Thursday, April 24, 2014

भारत माता के शत्रुओं को पहचानो

कोई भी देश भक्त राष्ट्र को तोडने की नहीं सोच सकता। हर देशप्रेमी की यही सोच होती है कि देश पहले है... बाकी सब कुछ बाद में। पर कुछ नेता इस सच से सहमत नहीं दिखते। उनपर तो जैसे भाई-भाई को आपस में लडाने और देश को तोडने और छलनी करने का अंधा जुनून सवार है। उनके लिए सत्ता ही सर्वोपरि है। यही लोग शब्दों की तेजाबी बरसात कर रहे हैं जो सजग हिं‍दुओं और मुसलमानों को झुलसा रही है। यह भी सच है कि भाजपा के ही कुछ नेता नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के सपने को पलीता लगाने पर आमादा हैं। बिहार के एक भाजपाई नेता हैं गिरीराज सिं‍ह जो जहर उगलने के मामले में कुख्यात रहे हैं। वे नवादा संसदीय क्षेत्र से पार्टी के प्रत्याशी हैं। उन्होंने एक चुनावी मंच से भीड को चेताया कि जो लोग नरेंद्र मोदी के समर्थक नहीं हैं वो सावधान हो जाएं। मोदी के पीएम बनने पर सिर्फ भाजपा समर्थक ही मजे में रहेंगे, बाकियों की तो खैर नहीं। उन्हें तो चुनावों के नतीजो के बाद पाकिस्तान ही जाना होगा। जिस मंच से मुसलमानों को यह चेतावनी दी जा रही थी उसी मंच पर भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी विराजमान थे। यह महाशय भी कम नहीं हैं। उन्हें तो बिहार के खून में ही जातिवाद के रचे-बसे होने का महाज्ञान मिला है। भाजपा के घोर शुभचिं‍तक और साथी विश्व हिन्दु परिषद के नेता प्रवीण तोगडि‍या ने भी एक ही झटके में अपनी तालिबानी मंशा उजागर कर दी। मोदी के गुजरात के भावनगर में आयोजित एक सभा में उन्होंने हिन्दु बहुल इलाकों में बसे मुसलमानों को खदेडने की तरकीब सुझाते हुए कहा कि मुस्लिम परिवारों से ४८ घंटे में घर खाली करने को कहो। अगर वे इसके लिए तैयार न हों तो उनके घर पर कब्जा कर लो और बजरंग दल की तख्ती टांग दो।
बताते हैं कि तोगडि‍या जब सभा के लिए पहुंचे थे तभी कुछ महिलाएं उनसे मिलने के लिए आयीं। उन्होंने तोगडि‍या को शिकायती अंदाज में बताया कि उनके मोहल्ले में एक ऐसे मुस्लिम परिवार ने घर खरीदा है जो मांसाहारी है। इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती है। तोगडि‍या वैसे भी मुसलमानों के खिलाफ बोलने के मामले में सुर्खियां पाते रहते हैं। यहां भी उन्होंने हाथ आये मौके को ऐसे लपका कि बवाल मचा कर रख दिया। देश में पहले भी लोकसभा के चुनाव हुए हैं, लेकिन इस तरह से संयम और मर्यादा की धज्जियां उडती नहीं देखी गयीं। शिवसेना के नेता रामदास कदम ने नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में जिस अंदाज में विष उगला उससे यही साबित होता है कि जाति और धर्म की राजनीति करने वालों ने देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नेस्तनाबूत करने की कसम खायी है। रामदास देश को बेहाल कर चुकी सभी समस्याओं को भूल गये। उनके दिमाग में भी पाकिस्तान और मुसलमान छाये रहे। उन्होंने तो ऐलान तक कर