Thursday, November 30, 2023

राजनीति

    जो देश की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहते हैं, उनका खुद पर नियंत्रण नहीं। जो सत्ता पर काबिज हैं उनके प्रति भी मोहभंग जगजाहिर है। देशवासी बड़ी उलझन के शिकंजे में हैं। कमियों और बुराइयों से परिपूर्ण चेहरों में से उन्हें चुनाव करना है। यह दुविधा, यह संकट पिछले कुछ वर्षों से भारत के मतदाताओं के समक्ष सतत बना हुआ है। जो नेता चुनाव से पहले सच्चे और अच्छे लगते हैं, वे भी बाद में अपना रंग बदल लेते हैं। किस-किस की बात करें। लगभग सभी ने निराश किया है। पूरी संतुष्टि किसी से नहीं मिली। याद करें तब के समय को जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए थे, तब देशवासी कितने आशान्वित तथा उत्साहित थे। हर किसी को भरोसा था कि इनके कार्यकाल में अभूतपूर्व विकास देखने को मिलेगा। आम आदमी के हिस्से में भी भरपूर खुशहाली आएगी। गरीबी और बेरोजगारी भाग खड़ी होगी। देश की नस-नस में बेलगाम छलांगें लगाते भ्रष्टाचार पर कड़ा अंकुश लगेगा। नारियों की अस्मत लुटने की खबरों पर भी विराम लगेगा। चतुर नेता नरेंद्र मोदी के बोलने और ललकारने के अंदाज ने विरोधियों के भी मुंह सिल दिये थे। सभी भ्रष्टाचारी, अनाचारी अपने भविष्य को लेकर भयभीत थे। आज भी दहशत में हैं, लेकिन यह भी सच है कि जो भारतीय जनता पार्टी की छत्रछाया में हैं वे पूरी तरह से सुरक्षित हैं। इस पक्षपात को लेकर तरह-तरह की बातें होती रहती हैं। आम जनता भी इस बेइंसाफी से नाखुश है।  

    अभी हाल ही में देश के पांच प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों में एक से एक तमाशे हुए। एक दूसरे को नंगा करने की जी-तोड़ कसरतें की गयीं। देशवासियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अथक भागदौड़ देखी। उनके लंबे-लंबे भाषण सुने। विपक्षी दलों के नेताओं को भाजपा के खिलाफ कम और नरेंद्र मोदी के खिलाफ अधिक दहाड़ते देखा। कांग्रेस के राहुल गांधी अपने पुराने अंदाज में बार-बार प्रधानमंत्री का अपमान करने से नहीं चूके। उनकी उत्तेजना और उग्र शब्दावली यही कहती रही कि मोदी को हटाने का यही मौका है। अब नहीं तो कभी नहीं। इस बार नरेंद्र मोदी को पराजय का स्वाद नहीं चखाया गया तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा।  

    ऐसा भी लगा कि चुनाव व्यक्तिगत शत्रुता में तब्दील हो गये हैं। इस चक्कर में नेताओं ने अपनी ही छवि की खूब धज्जियां उड़ायीं। एक जमाना था जब मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए हर राजनीतिक दल शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आपसी सद्भाव की बातें करते थे। देश से गरीबी को जड़ से मिटाने के आश्वासन दिये जाते थे, लेकिन इस बार के विधानसभा के इन चुनावों में सभी के तेवर बदले नजर आए। जो राजनेता मतदाताओं को उपहार देने और मुफ्त में विभिन्न सुविधाएं देने का प्रखर विरोध करते थे वे भी मतदाताओं को लुभाने की राह पर चल पड़े। वोटरों को लुभाने के लिए तरह-तरह की रेवड़ियां बांटने की घोषणाएं होती रहीं। मुफ्त राशन, सस्ते में बिजली, रसोई गैस और हजारों रुपये नकदी देने के ऐलान के डंके बजाते नेताओं, राजनेताओं ने देश को मतदाताओं की खरीद-फरोख्त की मंडी समझ लिया। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि मुफ्तखोरी की आदत लोगों को बरबाद कर देगी। वे मेहनत से मुंह चुराने लगेंगे। जो लोग ईमानदारी से टैक्स की राशि जमा करते हैं उन्हें आघात लगेगा। गुस्सा भी आयेगा। वैसे भी सत्ताधीशों के ऐसे तौर-तरीकों से अधिकांश देशवासी नाखुश हैं। भले ही चुप हैं, लेकिन कब तक?

