Thursday, February 25, 2016

आपसी सदभाव के निर्मम हत्यारे

'पापा, हमारे इंस्टीट्यूट के चारों ओर फैक्ट्रियों में आग लगी हुई है। बाहर से अंधाधुंध गोलियां चलने की आवाजें सुनायी दे रही हैं। हमें डर लग रहा है। कहीं भीड के हाथों मारे न जाएं। हम यहां कतई सुरक्षित नहीं हैं। प्लीज, कुछ करो पापा।' यह पीडा, यह पुकार और यह फरियाद एक बेटी की है जिसे जाट आरक्षण आंदोलन की हिंसक उग्रता ने इतना खौफजदा कर दिया कि वह अपने इंस्टीट्यूट के कमरे में होने के बावजूद थर-थर कांप रही थी और अपने पिता को वहां से बाहर निकालकर ले जाने के लिए फोन पर फोन किये जा रही थी। आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन होना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन ऐसा आंदोलन, ऐसी बर्बरता और ऐसे हिंसक नजारे पहले कभी नहीं देखे गये। आंदोलनकारियों ने शहरों, ग्रामों और यहां तक गली मोहल्लो को भी बंधक बना लिया। लोगों को दहशत में जीने को विवश कर दिया गया। रेलवे और बसों को बडी बेदर्दी के साथ निशाना बनाया गया। रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर आंदोलनकारियों ने बेखौफ होकर आगजनी कर यह दर्शा दिया कि उन्हें राष्ट्रीय सम्पत्ति से कोई मोह नहीं है। अपनी मांग मनवाने के लिए हरियाणा से दिल्ली में होने वाली पानी की सप्लाई रोक कर निर्दयी और स्वार्थी होने की भयावह तस्वीर भी पेश कर दी। यह भी नहीं सोचा कि जल ही जीवन है। इसकी कमी कई संकट पैदा कर सकती है। अभी तक जाटों को रक्षक प्रवृति का माना जाता था, लेकिन उनके द्वारा किये गये निर्मम तांडव ने जैसे पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी। आरक्षण आंदोलन में बेकाबू भीड ने जिस तरह से उत्पात मचाया, तोडफोड, फायरिंग करते हुए यातायात ठप्प करके रख दिया, उससे निश्चय ही जाटों की छवि बेहद धूमिल हुई है।
हरियाणा के कई शहरों में हुई तोडफोड, हिंसा, लूटमार और आगजनी की घटनाओं के बाद यह भी कहा और सुना गया कि आरक्षण आंदोलन जाट नेताओं के हाथ से निकल कर शरारती और असामाजिक तत्वों के हाथों की कठपुतली बन गया। यही वजह थी कि सरकार और प्रशासन की तमाम कोशिशों पर पानी फिर गया। पुलिस, अर्धसैनिक बल और सेना भी बेकाबू भीड के समक्ष घुटने टेकती नजर आयी। हरियाणा की राजनीति की नस-नस से वाकिफ होने का दावा करने वालों का यह निष्कर्ष भी सामने आया कि यदि प्रदेश की सत्ता की कमान किसी जाट नेता के हाथों में होती तो यह आंदोलन इतना हिंसक नहीं होने पाता। हरियाणा में अधिकांश जाट नहीं चाहते कि कोई गैर-जाट प्रदेश की सत्ता पर काबिज रहे। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इकलौती पसंद हों, लेकिन उनके लिए जाट नेताओं की पसंद बन पाना आसान नहीं है। सत्तालोलुप जाट नेताओं को यह तकलीफ और चिंता दिन-रात सताती रहती है कि हरियाणा में एक गैर जाट को मुख्यमंत्री बनाकर उनके अरमानों पर पानी फेरा गया है। आरक्षण आंदोलन की आग में तेल छिडक कर तमाशा देखने की परिपाटी भी कुछ कांग्रेस नेताओं ने खूब निभायी। चुनावी जंग में हुई हार की पीडा से वे अभी तक मुक्त नहीं हो पाये हैं। इसलिए पर्दे के पीछे छिपकर असंतोष और असहमति के बम-बारुद को माचिस की काडी दिखाने के काम में लगे रहते