डाला कि प्रधानमंत्री बनते ही मोदी बदला लेंगे...। यह तो सरासर गुंडागंर्दी है। ऐसी भाषा तो आतंकी बोला करते हैं। क्या यह मान लिया जाए कि मोदी को लेकर जो कई देशवासियों में भय है वह निराधार नहीं है? फिर भी ऐसे नेता इस सच को जान लें कि इस मुल्क के लोग अमन-चैन के साथ मिलजुलकर रहने के हिमायती हैं। उन्हें जहरीली भाषा बोलने वाले कतई रास नहीं आते। नेता इस हकीकत को कब समझेंगे? यह देश हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, यहुदी आदि सभी का है। इसे आजाद करवाने में सभी का योगदान रहा है। किसी ने भी कुर्बानी देने में कोई कमी नहीं की। इस सच्चाई को जिन्होंने भूला दिया है या भुलवाने का षडयंत्र रचा है वे भारत माता के शत्रु हैं। यह लोग चुनाव भले जीत जाएं पर देशवासियों के दिलों पर कभी भी राज नहीं कर सकते। यह जिस गर्त में डूबे हैं वहां इन्हें थूक और दुत्कार के सिवाय और कुछ भी नहीं मिलने वाला। देश का युवा जाग चुका है। उसके लिए जाति और धर्म कोई मायने नहीं रखते। यह टुच्चे नेता ही हैं जो बार-बार हिन्दु-मुसलमान के बीच दूरियां बनाने के षडयंत्र रचते हैं। इन्हें शायद यह खबर नहीं है कि देश के असंख्य मुसलमान वक्त आने पर हिं‍दुओं के रक्षा कवच बन जाते हैं। ऐसे हिन्दु भी भरे पडे हैं जो अपने मुसलमान भाईयों के लिए बडी से बडी कुर्बानी देने को तत्पर रहते हैं। विषैले नेताओं से कोई भी खुश नहीं। उनके कारण देश का अमन-चैन खतरे में पडता लग रहा है। खुली हवा में सांस लेने वाले आम नागरिकों के साथ-साथ जेलों में सजा काट रहे कैदी तक नेताओं की भेदभाव की नीति और आतंकी चलन से खफा हैं। एशिया की सबसे बडी जेल तिहाड में बंद कैदी चाहते हैं कि यह टुच्चे नेता जाति और धर्म की राजनीति करने से बाज आएं। जेल में कैद रवि घई की कविता की पंक्तियां हैं :
'धर्म को बांटने वाले इंसान बता तेरी रज़ा क्या है?
तूने ईश्वर को भी ना छोडा, बता तेरी सजा क्या है?
जातिवाद के नाम पर क्यों फैलाते हो आग?
क्षेत्रियता का क्यों अलापते हो राग?
छोड दो इंसानियत का खून करना,
मानवता को तो रहने तो बेदाग।'
हो सकता है कि साहित्य के क्षेत्र के विद्वानों को यह कविता अनगढ लगे। लेकिन जरूरत तो इसके भावार्थ को समझने की है। कई और कैदियों ने भी अपनी चिन्ता और पीडा कविता के माध्यम से व्यक्त की है। उन्हें भी देश के टूटने और बिखरने का खतरा चैन से सोने नहीं देता। वजह हैं यही नेता जो सत्ता के लिए देश की एकता, अखंडता और भाईचारे की बलि चढाने के लिए कमर कस चुके हैं। ऐसे नेता किसी के भी वोट के हकदार नहीं हैं। हम सबको मिलकर इन्हें हराना और सबक सिखाना है। यह मिलजुलकर रहने वालों का देश है जिसका अनुसरण दुनिया के दूसरे देश करते हैं। हर धर्म में अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी। धर्म विशेष को अपना निशाना बनाने वालों के मंसूबे कभी सपने में भी पूरे नहीं हो पाएंगे।

Thursday, April 17, 2014

देश से छल!

