Thursday, July 30, 2020

मत भूलो

२३ जुलाई २०२० का दिन। बारह बजकर बीस मिनट पर qकचित फुर्सत देख फेसबुक पर दस्तक दी। मध्यप्रदेश के सजग कवि, वरिष्ठ पत्रकार डॉ. राकेश पाठक की पोस्ट पर नज़र पडी तो चौंक गया। शीर्षक था, "अब मध्यप्रदेश में पत्रकार की हत्या। निवाडी जिले में दबंगों की वारदात। नई दुनिया के प्रतिनिधि थे सुनील तिवारी।" अभी दो दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के शहर गाजियाबाद में पुलिस के माथे पर कलंक का टीका लगाने वाली पत्रकार विक्रम जोशी की नृशंस हत्या की खबर पढी थी और एक युवा बेटे को टीवी की स्क्रीन पर अपने फौजी पिता की हत्या किये जाने पर सिर पटक-पटक रोते बिलखते देखा था। मन और मस्तिष्क के कैनवास पर गहन चिन्ता और उदासी पुत गयी थी। कुछ सूझ ही नहीं रहा था। यह सवाल जवाब मांग रहा था कि ऐसी हत्याओं पर कब तक अत्यंत दु:खद, पीडाजनक शर्मनाक जैसे शब्द लिख-लिख कर अपनी पीडा और गुस्से को दबाना होगा? इसी खबर के नीचे छत्तीसगढ की सरकार के द्वारा दो पत्रकारों को केबिनेट मंत्री का दर्जा दिये जाने की खबर अखबार की शोभा बढा रही थी। इस प्रेरक गौरवगाथानुमा खबर में दोनों 'केबिनेट मंत्रियों' को अपार शुभकामनाएं और बधाई देने वाले कुछ पत्रकारों और संपादकों के नाम भी अंधेरे के जुगनू की तरह चमक रहे थे, ताकि निकट भविष्य में पत्रकारों के हितैषी, परोपकारी, दरियादिल मुख्यमंत्री की उन पर भी मेहरबानी हो जाए।
एकाएक मुझे देश की राजधानी दिल्ली के दो सम्पादकों की जोडी की याद हो आयी, जिन्हें बहुत दूरदर्शी कहा जाता है। सन २०१४ के लोकसभा के चुनाव से कुछ हफ्ते पहले एक ने राहुल गांधी की जीवनी तो दूसरे ने नरेंद्र मोदी की संघर्ष गाथा पर पुस्तक लिखकर अच्छी-खासी चर्चा पायी। दोनों को पक्का यकीन था कि उनके आराध्य की पार्टी ही बहुमत में आयेगी और देश की सत्ता पर काबिज होगी। दोनों 'ज्योतिषियों' ने अपने-अपने भावी प्रधानमंत्री तथा पार्टी के दिग्गज नेताओं के हस्ते किताब का विमोचन करवाया। फोटुएं खिंचवायीं और फेसबुक आदि में डालकर लाइक्स और शुभकामनाओं का आनंद लूटा। यह बात अलग है कि चुनाव परिणामों ने एक को गदगद तो दूसरे को निराश और उदास कर दिया। २०१९ लोकसभा चुनाव आते-आते तक इस 'विविध लाभकारी' 'आरती-गान' का बेतहाशा विस्तार हो गया। कई नये विद्वान कलमकार पैदा हो गये। मोदी और राहुल के साथ-साथ अमित शाह, प्रियंका गांधी आदि पर ग्रंथ लिखकर विमोचित करवाये गये और बाजार में उतार दिये गये। देश के विभिन्न प्रदेशों में वर्तमान और संभावित मुख्यमंत्रियों पर तरह-तरह की पोथियां लिखने की झडी लगा दी गयी। प्रदेशों के कुछ उच्च 'कलम कलाकारों' ने तो दिल्ली के महारथियों को भी मात देकर अपने यहां धन की खूब बरसात करवायी। किस्म-किस्म के रूपों-बहुरूपों के साथ यह सिलसिला अब जबर्दस्त रफ्तार पकड चुका है।
दरअसल, चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का, सिर्फ नेता और पार्टियां ही नहीं लडतीं, और भी कई लोग लडते हैं। कुछ पत्रकारों पर सिर्फ चुनावों के मौसम में ही नहीं बल्कि हर समय अपने गॉडफादर तथा उसकी पार्टी की आरती गाने का भूत सवार रहता है। अपनी वफादारी दिखाने और प्रतिफल पाने के लिए यह किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहते हैं।  इनके रूतबे, पहुंच और पहचान के डंके की भी गूंज दूर-दूर तक सुनी और सुनायी जाती है। बडे-बडे सरकारी अधिकारी इनके दरबार में दौडे चले आते हैं। खाकी वर्दी वालों से तो इनका गजब का याराना होता है। वैसे भी पत्रकारों और पुलिस वालों का मेल-मिलाप जरूरी और मजबूरी भी है। दोनों एक दूसरे के काम आते हैं। इसलिए यह आम धारणा है कि खाकी वर्दीधारी भले ही और किसी की न सुनें, लेकिन पत्रकार की शिकायत को अनसुना नहीं करते। फौरन 'एक्शन' लेते हैं।
