Thursday, June 29, 2017

अभी बहुत कुछ बाकी है

यह दौर आश्वस्त करने वाला भी है और हैरान परेशान करने वाला भी। कई बार ऐसा लगता है कि इंसानियत और भाईचारे का जनाजा उठ गया है। लोगों में आपसी प्रेम भावना खत्म हो चुकी है। नजदीकी रिश्तों के तार टूटते चले जा रहे हैं और आपसी सदभाव की हत्या करने वालों की भीड बढती चली जा रही है। नकारात्मक और सकारात्मक खबरों के बीच मानवता सिसकती नजर आ रही है। ताहिरपुर में एक पिता ने तांत्रिक की बातों में आकर अपनी तीन साल की बेटी के दोनों कान काट दिए। यह क्रूर पिता रातों-रात धनपति बनना चाहता था और खून-पसीना बहाने से कतराता था। तंत्र-मंत्र पर भी उसे भरपूर यकीन था। इसलिए अक्सर वह एक तांत्रिक के यहां हाजिरी लगाया करता था। उसी तांत्रिक ने उसके दिमाग में यह बात भर दी कि उसके ग्रहों की दिशा सही नहीं चल रही है। यदि उसे करोडपति बनना है और अशांति से मुक्ति पानी है तो घर के किसी सदस्य की बलि देनी होगी। रात को खाना खाने के बाद उसने अपनी पत्नी और बच्चों को छत पर सोने के लिए भेज दिया। उसने बडी ही चालाकी से अपनी तीन साल की बेटी को अपने पास रोक लिया और एक कान जड से काट दिया। खून से लथपथ बच्ची दर्द के मारे कराहने लगी। पत्नी और बच्चे छत से तुरन्त नीचे पहुंचे। उन्हीं की आंखों के सामने उसने बच्ची का दूसरा कान भी काट दिया। बच्ची की मां ने शोर मचाना शुरू कर दिया। वह बच्ची की गर्दन काटकर उसे मौत के घाट उतारने जा ही रहा था कि पडोसी मौके पर पहुंच गए और उसके हाथ से हथियार छीन लिया। थोडी देर बाद पुलिस भी पहुंच गई। निष्ठुर और धन लोभी बाप को गिरफ्तार करने के बाद खून से लथपथ बच्ची को अस्पताल में भर्ती कराया गया। वारदात के समय वह शराब के नशे में था और यही रट लगाए था कि प्रेत आत्मा ने उसे अपने बस में कर लिया है और उसी के कहने पर उसने इस वारदात को अंजाम दिया है।
एक जमाना था जब लोग एक दूसरे की सहायता करने में कोई कंजूसी नहीं करते थे। अब तो सडकों पर हादसे का शिकार होने के बाद इंसान तडपते रहते हैं, लेकिन लोग यूं गुजर जाते हैं कि मानो कुछ हुआ ही न हो। दरअसल, यह सहायता करने का नहीं तस्वीरें उतारने का जमाना है। दूसरों को आहत करने की मनोवृत्ति बेलगाम घोडे की तरह कहीं भी किसी को रौंद डालती है। बीते सप्ताह गाजियाबाद-मथुरा शटल ट्रेन में जुनैद नामक युवक की बेवजह निर्मम हत्या कर दी गई। जुनैद ईद को लेकर अपने भाइयों शाकिर व हाशिम और अपने दोस्त मौसिम के साथ दिल्ली के सदर बाजार में खरीदी करने गया था। खरीदी करने के बाद ये सभी लोग ट्रेन से फरीदाबाद लौट रहे थे। तुगलकाबाद में २-३ लोग उसी कोच में चढे जिसमें वे सवार थे। जुनैद के कपडों को देखते ही उन लोगों ने साम्प्रदायिक टिप्पणी की और कहा कि तुम लोगों को ट्रेन में बैठने की जरूरत नहीं है। तुम्हें तो ट्रेन के ऊपर बैठना चाहिए। कोच में और भी यात्री थे, लेकिन छेडखानी करने वाले बदमाशों ने हिन्दू-मुस्लिम की बात कहकर सभी को अपने पक्ष में कर लिया था। तीन-चार बच्चे एक तरफ और १४-१५ लोग एक तरफ। इस बीच वे लोग बीफ की बात करने लगे। फिर कहने लगे तुम कटुआ हो, देशद्रोही, पाकिस्तान चले जाओ। वे लोग पूरे रास्ते गालीगलौज करते रहे। जब ट्रेन बल्लभगढ पहुंची तो उन्हें उतरने नहीं दिया गया। एक ने चाकू निकाला और उन पर हमला कर दिया। जुनैद ने मौके पर ही दम तोड दिया। हाशिम ने इस बर्बरकांड की पूरी दास्तान जब अपनी मां को सुनाई तो वह तो जैसे अधमरी होकर रह गई। अखबारों में भी जब यह खबर छपी तो संवेदनशील भारतीयों का दिल दहल गया। उन्हें इस अमानवीयता और दरिंदगी ने हिलाकर रख दिया।
ऐसी चिन्ताग्रस्त कर देने वाली खबरों के बीच जब इंसानियत की मिसाल पेश करने वाली कुछ खबरें पढने-सुनने को मिलती हैं तो किसी कवि की कविता की पंक्तियां याद हो आती है जिनका भावार्थ है कि, अभी भी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। अभी बहुत कुछ बाकी है। कोई भी अंधेरा उम्मीद की किरणों के आडे नहीं आ सकता। दानवों की भीड में ऐसे महामानवों का भी समावेश हैं जिनका वजूद कभी खत्म नहीं हो सकता। इन्हीं की बदौलत यह सारी सृष्टि चल रही है। अपने देश में ऐसे नेता भरे पडे हैं जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के तराने तो खूब गाते हैं, लेकिन उनकी कथनी और करनी का अथाह अंतर सारी हकीकत सामने लाकर रख देता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हिन्दुस्तान में आपसी भाईचारे की ज्योति