Thursday, November 27, 2014

किसके दम पर... इनका दम?

गुस्सा और तीखे बोल ममता बेनर्जी की असली पहचान हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने से पहले भी ममता अकसर तमतमायी रहती थीं। उनकी इसी तमतमाहट ने उन्हें कहां से कहां पहुंचा दिया। आम जनता को अपने नेता का उग्र रूप हमेशा लुभाता है। ममता इस सच को आज भी अपने पल्लू से बांधे हुए हैं। उन्हें पता है कि यही उनकी असली पूंजी है। जिस दिन वे उबलना छोड देंगी उस दिन उनकी 'शेरनी' की पदवी छिन जाएगी। लेकिन ममता ने इस हकीकत को पता नहीं क्यों नजरअंदाज कर दिया है कि जब वे सत्ता में नहीं थीं तब वे जनता के हितों के लिए लडती और चीखती-चिल्लाती थीं। तब उनका दहाडना औरों को उकसाता था। प्रेरित भी करता था। अपनी इसी कला की बदौलत उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने का सपना तो पूरा कर लिया, लेकिन जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतर पायीं। ममता को भी अपनी असफलता का भान है। उन्हें यह भी पता है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार नीचे गिरता चला जा रहा है। सही और गलत की पहचान को नजरअंदाज करती ममता की बौखलाहट देखते बनती है। अरबों-खरबों के सारधा चिटफंड घोटाले में ममता के कुछ करीबी सांसद और मंत्री भी अपनी हिस्सेदारी पाने और निभाने में पीछे नहीं रहे। ममता भी इस ठग कंपनी के दलदल में फंसी नजर आती हैं। उनकी उजली साडी पर काले धब्बे दिखने लगे हैं। ममता के नजदीकी सांसद सृंजय बोस ने रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बनाये हैं। सारधा समूह के मुखिया से प्रतिमाह ६० लाख रुपये कि रिश्वत डकारने वाले तृणमूल के इस सांसद को जब सीबीआई ने दबोचा तो अपने सांसद के प्रति ममता की ममता जाग उठी। सांसद सृंजय एक दैनिक समाचार पत्र के संपादक भी हैं। यानी अखबार की धौंस दिखाकर वे ब्लैकमेलिंग का खेल खेलते चले आ रहे थे और ममता की आंखें बंद थीं। सोचिए जब संपादक ही घोटालेबाजों का साथी बन जाए तब किस तरह की पत्रकारिता होती होगी। इस पर भी चिंतन-मनन करने की जरूरत है कि जब भ्रष्टाचारियों के ही पक्ष में प्रदेश की मुख्यमंत्री झंडा उठा ले तो उनका क्या होगा जिनकी खून-पसीने की कमायी सत्ताधारियों के पाले-पोसे चिटफंड वालों ने लूट ली है। गौरतलब है कि सारधा कांड के कीचड में डुबकियां लगाने वाले तृणमूल के सांसद कुणाल घोष को भी सीबीआई पहले ही अपने चंगुल में ले चुकी है। कुणाल का तो दावा है कि ममता ने सारधा से मनचाहा फायदा उठाया है।
ममता को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए क्योंकि उसके मंत्री सांसद और खुद वे कटघरे में हैं। ममता अगर वाकई असली शेरनी होतीं तो अपने सांसदों और मंत्रियों का कालर पकडकर दुत्कारतीं, फटकारतीं। लेकिन वे तो गीदड निकलीं। देने लगीं धडाधड गीदड भभकियां :