हैं। सोचिए, सत्ता की भूख नेताओं को कितना नीचे गिरा देती है। देश और प्रदेश के जलने से उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। लोगों को होने वाली तकलीफें उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। निजी और सरकारी संपत्ति की बरबादी भी उनकी चिन्ता का सबब नहीं बनती। हरियाणा में आंदोलन की आड में हुए उपद्रव के कारण एक हजार रेलगाडियां प्रभावित हुर्इं। सात सौ से ज्यादा को रद्द करने को विवश होना पडा। लगभग ३४ हजार करोड रुपये जिद, ईर्ष्या, नफरत और बेलगाम गुस्से की अग्नि में स्वाहा हो गये। कल तक जो राजा थे, आज रंक हो गये। किसी का पेट्रोल पम्प, तो किसी की दुकानें, घर, मॉल, सिनेमाघर, कमायी और रोजगार के साधन आरक्षण की आग की भेंट चढा दिये गये। सैकडो लोगों की पीढ़ियों की कमायी और जमा-जमाया कारोबार उन्हीं की आंखों के सामने तबाह कर दिया गया। क्या उन्हें कभी सुकून की नींद आ पायेगी। जिन्हें कल तक वे अपना समझते थे, उनकी निर्दयता और दरिंदगी को वे कभी भूल पायेंगे? उन्होंने तो तिनका-तिनका कर घर और व्यवसाय खडे किये थे और अपने घर-परिवार और बच्चों के सुनहरे भविष्य के कितने-कितने सपने देखे थे...। उपद्रवी भीड ने पलभर में उन्हें ऐसे बरबाद कर डाला कि अब उन्हें संभलने में ही वर्षों लग जाएंगे। यानी उन्हें अपने जीवन की नये सिरे से शुरुआत करनी होगी। एक भयावह सच यह भी है कि व्यापार, घर, दुकानें और अन्य तबाह हुए सामान तो जैसे-तैसे फिर से बन जाएंगे, लेकिन उस आपसी भाईचारे का क्या होगा जिसका गला घोंटने में कोई आगा-पीछा नहीं सोचा गया। बेकाबू भीड के हाथों में डंडे, तलवारें और बंदूकें थीं। आंदोलित जाट जहां दुकानें और बाजार बंद करवा रहे थे वहीं गैर जाट उनका विरोध कर रहे थे। खाकी वर्दी भी उनके समक्ष लगभग बेबस थी। आम लोग तो वैसे भी भीड के गुस्से के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो जाते हैं। जाटों ने इसका भरपूर फायदा उठाया। उग्र प्रदर्शनकारियों ने तो मंत्रियों और विधायकों को भी नहीं बख्शा। यह स्वर भी गूंज रहे थे कि ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। विरोधियों को निपटाने के लिए आरक्षण आंदोलन को सुअवसर मानने वालों ने अपनी मनमानी करने में कोई कसर नहीं छोडी। प्रदेश के वित्तमंत्री कैप्टन अभिमन्यु के आवास पर जमकर तोडफोड की गयी। कई गाडियों को क्षतिग्रस्त करने के साथ-साथ उनकी कोठी को भी फूंकने की कोशिश की गयी। ऐसे सैकडों उदाहरण हैं। हमारे यहां के नेता भी वक्त की नजाकत को समझने की कोशिश नहीं करते। जाट आरक्षण की आग की लपटों के धधकने के दौरान ही सत्ता पक्ष के एक सांसद ने जाटों के मुकाबले पिछडों को सडक पर उतारने की फुलझडी छोडकर आग में घी डालने की पूरी कोशिश की। अमन-चैन कायम करने की कोशिश की बजाय जिम्मेदार चेहरे ही यदि ऊल-जलूल बयानबाजी करने लगें तो यकीनन वही होना तय हो, जो अभी देश में हो रहा है और होता आया है।

Thursday, February 18, 2016

राष्ट्र है... तो हम सब हैं