को जलाए रखने में सीधे-सादे आम भारतीयों का ही प्रमुख योगदान है। महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल गढचिरोली जिले की हिन्दू व मुस्लिम वर्ग की दो छात्राओं ने दोस्ती की जो मिसाल कायम की है उससे तो इस देश के मतलबपरस्त नेताओं को जरूर सबक लेना चाहिए। स्मिता और सानिया की दोस्ती की नींव बचपन में ही पड गई थी। वर्तमान में दोनों कॉलेज में पढती हैं और एक साथ कॉलेज जाती हैं। दोस्ती का मान-सम्मान रखने और उसे बरकरार रखने के लिए स्मिता हर वर्ष रोजा रखती है। दोनों के परिवारों में भी घनिष्ठ संबंध हैं। एक-दूसरे के त्योहारों में बडे उत्साह के साथ शामिल होते हैं। दोनों सहेलियों का यह अटूट आत्मीय रिश्ता दूसरों को भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रेरणा देता है। क्षेत्र के तमाम लोग एक साथ रोजे रखने वाली दोनों सहेलियों की प्रशंसा करते नहीं थकते। सानिया भी स्मिता के यहां होने वाले सभी पारिवारिक और धार्मिक कार्यक्रमों में बढ-चढ कर हिस्सा लेती है। स्मिता का कहना है कि भले ही सानिया और मेरा रहन-सहन अलग हो मगर हमने किसी भी विषय को लेकर कभी कोई भेदभाव नहीं किया है। देश में हिन्दू-मुस्लिम समाज में काफी गलतफहमियां पैदा हो रही हैं जिनको दूर करने और दोनों वर्गों में एकता बनाए रखने के लिए मैं रोजे रखती हूं। स्मिता और सानिया की तरह और भी हजारों हिन्दू-मुसलमान हैं जिनकी दोस्ती की मिसालें पेश की जाती हैं। यह तो राजनीति ही है जो मंदिर और मस्जिद की बात कर हिन्दुओं और मुसलमानों में दरारें डालने की साजिश करती रहती है। कितने हिन्दू ऐसे हैं जो मस्जिदों के प्रति समर्पित हैं और मुसलमानों का भी मंदिरों से काफी निकटता का नाता है।
कानपुर में १०० वर्ष से ईदगाह की देखभाल एक हिन्दू परिवार करता चला आ रहा है। वर्तमान में ईद की चौकीदारी और साफसफाई करने वाले बबलू बताते हैं कि मेरे दादा १५ वर्ष की उम्र में घर से भागकर कानपुर आ गए थे। पांच दिनों तक भूखे काम तलाशते रहे फिर उनकी मुलाकात ईदगाह के उस वक्त के मुन्नवल्ली फखरुद्दीन से हुई जो उन्हें ईदगाह ले आए और पनाह दी। उन्हें ईदगाह में माली और साफसफाई का काम सौंपा गया। बबलू उस परिवार की तीसरी पीढी के हैं। उत्तर प्रदेश की सबसे बडी यह ईदगाह १५० वर्ष पुरानी है। बबलू कहते हैं: "मैं अपना कर्तव्य बडी ईमानदारी से निभाता हूं। मैं अपने त्योहार भी दूसरे हिन्दुओ की तरह मनता हूं। उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। ईद के दिन मैं खुफिया विभाग वालों के साथ रहता हूं और देखता हूं कि कोई असामाजिक तत्व ईदगाह में न घुस आए। कानपुर ऐसा शहर है जहां कई बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। पर न कभी हमने ईदगाह छोडने की सोची, न ही कभी किसी ने वहां से हटने को कहा।"

Thursday, June 22, 2017

मरीजों को अपराधी मानने वाले डॉक्टर

हिन्द के नामी-गिरामी अस्पतालों में कैसी भर्राशाही चलती है उसका एक जीवंत उदाहरण १८ जून २०१७ को दिल्ली में सामने आया है। यहां के सफदरजंग अस्पताल में एक नवजात को मृत घोषित कर दिया गया। लेकिन अंतिम संस्कार से पहले परिवार के सदस्यों ने उसे जिन्दा पाया। हुआ यूं कि एक महिला ने एक शिशु को जन्म दिया। अस्पताल के डॉक्टरों, कर्मचारियों को बच्चे में कोई हरकत नजर नहीं आई तो उन्होंने बच्चे को एक पैक में बंद कर उस पर डेड का लेबल लगाकर अंतिम संस्कार के लिए पिता को सौंप दिया। मां की हालत ठीक न होने के कारण वह अस्पताल में ही भर्ती थी। पिता व परिवार के अन्य सदस्य जब अंतिम संस्कार की तैयारी में लगे थे तभी उन्होंने पैक में कुछ हरकत महसूस की और जब उसे खोला गया तो बच्चे की धडकन चल रही थी और वह हाथ-पैर चला रहा था।
क्या कोई अस्पताल धन की वसूली के लिए मरीज को बंधक बना सकता है? इसका जवाब है, हां। भारतवर्ष के अस्पताल इस तरह की करतूतें कर मीडिया की सुर्खिया पाते रहते हैं। दरअसल कुछ अस्पताल ठगी के अड्डे बन गए हैं जहां सीधे-सादे गरीब लोगों को बेखौफ लूटा जाता है।