यह तो सीधी-सीधी चारसौबीसी दिखती है। घोर विश्वासघात भी। प्रधानमंत्री की कुर्सी को सुशोभित करे कोई और फैसले ले कोई ओर! प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह के पूर्व मीडिया सलाहकार और पूर्व कोयला सचिव की अलग-अलग किताब में किये गये रहस्योद्घाटन लोकतंत्र को पंगु बनाने और उसके अधिकारों के लूट की शर्मनाक दास्तान हैं। विपक्षी तो पहले ही चिल्लाया करते थे कि डॉ. मनमोहन डमी प्रधानमंत्री हैं। देश की सत्ता तो सोनिया गांधी एंड कंपनी के हाथ में ही है। विपक्ष के इन आरोपों पर कुछ लोग यकीन करते थे। कुछ नहीं भी करते थे। अब सबको पता चल गया है कि डॉ. मनमोहन तो कठपुतली से भी बदतर थे। उनका दीन-हीन चेहरा सामने आने से सजग देशवासी स्तब्ध और आहट हैं। मनमोहन जहां प्रधानमंत्री पद की गरिमा को घटाने और गिराने के दोषी हैं वहीं परदे में सोनिया की मनमानी बेहद चौंकाने वाली है। क्या यह वही सोनिया हैं जिन्होंने अपनी 'त्यागमूर्ति' की चमकीली छवि बनायी थी। सत्ता का त्याग उनका मात्र राजनीतिक हथकंडा था? उनकी चाहत कुछ थी और दर्शाया कुछ और था? यह तो दूसरे के कंधे पर बंदूक चलाने वाली बात है। किताब ऐसे कई-कई सवाल खडे करती है। दस साल तक देश की जनता छल और फरेब का शिकार होती रही। उद्योगपतियों, मंत्रियों, सांसदों और सत्ता के दलालों के हाथों देश लुटता रहा। भ्रष्टाचार के रिकार्ड टूटते रहे। पच्चीस-पचास करोड के भ्रष्टाचार की कोई गिनती नहीं रही। इसका आंकडा हजारों और लाखों करोड को भी पार कर गया। सांसद और मंत्री दिखावटी प्रधानमंत्री को ब्लैकमेल करते रहे। अपने भाई-भतीजों, रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ मिलकर देश की मूल्यवान खनिज संपदा की लूटमारी चलती रही। खुद ईमानदार होने के बावजूद डॉ. मनमोहन मुंह पर ताला लगाये रहे। कभी कुछ नहीं बोला। उन्हें इतना कमजोर कर दिया गया कि वे अपनी पसंद के मंत्री बनाने में ही नाकामयाब रहे। मंत्रिमंडल में भ्रष्टाचारियों का वर्चस्व बढता गया। सभी महत्वपूर्ण फाइलें सीधे सोनिया गांधी के पास जाती रहीं। याद किजिए...सोनिया गांधी पर देशवासियों को कितना-कितना भरोसा था। गरीब उन्हें अपना मसीहा मानते थे। पर वे तो अमीरों और ताकतवरों की होकर रह गयीं! यकीनन उन्होंने इस भरोसे का बडी बेरहमी से कत्ल कर डाला। उनकी छत्रछाया में हुए भ्रष्टाचार ने देश को खोखला कर डाला। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा जहां रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का बोलबाला न रहा हो। महंगाई ने गरीबों की कमर तोड दी। दाल, चावल, गेहूं, पेट्रोल, डीजल में आग लगती रही। मूलभूत सुविधाएं ही नदारद हो गयीं। जिसे देखो वही डॉ. मनमोहन को कोसते नजर आया। सवाल पर सवाल दागे जाने लगे। विद्वान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह पर इतनी उंगलियां उठीं कि जितनी पहले शायद ही किसी प्रधानमंत्री पर उठी हों। उन्हें अब तक का सबसे नकारा पीएम बताया और प्रचारित किया गया। वे तब भी गजब की चुप्पी साधे रहे। कभी भी अपना दर्द बयां नहीं किया। एक बार तो बता देते कि मेरे हाथ बंधे हैं। मैं मजबूर हूं। उनकी खामोशी के पीछे पता नहीं कितनी विवशताएं थीं? क्या इसे महज स्वामी भक्ति मान लिया