    2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के पश्चात विकास कार्य नहीं हुए हैं, यह कहना कतई उचित नहीं। यकीनन बहुतेरे काम हुए, लेकिन प्राथमिकता का ध्यान नहीं रखा गया। पूर्व की सरकार के कार्यकाल में जो पुल और सड़कें वर्षों तक नहीं बन पाती थीं उन्हें देखते ही देखते देशवासियों ने साकार होते देखा है। कई नगरों, महानगरों को मेट्रो ट्रेन, वंदे भारत एक्सप्रेस की सौगात देने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कर विपक्ष की इस शंका का भी खात्मा कर दिया है कि भाजपा लंबे समय तक राम मंदिर के मामले को लटकाये रखना चाहती है। कश्मीर में भी अब पहले जैसी अराजकता नहीं। बहुत बदलाव आया है। हकीकत यह भी है कि नरेंद्र मोदी के प्रति विपक्ष के मन में अपार विष भरा पड़ा है। जनता के हित में किये जा रहे कार्यों की आलोचना करने से भी वह नहीं सकुचाता। नरेंद्र मोदी के हर फैसले में विपक्ष को खोट ही नज़र आता है। प्रधानमंत्री की आलोचना करना गलत नहीं। हर काल में होती रही है, लेकिन ऐसी नहीं, जैसी अब हो रही है। उनके प्रति स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल करना अत्यंत निंदनीय है। नरेंद्र मोदी के शासन काल में पूरे विश्व में भारत के मान-सम्मान में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। नरेंद्र मोदी का देश हित में सतत सक्रिय रहने का अंदाज भी करोड़ों भारतीयों के लिए प्रेरणास्त्रोत है। उम्मीद की डोर अभी भी नहीं टूटी है। अधिकांश भारतीयों को यकीन है कि यही जुनूनी नेता देश का कायाकल्प कर सकता है। देश में उनकी टक्कर का फिलहाल और कोई नेता नहीं, जिसे देश की बागडोर सौंप दी जाए। विपक्ष ने यह मान लिया है कि चुनाव परिणाम यदि भाजपा के खिलाफ आते हैं तो मोदी नाम के सूरज का डूबना तय है। इसलिए 3 दिसंबर की राह देखी जा रही है।

Thursday, November 23, 2023

ज़हरीले

    कालजयी फिल्म ‘आनंद’ के चिंतनशील, विख्यात निर्माता ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि वे नायक के रोल के लिए किशोर कुमार को अनुबंधित करना चाहते थे। एक दिन सुबह-सुबह वे मुंबई स्थित किशोर कुमार के निवास स्थान पर पहुंचे तो गार्ड ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया। ऋषिकेश के लिए यह हैरतअंगेज घटना थी। बाद में उन्हें पता चला कि किशोर कुमार का किसी बंगाली फिल्म निर्माता से विवाद हो गया था। इस मनमुटाव और अनबन के चलते अभिनेता और गायक किशोर कुमार ने अपने गार्ड को यह आदेश दे दिया था कि कोई भी बंगाली उनके घर में प्रवेश न करने पाए। उसे देखते ही कुत्ते उसके पीछे दौड़ा दिये जाएं। कई प्रभावी चर्चित फिल्मों के निर्माता ऋषिकेश अपने जीवन में पहले कभी इस तरह से अपमानित नहीं हुए थे। बाद में उन्होंने राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को लेकर दर्शकों के दिलों को छू लेने वाली यादगार फिल्म ‘आनंद’ का निर्माण किया। आनंद के प्रदर्शित होते ही राजेश खन्ना की खूब वाहवाही हुई। अमिताभ के नाम का भी जोरदार डंका बजा। लगभग पचास साल पहले बनी फिल्म ‘आनंद’ की आज भी चर्चा होती है। नयी पीढ़ी के दर्शकों को भी खासी पसंद आती है। अपनी सनक और बेवकूफी की वजह से ‘आनंद’ में अभिनय नहीं कर पाने की पीड़ा किशोर कुमार को उम्र भर सताती रही। सवाल यह है कि किशोर कुमार जैसे अनुभवी कलाकार ने किसी एक बंगाली व्यक्ति से मिले कटु अनुभवों का बदला लेने के लिए हर बंगाली को चोट पहुंचाने का घातक फैसला लेकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारी?