"मैं सोनिया गांधी की तरह डरपोक नहीं जो चुप्पी साध लूं। मोदी सरकार में अगर दम है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाए। मैं देखूंगी... कितनी ब‹डी जेल है। यह तो डराने-धमकाने और बदले की राजनीति है।" खुद को गिरफ्तार करके दिखाने की धमकी देने वाली ममता की तरह ही कभी जयललिता ने भी ऐसे ही तेवर दिखाये थे। उनकी जेल यात्रा की रवानगी के बाद उनके कई प्रशंसक सडकों पर उतर आये थे। कुछ ने तो आत्महत्या तक कर ली थी। शिवसेना सुप्रीमो स्वर्गीय बाल ठाकरे भी सरकारों को कुछ इसी अंदाज से डराया करते थे कि यदि उन पर हाथ डाला गया तो जनता ऐसा तांडव मचायेगी कि उनके लिए स्थिति को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा। इतनी भीड उमडेगी कि देश और प्रदेश की जेलें भी छोटी पड जाएंगी। अब तो तथाकथित संत और बाबा भी राजनेताओं का खुलकर अनुसरण करने लगे हैं। उनपर भी जैसे ही कानूनी डंडा चलने का खतरा मंडराता है तो वे अपने भक्तों की अपार भीड के उग्र हो जाने का भय दिखाने लगते हैं।
हाल ही में हत्या के संगीन आरोपी रामपाल को दबोचने के लिए कैसे-कैसे नाटक हुए और पुलिस और प्रशासन के हौसले भी पस्त हो गये। इसका नजारा सभी ने देखा। इस कुसंत की गिरफ्तारी को रोकने के लिए जिस तरह से उसके हजारों अनुयायी एकजुट हुए उसपर गहन चिंतन करने की जरूरत है। संतई की जगह गुंडई करने वाले सतपाल की निजी सिक्योरिटी का शासन और प्रशासन से लोहा लेना कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है। सतपाल के आश्रम से बम-बारुद-पिस्तोल और बंदूकों के जखीरों का बरामद होना यही बताता है कि धर्म और श्रद्धा के संसार में दुष्कर्मियों ने अपनी जबरदस्त पैठ जमा ली है। यह ढोंगी अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों को तो भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागने और पूरे संयम के साथ जीवन जीने की सीख देते हैं, लेकिन खुद ऐसा बेलगाम और विलासितापूर्ण जीवन जीते हैं कि हद दर्जे के अय्याश भी पानी-पानी हो जाएं। दरअसल अपने देश के अधिकांश राजनेताओं और शातिर बाबाओं में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही नकाब ओढकर अपना मायाजाल फैलाते हैं और जब नकाब उतर जाता है तो वही करते और बकते नजर आते हैं जो इन दिनों हम और आप देख रहे हैं।

Thursday, November 13, 2014

बेहयायी का कचरा

यह देश की बदनसीबी है कि आज भी करोडों देशवासी ऐसे हैं जिनके घरों में शौचालय नहीं हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे इस मूलभूत सुविधा को अपना सकें। यह घोर गरीबी और अशिक्षा ही है जो उन्हें तथा उनके परिवार की महिलाओं को खेतों, खलिहानों, सडक के किनारे तथा रेल पटरियों के आसपास शौच करने को विवश करती है। उन्हें ऐसी स्थिति में देखने वालों को जितना बुरा लगता है उससे कहीं ज्यादा शर्मिन्दगी खुले में शौच करने वालों को झेलनी पडती है। देश में ऐसे नज़ारें आम हैं। गरीब तो विवश होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो जानबूझकर तरह-तरह की गंदगी फैलाते हैं। पेशाब करने के लिए कहीं भी खडे हो जाते हैं। जहां इच्छा हुई वहां थूक दिया और चलते बने। पान एवं गुटखे की पीक को साफ-सुथरी दिवारों पर पिचकने वालों की बेहयायी देखते बनती है। जलती सिगरेट और बीडी कहीं भी फेंक देना, घर और दुकान का कूडा-कचरा गलियों और सडकों के हवाले कर देने वालों में अनपढ ही नहीं पढे-लिखे भी शामिल होते हैं। किसी भी बाग या नदी-नाले के किनारे पडी शराब की खाली बोतलें बहुत कुछ कहती नजर आती हैं। पालिथिन की थैलियां तो बडी बेदर्दी के साथ जहां-तहां फेंक दी जाती हैं। जहां पूजा-अर्चना की जाती है वहां भी गंदगी फैलाने में संकोच नहीं किया जाता। कौन भारतवासी ऐसा होगा जिसकी गंगा के प्रति आस्था नहीं होगी। गंगा को मां का दर्जा दिया