गाजियाबाद के पत्रकार विक्रम जोशी के लिए पत्रकारिता का मतलब था, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर अन्यायी को दंड दिलवाना और पीडित को सुरक्षा, न्याय और राहत पहुंचाना। उसने अपनी भांजी को गुंडे-बदमाशों की अश्लील छेडछाड से बचाने के लिए थाने में लिखित रिपोर्ट दर्ज करवायी थी, लेकिन कुछ बिके हुए पुलिसियों ने उनकी सुनने की बजाय बदमाशों तक खबर पहुंचा दी कि पत्रकार ने तुम्हारे खिलाफ शिकायत की है। सोच लो, क्या करना है! रात को विक्रम जब अपनी दो बेटियों के साथ घर लौट रहे थे तभी दस गुंडों ने उन्हें घेरकर सिर पर गोली मारी। पिता सडक पर लहुलूहान पडे थे और बेटियां चीखती-पुकारती रहीं, लेकिन किसी ने उनकी मदद करना तो दूर, घटनास्थल पर रूकना तक मुनासिब नहीं समझा। यह हमारा तथा हमारे तमाशबीन समाज का असली चेहरा है। विक्रम अस्पताल में दो दिन तक मौत से जंग लडते-लडते अंतत: चल बसे।
सुनील तिवारी को उन्हीं के गांव के हत्यारे दबंगों ने इसलिए मार डाला क्योंकि वे सजग और निर्भीक पत्रकारिता की राह पर चलते हुए उन्हें सतत बेनकाब करने के अभियान में लगे हुए थे। सुनील असहाय और अकेले थे और वे बलशाली जिन पर राजनेताओं, मंत्रियों और पुलिस वालों का हाथ था, पहले भी वे अपने विरोधियों का कत्ल कर चुके थे। स्वतंत्र प्रेस के शत्रुओं ने सुनील पर कई तरह के दबाव बनाये, धमकियां दीं, लेकिन वे जब नहीं माने तो वही कर डाला जो अभी तक करते आये थे। निरीह पत्रकार ने कलेक्टर, पुलिस के उच्च अधिकारियों के साथ-साथ अपनी पत्रकार बिरादरी से भी हाथ जोड कर विनती की थी कि उसकी जान खतरे में है। कभी भी उन्हें मौत के घाट उतारा जा सकता है। कुछ तो करो..., जिससे मैं जिंदा रहकर सजग पत्रकारिता का धर्म निभाता रहूं! कहीं यह भी पढने में आया कि सुनील अधिकृत पत्रकार नहीं थे। निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारों की हत्या के बाद अखबार मालिक ऐसी निर्दयता दिखाकर अपना स्वार्थी चेहरा दिखाते रहते हैं। सुनील की जगह यदि कोई तथाकथित महान बडा पत्रकार होता तो क्या उसके साथ भी ऐसा होता? दरअसल, देश के आम आदमी की तरह विक्रम और सुनील ऐसे आम पत्रकार थे, जिनकी अपने काम और कर्तव्य से ही रिश्तेदारी थी। उन्हें यहां-वहां मुंह मारना और संबंध बनाना नहीं आता था। इसलिए उन्हें वही मौत मिली, जो इस देश के आम आदमी को मिला करती है।

Thursday, July 23, 2020

चीरफाड

यह हमारी संस्कृति है। पुरातन परंपरा है। सदियों से चला आ रहा सात्विक अटूट रिवाज है कि जब हम किसी अपने या बेगाने ऐसे किसी शख्स से मिलते हैं, जिसके परिजन की मौत हो गई हो, तो अपनी तरफ से संवेदना प्रकट करते हैं। अपने-अपने तरीके से हौसला देते हुए अफसोस जाहिर करते हैं। हमारी इस रस्म अदायगी से उस दु:खी शख्स को आत्मिक बल मिलता है। उसे यह अहसास होता है कि इस दु:ख और वेदना की घडी में वह अकेला नहीं है। उसके साथ और भी लोग खडे हैं। इस सोशल मीडिया के जमाने में तो फेसबुक, वाट्सएप आदि पर मौत के आगोश में समा चुके एकदम अनजाने लोगों के परिवारजनों को सांत्वना देने की झडी लगा दी जाती है। जिन्हें कभी देखा और जाना नहीं गया उनके देहावसान का समाचार हमें इस कदर पीडा पहुंचाता है कि आदरांजलि, सादर नमन, अत्यंत दु:खद, अफसोसनाक जैसे शब्दों की पुष्पांजलि अर्पित कर खुद को बेहतर इंसान, दोस्त और शुभचिंतक दर्शाने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाते हैं! आभासी दुनिया के प्रति इतना आदर-सम्मान, चिन्ता-फिक्र और वास्तविक दुनिया के जाने-पहचाने लोगों के प्रति अनदेखी तथा घोर निष्ठुरता अपनी तो समझ से तो परे है। जो लोग खुद को बहुत अक्लमंद मानते हैं वे यह क्यों भूल जाते हैं कि हर किसी को अपनों के खोने का गम होता है। मृतक चाहे साधु हो या अपराधी। मां, बाप, भाई, बहन और पत्नी को तो पीडा होती ही है। लगता है कि इस हकीकत की जानकारी भारत के कई न्यूज चैनल वालों को नहीं है। शायद उनके दिमाग में भूसा भरा है। अक्ल का तो दिवाला ही निकल चुका है। इन बेवकूफों को खुशी और गम के फर्क की भी समझ नहीं। दुर्दांत अपराधी, आठ जांबाज पुलिस कर्मियों के निर्मम हत्यारे विकास दुबे के अंतिम संस्कार के ऐन वक्त उसकी शोकमग्न पत्नी ऋचा को न्यूज चैनलों के संवाददाताओं ने ऐसे घेरा जैसे वह श्मशान घाट पर कोई उत्सव मनाने आई हो। जहां परिवार की कुछ स्त्रियां गमगीन ऋचा को तसल्ली देते हुए संभालने में लगी थीं, वहीं न्यूज चैनल वाले ऋचा पर उकसाने और आपे से बाहर करने वाले सवाल पर सवाल दागने में लगे थे।