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय के प्रांगण में एक आयोजन के दौरान जिस तरह से राष्ट्र विरोधी नारों की गूंज सुनायी दी उससे देशवासियों को बहुत बडा धक्का लगा। सजग भारतवासी सोचने को मजबूर हो गये कि महात्मा गांधी और भगत सिंग के देश में यह क्या हो रहा है! मतभेद और असहमति तो मानव प्रवृत्ति है, लेकिन भारतमाता को शूल चुभोने की हिमाकत ने चौंकाया भी और जगाया भी। 'आस्तीन में पल रहे सांपों' से सतर्क होना जरूरी है। इतनी शर्मनाक घटना को नजरअंदाज करना बहुत महंगा पड सकता है। हर सजग नागरिक को जागरूक हो जाना चाहिए। भारतमाता की आबो-हवा में सांस लेने वाले कुछ लोगों के खतरनाक इरादे शंकाग्रस्त होने को विवश कर रहे हैं। ऐसा भी लगता है कि वे किसी गलतफहमी के शिकार हैं। उन्होंने कहीं न कहीं यह भ्रम पाल रखा है कि उनके तथाकथित विद्रोह का साथ देने के लिए हिन्दुस्तान के करोडों लोग उनके साथ आ खडे होंगे। पर उन्हें यह कौन बताये कि इस देश के लोग भारतमाता के टुकडे होने की कल्पना को ही बर्दाश्त नहीं कर सकते। हर सजग भारतवासी आजादी की कीमत जानता और समझता है। उन्हें पता है कि कितनी कुर्बानियों के बाद हमने इसे पाया है। भारतमाता को आहत करने का काम गैर करते तो बात कुछ समझ में भी आती। यहां तो अपने ही उसको लहूलुहान करने की प्रतिस्पर्धा में लीन हैं। इससे किसे इन्कार है कि हिन्दुस्तान के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की पूरी की पूरी आजादी है, लेकिन यही आजादी जब राष्ट्र की ही बर्बादी की कामना करने लगे तो पीडा तो होगी ही। कुछ लोग भले ही खुश हो लें, तालियां पीट लें, लेकिन जागरूक भारतवासियों का तो खून खौलेगा ही। इस बात में अब कोई खास दम नहीं दिखता कि जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय लोकतंत्र, वैचारिक असहमति और सामाजिक विषयों पर बहस और शिक्षा का अति बेहतर स्थल है। कभी रहे होंगे यहां के प्रेरक हालात, होती रही होंगी सार्थक चर्चाएं और बहसबाजियां, लेकिन अब तो यह ऐसे उन्मादियों के वर्चस्व का ठिकाना नजर आता हैं जिन्हें न तो देश के लोकतंत्र पर यकीन है, न शासन और प्रशासन पर। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा और नरेंद्र मोदी से बौखलाये प्रतीत होते हैं। अगर उन्हें इनसे इतनी ही नाराज़गी है तो उसे शालीन तरीके से अभिव्यक्त कर सकते थे। किसने रोका था उन्हें? अफजल गुरू को दी गयी फांसी को लेकर पहले भी कुछ लोग आपत्ति दर्ज कराते रहे हैं। यहां तक कि मानवाधिकार संगठनों ने भी विरोध जताया था, लेकिन संसद के हमले के षडयंत्रकारी को शहीद का दर्जा देकर उसका महिमामंडन करना उन शहीदों का अपमान करना है जिन्होंने संसद भवन की रक्षा और सुरक्षा के लिए अपनी जान की कुर्बानी दे दी। 'भारत तेरे टुकडे होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह और तुम कितने अफजल मारोगे, घर-घर से अफजल निकलेगा के नारों के तो यही मायने हैं कि इन लोगों का आतंकवादियों से लगाव है। देशवासियों के लहुलूहान होने और बेमौत मारे जाने की इन्हे चिन्ता नहीं सताती। नक्सलियों के हाथों जब जवान शहीद होते हैं तो यह लोग खुशियां मनाते हैं। नक्सलियों की मौत पर यह मातम मनाते हैं। देशवासियों के रक्त को खौलाकर रख देने वाले इन नारेबाजों का कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया। उन्हें अपनी बात कहने की पूरी आजादी है। उनका यह हक कोई नहीं छीन सकता। यह तो 'चोरी