    किशोर कुमार आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके सनकीपन की कई अजब-गजब दास्तानें पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। अधिकांश सनकी अहंकारी और अपनी मनमानी करने वाले होते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने और पीड़ा पहुंचाने में उन्हें अपार आनंद और खुशी की अनुभूति होती है। अपराधियों के जाति और धर्म को खंगालने वाले कई भारतीय नेताओं में यह दुर्गुण कूट-कूट कर भरा पड़ा है। 31 अक्टुबर 1984 की सुबह जब इंदिरा गांधी की उनके दो सुरक्षा कर्मियों, बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर नृशंस हत्या कर दी थी, उसके बाद इन दोनों हत्यारों को अपराधी मानने की बजाय पूरी की पूरी सिख कौम को ही अपराधी मानते हुए हजारों निर्दोष सिखों का कत्लेआम किया गया था। इस सोच के जनक कुछ बड़े-छोटे नेता ही थे। इनकी राजनीति उकसाने, भड़काने और खून-खराबा करने के हथकंडों के दम पर ही चलती है। कोई मुस्लिम यदि कोई संगीन अपराध कर देता है, तो यह पूरी बिरादरी को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं। इस तरह के शातिर लगभग सभी धर्मों में अपना खूनी डंका बजाते देखे जाते हैं। किसी को हिंदू तो किसी को ईसाई, दलित, पारसी, बौद्ध आदि से नफरत है। ऐसे लोगों को अपने सिवाय सभी देशद्रोही लगते हैं। चुनावों का मौसम नजदीक देख कुछ बड़ी-बड़ी शख्सियतें अपना आपा खोने लगती हैं। उनके उग्र तेवर हैरान-परेशान करने लगते हैं। इन दिनों कुछ राजनेता अपने ही चेहरे के नकाब नोचने में लगे हैं। उनकी जुबान मदारी की तरह डुगडुगी बजा रही है। वे भूल गये हैं कि बात दूर तक जाती है। बात बारूद बन जाती है। छवि को तहस-नहस कर देती है, लेकिन उन्हें कोई चिंता नहीं। उन्हें तो बस वोटों की फसल उगानी है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होना है। इसलिए गंदे खेल के खिलाड़ी बने हुए हैं। अपने ही आसपास के लोगों की आस्था पर कीचड़ फेंक रहे हैं। उन्हें निरंतर उत्तेजित कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के एक नेता हैं स्वामी प्रसाद मौर्य, जिन्होंने हिंदुओं को आहत करने की राह पकड़ ली है। जब देखो तब देवी-देवताओं पर अभद्र विषैले बयान देकर करोड़ों हिंदुओं की आस्था का मज़ाक उड़ाते देखे जा रहे हैं। ऐन दीपावली के मौके पर इस बदहवास नेता ने कहा कि चार हाथ, आठ हाथ, बीस हाथ वाला बच्चा आज तक पैदा नहीं हुआ। ऐसे में चार हाथ वाली लक्ष्मी कैसे पैदा हो सकती है? हिंदू धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों पर शर्मनाक शब्दावली का इस्तेमाल करते चले आ रहे स्वामी प्रसाद मौर्य की निगाह में हिंदू का मतलब हैं, चोर, नीच और अधर्मी। इस बकवासी ने कुछ माह पूर्व रामचरित मानस को लेकर कहा था कि कई करोड़ लोग रामचरित मानस नहीं पढ़ते। इसे तो तुलसीदास ने अपनी खुशी के लिए लिखा है। भगवान राम और रामराज को लेकर भी यह बौखलाया नेता सवाल खड़े करता रहता है। यह अकेला नहीं। कुछ और भी है, जिनकी हिंसक मंशा उन्हें बेलगाम किए है। बीते महीने तामिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे डीएम के नेता उदय निधि स्टालिन ने सनातन धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया और मच्छर से करते हुए उसके उन्मूलन की बात की थी।  

    बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं, लेकिन अपनी जुबान पर ही उनका कोई नियंत्रण नहीं है। बिहार विधान सभा के भीतर महिला जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर स्त्री-पुरुष यौन संबंधों को लेकर उन्होंने जो अशोभनीय विचार व्यक्त किए और इशारे बाजी की, उससे तो यही निष्कर्ष निकला कि इनके मन-मस्तिष्क में संभोगशास्त्र, कोकशास्त्र और वासना का सैलाब भरा पड़ा है। जिस नेता से हम पढ़ा-लिखा समझते थे वह तो बेशर्म और बेवकूफ है। हद दर्जे का महिला विरोधी है। बदकिस्मती यह देश के विशाल प्रदेश बिहार का मुखिया है। दरअसल, यह तो चपरासी बनने लायक भी नहीं है। इसी की तर्ज पर राजस्थान के एक नेता भरे मंच पर यह कह गए कि हमारा प्रदेश मर्दों का प्रदेश है, जहां बलात्कार होना स्वाभाविक है। दरअसल कुछ लुच्चे और टुच्चे चेहरे है, जो देश का वातावरण बिगाड़ने पर तुले हैं। वे इस शांतिप्रिय देश में अश्लीलता, हिंसा और नफरत फैलाने के जबरदस्त मंसूबे पाले हुए हैं। वे भारत की नस-नस में ज़हर घोलना चाहते हैं। ऐसे में हमारा बस यही दायित्व और कर्तव्य है कि इनकी सुनना बंद करें। इनको चुनने की कतई भूल न करें।