"तुम्हें अपने हत्यारे माफिया, लुटेरे पति की मौत पर कैसा लग रहा है? पुलिस ने जिस तरह इस दरिंदे को कुत्ते की मौत मारा उस पर क्या कहना है तुम्हारा? अब आगे क्या करने का इरादा है?" आदि-आदि प्रश्नों की झडी ने ऋचा के तन-बदन में आग लगा दी। घायल शेरनी की तरह भडकते हुए उसने चीखते हुए कहा कि तुम कौन होते हो बोलने और पूछने वाले? पहले मरवाते हो फिर मुंह चलाने दौडे चले आते हो! हां यह भी सुन और जान लो कि पुलिस ने जो किया, वह सही किया, जिसने गलती की उसे सजा मिलेगी। आने वाले समय में जरूरत पडी तो मैं भी बंदूक उठाऊंगी।
एक नारी को अपने पति के अंतिम संस्कार के वक्त घेरने की न्यूज चैनल वालों को ऐसी क्या जल्दी थी? एक-दो घण्टे इंतजार भी तो किया जा सकता था। कहीं भागी तो नहीं जा रही थी वह! श्मशान घाट पर दुर्दांत अपराधी की पत्नी से मीडिया की इस ताबडतोड मुठभेड ने कई सवाल खडे कर दिये। प्रश्नों के जवाब में कहा गया कि ऋचा भी कम कसूरवार नहीं। उसे अपने गैंगस्टर पति के हर काले कारनामें की खबर थी। उसे यह भी पता है कि इस अरबपति नृशंस हत्यारे माफिया ने कैसे और कहां-कहां नामी और बेनामी संपत्तियां बनायीं और जुटायीं। आठ पुलिस कर्मियों की नृशंस हत्या की जिम्मेदार यह औरत भी है, जिसने मुंह, आंखें, कान और दिमाग पर ताले जड कदम-कदम पर अपने पति का साथ दिया। इसके पति का तो अंत हो गया है, लेकिन अभी भी कई रहस्यों पर पर्दा पडा हुआ है, जिन्हें यही उजागर कर सकती है। देश हित में इसका फर्ज है कि विकास दुबे की काली किताब के एक-एक पन्ने को खोल कर रख दे, ताकि हर किसी को अपराधियों, नेताओं, नौकरशाहों, सफेदपोशों के महाघातक गठजोर की उस सच्चाई का पता चले, जो भारत देश को घुन की तरह चाटे, निगले और खाये जा रही है।
सच तो यह भी है कि, जिस तरह से ऋचा अपने पति के उत्थान और पतन की गवाह और राज़दार रही है वैसे ही अधिकांश भ्रष्ट नेताओं, राजनेताओं, शासकों, अफसरों और सफेदपोशों की बीवियां भी अपने-अपने पतिदेव के प्रति नतमस्तक रहती हैं। अपने पति परमेश्वर के रातोंरात अरबपति-खरबपति बनने के सभी लूटपाट, रिश्वत और ठगी के तौर तरीकों की पूरी जानकारी के बाद कल भी मस्त थीं और आज भी मज़े लूट रही हैं। अपने कमाऊ देवताओं के प्रति नाज़ और सम्मान में कभी कोई कमी नहीं करनेवाली ऐसी नारियों के विधवा होने पर तो कभी किसी न्यूज चैनल वाले को उन्हें श्मशान घाट पर हैरान-परेशान और अपमानित करते तो नहीं देखा गया! दरअसल, तथाकथित वीआईपी चेहरों तक तो इन मीडिया धुरंधरों की पहुंचने और सुलगते सवाल दागने की जुर्रत ही नहीं होती। तब इन्हें नारी के सम्मान की भी याद हो आती है। सफेदपोश डकैतों के अहसान के तले तो यह पहले से ही दबे होते हैं।
इस सच से पूरी तरह से वाकिफ होने के बावजूद भी कि विकास दुबे जैसे माफियाओं, गुंडों, बदमाशों, हत्यारों के असली जन्मदाता, आश्रयदाता कौन हैं यह चुप्पी साधे रखते हैं। इन तमाशबीनों का जामीर तो हालात, वक्त और मोहरे देखकर ही जागता और सोता है। अपने दिल की बात लिखते-लिखते अचानक मुझे वो मंजर याद आ गया, जब एक फिल्म अभिनेता की घर में लाश पडी थी, तभी एक न्यूज चैनल वाले ने उनके बेटे से पूछा कि अपने प्रिय पिता की मृत्यु पर आपको कैसा लग रहा है? अभिनेता के गमगीन पुत्र के लिए यह प्रश्न बेहद तकलीफ दायक था। गुस्से में भनभनाते हुए वह घर के अंदर गया और हॉकी के साथ बाहर आकर रोष भरे स्वर में बोला, 'कमीने जैसे तेरे बाप के मरने पर तुझे लगा होगा या लगेगा वैसा ही... मुझे अपने पिता के गुजर जाने पर लग रहा है। फिर जैसे ही संवाददाता को पीटने के लिए तमतमाये पुत्र ने हॉकी घुमायी तो कुछ लोग बीच-बचाव के लिए आ गए। तब कहीं बडी मुश्किल से वह बेवकूफ लहुलूहान होने से बच पाया। ऐसे ही अगर बेवक्त किये गये बेहूदा सवालों की वजह से ऋचा अपना संयम खोते हुए न्यूज चैनल वाले के गाल पर गर्मागर्म थप्पड जड देती तो क्या होता?
