं। स्कूल कॉलेजों में अध्ययनरत असंख्य छात्रों को जकडता सेक्स और रोमांस का बुखार भयावह और चिंताजनक मंजर दिखाने लगा है। एकतरफा तथाकथित प्यार के आवेश में मनमानी करने वाले मजनुओं ने सम्मान, मनुहार और त्याग से दूरी बनानी शुरू कर दी है। उनमें यह सोच घर कर चुकी है कि मेरी नहीं, तो किसी और की भी नहीं। नहीं सुनना तो उन्हें कतई रास नहीं आता। इसी के फलस्वरूप उनके बलात्कारी और हत्यारे होने के समाचार बेटियों और उनके माता-पिता को बेहद डराने लगे हैं। वैसे ऐसे लोगों की तुलना तो सिर्फ और सिर्फ जानवरों से ही की जा सकती है। मानसिक रूप से बीमार वासना के गुलामों के कई चेहरे हैं। एक ओर जहां बेगाने घिनौने दुराचारों को अंजाम दे रहे हैं वहीं अपने भी अपनों की इज्जत पर डाका डालने में पीछे नहीं हैं। जो संबंध कभी पवित्रता की कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरते थे, उनमें खोट का आ जाना कई-कई सवाल खडे करता है। करीबी रिश्तों में घर कर चुकी विषाक्त गंदगी की सफाई आखिर कैसे हो पायेगी और दूसरों की मजबूरी और पीडा का फायदा उठाने की प्रवृत्ति का कैसे अंत होगा?
श्रेया बारहवीं क्लास की छात्रा थी। वह प्रोफेसर बनना चाहती थी। वह एशियाड और ओलंपियाड में कई बार टॉप लेवल पर आ चुकी थी। २८ जुलाई २०१७ को उसने स्कूल के जोनल कॉम्पिटशन अचीवमेंट में यह कविता सुनाई थी जिसे सुनकर सभी भावुक हो गए थे, "बेटियां किसी से कम नहीं... मगर घर से निकलने में डरती हैं... नजरें घूरती हैं... डर लगता है पीछा करने वालों से... फिर भी बेटियां किसी से कम नहीं, किसी के डर से घर में कैद न करो...।" १७ वर्षीय श्रेया शुरू से ही पढाई में होनहार थी। रात को दो बजे तक पढती रहती थी। माता-पिता को उसे याद दिलाना पढता था कि काफी रात हो गयी है, अब सो जाओ, सुबह स्कूल जाना है। स्कूल से आने के बाद भी वह अपने भाई को पढाती और मां के साथ काम में हाथ बंटाती। हर पल का सदुपयोग करने वाली श्रेया की १६ अगस्त २०१७ को गला दबाकर हत्या कर दी गई। हत्यारा और कोई नहीं, उसी का दोस्त सार्थक था, जिससे उसने कुछ वजहों से दूरियां बना ली थीं और बात तक करना बंद कर दिया था। लेकिन सार्थक जब-तब उसका पीछा कर उसे तंग करता रहता था। श्रेया ने सार्थक को कई बार फटकारा, लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। उसके पास श्रेया की कुछ तस्वीरें भी थीं जिनके दम पर वह उस पर एकांत में मिलने के लिए दबाव डालता था। बुधवार शाम आठ बजे श्रेया ट्यूशन पढकर घर लौट रही थी तो वह उसके समक्ष गिडगिडाने लगा कि उसे सिर्फ एक बार जरूरी बात करनी है। इसके बाद वह कभी उसका पीछा नहीं करेगा। श्रेया उसकी बात मान गई। दोनों कुछ ही दूरी पर संकरी गली में जा पहुंचे। श्रेया ने उसे अपना ध्यान पढाई-लिखाई पर लगाने और उसका पीछा करने से बाज आने को कहा तो वह भडक उठा। सार्थक कुछ और ही सोचकर आया था। उसने बस यही रट लगाये रखी कि वह उससे बेहद प्यार करता है। श्रेया ने उसे बहुतेरा समझाया कि उसके मन में कभी भी ऐसा कोई ख्याल नहीं आया। दोस्ती का उसने गलत अर्थ लगाया है। गलत हरकतों के कारण ही वह उसकी नजरों से गिर चुका है। बातों ही बातों में दोनों के बीच नोंक-झोंक और धक्का-मुक्की होने लगी। गुस्से में आकर उसने श्रेया का गला घोंटा और सीधे अपने घर पहुंच गया।
