Thursday, March 29, 2012

कटघरे में खडे डॉ. रमन सिं‍ह

कुछ खबरें, खबरें नहीं होतीं। धमाका और तमाचा होती हैं। पर ऐसा लगता है कि अब लोगों पर किसी धमाके और तमाचे का कोई असर नहीं होता। देश के प्रदेश छत्तीसगढ के शहर बिलासपुर में एक पुलिस अधिकारी ने आत्महत्या कर ली। यह खबर भी आयी-गयी हो गयी। देश में हर दिन न जाने कितने लोग आत्महत्या करते हैं। लोग खबरें पढते-सुनते हैं फिर अपने काम पर लग जाते हैं। खाकी वर्दीधारी अधिकारी राहुल शर्मा का हंसता-खेलता परिवार था। अपनी ड्यूटी भी सजगतापूर्वक निभाते चले आ रहे थे। ऊपरी तौर पर सब कुछ ठीक-ठाक था। फिर अचानक उन्हें आत्महत्या को मजबूर क्यों होना पडा? यह तो कोई मान ही नहीं सकता कि कोई पुलिस अधिकारी किसी छोटी-मोटी वजह से मौत को गले लगा लेगा। जो लोग पुलिस में भर्ती होते हैं वे दिल और दिमाग से मजबूत माने जाते हैं। उन्हें यहां-वहां के थपेडे आसानी से डिगा नहीं सकते। फिर भी अपवाद तो हर जगह होते हैं। पुलिस अधिकारी राहुल शर्मा को गंभीर किस्म के अधिकारियों में गिना जाता था। इसलिए जब उनकी आत्महत्या की खबर आयी तो उन्हें जानने-पहचानने वाले स्तब्ध रह गये। कई तरह की अफवाहें भी उडीं। पर एक सच को पता नहीं क्यों नजरअंदाज कर दिया गया! यहां 'सच' शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इसे उजागर किया है राहुल शर्मा के एक बेहद करीबी ने। आत्महत्या के कुछ दिन पहले राहुल शर्मा ने अपने मित्र को फोन पर अपनी उस परेशानी से अवगत कराया था जिनके कारण वे काफी विचलित हो गये थे। राहुल शर्मा को पुलिस की नौकरी बोझ लगने लगी थी। यह असहनीय बोझ उनकी चेतना पर भारी पडने लगा था। उन्होंने बडे दुखी मन से बताया था कि उन पर अगले वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए धन जुटाने का जबर्दस्त दबाव बनाया जा रहा है।तो क्या बिलासपुर के पुलिस अधीक्षक ने आत्महत्या इसलिए की, क्योंकि वे ऊपरी आदेश का पालन करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे? वे चेहरे कौन हैं जो उन्हें येन-केन-प्रकारेण धन जुटाने को मजबूर कर रहे थे? इन सवालो का जवाब सामने आना ही चाहिए। वैसे इन सवालों का जवाब पाने के लिए ज्यादा दिमाग लडाने की जरूरत नहीं है। चुनाव चाहे कोई भी हो, नेताओं को फंड की जरूरत तो पडती ही है। यह फंड आसमान से नहीं टपकता। मिल-बांटकर खाने के इस दौर में एक भ्रष्टाचारी दूसरे के काम आता है और इस चक्कर में ईमानदार मारा जाता है। जब से देश आजाद हुआ है लगभग तभी से यह परंपरा चली आ रही है। शुरू-शुरू में नेता बडे-बडे उद्योगपतियों के चंदों की बदौलत चुनाव लडते थे। तब इतनी अधिक राजनीतिक पार्टियां नहीं थी। इसलिए टाटा-बिरला से लेकर बडे-छोटे सभी अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से रसीदें कटवा कर मुक्ति पा लिया करते थे। कुछ के अपने-अपने स्वार्थ भी होते थे जिन्हें वे वक्त आने पर साध लिया करते थे। अंबानी परिवार इसका जीता-जागता उदाहरण है। अब तो अंबानी बंधुओं के पदचिन्हों पर चलने वाले ढेरों है जो जहां-तहां अपना वर्चस्व जमाये हुए हैं। देश में जिस रफ्तार के साथ काले धंधों ने जोर पकडा उसी तेजी के साथ प्रशासन भी रिश्वतखोरी और तमाम भ्रष्टाचार का संगी-साथी बनता चलता गया। कोई भी सरकारी विभाग भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। अपराधियों और खाकी वर्दी वालों में भेद कर पाना मुश्किल होता चला गया और देखते ही देखते वर्दी पर इतने दाग लग गये कि ईमानदार वर्दीवाला ढूंढ पाना दुर्लभ-सा हो गया। सत्ताधारी नेताओं की कौम ने इसका भरपूर फायदा उठाया। कमायी वाली जगह पर नियुक्ति देने और पाने के लिए बोलियां लगनी शुरू हो गयीं। इस हकीकत से लोग वाकिफ हो चुके हैं कि जो पुलिस अधिकारी सत्ताधारी नेताओं के इशारे पर चलते हैं उनके लिए तरक्की के रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं। ऐसे उदाहरण भी अनेकों हैं जब किसी ईमानदार अधिकारी ने भ्रष्ट राजनेता को थैली पहुंचाने से इनकार किया तो उसकी नियुक्ति ऐसे स्थान पर कर दी गयी जिसे सजा के तौर पर देखा जाता है।