Thursday, December 25, 2014

दिलों में बसता है हिन्दुस्तान

सन्नाटा जब चीखता है तो बहरों के कान भी कांपने लगते हैं। आज देश में कुछ ऐसे ही हालात हैं। लोग देख भी रहे हैं और चिंतन-मनन भी कर रहे हैं। चुप्पी भी ऐसी है कि कभी भी तीखे शोर में तब्दील हो जाए। धर्मान्तरण और घर वापसी को लेकर जो बवाल मचा है वह कहीं तूफान में न बदल जाए इसका भी भय सताने लगा है। सवाल यह भी उठने लगे हैं कि असल में देश में किसकी सत्ता है? भाजपा के नरेंद्र मोदी की या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उन तमाम हिन्दू संगठनों की जो धर्मान्तरण को लेकर एकाएक ऐसे सक्रिय हो गये हैं जैसे उन्हें इन्हीं दिनों का ही बेसब्री से इंतजार था। ऐसे में याद आते हैं वो दिन जब नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के दौरान देश के सर्वांगीण विकास के आश्वासन देते नहीं थकते थे। मतदाताओं को लुभाने के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं किया। भ्रष्टाचार को जड से खात्मा करने का उनका गगन भेदी नारा था और विदेशों में जमा काला धन १०० दिनों में वापस लाने का उनका अभूतपूर्व वायदा था। रिश्वतखोरी, महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा और नारियों पर होने वाले अत्याचारों की पूरी तरह से खात्मे की तो जैसे उन्होंने कसम खायी थी। ऐसे में देशवासियों ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा करने में कहीं कोई कमी और कंजूसी नहीं की। उन्हें देश की सत्ता सौंप दी। उन्हें लगा कि कोई फरिश्ता ज़मीन पर उतरा है जो उन्हें उनके तमाम कष्टों से मुक्ति दिला देगा। वैसे इस धरती पर पहले भी कई फरिश्ते आते रहे हैं और तथाकथित जादू की खोखली छडी घुमाते रहे हैं। लेकिन मोदी के अनूठे अंदाज ने लोगों को फिर से एक बार यकीन करने को मजबूर कर दिया। लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद धीरे-धीरे मौनी-मुद्रा अपनानी शुरू कर दी। लोगों को लगा यह तो कुर्सी का तकाजा है। शालीनता का जामा ओढना ही पडता है। चुप्पी साधनी ही पडती है। पर सब्र की भी हद होती है। तभी तो कई संशय और सवाल उठने लगे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि खेल और खिलाडियों को नरेंद्र मोदी की अंदर ही अंदर रजामंदी हासिल है। जहां समस्याओं का अंबार लगा हो। लोगों का जीना मुहाल हो। आतंकी फिर सिर उठा रहे हों... वहां गडे मुर्दे उखाडने की कोशिशों पर कोई अंकुश नहीं लगाया जा रहा! देश में जिस तरह का धार्मिक और राजनीतिक बवाल मचा है उससे यह चिंता भी होने लगी है कि कहीं नरेंद्र मोदी का पूरा का पूरा कार्यकाल हंगामों में ही तो नहीं बीत जाने वाला। देशवासी फिर एक नये धोखे के शिकार होकर हाथ मलते तो नहीं रह जाएेंगे?