जाए? क्या अपने मालिक के समक्ष इस तरह से भी नतमस्तक हुआ जाता है? ऐसे में याद आ रहे हैं वे जैल सिं‍ह जिन्होंने कभी कहा था कि इंदिरा गांधी अगर आदेश दें तो वे झाडू भी लगाने से नहीं हिचकेंगे। यही जैल सिं‍ह बाद में भारत वर्ष के राष्ट्रपति भी बना दिये गये। लगता है कि डॉ. मनमोहन के मन में भी सरदार जैल सिं‍ह वाला विचार पलता रहा। उन्हें सोनिया मैडम ने देश का प्रधानमंत्री बनवाया और वे इसी अहसान की भरपायी करते रहे और देश के साथ छल-कपट और धोखा होता रहा।
यह तो देश की किस्मत अच्छी थी कि २जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले को अंजाम देकर देश को लाखों-लाखों करोड की चोट देने वाले बेनकाब हो गये और खेल घोटाले के नायकों का चेहरा भी सामने आ गया। कुछ जेल भी हो आये। यह खलनायक उन्हीं की सरकार के पुर्जे थे। कोई सांसद था। कोई मंत्री था। कांग्रेस के सांसद, उद्योगपति नवीन जिन्दल ने तो कोयले की कई खदाने हथियाकर बता दिया कि उनका राजनीति में आने का असली मकसद क्या है। नागपुर के लोकमत ग्रुप के सर्वेसर्वा विजय दर्डा जो कि कांग्रेस के राज्यसभा सांसद भी हैं उन्होंने भी कोयले से मुंह काला कर कम लूट नहीं मचायी। अपने हमप्याले जायसवाल को अपने रूतबे की बदौलत कोयले की खदाने ऐसे दिलवायीं और खुद भी पायीं जैसे देश उनके बाप-दादा की जागीर हो। दरअसल, यही लोग देश के वो लुटेरे हैं जिन्होंने सीधे-सादे पी.एम. को अपने आतंक की गिरफ्त में ले लिया था। इन जैसों की भ्रष्ट बिरादरी ने जमकर बहती गंगा में हाथ धोये। अपनी आने वाली कई पीढि‍यों के लिए पूरा बंदोबस्त कर डाला। इन सफेदपोश डकैतों को न देश का ख्याल आया और न ही करोडों बदहाल गरीबों का। इनके कई रूप-प्रतिरूप हैं। संगी-साथी हैं। कभी यह नेता बन जाते हैं, तो कभी उद्योगपति। हर रूप में इन्होंने देश को लूटा है। इनका अगर इतिहास खंगाला जाए तो न जाने कितने-कितने भयावह सच सामने आ सकते हैं। सजग मीडिया के कारण कई चेहरों के नकाब उतर गये। अगर ऐसा नहीं होता तो और भी बुरा होता। यह देश पता नहीं कहां-कहां और कैसे-कैसे लुटता रहता और देशवासियों को भनक ही नहीं लग पाती।

Thursday, April 10, 2014

नेताओं के इंतकामी तेवर

नजारे बडे चौंकाने और दहलाने वाले हैं। कांग्रेस अपनी जमीन तलाश रही है। उसे मजबूरन मुस्लिमों के धर्मगुरु जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी की शरण में जाना पडा। कांग्रेस ने जो समय चुना उस पर कई सवाल खडे किये जा रहे हैं। मौलाना बुखारी भी राह देख रहे थे। उन्होंने यह घोषणा करने में देरी नहीं लगायी कि देश के मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में मतदान करें। वे यह भी फरमाना नहीं भूले कि अगर मुसलमान अपना वोट बसपा और समाजवादी पार्टी को देते हैं तो उनका यह वोट व्यर्थ जायेगा। आज कांग्रेस के लिए मतदान करने की अपील करने वाले मौलाना बुखारी कभी समाजवादी पार्टी पर मेहरबान थे। इस मेहरबानी के बदले उन्होंने बहुत कुछ पाया। अपने दामाद को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बनवाने की खुशी के साथ अपनी तकदीर चमकायी। जब मुलायम ने उनके बढते लालच को आंका तो उन्होंने भाव देना बंद कर दिया। बुखारी ने भी खिलाफत का झंडा उठा लिया। अहमद बुखारी