यह पंक्तियां लिखते-लिखते मुझे मुंबई के पूर्व पुलिस अधिकारी वाय.के. सिं‍ह याद आ रहे हैं। वाय.के. सिं‍ह ने असहायों को न्याय और दुर्जनों को हथकडि‍यां पहनाने के उदेश्य से पुलिस की वर्दी पहनी थी। कर्तव्यनिष्ठ सिं‍ह राजनेताओं की जी-हजूरी नहीं कर पाये। अपराधियों और राजनेताओं का खतरनाक गठजोड उन्हें बर्दाश्त नहीं था। इसलिए पुलिस की नौकरी में होते हुए भी उन्होंने विद्रोह का झंडा थाम लिया। सच के लिए डटे रहने वाला पुलिस अधिकारी उच्च अधिकारियों और मंत्रियों को खटकने लगा। सिं‍ह को अपमानित और प्रताडि‍त करने के बहाने-दर-बहाने ढूंढे जाने लगे। ऐसे दमघोटू माहौल में नौकरी बजाने की बजाय उन्होंने खाकी वर्दी उतार फेंकी और इस्तीफा देकर व्यवस्था को बदलने के अभियान में कूद पडे। उन्होंने पुलिस विभाग में व्याप्त चाटूकारिता और मंत्रियों की दखलअंदाजी की जो तस्वीर देश के सामने रखी उससे तमाम राष्ट्रप्रेमी स्तब्ध रह गये। महाराष्ट्र के संदिग्ध मंत्रियों और पुलिस के उच्च अधिकारियों में भी खलबली मच गयी। वाय.के. सिं‍ह ने जो रास्ता चुना उसकी तारीफ हर किसी ने की। क्या राहुल शर्मा के लिए सभी रास्ते बंद हो गये थे कि उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर होना पडा? छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिं‍ह खुद को बहुत ईमानदार बताते नहीं थकते। ईमानदार पुलिस अधिकारी की आत्महत्या ने कहीं न कहीं उन्हें तथा उनके चंगु-मंगुओं को भी कटघरे में खडा कर दिया है।

Monday, March 26, 2012

राजधर्म के बौने हो जाने की पीडा

ममता बनर्जी को बंगाल की शेरनी कहा जाता है। इस शेरनी के पंजे बडे नुकीले हैं। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर डॉ.मनमोहन सिं‍ह तक के चेहरों पर इन पंजों के घाव देखे जा सकते हैं। और भी न जाने कितनों को शेरनी घायल कर चुकी है। उनके ताजा शिकार हैं दिनेश त्रिवेदी। इन महाशय की रेलमंत्री की कुर्सी ममता की जिद की बलि चढ चुकी है। त्रिवेदी ने वैसा रेल बजट पेश नहीं किया जैसा ममता चाहती थीं, इसलिए एक ही झटके से बाहर का रास्ता दिखवा दिया गया। सच यह भी है कि त्रिवेदी ममता की राजनीति के चरित्र को समझ ही नही पाये। अपनी पार्टी की सुप्रीमों को खुश करने की बजाय रेल के भले में उलझ गये थे। उनके द्वारा पेश किये गये बजट को देश के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने भी सराहा। पर उनकी तारीफ धरी की धरी रह गयी। ममता के आगे सब झुक गये। यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री भी, जो कि कोई भी फैसला लेने में सक्षम हैं। पर जिस तरह से ममता की जिद के चलते दिनेश त्रिवेदी की छुट्टी की गयी और मुकुल रॉय को रेल मंत्रालय सौंपा गया उससे यह स्पष्ट हो गया है कि यह शेरनी अपनी पार्टी के सांसदों को महज प्यादा भर समझती है। प्यादे की क्या मजाल कि जो वह राजा के हुक्म के खिलाफ चलने का साहस दिखाए। ममता की मर्जी थी इसलिए प्रधानमंत्री ने उनके सेवक मुकुल रॉय को रेल मंत्रालय की बागडोर सौंपने में देरी नहीं लगायी। मुकुल महज बारहवीं पास हैं। गुजराती परिवार में जन्में दिनेश त्रिवेदी ने कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज से स्नातक होने के बाद अमेरिका के टेक्सास विश्व विद्यालय से एमबीए की डिग्री प्राप्त की हुई है। शौकिया पायलट की ट्रेनिं‍ग भी ले चुके हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के काफी करीब रहे हैं। स्वामी विवेकानंद के जीवन चरित्र से प्रभावित त्रिवेदी भारतीय रेलवे का चेहरा-मोहरा बदलना चाहते थे। एक लाख से ज्यादा बेरोजगारों को नौकरी देने का उनका इरादा था। उनकी मंशा थी कि रेलवे पटरी पर आ जाए और देशवासी अच्छी और सुरक्षित यात्रा का सुख भोग सकें। उन्होंने बिना कोई चालाकी दिखाये रेल भाडा बढा दिया और अपनी ही पार्टी की सुप्रीमो के कोप के शिकार हो गये। ममता तो २०११ में ही मुकुल रॉय को रेलमंत्री बनवाने पर तुली थीं। तब उनकी नहीं चल पायी। उन्हें जिस मौके का इंतजार था वो आखिरकार उन्हें मिल ही गया। चाटूकारिता सता पा गयी और खुद्दारी धकिया दी गयी।ममता की दीदीगिरी के शिकार हुए दिनेश त्रिवेदी सिद्धांत प्रेमी हैं। बोलने से पहले दस बार सोचते हैं। मुकुल रॉय बोलते पहले हैं और सोचते बाद में हैं। उन्हें यह भी तहजीब नहीं है कि देश के प्रधानमंत्री के समक्ष किस तरह से पेश आना चाहिए। ममता के हल्के से इशारे पर एक टांग पर खडे हो जाने वाले मुकुल जब रेल मंत्रालय में रेल मंत्री थे तब गोवाहटी में हुए बम विस्फोट में एक सवारी गाडी पटरी से उतर गयी थी जिसमें १०० से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गये थे। प्रधानमंत्री ने मुकुल को दुर्घटना स्थल का दौरा करने के निर्देश दिये पर वे नहीं गये। प्रधानमंत्री को यह बात बहुत खटकी थी पर फिर भी वे मन मसोस कर रह गये थे। आखिरकार ऐसे नकारा व्यक्ति को उन्हें रेल मंत्रालय की पूरी बागडोर सौंपने को विवश होना पडा है। यह भी कहा जाता है कि मुकुल रॉय ममता बनर्जी के अमर qसह हैं। कोई कितना भी ईमानदार होने का ढिं‍ढोरा पीट ले पर धन के बिना राजनीतिक पार्टियों का चला पाना लगभग असंभव है। मुकुल रॉय दलाल अमर सिं‍ह की तरह हर काम बखूबी करना जानते हैं। उनके लिए उनकी ममता दीदी और उनकी पार्टी ही सब कुछ है। देश रसातल में जाता है तो जाए पर उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आने वाली। वे तो हमेशा ममता दीदी जिं‍दाबाद करते रहेंगे।तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी ने जिस तरह से दिनेश त्रिवेदी को अपमानित कर अपनी मनमानी की उससे देशवासी यह मानने को भी विवश हो गये हैं कि हिं‍दुस्तान का प्रधानमंत्री वाकई बेहद कमजोर है। अगर डा. मनमोहन सिं‍ह ममता को उसकी औकात दिखा देते और पीएम की कुर्सी को दांव पर लगा देते तो यकीनन देश का सिर ऊंचा होता। पर वे ऐसा नहीं कर पाये। उन्होंने ममता की दादागिरी के सामने अपने सभी हथियार डाल दिये। दिनेश त्रिवेदी ने रेल किराया बढाने की घोषणा बहुत सोच समझ कर की। वे वर्षों से चली आ रही परंपरा को भी तोडना चाहते थे। लालू और ममता के रेलवे बजट में भले ही किराया नहीं बढाया गया पर रेलवे का भी कोई भला नहीं हो पाया। त्रिवेदी जानते हैं कि देश की न जाने कितनी ऐसी रेल पटरीयां हैं जो सड-गल चुकी हैं और जब- तब रेल दुर्घटनाओं को आमंत्रित करती रहती हैं। मानव रहित रेलवे क्रासिं‍ग पर दुर्घटनाओं का अंबार लगा रहता है। मुकुल रॉय के रेलमंत्री पद की शपथ लेते-लेते दो ट्रेन हादसे हो गये। १७ लोग मौत की मुंह में समा गये। पर यह उनकी चिं‍ता का विषय नहीं है। इस देश में रेल दुर्घटनाओं में यात्रियों का मरना आम बात है। सरकार मृतकों के आश्रितों को दो-चार लाख का मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है। जिस देश में मुकुल रॉय जैसे लापरवाह रेल मंत्री हों उसका तो भगवान ही मालिक है।