Thursday, December 28, 2017

बोना और पाना

विचारक कहते हैं कि अधिकांश लोग जीवन पर्यंत सकारात्मक सोच से रिश्ता ही नहीं जोड पाते। वे खुद से ही अनभिज्ञ रहते हैं। उन्हें अपनी ताकत का पता ही नहीं चल पाता। इतिहास साक्षी है कि मनुष्य के संकल्प के सम्मुख अंतत: हर विपत्ति घुटने टेक देती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ लोग विपरीत हालातों के समक्ष खुद को बेहद बौना मान लेते हैं। ऐसे लोगों को किसी लोकलाज और मर्यादा का भान नहीं रहता। २०१७ के नवंबर महीने की २० तारीख को एक तेरह वर्षीय बच्चे को नई दिल्ली के अशोका होटल में एक विदेशी युवती के बैग को चुराने के आरोप में पकडा गया। बैग में १३०० यूएस डॉलर, चार लाख रुपये समेत १५ लाख का सामान था। बच्चे ने पूछताछ में बताया कि वह अपनी दादी की सीख और निर्देश पर होटलों में होने वाली शादियों व पार्टियों में चोरी करता था। ६२ वर्षीय दादी ने स्वीकार किया कि वह अपने पोते को होटलों में सूट-बूट पहना कर भेजती थी। अभी तक वह पोते से चोरी की कई वारदात करवा चुकी है। दादी के पास से लाखों रुपये बरामद किए गये। अपने पोते को चोरी करने का पाठ पढाने वाली दादी का कहना है कि गरीबी और बदहाली ने उसे ऐसा करने को विवश कर दिया। उसके पास और कोई चारा ही नहीं था। जो लोग सोच-समझकर ईमानदारी के साथ हाथ पैर हिलाये बिना धनवान बनने और अपनी तमाम समस्याओं से मुक्ति पाना चाहते है उनके पास इस किस्म के बहानों का भंडार होता है। जिन्हें सही डगर चुननी होती है, वे चुन ही लेते हैं। उन्हें कोई बहाना और लालच नहीं जकड पाता। सोचने और समझने की ललक से आंखें खुलती हैं। फिर भी कुछ लोग अंधेरे में रहना पसंद करते हैं। हत्यारे और काले कारोबारी दाऊद इब्राहिम के नाम से दुनिया वाकिफ है। इस कुख्यात माफिया सरगना ने गलत रास्तों के जरिए अरबों-खरबों की दौलत जमा कर ली है, लेकिन आज उसे इस बात की चिन्ता सता रही है कि उसकी संपत्ति का वारिस कौन होगा क्योंकि उसका एकमात्र बेटा धर्म की राह चुनकर मौलाना बन गया है। उसे दाऊद का काला कारोबार रास नहीं आया। वह ईमानदारी की राह पर चलने का पक्षधर है। अरबों-खरबों के धन का मालिक होने के बावजूद पिता के कभी भी चैन से न सो पाने के सच ने बेटे की आंखें खोल दीं। वह अंडरवर्ल्ड डॉन का घर छोड मस्जिद प्रबंधन द्वारा दिये गए घर में रहने चला गया है।
नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की रेसलर (कुश्ती की खिलाडी) हैं। दोनों बहनों को इस उल्लेखनीय उपलब्धि का हकदार बनाने में उनकी मां लक्ष्मी देवी के संघर्ष का ही एकमात्र योगदान है। १९९३ में जमीन विवाद में लक्ष्मी देवी के पति की दबंगों ने हत्या कर दी। उत्तरप्रदेश में ऐसी हत्याएं होना आम बात है। गुंडे-मवाली कानून को अपनी जेब में रखते हैं। पुलिस वालों से दोस्ती गांठकर तरह-तरह के अपराधों को अंजाम देने के साथ-साथ असहायों की संपत्ति पर कब्जा करने को लालायित रहते हैं। धनवान हत्यारों को जमानत पर जेल से बाहर आने में ज्यादा समय नहीं लगा। बेटियां छोटी थीं। लक्ष्मी देवी को बदमाशों ने इस कदर डराया-धमकाया कि उन्हें अपना गांव छोडकर बरनावा के पास संतनगर में शरण लेनी पडी। मां और बेटियों के पास तब एक फूटी कौडी भी नहीं थी। रहने का भी कोई इंतजाम नहीं था। एक खाली पडी सुनसान जगह पर उन्होंने प्लास्टिक की बोरियों और पॉलीथिन की मदद से झोपडी बनाई और रहना प्रारंभ किया। शैतानों ने यहां भी पीछा नहीं छोडा। धमकाने और डराने का सिलसिला बरकरार रखा। अपनी बेटियों की चिन्ता ने विधवा मां की नींद उडा दी थी। दिन-रात उनकी सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहती। वह चौबीस घण्टे उनके साथ तो नहीं रह सकती थी। ऐसे में उसने उन्हें सक्षम बनाने के लिए पहलवान बनाने की ठानी। यही एक रास्ता था जो बेटियों को मानसिक और शारीरिक मजबूती प्रदान कर सकता था। दृढ निश्चयी मां ने पहले बडी बेटी नीलम को अखाडे भेजा। नीलम ने अखाडे में धोबी पछाड लगाना शुरू कर दिया। बडी बहन की देखा-देखी छोटी बहन मेघना भी अखाडे जाने लगी। गांव से बारह किसी दूर अखाडे में दोनों बहने छह घण्टे अभ्यास करने लगीं। उन्होंने अपने बाल कटवा लिए और लडकों की तरह रेसलिंग की ड्रेस में नजर आने लगीं तो पंचायत को यह बात नागवार गुजरी। नीलम और मेघना का आंख से आंख मिलाकर समाज का सामना करने से गांव के लोगों ने उनसे बातचीत तक बंद कर दी।
"यह दुनिया झुकने वालों को और दबाती है। हतोत्साहित करती है।" मां ने बेटियों को पहले से ही इस सच से अवगत करा दिया था। आखिरकार मां और बेटियों की हिम्मत, लगन और मेहनत रंग लायी। नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की कुश्ती खिलाडी हैं। नीलम ने छह बार स्टेट लेवल पर गोल्ड मेडल जीता है। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में छह पदक जीतने वाली मेघना के भी हौसले बुलंद हैं। उसे पिछले वर्ष राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिल चुका है। दोनों बहनों का आज भी संघर्ष जारी है। नीलम स्नातक कर रही हैं और मेघना स्नातक कर चुकी हैं। दोनों बहनों का कहना है कि अगर कुछ संसाधन मुहैया हो जाएं तो वे एक दिन देश के लिए जरूर खेलेंगी।
हमेशा संघर्षरत रहीं मां लक्ष्मी अब पूरी तरह से निश्चिंत हो चुकी हैं। उन्होंने बेटियों को जो बनाना चाहा उसमें सफल होने के बाद उनकी बस यही तमन्ना है कि बेटियों को कोई अच्छी-सी नौकरी मिल जाए तो भविष्य और सुरक्षित हो जाए। आज भी बेटियों के चेहरे पर वो तेज, दृढता और स्वाभिमान की चमक नजर आती है जो उनकी मां की पहचान रही है। गांव के जन-जन को भी आज इन बेटियों पर गर्व हैं। अपनी इस दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जो यह मानते हैं कि पैसा ही सबकुछ है। जितना अधिक धन उतनी अधिक खुशियां। लेकिन यह सच नहीं है। अमेरिकी शोधकर्ताओं ने एक गहन अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि जैसे-जैसे व्यक्ति की कमायी बढती चली जाती है, वो स्वार्थी बनता चला जाता है। वहीं दूसरी तरफ कम कमायी वाले लोग ज्यादा खुश रहते हैं और दूसरों के साथ उनके संबंध प्रगाढ और मधुर होते हैं। खुशहाली का पैसों से कोई लेना-देना नहीं है। धन से आप दुनियाभर की चीजें खरीद सकते हैं, लेकिन अपनों के प्रति प्रेम और अपनी भावनाएं जो आपको खुश रख सकें उन्हें नहीं खरीदा जा सकता। अध्ययन में यह भी सामने आया कि कम कमायी वाले लोग अधिक सकारात्मक होते हैं। ईश्वर पर उनकी श्रद्धा अधिक होती है। वे स्वार्थी नहीं होते। दूसरों की भी चिंता करते हैं। यही सब बाते उन्हें वास्तविक खुशी प्रदान करती है। पंजाब के चंडीगढ में रहते हैं जगदीशलाल आहूजा। उनकी उम्र है ८३ वर्ष। वे पिछले कई वर्षों से गरीबों को खाना खिलाते चले आ रहे हैं। यही उनके जीवन का एकमात्र मकसद है। इसी में उन्हें अपार खुशी और संतुष्टि मिलती है। उनका बचपन बहुत ही संघर्षमय रहा। खेलकूद की उम्र में शहर की सडकों और गलियों में नमकीन, टॉफी, फल आदि बेचे। जब इक्कीस साल के थे तब पंद्रह रुपये की पूंजी से फल का व्यापार आरंभ किया। मेहनत रंग लायी और धंधा ऐसा चला कि कुछ ही वर्षों में करोडों में खेलने लगे। जिन्दगी बडे मजे से कटने लगी। अपने पुत्र के आठवें जन्मदिवस पर गरीब बच्चों को लंगर खिलाने का विचार आया। लंगर में करीब डेढ सौ बच्चों ने खाना खाया। जगदीशलाल को वो दिन भुलाये नहीं भूलता। बच्चों के चेहरे की चमक बता रही थी कि उन्हें पहली बार अच्छा खाना नसीब हुआ है। उस दृश्य को देखकर जगदीशलाल को अपना वो संघर्ष भरा बचपन याद आ गया, जब कई रातें भूखे पेट सोना पडता था। उन्होंने उसी पल निश्चय कर लिया कि बहुत हो गया धन कमाना, अब तो जरूरतमंदों की सेवा को ही अपने जीवन का एकमात्र मकसद बनाना है। उन्होंने अस्पताल के बाहर अपना लंगर कार्यक्रम शुरू कर दिया। हर दिन एक निश्चित समय पर अस्पताल के गेट के सामने खाना लेकर पहुंचने लगे। इस सेवाकार्य में अडचनें भी आयीं। यहां तक कि संपत्ति भी बेचनी पडी, लेकिन पिछले कई वर्षों से एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन उन्होंने गरीबों को खाना नहीं खिलाया हो। उनकी उम्र बढती चली जा रही है, लेकिन लंगर खिलाने की इच्छाशक्ति में जरा भी कमी नहीं आयी है। शहर के लोग बडे सम्मान के साथ उन्हें 'लंगर वाले बाबा' के नाम से पुकारते हैं।

Thursday, December 21, 2017

उन्माद और आतंक की तस्वीर

चित्र-१ : देश की राजधानी में स्थित जैतपुर इलाके में एक शादीशुदा युवक सत्रह वर्षीय हिन्दु लडकी को बहला-फुसलाकर भगा ले गया। धर्म जागरण और हिन्दू मंच आदि संगठन फौरन सक्रिय हो गये। उन्होंने पुलिस से कडी कार्रवाई किए जाने की मांग की। ढिलायी बरते जाने पर तीव्र आंदोलन चलाने की धमकी दी। युवक बिहार के मधुबनी जिले का रहने वाला है। हिन्दू मंच का कहना है कि हिन्दू लडकी को शादीशुदा युवक सोची समझी साजिश के तहत लेकर भागा है। यह मामला सीधे-सीधे 'लव जिहाद' का है। यह पहला मामला नहीं है। ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें हिन्दू नाबालिग लडकियों को मुस्लिम युवक फुसलाकर अपने साथ लेकर फरार हो गए। उनमें से अधिकांश लडकियां आज भी अपने घर नहीं लौटी हैं।
चित्र - २ : छह दिसंबर २०१७ को राजस्थान के राजसमंद जिले में पश्चिम बंगाल निवासी अफराजुल की हत्या कर शव जला दिया गया। हत्यारे शंभूलाल रैगर ने घटना का विडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जिसमें वह लव जिहाद के खिलाफ बयानबाजी करता नजर आया। शंभूलाल के द्वारा की गई इस खौफनाक हत्या और लाइव वीडियो ने सजग देशवासियों को हिलाकर रख दिया। अभी तक ऐसे दिल दहलाने वाले वीडियो आईएसआईएसआई के आतंकवादी जिहाद के नाम पर दहशत फैलाने के लिए विदेशी सैनिकों के निर्दयता से सिर कलम का प्रसारित करते रहते हैं। अपनी तथाकथित बहन को पश्चिम बंगाल भगाकर ले जाने वाले किसी मुस्लिम की करतूत का बदला लेने के लिए शंभूलाल ने बडे ही भयावह तरीके से निर्दोष अफराजुल को मौत के घाट उतार दिया जिससे उसकी कोई दुश्मनी ही नहीं थी! अफराजुल का मुसलमान होना ही उसकी मौत का कारण बन गया। पश्चिम बंगाल के मालदा का निवासी अफराजुल घर बनाने के छोटे-मोटे ठेके लेता था। ६ दिसंबर को शंभूलाल उसे अपने मकान बनवाने की बात कहकर अपने साथ खेत में ले गया। शंभूलाल की तेरह वर्षीय भांजी और चौदह वर्षीय भांजा भी उसके साथ थे। शंभूलाल ने पहले से ही अपने भांजे को समझा दिया था कि उसे किस तरह से एंड्राइड मोबाइल से वीडियो रिकार्डिंग करनी है। शंभूलाल ने गजब की फूर्ती दिखाते हुए जैसे ही अफराजुल की पीठ पर गैंती का जोरदार वार किया तो वह जमीन पर गिर पडा। भांजे ने धडाधड वीडियो रिकार्डिंग करनी शुरू कर दी। एकाएक हुए हमले ने अफराजुल को शक्तिहीन कर दिया। शंभूलाल जमीन पर धराशायी हो चुके अफराजुल पर लगातार वार पर वार करता रहा। अफराजुल हाथ जोडकर बस यही पूछता रहा कि आखिर उसका कसूर क्या है? मुझे मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? खूंखार जानवर बने शंभूलाल का उसके अंग-अंग को छलनी कर उसका खात्मा करने के बाद भी दिल नहीं भरा। उसने अफराजुल की लाश पर पेट्रोल छिडकर आग लगा दी। इस बीच उसने वीडियो कैमरे के सामने आकर बेखौफ होकर ऐलानिया स्वर में कहा कि उसने अपनी बहन का बदला ले लिया है। इन लोगों ने हमारी हिन्दू-बहनों को 'लव जिहाद' के नाम पर भगाकर शादी की है। इस खौफनाक हत्यारे ने इस हत्या का संपूर्ण लाइव वीडियो भी वायरल कर दिया जिसे देश और दुनिया के करोडों लोगों ने देखा। पुलिस जांच में यह सच्चाई सामने आई कि शंभूलाल नशेडी होने के साथ-साथ भडकाऊ वीडियो देखने का आदी रहा है। पिछले दो साल से वह बेरोजगार था और लाखों के कर्ज तले दबा था। उसकी पत्नी ही घर चला रही थी। लव जिहाद की कहानियां, राजनीति और धर्म के व्यापारियों के भडकाऊ भाषण सुन-सुनकर उसके मन में सभी मुसलमानो के प्रति गुस्से और घृणा ने डेरा जमा लिया था। उसके करीबियों का कहना है कि वह ज्यादा पढा-लिखा नहीं है। वे तो उस वीडियो को देखकर हैरान हैं जिसमें वह लव जिहाद, कश्मीर में धारा ३७०, सेना पर पत्थर बाजी, सैनिकों के सिर काटकर ले जाने, आरक्षण के नाम पर हिंदूओं को बांटने आदि की बडी-बडी बातें कहता नजर आया। उसकी मां को तो यकीन नहीं कि उसका बेटा किसी की हत्या कर सकता है। मां कहती है मैं उसे बचपन से जानती हूं। उसमें तो चींटी को मारने की हिम्मत तक नहीं। स्कूल में जब उसे साथी मारते थे तो वह रोते हुए घर आता था। जिसने कभी किसी को थप्पड मारने की हिम्मत नहीं की वह ऐसी निर्मम हत्या कैसे कर सकता है?
चित्र-३ : पश्चिम बंगाल के अफराजुल की हत्या के आरोपी शंभूलाल के समर्थन में हिन्दूवादी संगठन खुलकर सामने आ गये। उन्होंने रैली निकालकर प्रदर्शन किए। प्रशासन ने उन्हें रोका तो वे लव जिहाद और पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी कर शंभूलाल को नायक दर्शा उसकी देशभक्ति और महानता का बखान करने लगे। सबसे चौंकाने वाला सच तो यह है कि गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के साथ-साथ राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के पांच सौ से अधिक लोगों ने शंभूलाल की पत्नी के खाते में लाखों का चंदा जमा करवा दिया। बैंक में जमा होने वाली अधिकांश रकम इंटरनेट बैंकिंग से जमा हुई। कई लोग शंभूलाल के घर भी आर्थिक मदद देने पहुंचे। कुछ लोग ऐसे भी सामने आये जिन्होंने शंभूलाल के बच्चों की परवरिश करने का आश्वासन दिया। शंभूलाल को देशभक्त कहकर धार्मिक उन्माद फैलाने वालों की भीड ने जलती आग में घी डालने का भरपूर प्रयास किया। ऐसा लगता है कि उन्मादी तत्व पूरे समाज को अपने रंग में रंगना चाहते हैं। उन्हें पुलिस का कोई भय नहीं। उन्हें न्याय पालिका पर भी न तो भरोसा है और न ही उसका खौफ। समाज के अधिकांश प्रतिष्ठित चेहरे भी गलत को गलत कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं!