गया है। लेकिन इस मां की जो दुर्दशा है उसकी चिन्ता कितनों को है? गंगा मैया के पवित्र जल को इस कदर विषैला बनाकर रख दिया है कि अब उसे पीने में ही डर लगता है। देश कई समस्याओं से जूझ रहा है। स्वच्छ भारत अभियान उफान पर है। लेकिन काम कम और तमाशे ज्यादा हो रहे हैं। व्याभिचार, भ्रष्टाचार, बेईमानी, लूटपाट, आजादी का दुरुपयोग और मनमानी भी इसी कूडे-कचरे के प्रतिरूप हैं। इस कूडे-कचरे के हिमायती भी कम नहीं हैं। अपने देश में भीड जुटने में ज्यादा देर नहीं लगती। यहां तथाकथित बुद्धिजीवी भी भरे पडे हैं जो समर्थन के झंडे उठाकर सडकों पर उतरने में देरी नहीं लगाते।
२४ अक्टूबर को कोच्ची की एक कॉफी शॉप की पार्किंग में एक युवक और युवती को पता नहीं क्या सूझी कि वे खुले आम चुम्मा-चाटी पर उतर आये। अधिकांश लोगों ने उनकी इस बेहयायी को नजरअंदाज कर दिया। पर कुछ लोगों को उनकी यह बेहयायी कतई रास नहीं आयी। ऐसे में उनकी ठुकायी हो गयी। शोर मचा कि यह काम हिन्दू संगठनों का है। यह सबकुछ इतनी तेजी से हुआ कि चुंबनरत जो‹डे की तस्वीरें टीवी के पर्दे पर भी लहराने लगीं। युवक-युवती के पक्षघरों ने चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया कि हम आजाद मुल्क के आजाद नागरिक हैं। हम कहीं भी कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। हमारे इस मूलभूत अधिकार को कोई भी नहीं छीन सकता। केरल के कोच्चि से जन्मे इस तमाशे को देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंचने में ज़रा भी देरी नहीं लगी। इस खुल्लम-खुला 'चुम्बन कर्म' को नाम दिया गया। 'किस ऑफ लव' की मुहिम। सैकडों युवक-युवतियों और उनके समर्थक ने दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्यालय के समक्ष एकत्रित होकर एक दूसरे के गालों को चूमा और अपनी इस मुहिम का समर्थन करते हुए जमकर शोर-शराबा किया। बिना किसी संगठन, बैनर के सोशल मीडिया पर मिले निमंत्रण पर पहुंचे युवाओं के हुजूम ने 'किस ऑफ लव' के अंध समर्थन में गजब का जोश दिखाया। एक दूसरे को गले लगाते और चूमते छात्र खुल्लम-खुला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों, प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की जैसे फिल्मी गीत गाकर उन लोगों के प्रति अपना घोर विरोध प्रकट करते रहे जो उनकी मनमर्जी और मर्यादा की धज्जियां उडाने के आडे आते हैं। खुल्लम-खुला गुत्थम-गुत्था होने की आजादी चाहने वाले युवाओं का कहना था कि परंपरा, संस्कृति के नाम पर किसी को समाज का ठेकेदार बनने की जरूरत नहीं है। उनका कोई हक नहीं कि वे हमारे ऊपर अपने आदेश थोपें। दूसरी तरफ हिंदू सेना की तरफ से चेताया गया कि हम देश की संस्कृति कतई नहीं बिगडने देंगे। जो 'किस ऑफ लव' की बात कर रहे हैं वे असल में कामसूत्र के बारे में ठीक से नहीं जानते। मर्यादा का पालन किया ही जाना चाहिए। वह आजादी किस काम की जो दूसरों को शर्मिन्दगी और पी‹डा दे। ओछी हरकतों को प्यार कहना बेवकूफी है। प्यार, पान और गुटखे की पीक नहीं है जिसे जहां चाहा वहीं उगल दिया। कुछ लोग जिस तरह से अपने घरों का कूडा कहीं भी फेंक देते हैं प्यार के मामले में भी उनका कुछ ऐसा ही रवैय्या रहता है। जहां इच्छा हुई वहां निर्लज्जता का जामा ओड लिया और जब विरोध की आवाजें उठीं तो चीखने-चिल्लाने लगे कि हमारी आजादी छीनी जा रही है