श्रेया के माता-पिता और भाई इस सदमे को कभी भी नहीं भूल पाएंगे। उसका हंसना-खिलखिलाना और शरारतें करना उन्हें जब-तब याद आता रहेगा। बेटी के कमरे में सजे मेडल्स, शील्ड और सर्टिफिकेट्स ताउम्र पुरानी यादों को ताजा करते हुए आंखों को भिगोते रहेंगे। हत्यारा सार्थक तो कुछ साल जेल की सलाखों के पीछे रहने के बाद जिन्दा अपने घर वापस लौट आयेगा।
जब देशवासी आजादी का जश्न मना रहे थे तब चंडीगढ में दस साल की एक बलात्कार पीडिता बच्ची ने अस्पताल में एक बेटी को जन्म दिया। बच्ची को उसके मामा ने अपनी हवस का शिकार बनाया था। बीते महीने जब बच्ची के पेट में दर्द हुआ तो उसकी मां उसे डॉक्टर के पास ले गई थी। वहां पर पता चला कि बच्ची तो सात महीने से गर्भवती है। बच्ची के गर्भवती होने की खबर जब मीडिया में आयी तो पूरा देश स्तब्ध रह गया। अखबारों और न्यूज चैनलों पर चर्चाओं का दौर चलने लगा। पिता, चाचा, भाई, मामा के वहशीपन की नयी-पुरानी दास्तानें दुहरायी जाने लगीं और गर्त में जाते नजदीकी रिश्तों पर गहन चिन्ता जताने का सिलसिला चल पडा। नाबालिग बच्ची के अबॉर्शन की अनुमति मांगी गई, लेकिन शीर्ष अदालत ने अनुमति देने से इन्कार कर दिया था। ३२ हफ्ते के गर्भ की मेडिकल रिपोर्ट देखने के बाद अदालत का मानना था कि गर्भपात न तो पीडिता के लिए ठीक है और न ही भ्रूण के लिए। बच्ची की प्रेग्नेंसी ३६ हफ्ते के करीब पहुंचने पर उसे १५ अगस्त के दिन आपरेशन थिएटर ले जाया गया जहां उसने बेटी को जन्म दिया। अबोध बच्ची से उसके गर्भवती होने के सच को छिपाया गया। उसे बताया गया कि उसके पेंट में पथरी थी जिसका ऑपरेशन किया गया है। गौरतलब है कि मनोविज्ञान की डॉक्टरों ने डिलीवरी से पहले बच्ची को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने के लिए काउंसलिंग को जरूरी बताया था, पर बच्ची के माता-पिता ने मना कर दिया था। उनका कहना था कि इससे बच्ची को पता चल सकता है कि वह गर्भवती है। बच्ची के पिता ने दो दिन पहले मेडिकल कॉलेज प्रशासन को एक पत्र में स्पष्ट लिख दिया था कि वे किसी भी हालत में नवजात को अपनाने को तैयार नहीं हैं। उनकी बेटी को भी जन्म लेने वाले बच्चे का मुंह न दिखाया जाए। देश के कई लोगों ने बच्ची को गोद लेने की इच्छा जतायी है। अमेरिका से एक व्यक्ति ने बच्ची को गोद लेने के लिए हॉस्पिटल डायरेक्टर को ईमेल भेजी है।
मानवता का धर्म तो यही कहता है कि लाचार और बीमार के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए उसकी सहायता करनी चाहिए। लेकिन...। १५ अगस्त को देश की राजधानी दिल्ली में लोगों का चौंका देने वाला बेरहम और बेपरवाह चेहरा नजर आया। एक तेज रफ्तार कार की चपेट में आया युवक १४ घण्टे तक रिंग रोड पर तडपता रहा, लेकिन किसी को भी उसकी मदद करने की नहीं सूझी। उलटे उसे लूट लिया गया। एक स्कूटर सवार लहुलूहान तडपते युवक के पास पहुंचा और उसका १२ हजार रुपये से भरा बेग और जेब से तीन हजार रुपये लेकर चलता बना। हां, उसने वहां पर एक पानी की बोतल जरूर रख दी। एक पानी की बोतल के बदले १५ हजार की इस लूट ने यकीनन इंसानियत को तो शर्मसार कर ही डाला।

Thursday, August 17, 2017

अपनी जान के दुश्मन