ऊपर से सीनाजोरी' वाली बात है। इनके नारे लगाने के अंदाज से पता चल जाता है कि यह देशवासियों को ललकार रहे हैं। उन्हें चुनौती दे रहे हैं। भारतमाता का अपमान करते हुए आतंकवादियों का मनोबल बढा रहे हैं। अफसोस तो यह भी है कि इनके साथ कुछ सांसद, विधायक और मंत्री भी खडे नजर आते हैं। क्या इन्हें भारतमाता के टुकडे-टुकडे कर देने की भडकाऊ नारेबाजी की भाषा और उसके मायने समझ में नहीं आते? दरअसल यह भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं। इन्हे देश के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं हैं। यह तो बस अपना वर्तमान सुधारने के चक्कर में देश को तबाही और बर्बादी के गर्त में ढकेल देना चाहते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में ही प्रेस क्लब में अफजल गुरू और मकबूल बट के पक्ष में नारे लगाये गये और भारतमाता के खिलाफ जहर उगला गया। अफजल की तरह ही मकबूल बट भी हिन्दुस्तान का कट्टर दुश्मन था। इस आतंकी को १९८४ में फांसी दी गयी थी। देश के दुश्मनों के प्रति श्रद्धा दिखाकर राष्ट्र विरोधी नारेबाजी करने और लोगों की भावनाएं भडकाने को आतुर यह विषैले चेहरे विदेशी धन और ताकत की बदौलत कूदते-फांदते हुए अशांति और अस्थिरता लाना चाहते हैं। प्रेस क्लब में आतंकियों की याद में आयोजित कार्यक्रम में मंच पर बैठे वक्ताओं के पीछे की दीवार पर अपने आदर्श अफजल गुरू और मकबूल बट का विशाल फोटो लगाने वालों ने भी कश्मीर की आजादी और पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाकर देशवासियो को भावी खतरे से अवगत करा दिया। इन खतरनाक लोगों को भारत की न्याय व्यवस्था पर कोई भरोसा नहीं है। इनका मानना है कि अफजल गुरू और मकबूल बट के साथ बेइंसाफी की गयी। इन दोनों आतंकियों को न्यायिक अत्याचार का शिकार बनाकर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। इनकी सोच वाकई हैरत में डालने वाली है। हमें तो ऐसा भी लगता है कि यदि भविष्य में दरिंदा हत्यारा दाऊद इब्राहिम पकड में आता है और फांसी पर लटका दिया जाता है तो इस तरह के कई लोग उसके भी पक्ष में खडे नजर आ सकते हैं। मुंबई हमले के सरगना याकूब मेनन की फांसी पर भी ऐसे लोगों ने कम आंसू नहीं बहाये थे। उसे बेकसूर बताकर भारतीय न्याय व्यवस्था को कठघरे में खडा कर दिया था। यह लोग आम भारतीय की सोच और समझ से अंजान हैं या फिर जानबूझकर हकीकत से मुंह चुराये हुए हैं।  अभिव्यक्ति की आजादी सभी का मूलभूत अधिकार हैं, लेकिन राष्ट्रद्रोहियों का यशोगान और राष्ट्र का अपमान किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इनकी देखा-देखी देश में और भी कुछ विश्व विद्यालयों के छात्रों का आतंकवादियों की तरफ बढता झुकाव और सहानुभूति चिन्ता का विषय है। इन हालातों ने देश के हर सजग नागरिक को चिन्ता में डाल दिया है। देशभक्त लेखक और कवि कितने चिन्तित हैं उसकी गवाह हैं नागपुर के जागरूक कवि अविनाश बागडे की कविता की यह पंक्तियां...'
'अपने पैरों पर कुल्हाडी-सा बयान मत देना
किसी के हाथ में जाकर ये हिन्दुस्तान मत देना
'तुमङ्क तुम हो जब तक देश है जिन्दा
सियासत में गवां अपना कभी ईमान मत देना।'

Thursday, February 11, 2016

इस गुस्से के क्या मायने हैं?