Thursday, December 14, 2017

अपशब्द बोलने वाले पाते हैं पुरस्कार

अधिकांश समझदार लोग कहते हैं कि शराब खराब करती है। इसके चक्कर में उलझा हुआ आदमी कभी उबर नहीं पाता। फिर भी पीने वाले इसके मोहपाश से मुक्त नहीं होना चाहते। जिनका मनोबल सुदृढ होता है वही इससे दूरी बनाने में कामयाब हो पाते हैं। हमने कई समझदार किस्म के महानुभावों को इसके हाथों का खिलौना बनते देखा है। यहां तक कि कई डॉक्टर भी इसके चक्कर में बरबाद हो जाते हैं। मेरे पाठक मित्र सोच रहे होंगे कि आज मैं यह कौन-सा विषय लेकर बैठ गया हूं। शराब और उसके नशे पर तो पहले भी कई बार बहुत कुछ लिखा जा चुका है। दरअसल, कल ही मैंने एक खबर पढी जिसने मुझे उस नशे पर फिर से लिखने को विवश कर दिया जिसकी गहराई समुंदर से भी कहीं बहुत-बहुत ज्यादा है। पहले वो खबर आप भी पढ लें : झारखंड के विधायकों ने मांग की है कि विधानसभा परिसर में ही उनके लिए शराब की दूकान खोली जाए, क्योंकि सरकार ने राज्य में आंशिक शराब बंदी लागू की है जिसकी वजह से विधायकों को शराब खरीदने में दिक्कतों का सामना करना पड रहा है। यह मांग विपक्ष की तरफ से आई है और विपक्ष की दलील हैं कि जब सरकार ही शराब बेच रही है तो विधानसभा परिसर में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? दरअसल, झारखंड में सरकारी शराब की दुकानें माननीय विधायकों को इसलिए भी रास नहीं आ रही हैं क्योंकि दुकानों की संख्या कम है और शराब खरीदनें वालों की अथाह भीड लगी रहती है। ऐसे में शराब के शौकीन विधायकों को कतार में लगकर शराब खरीदना अच्छा नहीं लगता। वे पब्लिक की निगाह में नहीं आना चाहते। आखिर इमेज का सवाल है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायकों ने अपनी इस अनूठी मांग पर पूर्व मुख्यमंत्री सहनेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन से भी रायशुमारी की है। सोरेन का कहना है कि सरकार पोषाहार तो ठीक से बंटवा नहीं पाती, लेकिन खुद शराब बेचने का निर्णय लेकर गदगद हो जाती है।
इस खबर को पढने के बाद कई विचार कौंधते रहे। इसके साथ ही यह बात भी मुझे बहुत अच्छी लगी कि विधायकों ने कम अज़ कम यह तो खुलकर दर्शा दिया कि वे शराब के शौकीन हैं। यह कोई छोटी-मोटी स्वीकारोक्ति नहीं है। कौन नहीं जानता कि अपने देश में तो अधिकांश नेता मुखौटे ही ओढे रहते हैं। अपनी असली तस्वीर कभी सामने ही नहीं आने देना चाहते। ऐसा भी नहीं है कि सत्ता पक्ष के विधायक पीते नहीं होंगे, लेकिन वे विपक्ष के विधायकों के सुर में सुर नहीं मिला पाये। यही राजनीति है जो झूठ और पाखंड की बुनियाद पर टिकी है। सच बोलने और सच का सामना करने की हिम्मत बहुत कम नेताओं में है। पिछले दिनों गुजरात के उभरते युवा नेता हार्दिक पटेल की सेक्स सीडी सामने आई। हार्दिक ने बडा चौंकाने वाला जवाब फेंका कि वे कोई नपुंसक नहीं हैं। आखिर कितने नेता ऐसा जवाब दे पाते हैं? नेताओं की सोच में निरंतर शर्मनाक बदलाव देखा जा रहा है। कुछ नेता तो हद से नीचे गिरने में भी देरी नहीं लगाते। उनके बोल उनकी गंदी सोच को उजागर कर ही देते हैं। राजनीति में कई ऐसे चेहरे हैं जो गंवारों की तरह न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने नशेडियों की तरह बकबक करते रहते हैं। उनका नशा कभी टूटता ही नहीं। उन्हें देश में घर कर चुकी गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, असमानता, भ्रष्टाचार, अराजकता और दिल दहला देने वाली बदहाली दिखायी ही नहीं देती। सत्ता खोने का गम भी उनका पीछा ही नहीं छोडता। उनका गुस्सा और अंदर की जलन उनकी जुबान से बाहर आकर ही दम लेती है। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर का नाम भी ऐसे गंवारों में शामिल है जो सडक छाप भाषा बोलते रहते हैं। बीते हफ्ते उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को नीच आदमी कहकर अपनी ही पार्टी कांग्रेस की छीछालेदर करवा दी। बदतमीज अय्यर की बाद में सफाई आयी कि मैं हिन्दी नहीं जानता, इसलिए ऐसी गल्तियां कर गुजरता हूं। ताज्जुब है इन्हें हिन्दी नहीं आती, लेकिन गालियां तो खूब आती हैं। वो भी शुद्ध हिन्दी में! प्रधानमंत्री को नीच कहने वाले बददिमाग नेता को कांग्रेस ने तत्काल पार्टी से बेदखल कर यह दिखाने की कोशिश की, कि उसकी पार्टी में ऐसे बददिमाग नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है। जबकि सच यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने नरेंद्र मोदी को नीची राजनीति करने वाला शख्स बताया था। कांग्रेस के ही बडबोले नेता दिग्विजय सिंह ने मोदी को रावण की संज्ञा दी थी तो जयराम रमेश ने उन्हें भस्मासुर, बेनी प्रसाद वर्मा ने पागल कुत्ता और मनीष तिवारी ने मोदी की तुलना खूंखार हत्यारे दाऊद इब्राहिम से कर दी थी। तब तो कांग्रेस के कर्ताधर्ता चुप्पी ओढे रहे थे। ध्यान रहे कि अगर गुजरात के विधानसभा चुनाव नहीं होते तो बेशर्म मणिशंकर अय्यर का बाल भी बांका नहीं होता। कांग्रेस उसे बाहर का रास्ता दिखाने की सोचती नहीं। बदहवास, बदतमीज नेताओं पर लगाम न लगाते हुए उन्हें प्रोत्साहित और पुरस्कृत करने का चलन कांग्रेस के साथ-साथ लगभग हर पार्टी में है। जब कोई नेता बदमाशों वाली भाषा बोलकर सुर्खियां पाता है और मीडिया उसकी खिंचायी करता है तो राजनीतिक दलों के मुखिया कम ही मुंह खोलते हैं। पाठक मित्रों को याद दिलाना चाहता हूं कि २०१४ के लोकसभा चुनाव के दौरान आपसी भाईचारे को कमजोर करने वाली अभद्र बयानबाजी करने वाले भाजपा नेता गिरीराज सिंह को भाजपा ने बडे सम्मान के साथ केंद्रीय मंत्री बनाया है। उनके जहरीले बोल अभी भी सुनने में आते रहते हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को भी विषैली भाषा बोलने में काफी महारत हासिल है। जब भाजपा के लिए मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए सिर खपाने की नौबत आयी तो योगी ने अपनी 'योग्यता' की बदौलत सभी को मात देते हुए बाजी मार ली। यूपी के ही दयाशंकर नामक भाजपा नेता ने बहन मायावती को बेहद अश्लील गाली दी थी। भाजपा ने दयाशंकर को तो विधानसभा की टिकट नहीं दी, लेकिन उसकी पत्नी को टिकट और बाद में मंत्री बनाकर जिस तरह से पुरस्कृत किया उसी से भारतीय राजनीति की हकीकत का पता चल जाता है।

Thursday, December 7, 2017

जगाने और होश में लाने का जुनून

दिशा की उम्र महज तेरह साल है। वह सातवीं कक्षा में पढती है। आपको यह जानकर घोर ताज्जुब होगा कि वह पांच हजार लोगों को सिगरेट पीने की लत से मुक्ति दिलवा चुकी है। जिस उम्र में बच्चे पढाई और खेल कूद में मस्त रहते हैं, उस उम्र में दिशा का 'मिशन नो स्मोकिंग' के प्रति जबर्दस्त जिद्दी रूझान वाकई स्तब्ध करके रख देता है। दिशा जब मात्र पांच साल की थी तब उसके दादा की मौत हो गई थी। दिशा को अपने प्यारे दादा से बहुत लगाव था। वे भी उस पर सारा अपनत्व और प्यार उडेल दिया करते थे। दादा का एकाएक दुनिया को छोडकर चले जाना दिशा के लिए किसी दु:खदायी स्वप्न और पहेली से कम नहीं था। उसकी मां ने बताया कि वो सिगरेट बहुत पीते थे इसलिए उन्हें कैंसर हो गया था। छोटी-सी बच्ची को उसी दिन से सिगरेट से नफरत हो गई। वह जिस किसी को भी सिगरेट फूंकते देखती तो उसे उसकी मौत की कल्पना जकड लेती। उसने तभी ठान लिया कि वह लोगों की सिगरेट की लत को छुडाएगी और उन्हें मौत के मुंह से जाने से बचाएगी। दिशा अपने अभियान की शुरुआत में लोगों के मुंह से सिगरेट छीनकर फेंक देती। लोग गुस्से से तिलमिला उठते और दिशा के गाल पर तमाचे भी जड देते। जिद की पक्की दिशा तमाचे खाकर भी मुस्कराती रहती और धीरे से कहती कि अंकल यह सिगरेट बहुत बुरी चीज है। इसको पीने से मेरे दादाजी मर गए, कृपया आप इसे फेंक दो वर्ना आपका भी मेरे दादा जैसा हाल होगा। मासूम दिशा के अनुरोध का अधिकांश लोगों पर असर होना स्वाभाविक था। कुछ लोग जल्दी मानते तो कुछ लोग देरी से। छोटी सी बच्ची के मुख से धुम्रपान से होने वाले जानलेवा नुकसान के बारे में सुनना लोगों की आंखें खोलने के लिए काफी था। दिशा बताती है कि मैंने एक डायरी बनाई है। उसमें स्मोकिंग करने वाले लोगों से वादा कराती हूं कि वो आज से सिगरेट नहीं पियेंगे। उन्हें अपने वादे की याद रहे इसलिए उनके हस्ताक्षर भी करवाती हूं। उनके नंबर नोट करती हूं और फिर उन्हें मैसेज और फोन करके फॉलोअप लेती हूं। अभी तक मेरी तीन डायरी भर चुकी हैं और पांच हजार से ज्यादा लोग सिगरेट से तौबा कर चुके हैं। अपने इस मिशन के प्रति पूर्णतया समर्पित दिशा पढाई-लिखाई से भी समझौता नहीं करती। वह कक्षा में हमेशा अव्वल आती है। जिस दिन स्कूल की छुट्टी रहती है उस दिन वह पान-सिगरेट की दुकानों पर अपने दोस्तों के साथ पहुंच जाती है और लोगों को धूम्रपान छोडने के लिए प्रेरित करती है। कई लोगों की जिन्दगी में बदलाव लाने वाली दिशा जब भीड को धूम्रपान से होने वाली बीमारियों और तकलीफों के बारे में अवगत कराने के लिए बोलती है तो लोग मंत्रमुग्ध सुनते रह जाते हैं।
अपने वतन में नशे के सामानों की खपत बढती चली जा रही है। युवा पीढी को विभिन्न नशों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। सरकार एक तरफ शराब, सिगरेट आदि की बिक्री की छूट देती है तो दूसरी तरफ इनसे होने वाली जानलेवा बीमारियों से अवगत कराने के लिए करोडों-अरबों रुपये विज्ञापनबाजी में भी खर्च करती है। सरकार के इस सतही प्रयासों का लोगों पर कोई खास फर्क नहीं पडता। ड्रग्स के प्रति युवाओं के बढते रूझान और शराब की दूकानों पर लगने वाली लंबी-लंबी कतारें बता देती हैं कि लोग किस राह पर जा रहे हैं। राजधानी दिल्ली में एक युवक रहते हैं प्रभदीप सिंह जो गलियों में घूमते हुए युवाओं को नशे की लत से बचाने के लिए गीत गाते दिखायी देते हैं। नशे के खिलाफ चेतना के गीतों के स्वर बिखरने वाले प्रभदीप चाहते हैं कि उनका संदेश ड्रग्स के शिकार हर युवा तक कुछ इस तरह से पहुंचे कि वह नशे से तौबा कर ले। यह पूछने पर कि उनके मन में गीतों के जरिए युवाओं में चेतना जगाने का विचार कैसे आया तो उन्होंने बताया कि मेरे आस-पडोस में निम्न और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चें हैं और यहां लोगों ने नशे के लिए अपने घर भी बेच दिए हैं। इनकी जिन्दगी नशे के कारण पूरी तरह से तबाह हो गई है। मुझसे यह भयावह मंजर देखा नहीं गया। मेरी गीत लिखने की तो बचपन से रूचि थी। ऐसे में मन में विचार आया कि अपने गीतों के जरिए नशेडियों को नशा छोडने का आग्रह कर मानवता के धर्म को निभाऊं और अपने होने को सार्थकता प्रदान करूं। प्रभदीप का यह प्रयास व्यर्थ नहीं गया। उनके गीत और संगीत को सुनकर कई युवाओं ने ड्रग्स को हाथ नहीं लगाने की कसम खा ली है। २३ वर्षीय प्रभदीप का जन्म दिल्ली में स्थित तिलकनगर में हुआ। यह वही जगह है जहां १९८४ के दंगों ने सिखों को सबसे ज्यादा जख्म दिए थे, जो अभी तक नहीं भर पाये हैं। उनके पिता ने भी १९८४ की विभीषका के दर्द को गहरे तक भोगा है। इस इलाके में नशीले पदार्थों का सेवन करने वाले युवाओं की अच्छी-खासी तादाद रही है। वे अपने गीतों के जरिए और भी कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी बात कर लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं।
हिन्दुस्तानी बालिका अगर चाहे तो अपने गांव का कायाकल्प करते हुए किसानों के लिए मसीहा साबित हो सकती है इसे सच साबित कर दिखाया है महाराष्ट्र के अकोला जिले की नासरी ने। जिला मुख्यालय से करीब ८० किलोमीटर दूर स्थित आदिवासी बहुल गांव भिलाला में आधी आबादी छोटे किसानों की है और आधी मजदूरों की। नासरी को बचपन से ही खेती में पिता का हाथ बंटाते-बंटाते यह हकीकत समझ आ गई कि खेती का काम पूरी तरह से घाटे का सौदा है। जितनी लागत लगायी जाती है, उतनी भी नहीं निकल पाती। यदि थोडा मुनाफा होता भी है तो वह कर्ज चुकता करने में खर्च हो जाता है। किसान के हाथ में कुछ भी नहीं आता। आदिवासी बालिका नासरी को एक ऐसी संस्था के बारे में पता चला जो जैविक खेती (ऑर्गेनिक फार्मिंग) को प्रोत्साहित करने में लगी थी। इस विधि से खेती करने पर खेती की लागत रासायनिक विधि की तुलना में एक चौथाई हो जाती है। नासरी ने तुरंत जैविक खेती का निर्णय ले लिया। प्रारंभ में उसके पिता ने आना-कानी की, लेकिन नासरी ने उन्हें मना कर ही दम लिया और खुद ही कंपोस्ट खाद आदि तैयार कर विशेषज्ञों द्वारा बतायी गई विधि से खेती प्रारंभ की। पहली बार में ही जैविक खेती से वाकई लागत एक चौथाई रह गई और पैदावार भी उतनी हुई जितनी पहले होती थी। अपने खेत में सफल प्रयोग करने के बाद नासरी ने गांव वालों को जैविक खेती के लिए प्रेरित करने का अभियान चलाया। शुरू-शुरू में तो अविश्वास जताते हुए उसका मजाक भी उडाया गया। इस तरह का बर्ताव भारतीय परंपरा का अंग है। नासरी किसानों को मरता नहीं देख सकती थी इसलिए उसने गांव वालों को आश्वस्त किया कि वह उनका घाटा कदापि नहीं होने देगी। अगर हुआ भी तो वह खुद झेलेगी। उसने किसानों के लिए खाद आदि स्वयं तैयार कर उपलब्ध करायी। सफलता तो मिलनी ही थी। उसकी सूझबूझ ने गांव की सूरत ही बदल दी। २०११ के आसपास हुए इस चमत्कार का अनवरत सिलसिला जारी है। उसके गांव की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी है। किसान खुश है। खेती से उन्हें फायदा होने लगा है। देश एवं विदेश के कृषि विशेषज्ञ नासरी के गांव में आते रहते हैं और एक परी के जुनून की सफलता को देखकर यह मानने को विवश हो जाते हैं कि भारतीय बेटियां अगर ठान लें तो कुछ भी कर सकती हैं। जैविक खेती के माध्यम से अपने गांव की तस्वीर बदलने वाली नासरी को महाराष्ट्र सरकार ने कृषि भूषण पुरस्कार से नवाजा है तो डॉ. पंजाब राव कृषि विद्यापीठ अकोला ने अपना 'ब्रांड अंबेसेडर' बनाया है। इसके साथ ही वह ३० से ज्यादा विभिन्न संस्थाओं के द्वारा पुरस्कृत की जा चुकी है।

Thursday, November 30, 2017

कमीशनखोरों के शिकंजे में मरीज

लोग हतप्रभ हैं। चिंतित और परेशान हैं। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। दलालों और ठगों की घेराबंदी में उनकी सांसें घुटने लगी हैं। सेवा भावना लुप्त होती चली जा रही है। नकाबों के उतरने का निरंतर सिलसिला जारी है। डॉक्टरों को तो तमाम भारतवासी इंसान नहीं, भगवान मानते आये हैं। भगवान की इस विश्वास के साथ पूजा की जाती है कि वे बिना किसी भेदभाव के सभी का भला ही करेंगे। कोई लालच उन्हें डिगा नहीं पायेगा। इसी देश में ऐसे कई डॉक्टर हुए हैं जिन्होंने मरीजों की सेवा और इंसानियत के गर्व को बढाने के कीर्तिमान रचे हैं। उनके कर्म-धर्म की मिसालें इतिहास में दर्ज हैं। उनके प्रति नतमस्तक है हर हिन्दुस्तानी। इन दिनों जो खबरें आ रही हैं वे ईश्वर का पर्यायवाची माने जाने वाले डॉक्टरों के अस्तित्व पर बट्टा लगा रही हैं और यह ढोल पीट रही हैं कि अधिकांश डॉक्टर धन के पीछे भाग रहे हैं। मरीजों की जेब पर डाका डालने की मनोवृत्ति ने उनके ईमान और कद को बौना कर दिया है। नोटों की चमक ने उनके मूल कर्तव्य को गिरवी रख लिया है। मरीजों को वे इंसान नहीं कमाई का साधन समझते हैं। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। इसलिए मजबूरन लोगों को निजी अस्पतालों की शरण लेनी पडती है। बहुत ही खेद की बात है कि ९५ प्रतिशत निजी ब‹डे अस्पताल धोखाधडी, लूट और ठगी के भयावह अड्डे बन कर रह गए हैं। सच तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं के घोर अभाव का फायदा निजी हाई-फाई अस्पताल उठा रहे हैं। दिल्ली के पास गुरुग्राम में स्थित फोर्टिंस अस्पताल में एक सात साल की बच्ची को डेंगू के इलाज के लिए भर्ती किया गया। डॉक्टर उसकी जान तो नहीं बचा पाये, लेकिन १६ लाख रुपये का बिल जरूर थमा दिया गया। १६ लाख रुपये कोई छोटी-मोटी रकम नहीं होती। गरीब के लिए इतनी बडी राशि वो सपना होता है जो कभी पूरा नहीं होता। अमीरों के लिए हाथ का मैल हो सकती है, लेकिन मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी यह छोटा-मोटा आंकडा नहीं होती। डेंगू से पीडित सात वर्षीय बच्ची आद्या की मौत व इलाज के लिए १६ लाख रुपये के भारी भरकम बिल ने फिर कई सवाल खडे कर दिए और अस्पतालों के लूटतंत्र का भी खुलासा कर दिया। डेंगू की जो दवा ५०० रुपये की है उसके लिए तीन हजार रुपये और २७०० दस्ताने के लिए पौने तीन लाख रुपये, दवा का बिल चार लाख रुपये, १३ रुपये की ब्लड जांच स्ट्रिप के बदले प्रति स्ट्रिप २०० रुपये वसूले गए। मेनोपेनम इंजेक्शन के २१ वायल दिए गये जिनके प्रति वायल ३१०० रुपये एेंठे गए जबकि बाजार में ५०० रुपये में आसानी से वायल मिलता है। क्या वाकई दो सप्ताह के इलाज के दौरान डॉक्टरों ने २७०० दस्ताने व ६६० सिरिंज इस्तेमाल किए? ब्लड बैंक का खर्चा ६१,३१५ रुपये, डॉक्टरों की फीस ५३,९०० रुपये, दवाई का खर्चा २,७३,३९४ रुपये के अलावा एक कमरे का किराया १,७४,००० रुपये बिल में जो‹डकर मृत बच्ची के माता-पिता को दिन में तारे दिखा दिए! अभिभावकों का यह भी आरोप है कि अस्पताल ने जानबूझकर आखिर के तीन दिन तक बच्ची को वेंटीलेटर पर रखा।
बिल की रकम में इजाफा करने के लिए निजी अस्पतालों के द्वारा लाश को वेंटीलेटर पर रखने की कई खबरें आम होती चली जा रही हैं। नोएडा के एक अस्पताल में एक व्यक्ति की मौत कई दिन पहले हो गई थी, लेकिन अस्पताल के धनलोभी डॉक्टर लाश को वेंटीलेटर पर रखे रहे। परिजनों को पांच दिन तक मरीज से मिलने नहीं दिया गया और बाद में मनमाना बिल थमाया गया। परिजन इतना अधिक बिल भर पाने में सक्षम नहीं थे इसलिए वे लाचारी में अस्पताल में ही शव को छोडकर चले गये। गाजियाबाद निवासी पृथ्वी सिंह के दो साल के पोते को साधारण खांसी होने से उसकी सांस फूलने लगी थी। बच्चा रातभर परेशान न हो इसलिए उन्होंने उसे एक नामी हॉस्पिटल में ले जाने की भूल कर दी। आपातकालीन विभाग में डॉक्टर ने उसकी जांच की और बेहद गंभीर बताते हुए भर्ती करने की सलाह दी। पृथ्वी सिंह ने डॉक्टर से आग्रह किया कि बच्चे को साधारण-सी खांसी है। आप इसे चेक करके दवा दे दीजिये। मगर डॉक्टर ने स्थिति की गंभीरता का ऐसा डर दिखाया कि वे बच्चे को भर्ती करने को विवश हो गए। बच्चे को आईसीयू में भर्ती कर दिया गया। जहां पर छह बैड थे। बच्चा पूरे वार्ड में हंसते-खेलते हुए दौड लगा रहा था। वे दूसरे दिन बच्चे का डिस्चार्ज करवाना चाहते थे, लेकिन तीसरे दिन ४० हजार रुपये के बिल के साथ बच्चे को डिस्चार्ज किया गया। अस्पतालों के भारी भरकम बिल से बचने का मरीजों के पास कोई विकल्प नहीं हैं। इस लूट को रोक पाना कतई आसान नहीं है।
ध्यान रहे कि जो सिरिंज बाजार में होलसेल में दो रुपये में मिलती है उसके तथाकथित बडे अस्पतालों में दस रुपये वसूले जाते हैं। मरीजों की मजबूरी होती है। उन्हें डॉक्टरों की हर बात माननी पडती है। कमीशन के आधार पर काम करने वाले डॉक्टरों को हर मरीज का सीटी स्केन, एमआरआई लिखने का ऊपरी दबाव रहता है। जिस बीमारी की जांच की जरूरत ही नहीं होती उसकी जबरन जांच के बाद मोटा बिल थमा दिया जाता है। प्रायवेट अस्पताल अब एक बिजनेस मॉडल की तर्ज पर काम करने लगे हैं। यही वजह है कि यहां पर आम मरीज के लिए इलाज करवाना बेहद मुश्किल होता है। अस्पताल के कमीशनखोर डॉक्टर मरीज को ग्राहक मानते हुए उसे लूटने का कोई मौका नहीं छोडना चाहते। मरीज को अगर पांच दिन अस्पताल में रखना जरूरी हो तो भी उसे छह से सात दिन तक रखा जाता है। इन दो दिनों में बिल में अच्छी खासी बढोतरी हो जाती है। यह सच्चाई भी हैरान करने वाली है कि लूट के अड्डे बन चुके ऐसे अस्पतालों में डॉक्टरों को तनख्वाह या तो नहीं मिलती या फिर नाम मात्र की मिलती है। इसलिए वे कमीशन के चक्कर में अधिक से अधिक मरीजों को फांसने के चक्कर में रहते हैं। इसी कमीशन के लालच में मरीज को निचोडकर रख दिया जाता है। मरीज को एडमिट करने और डिस्चार्ज करने में इन्हीं डॉक्टरों की चलती है। अगर एक मरीज को चार दिन में छुट्टी दी जा सकती है तो उसे पांच दिन तक सिर्फ बिल बढाने के लिए रोक कर रखने की कलाकारी को अंजाम देने में यह वसूलीबाज डॉक्टर बडी आसानी से कामयाब हो जाते हैं।