Thursday, November 16, 2023

कलंक

    स्कूल कॉलेज किस लिए हैं? घर, परिवार की नींव आखिर क्या सोचकर रखी गई होगी? विद्वानों के द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथों में रिश्तों के मान-सम्मान की किसी भी हालत में रक्षा करने की सीख निरर्थक है? मेरे मन में यह विचार और सवाल तब आंधी की तरह चलने लगे जब मैंने इन खबरों को पढ़ा : हरियाणा में स्थित जींद जिले के एक सरकारी स्कूल की 50 से अधिक नाबालिग छात्राएं इंसाफ की मांग कर रही हैं। उनका कहना है कि स्कूल के प्रिंसिपल ने उनका यौन उत्पीड़न किया है। उन्हें अनेक बार अपमानित किया है। वासना की आग में झुलसते इस देह रोगी प्रिंसिपल के दुष्कमों का काला-चिट्ठा छात्राओं ने पुलिस तक भी पहुंचाया, लेकिन बड़ी मुश्किल से मामला दर्ज हो पाया। बालिकाओं का दुष्कर्मी पर आरोप है कि वह उन्हें अपने कार्यालय में बुलाता था और अश्लील हरकतें करता था। विरोध करने पर स्कूल से निकालने की धमकी देता था। इतना ही नहीं उनके फोन पर कॉल कर ऐसी गंदी-गंदी बातें करता था, जिन्हें बयां करने में उन्हें बेहद शर्म आती है। प्रिंसिपल की निहायत ही शर्मनाक हरकतों का सारा चिट्ठा राज्य महिला आयोग तक पहुंचा तो वासना की आग में तपते मर्यादाहीन लंपट की और भी कई शर्मनाक करतूतों का पता चला। हर किसी को स्तब्ध करने वाली यह हकीकत भी सामने आयी की एक महिला शिक्षिका भी अय्याश प्रिंसिपल की साथी की भूमिका में थी। उसके बचाव के लिए उसने अपनी सारी नैतिकता को सूली पर टांग दिया था। यह बिक चुकी नारी, लड़कियों को अपने बयान वापस लेने और चुप्पी बनाये रखने के लिए धमकाती थी। इतना ही नहीं कुछ अज्ञात बदमाशों से भी फोन करवा कर बदनाम करने और उठवाने की धमकियां दिलवाती थी। 

    देश के नामी-गिरामी विश्वविद्यालय के प्रांगण में एक छात्रा को वस्त्रहीन करने की कोशिश की गई। उसके पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में कई दिनों तक छात्राओं के आक्रोश से सराबोर नारे गूंजते रहे। कई दिनों तक अखबारों और न्यूज चैनलों से यह खबर खतरे की घंटी बनकर गूंजती रही। विश्वविद्यालय के परिसर में ही तीन बाइक सवार बदमाशों ने एक छात्रा के साथ अत्यंत ही अश्लील तरीके से छेड़छाड़ कर सुरक्षा व्यवस्था को एक बार फिर से ठेंगा दिखा दिया। कई मनचलों ने, छात्राओं का चलना-फिरना हराम कर रखा है। वे बेखौफ होकर छात्राओं का रास्ता रोक लेते हैं और उनके जिस्म से खिलवाड़ करने लगते हैं। ये नकाबपोश गुंडे बाइक पर सवार होकर इतनी तेजी से आते हैं। छात्राएं उन्हें पहचान ही नहीं पातीं। विश्वविद्यालय की सुरक्षा को तार-तार करने वाले अपराधी शोहदों के आतंक से डरी-सहमी छात्राएं सवाल कर रही हैं कि महिला सुरक्षा के बड़े-बड़े दावे करने वाले आखिर कहां हैं? 