भारतवर्ष के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का काफिला देश की राजधानी दिल्ली के विजय चौक से साउथ ब्लाक की तरफ बढ रहा था, तभी एक महिला उसी रास्ते पर आकर शोर मचाने लगी। वह बेहद गुस्से में थी। उसका कोई जरूरी काम अटका था। कोई उसकी सुन नहीं रहा था। वह प्रधानमंत्री तक अपनी समस्या की जानकारी पहुंचाकर तुरंत समाधान चाहती थी। बीच सडक में रास्ता रोक कर खडी महिला को पुलिस वालों ने समझाया कि अपने किसी व्यक्तिगत संकट से मुक्ति पाने का यह कोई उचित तरीका नहीं है। वह बेसब्र महिला कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। उसकी बस यही जिद थी कि उसे तो प्रधानमंत्री तक अपनी आवाज पहुंचानी है। उसके चिल्लाने का अंदाज तेज और तीखा होता चला जा रहा था। शब्दों में शालीनता का नितांत अभाव था। आखिरकार पुलिस ने उसे वहां से जबरन हटाने की कोशिश की तो उसने अपना रहा-सहा संयम भी खोते हुए सडक किनारे रखा भारी-भरकम गमला उठाया और काफिले के रास्ते पर पटक दिया। गमला तो चकनाचूर हो गया पर उसका गुस्सा यथावत बना रहा। गमले की मिट्टी सडक पर फैल गयी। ऊट-पटांग बकती महिला को आखिरकार पुलिस ने अपने कब्जे में लेकर थाने पहुंचा दिया।
होशियारपुर में एक बारह वर्षीय बच्चे ने खून से अपने हाथ रंग लिये। वह अपने ही मोहल्ले के दस वर्षीय साथी के साथ खेल रहा था। रात के लगभग आठ बजे का समय था। खेलते-खेलते उसने उससे पचास रुपये की मांग कर डाली। छोटे बच्चे के पास इतने रुपये कहां थे जो वह उसे दे देता। उसने अपनी असमर्थता जतायी तो वह गुस्से से आग-बबूला हो उठा। वह शायद न सुनने का आदी नहीं था। उसने र्इंट उठायी और उसके सिर पर दे मारी। लहुलूहान बच्चे को अस्पताल पहुंचाया गया। डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। देखते ही देखते बारह साल के बच्चे के हाथों अपने दस वर्ष के दोस्त की निर्मम हत्या हो गयी।
देश के हाईटेक और अत्याधुनिक शहर बेंगलुरु में देश और विदेशों के हजारों युवक-युवतियां पढने और अपना भविष्य संवारने के लिए आते हैं। इस महानगर के लोग अमन और चैन के साथ जीने के लिए जाने जाते रहे हैं। यहां की आबो-हवा सर्वधर्म समभाव के संदेश देती है। इस महानगरी में दूसरे देशों के साथ-साथ अफ्रीकी देशों के भी हजारों छात्र-छात्राएं अध्यन्नरत हैं, लेकिन रविवार के दिन यहां ऐसी शर्मनाक घटना को सरेआम अंजाम दिया गया जिससे बेंगलुरु के प्रति सभी धारणाएं जैसे धराशायी हो गयीं। अफ्रीकी देश तंजानिया के दार-ए-सलाम के एक श्रमिक परिवार की बेटी चार साल पहले पढाई करने के लिए बेंगलुरु आई थी। अफ्रीकन होने के बावजूद उसके मन में भारत के प्रति अपार स्नेह और अपनत्व था। यहां की महान संस्कृति और सभ्यता की तारीफ करने का वह कोई मौका नहीं छोडती थी, लेकिन उसके साथ पेश आयी एक भयावह वारदात ने उसको अपनी सोच बदलने को मजबूर कर दिया है। रात के साढे सात बजे थे। वह अफ्रीकी छात्रा और उसके तीन दोस्त कार पर सवार होकर घर से बाहर निकले। अभी उन्होंने कुछ फासला तय किया ही था कि उन्हें सडक पर लोगों की भीड दिखायी दी। भीड एक अफ्रीकी छात्र की अंधाधुंध पिटायी कर उसे खत्म कर देने पर उतारू थी। उन्होंने वस्तुस्थिति जानने के लिए अपनी कार की रफ्तार धीमी की तो भीड में से कुछ लोगों की निगाह उनकी कार पर पडी। कार में अफ्रीकी युवकों और युवती को देखते ही वे उनकी ओर दौड पडे। लोगों से बचने के लिए उन्होंने फौरन वहां से कार भगायी, लेकिन भीड के