तब लगभग सभी मीडिया वाले सवाल पूछने के अपने अधिकारों तथा ‘अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला' के ढोल-नगाडे पीट-पीटकर ऋचा को हिंसक, मर्यादाहीन और 'प्रेस' के लिए बेहद खतरनाक घोषित कर जेल में सडाने की मांग करते नज़र आते।

Thursday, July 16, 2020

डाकू की अंतिम इच्छा!

मोबाइल की लत बच्चों को अपराधी बना रही है। उनका मोबाइल के प्रति अत्याधिक लगाव और जिद्दीपन अभिभावकों की नींद उडा चुका है। माता-पिता, बडे-बुजुर्गों की जरा-सी ना-नुकुर, रोक-टोक उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। घण्टों मोबाइल से चिपके रहने वाले कई बच्चे, किशोर, युवा अपने मां-बाप की मेहनत की कमायी लुटा रहे हैं। उनके सपनों को बुरी तरह से रौंद रहे हैं। नागपुर से मात्र घण्टे-सवा घण्टे की दूरी पर स्थित है धार्मिक नगरी रामटेक। यहां के तेरह साल के बालक ने सात जुलाई २०२० के दिन गेम खेलने के लिए अपनी मां से मोबाइल मांगा। मां ने यह कहकर मोबाइल नहीं दिया कि यह भी कोई गेम खेलने का समय है। अभी-अभी तो सोकर उठे हो, नहाओ, धोओ, नाश्ता-पानी कर पढाई-वढाई करो। खेलने के लिए तो पूरा दिन पडा है। जिद्दी बच्चे को तो किसी भी हालत में मोबाइल चाहिए था। वह नाराज होकर घर की छत पर गया और पाइप से रस्सी का फंदा बनाकर झूल गया। कुछ देर के बाद मां कप‹डे सुखाने के लिए छत पर गई तो बेटे को फंदे पर मृत पाया।
नागपुर का रितिक पबजी के चक्कर में ऐसा भटका कि उसने भी खुदकुशी कर ली। १९ वर्षीय रितिक पुणे के नामी कॉलेज में होटल मैनेजमेंट की पढाई कर रहा था। कोरोना काल में कॉलेज बंद होने के बाद नागपुर स्थित अपने घर आया हुआ था। उसके माता-पिता यह देखकर हैरान-परेशान थे कि जब से वह आया था, दिनभर चुपचाप मोबाइल पर लगा रहता था। दरअसल, उसे पबजी खेलने की लत लग चुकी थी। पिता ने बहुतेरा समझाया, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। रात-रात भर गेम खेलने के कारण उसे माइग्रेन की बीमारी ने जकड लिया। डॉक्टर के पास ले जाया गया। डॉक्टर ने इलाज शुरू करने के साथ ही यह सलाह भी दी कि मोबाइल से इतनी अधिक मित्रता ठीक नहीं। पबजी से तो एकदम दूरी बना लो। सब ठीक हो जायेगा, लेकिन वह नहीं माना। गेम में उसे हार बर्दाश्त नहीं होती थी। हारने पर वह आक्रामक, हताश और निराश हो जाता था। ८ जुलाई २०२० की दोपहर खाना खाकर वह मोबाइल लेकर अपने कमरे में गया। काफी देर के बाद मां ने उसे आवाज लगाई। कोई जवाब न पाकर दरवाजे को धक्का दे कमरे में घुसी तो उसके पैरो तले की जमीन खिसक गई। बेटा फांसी पर लटका था। अस्पताल में ले जाने पर डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
पबजी के मायावी चक्कर के कारण जान गंवाने वालों में नागपुर की ही उन्नीस वर्षीय युवती फारिया निजाम पठान का नाम भी जुड गया। यह युवती भी इस हत्यारे खेल के भटकाव तथा तनाव से गुजर रही थी। पढाई में ध्यान देना छोड चुकी फारिया को भी गुमसुम रहने का रोग लग गया था। कॉलेज बंद थे। पबजी से मिले अकेलेपन, तनाव, भय, निराशा के अथाह सागर में ऐसी डूबी कि १ जुलाई को घर में रखी चूहे की दवा खाकर सदा-सदा के लिए मौत की नींद सो गई। लॉकडाउन में एकांत और अकेलापन तो हर किसी के हिस्से आया। सभी अपने घरों में कैद होने को विवश हो गये। कई अभिभावकों ने तो खुशी-खुशी अपने बच्चों के हाथ में मोबाइल पकडा दिये। मोबाइल गेम के शौकीनों में भरपूर इजाफा हो गया। पुरानों के साथ नये भी जुड गये। चंडीगढ की पबजी