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक हिन्दू सम्मेलन में ऐलानिया स्वर में कहा कि जवानों की जवानी जाने से पहले हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाएगा। हम एक मजबूत हिन्दू समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जो भटक गए हैं, उन्हें फिर से अपने घर वापस लाना है। उन बेचारों का कोई दोष नहीं था। उनका तो जबरन या लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया गया था। उत्तरप्रदेश में आगरा का धर्मान्तरण का मुद्दा अभी शांत भी नहीं हुआ था कि टुडला के नगला क्षेत्र में २० हिन्दू महिलाओं के धर्मान्तरण का हल्ला मच गया। इन महिलाओं को एक लाख रुपये का लालच देकर ईसाई बनाया गया। वैसे आगरा में जिन मुसलमानों को हिन्दू बनाया गया उन्होंने भी स्वीकारा कि उन्हें आधारकार्ड, राशनकार्ड दिलाने का झांसा देकर धर्म परिवर्तन करवाया गया। आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनिरियो के द्वारा धर्मांतरण का खेल वर्षों से चल रहा है। दरअसल, देश के आजाद होने के बाद से ही ईसाई मिशनरियां हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए लगातार सक्रिय होती गयीं। आदिवासियों को विभिन्न प्रलोभन देकर ईसाई बनाने का ऐसा कुचक्र चलाया गया कि सरकारें भी मूकदर्शक बनकर रह गयीं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और ओडिसा में आज भी विभिन्न ईसाई मिशनरियां हिन्दूओं के धर्म परिवर्तन में लगी हैं। कांग्रेस के शासन काल में तो उन पर अंकुश लगाने की सोची ही नहीं गयी। वैसे भी देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन कांग्रेस ने किया है। उसके कार्यकाल में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी तो पनपे, लेकिन आम जनता का कोई भला नहीं हो पाया। आदिवासियों की तो पूरी तरह से अनदेखी ही गयी। जहां पेट भरने के लिए अन्न का दाना नसीब न होता हो वहां धर्म के क्या मायने रह जाते हैं? ऐसे हालात में ईसाई मिशनरियों को भी ज्यादा कसरत नहीं करनी पडी।
कांग्रेस तो आदिवासियों और तमाम गरीबों के साथ छल करती रही और हिन्दू... ईसाई और मुसलमान बनने को मजबूर होते रहे, लेकिन मोदी सरकार क्या कर रही है? उनकी पार्टी से जुडे संगठन बिना कोई आगा-पीछे सोचे फौरन धर्मान्तरण और घर वापसी के काम में लग गये हैं। होना तो यह चाहिए था कि सबसे पहले गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा के अंधेरे को दूर करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी जाती। इतिहास गवाह है कि निर्धनों, शोषितों और अशिक्षितों का धर्म परिवर्तन करवाना बहुत आसान होता है। इसलिए सबसे पहले तो असली समस्याओं की तह तक जाकर उनका निवारण होना जरूरी है। वैसे भी हमारे संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के धर्म में रहने और अपनाने की आजादी दी है। जिस धर्म में भेदभाव के हालात और तरह-तरह की बंदिशें न हों और सर्वत्र खुशहाली का आलम हो तो उसे भला कौन छोडना चाहेगा? अपना घर हर किसी को अच्छा लगता है, बशर्ते उस घर में घर-सा सुकून और सुविधाएं भी तो होनी चाहिए। बिना छत और टूटी-फूटी दिवारों वाले घर किसी को भी नहीं सुहाते। वैसे भी यह दौर जबरन धर्मान्तरण करवाने, देश में संस्कृत की पढाई को अनिवार्य करवाने और गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने का नहीं है। देश जाग चुका है और देशवासी भी। उनकी भावना और सोच को 'चांद शेरी' की यह पंक्तियां खूब दर्शाती हैं :
"मैं गीता, बाइबल, कुरआन रखता हूं।
सभी धर्मों का मैं सम्मान रखता हूं।।
ये मेरे पुरखों की जागीर है लोगों।
मैं अपने दिल में हिंदुस्तान रखता हूं।।"