आगे उनकी कुछ भी नहीं चल पायी। युवती और उसके तीनों दोस्त कार से बाहर निकले। दो तो पलक छपकते ही वहां से भाग खडे हुए। युवती और उसके दोस्त की लोगों ने निर्दयता के साथ पिटायी शुरू कर दी। कार भी धू-धू कर जलने लगी। युवती ने समीप खडे वर्दीधारी से बचाने की फरियाद की, लेकिन वह मोबाइल पर बात करते हुए ऐसे आगे बढ गया जैसे उसने कुछ देखा ही न हो। पुलिस वाले के इस रवैये से लोगों को और खुलकर नंगई और गुंडागर्दी करने का मौका मिल गया। उन्होंने युवती के साथ धक्का-मुक्की करते हुए उसके कपडे तार-तार कर डाले। वह बेचारी अपने तन को हाथों से ढकने की असफल कोशिश में पानी-पानी होती रही। तभी उन्हें समीप खडी सिटी बस नजर आयी। वे भाग कर उसमें चढ गये। कुछ लोग बस में भी जा घुसे और उन पर घूसे और मुक्के बरसाने लगे। बस में बैठी किसी भी सवारी ने उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की। सभी तमाशबीन बने रहे। बस में सवार किसी महिला ने भी युवती के प्रति रहमदिली नहीं दिखायी। उन्होंने इस तरह से मौन साधे रखा जैसे वह युवती और उसका साथी इसी दरिंदगी के ही हकदार हों। इन बेकसूरों को भीड के द्वारा पीटे जाने की वजह भी बेहद स्तब्ध कर देने वाली है। युवती और उसके दोस्तों के वहां पहुंचने से कुछ देर पहले ही एक अफ्रीकी सुडानी युवक की कार ने एक भारतीय महिला को कुचल दिया था, जिससे उसकी मौत हो गयी थी। वह युवक नशे में था। भीड उसपर अपना गुस्सा उतार रही थी कि युवती और उसके दोस्त वहां पहुंच गए। अफ्रीकी होने के कारण भीड उन पर टूट पडी।
युवती तो उस रात को याद कर आज भी कांप उठती है। उसके भारत के प्रति असीम स्नेह, आकर्षण और विश्वास के तो जैसे परखच्चे ही उड गये हैं। उसके मन में पुलिस को लेकर भी कम मलाल नहीं है। दूसरे दिन जब वह रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए थाने पहुंची तो उसे आराम करने की सलाह दी गयी। आखिरकार उसने एक न्यूज चैनल के संवाददाता को आपबीती से अवगत कराया। फिर तो यह शर्मनाक मामला बहुत बडी खबर बनकर देश और दुनिया की नजरों में आ गया। अस्पताल में भी उनके इलाज में जो आनाकानी की गयी वो भी बेहद शर्मनाक है। इस शैतानी अमानवीयता ने मुझे नागालैंड की उस हिंसक बर्बरता की याद दिला दी जिसमें दीमापुर में गुस्साई आततायी भीड द्वारा एक मुस्लिम कैदी को जेल से निकाल कर दिनदहाडे मार डाला गया था। उसपर बलात्कार का आरोप होने के साथ उसके बांग्लादेशी होने की शंका थी। खून की प्यासी भीड ने उसे नग्न कर बेरहमी से पीटा था और उसके रक्तरंजित शरीर को मोटर सायकल से बांधकर मीलों घसीटते हुए तमाशा बनाया था। यह हद दर्जे की बर्बरता थी। यहां भी पुलिस वैसे ही मूकदर्शक बनी रही थी जैसे इस मामले में। बिना सोचे-समझे जब-तब उग्र हो जाने वाले भारतीय क्या यह नहीं जानते की ३ करोड भारतीय अन्य देशों में रहते हैं। लाखों युवक-युवतियां दुनिया के विभिन्न देशों में अध्यन्नरत हैं। जब हमारे देश के किसी भी शख्स के साथ विदेशों में दुर्व्यवहार की खबर आती है तो हमारा खून खौल उठता है। ठीक वैसे ही विदेशी नागरिकों का जब भारत में अपमान होता है तो यही हाल उनके देशों के नागरिकों का भी होता है। वे भी अपने देश के युवाओं के साथ अभद्र व्यवहार और मारपीट किये जाने पर आगबबूला हो उठते हैं। वैसे भी बेवजह भीड को आक्रामक होने का कोई अधिकार नहीं है। इससे आखिरकार तो देश के नाम पर ही बट्टा लगता है।

Thursday, February 4, 2016

यह कैसी बेसब्री है?