मैं तो यही मानता हूं कि यह जीवन विधाता का दिया एक ऐसा उपहार है जिसकी हिफाजत और कद्र की ही जानी चाहिए। जो लोग आत्महत्या करते हैं वे यकीनन भ्रमित और कायर होते हैं। उनमें जीवन की राह में आने वाले संघर्षों का सामना करने की ताकत नहीं होती। निर्बल और विवेकहीन भी होते हैं यह लोग। रोजमर्रा की छोटी-मोटी समस्याओं को अटल पहाड मान घबरा जाते हैं। मुंह छिपाकर भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझते हैं। इनकी सारी शिक्षा-दीक्षा भी अर्थहीन हो जाती है। बच्चे कहीं न कहीं बडों से ही प्रेरणा लेते हैं। जब बडे ही अपने कर्तव्य से भागने लगें, अपने जीवन को नीरस मानने लगें और समस्याओं से टकराने का दम ही न रहे तो सोचिए बच्चे किस राह पर चलेंगे? मेरी आखों के सामने रह-रहकर बक्सर के डीएम मुकेश पांडे का चेहरा कौंधने लगता है। अखबारी दुनिया से बेहद करीबी का वास्ता रखने के कारण आम मौतों और दुर्घटनाओं की खबरें ज्यादा नहीं चौंकातीं। हां किसी जुआरू नेता, अधिकारी, समाजसेवक, साहित्यकार की आत्महत्या की खबर मुझे हिलाकर रख देती है। बिहार के बक्सर जिले के जिलाधिकारी मुकेश पांडे का शव बीते सप्ताह की रात गाजियाबाद स्टेशन से एक किमी दूर कोटगांव के पास रेलवे ट्रैक के पास क्षत-विक्षत हालत में मिला। एक सुसाइड नोट भी बरामद हुआ। २०१२ बैच के इस आइएएस अधिकारी ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि, 'मैं अपनी जिन्दगी से काफी परेशान हो गया हूं। मेरा इंसान के अस्तित्व पर से ही विश्वास उठ गया है। मेरे मां-बाप और पत्नी में हमेशा तनातनी रहती है। हमेशा उलझते रहते हैं, जिससे मेरा जीना दुश्वार हो गया है। दोनों गलत नहीं हैं, दोनों आपस में प्यार करते हैं, लेकिन हर बार अति अच्छी नहीं होती। मेरी पत्नी मुझसे प्यार करती है। मेरी बेटी भी है। मेरी शादी के बाद जीवन में उथल-पुथल है। हम दोनों की छवि बिल्कुल अलग है। हम दोनों का कोई मेल नहीं है, फिर भी मैं दोनों से प्यार करता हूं। मेरी मौत के लिए मेरी छवि ही जिम्मेदार है। मैं खुले दिल का नहीं हूं। मैं जिन्दगी से परेशान हूं। मैंने सोचा कि तप करूं या समाज सेवा करूं, पर मेरा जीवन से मन भर गया है।'
मुकेश की मौत के बाद उनकी पत्नी, सास और ससुर जब मौके पर पहुंचे तो उनकी आंखें भीग गयीं। सास और ससुर अपने दामाद को कोसने से भी खुद को नहीं रोक सके। हां, ऐसे लोग सहानुभूति के अधिकारी नहीं होते। रस्म अदायगी तो करनी ही पडती है। यही संसार की रीत है। छोटी-छोटी बातों से आहत होकर मौत को गले लगा लेना नपुंसकता की निशानी है। कोई भी शख्स यूं ही आइएएस अधिकारी नहीं बन जाता है। बहुत मेहनत करनी पडती है। मुकेश भी यकीनन परिश्रमी और बुद्धिमान रहा होगा। घर-परिवार में होने वाले मनमुटावों ने उसे इतना विवेकहीन कैसे बना दिया कि उसने मौत के लिए रेल की पटरी चुन ली? मुकेश के सुसाइड नोट को पढने के बाद यह आभास भी होता है कि वह अपनी पत्नी, बेटी और मां-बाप को बहुत चाहता था। वह शांतिप्रिय था। तनातनी और लडाई-झगडे जैसी समस्याएं तो कई घरों में होती हैं। समझदार लोग उनको खत्म करने के लिए मिल-बैठकर हल तलाशते हैं। जीवन का अंत नहीं करते। मुकेश तो पढा-लिखा था। उसके लिए इस परेशानी का हल निकालना असंभव नहीं था। उसने पत्र में खुद को खुले दिल का बताया है। उसकी पत्नी के साथ उसके विचार मेल नहीं खाते थे। यह समस्या भी आम है। एक खास आदमी के द्वारा आम समस्या से घबराकर मौत को गले लगने की भयावह हकीकत उसी की अक्लमंदी, योग्यता, निष्ठा, मिलनसारिता और शिक्षा-दीक्षा को कठघरे में खडा कर देती है।