अपने पिता के पदचिन्हों पर चल रहे हैं। उनके पिता अब्दुल्ला बुखारी की भी कभी कांग्रेस से काफी नजदीकियां थीं। कांग्रेस को जब उनकी सौदेबाजी रास नहीं आयी तो उसने भी किनारा कर लिया। वे कांग्रेस को कोसने की मुद्रा में आ गये। कांग्रेस को नीचा दिखाने के लिए १९७७ के चुनाव में जनता पार्टी का भी पुरजोर समर्थन किया था। रामलीला मैदान में आयोजित एक जनसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की उपस्थिति में वे यह कह गये कि अब देश की हुकुमत जामा मस्जिद से चलेगी। मोरारजी देसाई तुष्टिकरण की राजनीति करने वालो में शामिल नहीं थे। गुस्से में तमतमाये देसाई ने अब्दुल्ला को मंच से नीचे उतार दिया। इस अपमान को उन्होंने कैसे झेला इसे लेकर भी कई कहानियां हैं। जनता पार्टी और मोरारजी देसाई उन्हें हमेशा शूल की तरह चुभते रहे। अब्दुल्ला बुखारी का सारा जीवन ऐसे ही चक्करबाजी में बीता। कभी इसका तो कभी उसका समर्थन कर वे अपने स्वार्थ साधते रहे। अब उनके पुत्र भी वही सब कर रहे हैं। कल तक उन्हें मुलायम सिंह यादव से अच्छा और कोई नेता नजर नहीं आता था। वक्त...वक्त की बात है। धर्मगुरु भी राजनीति में पारंगत हो गये हैं। राजनेताओं की तरह हवा का रूख देखकर पाले बदलना सीख गये हैं। २००४ में अहमद बुखारी ने अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन में सामने आये थे। दरअसल, अहमद बुखारी को बदले हुए हालातों का अंदाज नहीं है शायद। तब की बात और थी जब चुनाव के पहले जामा मस्जिद के शाही इमाम के फतवे का असर पडता था। बार-बार विचार बदलने और फतवे जारी करने के कारण उनकी साख को बट्टा लग चुका है। रूआब और रूतबा भी नहीं रहा। उनके छोटे भाई ने ही कांग्रेस का विरोध कर उनकी अपील के परखच्चे उडा दिये हैं। यह एक तरह से कांग्रेस का अपमान है जिसने ऐसे धर्मगुरु के समक्ष घुटने टेके हैं जो हद दर्जे का मतलबपरस्त है। आज का मुस्लिम समाज भी इनके इतिहास से वाकिफ है।
तय है कि पढे-लिखे मुस्लिम मतदाता अब किसी के झांसे में नहीं आने वाले। उन्हें पता है कि जब दो स्वार्थी हाथ मिलाते हैं तो किसका भला होता है। कांग्रेस पता नहीं क्यों हवाओं के इशारे को समझना नहीं चाहती। दरअसल इस देश के राजनेता अगर सुधर जाते तो बहुत कुछ दुरुस्त हो जाता। इनके भाषणों में शब्दों के चयन का तरीका भी ब‹डा डरावना है। ७ अप्रैल से प्रारंभ हुई लोकसभा चुनावों की वोटिंग १२ मई तक चलने वाली है। बेलगाम नेताओं की जुबान जहर उगलने लगी है। ऐसा लगता है जैसे कुछ नेता इंतकाम लेने की मंशा पाले हुए हैं। चुनाव जीतने के लिए भडकाऊ भाषा का इस्तेमाल आम हो गया है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के प्रभारी अमित शाह आग लगाने की मुद्रा में हैं। इस आग से क्या...क्या खाक हो सकता है इसकी उन्हें कतई चिन्ता नहीं। वे कहते हैं कि 'उत्तर प्रदेश में सम्मान का चुनाव लडा जा रहा है। ये चुनाव मुजफ्फरनगर में हुए दंगों में हुए हमारे अपमान का बदला लेने का मौका है। ये एक मौका है उन लोगों को सबक सिखाने का जिन्होंने हमारे साथ अन्याय किया है। जिन्होंने हमारे लोगों को मारा है।' अमित शाह ने जहर उगला, लेकिन भाजपा के किसी बडे नेता ने उनकी भतसरना नहीं की। कांग्रेस की भी ऐसी ही भूमिका रही। उन्हीं की पार्टी के सहारनपुर लोकसभा सीट के प्रत्याशी इमरान मसूद के तेजाबी बोल सामने आये थे : 'यदि नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की कोशिश करेंगे तो मैं उनकी बोटी-बोटी कर दूंगा।'