Thursday, November 23, 2017

सुखद संदेश

आज के दौर में भी घर में बेटी के जन्म लेने पर मातम मनाने वालों की कमी नहीं है। अच्छे-खासे पढे-लिखे लोगों का भी बेटियों के प्रति वही पुराना नज़रिया है कि बेटियां तो उम्रभर का बोझ होती हैं। यह काला सच देश के माथे पर लगा वो दाग है जिसे मिटाने की भी निरंतर कोशिशें होती रहती हैं। हरियाणा के फतेहाबाद से आयी खबर ने वाकई नई उम्मीदें जगा दीं और यह संदेश भी दे दिया कि यदि इरादे नेक हों तो मन की चाहत पूरी होने और रास्ते निकलने में देरी नहीं लगती। फतेहाबाद के रहने वाले एक पुत्र के माता-पिता की दिली तमन्ना थी कि उनके यहां बिटिया का जन्म हो और उनका जीवन सार्थक हो जाए। लेकिन उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पायी और इस बार भी अस्पताल में बेटे ने ही जन्म लिया। उनका मन बुझ गया। उसी अस्पताल में ही गांव किशनगढ (हिसार) निवासी भूपसिंह की पत्नी रेनू को डिलीवरी के लिए लाया गया था। रेनू की पहले से तीन बेटियां हैं। उनकी चाहत थी कि बेटियों का एक भाई होना चाहिए। मगर डिलीवरी हुई तो कन्या का आगमन हुआ। इसी बीच उन्हें उस दंपति के बारे में पता चला जिन्हें बिटिया की चाह थी, लेकिन उनके यहां बेटे ने जन्म लिया था। रेनू के परिवार वालों ने उस दंपति से संपर्क कर उनका बेटा गोद लेने की इच्छा जतायी। अंधा क्या मांगे... दो आंखें।... उस दंपति ने फौरन स्वीकृति देते हुए अपने नवजात बेटे को उनकी गोद में डालकर उनकी और अपनी मुरादें पूरी कर ली। गौरतलब है कि दोनों परिवार एक ही समाज से हैं, लेकिन उनका मिलन अस्पताल में ही हुआ जहां पर एक अटूट रिश्ता कायम हो गया।
देश की राजधानी दिल्ली को तमाशबीनों का महानगर भी कहा जाता है। लोगों की आंखों के सामने सडक दुर्घटनाए होती रहती हैं और लोग हैं कि अनदेखी करने में अपनी भलाई और चतुराई समझ आगे बढ जाते हैं। दिल्ली के माथे पर लगे इस धब्बे को धोने की कोशिश की है दिल्ली के अशोक विहार मोंट फोर्ट स्कूल की टीचर सारिका ने। ऐसे में सबसे पहले उन्हें उनकी पहल और जागृति के लिए सलाम तो किया ही जाना चाहिए। वाकया है अशोक विहार का जहां सडक के बीचोंबीच खून से लथपथ एक युवक तडप रहा था और आते-जाते लोग मुंह फेरकर निकलते चले जा रहे थे। कुछ ऐसे उत्साही समझदार लोग भी थे जिन्हें वीडियो और तस्वीर लेने में बेहद मज़ा आ रहा था। ऐसे निर्मम लोगों का अनुसरण न करते हुए इंसानियत का असली फर्ज निभाते हुए सामने आर्इं सारिका। लोग जहां उलटे पडे जख्मी युवक को हाथ लगाने से भी कतरा रहे थे, सारिका ने न सिर्फ उसे सीधा किया बल्कि अपने दुपट्टे से उसके सिर से बहते खून को रोकने की भरपूर कोशिश करने के बाद ऑटो को रूकवाकर युवक को सुंदरलाल जैन अस्पताल ले गर्इं। उसने डॉक्टरो को उसका त्वरित इलाज करने के लिए मनाया। फिर भी अफसोस कि युवक ने इलाज के दौरान अस्पताल में दम तोड दिया। इंसानियत का फर्ज़ निभाने वाली सारिका का कहना है कि यदि दुर्घटनाग्रस्त युवक को फौरन अस्पताल पहुंचाया जाता तो यकीनन उसकी जान बच सकती थी। दिल्ली वालों की निर्दयता और वीडियो बनाने तथा तस्वीरें खींचने की बेहूदगी ने उसकी जान ले ली। सारिका जब घर से स्कूल जा रही थी तभी लोगों की भीड के बीच घायल युवक को तडपते देखा था तो उन्होंने लोगों से खून से लथपथ युवक को तुरंत अस्पताल पहुंचाने का निवेदन किया और हाथ भी जोडे, लेकिन सभी ने मुंह फेर लिया था। वे स्वयं जिस ऑटो में थीं, उसके ड्राइवर ने भी युवक को अस्पताल ले जाने से मना कर दिया था। उसका कहना था कि वह किसी लफडे-पचडे में नहीं पडना चाहता। उसे तुरंत पेमेंट देकर रवाना करने के बाद सारिका ने कई ऑटो वालों को रूकने का इशारा किया मगर कोई नहीं रूका। उन्होंने एक ऑटो वाले को हाथ-पांव जोडकर किसी तरह से तैयार किया और दो युवकों की मदद से युवक को ऑटो में लिटाया और अस्पताल पहुंची।
अब आपको मिलवाते है मुंबई के दीपक टांक से जिन्होंने महिलाओं के साथ होने वाली छेडछाड के खिलाफ अभियान छेड कर डेढ सौ से अधिक मनचलों को जेल पहुंचाया है। दीपक के मन में महिलाओं के साथ छेडछाड करने वाले मनचलों के खिलाफ लडाई छेडने का विचार तब आया जब देश की राजधानी दिल्ली में निर्भया के साथ हुए अमानवीय कृत्य से पूरा देश दहल गया था। दीपक का मानना है कि अगर आप किसी छेडछाड की घटना को रोकते हैं तो आप संभावित बलात्कार की घटना को भी रोकते हैं। दीपक स्वीकार करते हैं कि वे भी कभी किसी महिला के साथ छेडछाड होने की घटना को नजरअंदाज कर देते थे, लेकिन निर्भयाकांड के बाद उन्होंने बदमाशों के खिलाफ कमर कसने का निर्णय ले लिया। वे कहते हैं कि किसी भी महिला के साथ अभद्र व्यवहार करना बेहद शर्मनाक कृत्य है। क्या कोई अपनी मां या बहन के साथ अशोभनीय हरकत करता है? ...क्या कोई चाहेगा कि उसकी पत्नी, बहन के साथ ऐसी बदतमीजी हो? जब हम अपनी मां-बहनों पर किसी की टेढी नज़र को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो हमें दूसरे की मां-बहनों का भी सम्मान करना चाहिए और उनकी सुरक्षा के लिए किसी भी जोखिम  और संकट का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मवालियों को मनमानी करते देख आंखें बंद कर लेने से बडा और कोई अपराध हो ही नहीं सकता।

Thursday, November 16, 2017

फरिश्तों की पहचान

जो सपने खुली आंखों से देखे जाते हैं उनकी कभी मौत नहीं होती। परोपकार करने वाले कहीं न कहीं सदैव जिन्दा रहते हैं। कुछ अलग हटकर करने वालों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। यह जरूरी नहीं दूसरों के लिए खुद को समर्पित कर देने वाले फरिश्तों को लाखों-करोडों लोग जानें और जय-जयकार करें। उनको जानने-समझने वालो की संख्या भले ही कम हो, लेकिन वो अपने कर्मों की बदौलत अमर तो हो ही जाते हैं। मुकुलचंद जोशी। हम जानते हैं कि इस नाम से हर कोई वाकिफ नहीं है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने अपना जीवन जीया और दुनिया से विदायी लेने के बाद भी परोपकार का परचम लहराया उससे कई लोगों के लिए उन्हें भुला पाना नामुमकिन है। १४ वर्षों तक नोएडा में लोगों को यातायात नियमों के प्रति जागरूक करने वाले मुकुलचंद का बीते सप्ताह ८३ वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनकी इच्छा के अनुसार उनकी दोनों आंखें दान कर दी गयीं। अपने जीते जी लोगों को यातायात नियमों के प्रति सतर्क करने वाले मुकुलचंद उर्फ 'ट्रैफिक बाबा' की आंखें अब दूसरे के जीवन को रोशन कर रही हैं। लगभग १४ वर्ष पूर्व उनके मामा का बेटा बिना हेलमेट लगाए स्कूटर लेकर निकला था और सडक हादसे में उसकी मौत हो गई। इस घटना ने उन्हें झकझोर दिया। उसके बाद से ही वे लोगों को यातायात नियमों का पाठ पढाने में लग गए। १९९३ में आगरा से फ्लाइट इंजिनियर के पद से सेवा निवृत हुए मुकुलचंद के परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे हैं। बडे बेटे कैप्टन नीरज जोशी मर्चेंट नेवी सिंगापुर में जबकि छोटे बेटे राजीव जोशी एयरफोर्स बेंगलुरु में कार्यरत हैं। ८३ वर्ष की उम्र में भी लोगों को सडक दुर्घटनाओं में मौत से बचाने के लिए जागरूक करने वाले इस सजग भारतीय की तमन्ना शीघ्र ही अपने बेटे के पास बंगलुरू शिफ्ट होने की थी। वहां पर भी वे ट्राफिक जागरूकता अभियान के काम को जारी रखना चाहते थे, लेकिन वक्त को यह मंजूर नहीं था।
उनकी यही अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु के बाद शरीर का जो भी अंग दूसरे के काम आ सके, उसे दान कर दिया जाए। उनकी मौत के बाद पत्नी ने बच्चों के आने से पहले ही सभी औपचारिकताएं पूरी कर पति की दोनों आंखें दान कर दीं।
पहाडों और जंगलों में रहने वाले गरीब ग्रामीणों का जीवन संग्रामों का पर्यायवाची है। न जाने कितनी समस्याओं से उन्हें रोज जूझना पडता है। पहाडी इलाकों में जंगल की आग और जानवरों के हमले से अक्सर ग्रामीण जलते और बुरी तरह से घायल होते रहते हैं। कितनों का चेहरा बिगड जाता है और शरीर विकृत हो जाता है। जिनके घर में कभी-कभार चूल्हा  जलता है उनके तो जख्म कभी भर ही नहीं पाते। अथाह पीडा उनकी उम्रभर की साथी बन जाती है। प्लास्टिक सर्जरी करवा पाना तो उनके लिए असंभव होता है। ऐसे में उत्तराखंड में दून के एक ८० वर्षीय प्लास्टिक सर्जन ऐसे विपदा के मारे लोगों के लिए आसमान से उतरे देवदूत की भूमिका निभाते दिखायी देते हैं। कभी अमेरिका में प्लास्टिक सर्जन रह चुके इस फरिश्ते ने पिछले ११ वर्षों से खुद को असहायों और बेबसों की सेवा में समर्पित कर दिया है। उन्होंने अब तक चार हजार से अधिक दुखियारों की प्लास्टिक सर्जरी कर इंसानियत के महाधर्म को निभाया है। गौरतलब है कि वे इतने काबिल प्लास्टिक सर्जन हैं कि अगर किसी बडे शहर में अपनी सेवाएं देते तो अपार धन-दौलत कमा सकते थे और दुनियाभर की सुख-सुविधाओं का आनंद ले सकते थे, लेकिन उन्होंने तो अपने जीवन को गरीबों के लिए समर्पित करने की प्रतिज्ञा कर रखी है। देहरादून-मसूरी रोड पर उनकी अपनी पुश्तैनी जमीन है जहां पर उन्होंने क्लिनिक बनाया है और जंगल की आग और जानवरों के हमले के शिकार लोगों की नि:शुल्क सर्जरी करते हैं। डॉ. योगी कहते हैं कि जलने या जानवर के हमले से घायल होने के कारण शारीरिक विकृति से जूझ रहे लोगों को दोबारा वही काया पाकर न सिर्फ नया जीवन, बल्कि सामान्य जीवन जीने का एक हौसला भी मिलता है। इस उम्र में मुझे धन-दौलत की नहीं बल्कि आत्मिक शांति और सुकून की जरूरत है। विपदाग्रस्त लोगों की मुस्कान और दुआ के रूप में मुझे यह भरपूर मिल रहा है। डॉ. योगी का एक बेटा उत्तराखंड में डॉक्टर है, लेकिन वे उस पर निर्भर नहीं हैं। अपना खर्च चलाने के लिए निजी अस्पतालों में पार्ट टाइम प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। कितना भी जटिल ऑपरेशन क्यों न हो, डॉ. योगी कभी ना नहीं बोलते।
 "जब आप कोई अच्छा काम करते हैं तो अन्य लोग भी खुद-ब-खुद जुडते चले जाते हैं।" यह कहना है आपदा पीडित बेसहारा बच्चों का सहारा बनी रागिनी मंड्रेले का। रागिनी तब बहुत विचलित हो उठी थीं जब उत्तराखंड में दिल को दहला देने वाली आपदा के चलते कई बच्चों ने अपने मां-बाप को खो दिया था। उन्हें कोई आश्रय देने वाला नहीं था। कितने अनाथ बच्चे हाथ में भीख का कटोरा थामे सडकों पर भटकने को विवश हो गए थे। तभी रागिनी ने फैसला किया था कि वे बेसहारा बच्चों की जिंदगी को संवार कर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करेंगी। उन्हें पांच बच्चों की जानकारी मिली जिन्हें आश्रय की सख्त जरूरत थी। पांच बच्चों से शुरू हुआ उनका सफर आज कई बच्चों तक पहुंच गया है। वे निराश्रित बच्चों के रहने से लेकर खाने-पीने और पढने-लिखने की संपूर्ण व्यवस्था करती हैं। इस मानव सेवा के कार्य में उनकी बेटी का भी पूरा साथ मिलता है। वे सभी बच्चों को अपनी संतान मानती हैं। कुछ समाजसेवी संस्थाएं भी उनको सलाह-सुझाव और सहयोग प्रदान करती हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी बेसहारा बच्चों की सहायता करने के लिए आगे आएं। देश के न जाने कितने बेसहारा बच्चों को हमारी सख्त जरूरत है।