    ऐन दिवाली के शुभ अवसर पर एक जुआरी ने जीभरकर जुआ खेला। उत्तरप्रदेश में दिवाली के दिन हर वर्ष की तरह कुछ जुआरियों ने बड़े जोशो-खरोश के साथ जुए की महफिल सजायी। ताश के रंगीन पत्तों के साथ शराब की बोतलों के ढक्कन भी खुले। हार-जीत जुए का नियम है। जो हारते गये वे अपने-अपने ठिकानों की ओर खिसकते गये। उन्हीं की जगह नयों का आना-जाना लगा रहा। इस महफिल में एक जुआरी ऐसा भी था, जो पूरी तरह से खाली होने के बाद भी उठने को तैयार नहीं था। जीत की उम्मीद में उसने अपनी घड़ी और सोने की अंगूठी दांव पर लगा दी थी। तभी उसे किसी साथी ने पत्नी को दांव पर लगाने के लिए उकसाया तो नशे में धुत उस शख्स ने अपनी पत्नी की मोटी कीमत तय करते हुए उसे भी दांव पर लगाने में देरी नहीं की, लेकिन उस रात जीत उसकी किस्मत में नहीं थी। इस आखिरी दांव ने भी उसका साथ नहीं दिया। लड़खड़ाते हुए जैसे ही वह अपने घर पहुंचा तो उसके पीछे-पीछे चार-पांच बदरंग विजयी चेहरे भी वहां पहुंच गये और उसकी पत्नी को जबरन उठा कर चलते बने। नींद के आगोश में होने के कारण उसे कुछ भी समझ में नहीं आया। पति हाथ बांधे देखता रहा। तीन दिनों तक वह बंधक बनी रही। उसे जबरन शराब पिलायी गई। शराब में नींद की गोलियां मिलाने के कारण वह गहरी नींद में चली गई। इस दौरान उसके साथ क्या हुआ होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। कई मर्दों की घिनौनी कामुक देह से पता नहीं कितनी बार लुटी-पिटी इस नारी ने किसी तरह से अपने भाईयों तक खबर भिजवायी तो उन्होंने 2 लाख रुपये देकर अपनी बहन को छुड़ाया। जब उसे घर लाया गया तब भी उस पर नींद की गोलियां और शराब हावी थी।

Friday, November 10, 2023

ये नया दौर है...?

    ऐसे लोगों से आपका भी मिलना-मिलाना होता रहता होगा, जो मेहनत से मुंह चुराते हैं। अनुशासन में रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। समय की पाबंदी से भी चिढ़ते हैं। नौकरी करते हैं, लेकिन किसी की नहीं सुनते। कुर्सी पर टिक कर अपना दायित्व निभाने की बजाय उन्हें गप्पें मारने में ज्यादा मज़ा आता है। सरकारी कार्यालयों में ऐसे एक से एक कामचोर भरे पड़े हैं, जिन्होंने मान और ठान लिया है कि बड़ी किस्मत से सरकारी नौकरी मिली है। काम करें या ना करें, वक्त पर दफ्तर जाएं या ना जाएं और कैसे भी समय बिताएं, हमारी मर्जी। कौन पूछने वाला है? सरकारी नौकरी से कोई बाहर तो कर ही नहीं सकता। ऐसे में जी भरकर मौज-म़जे करने में क्या हर्ज है? अपने देश में सरकारी कार्यालयों की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है। अधिकांश कर्मचारी और अधिकारी तीन-चार घंटें भी टिक कर काम नहीं करते। बार-बार इधर-उधर होते रहते हैं। निजी कार्यालयों, कारखानों और संस्थानों के कई मालिक ऐसे कामचोर, आराम परस्त कर्मचारियों और सहयोगियों से बहुत परेशान रहते हैं, जो हमेशा महंगाई का राग अलापते हुए तनख्वाह बढ़ाने की मांग तो करते रहते हैं, लेकिन मन से काम नहीं करते। मालिक जब-तब उन्हें चेताते रहते हैैं कि कभी अपने काम का भी हिसाब लगा लिया करो। दस बजे ड्यूटी पर आने की बजाय कभी ग्यारह तो कभी बारह बजे आते हो। मुश्किल से एक घंटा टिक कर काम करते हो और मौका पाते ही चाय और गप्पबाजी के लिए बाहर निकल जाते हो। हर वक्त घड़ी पर नजरें गढ़ाये रहते हो। कब छह बजें और नौ दौ ग्यारह हो जाऊं। तुम्हारे जैसे कामचोरों के कारण हमारी हालत बिगड़ रही है। ऐसे में तनख्वाह बढ़ाने की मांग करने की बजाय तुम यहां से चलते बनो या फिर अपनी आदत को सुधार लो। 

    समय की बर्बादी करने वाले ऐसे मुफ्तखोरों को प्राइवेट नौकरी रास नहीं आती। उनकी आत्मा सरकारी नौकरी के लिए भटकती और तड़पती रहती है। लाख कोशिशों के बाद भी जब सरकारी नौकरी नहीं मिलती तभी प्राइवेट संस्थान की शरण लेते हैं। सतत नज़र रखने और टोका-टाकी करने वाले मालिकों की पीठ पीछे बुराई करने में कामचोरों को महारत हासिल होती है। उन्हें यह कहने में भी शर्म नहीं आती कि मालिक उन्हीं के खून-पसीने के श्रम की बदौलत मालदार बन दुनिया भर के मज़े लूट रहे हैं। प्राइवेट कंपनियों में परिश्रमी और वक्त के पाबंद, अनुशासित कर्मचारी हमेशा सम्मान के साथ-साथ अच्छी पगार भी पाते हैं। निकम्मों और मुंहजोरी करने वालों को ज्यादा झेला नहीं जाता। उनकी नाटक-नौटंकी की पोल खुलने में भी ज्यादा देर नहीं लगती। प्राइवेट संस्थानों के दूरदर्शी संचालक परिश्रमी और महत्वाकांक्षी कर्मचारियों को हर हाल में अपने साथ जोड़े रखना चाहते हैं। 