सवा सौ करोड से अधिक की जनसंख्या वाले देश में कुछ लोग हर वक्त बेचैन रहते हैं। उनकी नजर दूसरों की थाली पर टिकी रहती है। जब उनके नापसंद लोगों को कोई उपलब्धि हासिल होती है तो उनकी नींद उड जाती है। पुरस्कार और सम्मान किसे अच्छे नहीं लगते। सरकारी पुरस्कारों और सुविधाओं की तो बात ही निराली है। अनेकों लोग इन्हें पाने की आस लगाये रहते हैं। इनमें लायक भी होते हैं और नालायक भी। लायक खामोशी के साथ अपने काम में लगे रहते हैं, नालायक नगाडे बजाते रहते हैं। इसलिए उनकी आवाज जहां-तहां गूंजती रहती है। इस विशालतम देश में पुरस्कार कम हैं, उम्मीदवार बहुत-बहुत ज्यादा। इसलिए जब भी पद्म एवं अन्य सरकारी पुरस्कारों की घोषणा होती है तो पाने वाले गदगद हो जाते हैं और जो वंचित रह जाते हैं वे सत्ता और व्यवस्था को कोसते हुए पुरस्कार पाने वालों के अतीत के पन्ने खोलने में लग जाते हैं। इस बार भी जैसे ही पद्म पुरस्कारों की घोषणा हुई तो कुछ साहित्यकार, संपादक, पत्रकार, नेता खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचने लगे। फिल्म अभिनेता अनुपम खेर को पद्म भूषण मिलने पर तथाकथित प्रगतिशीलों की छाती पर सांप रेंगने लगे। बेचारे ऐसे छटपटाये जैसे भरे मेले में लुट गये हों। उम्रदराज अभिनेता को शर्मिंदा करने के लिए तरह-तरह की बातें की जाने लगीं। उन्हें याद दिलाया गया कि आपने तो पिछले वर्ष २६ जनवरी २०१५ को बहुत तन कर यह ट्वीट किया था कि हमारे देश में पुरस्कार मजाक का सिस्टम बनकर रह गये हैं। इनमें विश्वसनीयता बाकी नहीं रह गयी है, चाहे वे फिल्म पुरस्कार हों, राष्ट्रीय पुरस्कार या पद्म पुरस्कार। फिर ऐसे में २०१६ में क्या परिवर्तन आ गया कि जैसे ही आपको पद्म भूषण सम्मान देने की घोषणा हुई, आप खुशी के मारे उछलने लगे और फौरन यह ट्वीट कर डाला कि... 'यह बात साझा करते हुए मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं कि सरकार ने मुझे पद्म भूषण सम्मान से नवाजा है, यह मेरे जीवन की सबसे बडी खबर है।' २००४ में पद्मश्री से नवाजे जा चुके अभिनेता अनुपम खेर एक अच्छे लेखक भी है। उन्होंने उन साहित्यकारों, कलाकारों और चिंतकों को खरी-खरी सुनायी जिन्हें देश में असहिष्णुता नजर आती है। अभिनेता का यह रवैय्या कई लोगों को पसंद नहीं आया, लेकिन सत्ताधीशों को अनुपम के रोल में दम नजर आया। उनकी पत्नी को लोकसभा का चुनाव लडवाकर संसद भवन पहुंचाने के बाद अब सरकार का पोस्टर ब्वॉय बने अनुपम को भी ऐसा ईनाम दे डाला जिसकी वे वर्षों से आस लगाये थे। भले ही वे ऐसे पुरस्कारों पर सवालिया निशान भी लगाने से नहीं चूक रहे थे। समझदारों की यही तो कलाकारी है जिसे आमजन नहीं समझ पाते। यह भी सच है कि अनुपम की करनी और कथनी पर सवाल उठाने वाले अधिकांश चेहरे भी जिधर दम उधर हम की लीक पर चलकर चाटुकारिता की सभी सीमाएं पार करते रहे हैं। बदकिस्मती से इनका नंबर नहीं लग पाया। उनका गुस्सा अनुपम को पुरस्कृत किये जाने को लेकर नहीं, खुद को नजरअंदाज किये जाने पर है। यदि कहीं इन्हें कोई पद्म पुरस्कार मिल जाता तो इन्हें अनुपम के ट्वीट की याद नहीं आती। संपर्कों का फायदा उठाने में इनका भी कोई सानी नहीं है। एक अखबार के मालिक, जो जोड-जुगाडकर राज्यसभा के सदस्य बनते चले आ रहे हैं, ने रहस्योद्घाटन किया है कि मुझे अच्छी तरह से पता है कि ऐसे पुरस्कारों में हर तरह की राजनीति होती है। सम्पादक महोदय इस सच को तब उजागर क्यों नहीं कर पाये जब देश में कांग्रेस की सरकार थी? यकीनन उनकी कलम की स्याही तब इस वजह से सूख गयी थी क्योंकि वे कांग्रेस की मेहरबानी से राज्यसभा सदस्य बनने के साथ-साथ कोयला खदानें और तरह-तरह की फायदे पाते चले आ रहे थे। वर्तमान में वजनी केंद्रीय