देश के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी रेल मंत्री को रेल बजट पेश करने के बाद अपनी कुर्सी गवानी पडी हो। जानकार मानते हैं कि त्रिवेदी का ध्यान रेलवे के भविष्य पर केंद्रित था। देशवासियों की यात्रा को पूरी तरह से सुरक्षित और आरामदायक बनाने के लिए रेल किराये में कहीं-कहीं बढोत्तरी यकीनन जरूरी है। त्रिवेदी कुछ ज्यादा जल्दी में थे। यदि वे साधारण दर्जे के किराये नहीं बढाते और स्लीपर क्लास में भी नाम मात्र की वृद्धि करते तो इतना हंगामा नहीं मचता। पूर्व में रेल मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और ममता बनर्जी में जो बेवकूफ बनाने की कला है उसे दिनेश त्रिवेदी आत्मसात नहीं कर पाये। एक निष्छल और जागरूक मंत्री की जिस तरह से कुर्सी छीनी गयी है उससे सजग देशवासियों में बहुत गलत संदेश गया है। स्वार्थी गठबंधन के समक्ष राजधर्म के बौने हो जाने की पीडा देश के चेहरे पर भी देखी जा सकती है।

Thursday, March 15, 2012

इन्हें आप क्या कहेंगे?

बडी मुश्किल है। गांव रोजी-रोटी नहीं देते। शहर देते हैं पर बहुत कुछ छीन लेते हैं। भीड भरे शहरों की तरफ दौड लगाना लोगों की मजबूरी बन चुका है। भीड का अपना कोई दीन-धर्म नहीं होता। उसकी अपनी मजबूरियां होती हैं। क्रांक्रीट के जंगलों में तब्दील होते नगर और महानगर भीड को ढोते-ढोते निर्मम होते चले जाते हैं। इन्हें किसी की चीख-पुकार सुनायी नहीं देती। देश के लगभग सभी नगरों और महानगरों के बारे में यही कुछ कहा और सोचा जाता है।देश के बीचों-बीच बसा शहर नागपुर अपनी कई खासियतों के कारण जाना-पहचाना जाता है। आपसी सद्भावना और भाईचारे का प्रतीक माने जाने वाले इस शहर में एकाएक आत्महत्याओं और हत्याओं का जो अजब दौर-सा चल पडा है, वह यकीनन बेहद चौंकाने वाला है। सच तो यह है कि यह सब इसकी छवि के कतई अनुकूल नहीं है। सरे बाजार कॉलेज जाती एक बेकसूर छात्रा की हत्या हो जाती है और राह चलते लोग देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। हर शरीफ आदमी को गुंडे-बदमाशों तथा पुलिस से डर लगता है। जितना हो सकता है इनसे बचकर रहो। अपनी तथा अपनों की जान बची रहे यही बहुत है। ऐसी न जाने कितनी खौफनाक हत्याएं इस शहर के खाते में दर्ज हैं जिनके हत्यारे पुलिस की पकड में न तो आ पाये हैं और न ही कोई उम्मीद है। शहर की बीयर बारों, होटलों और चहल-पहल वाली सडकों पर चलने वाली गोलियों ने अमन पसंद शहरियों को खौफ के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोडी है। मुंबई की तर्ज पर यहां के लोग भी अपने काम से काम रखने लगे हैं। उनके आसपास चाहे कुछ भी घट जाए पर वे बेपरवाह रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। ऐसा भी लगता है कि किसी के पास भी अपने आसपास नजर उठाकर देखने की फुर्सत नहीं है। फिर भी जिस तरह से ऊपर वाले ने इंसानों की पांचों उंगलियां बराबर नहीं बनायी हैं वैसे ही सभी इंसान मतलबी और निष्ठुर नहीं होते।नागपुर का ऑटो चालक विष्णु उस दिन मौत के मुंह में समा गया होता यदि शबाना खान उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आतीं। नागपुर का पंचशील चौक एक भीडभाड वाला इलाका है। लोगों का यहां निरंतर आना-जाना लगा रहता है। विष्णु छात्रों को स्कूल पहुंचाने का काम करता है। २४ फरवरी के दिन वह घर लौट रहा था। सिग्नल की लाल बत्ती होने के कारण उसे उसी पंचशील चौक पर रूकना पडा जहां किसी को किसी की कोई परवाह नहीं रहती। हर कोई जल्दी में होता है। अचानक विष्णु के सीने में दर्द उठा और ग्रीन सिग्नल