आज के इस आधुनिक दौर में बच्चों को मौत के हवाले करने वाले कई खेल ईजाद कर दिये गए हैं। बारह-पंद्रह साल के बच्चे खेल ही खेल में जिस तरह से मौत को गले लगा रहे हैं उससे चिन्ता भी होती है और भय भी लगता है। कुछ हफ्ते पूर्व महाराष्ट्र के सोलापुर में चौदह साल के एक बच्चे मनप्रीत ने सातवीं मंजिल से कूदकर जान दे दी और इस हफ्ते पश्चिम बंगाल में स्थित मिदनापुर जिले के आनंदपुर में चौदह वर्षीय दसवीं क्लास के छात्र अनकन ने इंटरनेट गेम ब्ल्यू व्हेल के हिंसक मायावी चक्कर में आत्महत्या कर ली। इन दोनों बच्चों को 'ब्ल्यू व्हेल' खेलने की लत लग गई थी। ब्ल्यू व्हेल गेम को २०१३ में रूस के फिलिप बुडेईकिन ने बनाया था। पचास दिन तक चलने वाले इस गेम में एक एडमिन होता है जो खेलने वाले को गेम कैसे खेलना है और आगे क्या करना है, इसके बारे में बताता है। खिलाडी को हर दिन एक कोड नम्बर दिया जाता है। जो हॉरर से जुडा होता है। इसमें हाथ पर ब्लेड से ५७ लिखकर इसकी फोटो अपलोड करनी होती है। फाइनल राउंड में पहुंचने से पहले बच्चों को स्वयं को भयानक कष्ट देकर होने वाले रोमांच और आनन्द के लिए उकसाया जाता है और अपने ही प्रति हिंसा करनी होती है। उन्हें गेम जीतने के लिए आत्महत्या के लिए उकसाया जाता है। इस खेल को एक बार शुरू करने पर बीच में नहीं छोडा जा सकता। यदि कोई बच्चा ऐसा करने की कोशिश करता है तो माता-पिता को मारने की धमकी तथा तरह-तरह से ब्लैकमेल किया जाता है। इस हत्यारी गेम के तैयार करने वाले फिलिप का कहना है कि इस खेल को खेलकर अपनी जान देने वाले लोग इस धरती पर रहने और जीने के लायक नहीं थे। समाज की सफाई के लिए ही उसने यह गेम तैयार किया है। गौरतलब है कि अब तक दुनिया भर में इस खेल के चक्कर में ढाई सौ से अधिक बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं। भारत में भी इस हत्यारी गेम ने बडी तेजी से बच्चों को अपने शिकंजे में लेना शुरू कर दिया है। जानलेवा इंटरनेट गेम के मक्कडजाल का शिकार हुआ मुम्बई का किशोर मनप्रीत बडा होकर पायलट बनना चाहता था। आनंदपुर का अनकन भी पढाई-लिखाई में होशियार था। उसके मां-बाप ने उसके उज्ज्वल भविष्य के कई-कई सपने देखे थे। मनप्रीत ने सोसायटी की इमारत की पांचवी मंजिल से कूदकर मौत को गले लगाया तो अनकन ने घर के बाथरूम में। इंदोर में ब्ल्यू व्हेल के लती एक बच्चे को आत्महत्या करने से बचाया गया।

Thursday, August 10, 2017

इन्हें शर्म नहीं आती

वैसे तो फिल्मी नायिकाओं और उनके चहेतों की विभिन्न मुद्राओं वाली तस्वीरे यहां-वहां छपती रहती हैं। यह जरूरी नहीं कि उनपर सभी का ध्यान जाए। लेकिन अभी हाल ही में संसद भवन से बाहर निकलती फिल्म अभिनेत्री रेखा को अपलक घूरते कुछ सांसदों की विभिन्न अखबारों में छपी तस्वीर ने खासा ध्यान आकर्षित किया। फेसबुक पर भी यह तस्वीर चर्चा का विषय बनी रही। किसी मित्र ने बडी सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि मर्द तो आखिर मर्द होते हैं। मित्र शिष्टाचार के दामन से बंधे थे। फेसबुक पर इशारों ही इशारों में अपने मन की बात कहने वाले ऐसे मित्र कम ही देखने में आते हैं। अभद्र भाषा फेसबुक की पहचान बनती चली जा रही है। माननीय सांसदों का इठलाकर चलती अभिनेत्री को सडक छाप छोकरों की तरह रूककर ताकना यह तो दर्शा ही गया कि