और हमें गुलाम बनाने का अभियान चलाया जा रहा है। प्यार को बेहयायी का जामा पहनाने वालों के कारण वातावरण दुषित होता चला जा रहा है। इन बेशर्म परिंदो ने शहरों के बाग-बगीचों, बाजारों और सडक चौराहों को भी नहीं बख्शा। बसों, रेलगाडियों में भी इनके नग्न तमाशे चलते रहते हैं। देखने वालों का सिर झुक जाता है, लेकिन इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। इस देश में तो ऐसे बेहूदा तमाशों का विरोध होगा ही। इसे रोका नहीं जा सकता। हां तथाकथित प्यार के नाम पर खुल्लम-खुला चुम्मा-चाटी करने वालों को प्यार से सिखाने की जरूरत है न कि मारने और पीटने की। कचरा, कचरे की सफाई नहीं कर सकता।

Thursday, November 6, 2014

इनसे बचकर रहना मुख्यमंत्री जी

विधायक जी के मुख्यमंत्री बनने पर शहरवासियों में अभूतपूर्व खुशी की तरंग दौड गयी। हर किसी ने माना कि काफी लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात महाराष्ट्र को एक कर्मठ, मिलनसार, परिश्रमी और ईमानदार नेता मिला है। अब शहर के साथ-साथ संपूर्ण प्रदेश का चहूंमुखी विकास तय है। मुख्यमंत्री बनने के बाद तेजस्वी देवेंद्र फडणवीस का जब उपराजधानी नागपुर में प्रथम आगमन हुआ तो उनको करीब से देखने, हाथ मिलाने, हार पहनाने और गुलदस्ते देने वालों का जो हुजूम उमडा, वो कई मायने में ऐतिहासिक था। उनको शुभकामनाएं देने वालों के हुजूम में हर वर्ग और उम्र के लोग शामिल थे। उत्सवी माहौल ने उनकी अपार लोकप्रियता का डंका पीट दिया। ऐसी ऐतिहासिक विजय रैली पहले कभी नहीं देखी गयी। अभी तक नेताओं के स्वागत के लिए कार्यकर्ताओं और समर्थकों को ही जुटते और भीड बनते देखा गया है, लेकिन इस बार आम जनता भी इस खुशी में शामिल थी। मुख्यमंत्री के विजयरथ पर फूलों की बरसात हुई। बडे-बुजुर्गों के आशीर्वाद की झडी लग गयी। फटाखे इतने फूटे कि असली दीपावली की चमक फीकी पड गयी। महिलाओं और युवतियों ने अपने घरों के सामने रंगोली उकेरकर प्रदेश के नये मुख्यमंत्री का तहेदिल से स्वागत किया। हर चौराहे पर ढोल ताशे बजते रहे। शहर का ऐसा कोई चौक-चौराहा नहीं बचा था जहां इस जनप्रिय नेता के शुभचिंतकों ने अपनी अपार खुशी का इजहार करने के लिए पोस्टर, बैनर और होर्डिंग्स न लगाए हों।
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के तंबू के नीचे राजनीति का पाठ पढने वाले देवेंद्र फडणवीस की लोकप्रियता की चकाचौंध ने खुद गडकरी को भी हतप्रभ कर दिया। फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने से कुछ चेहरों को कष्ट भी हुआ है, लेकिन फिर भी उनके चाहने वालों की तादाद इतनी है कि उनकी अभूतपूर्व उपलब्धि (जिसके वे वास्तव में हकदार थे) के समक्ष चंद नाखुश लोगों की रत्ती भर भी अहमियत नहीं है। फिर भी फडणवीस के रास्ते में कई तकलीफें आने वाली हैं। उन्हें अवरोधों का भी सामना करना पडेगा। बेदाग छवि के धनी देवेंद्र से राज्य की जनता को ढेर सारी उम्मीदें हैं। प्रदेश का हर जन उनके इस वायदे से आश्वस्त है कि वे स्वच्छ निष्पक्ष और पारदर्शी सरकार देंगे और प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। उन्होंने ऐसे महाराष्ट्र की कमान संभाली है जो आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है। कांग्रेस-राकां गठबंधन की सरकार ने बेइमानी, भ्रष्टाचार और लूटपाट का ऐसा तांडव मचाया कि