Thursday, December 18, 2014

यह क्या हो रहा है?

जिन्दगी बडी छोटी है। कुछ लोग लगातार बडी-बडी भूलें कर रहे हैं। आवेश में आगा-पीछा भूल गये हैं। एक अजीब-सा सन्नाटा छाया है। भय की लकीरें नज़र आने लगी हैं। यह कट्टरता और फिसलन कहां ले जाने को आतुर है? भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसद किसकी शह पर चुभने वाले बोल उगलने से बाज नहीं आ रहे? एक को चुप कराया जाता है तो दूसरा जहर उगलने के लिए छाती तानकर खडा हो जाता है। कौन देगा जवाब? साधु-संत तो मर्यादा का पाठ पढाने के लिए जाने जाते हैं। उन संतो से तो अपेक्षाएं और बढ जाती हैं जिन्हें जनता बडे यकीन के साथ चुनाव जितवा कर सांसद बनाती है। ऐसे में इन पर ऐसे जनहितकारी कार्य करने की जिम्मेदारी बढ जाती है जिन्हें दूसरे सांसद नहीं कर पाते।
नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में अपनी सरकार बनाने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाने की राह पर है। इसके लिए उसने अपनी पूरी फौज लगा दी है। किसी भी हालत में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को मात देने का जिद्दी इरादा है। इसी उद्देश्य के मद्देनजर केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति बीते हफ्ते एक सभा में पहुंचीं। अच्छी-खासी भीड देखकर उनके जोश ने होश खो दिए। उन्होंने मतदाताओं पर सवाल दागा कि वे दिल्ली विधानसभा में रामजादों को चुनेंगे अथवा हरामजादों को? साध्वी की नजर में रामजादे कौन हैं और हरामजादे कौन... बताने की जरूरत नहीं है। एक साध्वी के मुख से ऐसे गालीनुमा शब्द सुनकर तालियां भी बजीं। हां कुछ लोग सन्न भी रह गये। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए नेता कई हथकंडे अपनाते हैं। भाषा के निम्न स्तर पर उतर आते हैं। पर एक भगवाधारी साध्वी का इतना गिर जाना हर समझदार को हैरान-परेशान कर गया। आखिरकार वही हुआ। उनके भडकाऊ और जलाऊ बोलवचनों ने हंगामा बरपा कर दिया। यह सवाल भी गूंजा कि क्या राजनीति के चोले ने साध्वी को निष्कृष्ट शब्दावली का सहारा लेने को मजबूर कर दिया? इसका जवाब भी सामने आ गया। साध्वी उमा भारती की तरह ही साध्वी निरंजन ज्योति भी कथावाचक रही हैं। हालांकि उमा भारती के तरह उन्होंने संपूर्ण देश में ख्याति नहीं पायी। फिर भी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में उनके प्रवचनों को सुनने के लिए भीड तो जुटती ही रही है। साध्वी निरंजन ज्योति का आक्रामक भाषा से भी बडा पुराना नाता है। उनके प्रवचनों में 'हरामजादे' से भी अधिक चुभने वाले अपशब्द तालियों पर तालियां पाते रहे हैं। राजनीतिक दलों को भीड जुटाने वाले चेहरों की हमेशा तलाश रहती है। उन्हें उनके इसी गुण के चलते विधानसभा और लोकसभा की टिकट थमा दी जाती है। भारतीय जनता पार्टी इसमें सबसे आगे है। साध्वी ने तो दिल्ली के वोटरों को लुभाने के लिए अपना राग छेडा था। उन्हें सपने में भी सडक से संसद तक हंगामा मचने की उम्मीद नहीं थी। दरअसल साध्वी भूल गयीं कि वे अब केंद्रीयमंत्री हैं, कथावाचक नहीं। मंत्री को एक-एक शब्द सोच-समझकर बोलना होता है। कथाओं और प्रवचनों में जो खप जाता है वह राजनीति में नहीं खपता।
महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त कहकर शोर-शराबे और हंगामे को न्योता देने वाले भाजपायी सांसद साक्षी महाराज भी भगवाधारी हैं। संतई के पेशे से राजनीति में आने के बाद उनके विवादास्पद बयान अक्सर सुर्खियां पाते रहते हैं। गोडसे को देशभक्त बताकर साक्षी महाराज ने विरोधी दलों का निशाना बनने के साथ ही देश की सजग जनता को भी निराशा के हवाले कर दिया। यह निराशा तब गहन चिंता में बदल गयी जब इस खबर ने मीडिया में सुर्खियां पायीं कि देश के सबसे पुराने हिंदु संगठनों में से एक हिंदु सभा ने राजस्थान के किशनगढ से नाथूराम गोडसे की प्रतिमा तैयार करवा कर दिल्ली में वहीं स्थापित करने की तैयारी कर ली है जहां बापू की हत्या की योजना के दौरान वह समय-समय पर ठहरा करता था। संगठन देश के कम से कम पांच शहरों में गोडसे की प्रतिमाएं लगाने का अभिलाषी है। यदि सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी तो खुद के लॉन में प्रतिमा स्थापित करने का उसका इरादा है। प्रतिमा को स्थापित करने के लिए राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक स्थल की तलाश के साथ-साथ सही समय का इन्तजार किया जा रहा है। यह तथ्य भी गौरतलब है कि गोडसे हिंदु महासभा का सदस्य था। १९४८ में बापू की हत्या से एक दिन पहले उसने दिल्ली के कार्यालय का दौरा किया था। जिस कमरे में वह ठहरा था उसे काफी सहेजकर रखा गया है। संगठन के अध्यक्ष यह भी कहते हैं कि जब हमारे यहां सभी महापुरुषों की प्रतिमाएं हैं तो गोडसे की क्यों नहीं? इसका जवाब तो देश का बच्चा-बच्चा दे सकता है। नाथूराम गोडसे तो मानवता का हत्यारा था। उसने अहिंसा के पुजारी की हत्या कर जो पाप किया वह अक्षम्य है। देश और दुनिया को सदाचार का पाठ पढाने वाले बापू के हत्यारे की कुछ लोग भले ही कितनी तारीफ कर लें, प्रतिमाएं लगा लें लेकिन बापू तो बापू हैं जो तमाम भारतीयों के दिलों में बसते हैं और बसते रहेंगे। एक सवाल यह भी लगातार परेशान किए है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही क्यों खलबली मचाने वाले लगातार सुर्खियों में हैं। इन पर कोई अंकुश क्यों नहीं है? दूसरों से खुद को अलग बताने वाली भाजपा के शासन में क्या ऐसे ही गर्मागर्म वातावरण बना रहने वाला है?