सौंदर्य के चक्कर में माननीय सांसद अपने पद की गरिमा को ही भूल गये हैं। अभिनेत्री रेखा राज्यसभा की सांसद हैं। तरह-तरह के विवादों से उनका अटूट नाता रहा है। कई शादियां कर चुकी हैं। उनका चरित्र पूरी तरह से संदिग्ध रहा है। अक्सर उंगलियां भी उठती रही हैं। ऐसे में उन्हें राज्यसभा की सांसद मनोनीत किया जाना यकीनन हैरत की बात है। अपने वतन में ऐसे चेहरों को राज्यसभा के तोहफे से नवाजा जाना कोई नई बात नहीं है। हमें तो यही लगता है कि उनकी घोर विवादास्पद छवि और खूबसूरती ने उन्हें इतना बडा उपहार दिलवाया हैं। देश के राजनीतिक दल विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों को नजरअंदाज कर अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और खिलाडियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। रेखा की तरह क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर भी राज्यसभा के लिए मनोनीत हैं। यह दोनों कभी-कभार ही राज्यसभा में नजर आते हैं। जब कभी मन मारकर आते भी हैं तो यह दर्शाते कि जैसे राज्यसभा में लाने वाले राजनीतिक दलों और इस देश के लोकतंत्र पर कोई अहसान कर रहे हों। राज्यसभा की सांसदी तो उनके लिए एक तुच्छ उपहार है जो उन्हें जबर्दस्ती थमा दिया गया है।
गौरतलब है कि साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के क्षेत्र में पूरी सक्षमता और प्रभाव के साथ सक्रिय रहने वाली १२ हस्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किये जाने का प्रावधान है। इसके पीछे एक खास सोच यह भी होती है कि यह लोग चुनावी राजनीति से दूर रहते हैं इसलिए इन्हें राज्यसभा में भेजा जाए ताकि देशवासियों को उनकी विद्धता, ज्ञान और अनुभव का लाभ मिल सके। लेकिन जब इनमें से अधिकांश लोग जब राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते ही नहीं तो उन्हें इस गरिमामय पद से सुशोभित करने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। वैसे यह भी सच है कि अपने-अपने क्षेत्र के वास्तविक विद्वानों को राजनीतिक दल राज्यसभा के लिए मनोनीत करने से कतराते हैं। इस मामले में भी भाई-भतीजा वाद और चेहरे तथा माथे की चमक देखकर टीका लगाया जाता है। ग्लैमर के गुलाम राजनेताओं की हकीकत उनकी औकात का भी पता दे देती है। भारतीय जनता पार्टी के सांसद मनोज तिवारी को कुछ महीने पहले दिल्ली के एक स्कूल के कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था। तिवारी भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता रहे हैं और एक अच्छे गायक के रूप में भी उनकी खासी पहचान है। वे जब स्कूल के कार्यक्रम के दौरान मंच पर विराजमान थे तब एक उम्रदराज शिक्षिका ने उनसे गाना गाने का अनुरोध किया तो वे ऐसे भडक उठे जैसे किसी ने उनपर गर्म तेल उडेल दिया हो। सांसद ने शिक्षिका के लिए स‹डक छाप गुंडे-बदमाशों वाली भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें ऐसी ठेस पहुंचायी जिसे वे जीवनभर नहीं भूल पायेंगी। दरअसल, शिक्षिका तो यही चाहती थीं कि गायन के क्षेत्र में डंका पीट चुके मनोज तिवारी छात्र-छात्राओं को कोई राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत गीत सुनाएं। लेकिन मनोज पर तो दिल्ली का सांसद होने का अहंकार हावी था। उनके अभद्र व्यवहार के कारण स्कूल के शिक्षक और शिक्षिकाएं भी भडक गर्इं।