Thursday, November 9, 2017

मौत के फंदे

यह हमारा देश है हिन्दुस्तान जहां पर सबसे ज्यादा गरीब हैं किसान जो खून-पसीना बहाकर १२५ करोड देशवासियों के लिए अन्न उगाते हैं और खुद भूखे पेट सोते हैं। अपने यहां किसानों की अनदेखी की ऐसी भयावह परिपाटी है जो वर्षों से चली आ रही है। सभी सरकारें किसानों की भरपूर सहायता का ढोल पीटती हैं फिर भी किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा कम होने का नाम नहीं लेता। सत्ताधीश ही नहीं हम और आप भी किसानों की उपज का सही दाम देने में हैरतअंगेज तरीके से आनाकानी करते हैं। भारतीय किसानों के जीवन में खुशहाली और बदलाव लाने के लिए नेता, बुद्धिजीवी और तमाम किस्म के विद्वान आपस में बैठकर चिन्तन-मनन तो ऐसे करते हैं कि किसानों का उनसे ब‹डा और कोई हितकारी न हो। सबका हित करने वाला किसान व्यापारियों, धनलोभियों, नेताओं के लालच का शिकार हो जाता है और लोगों के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। जिन दवाओं से फसलों पर लगने वाले कीडों का खात्मा होना चाहिए वही कीटनाशक दवाएं किसानों की जान ले लेती हैं। किसानों के मरने की खबर मीडिया में कुछ दिन तक नजर आती है, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं। बलशाली धंधेबाज शातिर हत्यारे कहीं दूर सुरक्षित बैठे मुस्कराते रहते हैं। शासन और प्रशासन भी उनकी चौखट पर नतमस्तक नज़र आता है। पिछले दिनों विदर्भ के यवतमाल, अकोला, बुलढाना, वर्धा, गोंदिया और भंडारा जिलों में लगभग ४५ किसानों-श्रमिकों की मौत विषैले कीटनाशकों के छिडकाव के कारण हो गई। पांच सौ से ज्यादा किसानों को अस्पताल में भर्ती होना पडा और लगभग २५ किसान अपनी नेत्रज्योति खो बैठे। गौरतलब है कि यवतमाल एक ऐसा बदनसीब जिला है जहां पर सर्वाधिक किसान कर्ज से त्रस्त होकर आत्महत्या कर चुके हैं। विगत वर्ष भी विदर्भ के इन क्षेत्रों में १५० से अधिक किसानों, श्रमिकों को विषैले कीटनाशकों ने मौत के आगोश में सुला दिया था। अगर सरकार जागृत होती तो इस वर्ष जहरीले कीटनाशकों के चलते किसानों का नरसंहार नहीं होने पाता। विदर्भ में कई कृषि केन्द्र ऐसे हैं जो बिना लायसेंस के कीटनाशक दवाएं बेचकर किसानों से धोखाधडी कर अपनी तिजोरियां भरते हैं। जिन कीटनाशकों के छिडकाव से विदर्भ के किसानों की दर्दनाक मौतें हुई उन्हें गुजरात और मुंबई की कंपनियों से बुलाया गया था। शेतकरी स्वावलंबी मिशन के अध्यक्ष ने इन मौतों को 'किसान हत्या काण्ड' और 'नरसंहार' का नाम देते हुए स्पष्ट कहा कि इस हत्याकाण्ड के लिए जितने दोषी कृषि विभाग के अधिकारी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं उतनी ही सरकार भी है।
यह हैरतनाक जानकारी भी सामने आयी कि खरीफ सीजन में विदर्भ में कम से कम २०० करोड से अधिक की कीटनाशकों की बिक्री हुई। इनमें से अकेले यवतमाल जिले के विभिन्न कृषि केन्द्रों से पूरे ४० करोड रुपये मूल्य के कीटनाशकों की बिक्री की गई। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इनमें से ज्यादातर कीटनाशक अनाधिकृत (अवैध) थे। यवतमाल जिले में सरकार के अनुसार खरीफ फसल का क्षेत्र साढे नौ लाख हेक्टर है। इसमें से ४ लाख ७० हजार हेक्टर क्षेत्र में कपास की फसल लगाई गई है। इनमें से लगभग तीन लाख हेक्टर क्षेत्र में जहरीले कीटनाशकों का छिडकाव किया जा चुका है। विदर्भ में ३५ कंपनियों के २० प्रकार के कीटनाशक और २५-३० प्रकार के बीज बेचे जाते हैं। इनमें से कई अवैध भी होते हैं। इस प्रकार विदर्भ में कीटनाशकों का काला बाजार भी सरकार के कृषि विभाग के नाक के नीचे चल रहा है। इनकी मिलीभगत के कारण ही इतनी मौतें हो रही हैं और सरकार कुंभकर्णी नींद से जागने का नाम ही नहीं लेती। सवाल यह भी है कि कृषि अधिकारियों की जानकारी के बिना ऐसे जहरीले कीटनाशक कृषि सेवा केन्द्रों तक पहुंचते कैसे हैं? सवाल यह भी है कि विदर्भ में हुई किसानों की इन मौतोें के लिए अब जिम्मेदार किसे माना-समझा या ठहराया जाए! क्योंकि सब के सब हाथ खडे कर रहे हैं।
नागपुर से लगभग एक घण्टे के सफर की दूरी पर स्थित है रामटेक नगर। यहां पर आत्महत्या करने वाले किसानों की याद में एक यात्रा निकाली गई। इस यात्रा में एक युवक किसानों की बेबसी और पीडा का प्रदर्शन करने के लिए ट्रेक्टर पर सवार होकर फांसी के फंदे पर झूलने का अभिनय कर रहा था। ट्रेक्टर चलता चला जा रहा था और युवक के फांसी पर झूलने के अभिनय को देखकर लोग तालियां पीट रहे थे। सभी अपनी मस्ती में थे। अचानक रस्सी गले में कस गई और युवक तडपने लगा। उसकी तडपन को भी लोगों ने अभिनय समझा। कुछ देर बाद जब ट्रेक्टर रूका तो लोगों ने युवक को बेसुध पाया। ट्रेक्टर के ऊबड-खाबड कच्ची सडक पर दौडने के कारण हुई डगमगाहट के चलते फांसी का फंदा उसके गले में कस गया और उसकी मौत हो गयी। ऐसी ही एक मौत २०१५ में देश की राजधानी में हुई थी जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनाई दी थी। विभिन्न रैलियों और अनशनों के लिए विख्यात जंतर-मंतर में आम आदमी पार्टी ने किसानों की बदहाली पर सत्ताधीशों का ध्यान आकर्षित करने के लिए विशाल रैली का आयोजन किया था। राजस्थान के दौसर से चलकर गजेंद्र सिंह नामक एक किसान भी यहां पहुंचा था। मंच पर केंद्र सरकार को कोसा जा रहा था तभी एकाएक राजस्थानी वेशभूषा में भीड का ध्यान आकर्षित करता गजेंद्र सिंह मंच के निकट के नीम के पेड पर चढ गया। उसके हाथ में झाडू और गमछा था। जंतर-मंतर में जुटे न्यूज चैनल वाले जैसे गजेंद्र की ही राह देख रहे थे। देखते ही देखते दो मंच बन गये। एक पर थे अरविंद केजरीवाल और उसके साथी और दूसरे पर आम आदमी के चुनाव चिन्ह झाडू को लहराता किसान। न्यूज चैनल वालों के चमकते कैमरों को देखकर किसान के लहू में करंट दौडने लगा था। उसने अचानक गमछे को अपनी गर्दन में फंदे की तरह डाल लिया था और फांसी लगाने का अभिनय करने लगा था। सभी चैनलवालों ने किसान के फांसी के अभिनय को लाइव दिखाना शुरू कर दिया था। भीड का ध्यान भी मंच से हट गया था। इसी बीच किसान ने फंदे की तरह डाले गमछे को थोडा जोर से कसा और तब वह हो गया जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। संतुलन बिगड जाने के कारण गमछा वास्तव में फांसी का फंदा बन गया और किसान के प्राण पखेरू उड गये। एक हंसता-खेलता किसान इस दुनिया से विदा हो गया। आरोप-प्रत्यारोप और सहानुभूति का सैलाब उमडता रहा। नेताओं ने किसान को शहीद का दर्जा देकर तालियां भरपूर बटोरीं थीं। इस घटना को घटे दो साल से ज्यादा हो चुके हैं। लेकिन उस शहीद की किसी भी नेता और न्यूज चैनल वालों को याद नहीं आयी!

Thursday, November 2, 2017

अतिथि देवो भव:?

यह कोई नई बात नहीं है। मायानगरी मुंबई को कुछ नेता अपनी जागीर समझते हैं। उन्हें बाहर से लोगों का यहां आना कतई नहीं सुहाता। यही वजह है कि कभी टैक्सी वाले तो कभी फेरी वाले उनका निशाना बनते रहते हैं। सरकारी नौकरी की आस में इस नगरी में मेहमान बन आने वाले पढे-लिखे युवाओं पर भी लाठी-डंडे बरसाने से परहेज नहीं किया जाता। यह 'पुण्य' कभी शिवसेना वाले कमाते हैं तो कभी महाराष्ट्र निर्माण सेना वाले। उग्र नेताओं को लगता है कि देश के अन्य प्रदेशों से मुंबई में कमाने-खाने के लिए आने वाले भारतीयों को सबक सिखाये बिना प्रदेश का उद्धार और विकास नहीं हो सकता। उन्होंने यह भी मान लिया है कि कानून सही समय पर अपना काम नहीं करता इसलिए उसे अपने हाथ में लेने में कोई बुराई नहीं है। चुनावी हार और विरोधियों के दांवपेचों से पराजित होने वाले नेताओं की बौखलाहट बार-बार सामने आती है। पिछले दिनों मनसे के सुप्रीमों राज ठाकरे ने मुंबई के फेरीवालों के खिलाफ फिर से हिंसक अभियान छेड दिया। उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने परप्रांतीय लोगों को चुन-चुनकर निशाना बनाया और जमकर मारपीट की। मारपीट करने वाले इस सच को भूल गए कि फेरीवालों में मराठी मानुष भी शामिल हैं। मनसे वाले बेखौफ होकर फेरीवालों पर आतंकी जुल्म ढाते रहे और पुलिस लगभग मूकदर्शक बनी रही। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने मनसे के खिलाफ रोष जताते हुए उसे कानून को अपने हाथ में नहीं लेने की नसीहत दी तो भी उसे कोई फर्क नहीं पडा।
मुंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष संजय निरुपम ने खुद को उत्तर भारतीयों का मसीहा साबित करने और अपनी ठंडी पडी दुकान को चर्चा में लाने के लिए फेरीवालों के हौसले बुलंद करने के लिए कहा कि खुद की जान बचाने के लिए अगर कानून हाथ में लेना पडे तो किंचित भी देरी मत करो। गुंडों की मार खाने से बेहतर है उनसे भिडना और लडना। संजय के भडकाऊ भाषण का असर होने में देरी नहीं हुई। संजय की सभा खत्म होने के बाद जब फिर मनसे के कार्यकर्ता फेरीवालों को खदेडने के लिए पहुंचे तो उन्होंने भी उनका जमकर प्रतिरोध किया और जमकर मारपीट हुई। कइयों को गंभीर चोटें आयीं। कुछ को अस्पताल में भी भर्ती करना पडा। इस बार पुलिस ने भी खासी फुर्ती दिखाई। दंगा भडकाने के आरोप में निरुपम के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लाखों लोग मुंबई एवं आसपास मेहनत मजदूरी करने के लिए आते हैं। कई लोग यहां स्थायी तौर बस चुके हैं। मेहनतकश लोग बरसात, धूप, आंधी-तूफान की परवाह किये बिना फुटपाथ पर अपनी अस्थायी दुकानें लगाकर किसी तरह से अपने घर चलाते हैं। नियम तो यह कहता है कि यदि फेरीवालों के पास लाइसेंस नहीं है तो महानगरपालिका को ही उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन वर्षों से यही देखा जा रहा है कि कभी शिवसेना तो कभी मनसे के बहादुर कार्यकर्ता कानून को अपने हाथ में लेकर उनके साथ मारपीट करते हैं। ठेलों में विक्रय के लिए रखे गए सामानों को नुकसान पहुंचाते हैं। कांग्रेसी संजय निरुपम के भडकाऊ सुझाव को किसी भी हालत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। यह भी हकीकत है कि संजय निरुपम की राजनीति की शुरुआत शिवसेना से हुई थी। जब वे शिवसेना के मंच पर छाती तानकर भाषणबाजी किया करते थे तब भी उत्तर भारतीय शिवसैनिकों के हाथों प्रताडित होते थे। तब उनका कभी मुंह खुलते नहीं देखा गया। उन्हें राजनीति में अपने पैर जमाने थे इसलिए चुप्पी साधे रहे। दरअसल मतलबपरस्ती ऐसे नेताओं के खून में समायी है। आज वे कांग्रेस में हैं, लेकिन उनकी सुनी नहीं जा रही। इसलिए उन्होंने हिंसक तेवर दिखाकर यह दर्शाने की कोशिश की है कि अकेले वे ही ऐसे कांग्रेसी हैं जो परप्रांतीयों के लिए ढाल बनने का दम रखते हैं। इस चक्कर में उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि देश में सक्षम कानून है जो गुंडे बदमाशों के होश ठिकाने लगाने में सक्षम है। फेरीवालों को कानून को अपने हाथ में लेने की उनकी सीख से कहीं न कहीं यह भी लगता है कि वे भी उसी गुंडागर्दी में प्रबल यकीन रखते हैं जिसमें दूसरे नेता पारांगत हैं और वर्षों से आतंक मचाते चले आ रहे हैं। यह कैसी विडंबना है कि एक ओर जहां देश में आपसी सद्भाव के नारे लगाये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ अपनों के हाथों अपनों का अपमान होता है, खून बहाया जाता है। यकीनन यह देश के अच्छे भविष्य के संकेत नहीं हैं। पिछले दिनों विदेशी पर्यटकों के साथ जो बदसलूकी हुई उसने भी देश को कलंकित किया है। मेहमान देशी हों या विदेशी... उनके साथ दुर्व्यवहार का होना बेहद दु:खद, शर्मनाक और निंदनीय है। देश के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर देशी और विदेशी सैलानियों के साथ होने वाली बदसलूकी हमारी सभ्यता और संस्कृति को कटघरे में खडा करती है। लगता है कि 'अतिथि देवो भव:' कहना अब मात्र दिखावा रह गया है। इसकी मूल भावना की हत्या का अनवरत सिलसिला जारी है। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर सीकरी में जिन दो विदेशी पर्यटकों को मारा-पीटा गया वे तो भारतवर्ष को मेहमान नवाजी के मामले में एक आदर्श देश मानकर पर्यटन के लिए आए थे। इस विदेशी दंपति को देखते ही कुछ लोगों ने उन पर अभद्र टिप्पणियां करने के साथ-साथ लाठियों और पत्थरों से भी हमला किया। अगर ऐसी घटनाएं नहीं थमीं तो सोचिए कि विदेशी पर्यटक हिन्दुस्तान के बारे में क्या सोचेंगे और क्यों आएंगे? यह भी काबिले गौर है कि देश में आने वाले विदेशी प्रयटकों की संख्या में धीरे-धीरे कमी आती जा रही है...।

Thursday, October 26, 2017

इस रोग का क्या है इलाज?

२०१७ की दिवाली की शाम। नागपुर में फिर एक युवक अंधश्रद्धा की बलि चढा दिया गया। कुणाल खेरे नामक छत्तीसगढी १९ वर्षीय युवक अपने घर के होम थियेटर पर गौरा-गौरी के गानों का आनंद ले रहा था। नागपुर के डिप्टी सिगनल इलाके में काफी बडी संख्या में रोजी-रोटी की तलाश में छत्तीसगढ के लोग आकर बसे हैं। छत्तीसगढ की तर्ज में नागपुर में भी गौरा-गौरी उत्सव बडी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। उत्सव की तैयारियों के उत्साह में कुणाल भजनों भरे गीत जोर-शोर से बजाने में तल्लीन था। गीतों की तेज आवाज उसके पडोसी को खल रही थी। उसे गुस्सा आ रहा था। जब उसने देखा कि शोर थमने का नाम नहीं ले रहा है तो उसने कुणाल के घर के सामने खडे होकर अपना तीव्र विरोध जताना शुरू कर दिया। पडोसी का कहना था कि भजनों को सुनने से उसकी पत्नी के शरीर में देवी आ जाती है और वह बेकाबू हो जाती है। कुणाल और उसके परिवार के लोगों ने पडोसी के विरोध को नजरअंदाज कर दिया। इससे पडोसी आग बबूला हो गया और देखते ही देखते दोनों परिवारों में गाली-गलोच और मारपीट होने लगी। इसी दरम्यान कुणाल और उसके पिता पर तीक्ष्ण हत्यारों से हमला कर दिया गया। कुणाल की घटनास्थल पर मृत्यु हो गई।
अंधविश्वास, अंधभक्ति और अंधश्रद्धा ने इस सृष्टि में कितना कहर ढाया है इसका हिसाब-किताब किसी के पास नहीं है। यह वो रोग है जो कहीं न कहीं सदियों से जिन्दा है। इसके खात्मे की न जाने कितनी कोशिशें की गर्इं, लेकिन पूरी तरह सफलता नहीं मिली। गांव तो गांव प्रगतिशील शहर भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। वैसे यह भी सच है कि शहर हों या गांव आखिर बनते तो लोगों की वजह से ही हैं। हमारे ही समाज में ऐसे लोगों की अच्छी-खासी तादाद है जो अंधविश्वास से मुक्त नहीं होना चाहते। इन्हीं की वजह से नये-नये बाबा जन्मते रहते हैं और अपना मायाजाल फैलाकर अंधेरगर्दी का अंधकार फैलाकर अपने आर्थिक साम्राज्य का अकल्पनीय विस्तार करते चले जाते हैं। मायावी साधु-संतों ने समाज को दिया कम और वसूला ज्यादा है। हमारे देश में जिस तादाद में साधु-संत-प्रवचनकार हैं उससे तो होना यह चाहिए था कि आम लोगों में संयम, शालीनता का वास होता और गुस्से की जगह नम्रता और शालीनता की धारा बह रही होती। लेकिन ऐसा दिखता नहीं है। बडे तो बडे बच्चे भी हत्यारों की भूमिका में नजर आने लगे हैं। जो मंजर सामने आ रहे हैं वे बेहद डराते हैं।
नागपुर से ज्यादा दूर नहीं है यवतमाल शहर। इस शहर में ऐन दिवाली के दिन छठवीं कक्षा के एक बारह वर्षीय छात्र की हत्या कर दी गई। हत्यारे थे उसी के तीन हमउम्र साथी। पतंग को लेकर आपसी विवाद हुआ था। तीनों नाबालिगों ने पुलिसिया पूछताछ में बताया कि शाम को ट्यूशन से लौटते समय अभीजित ने पतंग लूट ली थी जिसे उन तीनों ने छीन लिया। अभीजित ने उनकी इस हरकत का पुरजोर विरोध किया और गाली-गलोच पर उतर आया। इसपर वे भी अपना आपा खोकर उसकी तब तक धुनायी करते रहे जब तक वह बेहोश नहीं हो गया। उसे बेहोश देखकर उन्हें शंका हुई कि कहीं वह मर तो नहीं गया। ऐसे में उन्होंने उसका पूरी तरह से काम तमाम करने के लिए पत्थर उठाया और कुचल कर उसे पूरी तरह से मुर्दा कर लाश झाडियों में छुपा दी। जब तीनों नाबालिगों ने इस भयावह वारदात को अंजाम दिया उस समय वे नशे में थे। जहां लाश मिली वहां पर नशेडियों का जमावडा लगा रहता है। नशा करने वालों की वह मनपसंद जगह है।
लोग तरह-तरह का नशा करते हैं। कहते हैं कि सत्ता और धन का नशा सबसे खतरनाक होता है। इसके नशे में चूर इंसान को भी हैवान बनते देरी नहीं लगती। अपने देश में सत्ता के नशे के गुलामों का अहंकार देखते बनता है। देश के विशालतम प्रदेश बिहार के एक गांव में पंचायत के मुखिया दयानंद मांझी की उपस्थिति में दर्जनभर दबंगों ने एक गरीब को जबरन थूक चटवायी और चप्पलों से पिटायी कर अपने अहंकार की पीठ थपथपायी। उस बुजुर्ग गरीब का कसूर यह था कि वह खैनी (तम्बाकू) की चाह में बिना अनुमति लिए एक दबंग के घर चला गया था। दरवाजे पर कोई नहीं था। गांव में शहरों की तरह दिखावटी औपचारिकता निभाने और दिखाने का चलन नहीं है। भारतीय ग्रामों में एक-दूसरे के घरों में बिना पूछे चले जाना आम है। लेकिन दबंग को उस गरीब का घर में प्रवेश करना रास नहीं आया। कोई धनवान होता तो उसे कोई फर्क नहीं पडता, लेकिन गरीब का बिना पूछे घर में प्रवेश करना उसे बुरी तरह से चुभ गया। उसके घर की महिलाओं ने उस पर छेडखानी का आरोप जड दिया। दिवाली के दिन दबंग के घर गांव के मुखिया की अगुवाई में पंचायत बुलाई गई। पंचायत ने जमीन पर थूक फेंककर गरीब बुजुर्ग को चाटने का आदेश दिया जिसे उसे मानना ही पडा। इसके साथ ही महिलाओं ने भी उसकी चप्पलों से पिटायी की। उससे यह शपथ भी दिलाई गई कि वह बिना पूछे किसी के घर में नहीं जाएगा। दबंगों ने तो उसके चेहरे पर कालिख पोत गधे पर बिठाकर पूरे गांव में घुमाने की तैयारी भी कर ली थी। इतनी प्रताडना सहने के बाद भी पीडित थाने में जाकर शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पाया। पंचायत और रईसों की सामंती सोच का विडियो जब वायरल हुआ तो तब कहीं जाकर पुलिस हरकत में आयी। गांव वालों का रवैय्या भी कम शर्मनाक नहीं रहा। गरीब की इज्जत लुटती रही और वे तमाशा देखते रहे। वैसे भी तमाशा देखने के मामले में हम भारतवासियों का जवाब नहीं। विशाखापटनम में एक नशेडी स्थानीय रेलवे स्टेशन के पास के फुटपाथ पर एक विक्षिप्त महिला के साथ बेखौफ होकर बलात्कार करता रहा और लोग अनदेखी कर आते-जाते रहे। कुछ अति उत्साही तमाशबीनो ने तस्वीरें खींची और वीडियो भी बनाया, लेकिन किसी ने भी उस वहशी बलात्कारी को रोकने का साहस नहीं दिखाया।

Thursday, October 19, 2017

क्यों नहीं लेते सबक?