Thursday, December 11, 2014

परिवार, समाज और दुष्कर्मी

फिर वही सवाल। कब तक लुटती रहेगी महिलाओं की आबरू? वो दिन कब आएंगे जब युवतियां जब चाहें तब बेफिक्र घूम-फिर सकेंगी? क्या कभी ऐसा भी होगा जब नारियां पुरुषों की भीड में खुद को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करेंगी। अनाचारी और व्याभिचारी कब तक कानून के डंडे से भयमुक्त होकर दानवी कुकृत्यों को अंजाम देते रहेंगे? १६ दिसंबर २०१२ में दिल्ली में दरिंदगी की शिकार बनी निर्भया की याद आज भी लोगों के दिलों में ताजा है। तब जिस तरह से देश के लोग सडकों पर उतरे थे और सरकार ने अपने कडे इरादे जताये थे उससे लगा था कि दुष्कर्मियों के हौसले पस्त हो जाएंगे। निर्भया कांड को दो साल होने जा रहे हैं। इन दो सालों में दिल्ली तो दिल्ली पूरा देश बलात्कारों से दहलता रहा। बदलाव की उम्मीदें जगायी गयीं। पर कुछ भी नहीं बदला। नयी सरकार भी मूकदर्शक बनी रही। सारे दावे धरे के धरे रह गये। भ्रष्टाचार भी वहीं का वहीं है और अनाचारियों का तांडव भी लगभग जस का तस है। २०१२ के दिसंबर की तरह २०१४ के दिसंबर में भी देश की राजधानी में एक युवती बलात्कारी की हवस का शिकार हो गयी। तब चलती बस में दुष्कर्म हुआ था, अब टैक्सी में हुआ है। कहीं भी सुरक्षा तय नहीं। हवस के पुजारियों की गिद्ध नजरें हर जगह जमी रहती हैं। बसें हों, रेलगाडियां हों, बाजार हों या फिर गली-मोहल्ले ही क्यों न हों। इनके आतंक का शासन जहां-तहां बना रहता है।
गुड़गांव की एक फाइनांस कंपनी में काम करने वाली एक युवती ने रात के समय घर जाने के लिए एक नामी-गिरामी कंपनी की कैब बुक करायी। रात दस बजे कार चालक उसके पास पहुंचा। युवती कार में बैठ गयी। रास्ते में उसकी आंख लग गयी। कार चालक को ऐसे ही मौके की तलाश थी। वह उससे छेडछाड करने लगा। युवती ने विरोध किया तो वह अपनी पर आ गया। उसने उसे डराया, धमकाया और फिर निर्मम बलात्कार कर डाला। उसने युवती को धमकाया और चेताया कि यदि वह चीखी-चिल्लायी तो वह उसका भी निर्भया जैसा हश्र करने से नहीं चूकेगा। तय है कि उसे निर्भया कांड की पूरी जानकारी थी। इस दिल को दहला देने वाले कांड को अंजाम देने वाले बलात्कारियों की हुई थू...