कांग्रेस की नीयत अगर साफ होती तो वह इमरान की टिकट छीन लेती और फौरन पार्टी से बाहर कर देती। अमित शाह हों या इमरान मसूद दोनों ही विष के सागर हैं, लेकिन उनकी पार्टियां उन्हें इसलिए दुलारने को विवश हैं, क्योंकि उन्हें उनमें चुनाव जीतने और जीतवाने की क्षमता नजर आती है। इसी सोच ने ही तो इस देश का बेडा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोडी है। नरेंद्र मोदी के खिलाफ की गयी आतंकी टिप्पणी के जवाब में भाजपा नेता राजस्थान की मुख्यमंत्री ने भी यह कह कर अपने इरादे स्पष्ट कर दिये कि चुनाव के बाद पता चलेगा कि टुकडे किसके होंगे। समाजवादी पार्टी के नेता और यूपी सरकार में मंत्री आजम खान भी बदले और इंतकाम की बोली बोलने में कोई कसर नहीं छोड रहे। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमों अरविंद केजरीवाल पर जिस तरह से घूसों और थप्पडो की बरसात हो रही है उससे तरह-तरह की शंकाएं होने लगी हैं। कहीं इन भडकाऊ भाषणबाजों और इंतकामियों का असर तो नहीं जो एक ईमानदार नेता बेवजह पिट रहा है और यह लोग तालियां पीट रहे हैं।

Friday, April 4, 2014

मतदाता... चूक मत जाना

मीडिया हो या भीड। बस एक ही चर्चा है। किसकी सरकार बनेगी? कुछ लोग राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले हैं तो कइयों को अब तो नरेंद्र मोदी ही पीएम की कुर्सी के असली हकदार नजर आते हैं। इन दो नामों के शोर से परेशान जिन लोगों ने अपना माथा पकड लिया है उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। देश का टूटा-फूटा कमजोर आदमी इस तमाशे को देखकर स्तब्ध है। ऐसे-ऐसे नेता उसके जर्जर-बिखरे घर के चक्कर काट रहे हैं जिन्हे वह जानता तक नहीं। दरअसल यह तमाशा तो हर चुनावी मौसम में होता है। हिन्दु, मुसलमान, दलित-शोषित, पिछडों गरीबों को खुशहाल बनाने के तराने गाये जाते हैं। आम आदमी ऐसे नारों और तमाशों का अभ्यस्त हो गया है। बेरोजगारी, बेबसी और भुखमरी से ग्रस्त इस आदमी की आज भी अपनी एक अलग अंधेरी दुनिया है, जिसे अगर सच्चे नेता देख लें तो शर्म के मारे आत्महत्या करने को विवश हो जाएं। इस दमघोटू दुनिया में तभी झांका जाता है जब चुनाव आते हैं। झांकने और देखने में बहुत फर्क होता है जैसे अमीरी और गरीबी में। खुशहाली और बरबादी में। अंधेरे और उजाले में। अपनी पूरी जिन्दगी रोजी-रोटी के चक्कर में गंवा देने वाले आम आदमी को पता है कि अगर वह खून पसीना नहीं बहायेगा तो उसे और उसके परिवार को भूखे पेट ही रहना पडेगा। ऐसे बदकिस्मतों की संख्या इस देश में करोडों में है। जिनके पास न घर है और न ही स्थायी रोजी-रोटी के अवसर। फिर भी चुनाव इन्ही के नाम पर लडे जाते हैं। अधिकांश सरकारी योजनाएं भी इन्हीं के लिए बनायी जाती हैं। फिर भी इनके हालात नहीं बदल पाते। साफ-साफ नजर आता है। एक देश गरीबों का है तो दूसरा अमीरों का। अमीर भी ऐसे-ऐसे कि जो चाहें वो कर डालें। उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। इन्ही के इशारों पर सरकारें बनती, टूटती