मंत्रियों का बार-बार गुणगान करना उनकी असली मंशा को छिपा नहीं पाता। इस कलमकार का दावा है आने वाले वर्षो में जब भी ऐसे पुरस्कार से वंचित आलोचकों को खुश कर दिया जायेगा तो इन्हें पुरस्कारों में कोई राजनीति नजर नहीं आयेगी। यह भी अनुपम की तरह खुद को सम्मानित महसूस करते हुए सरकार के वंदन और अभिनंदन के गीत गाते नजर आएंगे। यही दस्तूर है जो पाता है वही गाता है और बाकी अपना माथा पीटते रह जाते हैं। धीरूभाई अंबानी की तरक्की दर तरक्की का इतिहास बताता है कि उन्होंने सत्ता और व्यवस्था को साध कर इतनी अपार दौलत कमायी कि लोगों की आंखें चौंधिया गयीं। धीरूभाई अंबानी अफसरशाही को अपनी मुट्ठी में कर अपना हर काम निकालने की कला में पारंगत थे। उनके बेटे मुकेश और अनिल अंबानी भी पिता के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। इनकी हैरतअंगेज तरक्की बताती है कि जिन्हें सत्ता का साथ मिल जाता है उनका रास्ता रोकना असंभव है। भले ही कितने ही आडे-टेडे काम करते चले जाएं। अगर आज की पीढी अंबानियों को अपना आदर्श मान ले तो देश का कबाडा होने में देरी नहीं लगेगी। धीरूभाई को देश का दूसरा सर्वोच्च सम्मान पद्म विभूषण दिये जाने पर किसी न्यूज चैनल मालिक, अखबार मालिक तथा संपादक ने सवालों की झडी नहीं लगायी। मुकेश और अनिल अंबानी से मिलने वाले करोडों रुपये के विज्ञापनों ने उनकी बोलती बंद कर दी।
यह मान लेने में कहीं कोई हर्ज नहीं कि अधिकांश पद्म सम्मानों का पात्रता और योग्यता से कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग सत्ताधीशों का किसी न किसी तरह से साथ देते हैं और वाह-वाही करते हैं उनका नंबर सबसे पहले लगता है। धीरूभाई में यही गुण था। अनुपम जैसे पुरस्कृत चेहरे भी उन्हीं के पथगामी हैं। उद्योगजगत के करिश्माई व्यक्तित्व, जीटीवी के मालिक सुभाष चंद्रा की आत्मकथा का सार ही यही है कि हुक्मरानों की मेहरबानी और करीबी की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। सुभाष चंद्रा पर अगर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की कृपा दृष्टि नहीं होती तो वे विदेशों में चावल का अंधाधुंध निर्यात कर अरबों-खरबों रुपये नहीं जुटा पाते। उन्होंने सत्ता के दलालों से करीबी रिश्ते बनाकर जो आर्थिक साम्राज्य खडा किया है उससे तो यही लगता है कि वे भी धीरूभाई अंबानी के सजग चेले हैं। इस बार धीरूभाई को पद्म विभुषण से नवाजा गया है तो आने वाले वर्षों में संपर्कों के शहशांह सुभाष चंद्रा का नंबर लगना तय है। पिछले दिनों उनकी आत्मकथा की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं स्वीकारा कि उनकी चंद्रा परिवार से करीबियां रही हैं। यही रिश्ते बहुत फलदायी होते हैं। मजदूरों को कोई नहीं पूछता। इमारतों के मालिकों का ही नाम होता है। नंबर तो मुकेश अंबानी, अदानी और उन जैसे तमाम उद्योगपतियों का भी लगना तय है जिन्होंने चुनाव के वक्त अंधाधुंध थैलियां देने में कोई कंजूसी नहीं की। ऐसे दाता और पाता का रिश्ता ही स्वार्थ पर ही टिका होता है। ऐसे में उन्हें कतई निराश नहीं होना चाहिए जिन्होंने आडे वक्त में अपने चहेते नेताओं की चुनावी सहायता की और आज वे सत्ता पर विराजमान हैं। देश के करोडो-करोडो लोगों के अच्छे दिन भले ही न आएं, लेकिन सेवकों और चाटूकारों की किस्मत जरूर चमकेगी। वो सम्पादक, पत्रकार, साहित्यकार भी निराश न हों जिनका काम ही सत्ताधीशों के तारीफों के पुल बांधना है। उन्हें भी थोडा सब्र करना चाहिए जो किसी भी तरह का पुरस्कार पाने के लिए मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की चौखटों पर नाक रगडने में कतई नहीं हिचकिचाते। यह कहावत गलत नहीं कि 'सब्र का फल मीठा होता है।'