हो जाने के बाद भी वह ऑटो शुरू न कर सका। उसने आते-जाते कई लोगों से मदद की गुहार लगायी पर किसी के पास भी उसकी फरियाद सुनने की फुर्सत नहीं थी। यह संयोग ही था कि ऐन उसी वक्त शबाना खान की कार वहीं पर खराब हो गयी जहां विष्णु सीने में दर्द होने कारण बुरी तरह से कराह रहा था। शबाना जी के साथ उनकी सास भी थीं। शबाना जी कार से उतरीं। उन्होंने भी लोगों से विष्णु की सहायता करने को कहा पर किसी ने भी सुनना गंवारा नहीं किया। ऐसे विकट हालात में शबाना जी ने एक दूसरे ऑटो वाले को किराये पर लिया और मौत से लड रहे विष्णु को ऑटो में बिठाकर प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डा. अजीज खान के अस्पताल जा पहुंचीं। अस्पताल पहुंच कर उन्होंने खुद ही विष्णु को स्ट्रेचर में डाला और डॉक्टर के केबिन तक ले गई। डॉ. ने जांच के बाद बताया कि यदि विष्णु को अस्पताल लाने में पांच मिनट की भी देरी हो जाती तो उसकी मौत तय थी। विष्णु का इलाज प्रारंभ हो गया और शबाना जी ने उसके मित्रों और परिवार वालों तक उसकी नाजुक हालत की सूचना पहुंचा दी। इतना ही नहीं उन्होंने डॉक्टर को भी पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया कि वे पैसों की कतई चिं‍ता न करें। विष्णु के इलाज में जो भी खर्चा आयेगा उसका भुगतान वे खुद करेंगी। हृदयरोग से पीडि‍त विष्णु को तमाम सुविधाएं उपलब्ध करवायी गयीं। जितने दिन तक वह अस्पताल में भर्ती रहा, शबाना जी उसका हाल-चाल जानने के लिए आती रहीं।हर किसी के जीने के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। अंधाधुंध दौलत कमाने के बाद अधिकांश लोग अपने घर-परिवार के होकर रह जाते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं का मोहपाश उन्हें इस कदर जकड लेता है कि उन्हें और कुछ दिखायी ही नहीं देता। आसपास कोई दम भी तोड रहा हो, तो भी वे देखना तक जरूरी नहीं समझते। ऐसे भी बहुतेरे हैं जो अपनों के साथ भी दरिंदगी से पेश आते हैं। पर कुछ लोग खास होते हैं जिनके जीवन जीने के सलीके को देखकर इस बात पर यकीन करने को विवश हो जाना पडता है कि दुनिया भले ही कितनी बदल गयी हो पर फिर भी कुछ लोगों में सच्ची इंसानियत अभी जिं‍दा है। वे खुद के लिए नहीं, सिर्फ और सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं। उनके लिए जाति और धर्म कोई मायने नही रखते।नागपुर में रहने वाले मेजर हेमंत जकाते और उनकी धर्म पत्नी श्रीमती सुलभा जकाते के बारे में आप क्या कहेंगे, जिन्होंने अपनी सारी जमीन-जायदाद और घर बेचकर मिले धन को समाजसेवा के लिए न्यौछावर कर दिया है और खुद एक वृद्धाश्रम में रह कर निरंतर समाजसेवा में तल्लीन हैं। मेजर हेमंत जकाते १९६२ में हुए भारत-चीन तथा १९७१ के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपने जौहर दिखा चुके हैं। सरकार के द्वारा उन्हें नौ मैडल देकर सम्मानित भी किया जा चुका है।

Friday, March 9, 2012

देवता बनने के खतरे

आखिरकार मायावती के मायावी शासन से उत्तरप्रदेश की जनता को मुक्ति मिल ही गयी। यह असंभव-सा लगने वाला करिश्मा उस आम जनता ने कर दिखाया है जिसने कभी मायावती पर भरोसा कर उन्हें सत्ता सौंपी थी। बहुजन समाज पार्टी की कर्ताधर्ता मायावती ने अपार मतों की बदौलत सत्ता तो हासिल कर ली थी पर वे आम जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतर पायीं।