प्रेमी दो औलादों ने तो मां-बाप की खून-पसीने की कमायी ही लुटा कर उन्हें कंगाल बना दिया। खरड निवासी १७ वर्षीय किशोर ने पबजी गेम्स में बीमार पिता के इलाज और मुश्किल समय के लिए जोडकर रखे १६ लाख रुपये के वर्चुअल हथियार खरीदकर लुटा दिये। माता-पिता को इस बात की जानकारी तब मिली जब उन्हें पैसे कटने संबंधी एक मैसेज फोन पर मिला। उन्होंने तुरंत बैंक जाकर सारे रिकॉर्ड चेक किये तो उन्हें पता चला कि वे तो पूरी तरह से लुट चुके हैं। उन्हें अपने बेटे पर काफी भरोसा था। बेटे को अपने मां-बाप के बैंक खाते की पूरी जानकारी थी। मां-बाप के साथ दगाबाजी करने वाला पबजी का यह नशेडी ऑनलाइन पेमेंट ट्रांसफर करके पूरी जानकारी डिलीट कर देता था। किडनी तथा अन्य गंभीर बीमारियों से जूझ रहे पिता का खून तो बहुत खौला, लेकिन उन्होंने जैसे-तैसे खुद को संभाला। पत्नी ने भी समझाया कि रोने-गाने, मारने-पीटने से छिन चुके रुपये तो वापस आने से रहे। इसलिए खून का घूंट पी लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। इकलौते बेटे के प्रति लगाव और अथाह ममता के समक्ष पिता ने हथियार डाल तो दिये, लेकिन उन्होंने कसम खायी कि चाहे कुछ भी हो जाए वे अपने इस नालायक बेटे पर कभी भी यकीन नहीं करेंगे। उन्होंने विश्वासघाती बेटे को अपने परिचित की स्कूटर रिपेयर की दुकान पर नौकर की तरह काम करने के लिए छोड दिया है, ताकि उसे अपनी भूल का अहसास हो तथा यह भी पता चले कि एक-एक पैसा कमाने के लिए कितना खून-पसीना बहाना पडता है।
मोहाली के पंद्रह वर्षीय किशोर रतन ने भी यही राह पकडी और माता-पिता बेखबर रहे। करीब तीन माह पहले जब ऑनलाइन कक्षाएं शुरू हुई थी तभी यह लडका पबजी गेम के चंगुल में जा फंसा। घरवाले समझते रहे कि बेटा मोबाइल पर पढाई में तल्लीन है, लेकिन वह तो पबजी गेम का लती हो संयुक्त परिवार के बैंक में जमा रुपये लुटाते हुए हवा में उडता रहा। कुछ ही दिनों में जब उसने तीन लाख रुपये उडा दिये तो मां-बाप एकाएक जागे। ऐसा भी नहीं था कि उन्होंने उसे रोका-टोका और समझाया नहीं था। दरअसल, रोकने पर वह हिंसक हो जाता और बदतमीजी से पेश आने लगा था।
अनुभवों की आग में तपे बडे-बुजुर्ग कहते हैं कि बच्चे को उसकी मनचाही वस्तु या उपहार न दिया जाए तो वह कुछ समय तक रोयेगा मगर संस्कार न दिये जाएं तो वह जीवन भर रोयेगा। अमीरों का धन लूटकर गरीबों में बांटने वाले सुल्ताना डाकू को जब मौत की सज़ा सुना दी गयी तो उसने अपने मित्र से अनुरोध किया कि मैं चाहता हूं कि मेरे दुष्कर्मों और ख्याति, कुख्याति की छाया मेरे बेटे पर न पडे। मुझे तो बचपन में अच्छे संस्कार नहीं मिले। मैं डकैत और हत्यारा बन गया, लेकिन मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा अपराधी बने। यह तभी संभव है, जब उसे अच्छा वातावरण और सुसंस्कृत लोगों का साथ मिले। इसलिए मेरी अब बस एक ही चाहत है कि उसे उच्च शिक्षा दिलवायी जाए। सुल्ताना की इच्छा का सम्मान करते हुए मित्र ने उसके सात साल के बेटे को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड भेज दिया। ऊंची शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने के बाद वो भारत आया और आईसीएस की परीक्षा पास करने के बाद पुलिस विभाग का एक उच्च अधिकारी बना तथा काफी नाम कमाया। तय है कि यदि पिता के प्रभाव की छत्रछाया में रहता तो डाकू, लुटेरा और हत्यारा ही बनता और फिर अंतत: फांसी के फंदे पर लटका दिया जाता।

Thursday, July 9, 2020

सुनो सरकार!