और बिखरती हैं। न जाने कितने नेता इनकी चौखट पर अपना माथा रगडते हैं और क्या से क्या हो जाते हैं। दरअसल यह रीत बडी पुरानी है। विरले ही इस लीक से हटने की कोशिश करते हैं। इस बार का चुनावी महासमर भी पुराने और नयों योद्धाओं से भरा पडा है। अधिकांश नयों ने भी पुरानों से दीक्षा-शिक्षा ली हुई है। देश के चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की खर्च सीमा ७५ लाख रुपये तय की है। इस लेखक का दावा है कि कई प्रत्याशी ऐसे हैं जिनके लिए पचास करोड भी कम पडने वाले हैं। सौ करोड से ऊपर उडाने वालों की भी अच्छी खासी तादाद है।  चुनाव प्रचार का श्रीगणेश करते ही इन्होंने अपने काले-सफेद धन की बरसात करने में देरी नहीं लगायी। इन्हें पता है कि इनके 'आदर्श' कैसे चुनाव जीतते आये हैं। इन्हें यह भी यकीन है कि उनका अनुसरण अंतत: फायदे का सौदा साबित होगा।
यह लोग वोटरों का शिकार करने से बाज नहीं आने वाले। मतदान से पूर्व की रात इनके समर्थक और चेले चपाटे गली-गली और घर-घर जाने को कटिबद्ध हैं। उनके पास कंबलों, साडि‍यों, नोटों के बंडलों और दारू की बोतलों के साथ वो सब सामान होगा जिनसे गरीब मतदाताओं को लुभाया और फंसाया जा सके। यानी हर बार की तरह इस बार भी जाल फेंका जाएगा। अब बिकना या न बिकना मतदाताओं के हाथ में है। देश में १० अप्रैल से लोकसभा चुनाव के मतदान की शुरूआत होने जा रही है। राजनीति के चोले में सजे धनपशुओं को अपने धनबल पर यकीन है। उनके इस भ्रम को तोडने का वक्त आ गया है। मतदाता ही परिवर्तन की मशाल जला सकते हैं। किसी भी मतदाता को यह नहीं भूलना चाहिए कि बाहुबल और धनबल ने लोकतंत्र को बीमार करके रख दिया है। लोकसभा में कई अपराधियों की तूती बोलती है। जिन्हें जेल में होना चाहिए वही सांसद बनते चले आ रहे हैं। इसलिए इस बार जैसा मौका फिर हाथ नहीं आने वाला। इस बार भी अगर दागी जीत गये तो यकीनन देश हार जाएगा। लोकतंत्र का कहीं अता-पता ही नहीं चलेगा। जातपात, धर्म संप्रदाय और क्षेत्रवाद की सोच से बहुत ऊपर उठकर किया जाने वाला मतदान ही बरबादी के कगार पर खडे हिं‍दुस्तान को बचा सकता है। इस बार की चूक के बाद मतदाता शिकवे और शिकायतें करने लायक भी नहीं बचेंगे। ऐसा कई बार हो चुका है कि मायावी भुलावे में आकर मतदाता जिन्हें लोकसभा में भेजते हैं वे कसौटी पर कतई खरे नहीं उतरते। उनके भारी-भरकम भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और रिश्वतों के किस्से मीडिया की सुर्खियां बनते रहते हैं। बेचारे मतदाता खुद को कोसने के सिवाय और कुछ नहीं कर पाते। इस बार यह नौबत न आए... इसलिए उन्हें वोट देने की कतई भूल न करें जिनके इर्द-गिर्द भूमाफिया, खनिज माफिया, दारू माफिया, कुख्यात बिल्डर, सरकारी ठेकेदार, चाटूकार अखबारीलाल और चालबाज छुटभइये नेताओं का जमावडा लगा रहता हो। ऐसे प्रत्याशी आमजन के हित की कभी सोच ही नहीं सकते। चुनाव जीतने के बाद इन्हें मतदाताओं की कभी कोई सुध ही नहीं आने वाली। दरअसल इन्हें अपनी चांडाल चौकडी से ही फुर्सत ही नहीं मिल पायेगी। इसलिए अपना सांसद, अपना रहनुमा उसे चुने जिसके पास मतदाताओं के लिए समय ही समय हो। अभद्र व्यवहार करने और व्यापारिक सोच रखने वाले को अपना वोट देने की भूल और नादानी देश को ले डूबेगी।