देश की राजधानी में स्थित सेंट स्टीफेस अस्पताल में एक मां ने अपने बच्चे को इलाज के लिए भर्ती करवाया। लाचार मां ने डॉक्टरों को भर्ती किये जाने से पहले ही बता दिया था कि उसकी आर्थिक स्थिति अत्यंत कमजोर है। डॉक्टरों ने भी उसे यह कहते हुए ढांढस बंधाया कि माताजी, चिन्ता न करें, यहां पर गरीबों का मुफ्त भी इलाज होता है। मां अस्पतालों के चरित्र से वाकिफ थी। इसलिए उसने लोगों की मदद से शुरू में ही ३० हजार रुपये जमा करवा दिए और अपने जिगर के टुकडे के इलाज के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हो गई। इलाज शुरू होने के दो दिन बाद डॉक्टरों ने गिरगिट की तरह रंग बदलना शुरू कर दिया। मां को १० हजार रुपये और जमा करने और तीन हजार रुपये की दवाएं बाजार से लाने को कहा गया। किसी तरह से यह रकम भी जमा कर दी गई। एक हफ्ते के बाद बच्चा स्वस्थ हो गया। मां ने बच्चे को घर ले जाने की इजाजत मांगी तो उसे २७ हजार रुपये का और बिल थमा दिया गया। उसने जब असमर्थता प्रकट की तो बच्चे को बंधक बना लिया गया। मां हाथ जोडती रही। तीन दिन बाद उसने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवायी तब कहीं जाकर बच्चा दानवी प्रवृत्ति के डॉक्टरों के चंगुल से मुक्त हो पाया।
छत्तीसगढ में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और चिकित्सकों की असंवेदनशीलता किसी भी जागरूक इंसान को क्रोधित और चिंतित कर सकती है। बीते दिनों बिलासपुर जिले में एक गर्भवती महिला को सरकारी अस्पताल में भर्ती न कर भगा दिया गया। निराश, थकी-हारी वह महिला जब अस्पताल से पैदल लौट रही थी तो उसे प्रसव पीडा हुई और फिर एक टूटे घर के शेड में उसका प्रसव कराया गया। मध्यप्रदेश के शिवपुरी में स्थित सरकारी अस्पताल में नवजात बच्ची की उंगली चूहे के द्वारा कुतरे जाने और इंदौर के सरकारी अस्पताल के पोस्ट मार्टम हाऊस में रखे नवजात के शव को चीटियों ने नोचे जाने की खबरें अब आम हो चुकी है।
निजी अस्पतालों के हालात तो और भी चिंताजनक हैं। आज के दौर में होटलों और निजी चिकित्सालयों में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। मरीजों की जेबें काटने के कई तरीके ईजाद कर लिए गए हैं। कानून का पालन करना तो कतई जरूरी नहीं समझा जाता। मेडिकल कंपनियों और डॉक्टरों की मिलीभगत से अंतहीन लूटमार चल रही है। अपनी जान बचाने के लिए लोग आगा-पीछा नहीं सोचते। इधर-उधर से भी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इसी का नाजायज फायदा उठा रहे हैं प्रायवेट अस्पताल और धंधेबाज डॉक्टरों के गिरोह। दूसरे व्यापार-धंधों में तो मुनाफे की कोई मर्यादा होती है, लेकिन चिकित्सा के क्षेत्र में मुनाफाखोरी अपनी सभी सीमाएं पार कर चुकी है। मेडिकल उपकरणों का बाजार तो मुनाफाखोरों और डॉक्टरों की जागीर बन कर रह गया है। अस्पतालों को कंपनियां जो मेडिकल उपकरण... नी (घुटना) रिप्लेसमेंट किट, हिप (कूल्हा) रिप्लेसमेंट किट और दिल की बीमारी वाले मरीजो के लिए उपयोगी स्टेंट की आपूर्ति करती हैं उन पर वे १००० से १५०० प्रतिशत मुनाफा कमाती हैं उसके बाद निजी अस्पताल वाले भी अपना अच्छा-खासा मुनाफा जोड लेते है उसपर अस्पताल के कमरे का किराया, नर्सों के शुल्क आदि की जो मनमानी वसूली की जाती है उससे अच्छे भले मरीज तथा उसके परिवार वालों की कमर टूट जाती हैं। यह अत्यंत ही हैरत की बात है कि घुटना बदलने वाली जिस किट की लागत मात्र १०,१५९ रुपये है उसी किट की कीमत चिकित्सा के बाजार में एक से डेढ लाख रुपये हो जाती है। लूट के इस खेल को यदि डॉक्टर और अस्पताल चाहें तो खत्म कर सकते हैं, लेकिन कमाई कर लालच उन्हें ऐसा नहीं करने देता। दिल की बीमारी में काम आने वाली कार्डियल स्टेंट की कीमतें कम करने की पिछले दिनों खबरें तो खूब आयीं थीं, लेकिन हुआ कुछ नहीं। अभी भी जमकर लूट जारी है। दरअसल हमारे देश के अधिकांश डॉक्टरों ने चिकित्सा को जनसेवा के बदले लूट का कारोबार बना दिया है।
देश के विख्यात सर्जन डॉ. नरेश त्रेहन का कहना है कि हिन्दुस्तान के अधिकांश डॉक्टर्स जल्द अमीर बनने के लिए लालची हो गए हैं और पैसे के पीछे भाग रहे हैं। रातों-रात धनपति बनने और हॉस्पिटल्स के दबाव में जरूरत नहीं होने पर भी स्टेंट लगा रहे हैं। सर्जरी कर रहे हैं। इससे डॉक्टर्स की प्रतिष्ठा पर जबर्दस्त आघात पहुंच रहा है। पैसे के लिए डॉक्टर्स उस प्रतिज्ञा (शपथ) को भूल गये हैं जो मरीजों की सेवा के लिए ली जाती है। आज मरीजों को नैतिक मूल्यों के आधार पर सेवा नहीं मिल पा रही है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों से डिग्री लेने के लिए अंधाधुंध पैसा खर्च किया जा रहा है। डिग्री लेने पर खर्च हुआ पैसा मरीजों के इलाज से वसूला जा रहा है। पचास साल पहले डॉक्टर्स के पास संसाधन नहीं होने के बावजूद उनका सम्मान था। आज टेक्नोलॉजी होने के बाद भी उन्हें सम्मान नहीं मिल पा रहा है। मरीजों से अनावश्यक रूप से पैसा वसूलने वाले डॉक्टरों ने तो जैसे मरीजों को अपराधी मान लिया है। उन्हें इलाज के लिए घर, जमीन और गहने तक बेचने पडते हैं।