ज़िन्दगी अनमोल है। इसके साथ खिलवाड करना ठीक नहीं है। लोगों को इस बारे में आप लाख समझाते रहो, सतर्क होने का पाठ पढाते रहो, फिर भी कुछ लोग जानबूझकर भूलें करते ही चले जाते हैं। यह हकीकत कितनी हैरान करने वाली है कि भारतवर्ष में हर वर्ष लापरवाही से पटाखे जलाने के कारण लगभग छह हजार लोग अपनी आंखें गंवा देते हैं। 'ब्लू व्हेल' नामक जानलेवा ऑनलाइन सुसाइड गेम की वजह से भारत और दुनिया में कई बच्चों ने को मौत को गले लगा लिया। यह वो आत्मघाती खेल है जिसमें खिलाडी को ५० दिन के अंदर कई टास्क पूरे करने होते हैं और इसका आखिरी टास्क खिलाडी को आत्महत्या के लिए विवश कर देता है। ब्लू व्हेल से दूर रहने के लिए कितना कुछ लिखा और समझाया गया, लेकिन लत तो लत है जो पीछा नहीं छोडती। माना कि स्मार्ट फोन पर युवाओं को रोमांचक गेम खेलना बहुत लुभाता है, लेकिन जान दे देना कहां की अक्लमंदी है? कल ही एक खबर पढने में आयी कि चीन में इसी शौक की वजह से एक इक्कीस वर्षीय लडकी की आंख की रोशनी चली गई। गौरतलब है कि इस लडकी ने लगातार २४ घण्टे तक अपने स्मार्ट फोन पर 'ऑनर ऑफ किंग्स' नामक गेम खेला जिसके बाद उसकी आंख की रोशनी जाती रही। 'ऑनर ऑफ किंग्स' चीन का बेहद लोकप्रिय गेम है जो धीरे-धीरे भारत में भी अपने पांव पसार रहा है। इस गेम को चीन के लगभग २० करोड लोग प्रतिदिन खेलते हैं। अपनी आंखों की रोशनी गंवा चुकी लडकी इस गेम को खेलने के चक्कर में ८-१० घण्टे न कुछ खाती-पीती थी और न ही टायलेट जाती थी। यहां तक कि जिस दिन ऑफिस में छुट्टी होती थी उस दिन सुबह छह बजे उठकर नाश्ता करने के बाद शाम चार बजे तक वह गेम खेलती और नाम मात्र की नींद लेकर फिर रात १ बजे तक गेम खेलती थी।
जीते-जागते इंसानों की जान लेने के खेलों और साजिशों के इस दौर में धन की हद से ज्यादा अहमियत बढ गई है। हम भारतवासी हजारों वर्षों से दीपावली मनाते चले आ रहे हैं। यह महापर्व अंधकार पर प्रकाश की, बुराई पर अच्छाई की, दुर्गुणों पर सदगुणों की और दुर्जनों पर सज्जनों की विजय का प्रतीक है। फिर भी घोर अंधकाररूपी इन बुराइयों का अंत होता नजर नहीं आता। लगभग हर रोज कितनी धोखाधडी, लापरवाही और लूटमारी की खबरें अंधेरे की काली तस्वीर सामने लाकर रख देती हैं। देश की राजधानी दिल्ली में स्थित बाबू जगजीवन अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही और लालची प्रवृति का बदरंग और बेहद भयावह चित्र देखने में आया है। दिल्ली की जहांपुरी इलाके की निवासी सलमा गर्भवती थीं। उन्हें ५ अक्टूबर को उक्त अस्पताल में भर्ती कराया गया था। सात अक्टूबर को जब सलमा का अल्ट्रासाउंड कराया गया तो डॉक्टरों ने जच्चा और बच्चा दोनों को स्वस्थ बताया, लेकिन सलमा दर्द के मारे बेहाल थी। उसकी चीखें अस्पताल के कमरे की दीवारों को हिला रही थीं। कुछ घण्टों के बाद उसके परिजनों ने सलमा की असहनीय तकलीफ के बारे में जब डॉक्टरों को बताया तो उन्होंने कहा गर्भावस्था में ऐसी पीडा का होना आम बात है। परिजनों के भारी दबाव के बाद जब सलमा का एक और अल्ट्रासाउंड कराया गया तो बहुत ही चौंकाने वाला सच सामने आया। रिपोर्ट के मुताबिक बच्चा दो दिन पहले ही गर्भ में मर चुका था। डॉक्टरों के पास इसका कोई जवाब नहीं था। जवाब देते भी कैसे? उनके अंदर बैठे डकैत ने उनकी मानवता का हरण जो कर लिया था। इन डाकुओं की घोर लापरवाही के कारण एक ममतामयी मां का शिशु इस दुनिया में आने से पहले ही दम तोड गया। ऐसे में वही हुआ जो अक्सर होता देखा जाता है। अस्पताल में ही मारपीट और गाली-गलौच की तमाशेबाजी शुरू हो गयी। डॉक्टर खुद को दोषी मानने को तैयार ही नहीं थे। पुलिस ने अस्पताल पहुंचकर परिजनों को शांत करने में बहुत बडी भूमिका निभायी। उसके बाद सलमा को दूसरे अस्पताल ले जाया गया जहां मृतभ्रूण को बाहर निकाला गया और संक्रमण फैलने की स्थिति टल पाई।
कई लोग कभी नहीं बदलते। स्वार्थ और लालच के पहिए पर उनकी जिन्दगी सतत दौडती रहती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें उनके जीवन में आने वाले तूफान बदल कर रख देते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि वे खुद में परिवर्तन लाने या दिखाने को मजबूर हो जाते हैं। इस हकीकत ने बहुत तसल्ली दी कि अपनी बेटी आरुषि की हत्या के मामले में जेल में लगभग चार साल तक बंद रहे तलवार दंपति ने कैदियों की सेवा में खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया था। जब वे जेल में आए तो उन्हें जेल अधिकारियों ने कैदियों की सेवा में जुट जाने का अनुरोध किया। दांत की बीमारी को लेकर कई कैदी परेशान थे और दंत चिकित्सा विभाग बंद हो चुका था। कैदियों को इलाज के लिए बाहर भी नहीं भेजा जा सकता था। तलवार दंपति ने कैदियों की तकलीफों को समझते हुए फौरन स्वीकृति दे दी। नुपुर तलवार महिला कैदियों के इलाज तो राजेश तलवार पुरुष कैदियों के दर्द को दूर करने में इस कदर डूब गए कि जेल अधिकारी भी उनकी सेवा-भावना का अभिनंदन करने को विवश हो गए। दोनों ने १४१८ दिन जेल में काटे। उनकी रिहाई के फैसले से दस मिनट पहले जेल क्लीनिक से संदेश आया कि एक कैदी के दांतों में बहुत दर्द है तो राजेश तलवार तुरन्त क्लीनिक पर गए और उसका इलाज किया। उन्हें जेल में रोज महज ४० रुपये दिहाडी मिलती थी। दोनों ने ४९,५००-४९,५०० रुपये यानी कुल मिलाकर निन्यानवे हजार रुपये कमाए। इस रकम को भी उन्होंने दान कर दिया। जेल से रिहा होने के बाद तलवार दंपति ने यह निश्चय किया है कि वे कैदियों के इलाज के लिए हर १५ दिन में डासना जेल जाते रहेंगे।

Thursday, October 12, 2017

बदलाव के बीज

बाल मजदूरों, भीख मांगने और नशा करने वाले बच्चों पर लोगों का कम ही ध्यान जाता है। नेता उनकी कमजोरी, विवशता और मुश्किलों को अपने भाषणों में ही ज़ाहिर कर संतुष्ट हो जाते हैं। इस दुनिया में शायद ही ऐसे माता-पिता होंगे जो अपने बच्चों को पढा-लिखाकर बडा आदमी बनाने की ख्वाहिश नहीं रखते होंगे। गरीब से गरीब मां-बाप अपने बच्चों के स्वर्णिम भविष्य का सपना देखते हैं, लेकिन जिनके पास न रहने को घर होता है और न ही दो वक्त की रोटी का जुगाड, उनकी सभी चाहतें धरी की धरी रह जाती हैं। उनके बच्चों का बचपन उन्हीं के सामने दम तोड देता है और वे कुछ नहीं कर पाते। मेरे देश में ऐसे बेबस लोगों की संख्या करोडों में है। मेरे ही देश में ऐसे कुछ धर्मात्मा हैं जो सडक पर भीख मांगते और बाल मजदूरी करते बच्चों को देखकर विचलित हो जाते हैं और उनकी आंखें भीग जाती हैं।
मैंने कल ही एक खबर पढी : पंजाब में स्थित पटियाला के थापर इंजिनियरिंग के तीन छात्र अनोखे मिशन पर हैं। वे बाल मजदूरी कर रहे या भीख मांग रहे मासूम बच्चों को मुफ्त में पढाते हैं। उन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के कटोरा थामने को विवश हुए हाथों में कलम थमाकर उन राजनेताओं और शासकों के मुंह पर तमाचा जडा है जो देश के भविष्य को संवारने का झांसा देकर वोट हथियाते हैं और निर्लज्जता के साथ सत्ता पर काबिज होते चले जाते हैं। यह तीनों छात्र गांव-गांव जाकर लोगों को बाल मजदूरी न कराने के लिए जागरूक करते हैं। उनकी इस मुहिम से और भी कई लोग जुडते चले जा रहे हैं। उन्होंने अपनी इस मुहिम को 'हर हाथ कलम' नाम दिया है। हरीश कोठारी जो कि 'हाथ धरे कलम' के संरक्षक हैं, ने बताया कि तीन साल पहले वह अपने दो दोस्तों के साथ यूनिवर्सिटी के बाहर चाय पीने गए थे, तब वहां दीपक नामक छोटा बच्चा चाय के जूठे बर्तन धो रहा था। हमने बच्चे से पूछा कि तुम्हे इस छोटी-सी उम्र में मजदूरी क्यों करनी पड रही है तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आंखों में तैरती उदासी और गहरी चुप्पी ने हमारे मन को झकझोर कर रख दिया। हमें पता चला कि उसके माता-पिता पास के ही गांव में रहते हैं। हम गांव गये और वहां जाकर हमने उन्हें बेटे को बालमजदूरी नहीं कराने के लिए किसी तरह से राजी किया। आज वह दस वर्षीय बच्चा रोजाना दूसरे बच्चों के साथ स्कूल पढने जाता है। उसके चेहरे की चमक देखते बनती है। दीपक की तरह कई बच्चों के हाथों से भीख का कटोरा छूट गया है। 'हाथ धरे कलम' के द्वारा गरीब बच्चों को कॉपी व किताबें मुहैय्या कराई जाती हैं। गौरतलब है कि भीख मांगना छोड चुके बच्चों को पढाने के लिए स्थान की जरूरत थी इसके लिए प्रशासन ने शहर के तीन नामी स्कूलों - रेयान इंटरनेशनल, सेंट पीटर्स एवं डीएवीवी पब्लिक स्कूल में बच्चों को पढाने की मंजूरी दिला दी है। यह तीनों परोपकारी छात्र करीब सत्तर बच्चों को शाम पांच बजे से सात बजे तक खुद पढाते हैं।
अभिषेक सिंह राठौर उच्च अधिकारी हैं। पिछले वर्ष उनकी नियुक्ति नैनीताल में हुई तो वे सहज ही शहर में घूमने के लिए निकले। उन्होंने सडक पर बच्चों को भीख मांगते देखा। कुछ बच्चे नशा करते भी नजर आए। ऐसे दृश्य हर शहर में देखने को मिल जाते हैं। शासन और प्रशासन के द्वारा इसे सामान्य घटना मान नजरअंदाज कर दिया जाता है। हालांकि भिखारियों के पुनर्वान के लिए सरकारें करोडो रुपये खर्च करने का दावा करती हैं। भिखारियों की पकडा-धकडी भी होती है फिर भी उनकी संख्या बढती चली जाती है। बच्चों को भीख मांगते देख राठौर के मन में विचार आया कि इन्हें भीख देने की बजाय किसी और तरीके से सहायता की जाए। भीख मांगना और भीख देना दोनों अपराध हैं। उन्होंने बच्चों से बात करने की कोशिश की। पहले तो वे राजी नहीं हुए। फिर जब एक दिन बच्चों को पैसों का लालच दिया तो वे यह बताने को राजी हो गए कि उन्होंने भीख मांगना कब और क्यों शुरू किया। कई बच्चे ऐसे थे जिन्हें परिवार की गरीबी के चलते भीख मांगनी पडती थी। कुछ के पिता नकारा थे और वे खुद बच्चों को भीख मांगने के लिए विवश करते थे। कुछ बच्चे ऐसे भी थे जो अनाथ थे। ऐसे मां-बाप की संख्या ज्यादा थी, जिन्होने अपने बच्चों को स्कूल को पढाने-लिखाने की कभी सोची ही नहीं थी। उनका यही मानना था कि अगर बच्चे भीख नहीं मांगेगे तो उनके पूरे परिवार को रात को भूखे पेट सोना पडेगा। राठौर ने संकल्प कर लिया कि भीख मांगने वाले और नशेडी बच्चों के भविष्य को किसी न किसी तरह से संवार कर ही दम लेना है। यकीनन यह काम आसान नहीं था। लेकिन राठौर एक जिद्दी और जूनूनी अधिकारी हैं जो ठान लेते हैं उसे अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं। राठौर ने बच्चों के मां-बाप से मिलने का निश्चय किया। सभी के घर गंदी बस्तियों में थे जहां हर कोई जाना पसंद नहीं करता। राठौर अफसर होते हुए भी उनके मां-बाप से मिले और उन्हें समझाया कि आप लोगों ने अपनी तो जिन्दगी तबाह कर दी पर अब बच्चों के साथ तो बेइंसाफी मत करो। इन्हें पढाओ-लिखाओ। इनका भविष्य बनाओ। पहले तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया। उनका कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता। उनका परिवार भीख से ही चलता है। वर्षों से ऐसा होता चला आ रहा है। फिर बच्चों को पढाई-लिखाई में होने वाला खर्च भी तो उठा पाना भी उनके लिए आसान नहीं है। राठौर ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे बच्चों की पढाई और छोटी-मोटी तमाम जरूरतों को पूरा करेंगे। माता-पिता को भी रोजगार और नौकरी दिलवाने में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। आखिरकार कई मां-बाप राजी हो ही गए। राठौर ने बच्चों को छावनी परिषद के एक स्कूल में दाखिल करा दिया। स्कूल संचालकों को मनाने के लिए भी उन्हें काफी पापड बेलने पडे। धीरे-धीरे बदलाव आने लगा। कुछ बच्चों के माता-पिता जो खून-पसीना बहाने से नहीं कतराते थे उनके लिए भी नौकरी, रोजगार की व्यवस्था भी की। राठौर को इस बात का भी दु:ख सताता रहा कि कुछ परिवार वालों ने स्कूल के बाद शाम को बच्चों से भीख मंगवाने का सिलसिला बरकरार रखा। धीरे-धीरे अधिकांश बच्चों में सुधार देखने को मिलने लगा है। राठौर सतत अपने अभियान में लगे हैं। कोई भी बच्चा भीख मांगता दिखता है तो उसे स्कूल में दाखिल करवा देते हैं। बच्चों की पढाई अनवरत चलती रहे इसके लिए आर्ट आफ लिविंग की एक संस्था 'हैपीनेस ह्यूमन कलेक्टिव' की मदद भी ली जा रही है। बच्चों की माताओं को स्कूल में भोजन बनाने का रोजगार भी उपलब्ध कराया गया है। बच्चों को नशे से मुक्ति दिलाने के लिए भी कई संस्थाओं की मदद ली जा रही हैं। वे कहते हैं कि मेरी योजना इन बच्चों को पढा-लिखाकर ऐसा आदर्श उदाहरण बनाने की है जो अपने जैसे बच्चों के लिए खुद ब्राँड एम्बेसेडर का काम करें।