इन्हीं सांसद महोदय का एक और चेहरा सामने आया। फिल्म अभिनेता शाहरुख खान और अभिनेत्री अनुष्का शर्मा बीते सप्ताह अपनी फिल्म 'हैरी मेट सेजल' के प्रचार के लिए बनारस पहुंचे थे। तब सांसद महोदय भी वहीं उपस्थित थे। जब धुंआधार प्रचार कार्यक्रम चल रहा था तभी उन्होंने बिना किसी की फरमाइश के अनुष्का के लिए एक गाना गाया। जिसके बोल हैं, "कमरिया करे लपालप लॉलीपॉप लागेलू।" ताज्जुब की बात यह कि इस अश्लील गाने को गाते-गाते यह सभ्य सांसद महोदय अभिनेत्री के सामने घुटनों पर भी बैठने से नहीं सकुचाए।
यह माना जाता है कि इंसान को घर-परिवार से जैसी शिक्षा-दीक्षा और संस्कार मिलते हैं, उन्हीं में वह रच-बस जाता है। कुछ राजनेताओं की बिगडैल औलादों की करतूतें उनको मिले घटिया संस्कारों की पोल खोल देती हैं। हरियाणा की राजधानी चंडीगढ को देश का एक साफ-सुथरा शहर माना जाता है। इसी शहर में बीते सप्ताह हरियाणा भाजपा के अध्यक्ष सुभाष बरला के बिगडैल बेटे और उसके दोस्त को एक युवती के साथ छेडछाड के आरोप में गिरफ्तार किया गया। हरियाणा के एक वरिष्ठ आईएएस की बेटी वर्णिका जब रात को अपने घर जा रही थी तो इन बदमाशों ने उसका अपहरण तक करने की भरसक कोशिश की। बहादुर युवती ने अपने फेसबुक अकाउंट पर इन शब्दों में अपनी पीडा और चिन्ता व्यक्ति की है : 'मैं शायद किडनैप हो जाती। मैं रात करीब सवा बारह बजे अपनी कार से सेक्टर-८ मार्केट से अपने घर जा रही थी। जब मैं रोड क्रॉस करने के बाद सेक्टर-७ के पेट्रोल पम्प के पास पहुंची, उस समय मैं अपने दोस्त से बात कर रही थी। अचानक मुझे अहसास हुआ कि सफेद रंग की एक एसयूवी की कार मेरी कार का पीछा कर रही है। उस कार में दो ल‹डके सवार थे। मुझे कई बार लगा कि वह मेरी कार को टक्कर मार देंगे, लेकिन किसी तरह से मैं खुद को बचा रही थी। इसी बीच मैंने पुलिस को फोन कर अपनी लोकेशन बताई। वह दोनों मुझे दबोचने की भरपूर कोशिश कर रहे थे। मेरे हाथ कांप रहे थे। मेरी आंखों में आंसू थे। मैं बेहद डरी हुई थी। मैं बस यही सोच रही थी कि मेरा क्या होगा। पता नहीं आज घर लौट पाऊंगी भी कि नहीं। लेकिन पुलिस ने मुस्तैदी दिखायी और मुझे उनके चंगुल से बचाया। अब मैं कह सकती हूं कि मैं लकी हूं कि बलात्कार के बाद किसी नाले में मरी नहीं मिली।'

Thursday, August 3, 2017

हताशा और निराशा देती...न्याय की धीमी गति

पचास-सौ साल बाद जब लोगों को यह पढने को मिलेगा कि इक्कीसवीं सदी में भारतवर्ष में ऐसे नर-पिशाच भी थे जो बच्चों को मारकर उनके अंग निकाल लेते थे और युवतियों के साथ बलात्कार कर उन्हें मौत के घाट उतार देते थे, तो उन्हें कैसा लगेगा? यकीनन उन्हें हैवानियत की सभी हदें पार कर देने वाले राक्षसों की दिल दहला देने वाली दास्तानें हिलाकर रख देंगी। २००६ में देश की राजधानी दिल्ली के निकट स्थित नोएडा के निठारी गांव में जब मानवी नरकंकाल मिलने का सिलसिला शुरू हुआ तो पूरे देश में सनसनी फैल गई थी। देश के करोडों संवेदनशील भारतीयों के लिए इस क्रूर सच को सहना कतई आसान नहीं था। निठारी में जब बच्चे अचानक ही गायब होने लगे और कुछ युवतियां भी गायब हो गर्इं तो पूरे गांव में दहशत पसर गई। लेकिन पुलिस के कानों पर जूं नहीं रेंगी। लोग अपने बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराते, लेकिन होता-जाता कुछ भी नहीं