Thursday, June 15, 2017

कैसे-कैसे नमकहराम

लालू प्रसाद यादव का पूरा खानदान भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा है। बीते हफ्ते लालू के बडे बेटे और बिहार के स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव ने 'दुश्मन मारण जाप' नाम की तांत्रिक क्रिया करवायी। यह क्रिया दुश्मनों के आक्रमणों से बचाव के लिए की जाती है। शत्रुओं का सदा-सदा के लिए खात्मा करने के लिए सात दिन तक किये जाने वाले 'दुश्मन मारण जाप' में रोज चार घण्टे तक तंत्रक्रिया की जाती है। तेज प्रताप ने अपने सरकारी बंगले के कम्पाउंड में बनायी गयी झोपडी में तांत्रिक द्वारा बताये गये मंत्रों का जाप किया। इस दौरान किसी को भी झोपडी के पास फटकने की इजाजत नहीं थी। सारा देश जानता है कि इन दिनों पूरा लालू परिवार भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी के 'पोल-खोल कार्यक्रमों' से त्रस्त है। मोदी पता नहीं कहां-कहां से उनकी नामी-बेनामी सम्पत्तियों का पता लगाकर जगजाहिर करने में लगे हैं। तय है कि उन्हें और उन्हीं के जैसे सभी बैरियों का अंत करने के लिए ही लालू-पुत्र को प्राचीन तंत्र-मंत्र विद्या का सहारा लेने की जरूरत आन पडी है।
बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री और लालू की धर्मपत्नी राबडी देवी को अपने बेटे तेज प्रताप पर बहुत नाज़ है। उनका कहना है कि मेरा यह दुलारा बहुत सीधा-सादा और धर्म-कर्म का पालन करने वाला एक बेहद संस्कारी इंसान है। वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकता। तेज प्रताप बिहार के स्वास्थ्य मंत्री हैं। उन्हें प्रदेश के लोगों की सेहत की उतनी चिन्ता नहीं रहती जितनी कि अपने पिता लालू की। इस संस्कारी मंत्री का मानना है कि हजारों मरीज भले ही डॉक्टरों के अभाव में तडप-तडप कर मर जाएं, लेकिन उनके पिता पर किसी बीमारी की छाया भी नहीं पडनी चाहिए। तीन सरकारी डॉक्टर और दो-तीन नर्सें लालू की सेवा में लगी रहती हैं। तेज प्रताप जनता से नमकहरामी कर सकते हैं, लेकिन अपने पिता से नहीं जिन्होंने उन्हें हर तरह से संस्कारित किया है। पतिव्रता राबडी अपने पतिदेव को भगवान मानती हैं। उनकी निगाह में देश में उनसे बढकर और कोई ईमानदार नेता अभी तक नहीं जन्मा। राजनीतिक शत्रु बेवजह उनके पीछे पडे रहते हैं।
लालू प्रसाद यादव को तो चारा घोटाले में सजा भी हो चुकी है। चुनाव लडने की पात्रता तक खो चुके हैं। फिर भी जब-तब यही हल्ला मचाते रहते हैं कि भाजपा का विरोधी होने के कारण उन्हें और उनके परिवार को परेशान किया जा रहा है। आरजेडी के इस सर्वेसर्वा ने भ्रष्टाचार के नये-नये तरीके इजाद किए हैं। जब वे रेलमंत्री थे तब उन्होंने न जाने कितने बेरोजगारों की जमीन-जायदाद अपने तथा अपनों के नाम करवाकर उन्हें सरकारी नौकरी बख्शी। चुनावी टिकट के बदले भी कई लोगों के बंगले-घर और जमीनें अपने नाम लिखवा लीं। अभी हाल ही में पटना में एक पत्रकार सम्मेलन में भाजपा नेता सुशील मोदी ने कुछ दस्तावेज दिखाए जिसमें यह बात सामने आई कि लालू के नौकर ललन चौधरी ने वर्ष २०१४ में राबडी देवी और बेटी हेमा यादव को एक करोड की सम्पति गिफ्ट में दी थी। ललन पिछले २० वर्षों से लालू के यहां जानवरों को चारा खिलाने का काम करता चला आ रहा है। वह खुद बेहद गरीब है। ऐसे में सवाल उठता है कि उसने राबडी और उसकी बेटी को एक करोड की सम्पत्ति कैसे उपहार में दे दी? सुशील मोदी ने दस्तावेजी सबूत दिखाते हुए खुलासा किया कि २००८ में लालू जब रेल मंत्री थे तो उन्होंने विशुन राय नाम के एक व्यक्ति के परिवार के सदस्य को रेलवे में नौकरी दिलवाई थी और उसके बदले उनकी पटना वाली जमीन ले ली थी। हालांकि उस वक्त जमीन की रजिस्ट्री लालू के नौकर ललन चौधरी के नाम पर हुई थी। बाद में यही जमीन राबडी और बेटी के नाम कर दी गई। हेराफेरी और भ्रष्टाचार की कमाई के मामले में लालू की बेटी मीसा भारती और उसके पति शैलेस कुमार भी पीछे नहीं हैं। पिछले दिनों प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने ८००० करोड रुपये का काला धन सफेद करने के मामले में उनके चार्टर्ड अकाउंटेंट (सीए) राजेश अग्रवाल को गिरफ्तार किया। मीसा भारती ने भी आडी-टेडी कमायी से महंगे फार्महाऊस और कई महंगी जमीनें खरीदी हैं। लालू और उनके