देश के सबसे बडे प्रदेश की कमान संभालने के बाद बहनजी में जबरदस्त अहंकार घर कर गया था। उन्हें लगने लगा था कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें सत्ता से बाहर नहीं कर सकती। वे यह भूल गयीं कि जो जनता सिर पर बिठाना जानती है, वही जनता धूल चटाना भी जानती है। इसी जनता ने न जाने कितने अहंकारियों के होश ठिकाने लगाये हैं। पर मायावती ने इतिहास से सबक लेने की जरा भी कोशिश नही की। उन्हें हाडमांस के इंसानों ने सम्राट बनाया पर वे पत्थरों की मूर्तियों को तराशने में लगी रहीं! आम जनता घोर अराजकता की शिकार होती रही। महिलाओं पर बलात्कार पर बलात्कार होते रहे। विधायक और मंत्री भ्रष्टाचार और अत्याचार के कीर्तिमान रचते रहे पर बहन जी पत्थर की मूर्ति बनी रहीं। अपनी मूर्तियों को तो उन्होंने जहां चाहा वहां स्थापित कर मनमानी कर ली पर खुद उन्होंने जनता के बीच जाना छोड दिया। चाटूकारों की मंडली ने दलितों की तथाकथित मसीहा के अहंकार को जायज ठहराते हुए उनके इस भ्रम को निरंतर बनाये रखा कि वे देश की ऐसी हस्ती हैं जिसका सूरज कभी अस्त नहीं हो सकता। अपने पांच वर्ष के शासन काल में वह नई-नई तिजोरियां खरीदती रहीं और उनमें बेशुमार दौलत जमा करती रहीं। जिस धन को आम जनता के हित में खर्च किया जाना था उसे अपनी तथा हाथी की मूर्तियां बनवाने में फूंक डाला। लोग चीखते-चिल्लाते रहे। मूर्ति सुन पाती तो सुनती।बहन जी ने इतनी आरामपरस्त हो गयी थीं कि वे बिजलीगृह और पुल का उद्घाटन भी अपनी हवेली के वातानुकूल कमरे में बैठे-बैठे रिमोट का बटन दबाकर करने लगीं। नौकरशाहों और जाति समकरण पर हद से ज्यादा यकीन करने वाली मायावती ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के बाद जमीन-जायदाद, हीरे-मोती और सोने-चांदी के जेवरातों को इस कदर अहमियत दी कि उन्हें 'धन की देवी' भी कहा जाने लगा। भ्रष्टाचार को शिष्टाचार का दर्जा देने वाले राजनेताओं में अगर किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे हैं मायावती। उनकी हमेशा यह शिकायत भी रहती है कि मनुवादी उन्हें फलता-फूलता नहीं देखना चाहते इसलिए उन्हें सिर्फ मायावती का ही भ्रष्टाचार दिखता है दूसरों का नहीं।मायावती जिन लुभावने वादों को उछाल कर मुख्यमंत्री बनी थीं उन्हें पूरा करने में उन्होंने थोडी सी भी गंभीरता दिखायी होती तो उन्हें हार का मुंह नहीं देखना पडता। आखिरकार यूपी के मतदाताओं ने मायावती को सत्ता से बाहर कर चुना भी तो उसी समाजवादी पार्टी को जिसे गुंडों, दबंगो और बदमाशों की पार्टी बता कर बहन जी ने सत्ता पायी थी। बहनजी ने तो लोगों को और भी ज्यादा निराश किया। नतीजा सामने है फिर से मुलायम सिं‍ह की पार्टी सत्ता पर काबिज हो गयी है। हालांकि मुलायम के सुपुत्र अखिलेश यादव ने प्रदेश की तमाम जनता को विश्वास दिलाने की पूरी कोशिश की है कि अब पहले वाली गलतियां नहीं दोहराई जाएंगी। कानून तोडने वालों को सबक सिखाया जायेगा। खुद मुलायम सिं‍ह ऐसा कहते तो आम जनता यकीन करने से पहले हजार बार सोचती। पर युवा अखिलेश यादव बार-बार धोखा खाये मतदाताओं को रिझाने में कामयाब रहे हैं। इस मामले में तो उन्होंने राहुल गांधी को भी मात दे दी है। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल बांहें चढाते हुए सभी विरोधी पार्टियों के नेताओं पर बरसते रहे और वोटरों को कांग्रेस के पक्ष में करने के हथकंडे-दर-हथकंडे अपनाते रहे पर जनता ने गांधी परिवार के 'एंग्री मैन' पर भरोसा जताने की बजाय आम आदमी के चेहरे अखिलेश यादव को सर्वोत्तम माना। सीधी और सरल भाषा में अपनी बात कहने वाले अखिलेश ने यह कह कर न जाने कितने लोगों का दिल जीत लिया कि उनके शासन काल में मायावती की प्रतिमाओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जायेगा।