कभी खुशहाल राज्यों में गिना जाने वाला महाराष्ट्र साढे तीन लाख करोड के कर्ज के तले डूबा है। जिस धन को आम जनता के विकास के लिए खर्च किया जाना था, उसका भ्रष्टों की जेब में चले जाना इस प्रदेश की बर्बादी का मुख्य कारण बना। विदर्भ को जानबूझकर विकास से दूर रखा गया। गरीबी, बेरोजगारी और पिछडेपन के मारे विदर्भ में किसान आत्महत्या करते रहे और पूर्व की सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। विदर्भ के गडचिरोली में नक्सलवाद ऐसा पनपा कि अब उसकी जडे काफी गहरे तक अपनी पहुंच बना चुकी हैं। अध्ययनशील देवेंद्र हर समस्या से वाकिफ हैं। उन्हें भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की शिनाख्त के मामले में बेहद सजग रहना होगा। अकेले उनके ईमानदार होने से सबकुछ ठीक-ठाक चलेगा ऐसा मान लेना नादानी होगी। इतिहास गवाह है कि इर्द-गिर्द के लोग ही धोखा और तकलीफें देते हैं और अंतत: गर्त में डूबो देते हैं।
देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने पर शहर की दिवारों पर चस्पा किये गये पोस्टरों और अखबारों में धडाधड छपे शुभकामनाओं के विज्ञापनों के विज्ञापनदाताओं में कुछ नाम ऐसे नजर आए जिन्होंने सजग शहरवासियों को चौंका कर रख दिया। यह वो मतलब परस्त हैं जिनकी हमेशा सत्ता से यारी रही है। इनका एक ही उसूल रहा है- जिधर दम, उधर हम। यह चाटूकार सत्ता और राजनीति को अपने स्वार्थों को साधने का एकमात्र माध्यम मानते हैं। एक धन्नासेठ जो कभी भाजपा का नगरसेवक भी रह चुका है, उसने शहर के सभी अखबारों में पूर्ण पृष्ठ के शुभकामना और अभिनंदन के विज्ञापन छपवाकर यह दर्शाने की कोशिश की, कि देवेंद्र फडणवीस का उनसे बढकर कोई और शुभचिंतक है ही नहीं। और भी कुछ चाटूकारों ने शहर में होर्डिंग और पोस्टरों की झडी लगायी। कुछ भूमाफिया और सरकारी ठेकेदार भी भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं को मुख्यमंत्री के अभिनंदन और स्वागत के मामले में पीछे छोड गये। लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व जब महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार थी तब नागपुर के दलबदलू, मुखौटेबाज दालमिल वाले ने 'चावल कांड' को अंजाम देकर करोडों की कमायी कर ली थी और भाजपा के हिस्से में जबर्दस्त बदनामी आयी थी। ऐसे लोग फिर सक्रिय हो गये हैं। देवेंद्र फडणवीस को ऐसे शातिरों से भी चौकन्ना रहना होगा। यह वो लोग हैं जिनकी घेराबंदी के चलते आमजनों, पीडितों, समस्याग्रस्त किसानों, दलितों शोषितों, गरीबों, बेरोजगारों और तमाम जरूरतमंदों का शासकों की चौखट तक पहुंच पाना टेढी खीर हो जाता है। इनके फरेबी जयघोष में न जाने कितनी ईमानदार आवाजें दबकर रह जाती हैं। यह मतलबपरस्त पता नहीं कितने ईमानदार राजनेताओं का भविष्य चौपट कर चुके हैं। यह इतने घाघ हैं कि अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अच्छे खासे इंसान को शैतान तो कभी भगवान बना देना इनके बायें हाथ का खेल है। देश के चर्चित कवि और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने ऐसे मायावी चेहरों से सतत सावधान रहने के लिए यह पंक्तियां लिखी हैं :
'हो मुसीबत लाख पर यह ध्यान रखना तुम
मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम
बहुत संभव है बना दे भीड तुमको देवता
किंतु मन में इक अदद इंसान रखना तुम'