थू और दुर्गति की भी उसे पूरी खबर थी। फिर भी वह बलात्कार करने से नहीं घबराया। कानून का उसे ज़रा भी भय नहीं लगा। यह बलात्कारी पहले भी कई महिलाओं की अस्मत लूट चुका है। वह जिस गांव का रहने वाला है उसमें ऐसा कोई घर नहीं जहां की महिलाओं के साथ उसने छेडखानी और बदसलूकी न की हो। उसके गांव वाले उसकी चरित्रहीनता की शर्मनाक दास्तानें सुनाते नहीं थकते। आश्चर्य है कि एक जगजाहिर अभ्यस्त बलात्कारी अमेरिका की जिस नामी कंपनी की कैब चलाता था, उसने भी उसका अतीत खंगालने की जरा भी कोशिश नहीं की। गिरफ्तारी के बाद उसने खुद कबूला है कि उसने पीडित युवती की गला दबाकर मारने की कोशिश की थी। पीडित युवती के पुरजोर विरोध के चलते वह सफल नहीं हो पाया।
अब इस सच पर भी गौर किया जाना चाहिए बलात्कारी शिवकुमार यादव के वृद्ध माता-पिता अपने इस बलात्कारी बेटे को फांसी पर लटकता देखना चाहते हैं। वे कतई नहीं चाहते कि कानून उस पर रहम दिखाये। क्या हर बलात्कारी के माता-पिता और उसके परिजन अपनी औलाद को दुत्कारने और सजा दिलाने की दिलेरी दिखा पाते हैं। जवाब है... बिलकुल नहीं। अधिकांश मां-बाप को अपनी संतान का कोई ऐब नजर नहीं आता। आता भी है तो छुपाने की हजार कोशिशें की जाती है। धनासेठों, उद्योगपतियों, सत्ताधीशों और नेताओं की बिगडैल औलादों के बलात्कारी होने की कितनी ही खबरें आती रहती हैं। किसी भी मां-बाप ने अपने बेटे को फांसी पर लटकाने की मंशा व्यक्त नहीं की। होता यह है कि अपने नालायक अय्याश बेटे को बचाने के लिए ताकतवर और सक्षम लोग महंगे से महंगे वकीलों की फौज खडी कर देते हैं। सभी जानते हैं इस देश में धन की माया अपरमपार है। अपने गंदे खून को सजा दिलवाने और दुत्कारने की हिम्मत न होने की वजह से ही तथाकथित ऊंचे लोगों के नीच कर्म मीडिया की सुर्खियां तो बनते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। समाज में भी उनकी इज्जत यथावत बनी रहती है। वाकई हमारा समाज बडा विचित्र है। जानबूझकर अंधा बना रहता है। जब कोई बडा धमाका होता है तो चौंकने का अभिनय करता हैं। जहां घरों में बहू-बेटियों की इज्जत पर डाका डाला जाता हो और डकैत भी अपने ही होते हों वहां पुलिस भी क्या कर सकती है? ऐसी न जाने कितनी खबरें अक्सर चौंकाती हैं कि पिता ने बेटी के साथ तो भाई ने बहन के साथ मुंह काला कर रिश्तों को कलंकित कर डाला। ताज्जुब है कि इसके लिए भी शासन और प्रशासन को दोषी ठहराया जाता है। निर्भया को जब बलात्कारियों ने चलती बस से सडक पर फेंक दिया तब वह घंटों वहीं पडी कराहती रही थी। आते-जाते लोग तमाशबीन बने रहे। दरअसल, लोग सामने आने से डरते हैं। उन्हें तरह-तरह का खौफ सताता है। ऐसे में हालात बदलने से रहे। दिखावटी इज्जत को बचाने से कहीं बहुत जरूरी है असली इज्जत को बचाना। मां-बहन, बहू-बेटी की आबरू से बढकर और कुछ होता है क्या?