Thursday, October 5, 2017

घुटने न टेकने की जिद

कुछ नारियों से मिलने, उनके बारे में पढने और जानने के बाद मन में अपार सम्मान, श्रद्धा और नतमस्तक होने के भाव जाग उठते हैं। उनका धरा-सा धैर्य, सेवा भावना, अग्नि-सा तेज और नीर-सी मिलनसारिता खुद-ब-खुद उन्हें आदर्श नायिकाओं वाली वो पदवी दिला देती है जिस पर गर्व ही गर्व होता है। अपनी हिम्मत, ज़ज्बे और हौसले की बदौलत कुछ नया करने और विपरीत से विपरीत परिस्थितियों का डटकर सामना करने वाली वैसे तो भारतवर्ष में कई महिलाएं हैं, लेकिन कुछ महिलाओं के द्वारा उठाये गये नये कदम और जीवन संघर्ष पर मेरा लिखने को मन हो रहा है। बेटे के हत्यारों को अधिकतम सजा दिलाकर दम लेने वाली नीलम कटारा के अटूट साहस और विपरीत हालातों से टकराने की लम्बी कहानी है। उन जैसी हौसले वाली महिलाएं कम ही देखने में आती हैं। उनका एक जवान बेटा था जिसका नाम था- नीतीश कटारा। नीतीश ने मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी गाजियाबाद संस्थान से स्नातक की उपाधि ली थी। २५ वर्षीय नीतीश पढाई के दौरान अपनी सहपाठी भारती यादव से प्यार करने लगा था। भारती भी उसे दिलोजान से चाहती थी। भारती के परिवार वालों को दोनों के प्रेम और मिलने-जुलने पर घोर आपत्ति थी। १७ फरवरी २००२ को भारती के भाई विकास ने नीतीश की हत्या कर दी। विकास का पिता डीपी यादव कहने और दिखाने को राजनेता है, लेकिन दरअसल वह छंटा हुआ गुंडा और बदमाश है। नेतागिरी का नकाब ओढकर उसने अपार धन-दौलत कमायी है। दौलत और रसूख के गरूर में अंधे हो चुके पिता और बेटे को एक आम परिवार से ताल्लुक रखने वाले युवक से अपनी बेटी का रिश्ता जोडना गवारा नहीं था। हत्यारों ने नीतीश के शव को बुरी तरह से जलाकर फेंक दिया था ताकि उसकी शिनाख्त न हो सके। मां नीलम ने लगभग पूरी तरह जल चुके बेटे के शव को देखते ही पहचान लिया था। वे काफी देर तक बेटे के शव को निहारती रहीं। भीड को लगा कि युवा बेटे की मां खुद को संभाल नहीं पायेगी। लेकिन इस बहादुर मां ने फौरन ही खुद को संभाला और पुलिस वालों से जब यह पूछा कि शव का डीएनए टेस्ट कहां होगा तो लोग उनकी तरफ देखने लगे। अपने लाडले बेटे को खो चुकी मां ने तभी ठान लिया था कि अब इंसाफ की लडाई लडना ही उनके जीवन का एकमात्र मकसद है। न्याय की लडाई लडने के लिए उन्हें कई तकलीफों का सामना करना पडा। बार-बार धमकियां दी गयीं। धन लेकर चुपचाप बैठ जाने का दबाव भी डाला गया, लेकिन बहादुर मां ने हार नहीं मानी। बेटे के हत्यारों की हर चाल को नाकाम करते हुए उन्हें अधिकतम सजा दिलवा कर ही दम लिया। नीलम कटारा ने निर्बलों को न्याय दिलाना अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। अनाचारी नेताओं और नकाबपोश समाज के ठेकेदारों के खिलाफ उनकी बुलंद आवाज गूंजती रहती है।
देश में जहां-तहां बेटियों पर तेजाब फेंककर उनकी जिन्दगी तबाह करने की खबरें सतत पढने और सुनने को मिलती रहती हैं। एकतरफा प्यार करने वाले बिगडैल युवकों को एसिड अटैक कर तसल्ली का आभास होता है। देखने में आ रहा हैं कि अधिकांश एसिड अटैक करने वाले कानूनी दांवपेच की बदौलत बच जाते हैं या फिर बहुत कम सजा मिलती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंक‹डों के अनुसार तेजाब फेंकने की सबसे अधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में हो रही हैं। २०१५ में ही देशभर में ऐसे मामलों में ३०५ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन हकीकत यह है कि मात्र १८ मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाया। वास्तविकता यह भी है कि सभी तेजाबी हमलों की रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज नहीं होती। इसलिए तेजाब से कितनी जिन्दगियां तबाह होती हैं इसके वास्तविक आंकडे सामने नहीं आते। यह भी सच है कि तेजाबी अत्याचार, शोषण, बलात्कार, हत्या से भी अधिक पीडा देता है। यह एक तरह से जीवन की सारी खुशियां और सपने छीन लेता है। लक्ष्मी अग्रवाल जैसी चंद नारियां ऐसी भी हैं जिन्होंने तेजाब के जानलेवा वार को झेलने के बाद संघर्ष की ऐसी मिसाल पेश की है जिसका यशगान देश और दुनिया में गूंज रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में १९९० में जन्मी लक्ष्मी अग्रवाल जब पंद्रह वर्ष की थीं तब एक तरफा प्रेम में पडे ३२ वर्षीय सनकी युवक ने तेजाब फेंक दिया। लक्ष्मी का दोष बस इतना था कि उसने शादी से इन्कार कर दिया था। सिर से पांव तक तेजाब में नहायी लक्ष्मी स‹डक पर तडप रही थी और लोग देखकर भी अनदेखा कर आगे बढते चले जा रहे थे। एक शख्स को दया आयी और उसने लक्ष्मी को अस्पताल पहुंचाया। पूरे दो महीने तक वह अस्पताल के बिस्तर पर बिलखती-तडपती, कराहती रही। डिस्चार्ज होने के बाद जब वह अपने घर पहुंची तो उसके मन में दर्पण देखने की इच्छा जागी। लेकिन घरवालों ने तो सभी दर्पण ही गायब कर दिए थे। अंतत: उसने पानी में अपनी सूरत देखी तो उसे पूरी दुनिया ही घूमती नजर आई। आत्महत्या के प्रबल विचार ने उसे जकड लिया। घर से बाहर निकलने पर आसपास के लोगों की तानाकशी ने भी लक्ष्मी को काफी आहत किया। लोग अजीब निगाह से देखते और यही जताते कि जैसे इस सबकी वह ही दोषी हो। यह तो लक्ष्मी के पिता ही थे जिन्होंने उसे लोगों की नुकीली निगाहों और तानों को नजरअंदाज कर नया जीवन जीने की सीख दी। पिता की सीख ने लक्ष्मी के मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार कर दिया। उसके बाद लक्ष्मी ने तेजाब फेंकने वाले बदमाश को अधिकतम सजा दिलवाने और जमाने को यह दिखाने की ठान ली कि चेहरे की सुंदरता तो दिखावटी है। इंसान को तो दिल से सुंदर होना चाहिए। लक्ष्मी अगर तब घुटने टेक देतीं तो उनका भी वही हश्र होता जो एसिड अटैक से तन-बदन जला कर अंधेरे के हवाले हो चुकी कई महिलाओं का हो चुका है। लक्ष्मी ने एसिड अटैक पीडित महिलाओं की सहायता करने की राह पकड ली। अनेक तेजाब पीडित महिलाओं के अंधेरे जीवन में उजाला भर लक्ष्मी ने अपने सभी गमों को बहुत पीछे छो‹ड दिया। उन्होंने ताज नगरी आगरा में ताजमहल से थो‹डी दूरी पर 'शीराज हैंगआउट' नामक कैफे शुरू किया जिसे एसिड अटैक पीडित महिलाएं चलाती हैं। ३०० से ज्यादा महिलाओं को प्रशिक्षित कर चुकी लक्ष्मी को २०१४ में यूएस की फस्र्ट लेडी मिशेल ओबामा के हाथों 'इन्टरनेशनल वाइल्ड ऑफ कौर्यज अवार्ड' से नवाजा जा चुका है। २०१४ में ही वह आलोक दीक्षित नाम के सामाजिक कार्यकर्ता के संपर्क में आयीं। दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और जीवनपर्यंत एक साथ रहने का फैसला कर लिया।
भयंकर गर्मी के दिन थे। एक युवती अपने दोस्तों के साथ मॉल में खरीदी और मौज-मज़ा करने के लिए गई थी। जब वह मॉल के बाहर निकली तो उसने ऐसे कुछ गरीब बच्चों को देखा जिनके पैरों में चप्पल नहीं थी। पेट की भूख की तडप उनके चेहरे से साफ-साफ झलक रही थी। उन्हें भीख मांगते देख उसके मन में कई तरह के विचार आने लगे। वह मॉल से घर लौट तो आई, लेकिन नंगे पैर, भीख मांगते बच्चों का चेहरा बार-बार उसके सामने आ जाता। उसके मन में विचारों की आंधी चलने लगी। उसने सोचा कि पांच-सात सौ रुपये तो वह यूं ही उडा देती है। इन बच्चों को पचास-सौ रुपये की चप्पल नसीब नहीं। नंगे पैर घूमने से बच्चों के पैरों में इन्फेक्शन और कई बीमारियां हो जाती हैं। इन रुपयों से दस-बारह बच्चों का खाना और पैरों में एक जोडी चप्पल तो जरूर आ सकती है। उसने सबसे पहले बच्चों के नंगे पैरों के लिए चप्पलें उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। वह अपने दोस्तों से मिली। बच्चों की तकलीफ के बारे में उन्हें अवगत कराया। आपस में मिलकर पैसे जुटाये गए। इन पैसों से बच्चों के लिए चप्पलें खरीदी गयीं। युवती ने रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और गलियों में रहने वाले गरीब बच्चों को चप्पलें बांटनी शुरू कर दीं। उसका साथ देने वालों का कारवां बढता चला गया। आज उसकी टीम में डाक्टर, इंजिनियर और समाजसेवक शामिल हैं। जहां चप्पलें बांटनी होती हैं वहां पर उनकी टीम पहले जाकर सर्वेक्षण करती है फिर उन परिवारों को चप्पले बांटी जाती हैं जिन्हें इनकी वास्तविक जरूरत होती है। जयपुर से अपनी पढाई पूरी कर दिल्ली लौटी युवती ने यहां पर भी अपना काम जारी रखा है। सैकडों बच्चों को चप्पलें उपलब्ध करा इस सच्ची बालसेविका का अगला लक्ष्य गरीब बच्चों को एक फिटनेस किट मुहैया कराना हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी अपने स्तर पर अपने आसपास के गरीब बच्चों की मदद करें। ताकि कोई भी बच्चा नंगे पैर होने के कारण बीमार न पडे। बच्चों के नंगे पैरों में चप्पलें पहनाने वाली इस आदर्श युवती का नाम है डॉ. समर हुसैन। क्या आप उसका अभिनंदन नहीं करना चाहेंगे?

Thursday, September 28, 2017

इस हिंसा और बर्बरता के क्या हैं मायने?

क्या जमाना है। कोई कानून तोड रहा हो, माहौल बिगाड रहा हो, बेहूदा हरकतें कर रहा हो, वातावरण को दूषित कर रहा है... तो भी आप उसे रोक नहीं सकते। सामने वाला आपको अपना शत्रु मानने लगता है उसके सिर पर खून सवार हो जाता है। कल दिल्ली में एक वकील सार्वजनिक स्थल पर सिगरेट के धुएं के छल्ले उडा रहा था। उसकी इस हरकत को फोटोग्राफी के दो छात्र देख रहे थे। उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने बडी शालीनता के साथ वकील को सरेआम सिगरेट न पीने का अनुरोध किया। छात्र तो सर... सर कर बात कर रहे थे, लेकिन वकील तू... तडाक और गाली-गलौच पर उतर आया। छात्र शालीनता का दामन थाम अपनी बाइक पर सवार होकर जाने लगे तो वकील ने अपनी कार बाइक पर च‹ढा दी। एक छात्र की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। वकील शराब के नशे में धुत था और सिगरेट के छल्ले बनाकर आने-जाने वाली महिलाओं के मुंह पर मार रहा था। लोग तमाशबीन बने देख रहे थे। किसी ने भी उसे फटकारने की हिम्मत नहीं की। दो सजग छात्रों ने पहल की तो एक छात्र को जान से हाथ धोना पड गया। यह हमारे समाज का वो डरावना चेहरा है जो डराता है और चिंतन-मनन को विवश करता है कि आखिर लोगों में इतना गुस्सा क्यों है और वे कानून से खौफ क्यों नहीं खाते?
मध्यप्रदेश के अशोक नगर में एक पिता ने पत्नी और गांव वालों के तानों से तंग आकर अपनी दो बेटियों को बेतवा पुल के नदी में फेंककर मार डाला। हत्यारे पिता का कहना था कि मुझसे बार-बार कहा जाता था कि तेरी तीन-तीन बेटियां हैं। तेरी पत्नी फिर गर्भवती हो गई है। उस पर तुम कामधंधा तो करते नहीं हो फिर ऐसे में बच्चों की परवरिश कैसे करोगे। उनका पेट कैसे भरोगे...?
कमलेश अहिरवार नामक यह दरिंदा अपनी छह वर्षीय बेटी रक्षा और तीन वर्षीय बेटी पूनम को इलाज के बहाने ले गया और जब दो दिन बाद वह अकेला घर लौटा तो पत्नी ने बेटियों के बारे में पूछा। उसने नजर चुराते हुए बताया कि चौराहे पर सुलाकर कहीं चला गया था। जब वापस आया तो बेटियां वहां से गायब थीं। पत्नी, पति के जवाब को सुनकर हैरत में पड गई। यह कैसा बाप है जिसे अपनी बेटियों का गायब होना किसी मामूली से सामान के गुम हो जाने जैसा लग रहा है! पति चुपचाप कमरे में जाकर चादर ओढकर बेफिक्र सो गया। पत्नी के तो होश ही उड चुके थे। उसने पति को फटकारा और फौरन थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने दबाव डालने लगी, लेकिन वह टालमटोल करने लगा। पत्नी ने अपने रिश्तेदारों के साथ जाकर थाने में बेटियों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई तो बेटियों की हत्या का यह शर्मनाक, भयावह सच सामने आया। इस तरह से मेरठ में एक जल्लाद बाप ने अपनी दुधमुंही बेटी को गला घोटकर मार डाला और शव को सूखे तालाब में दबाकर बेफिक्र हो गया। हुआ यूं कि राजेश कुमार नामक युवक का अपनी दूसरी पत्नी से झगडा हुआ। पत्नी गुस्से में घर से निकल गई। इसके कुछ मिनटों के बाद बच्ची रोने लगी। राजेश गुस्से में आग बबूला हो गया और उसने अपनी मासूम बच्ची का गला दबाकर मार डाला। गांव के लोग सुबह सैर को निकले तो उनकी नजर सूखे तालाब में मिट्टी हटाकर कुछ नोचने की कोशिश करते कुत्तों पर पडी तो उनका माथा ठनका। कुत्तों को वहां से हटाया गया तभी सात माह की बच्ची का शव नजर आया।
दिल्ली के गोकुलपुरी इलाके में एक शख्स को पडोसी के नाबालिग बेटे को शराब न पीने की नसीहत देना भारी पड गया। वह शख्स जब अपने घर जा रहा था तो रास्ते में उसे अपने पडोसी का लडका अपने कुछ दोस्तों के साथ शराब पीते नजर आया। उसने पडोसी धर्म निभाते हुए लडके को कहा कि वह अक्सर उसे यहां दोस्तों के साथ शराबखोरी करते देखता है, आज तो वह उसके पिता को उसकी शिकायत करके ही रहेगा। वह नाबालिग फौरन अपने घर गया और पिता को बुला लाया पिता-पुत्र ने रॉड से हमला कर नसीहत देनेवाले शख्स को इतना पीटा कि उसे अस्पताल ले जाना पडा। बडी मुश्किल से उसकी जान बच पायी।
खून के रिश्तों को डसती निष्ठुरता की खबरें हिलाकर रख देती हैं। कुछ महीने पूर्व एक बेटे की बेरहमी की खबर ने काफी सुर्खियां पायी थीं। बेटा विदेश में रहता था और मां अकेली दिल्ली में। उम्रदराज मां के नाम दिल्ली में करोडों की सम्पत्ति थी। इकलौते बेटे के सात समन्दर पार रहने के कारण मां की देखरेख करने वाला कोई नहीं था। एक दिन बेटा विदेश से लौटा। मां को संपूर्ण सम्पत्ति बेचकर अपने साथ विदेश चलने के लिए राजी कर लिया। किसी भी मां के लिए बेटे के साथ से बढकर और कुछ नहीं होता। वह राजीखुशी तैयार हो गई। बेटे ने आनन-फानन में संपत्ति का सौदा कर करोडों रुपये अपनी अटैची में रखे और मां को साथ लेकर हवाई अड्डे पहुंच गया। मां की खुशी का पार नहीं था। अपने बेटे, पोते-पोतियों के साथ शेष जीवन बिताने का उसका वर्षों का सपना पूरा होने जा रहा था। "मां तुम यहां पर बैठों मैं एक जरूरी काम निपटाकर आता हूँ।"  बेटे ने बडी आत्मीयता के साथ मां को आश्वस्त किया और चला गया। घडी की सुई खिसकने लगी। मां राह देखती रही। दोपहर से रात हो गयी, लेकिन बेटे का कोई अता-पता नहीं था। उसने हवाई अड्डे के अधिकारियों को अपनी चिन्ता से अवगत कराया। खोजबीन की गई तो पता चला कि बेटा तो घंटो पहले विदेश फुर्र हो चुका है। अकेली मां रोती-बिलखती रही। यह खबर देश के तमाम अखबारों में छपी। लोगों ने नालायक बेटे को जी-भरकर कोसा। दूसरे दिन की सुबह अपनी ही औलाद के हाथों ठगी गई मां की हार्टअटैक से मौत हो गई।
दिल्ली के निकट स्थित नोएडा में बीते सप्ताह एक और अहसानफरामोश बेटा अपनी उम्रदराज मां को जिला अस्पताल के इमरजेंसी में इलाज के बहाने छोडकर चलता बना। उसने अस्पताल को अपना मोबाइल नंबर भी गलत दिया था। बुजुर्ग मां अपनी गंभीर बीमारी को भूल बार-बार बेटे का नाम लेकर रोती रही। बेटे ने मां को पूरी तैयारी के साथ अस्पताल में लाकर छोडा था। उसने मां के पूरे कपडे और अन्य जरूरी सामान एक बडे अटैची में भरे थे। डॉक्टर ने जब इलाज शुरू किया तो वह दवाई लेने के बहाने से अस्पताल से जो गया कि डॉक्टर भी इंतजार करते रहे और मां के तो रो-रो कर आंसू ही सूख गए।