था। फाइल ही बंद कर दी जाती थी। गुम होने वाले बच्चे और युवतियां गरीब परिवार से थीं इसलिए भी पुलिस उनकी खोजबीन में समय गंवाने को तैयार नहीं थी। अगर यह बच्चे अमीरों के होते तो भारतीय पुलिस उन्हें खोजने में जमीन-आसमान एक कर देती। कुछ लोगों ने मनिंदर सिंह पंधेर की कोठी में चलने वाली संदिग्ध गतिविधियों को लेकर शंका जतायी तो भी पुलिस निष्क्रिय रही। मनिंदर सिंह पंधेर की कोठी पर पुख्ता संदेह के बादल तब मंडराये जब पायल नाम की बीस वर्षीय युवती कोठी में प्रवेश करने के बाद लापता हो गई। वह कोठी में रिक्शे से आई थी। उसने रिक्शेवाले को कोठी के बाहर यह कहकर रोका था कि वह फौरन वापस आकर पैसे देती है। काफी देर तक इंतजार करने के बाद जब वह नहीं लौटी तो रिक्शेवाले ने कोठी का गेट खटखटाया। काफी देर बाद पंधेर का नौकर सुरेंद्र कोली बाहर आया और उसने कहा कि वह तो कब की जा चुकी है। रिक्शेवाला पूरे होशोहवास में था। वह अड गया। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोली सच बोल रहा है। उसने जोर-जोर से बोलना शुरू कर दिया। उसका बस यही कहना था कि युवती उसके सामने अंदर गई है और वह तभी से गेट के सामने खडा है। उसने अपनी पलकें भी नहीं झपकीं और यह कह रहा है कि युवती जा चुकी है। रिक्शेवाले के जोर-जोर से बोलने के कारण काफी लोग जुट गए और वे तरह-तरह की बातें करने लगे। युवती के गायब होने की खबर को नोएडा और आसपास फैलने में देरी नहीं लगी। युवती के पिता नंदलाल ने बेटी के रहस्यमय ढंग से गायब होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। पुलिस वालों को भी मजबूरन जागना पडा। उन्होंने फटाफट कोठी को घेर लिया और छापामारी की। युवती तो नहीं मिली लेकिन कोठी के नौकर और मालिक के चेहरे के उडे रंग ने संकेत दे दिए कि दोनों घुटे हुए अपराधी हैं। पंधेर की आलीशान कोठी से सटे गंदे नाले की सफाई शुरू की गई तो एक के बाद एक नरकंकाल मिलने लगे। इनमें ज्यादातर बच्चों के कंकाल थे जिन्हें ४० बोरों में भरकर ले जाया गया। अब तो लोगों के दिलों में इस कदर दहशत घर कर गई कि वे कोठी के सामने से गुजरने से भी घबराने लगे। धीरे-धीरे रहस्य से पूरी तरह से परदा उठने के बाद पता चला कि बलात्कार करने के बाद इन्हें नाले में फेंक दिया गया था। सघन जांच के बाद यह तय हो गया कि कोठी के मालिक मनिंदर सिंह पंधेर और उसका नौकर सुरेंद्र कोली पूरी तरह से नृशंस बलात्कारी और नरभक्षी हैं। इस दिल दहला देने वाले कांड में सुरेंद्र कोली की काफी अहम भूमिका सामने आई। कोली बहुत अच्छा खाना बनाता था। इसी वजह से वह पंधेर के संपर्क में आया और पंधेर का सेवक बन गया। कालांतर में उसे नेक्रोफिलीया नामक बीमारी हो गई और वह बच्चों के मांस खाने का शौकीन हो गया। पंधेर की कोठी में अक्सर कॉलगर्ल आया करती थीं। इस दौरान कोली कोठी के गेट पर नजर रखता था। कोठी के सामने से गुजरने वाले बच्चों को पकड कर उनके साथ कुकर्म किया जाता था। उसके पश्चात उनकी हत्या कर दी जाती थी। कोली बच्चों का मांस पका कर खाता था। कई लोगों का कहना है कि पंधेर मानव अंगों का व्यापार करता था। बच्चों को मारकर उनके अंग निकाल लिए जाते थे, जिन्हें विदेशों में बेचा जाता था।  