    देश और दुनिया की जानी-मानी शख्सियत, इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, कर्म और परिश्रम को ही वास्तविक पूजा मानते हैं। उन्हें इस बात की अत्यंत चिंता है कि आज के भारत के युवाओं में पूरे तन-मन के साथ परिश्रम करने की जिद नहीं है। वे सुख-सुविधाओं के घेरे से बाहर आना नहीं चाहते। उन्हें काम कम और छुट्टियां मनाना अधिक भाता है। यही वजह है कि भारत की कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है। चीन के लोगों की कार्यक्षमता और उत्पादकता ने ही उसे शीर्ष पर पहुंचाया है। भारत के युवा यदि हर दिन 10 घंटे यानी सप्ताह में 70 घंटे जी-जान से काम करेंगे तभी भारत विकसित राष्ट्र बनने के साथ-साथ चीन का मुकाबला कर पायेगा। विद्वान और अनुभवी नारायण मूर्ति ने सरकारी कामकाज के उन तौर-तरीकों पर भी तंज कसा है, जिनकी वजह से देश के विकास की गाड़ी तेजी से नहीं चल पा रही है। लेटलतीफी और आलस्य अधिकांश भारतीयों की आदत में शुमार है। भारतीय कामगार ढाई घंटे में जितना काम करते हैं, यूरोप और अमेरिका के कामगार उतना काम मात्र एक घंटे से भी कम समय में करने में सक्षम हैं। उनमें अपने काम के प्रति लगन और ईमानदारी कूट-कूट कर भरी होती है, जो उन्हें तथा उनके देश को खास प्रतिष्ठा दिलवाती है। यह कहना और सोचना भी गलत है कि अपने भारत देश में दूसरे देशों की तुलना में कम स्वस्थ लोग हैं, जिसकी वजह से हम पिछड़े हुए हैं। सच तो यही है कि अपने यहां के स्वच्छ सेहतमंद प्राकृतिक वातावरण की तुलना किसी भी देश से नहीं की जा सकती, लेकिन यहां के युवाओं को भटकाने वाली ताकतें लगातार भिन्न-भिन्न तरीकों से गुमराह कर रही हैं। युवाओं को भी लगता है कि छुट्टियां मनाने तथा नशे में डूब जाने में जो सुख है, वह और कहीं नहीं। शराब, अफीम, हेरोइन, कोकीन जैसे घातक नशों के बाद अब तो हमारे यहां के युवा सांप के ज़हर को भी ड्रग की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। सच कहें तो अभी तक हमें तो यही पता था कि सांप का काटा मुश्किल से बच पाता है। जब पहली बार अखबार में खबर पड़ी तो विचार पर विचार आते रहे। जिस ज़हर से लोगों को मरते देखा है उसमें क्या वाकई नशा हो सकता है? कुछ नशेड़ियों से बात की तो जाना कि नशे के लती सांप के फन से जबरन जहर निकाल कर उससे नशा करते हैं। कभी-कभी तो सीधे कटवा भी लेते हैं। इससे उन्हें ‘हार्ई’ मिलता है। हार्ई यानी एक अत्यंत उत्तेजक अवस्था, जिसमें कोई सुध-बुध नहीं रहती। गोली की शक्ल में दो हजार से पांच हजार तक सांपों के ज़हर के विष की गोली रेव पार्टियों में नशेड़ियों को मांग और पार्टी के हिसाब से आसानी से मिल जाती है। यह ड्रग लोगों की जान भी ले रहा है। फिर भी लत तो लत है। जो एक बार लगी तो पीछा नहीं छोड़ती। अभी हाल ही में सांप के ज़हर के नशे की पार्टी में जब छापा पड़ा तो कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी नशे में झूमते-गिरते-पड़ते देखे गये, जिनसे दूसरों को नशे से होने वाले घालक नुकसानों से अवगत कराने की उम्मीद की जाती है। लेकिन...? ये तो खुद नशे के गुलाम हैं। नारायण मूर्ति ने जैसे ही देशवासियों को हफ्ते में 70 घंटे काम कर देश की प्रगति में योगदान देने का सुझाव दिया तो कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के तन-बदन में आग लग गई। ये धड़ाधड़ बयानबाजी के नुकीले तीर चलाने लगे: यह नारायण मूर्ति तो हर दर्जे का स्वार्थी पूंजीपति है, जो युवाओं की सुख-शांति छीनकर अपनी तिजोरियों का वजन बढ़ाना चाहता है। देश के युवा कोई मशीन तो नहीं, जो दिन-रात अपना खून-पसीना बहाते रहें। उन्हें भी आराम चाहिए, लेकिन यह पूंजीपति अधिक से अधिक उनका खून चूसने को आतुर हैं। इसलिए प्रतिदिन दस घंटे काम करने पर जोर दे रहे हैं। बात का बतंगड़ बनाना इन तथाकथित बुद्घिजीवियों को खूब आता है। उन्हें बुलंदी पर पहुंची शख्सियतों की मेहनत नहीं दिखती। नारायण मूर्ति, अंबानी, अडानी और टाटा आदि-आदि ने अपने अटूट परिश्रम के दम पर आर्श्चजनक उपलब्धियां हासिल की हैं और अपार धन भी कमाया है। सभी उद्योगपतियों के यहां लाखों कर्मचारी काम करते हैं। जितने रोजगार यह उद्यमी उपलब्ध करवाते हैं उतने तो सरकारें भी नहीं करवा पातीं। अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहां किसी भी क्षेत्र में जाकर अपनी काबिलियत दिखाने की पूरी आज़ादी है। इतिहास गवाह है कि जिनमें जोखिम लेने और कुछ कर गुजरने का जुनून रहा है, वही अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचे हैं। किसी पर भी पूंजीपति तथा शोषक होने का आरोप लगाना खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे की कहावत को चरितार्थ कर अपने ही मुुंह पर कालिख पोतना है। 