Thursday, September 21, 2017

जवाब मांगते सवाल

एक जमाना था जब स्कूल, पाठशाला का नाम लेते ही आंखों के सामने देवी-देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित मंदिर की तस्वीर घूमने लगती थी। माता-पिता अपने बच्चों को इस मंदिर में भेजकर गर्वित होते थे। उन्हें वहां पर अपनी संतानों के पूर्णतया सुरक्षित होने का भरोसा रहता था। मां-बाप सबकुछ मंदिर के भगवान पर छोड देते थे। मास्टरजी भी अपने छात्रों को अपनी औलादों की तरह ज्ञान, स्नेह और सुरक्षा प्रदान करते थे। वक्त पडने पर डंडे से कुटायी भी कर देते थे। अभिभावकों को भी कोई आपत्ति नहीं होती थी। वक्त बदलने के साथ-साथ स्कूल, पाठशालाएं भी बदल गयीं और मास्टर साहब भी। बीते सप्ताह गुरुग्राम में स्थित एक नामी स्कूल, जिसे रायन इंटरनैशनल स्कूल के नाम से पूरे देश में जाना जाता है, में हुई प्रद्युम्न नामक सात साल के बच्चे की निर्मम हत्या ने समस्त सजग देशवासियों को हिलाकर रख दिया। दरअसल, यह हत्या उस भरोसे की हुई जिस भरोसे से बच्चों को पढने और संस्कारित होने के लिए स्कूल भेजा जाता है। माता-पिता को जब अपने बच्चे की बर्बर हत्या की खबर मिली तो वे अपनी सुध-बुध खो बैठे। उनके लिए उनका बेटा ही उनके जीने का एकमात्र मकसद था। उनके सारे सपने चकनाचूर हो गए। आज भी मां के सामने बार-बार बेटे का चेहरा घूमने लगता है, जिसे वह रोजाना स्कूल के लिए तैयार करती थी। उसने उसे बडा आदमी बनाने के लिए अपनी सभी इच्छाओं को तिलांजलि दे दी थी। बेटी बडी है और बेटा छोटा था। बेटे को स्विमिंग, साइकलिंग और क्रिकेट का काफी शौक था। वह कहता था कि मुझे विराट कोहली बनना है। दिनभर घर में क्रिकेट का बैट लेकर घूमता रहता था।
मां को हवाई जहाज में सारी दुनिया घुमाने की बातें करने वाले बेटे की तस्वीर को निहारती मां के मुंह से बार-बार यही शब्द निकलते हैं कि मेरे बेटे के साथ जो हुआ वह दुनिया में किसी बच्चे के साथ न हो। शिक्षा को कारोबार और व्यापार बनाने वाले निजी स्कूलों की बहुत लंबी श्रृंखला है। अधिकांश स्कूल अंधाधुंध कमायी का जरिया बन गए हैं। यह भी जान लें कि अधिकतर प्रायवेट स्कूल नेताओं, मंत्रियों, तथाकथित समाज सेवकों, उद्योगपतियों और धन्नासेठों के द्वारा चलाये जा रहे हैं। यह ऐसी जमात है जिसका एकमात्र लक्ष्य धन कमाना है। इनमें से अधिकांश खुद अंगूठा छाप हैं, लेकिन बडे-बडे डिग्रीधारियों को अपने इशारे पर नचाते हैं। दरअसल इनके लिए स्कूल, कालेज और अस्पताल चलाना धंधा बन गया है। सरकारें भी इन पर मेहरबान रहती हैं। कौडी के दाम पर जमीनें दे दी जाती हैं। महाराष्ट्र में कई नेता ऐसे हैं जिनके बीसियों स्कूल, कालेज, अस्पताल चल रहे हैं। राकां के दिग्गज नेता प्रफुल्ल पटेल के तो चालीस से ज्यादा स्कूल, कालेज दौड रहे हैं। मेडिकल और इंजिनियरिंग कालेजों में प्रवेश के नाम पर लाखों की वसूली की जाती है। फीस भी अच्छी-खासी होती है। इनके यहां चलने वाली भर्राशाही की तरफ शासन और प्रशासन का बहुत कम ध्यान जाता है। धंधेबाजों के हाई-फाई स्कूलों की मनमानी और लापरवाही की वजह से सतत दिल दहलाने वाली घटनाएं सामने आती रहती हैं। धन के बल पर स्कूलों के प्रबंधक, मालिक तमाम कायदों और दिशा-निर्देशों को जूते की नोक पर रखते हैं और छात्र-छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार, दुराचार एवं हत्याओं तक की खबरें सुर्खियां पाती रहती हैं। दो वर्ष पूर्व बंगलुरु में एक नामी-गिरामी स्कूल में पढने वाली पहली कक्षा की छात्रा पर एक नरपशु जिम इंस्ट्रक्टर ने बलात्कार का जुल्म ढाया था। इस शर्मनाक घटना के विरोध में अभिभावकों और स्थानीय लोगों ने जमकर विरोध प्रदर्शन और तोडफोड की थी। इसी तरह से मुंबई में इसी वर्ष के अगस्त महीने में विख्यात सेठ जुग्गीलाल पोद्दार स्कूल में चार साल की एक मासूम बच्ची बलात्कार का शिकार हुई। बलात्कारी स्कूल का ही चपरासी था।
राजस्थान के बीकानेर के एक निजी स्कूल में तेरह साल की छात्रा के साथ आठ शिक्षकों ने डेढ साल तक बलात्कार किया। इतना ही नहीं यह दुष्ट, छात्रा की अश्लील क्लिप बनाकर उसे लगातार ब्लैकमेल और प्रताडित करते थे जिसके चलते उसे समर्पण हेतु विवश होना पडता था। बलात्कारी शिक्षक स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद उसे कमरे में जबरन बंद कर मनमानी करते थे। पीडिता कहीं गर्भवती न हो जाए इस भय से बलात्कारी शिक्षकों ने उसे इतनी अधिक मात्रा में गर्भ निरोधक गोलियां जबरन खिलायीं जिससे उसे कैंसर हो गया। यह सच भी बेहद चौंकाने वाला है कई पब्लिक स्कूलों के एकदम निकट शराब की दुकानें खुली हुई हैं जहां पर लडते- लुढकते शराबियों का जमावडा लगा रहता है। रायन इन्टरनैशनल स्कूल के समीप खुली दारू की दुकान लोगों के गुस्से का शिकार हो गयी। यहां पर भी बच्चों के सामने आपत्तिजनक गतिविधियां चलती रहती हैं। शराबी छात्राओं के साथ बेखौफ छेडछाड करते हैं। स्कूल की छुट्टी के बाद खुलेआम शराबियों को शराब पीते देखकर बच्चों पर क्या असर पडता होगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। देश के विभिन्न शहरों में चलने वाले पब्लिक स्कूलों के निकट खुली शराब की दुकानों से न स्कूल संचालकों को कोई फर्क पडता है और न ही प्रशासन के दिमाग की घंटी बजती है। बार-बार यही सवाल उठता है कि १०० मीटर के दायरे में शराब की दुकान खोलने की अनुमति कैसे मिल जाती है? यकीनन यह सब धन की माया है। छात्र-छात्राओं की सुरक्षा के प्रति घोर लापरवाही बरतने वाले स्कूल प्रबंधक जानबूझकर इस सच को भी नजरअंदाज करते चले आ रहे हैं कि किशोर न्याय अधिनियम २०१६ की धारा ७५ में स्पष्ट उल्लेख है कि बच्चा जिसके संरक्षण में होगा उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उसी संस्था की होगी।

Thursday, September 14, 2017

आस्था के सौदागर

राजनीति और धर्म के बाजार में वर्षों से खोटे सिक्के धडल्ले से चल रहे हैं। इनके बारे में पूरी जानकारी होने के बावजूद कोई प्रभावी कदम उठाने की कोशिश ही नहीं की गई। पथभ्रष्ट नेताओं को तो लगभग पूरी तरह से बख्श दिया गया है। वे हर तरह की मनमानी करने को स्वतंत्र हैं। इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी हम और आप हैं जो आंख मूंदकर इस छलिया बिरादरी का अंधानुकरण करते हैं। डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत का धूर्त और कपटी चेहरा सामने आने के बाद अखिल भारतीय अखाडा परिषद ने १४ फर्जी और ढोंगी बाबा की जो सूची जारी की है उसमें गुरमीत के अलावा जो नाम शामिल हैं उनमें से कुछ जेल में हैं तो कुछ का डंका अभी भी गूंज रहा है। हमारे यहां धर्मांध लोगों को कितना भी सचेत किया जाए, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व जब प्रवचनकार आसाराम के कुकर्मों का पिटारा खुला था तो होना तो यह चाहिए था कि लोग कपटी बाबाओं से दूरी बना लेते। बाबा भी खुद में सुधार लाते, लेकिन न तो अंधभक्तों के दिमाग के ताले खुले और न ही फर्जी बाबाओं ने आसाराम की गिरफ्तारी से कोई सबक सीखा। उन्होंने तो यही मान लिया था कि आसाराम बदकिस्मत था जो पकड में आ गया। वे बहुत सतर्क होकर अपना काम करते हैं इसलिए उनकी पोल कभी भी नहीं खुलेगी। उनकी शिकार महिलाएं कभी भी उनके खिलाफ मुंह नहीं खोलेंगी। आसाराम को जेल में ठूंसे जाने के बाद कई धूर्त बाबाओं के कुकर्मों का भांडाफोड हुआ, लेकिन ढोंगी बाबाओं के अंधभक्तों की तंद्रा नहीं टूटी। यही वजह है कि रामपाल और गुरमीत जैसे कपटियों का धर्म का धंधा सरपट दौडता रहा। कहावत है कि 'पाप का घडा एक न एक दिन फूटता ही है। पिछले वर्ष रामपाल को जेल भेजे जाने पर उसके अनुयायियों ने जमकर अपनी गुंडागर्दी का तमाशा दिखाया था। उनपर काबू पाने के लिए पुलिस की भी सांसें फूल गयी थीं। रामपाल भक्तों के धन की बदौलत राजसी जीवन जीने के साथ-साथ नारियों की अस्मत लूटता था। गुरमीत ने तो जैसे सभी अय्याश पाखंडियों को मात दे दी। उसके भक्तों की संख्या करोडों में बतायी जाती है। अपने ही भक्तों के साथ विश्वासघात करने वाला गुरमीत तो बहुत बडा जालसाज और अपराधियों का सरगना निकला। उसके अपराधों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। उसको अदालत के द्वारा दोषी करार दिये जाने के बाद जो हिंसा हुई उसमें ४० लोगों ने अपनी जान दे दी और सैक‹डो घायल हुए। यह सब उस अंधभक्ति के कारण हुआ जो धूर्त साधुओं की पूंजी है। नाबालिग लडकी के यौन शोषण के आरोप में २०१४ से जेल में बंद आसाराम के चेलों ने भी उसे जेल में डाले जाने पर कम तमाशेबाजी नहीं की थी। जिस तरह से गुंडे-बदमाश और पेशेवर हत्यारे अपने खिलाफ खडे होने वाले गवाहों को धमकाते-चमकाते हैं वैसा ही धतकर्म आसाराम और उसके खरीदे हुए गुंडों ने किया। कुछ गवाहों की तो हत्या तक करवा दी गयी। एक जमाना था जब आसाराम के यहां मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और बडे-बडे नेताओं का भी जमावडा लगा रहता था। इसी जमावडे ने आसाराम की 'साख' में खूब इजाफा किया था और उसके अनुयायियों की संख्या बढती चली गई थी। तब भी उस पर कई संगीन आरोप लगते थे, लेकिन उनपर ध्यान नहीं दिया जाता था। गुरमीत और रामपाल जैसे नकाबपोश देहभोगियों ने भी जी-भरकर आसाराम का अनुसरण किया और चंद वर्षों में अरबों-खरबों का साम्राज्य खडा कर लिया। दरअसल इन लोगों की सोच साधु-संतों वाली है ही नहीं। यह धन और सम्पत्ति के जन्मजात भूखे हैं। येन-केन-प्रकारेण धन बटोरना ही इनका मूल उद्देश्य है। दुनिया को तो यह मोहमाया से दूर रहने, भौतिक सुखों के त्यागने की शिक्षा देते हैं, लेकिन खुद चौबीस घण्टे भोग विलास में डूबे रहते हैं। गुरमीत ने बिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा के मुख्यालय में तलाशी में कई रहस्योद्घाटन हुए। गुरमीत कितना अय्याश था और साध्वियों का कहां-कहां यौन शोषण करता था इसका पता तो इस सच से चलता है कि वह जिस गुफा में रहता-सोता था उससे जुडा एक गुप्त रास्ता था जो सीधे साध्वी निवास पर खुलता था। इसी साध्वी निवास में विभिन्न महिलाएं रखी जाती थीं जिन्हें वह अपनी अंधी वासना का शिकार बनाता था। डेरा छोड चुके कुछ लोगों ने बताया कि डेरा प्रमुख गुरमीत और उसके कुछ करीबियों के अलावा गुफा में घुसने की किसी को भी इजाजत नहीं थी। खुद को संत कहने वाले 'भगवान के दूत' के यहां एके-४७, विस्फोटकों एवं पटाखों की फैक्टरी का मिलना आखिर क्या दर्शाता है? गौरतलब है कि गुरमीत को महिलाओं से मालिश करवाने की लत थी। इसीलिए वह अपनी मुंहबोली बेटी हनीप्रित को अपने साथ जेल में रखना चाहता था। जेल में गुरमीत के स्वास्थ्य की जांच करने वाले डॉक्टरों का कहना है कि वह 'सेक्स एडिक्ट' है। इसी वजह से जेल में वह बेचैन रहता है। गुरमीत के एक पूर्व सेवक का दावा है कि गुरमीत नियमित सेक्स टॉनिक लेता था। उसके लिए आस्ट्रेलिया और कई देशों से यौन क्षमता बढाने वाला पेय मंगाया जाता था। इतना ही नहीं कुछ लोगों का यह भी दावा है कि वह सुंदरियों के साथ-साथ सुरा का भी गुलाम था। हजारों अनुयायियों को इसकी जानकारी थी फिर भी उनका गुरमीत से पता नहीं मोहभंग क्यों नहीं हुआ? अपने दुखों को दूर करने और सुकून की चाहत में आश्रमों और डेरों में पहुंचने वाली भीड में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं जिन पर बाबाओं को बहुत भरोसा होता है। यह भरोसा काफी जांचने-परखने के बाद बलवती होता है। यह भक्त भी बहती गंगा में हाथ धोने के मौके तलाशते रहते हैं। अपने 'भगवान' के ऊपर जाने या जेल में जाने के बाद यह उनकी धन-सम्पत्ति पर कब्जा करने की साजिशों में लीन हो जाते हैं। एक थे आशुतोष महाराज जिनका २९ जनवरी २०१४ को देहावसान हो गया था। लेकिन उनके कुछ करीबी चालाक भक्तों ने यह प्रचारित कर दिया कि महाराज तो गहरी नींद में लीन हैं। जैसे ही उनकी नींद खुलेगी वे अपने भक्तों के बीच खडे नज़र आएंगे। तीन साल से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है और महाराज का शव डीप फ्रीजर में रखा हुआ है। अंधभक्त उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब महाराज अपनी चेतना में लौट आएंगे। महाराज का बेटा अपने पिता की देह का अंतिम संस्कार करना चाहता है, लेकिन महाराज के आश्रम पर कब्जा जमा चुके 'दबंग' चेहरे उन्हें इसकी इजाजत देने को तैयार नहीं हैं। महाराज की अरबों-खरबों की जो सम्पत्ति है उस पर भी उन्होंने अपना कब्जा जमा लिया है। आसाराम के जेल में जाने के बाद इंदौर, नागपुर, अहमदाबाद, सूरत आदि शहरों में उनके जो आश्रम थे और धन सम्पत्ति थी उस पर कुछ विश्वस्त भक्तों ने कब्जा जमा लिया है। कई भक्तों ने बडी-बडी इमारतें खडी कर ली हैं और महंगी आलीशान गाडियों में घूमने लगे हैं। इंदौर के एक 'गुटखाछाप' भक्त ने तो बडी 'दबंगता' के साथ देश के विभिन्न महानगरों से एक दैनिक अखबार का प्रकाशन प्रारंभ कर 'दुनिया' को अपना जलवा दिखा दिया है। ऐसे खुशकिस्मत और प्रतिभावान लोग अब यही चाहते हैं कि आसाराम जेल में ही पडा-पडा मर-खप जाए। गुरमीत उर्फ राम रहीम के नजदीकी अनुयायियों की भी नजर उसके डेरों, जमीनों और तमाम धन-दौलत पर है जो उसने लोगों को बेवकूफ बनाकर जुटायी है।

Thursday, September 7, 2017

कट्टरपंथियो होश में आओ

कहने और करने में बहुत फर्क होता है। अपनी साख खो चुके नेताओं और बुद्धिजीवियों की तरह शोर-शराबा करने वालों की तादाद काफी ज्यादा है। खुद तो कुछ करते नहीं दूसरों को भी शंका की निगाह से देखते रहते हैं। कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ लिखने और बोलने वालों की हत्या कर दी जाती है। ऐसी निर्मम हत्याओं को सही ठहराने वाले कुछ चेहरे कल भी छाती ताने थे और आज भी हत्या-दर-हत्या करने से नहीं सकुचाते। अपने देश की राजनीति और नेताओं ने दूरियां बढाने में जितनी ऊर्जा खर्च की है, उतनी अगर सर्वधर्म समभाव की नीति पर चलने में लगायी होती तो वतन की तस्वीर ही बदल चुकी होती। निराशा और हताशा की डरावनी लकीरें नज़र ही नहीं आतीं। अयोध्या में हंसी-खुशी राम-मंदिर का भी निर्माण हो गया होता। वोटों की गंदी राजनीति ने फासले इस कदर बढा दिये हैं कि कुछ भी समझ में नहीं आता। हां, यह सच है कि वोटों के भूखे सत्ताधीशों ने भी निराशा के सिवाय कुछ भी नहीं दिया। यह आम लोग ही हैं जिन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसालें पेश कर भाईचारे की लौ को जलाए रखा है। हर धर्म के मानने वालों में फरिश्तों का वास है जो बार-बार आईना दिखाते रहते हैं। देश में आए दिन कुछ नेता हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच कटुता और वैमनस्य के बीज बोने वाली भाषणबाजी कर देश का माहौल बिगाडने का खेल खेलते रहते हैं। कई लोग इनकी साजिशों के हाथों का खिलौना बनने में देरी नहीं लगाते। ऐसे दौर में पिछले दिनों उत्तराखंड के एक गुरुद्वारे के द्वार नमाज के लिए खोल दिये गये। गौरतलब है कि चमोली जनपद स्थित जोशीमठ में हर वर्ष गांधी मैदान में नमाज अदा की जाती थी, लेकिन इस बार घनघोर बारिश की वजह से नमाज पढना बेहद मुश्किल हो गया। गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी ने मुस्लिम भाइयों की इस समस्या का फौरन समाधान निकालते हुए नमाज के लिए गुरुद्वारे में सहर्ष जगह दे दी। मुस्लिम समुदाय के करीब सात सौ लोगों ने गुरुद्वारे में ईद की नमाज अदा कर देश की एकता, अखंडता और अमन चैन की दुआ मांगी। मुख्य नमाजी इमाम ने मुस्लिम समुदाय को मानवता की रक्षा करने और अन्य सभी धर्मों के लोगों की मदद के लिए सदा तैयार रहने की अपील की। नमाज के दौरान हिन्दू, सिख सहित अन्य सम्प्रदाय के लोग काफी संख्या में मौजूद थे।
आइए... अब आपको मिलाते हैं साइकिल मैकेनिक अयोध्या के अस्सी वर्षीय मोहम्मद शरीफ से जो वर्षों से लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करते चले आ रहे हैं। लगभग पच्चीस साल पूर्व १९९२ में जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद चरम पर था और आपसी भाईचारे के परखच्चे उडा दिये गये थे तब उनका जवान बेटा गायब हो गया था। एक महीने तक गायब रहे बेटे की सडी-गली लाश एक बोरे में बंद मिली थी। मोहम्मद को बेटे की मौत ने झकझोर कर रख दिया था। उन्हे इस बात का बेहद गम था कि उनका बेटा सम्मानजनक ढंग से अंतिम संस्कार से वंचित रह गया। तब उन्होंने काफी चिंतन-मनन किया। हत्यारे उनकी नजरों से दूर थे। किसको कोसते, अपना गुस्सा दिखाते और नफरत के बारूद को थामे बदले की भावना में जलते रहते। उन्होंने फैसला किया कि जीवन भर कटुता के साथ जीने की बजाय अमन चैन का संदेश पहुंचाया जाए। नफरत और बदले की भावना वो आग है जो कभी ठंडी नहीं होती। उन्होंने अपने बेटे की सडी-गली लाश को दफनाने के साथ यह निश्चय भी किया कि अब किसी भी लावारिस लाश का ऐसा हश्र नहीं होने देंगे। वो दिन था और आज का दिन है। वे साइकिल से जिला अस्पताल के शवग्रह के चक्कर लगाते हैं और लावारिस शव मिलने पर उसका अंतिम संस्कार करते हैं। पिछले पच्चीस सालों से नियमित कब्रिस्तान और श्मशान के चक्कर काटने वाले मोहम्मद ने पूरे शहर के सार्वजनिक स्थलों पर साइन बोर्ड लगा दिए हैं जिनपर लिखा है कि कोई भी लावारिस शव मिलने पर मुझसे संपर्क करें। उन्हें ऐसे-ऐसे शवों से रूबरू होना पडता है जो बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो चुके होते हैं। उन्हें देखना और पहचानना भी मुश्किल होता है। वे सभी शवों को उनके धर्म के हिसाब से एक कमरे में रखते हैं, नहलाते हैं और कफन से ढकने के बाद अंतिम संस्कार करते हैं। अब तक सैकडों-हिन्दू-मुसलमानों के लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके मोहम्मद बताते हैं मेरे इस काम में कई लोग भी मदद करते हैं। कुछ साल पहले उन्हें एक सामाजिक पुरस्कार से नवाजा गया। इसमें जो राशि मिली उससे उन्होंने हाथ से चलने वाले ठेले खरीदे और शवों को उनके अंतिम मुकाम पर ले जाने के लिए चार कामगारों को भी रख लिया। वे कहते हैं कि मैं लाश के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता। हिन्दुस्तान के आम जन भी सर्वधर्म समभाव का समर्थक हैं। यह तो नेताओं की शातिर बिरादरी है जो वोटों के चक्कर में लडाने और बांटने का काम करती है।
इसी महीने देश की राजधानी दिल्ली में दो हिन्दू और मुस्लिम परिवारों ने एक दूसरे को अंगदान करके भाईचारे की अभूतपूर्व मिसाल पेश की है। दिल्ली के इकराम और बागपत के राहुल ने दिल्ली के जेपी हॉस्पिटल में अपनी किडनी संबंधित बीमारी की जांच करायी तो पता चला कि दोनों की किडनियां पूरी तरह से खराब हो चुकी हैं। ऐसे में उन्हें एक-एक डोनर की जरूरत थी। डॉक्टरी जांच के बाद पाया गया कि दोनों के परिवार में कोई भी सदस्य किडनी डोनर के लिए उपयुक्त नहीं था। केवल इकराम की पत्नी रजिया और राहुल की पत्नी पवित्रा ही डोनर के लिए योग्य थे। समस्या यह भी थी कि दोनों मरीज और उनकी पत्नी का ब्लड ग्रुप एक नहीं होने के कारण अपने-अपने पति को किडनी दान नहीं कर सकती थीं। ऐसे में अस्पताल के डॉक्टरों ने दोनों परिवारों को इकट्ठा किया और उन्हें बताया कि यदि ऐसी स्थिति में दोनों महिलाएं एक-दूसरे के पति के लिए किडनी दान करें तो दोनों मरीजों को नया जीवन मिल सकता है। दोनों महिलाओं ने बिना किसी हिचकिचाहट किडनी दान करने का निर्णय लेने में देरी नहीं की। इसके बाद अगली प्रक्रिया के तहत करीब पांच घंटे चले ऑपरेशन ने इकराम की पत्नी रजिया की किडनी राहुल को और राहुल की पत्नी पवित्रा की किडनी इकराम को सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दी गई।