परिवार के लिए राजनीति महज एक धंधा है। उनका जनसेवा से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। लालू ने अपने दोनों नाकाबिल बेटों को राज्य में नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) के साथ चुनाव जीतकर बडी आसानी से मंत्री बनवा दिया और अपनी पुत्री को राज्यसभा पहुंचा दिया। प्रदेश की लालू भक्त जनता ने तो इनसे अच्छी उम्मीदें लगार्इं थीं, लेकिन ये तो अपने बाप के भी बाप निकले। तीनों ने अल्पकाल में ही भ्रष्टाचार के ऐसे-ऐसे कीर्तिमान रच डाले कि बिहार के लोग अपना माथा पीटने को विवश हैं। माता-पिता के आज्ञाकारी तेज प्रताप ने प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद यह दर्शाते हुए कि वे बेरोजगार हैं, एक पेट्रोल पम्प अपने नाम करा लिया। छोटे चिराग तेजस्वी यादव की पटना में बन रहे आलीशान मॉल में बहुत बडी हिस्सेदारी है। तेजस्वी बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं। बहन मीसा भारती की तरह तेजस्वी के भी करोडों की बेनामी सम्पत्तियों में हाथ रंगे हैं। घपलों और घोटालों के शहंशाह लालू प्रसाद यादव  २७ अगस्त को पटना में विपक्षी दलों की एक बडी रैली का नेतृत्व करने जा रहे हैं। लालू जैसे भ्रष्टों और बेशर्मों ने ही भारतीय राजनीति के चेहरे को दागदार बनाया है। ताज्जुब है ऐसे जगजाहिर बिकाऊ नेताओं का साथ देने के लिए भी बडे-बडे नेता(?) खडे हो जाते हैं। मतदाता भी इनके झांसे में आ जाते हैं।
आज का सच यह भी है कि विपक्षी पार्टियों और दलों का एक ही ध्येय है किसी भी तरह से नरेंद्र मोदी और भाजपा को शिकस्त देना। इसके लिए उन्हें लालू जैसे उस दागी का साथ लेने में भी झिझक नहीं होती जो हत्यारे-लुटेरे शहाबुद्दीन जैसों का जन्मजात संगी-साथी है। लालू पर जब-जब भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो विपक्षी दलों के कुछ नेता बिना कुछ सोचे-समझे उनकी पैरवी करने लगते हैं। ऐसे ही एक बडबोला नेता है शत्रुघ्न सिन्हा। कल का यह पिटा हुआ अभिनेता आज भाजपा की बदौलत सांसद है, लेकिन केंद्र सरकार में मंत्री न बनाये जाने के कारण अक्सर नमकहरामी पर उतर आता है। इसे लालू में ऊपर से नीचे तक ईमानदारी ही नजर आती है। यदि इसे केंद्र में मंत्री बना दिया गया होता तो कभी भी यह लालू चालीसा पढते नजर नहीं आता। दरअसल ऐसे ही बिन पेंदी के लोटे भ्रष्टाचारियों के हौसले बुलंद करते हैं और अपनी दुकानदारी चलाते रहते हैं। इनसे देशवासियों को तुरंत सावधान हो जाना चाहिए।

Thursday, June 8, 2017

ऐसे खुलते हैं बंद दरवाजे

किसी ने एकदम सही कहा है कि कामयाबी के दरवाजे उन्हीं के लिए खुलते हैं, जो उन्हें खटखटाने का हौसला और ताकत रखते हैं। कितने लोग ऐसे होते हैं जो सपने देखने में तो माहिर होते हैं, लेकिन उन्हें साकार करने के लिए अपने कदम आगे बढाने की पहल ही नहीं करते। उनका सारा जीवन सोचते-सोचते गुजर जाता है। छोटी-सी तकलीफ उनके लिए पहाड बन जाती है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पहाड खोदकर सडक बना देते हैं। मंजिले खुद उनके पास चलकर आने को विवश हो जाती हैं। हमारी इस दुनिया में कुछ भी आसानी से नहीं मिलता। रोडे अटकाने वालों की लम्बी श्रृंखला है। दिव्यांगों के लिए तो यही माना जाता है कि वे दूसरों की भीख पर जिन्दा रहने के लिए पैदा हुए हैं। राजस्थान के पाली मारवाड में जन्मी उम्मुल खेर ने लाइलाज बीमारी के बाद भी अपने सपनों को साकार करने की जिद और जोश को बरकरार रख दिखा दिया कि हिम्मत और जुनून ही जिन्दा इंसान की असली पहचान हैं। जिसमें यह गुण नहीं उसका जीना महज दिखावा है। ऐसे लोग ही परजीवी कहलाते हैं। दूसरों की दया पर जीना ही इनकी फितरत होती है। अभी हाल ही में आए आइएएस के परिणाम में कर्मठ उम्मुल ने ४२वें पायदान पर जगह बनाकर सभी विपरीत हालातों को ऐसी पटकनी दी कि जमाना देखता रह गया। इस बहादुर बेटी को बचपन से ही अजैले बोन डिसऑर्डर नामक बीमारी है। यह बीमारी हड्डियों को कमजोर कर देती है। इससे पीडित मरीज धीरे से भी गिर जाए तो भी उसकी हड्डियां टूट जाती हैं। इसलिए उम्मुल को २८ की उम्र तक १६ फ्रैक्चर और आठ सर्जरी का सामना करना पडा। उम्मुल खेर बताती हैं कि पिता दिल्ली में फेरी लगाकर मुंगफली बेचते थे। मां लोगों के घरों में झाडू-पोंछा कर हमें पालती थी। माता-पिता के पास इतने रुपये नहीं थे कि वे मुझे अच्छे स्कूल में पढा सकें। इस वजह से सातवीं कक्षा में पढते हुए मैंने छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढाना शुरू कर दिया। इससे मिले पैसों से अपनी पढाई करती रही और बीमारी से भी लडती रही। उन्हीं दिनों मेरे मन में आईएएस बनने का सपना जागा था। अपनी शारीरिक दुर्बलता की परवाह न करते हुए मैं अपने सपनों को साकार करने में तल्लीन हो गई तो सभी बंद दरवाजे भी खुलते चले गए। मुझे साउथ कोरिया में हुए इंटरनेशनल लीडरशिप प्रोग्राम में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला वहीं यूएन ने विकलांगता पर हुए विश्व सम्मेलन में आमंत्रित कर मेरा उत्साह बढाया। प्रशासनिक अधिकारी बनकर जरूरतमंद और शारीरिक दुर्बलताओं से जूझ रही महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने की दिली चाहत रखने वाली उम्मुल खेर लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम में शामिल होने वाली चौथी भारतीय हैं।
उम्मुल की तरह ही शारीरिक अक्षमता के बावजूद २९ वर्षीय एरिक पॉल ने कार चलाकर लेह से कन्याकुमारी तक सफर कर रिकॉर्ड बनाया। उन्होंने सबसे कम समय में यह यात्रा पूरी की। जिसकी वजह से उनका नाम 'लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड' के पन्नों पर दर्ज हो गया। गौरतलब है कि पॉल का सीने से नीचे का पूरा हिस्सा लकवाग्रस्त है। उन्होंने विशेष तौर पर तैयार और हैंड कंट्रोल वाली हैच बैक कार से सफर पूरा किया। फरवरी २०१२ में हुए एक सडक हादसे के बाद वे व्हीलचेअर तक सीमित हो गए थे, लेकिन फिर भी कुछ कर गुजरने के जज्बे ने उनकी मनचाही इच्छा पूरी कर ही दी। इतनी बडी उपलब्धि हासिल करने वाले इस युवा का कहना है कि अभी तो मैंने मील का पत्थर पार किया है। मुझे काफी लम्बी दूरी तय करनी है और वह मैं करके रहूंगा। पहले भी कार से लम्बी दूरी कम समय में तय करने के कई रिकॉर्ड बना चुके इस जुनूनी को लेह से कन्याकुमारी तक के सफर में कई चुनौतियां का सामना करना पडा। रास्ते में दिव्यांगों के लिए शौचालय, आराम की जगह, रहने के स्थान का घोर अभाव, खराब मौसम, मोबाइल नेटवर्क न होना, खराब सडकें और भूस्खलन जैसी चुनौतियां भी उनके मनोबल को नहीं डिगा सकीं।
जेएनयू की पीएचडी स्कॉलर्स प्रांजल पाटिल ने सफलता के बाद दिव्यांगता को कमी बताकर ठुकराने वालों को यूपीएससी परीक्षा में १२४ रैंक हासिल कर करारा जवाब दे दिया। प्रांजल ने दिव्यांग वर्ग में भी टॉप किया। अब प्रांजल का सपना आईएएस बनकर देश सेवा करना है। अपनी मां को आइडियल मानने वाली प्रांजल आत्मविश्वास के साथ आगे बढने की प्रेरणा पाती हैं। प्रांजल का कहना है कि मैं उन लोगों को यह दिखाना चाहती हूं कि मैं दिव्यांग नहीं थी, बल्कि उनकी सोच थी कि उन्होंने मेरे जज्बे को समझा नहीं। इंटरनेशनल रिलेशन में पीएचडी स्कॉलर्स प्रांजल पाटिल ने बताया कि, 'बेशक मैं आंखों की रोशनी न होने के चलते इस दुनिया के रंगों को देख नहीं सकती हूं पर महसूस करती हूं। पिछला साल बेहद कडवे अनुभवों से बीता। महज छह साल की उम्र में अचानक आंखों की पूरी तरह रोशनी चली जाने के बाद भी अपनी मां ज्योति पाटिल की आंखों से दुनिया को देख रही थी। हालांकि, यूपीएससी परीक्षा २०१५ में ७७३वीं रैंक लेने के बाद भी रेलवे मंत्रालय ने मुझे नौकरी देने से इनकार कर दिया। क्योंकि उन्होंने मेरी आंखों की सौ फीसदी नेत्रहीनता को कमी का आधार बनाया था। मेरी यह जिद थी कि मैं उन लोगों को अपना सपना तोडने नहीं दूंगी। मैंने यूपीएससी परीक्षा की दोबारा तैयारी शुरू की और १२४वां रैंक हासिल किया है। अब मुझे आईएएस मिलेगा, क्योंकि यहां पर मेरी नेत्रहीनता कमी नहीं होगी। मूलरूप से महाराष्ट्र निवासी प्रांजल के पिता एलजी पाटिल सरकारी मुलाजिम हैं और मां ज्योति घरेलू महिला हैं।'
बिहार की राजधानी पटना के एक ९७ साल के बुजुर्ग ने वो कमाल कर दिखाया जो यकीनन अचम्भे में डाल देने वाला है। उम्रदराज राजकुमार वैश्य को भारी लू और गर्मी के बीच जब लोगों ने एमए की परीक्षा देते देखा तो वे हतप्रभ रह गए। चलने में दिक्कत होने के बावजूद वैश्य ने तीन घण्टे तक परीक्षा में बैठकर पर्चा लिखा। उनके साथ बैठे परीक्षार्थियों की उम्र उनके पोते-पोतियों से भी कम थी। नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी पटना की ओर से आयोजित एमए अर्थशास्त्र की परीक्षा में बैठे इस शख्स ने १९३८ में स्नातक किया था। उनका उद्देश्य डिग्री हासिल करना नहीं, अध्ययन करना है। १९४० में वे कानून की डिग्री भी हासिल कर चुके हैं। वे युवाओं को संदेश देना चाहते हैं कि हार को कभी स्वीकार मत करो। हताश होने और अवसादग्रस्त होने की जरूरत नहीं है। मौका और अवसर हर वक्त रहता है, सिर्फ खुद पर विश्वास होना चाहिए।