इसी को तो कहते हैं नाटक, नौटंकी करना, करवाना, बात का बतंगड बनाना, और असली मुद्दों, सवालों और समस्याओं से मुंह चुराना...। २३ साल से एक बडे सरकारी बंगले में नाम मात्र का किराया देकर रहती चली आ रहीं सोनिया, राजीव गांधी की सुपुत्री, राबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गांधी को बंगला खाली करने का आदेश क्या मिला... कांग्रेस के छोटे-बडे नेता, पदाधिकारी आग बबूला हो गये। लगभग सारे के सारों ने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोसना शुरू कर दिया। कोरोना काल में रैलियां, रोड शो और धरने प्रदर्शन तो कर नहीं सकते थे इसलिए न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम आदि के माध्यम से गांधी खानदान के प्रति वफादारी दिखाते हुए बंगले को 'राष्ट्रीय समस्या' बना दिया गया। कांग्रेस की जोशीली हुल्लड ब्रिगेड ने यूपी में जगह-जगह पोस्टर लगाकर कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका के पक्ष में एक से एक तर्क-कुतर्क पेश कर धमकियां-चमकियां उछालते हुए कहा कि प्रियंका में इंदिरा का खून है। डरकर नहीं डटकर मुकाबला करेंगे। ऐसा लगा जैसे प्रियंका की खानदानी जायदाद छीनी जा रही हो। ऐसे में जवाबी हथियार चलाते हुए भाजपा के मरने-मारने पर उतारु रहने वाले जवानों ने भी यूपीए के कार्यकाल में सासू मां के आशीर्वाद से रातों-रात कंगाल से खरबपति बने प्रियंका के पतिदेव रॉबर्ट वाड्रा के कुख्यात बिल्डरों के साथ मिलकर किये गये जमीन घोटालों तथा किसानों की जमीनों को कौडी के मौल हथियाने के काले चिट्ठे खोलने वाले पोस्टरों की झडी लगा दी।
दरअसल, भारत की राजनीति आरोप, प्रत्यारोप, पटका, पटकी और खुद को सही बताने, दिखाने की जिस बीमारी का शिकार है उसका इलाज पाखंडी राजनेताओं के रहते कतई संभव नहीं, जिन्हें हमने अक्सर यही कहते पाया है कि हम राजनीति से ज्यादा समाजसेवा के अभिलाषी हैं। हम तो महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर चलते हुए समाज सुधार के रास्ते पर चलने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जिस तरह से बापू ने नशे, छुआछूत, साम्प्रदायिकता जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लडाई लडी, उसी तरह से देश को बदलने का हमारा भी अटूट इरादा है।
महाराष्ट्र की पिछली सरकार ने विदर्भ के चंद्रपुर जिले में पूरी तरह से शराब बंदी लागू की थी। दरअसल, यह मुश्किल काम उन महिलाओं की जंग की बदौलत संभव हो पाया, था जिन्होंने वर्षों तक शराब के खिलाफ जंग ल‹डी थी। २०१४ के विधानसभा चुनाव में हजारों महिलाओं ने उसी उम्मीदवार को वोट देने की कसम खायी थी, जो चंद्रपुर जिले में जगह-जगह आबाद शराब दुकानों और बीयर बारों को हमेशा-हमेशा के लिए बंद करवा दे। भाजपा नेता सुधीर मुनगंटीवार ने महिलाओं को विश्वास दिलाया तो महिलाओं ने भी उनका पूरा साथ दिया। महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना गठबंधन की सरकार बनने के बाद एक अप्रैल २०१५ से पूरे जिले में देशी-विदेशी शराब बिकना बंद हो गई। बीयरबारों पर भी ताले लग गये। महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार शराब के खिलाफ जंग ल‹डने वाली महिलाओं के मुंह पर तमाचा मारते हुए चंद्रपुर जिले में फिर से मयखाने आबाद करने की तैयारी कर चुकी है। शराब के पक्ष में जनमत संग्रह भी करवा लिया गया है। ध्यान रहे कि चंद्रपुर के सांसद सुरेश धानोरकर शराब के बहुत बडे कारोबारी हैं। उनकी पत्नी भी जिले के शहर वरोरा की विधायक हैं। महाराष्ट्र में अधिकांश देशी शराब के कारखानों के मालिक राकां और कांग्रेस पार्टी के बडे-बडे नेता हैं। यह महान लोग शुरू से ही शराब बंदी के विरोधी रहे हैं। जिले में शराबबंदी हटाने के कई कारणों में यह भी कहा जा रहा है कि शराब बंदी होने के बाद अवैध शराब तस्करों ने पियक्कडों को शराब की कमी नहीं होने दी, जिससे सरकार को ही चूना लगा। उसे जो राजस्व मिलना था, वो नहीं मिला। यह सच भी किसी से छिपा नहीं है कि अवैध शराब माफियाओं को जबरदस्त राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा है। पुलिस के वरदहस्त के बिना एक बोतल की भी तस्करी संभव नहीं। तस्करों के जितने भी गॉडफादर हैं उन्हें लोग अच्छे से जानते-पहचानते हैं।