अखिलेश के बयान ने मायावती को राहत देने का काम किया है या उलझन में डाल दिया है यह तो वे ही जानें पर यदि वैसे भी अखिलेश प्रतिमाओं को नष्ट करने का इरादा दर्शाते तो मायावती से ज्यादा नुकसान खुद उन्ही को होना था। अखिलेश ने उन दलितों को प्रसन्न कर दिया जो बहन जी के वोटर हैं। युवा समाजवादी लोगो का दिल जीतने की कला में पारंगत नजर आता है। पिछली बार चुनाव प्रचार के दौरान मुलायम सिं‍ह ने यह कहने से परहेज नहीं किया था कि यदि उनके हाथ में सत्ता आयी तो वे मायावती तथा हाथी की मूर्तियों को ठिकाने लगा देंगे। उनके पुत्र ने जो दरियादिली दिखायी है वह उनकी परिपक्वता की निशानी है। एक दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले रहने वाले उम्रदराज नेताओं को इससे सबक लेना चाहिए। देश की जनता अपने जनप्रतिनिधी इसलिए नहीं चुनती कि वे शत्रुता को बरकरार रखें। समाजवादी पार्टी को यूपी में अभूतपूर्व सफलता दिलवाने वाले अखिलेश यादव की चारों तरफ वाह-वाही हो रही है। अखिलेश को तारीफों के चंगुल से भी खुद को बचाये रखना होगा। अंधाधुंध आरतियां गाने वाले भी किसी शत्रु से कम नहीं होते। अच्छा कर गुजरने की मंशा रखने वाले नेताओं को चाटुकारों की मंडलियां ही ले डूबती हैं। अपने इर्द-गिर्द के चेहरों के द्वारा खडी की गयी मुश्किलों को पार कर पाना मुश्किल हो जाता है। देश के युवा कवि गिरीश पंकज की यह पंक्तियां काबिले गौर हैं:
हो मुसीबत लाख पर यह ध्यान रखना तुम
मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम
बहुत संभव है बना दे भीड तुम को देवता
किन्तु मन में इक अदद इंसान रखना तुम।

Thursday, March 1, 2012

बेचारे मधु कोडा और कृपाशंकर सिं‍ह...!

नागपुर में बहुजन समाज पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं ने प्रदेश अध्यक्ष की धुनाई कर अपना रोष जताया। कार्यकर्ताओं का आरोप है कि महानगर पालिका चुनाव में टिकटें बेची गयीं। पार्टी के समर्पितों का पत्ता सिर्फ इसलिए काटा गया क्योंकि उनकी तीन लाख रुपये देने की हैसियत नहीं थी। ऐसे ही कुछ आरोप पार्टी की सुप्रीमों बहन मायावती पर भी लगते रहे हैं। उनकी निगाह में वही शख्स विधायक और सांसद बनने के लायक होता है जिसकी जेब में दम होता है। वैसे इसके लिए सिर्फ मायावती को ही क्यों दोष दें? हिं‍दुस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा में इस महारोग पर जिस तरह से कलम चलायी है, उससे इस देश की राजनीति और भ्रष्ट राजनेताओं का असली चेहरा अपने आप सामने आ जाता है। गुजराल उन चंद राजनेताओं में शामिल हैं जिन्होंने राजनीति की काजल की कोठरी में वर्षों तक चहल-कदमी करने के बाद भी खुद को दागी नहीं होने दिया। राजनीति के बदनाम खिलाडी लालू प्रसाद यादव के बिहार से तब गुजराल राज्यसभा का चुनाव लडने जा रहे थे। इसी चुनाव के सिलसिले में उनका लालू से मिलना हुआ। उन्होंने गुजराल को सचेत किया कि यदि उन्हें राज्यसभा का चुनाव जीतना है तो विधायकों के लिए थैलियों का इंतजाम करना होगा। बिना धन के काम बन पाना आसान नहीं। साफ-सुथरी राजनीति के हिमायती गुजराल के लिए लालू का यह 'मंत्र' किसी झटके से कम नहीं था। उन्होंने लालू के प्रस्ताव को फौरन नकार दिया। पर कितने हैं जो ऐसा कर पाते हैं? यह जनजाहिर सच है कि कई भ्रष्ट उद्योगपति, धनपति, अखबार मालिक और किस्म-किस्म के अपराधी धन की चमक की बदौलत ही राज्यसभा के सदस्य बनते आये हैं। इन्हें अपनी औकात का पता होता है। जनता तो इन्हें चुनने से रही इसलिए यह लालूमंत्र अपनाते हैं और बडी आसानी से अपने सभी सपनों को साकार कर लेते हैं। इस देश की राजनीति और व्यवस्था लगभग पूरी तरह से लालू मार्का नेताओं के रंग में रंगी नजर आती है। अरबों-खरबों का चारा घोटाला करने वाले