संघर्ष की कंटीली राहों पर गुजरें बिना कामयाबी की दास्तान नहीं लिखी जा सकती। 'बाहुबली-२' का यह डायलॉग भला दर्शक कैसे भूल सकते है, "औरत पर हाथ डालने वाले की उंगलियां नहीं काटते, काटते हैं गला।" इस डायलॉग के लेखक हैं मनोज मुंतशिर जिन्होंने अपने सपने को साकार करने के लिए अपनी कई रातें फुटपाथ पर भिखारियों के बीच सोकर काटीं। ख्वाब बुनते-बुनते लगभग दो साल बीत गए। एक दिन पता चला कि अभिताभ के शो 'कौन बनेगा करोडपति' की तैयारी चल रही है। वे चैनल वालों से मिले। चैनल वालों ने अमिताभ के सामने बिठा दिया। सदी के महानायक ने दस मिनट बोलने का मौका दिया जिसमें वे खरे उतरे और आगे बढने के लिए एक लंबा रास्ता मिल गया। फिल्म के लिए गीत लिखने हों या टीवी रिएलिटी शो के लिए डायलॉग मनोज की कलम किसी की मोहताज नहीं है। हर पल कुछ नया सोचने और करने का जुनून सिर पर सवार रहता है। एक विलेन फिल्म का गीत 'तेरी गलियां...' लिखकर संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले गीतकार मनोज मुंतशिर जब मायानगरी मुंबई पहुंचे तो वहां उनका न कोई ठिकाना था और न ही गॉडफादर। जेब भी खाली थी। बस लेखक बनने की भरपूर तमन्ना थी। इसी के लिए तो उन्होंने अपना घर-परिवार छोडा था। वे जब दसवीं में पढते थे तभी उन्हें अहसास हो गया था कि उनके पास शब्दों की अपार ताकत है। जब माता-पिता को बताया कि वह लेखक बनना चाहते हैं तो उन्हें कतई अच्छा नहीं लगा। लेकिन मनोज ने तो ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए लेखक ही बनना है। दुनियाभर के पापड बेलने के बाद आखिर उन्हें वो मंजिल मिल ही गई जिसका उन्होंने सपना देखा था। आज मनोज फिल्मी संसार का एक जाना-पहचाना नाम है।

Thursday, June 1, 2017

एक सच यह भी

"पत्नी से परेशान होकर जाने-माने मराठी फिल्म निर्माता ने की खुदकुशी" अखबार के पहले पन्ने पर चौंकाने वाले शीर्षक को पढते ही मन में फौरन पूरी खबर को पढने की उत्कंठा जाग उठी :
पत्नी की मानसिक प्रताडना से परेशान होकर मराठी फिल्म निर्माता अतुल तपकीर ने पुणे के प्रसिद्ध होटल प्रेसिडेंट में जहर पीकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने से पहले अतुल ने फेसबुक पर जो सुसाइड नोट पोस्ट की उससे सभी सन्न रह गए। अतुल ने लिखा कि पत्नी को ऐसा जीवन साथी कहा जाता है जो सुख और दु:ख में साथ खडी रहती है और हर संकट काल में हौसला बढाती है। लेकिन मैं वो बदनसीब हूं जिसे एक ऐसी स्वार्थी पत्नी मिली जिसने बुरा वक्त आते ही मेरा साथ छोड दिया। सुख चैन भी छीन लिया। मैंने इधर-उधर से कर्ज लेकर फिल्म 'ढोल ताशा' बनाई जो कि बदकिस्मती से चल नहीं पायी। फिल्म निर्माण में हुए भारी नुकसान और कर्ज के चलते साहूकारों ने मेरा जीना हराम कर दिया। ऐसे विकट काल में मुझे पत्नी के साथ की सख्त जरूरत थी, लेकिन वह मेरा साथ देने की बजाय मेरी दुश्मन बन गई। वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करने लगी जैसे मैंने जानबूझकर असफल फिल्म बनाई है और अब मैं जीवन में कभी कामयाब नहीं हो सकता। होटल के कमरे में जहर मिली शराब गटक कर अपना काम तमाम करने वाले अतुल ने साफ-साफ लिखा कि मुझ पर आर्थिक संकट आने के बाद प्रियंका ने मुझे तथा मेरे पिता को प्रताडित करने का अभियान-सा चला दिया। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब वह मुझे निखट्टू और नकारा कहकर नहीं कोसती। उसकी मानसिक और शारीरिक प्रताडना ने मेरा जीना हराम करके रख दिया था। उसने पुलिस में दहेज और प्रताडना की झूठी शिकायत दर्ज करवायी कि मैं और मेरे पिता उसे मारते-पीटते हैं। पुलिस जब मुझे गिरफ्तार करने पहुंची तो मैंने उन्हें बताया कि यह झूठा आरोप है। पुलिस वाले भी सच को समझते थे। उन्होंने कहा कि हमें मालूम है कि तुम सही हो, लेकिन पहली शिकायत उसने दर्ज करवाई है इसलिए हमें तुम्हें और तुम्हारे पिता को गिरफ्तार करना ही होगा। मैंने बहुत हाथ-पैर जोडे, लेकिन पुलिस वालों के चरित्र से तो हर कोई वाकिफ है। उन्हें ऐसे धन बरसाने वाले मामलों का इंतजार रहता है। गिरफ्तारी से बचने के लिए मुझे वर्दीवालों को दस हजार रुपये की रिश्वत देनी पडी। मुझे लगा कि दस हजार रुपये की रिश्वत चाटने के बाद पुलिस वाले मेरेप्रति नर्म रूख अपनायेंगे और हद दर्जे की झूठी और मक्कार