पायल की बलात्कार कर हत्या कर दी गई थी। ऐसे न जाने कितने बलात्कारों और हत्याओं को निठारी की कोठी में अंजाम दिया गया, लेकिन जांच के बाद केवल १९ एफआईआर दर्ज की गयीं। ११ जनवरी २००७ को यह पूरा प्रकरण राज्य सरकार द्वारा सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया गया। अभी तक आठ मामलों में कोली को फांसी की सजा सुनायी जा चुकी है। हालांकि एक मामले में उसकी फांसी की सजा को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उम्र कैद में तब्दील कर दिया था। पंधेर को वर्तमान सजा के साथ सीबीआई कोर्ट ने दो मामलों में फांसी की सजा सुनाई, मगर पूर्व में एक मामले में हाईकोर्ट उसे बरी कर चुका है। निठारी कांड के आठवें केस में २४ जुलाई २०१७ को गाजियाबाद की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने मनिंदर सिंह पंधेर और सुरेंद्र कोली को फांसी की सजा सुनायी तो पीडितो के परिजनों का यही कहना था कि उन्हें असली सुकून तभी मिलेगा जब दोनों दरिंदों को फांसी के फंदे पर लटकाया जाएगा। परिजनों को लगता है कि गरीब कोली को तो आखिरकार फांसी दे दी जाएगी, लेकिन धनपशु पंधेर बच जाएगा। इस देश में अमीर कानूनी दांव-पेच खेलकर बच जाते हैं और गरीबों का कानून के शिकंजे से बाहर निकलना असंभव हो जाता है। लोगों को तो यह भी शंका है कि इन दोनों के अतिरिक्त कुछ अन्य लोग भी इस निर्मम कांड में शामिल थे जिनके नाम सामने नहीं आने दिये गए। एक पिता जिनकी १० वर्षीय बेटी ११ वर्ष पूर्व लापता हुई थी, वे तो कोर्ट में फफक-फफक कर रोने लगे। इस बदनसीब पिता ने बताया कि उन्हें कई बार मोटी रकम का लालच दिया गया। कहा गया कि अब बेटी तो वापस आने से रही। इसलिए जो हुआ उसे भूल जाओ। सतत अडिग रहकर कानून की लडाई लडने वाले इस पिता ने यह भी बताया कि कई बच्चियों के मां-बाप ऐसे थे, जिनकी जेबें खाली थीं। उनकी भी आर्थिक मदद कर वे उनका हौसला बढाते चले आ रहे हैं। निठारी कांड की बलि चढी बच्चियों को न्याय मिल सके इसके लिए उन्होंने अपना मकान तक बेच डाला। आज की तारीख में वे लगभग ९ लाख रुपये के कर्जदार हो चुके हैं। बहन को न्याय मिल सके इसके लिए उनका एक बेटा अधिवक्ता बन गया है। निराश और उदास पिता के आंसू आखिर तक नहीं थमते। वे सवाल की मुद्रा में आ जाते हैं : "आखिर हमारी बिटिया को कब मिलेगा न्याय? वह पढ-लिखकर वकील बनना चाहती थी। बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए हम अपना गांव छोडकर नोएडा आये थे। आज जब मैं उस मनहूस दिन को याद करता हूं तो बहुत पश्चाताप होता है साहेब।"
निठारी में ही एक सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करने वाले बीस वर्षीय युवती के पिता भी कोर्ट के चक्कर काटते-काटते जैसे हार चुके हैं। न्याय है कि दूर की कौडी होता चला जा रहा है। उन्हें ऐसा लगता है कि अपराधी जेल में ही मर-खप जाएंगे। फांसी का फंदा उन्हें छू भी नहीं पायेगा। यह हमारी कानून व्यवस्था की खामी ही है जो ११ वर्ष बीतने के बाद भी परिजनों को शीघ्र न्याय दे पाने में सक्षम दिखायी नहीं देता। अभी तो ११ वर्ष बीते हैं। हो सकता हैं ऐसे ही बीस वर्ष और बीत जाएं और दोनों दरिंदे जेल में ही अपनी मौत मर जाएं। यह उनके लिए बहुत पीडा की बात होगी जो वर्षों से न्याय का इंतजार कर रहे हैं। देरी... बहुत देरी से मिलने वाले न्याय का इसलिए भी कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि इससे अपराधियों तक कडे कानून का सबक और संदेश ही नहीं जाता।