अपनी तिजोरी भरने को आतुर नेताओं तथा सरकार को कौन याद दिलाये कि चंद्रपुर जिले में शराब बंदी उन अनेक महिलाओं की पुरजोर मांग पर लागू की गई, जिनके शराबी पतियों ने उनका जीना हराम कर रखा था। न जाने कितने परिवार तबाह हो चुके थे और हो रहे थे। बच्चों की पढाई छूट गई थी। घरों में चूल्हा कभी जलता था, कभी नहीं, लेकिन पति, पिता, भाई, भतीजे, भांजे आदि को तो नशे की गुलामी की गंदी लत लग चुकी थी। नशे में धुत शराबी अपनी मांओं, बहनों, पत्नियों को मारते-पीटते और लहुलूहान करने से नहीं चूकते थे। मासूम बच्चे भी उनके आतंक, जुल्म से नहीं बच पाते थे। शराब बंदी के बाद अनेक पुरूषों में काफी बदलाव आने लगा। वे अपनी मेहनत की कमायी पत्नी, मां, बहन के हाथ में थमाकर घर के सच्चे, अच्छे मुखिया बनने की राह पकड चुके हैं। उन्हें घर-परिवार की अहमियत समझ में आने लगी है। बच्चों के चेहरों की खोयी चमक भी लौट आयी है। उन्हें अच्छे कपडे, जूते, किताबें-कापियां मिलने लगी हैं। पिता के प्यार दुलार, मिठाई और चाकलेट का मज़ा लेने के सुहाने दिनों ने दस्तक दे दी है, लेकिन धन के भूखे जनप्रतिनिधि, सरकार शराब की दुकानों के ताले खुलवाकर कलह-क्लेश, भुखमरी, तबाही, अपराध, मार-काट और बरबादी के रास्ते फिर से खोलने जा रही है। शराबी तो नशे के गुलाम होते हैं, लेकिन मंत्री, सांसदों, विधायकों और सरकारों का यह अंधापन? इस सरकार के मंत्री, नेता जिस तरह से देसी-विदेशी शराब की दुकानों, बीयरबारों को फिर से शुरू करवाने के लिए जल्दबाजी में हैं, उससे तो यही लगता है कि शराबबंदी पियक्कडों से ज्यादा  उनके लिए कष्टदायी है। और हां, नक्सलग्रस्त जिला गडचिरोली तथा बापू की कर्मभूमि वर्धा, जहां पर कई वर्षों से शराब बंदी है वहां पर भी मंत्री और नेताबंधु जनमत संग्रह करवायें। यकीनन ७० प्रतिशत से अधिक जनता शराब की दुकानें और बीयर बारों को शुरू करने की मांग का झंडा उठाये दिखेगी...। तो फिर देरी किस बात की। बहा दो शराब की नदियां और जी भर कर अपना खजाना भर लो सरकार...।

Thursday, July 2, 2020

अपनी-अपनी भूख

राजधानी दिल्ली के एक छोर पर घनी आबादी से मीलों दूर स्थित 'जलतरंग फार्महाऊस' में दोनों पुराने मित्र रसरंजन में लीन थे। दोनों ने वर्षों की मेहनत से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो जगह बनायी है, उससे ईर्ष्या  करने वाले ढेरों हैं। रविन्द्र और जलतरंग नाम है उनका। जलतरंग ने कुछ साल पूर्व पांच करोड में फार्महाऊस खरीदा था। जलतरंग और रविन्द्र का जाम से जाम टकराने के लिए फार्महाऊस में आना-जाना लगा रहता है। रविन्द्र ने भी गुरुग्राम के निकट कई एकड में फैले फार्महाऊस को खरीदने का सौदा कर लिया है। दोनों अलग-अलग नामी-गिरामी न्यूज चैनल के प्रतिष्ठित एंकर हैं, उन्हें एक-दूसरे का कट्टर विरोधी माना जाता है। एक मोदी भक्त है तो दूसरा राहुल और सोनिया का। उनके प्रशंसक सोच भी नहीं सकते कि यह दोनों हस्तियां कभी एक साथ बैठती-खाती-पीती तथा हर तरह की मस्ती में तैरती-डूबती होंगी। दोनों ने जब दो-दो पैग हलक में उतार लिये तब उनकी बातचीत प्रारंभ हुई। हमेशा की तरह शुरुआत की जलतरंग ने, "मित्र, अब तो महंगी से महंगी स्कॉच का भी असर नहीं होता। वो भी क्या दिन थे, जब मुफ्त की मिलती थी और हम नशे में टुन्न होकर सारी दीन-दुनिया को भूल जाते थे। देश की सत्ता बदलने के बाद सब गुड गोबर हो गया है। एक हमारे वो प्रधानमंत्री थे, जो हर विदेश यात्रा में हम जैसे धाकड एंकरों, संपादकों को बडे आदर- सम्मान के साथ अपने साथ ले जाते थे। हवाई जहाज में हंसते मुस्कराते हुए खुलकर बातें होती थीं। मनमोहक प्रधानमंत्री भले ही बोलते कम थे, लेकिन अहंकार से कोसों दूर थे। उनके साथ की गई विदेश यात्राओं को मीडिया वाले आज भी याद कर गदगद हो जाते हैं। यात्रा के दौरान शराब-कबाब का तो भरपूर आनंद मिलता ही था। लौटते समय भी शराब की बोतलों और महंगे तोहफों से लाद दिया जाता था। एक यह पीएम हैं, जिन्होंने विदेश यात्राओं का रिकॉर्ड ही तोड दिया है, लेकिन जाते अकेले हैं। इन्हें तो मीडिया से ही चिढ है। यह महापुरूष तो धांसू पत्रकारों से मिलना तथा प्रेस कॉफ्रेंस करना तक अपना अपमान समझते हैं। ऐसे अकडबाज सूखे किस्म के शासक की लोकप्रियता का राज़ अपनी तो समझ में नहीं आता...?"
"मित्र तुम अपने दर्द का इलाज क्यों नहीं करते? पिछली बार भी कुछ ऐसी ही बातों में अपना कीमती वक्त बिता दिया था हमने। क्यों न कोई नयी चर्चा छेडी जाए...?"