Thursday, August 31, 2017

धूर्त और बहुरूपिये

नाम राम रहीम। लेकिन उनके संस्कारों और नेक कर्मों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। इंसां होने का दावा करने वाले शैतान गुरमीत ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि उसे अपने दुष्कर्मों की सज़ा मिलेगी। उसके सत्ताधीशों से प्रगाढ रिश्ते थे। नेता, अफसर उसके यहां आकर चरणवंदना करते थे। प्रशासन उसके इशारों पर नाचता था। इसलिए वह पूरी तरह से बेफिक्र होकर दुष्कर्म पर दुष्कर्म करता रहा और जिसने भी उसके खिलाफ आवाज़ उठाई उसकी इस दुनिया से रवानगी कर दी गई। फिर भी सदियों से चली आ रही यह कहावत कि 'ऊपर वाले के यहां देर है, अंधेर नहीं' चरितार्थ हो गई। डेरा सच्चा के सर्वेसर्वा गुरमीत को केन्द्रीय जांच ब्यूरो की विशेष अदालत ने अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार करने के संगीन अपराध में बीस साल की कडी सजा सुनायी। खुद को भगवान का दूत कहने वाला गुरमीत फैसला सुनते ही फूट-फूट कर रोया। हाथ जोडकर उसने दया की भीख मांगी। उसके हाथ-पैर कांपने लगे। वह बार-बार माफी की भीख मांगता रहा और कहता रहा है कि उसने जीवन पर्यंत बेबसों, गरीबों, दलितों, शोषितों की मदद की है। लाखों लोगों को नशे से मुक्ति दिलवायी है, वेश्याओं का उद्धार किया है, विधवाओं को आश्रय दिया है और समाज के लिए ऐसे कई काम किये हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन माननीय जज पर कोई असर नहीं पडा। उन्होंने तो गुरमीत के काले सच की पूरी किताब पढने-जांचने के बाद ही यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। गुरमीत की नीच हरकतों का पिटारा तो २००२ में ही खुल गया था जब पीडित साध्वी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर डेरा सच्चा सौदा के सिरसा डेरे में साध्वियों से दुष्कर्म किये जाने की शिकायत कर गुरमीत के संत नहीं, कुसंत होने का सारा काला-चिट्ठा पूरे सबूतों के साथ पेश किया था। तब होना तो यह चाहिए था कि यह खबर देश के तमाम अखबारों के पहले पन्ने पर जगह पाती, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। गुरमीत का अथाह रसूख और धनबल काम कर गया और अधिकांश नामी-गिरामी, बडे-बडे पत्रकारों, संपादकों और मालिकों ने बिकने में देरी नहीं लगायी। गुरमीत ने अपने व्याभिचारी चेहरे को छुपाने के लिए देश के बडे-बडे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में चार-चार-आठ-आठ पेज के ऐसे-ऐसे विज्ञापन छपाने शुरू कर दिए जिनमें उसे ईश्वर का एकमात्र ऐसा दूत दर्शाया गया जिसका इस धरती पर आगमन ही गरीबों की सेवा और नारी कल्याण के लिए हुआ है। पत्रकारिता के इस बिकाऊ और घोर अंधेरे दौर में उजाले की किरण के रूप में तब एक पत्रकार ने गुरमीत के काले कारनामों को उजागर करने का बीडा उठाया। इस पत्रकार का नाम था, रामचंद्र छत्रपति। वे सिरसा से एक सांध्य दैनिक 'पूरा सच' का प्रकाशन करते थे जिसकी खबरें उसके नाम के अनुरुप होती थीं। उन्होंने बेखौफ होकर साध्वी की चिट्ठी को 'पूरा सच' में प्रकाशित करने के साथ-साथ उसके तमाम काले कारनामें लगातार उजागर करने का अभियान चला दिया। इससे गुरमीत की तो चूलें ही हिल गयीं और वह इस कदर बौखलाया कि उसने निष्पक्ष निर्भीक पत्रकार की हत्या करवा दी। इस निर्मम हत्या पर कहीं कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। एक पाखंडी के द्वारा करवायी गई इस निर्मम हत्या को महज एक आम खबर मानकर भुला दिया गया और अब जब गुरमीत को जेल में ठूंसा गया तो देश के तमाम मीडिया को रामचंद्र छत्रपति की कुर्बानी की याद हो आयी। विभिन्न न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों में छत्रपति की निर्भीक पत्रकारिता के चर्चे होने लगे। जिन दैनिक अखबारों के मालिकों और संपादकों ने तब छत्रपति के द्वारा भेजी गई साध्वी की चिट्ठी और गुरमीत के डेरों में चलने वाले हवस के खेल की सच्चाई को छापने से इन्कार कर दिया था वे भी अब यही लिखते और कहते नजर आ रहे हैं कि पत्रकार हो तो रामचंद्र जैसा, जिसने गुरमीत जैसे दानव से लोहा लेकर सजग पत्रकारिता का मान और सम्मान बढाया। सच तो यह है कि अगर तब देश का सारा मीडिया पाखंडी गुरमीत के पर्दाफाश में जुट जाता तो उसके कुकर्मों की शर्मनाक यात्रा और आगे नहीं बढ पाती। मीडिया ही है जो लोगों को जगा सकता है। यह काम नेताओं के बस का नहीं है। उन्हें तो जहां से वोट मिलते दिखते हैं, वहीं पर वे भीख का कटोरा लेकर पहुंच जाते हैं। अय्याश गुरमीत को सजा सुनाये जाने के बाद कई अंधभक्तों के होश ठिकाने आ गये हैं और उन्होंने वासना के कीचड में सने ढोंगी की तस्वीरों को कचरे और नालियों के हवाले करना शुरू कर दिया है। यह उनके साथ किये गए विश्वासघात से उपजा गुस्सा है। यह नफरत उन हवस के पुजारियों के लिए चेतावनी है जो साधु का लिबास धारण कर भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। गुरमीत जैसे कई और धूर्तों का जाल जहां-तहां फैला है। इनके कई खरीदे हुए चेले होते हैं जो भोले-भाले लोगों को फांसने के लिए दिन-रात इनके गुणगान के प्रचार में लगे रहते हैं। इनके निशाने पर अनपढ और गरीब लोग ज्यादा होते हैं जिन्हें बताया जाता है कि बाबा उनकी सभी समस्याओं का खात्मा कर सकते हैं। उनकी सभी मनचाही मुरादें पूरी हो सकती हैं। निराश और हताश लोग बडी आसानी से उनके झांसे में आ ही जाते हैं। गुरमीत के भी ऐसे ही अंधभक्त शिष्यों की संख्या लाखों-करोडों में थी जो 'चमत्कार' पर यकीन रखते थे। बाबाओं के अनुयायियों की संख्या के आधार पर ही उनकी कीमत, रूतबा तय होता है। गुरमीत के डेरों में उनके लाखों भक्तों को वोट में तब्दील करने के लिए विभिन्न पार्टियों के राजनेता उसके आगे-पीछे दौडते रहते थे। वे उसके यहां नतमस्तक होने के लिए बार-बार हाजिरी लगाते रहते थे। 'इस हाथ ले, उस हाथ दे' की नीति पर चलने वाला गुरमीत उन्हें भरोसा दिलाता था कि उसके लाखों भक्तों के वोटों पर सिर्फ उन्हीं का हक है। इन्हीं वोटों के लालच में ही वर्षों तक कांग्रेस गुरमीत पर कई तरह की मेहरबानियों की बरसात करती रही। चार कांग्रेसी सांसदों ने सीबीआई के डायरेक्टर पर पावन रिश्तों के हत्यारे गुरमीत का केस बंद करने का जबर्दस्त दबाव बनाकर उसके हौसले को बुलंद किया था। भारतीय जनता पार्टी पर भी कांग्रेस की परंपरा निभाने के आरोप हैं।
गुरमीत की तथाकथित बेटी हनीप्रीत ने डंके की चोट पर कहा कि, "हरियाणा में विधानसभा के चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी से यह डील हुई थी कि पार्टी के सत्ता में आने के बाद भरपूर राहत प्रदान की जाएगी और बलात्कार का मुकदमा खत्म कर दिया जाएगा। गुरमीत ने भाजपा के दिग्गज नेताओं पर यकीन कर डेरा के प्रभाव वाली २८ विधानसभा सीटों पर भाजपा के पक्ष में मतदान करने का फरमान जारी किया था। मनोहरलाल खट्टर ने ही चुनाव के वक्त गुरमीत की मुलाकात अमित शाह से कराई थी। गुरमीत को पूरा यकीन था कि उसके साथ धोखा नहीं होगा। सीबीआई कोर्ट की ओर से उसे बलात्कार का दोषी ठहराए जाने के बाद यह तय हो गया है कि भाजपा के दिग्गज नेताओं ने वोट के लालच में सत्ता प्राप्ति के लिए बाबा के साथ धोखा किया है।"

Thursday, August 24, 2017

आज़ादी...आज़ादी...आज़ादी?

कितने युवा ऐसे हैं जो सच्चे प्यार की परिभाषा को आत्मसात करने को तैयार ही नहीं हैं। स्कूल कॉलेजों में अध्ययनरत असंख्य छात्रों को जकडता सेक्स और रोमांस का बुखार भयावह और चिंताजनक मंजर दिखाने लगा है। एकतरफा तथाकथित प्यार के आवेश में मनमानी करने वाले मजनुओं ने सम्मान, मनुहार और त्याग से दूरी बनानी शुरू कर दी है। उनमें यह सोच घर कर चुकी है कि मेरी नहीं, तो किसी और की भी नहीं। नहीं सुनना तो उन्हें कतई रास नहीं आता। इसी के फलस्वरूप उनके बलात्कारी और हत्यारे होने के समाचार बेटियों और उनके माता-पिता को बेहद डराने लगे हैं। वैसे ऐसे लोगों की तुलना तो सिर्फ और सिर्फ जानवरों से ही की जा सकती है। मानसिक रूप से बीमार वासना के गुलामों के कई चेहरे हैं। एक ओर जहां बेगाने घिनौने दुराचारों को अंजाम दे रहे हैं वहीं अपने भी अपनों की इज्जत पर डाका डालने में पीछे नहीं हैं। जो संबंध कभी पवित्रता की कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरते थे, उनमें खोट का आ जाना कई-कई सवाल खडे करता है। करीबी रिश्तों में घर कर चुकी विषाक्त गंदगी की सफाई आखिर कैसे हो पायेगी और दूसरों की मजबूरी और पीडा का फायदा उठाने की प्रवृत्ति का कैसे अंत होगा?
श्रेया बारहवीं क्लास की छात्रा थी। वह प्रोफेसर बनना चाहती थी। वह एशियाड और ओलंपियाड में कई बार टॉप लेवल पर आ चुकी थी। २८ जुलाई २०१७ को उसने स्कूल के जोनल कॉम्पिटशन अचीवमेंट में यह कविता सुनाई थी जिसे सुनकर सभी भावुक हो गए थे, "बेटियां किसी से कम नहीं... मगर घर से निकलने में डरती हैं... नजरें घूरती हैं... डर लगता है पीछा करने वालों से... फिर भी बेटियां किसी से कम नहीं, किसी के डर से घर में कैद न करो...।" १७ वर्षीय श्रेया शुरू से ही पढाई में होनहार थी। रात को दो बजे तक पढती रहती थी। माता-पिता को उसे याद दिलाना पढता था कि काफी रात हो गयी है, अब सो जाओ, सुबह स्कूल जाना है। स्कूल से आने के बाद भी वह अपने भाई को पढाती और मां के साथ काम में हाथ बंटाती। हर पल का सदुपयोग करने वाली श्रेया की १६ अगस्त २०१७ को गला दबाकर हत्या कर दी गई। हत्यारा और कोई नहीं, उसी का दोस्त सार्थक था, जिससे उसने कुछ वजहों से दूरियां बना ली थीं और बात तक करना बंद कर दिया था। लेकिन सार्थक जब-तब उसका पीछा कर उसे तंग करता रहता था। श्रेया ने सार्थक को कई बार फटकारा, लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। उसके पास श्रेया की कुछ तस्वीरें भी थीं जिनके दम पर वह उस पर एकांत में मिलने के लिए दबाव डालता था। बुधवार शाम आठ बजे श्रेया ट्यूशन पढकर घर लौट रही थी तो वह उसके समक्ष गिडगिडाने लगा कि उसे सिर्फ एक बार जरूरी बात करनी है। इसके बाद वह कभी उसका पीछा नहीं करेगा। श्रेया उसकी बात मान गई। दोनों कुछ ही दूरी पर संकरी गली में जा पहुंचे। श्रेया ने उसे अपना ध्यान पढाई-लिखाई पर लगाने और उसका पीछा करने से बाज आने को कहा तो वह भडक उठा। सार्थक कुछ और ही सोचकर आया था। उसने बस यही रट लगाये रखी कि वह उससे बेहद प्यार करता है। श्रेया ने उसे बहुतेरा समझाया कि उसके मन में कभी भी ऐसा कोई ख्याल नहीं आया। दोस्ती का उसने गलत अर्थ लगाया है। गलत हरकतों के कारण ही वह उसकी नजरों से गिर चुका है। बातों ही बातों में दोनों के बीच नोंक-झोंक और धक्का-मुक्की होने लगी। गुस्से में आकर उसने श्रेया का गला घोंटा और सीधे अपने घर पहुंच गया।
श्रेया के माता-पिता और भाई इस सदमे को कभी भी नहीं भूल पाएंगे। उसका हंसना-खिलखिलाना और शरारतें करना उन्हें जब-तब याद आता रहेगा। बेटी के कमरे में सजे मेडल्स, शील्ड और सर्टिफिकेट्स ताउम्र पुरानी यादों को ताजा करते हुए आंखों को भिगोते रहेंगे। हत्यारा सार्थक तो कुछ साल जेल की सलाखों के पीछे रहने के बाद जिन्दा अपने घर वापस लौट आयेगा।
जब देशवासी आजादी का जश्न मना रहे थे तब चंडीगढ में दस साल की एक बलात्कार पीडिता बच्ची ने अस्पताल में एक बेटी को जन्म दिया। बच्ची को उसके मामा ने अपनी हवस का शिकार बनाया था। बीते महीने जब बच्ची के पेट में दर्द हुआ तो उसकी मां उसे डॉक्टर के पास ले गई थी। वहां पर पता चला कि बच्ची तो सात महीने से गर्भवती है। बच्ची के गर्भवती होने की खबर जब मीडिया में आयी तो पूरा देश स्तब्ध रह गया। अखबारों और न्यूज चैनलों पर चर्चाओं का दौर चलने लगा। पिता, चाचा, भाई, मामा के वहशीपन की नयी-पुरानी दास्तानें दुहरायी जाने लगीं और गर्त में जाते नजदीकी रिश्तों पर गहन चिन्ता जताने का सिलसिला चल पडा। नाबालिग बच्ची के अबॉर्शन की अनुमति मांगी गई, लेकिन शीर्ष अदालत ने अनुमति देने से इन्कार कर दिया था। ३२ हफ्ते के गर्भ की मेडिकल रिपोर्ट देखने के बाद अदालत का मानना था कि गर्भपात न तो पीडिता के लिए ठीक है और न ही भ्रूण के लिए। बच्ची की प्रेग्नेंसी ३६ हफ्ते के करीब पहुंचने पर उसे १५ अगस्त के दिन आपरेशन थिएटर ले जाया गया जहां उसने बेटी को जन्म दिया। अबोध बच्ची से उसके गर्भवती होने के सच को छिपाया गया। उसे बताया गया कि उसके पेंट में पथरी थी जिसका ऑपरेशन किया गया है। गौरतलब है कि मनोविज्ञान की डॉक्टरों ने डिलीवरी से पहले बच्ची को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने के लिए काउंसलिंग को जरूरी बताया था, पर बच्ची के माता-पिता ने मना कर दिया था। उनका कहना था कि इससे बच्ची को पता चल सकता है कि वह गर्भवती है। बच्ची के पिता ने दो दिन पहले मेडिकल कॉलेज प्रशासन को एक पत्र में स्पष्ट लिख दिया था कि वे किसी भी हालत में नवजात को अपनाने को तैयार नहीं हैं। उनकी बेटी को भी जन्म लेने वाले बच्चे का मुंह न दिखाया जाए। देश के कई लोगों ने बच्ची को गोद लेने की इच्छा जतायी है। अमेरिका से एक व्यक्ति ने बच्ची को गोद लेने के लिए हॉस्पिटल डायरेक्टर को ईमेल भेजी है।
मानवता का धर्म तो यही कहता है कि लाचार और बीमार के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए उसकी सहायता करनी चाहिए। लेकिन...। १५ अगस्त को देश की राजधानी दिल्ली में लोगों का चौंका देने वाला बेरहम और बेपरवाह चेहरा नजर आया। एक तेज रफ्तार कार की चपेट में आया युवक १४ घण्टे तक रिंग रोड पर तडपता रहा, लेकिन किसी को भी उसकी मदद करने की नहीं सूझी। उलटे उसे लूट लिया गया। एक स्कूटर सवार लहुलूहान तडपते युवक के पास पहुंचा और उसका १२ हजार रुपये से भरा बेग और जेब से तीन हजार रुपये लेकर चलता बना। हां, उसने वहां पर एक पानी की बोतल जरूर रख दी। एक पानी की बोतल के बदले १५ हजार की इस लूट ने यकीनन इंसानियत को तो शर्मसार कर ही डाला।