प्रियंका को दुत्कारेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। ऐसे में प्रियंका का तो और हौसला बढ गया। दो-तीन बार तो उसने अपने भाइयों से मेरी पिटायी भी करवा दी। वह घर के आसपास रहने वाले लोगों के यहां जाती और मेरी बदनामी करती। हमारे परिवार ने उसे समझाने-मनाने के लिए कुछ रिश्तेदारों को बुलाकर घर में एक बैठक भी की। तब यह तय किया गया कि प्रियंका घर के ऊपरी माले पर रहेगी और खर्च के लिए १० हजार रुपये प्रतिमाह मुझे देने होंगे। मैंने सभी शर्तें मान लीं। मुझे तब बहुत पीडा हुई जब उसने घर खर्च के लिए दी गई रकम से किश्तों में नई कार खरीद ली। मैं फटीचर की तरह रहता था और प्रियंका शानो-शौकत के साथ। लोगों ने मेरा मजाक उडाना शुरू कर दिया। यार-दोस्त कन्नी काटने लगे। मेरे पिता और बहन ही थे जो मुझे नुकसान से उबरने की हिम्मत देते रहते थे। मैंने भी इधर-उधर हाथ-पैर मारने में कोई कसर नहीं रखी थी। मेरी मेहनत रंग लाने लगी थी। धीरे-धीरे मैंने लेनदारों को कर्ज की रकम लौटानी शुरू कर दी थी। मुझे यकीन था कि मैं शीघ्र ही कर्ज मुक्त होकर अपने सपने को साकार करने की राह पर दौडने लगूंगा। मेरी आनेवाली नई फिल्म तहलका मचा देगी। मेरा नाम होगा। लोग सलाम करेंगे। लेकिन प्रियंका सुधरने का नाम नहीं ले रही थी। एक रात तो उसने तमाम हदें पार कर दीं। अपने मौसेरे भाइयों के साथ मुझे अपमानित कर मेरे ही घर से मुझे धक्के मार कर बाहर कर दिया। उसके लिए पैसा ही सबकुछ है। मैंने तनाव से मुक्ति पाने के लिए अंधाधुंध शराब पीनी शुरू कर दी। पुलिस को बार-बार रिश्वत देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। जब-तब खाकी वर्दी वाले मुझे परेशान करने के लिए आ खडे होते और मुझे जेल में सडाने की धमकियां देने लगते। मेरी सहनशीलता ने जवाब देना शुरू कर दिया और आखिरकार मुझे अपनी जिन्दगी को खत्म करने का निर्णय लेना पडा है। अतुल ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संबोधित करते हुए लिखा कि यह कैसा कानून है जो महिला की शिकायत पर तो फौरन कार्रवाई करता है, लेकिन पुरुषों पर होने वाले अन्याय को नजरअंदाज कर देता है?
आज देश में ऐसी नारियों की संख्या में इजाफा होता चला जा रहा है जो पति को पैर की जूती समझती हैं। देखने में आ रहा है कि कई युवतियां तो शादी होते ही अलग होने की योजना बनाने लगती हैं। उनका संयुक्त परिवार में दम घुटता है। वे हर मामले में आजादी चाहती हैं। आजादी और बर्बादी के फर्क को जानबूझकर भुला देती हैं। अपने अभियान को सफल बनाने के लिए हर मर्यादा को ताक में रख देती हैं। सास-ससुर और परिवार के अन्य सदस्यों का निरादर करने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती। शालीनता के लबादे को बेहिचक उतार फेंकती हैं। देश के महान साहित्यकार गिरीश पंकज ने अपने ही एक मित्र की आप बीती कुछ इस तरह से बयां की है:
उन लोगों को असभ्य-गंवार कहा जाता है जो अश्लील गालियां देते हैं। इन दिनों कुछ शहरी लडकियां भी गंदी-गंदी गालियां देने लगी हैं। ऐसी ही एक लडकी को बहू बनाकर हमारे मित्र घर ले आए और अब अदालत के चक्कर काट रहे हैं। शादी के कुछ दिन बाद ही लडके ने देखा कि लडकी शराब पी रही है और सिगरेट के कश लगाने की भी शौकीन है। देर रात को घूमघाम कर घर लौट रही है। लडके ने जब इन सब बातों का विरोध किया तो लडकी लडने लगी और अश्लील गालियां देने लगी। कौन बर्दाश्त करता। लडकी को समझाया गया, लेकिन वो नहीं समझी। अब लडकी मायके चली गई है। सास-ससुर और पति के खिलाफ दहेज और प्रताडना का केस कर दिया है। दु:खी मित्र ने बताया कि लडकी की मां भी गंदी-गंदी गालियां देती है। लडकी के पिता सज्जन हैं। वे लज्जित हैं। कभी बडे अधिकारी रहे हैं। लेकिन आज बेबस हैं। हमारे मित्र परेशान हैं। वे नहीं चाहते कि अब कोई सुलह हो। क्योंकि जो लडकी इस कदर बिगड चुकी हो कि उसे रोज शराब सिगरेट चाहिए, उससे शालीनता की उम्मीद असंभव है। वे तलाक चाहते हैं।
एक और मामला सामने आया कि बहू आई और उसने साफ कह दिया कि मैं सुबह देर से उठूंगी। सास ने कहा कि कोई बात नहीं। वो आराम से उठती तो उसे चाय मिल जाती। खाना बनाने से भी उसे परहेज। मगर सास जो खाना बनाए वो उसे पसंद न आए। ऐसा कब तक चलता। आखिर लडकी 'त्रस्त होकर' मायके लौट गई। अब तलाक की प्रक्रिया चल रही है। ऐसी घटनाएं बढ रही हैं। प्रश्न ये है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों कम होती जा रही है शालीनता?"