"जिस पर बीतती है वही अपने 'कष्ट' को समझता है। मेरी समझ में नहीं आता कि देश के पीएम के खिलाफ कुछ भी कहने, बोलने से तुम और तुम्हारे जैसे तमाम अंध भक्त आग बबूला क्यों हो जाते हो! सोशल मीडिया में जहां-तहां फैली उनकी भक्त मंडली गाली-गलौच और धमकियां देने पर उतर आती है। मेरा तो खून ही खौल उठता है। इच्छा होती है एक-एक की गर्दन दबोचूं और कुत्ते की मौत मार डालूं।'
"देखो मित्र, बुरी तरह से आहत करने वाली प्रतिक्रियाओं के लिए आप भी कम दोषी नहीं। जब देखो तब सरकार और असरदार के पीछे पडे रहते हो। आपने कुछ दिन पहले सोशल मीडिया में यह शिकायत दर्ज करायी थी कि यह अलबेला प्रधानमंत्री मेरे जैसे तीखे सवाल करने वाले एंकर से खौफ खाता है और अक्षय कुमार जैसे फिल्मी 'जोकरों' को साक्षात्कार देने के लिए खासतौर पर अपने निवास पर आमंत्रित करता है। आपके लिखने भर की देरी थी कि लाखों लोगों ने आपकी धज्जियां उडा कर रख दी थीं। किसी ने आपको पिछली सरकार का गुलाम तो किसी ने भ्रष्टाचारी, बिकाऊ तथा विदेशी शराब और महंगे तोहफों का लालची कहा था। कई ने तो जबरन भाव दिये जाने की चाह रखने वाले बददिमाग, सनकी, मनोरोगी एंकर की पदवी देते हुए थू...थू की थी! यार, अब तो कम-अज़-कम एकतरफा चलना और सोचना बंद करो। यह रट लगाना छोडो कि आपके विरोध में बोलने, लिखने वाले किसी के अंधभक्त हैं। सच तो यह है कि आम जनता को भी सच की समझ है। अगर ऐसा नहीं होता तो मेरी भी ऐसी-तैसी नहीं की जाती। आपको उनके और मुझे इनके चाटूकारों में नहीं गिना जाता। सच को स्वीकारो और मस्त रहो...बंधु। मुझे अब तुम्हारी हालत देखकर चिन्ता सताने लगी है। चौबीस घण्टे आज के राजा को कोसने और भूतपूर्व महाराजा और महारानी की यशगाथा का बखान कर खिल्ली उडवाते और गालियां खाते रहते हो। पहले की तरह न तो चुटकुले सुनाते हो और न ही हंसते-हंसाते हो। बडे डरे-डरे मानसिक रोगी से लगते हो...। देश में और भी कई मीडिया दिग्गज हैं, न्यूज चैनलों के एंकर हैं, उनपर तो कभी चीखने-चिल्लाने का भूत सवार नहीं रहता। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ बडी सहजता से अपनी ड्यूटी निभाते हैं। ऑफिस की समस्याएं घर और दोस्तों के बीच नहीं लाते। उन्हें तो धमकियां और गालियां नहीं मिलतीं?
अब जलतरंग की बारी थी, "अब मेरी बात भी ध्यान से सुनो : मेरे लिए पत्रकारिता कोई नौकरी नहीं, जो ऑफिस से निकलते ही अपने मिशन और धर्म को भुला दूं। जिन बडी-बडी बातें करने वाले मक्कारों से देश नहीं संभल रहा, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और किस्म-किस्म के अपराधों पर काबू पाने का दम नहीं उन्हें सत्ता से बाहर करके ही मैं चैन की नींद सो पाऊंगा। तुम्हें इनकी आरती गानी है, तो गाते रहो। मुझे तो देशवासियों को जगाकर क्रांति लानी ही लानी हैं।" यह कहते ही छह-सात पैग चढा चुका जलतरंग ऐसा लुढका कि उसका प्रिय मित्र नशे में धुत 'क्रांतिदूत' को होश में लाने की विभिन्न कोशियों में लग चुका था..., लेकिन होश तो वापस लौटने को राजी ही नहीं थे।
इस नशे ने पता नहीं कितने शरीफों की शराफत छीन ली है। दो दिन पहले एक लडकी को सोशल मीडिया पर भद्दे, भ्रामक और भडकाऊ वीडियो तथा पोस्ट डालने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। उसने पहले तो प्रधानमंत्री के प्रति बेहूदा बातें कहीं और खूब चर्चित हुई। कई दिनों तक उसका यह तमाशा सोशल मीडिया पर छाया रहा। फिर अचानक उसने राहुल और प्रियंका गांधी को अपमानित करने वाली शब्दावली भरे वीडियो सोशल मीडिया पर फैलाकर अपने छिछोरेपन का जो सबूत पेश किया, उससे कई लोग भडक उठे। पुलिस में शिकायत की गयी। पुलिसिया पूछताछ में उसने बताया कि ऐसी हरकतें करने में उसे ब‹डा मज़ा आता है। हजारों लोगों के जो 'लाइक्स' और शानदार प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, उनसे उसे लगता है कि वह भी किसी बडी हस्ती से कम नहीं...। पहले मोदी पर अच्छे लाइक्स मिले, जब उनमें कमी आयी तो वह राहुल, प्रियंका पर पिल पडी। विख्यात शायर निदा फ़ाज़ली ने यूं ही तो नहीं कहा, "हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जब भी किसी को देखना-कई बार देखना।"