    इस सदी के मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली की ग़जल की इन पंक्तियों के साथ आप सभी को दीपावली और नववर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं...

‘‘सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो

सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहां बदलती हैं

तुम अपने आपको खुद ही बदल सको, तो चलो...।

यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता

मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो...।’’

Thursday, November 2, 2023

अखबार

    हर कोई मोटी-मोटी किताबें नहीं पढ़ सकता। वेद-पुराण और महान ग्रंथ भी सभी के पढ़ने में नहीं आते। जो कम-ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, उनमें से अधिकांश हमेशा या कभी-कभार अखबार तो पढ़ ही लेते हैं। न्यूज चैनलों की खबरें भी अधिकांश लोगों तक तेजी से पहुंच जाती हैं। सजग पाठकों और दर्शकों की यह शिकायत भी है कि, अधिकांश न्यूज चैनल और अखबार राजनीति और अपराध की खबरों से विचलित और भ्रमित करते रहते हैं। फिर भी सोशल मीडिया के इस प्रलयकारी दौर में समाचार पत्रों में कुछ खबरें ऐसी पढ़ने को मिल ही जाती हैं, जो प्रेरणा के दीप जलाते हुए यह भी कह जाती हैं कि अखबार भी किसी ग्रंथ से कम नहीं। इन्हें ध्यान से पढ़ोगे तो बहुत कुछ नया जानने को मिलेगा। यह जरूरी तो नहीं कि नकारात्मक खबरों पर नजरें गढ़ायी जाएं और अपना दिन खराब किया जाए। सभी समाचार पत्रों में हर दिन एकाध ऐसी खबर तो अवश्य होती है, जो हालातों से कभी न घबराने और संघर्ष के पथ पर बढ़ते चले जाने की प्रेरणा देती है। कुछ खबरें तो मन-मस्तिष्क पर जड़े तालों को खोलती हैं। अपने सपनों को साकार करने के लिए जहां चलना और लड़ना बहुत जरूरी है, वहीं साथ, सहयोग और प्रेरणा का होना भी किसी जादूई चिराग से कम नहीं होता। 

    27 साल के महत्वाकांक्षी अरुण ने एमबीबीएस की पढ़ाई पूर्ण कर ली थी। स्नातकोत्तर की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के साथ वह एक निजी संस्थान में मेडिकल ऑफिसर के तौर पर कार्यरत था। इसी दौरान एक सड़क दुर्घटना में उसकी रीढ़ की हड्डियां बुरी तरह से टूट गईं। घर के आर्थिक हालातों के चिंताजनक होने के कारण समय पर समुचित इलाज संभव नहीं हो पाया। कमर के नीचे के हिस्से के निष्क्रिय हो जाने की वजह से दो साल तक बिस्तर पर रहना पड़ा। अपाहिज होने के बावजूद भी अरुण ने हौसले का दामन मजबूती से थामे रखा। कालांतर में अरुण व्हीलचेयर पर बैठने तो लगा, लेकिन चलना-फिरना मुश्किल था। फिर भी उसने स्नातकोत्तर की प्रवेश परीक्षा पास की, जिससे रेडियोलॉजी विशेषज्ञ के लिए उसे प्रवेश मिला। अपने भविष्य को संवारने के जुनून के साथ जब वह व्हीलचेयर पर मेडिकल कॉलेज पहुंचा तो रेडियोलॉजी विभाग प्रमुख समेत सभी वरिष्ठ अधिकारी उसकी स्थिति को देखकर चिंतित हो गए। उनके मन में विचार आया कि आखिर रेडियोलॉजी जैसे चुनौतीपूर्ण पाठ्यक्रम को वह व्हीलचेयर के सहारे कैसे पूरा कर पायेगा? कभी इस विभाग तो कभी उस विभाग जाने में कठिनाई के साथ-साथ इसका काफी समय बरबाद होगा। अरुण के आकाश से धैर्य, उत्साह, लगन और जुनून को देखते हुए विद्यार्थी कल्याण निधि से उसे एक ऑटोमेटिक व्हीलचेयर उपलब्ध करवा दी गई है। मेड-इन-मूव नाम की इस चेयर से अरुण का कहीं भी तीव्रता से जाना-आना आसान हो गया है। हमारी इस दुनिया में साथ और सहायता का हाथ बढ़ाने वालों की कमी नहीं है।

    उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में न्यूरोसर्जन डॉ. प्रकाश खेतान ने जब देखा कि उनकी 18 वर्षीय बिटिया मेडिकल प्रवेश की परीक्षा से घबरा रही है। उसकी हिम्मत जवाब दे रही है, तो उन्होंने अपने पेशे में अति व्यस्त होने के बावजूद अपनी बेटी के साथ न केवल नीट की तैयारी की, बल्कि 2023 में यह परीक्षा भी दी। पिता को 89 प्रतिशत तो बेटी को 90 प्रतिशत अंक मिले। डॉ. खेतान ने बेटी के भय और मायूसी को दूर करने के लिए तीस साल बाद फिर मेडिकल प्रवेश की परीक्षा देकर बेटी के भविष्य को संवारने में योगदान दिया। उस पर कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यह कौन सा बड़ा काम है! अपनी संतान के लिए तो सभी मां-बाप त्याग करते ही हैं, लेकिन प्रश्न है कि कितने पिता बेटी के लिए ऐसी राह चुनते हैं? डॉ. प्रकाश का इस पहल के लिए वंदन और अभिनंदन। अभिनंदनीय और वंदनीय तो न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णनन भी हैं, जिन्होंने बड़े उदार और खुले मन से कहा है कि कोर्ट न्याय का मंदिर है, लेकिन जज भगवान नहीं हैं। वह बस केवल अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों का पालन कर रहे हैं। इसलिए याचिकाकर्ताओं या वकीलों को उनके सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए। दरअसल हुआ यूं कि जस्टिस पीवी कुन्हीकृष्णनन एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। इसी दौरान एक महिला याचिकाकर्ता हाथ जोड़कर उनके सामने गुहार लगाते हुए फूट-फूट कर रोने लगी। निश्चय ही वह किसी के अन्याय की शिकार थी। कोर्ट के चक्कर और दुखड़ा सुनाते-सुनाते थक चुकी थी। वकीलों की फीस ने भी उसे हैरान और परेशान कर दिया होगा। फिर भी न्याय की आस नहीं जगी होगी। इसलिए उसने बड़ी हिम्मत कर जज साहब के समक्ष मुंह खोला होगा और उन्होंने भी अपनी उदारता की जो तस्वीर पेश की वैसी कम ही देखने को मिलती है। आम आदमी जज के सामने जाने से घबराते हैं। उनके समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त करना आसान नहीं होता। वकील भी आड़े आ जाते हैं। अपने तरीके से डराते हैं। जब इन पंक्तियों को लिखा जा रहा था तभी अखबार में प्रकाशित इस खबर पर मेरी नज़र पड़ी, ‘‘न्यूजीलैंड सरीखे छोटे देश में वहां के न्याय मंत्री को अपने पद से इस्तीफा इसलिए देना पड़ा, चूंकि उन्होंने हद से ज्यादा नशे की हालत में वाहन चलाते हुए एक खड़ी कार को टक्कर मार दी थी। टक्कर के बाद मंत्री को गिरफ्तार कर रात भर पुलिस स्टेशन में बिठाये रखा गया और सुबह घर जाने दिया गया।’’ ज़रा सोचिए, कल्पना तो कीजिए यदि भारत में ऐसा होता तो क्या होता? मंत्री को दबोचने वाला बेचारा पुलिस वाला ही अपनी वर्दी उतरवा बैठता। सज़ा तो बहुत दूर की बात की है...। अपने यहां तो कानून-कायदों का मज़ाक कानून के रखवाले ही उड़ाते देखे जाते हैं। यदि दोषी पहुंचवाला है तो उसे सलाम और आम आदमी की हर जगह बेइज्जती और अंधाधुंध मार-कुटायी और ऐसी की तैसी...।