लालूप्रसाद यादव की देखादेखी कितनों ने इस देश को लूटा-खसोटा इसका खुलासा धीरे-धीरे होता दिखायी दे रहा है। बताते हैं कि धन लेकर धडल्ले से चुनावी टिकटें बांटने की शुरूआत भी इन्ही महाशय ने की थी। डकैतों, गुंडों, बलात्कारियों और हत्यारों को टिकट देने का कीर्तिमान रचने वाले लालूप्रसाद यादव ने कांग्रेस की मदद से इस देश की राजनीति के सबसे बडे डकैत मधु कोडा को झारखंड का मुख्यमंत्री बनवाया था। मधु कोडा ने झारखंड में हजारों करोड का खनन घोटाला कर सिद्ध कर दिया कि वाकई वे लालू के असली चेले हैं। चेला फिलहाल जेल में है और गुरु अभी तक खुद को बचाये हुए है।मुंबई में हाल ही में संपन्न हुए महानगर पालिका के चुनाव में मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिं‍ह ने भी नोट के बदले टिकटें दीं। वर्षों से पसीना बहाते चले आ रहे कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ताओं ने कृपाशंकर की मनमानी से नाराज होकर हो-हल्ला मचाया। दिल्ली में बैठे कृपाशंकर के खैरख्वाहों की नींद तब टूटी जब मुंबई में कांग्रेस की लुटिया डूब गयी और शिवसेना ने फिर से मुंबई महानगर पालिका पर बडी आसानी से कब्जा कर लिया। कृपाशंकर की भी मधु कोडा से नगदीकियां रही हैं जो यह बताती हैं कि इस देश में भ्रष्टाचारियों के बीच गजब का भाईचारा है। कृपाशंकर सिं‍ह उत्तर भारतीयों के नेता कहलाते हैं‍। इसी लेबल के सहारे उन्होंने दो सौ फीट की झोपडी से आलीशान कोठी, कई फ्लैटों, करोडों के फार्म हाऊस और अरबों की दुकानों तक का सफर तय किया। कृपाशंकर दाल-रोटी के चक्कर में मुंबई आये थे। आलू-टमाटर बेचते-बेचते कांग्रेस की गोद में जा बैठे। कहते हैं देश की सबसे पूरानी पार्टी कांग्रेस किसी को निराश नहीं करती। अपने सेवकों के भाग्य का ताला खोल ही देती है। बशर्ते सेवक लेने और देने तथा पीठ में छुरा भोकने की कला में सिद्धहस्त हो। दिल्ली में बैठे अपने कांग्रेसी आकाओं के आशीर्वाद की बदौलत महाराष्ट्र सरकार में गृहराज्य मंत्री की कुर्सी पर बैठने और फिर बेफिक्री के साथ उसका दोहन करने वाले कृपाशंकर के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में भ्रष्टाचार विरोधी कानून के तहत प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है। गिरफ्तारी का खतरा भी मंडरा रहा है। इस प्रतापी उत्तर भारतीय नेता ने चंद ही वर्षों में चार सौ करोड से अधिक की संपत्ति जमा कर यह भी बता दिया है कि राजनीति से बढि‍या और कोई धंधा नहीं हो सकता है। धोखाधडी, जालसाजी तथा साक्ष्यों को नष्ट करने के आरोपी कृपाशंकर सिं‍ह ने झारखंड के भ्रष्टतम पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा की सरकार के मंत्री कमलेश सिं‍ह को अपना समधी बनाकर उससे अरबों रुपये झटके तथा मधु कोडा की हराम की कमायी से भी मोटी हिस्सेदारी पायी। यह मान लेना भी कृपा के साथ घोर अन्याय होगा कि उसने सारा माल खुद की तिजोरी के हवाले कर दिया होगा। हराम की कमायी के एक नहीं कई दमदार माई-बाप होते हैं। मधु कोडा हों या कृपाशंकर अपने अकेले के दम पर तो दो कदम भी आगे नहीं बढ सकते। यह माई-बाप तब तक साथ देते रहते हैं जब तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहता है। भ्रष्टाचारी औलादों को यह सीख भी दे दी जाती है कि किसी भी हालत में पकड में न आना। जो पकडा गया वह चोर कहलाता है। मधु कोडा और कृपाशंकर सिं‍ह जैसे जल्दबाज नेता अपने माई-बाप की सीख पर ढंग से अमल नहीं कर पाये। बदकिस्मती से धर लिये गये। माई-बाप ने भी उन्हें अनाथों की तरह मरने-मिटने के लिए अकेला छोड दिया है। बेचारे मधु कोडा और कृपाशंकर सिं‍ह...!