Thursday, December 4, 2014

अब आप ही सोचें और तय करें

खाने वाले भी हैं और खिलाने वाले भी। यह सिलसिला टूटे तो बात बने। वर्ना रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का खात्मा होने से रहा। कोई अन्ना आता है। भ्रष्टों के खिलाफ मजमा लगता है। कुछ दिन शोर मचता है। भ्रष्टाचारियों की थू-थू होती है। पर आखिर क्या होता है? हुआ क्या है?
देश में कहां नहीं है भ्रष्टाचार? कुछ भी तो नहीं बदला। वही रिश्वतखोरी की परंपरा। वही रस्म अदायगी। कहीं स्वार्थवश तो कहीं मजबूरी और दबाव के चलते। हो तो वही रहा है जो वर्षों से होता चला आ रहा है। कहीं कोई खौफ नहीं। मान-सम्मान के खोने की भी कतई चिन्ता नहीं। सौ में से एकाध का ही पर्दाफाश हो पाता है। बाकी यह सोचकर बेफिक्र रहते हैं कि वो जो रंगे हाथ धरा गया वह तो बदकिस्मत था, बेवकूफ था। हम जैसा चालाक और सूझबूझ वाला होता तो हर आफत से बचा रहता। इस देश में भ्रष्टाचार के कई किस्से हैं। भ्रष्टाचारी भी किस्म-किस्म के हैं। इस मामले में राजनेताओं और नौकरशाहों की जुगलबंदी भी खूब चलती है। इनके आपसी 'भाईचारे' ने देश का कबाडा करके रख दिया है। फिर भी देश की बिगडी तस्वीर को संवारने का वादा भी यही लोग करते हैं।
नोएडा विकास प्राधिकरण के मुख्य अभियंता यादव सिंह ने रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार की जो पताका फहरायी उससे यह तो साफ हो ही गया है कि कैसे और किस तरह से देश की जडों को बेखौफ होकर खोखला किया जा रहा है। छापेमारी के दौरान यादव सिंह के ठिकाने से एक डायरी बरामद हुई है जिसमें कई सत्ताधीशों, नेताओं, ठेकेदारों और सत्ता के दलालों के नाम दर्ज हैं। नोएडा प्राधिकरण में परियोजना विभाग में प्रमुख अभियंता के पद पर लंबे समय तक तैनात रहा यह महाभ्रष्टाचारी हर दल के नेताओं से दोस्ती गांठने का जादूगर रहा है। उसके यहां से एक ही झटके में १०० करोड के हीरे और करोडों की नगदी का मिलना यही तो बताता है कि भ्रष्टाचारियों ने देश को बेच खाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। जिसे मौका मिलता है वही लूटपाट करने वाला भेडिया बन जाता है। चंद वर्षों में हजारों करोड रुपये बटोर लिए जाते हैं न नेता पीछे हैं और न नौकरशाह। पहले इनकी काली कमायी का आंकडा सौ-पचास करोड तक सिमट जाता था... अब हजार करोड को पार कर चुका है। दूसरे को पछाडने की जैसे प्रतिस्पर्धा चल रही है।
यादव सिंह के अथाह भ्रष्टाचार की दास्तान तो यही कहती है कि भ्रष्ट नेता और अफसर एकजुट हो गये हैं। कहा तो यह भी जाता है राजनेताओं को भ्रष्टाचार का पाठ पढाने में नौकरशाहों की अहम भूमिका होती है। राजनेता तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन नौकरशाह सतत बने रहते हैं। उनका सिंहासन आसानी से नहीं डोलता। सत्ता के बदलने के साथ ही इनकी निष्ठा भी बदल जाती है। अथाह भ्रष्टाचार की बदौलत सैकडों करोड की माया जुटाने वाला यादव सिंह हर पार्टी के शासन काल में खूब पनपा। बसपा, समाजवादी, कांग्रेस और भाजपा की उस पर किसी न किसी तरह से मेहरबानी बनी ही रही। दरअसल, इस देश में राजनीति, समाज सेवा और सरकारी सेवा को भ्रष्टाचार का अड्डा बनाकर रख दिया गया है। जिस देश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव लडने के लिए करोडों रुपये फूंक दिये जाते हों वहां भ्रष्टाचार के न होने की कल्पना करना ही बेमानी है। राजनीतिक पार्टियों भी धन की बदौलत ही चलती हैं। यह धन कहां से आता है इसकी जानकारी लेने और देने का दम किसी में भी नहीं है। इस देश में कम ही नेता हैं जिनका सच से करीबी नाता हो। राजनीतिक दलों की तमाम भव्य इमारतें झूठ और फरेब की नींव पर टिकी हुई हैं। कोई इस सच को माने या न माने पर यही पहला और अंतिम सच है।
इतिहास बताता है कि ईमानदारों की राजनीति में दाल ही नहीं गल पाती। उन्हें तरह-तरह की तकलीफो से गुजरना पडता है। ऐसे में बिरले ही अपने उसूलों पर टिके रह पाते हैं। देश के एक विख्यात पत्रकार हैं शेखर गुप्ता। वे लिखते हैं कि सन २००७ में लिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने शिवसेना सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे से जब यह पूछा कि उन्होंने सुरेश प्रभु को वाजपेयी मंत्रिमंडल से क्यों हटवाया तो वे पहले तो जवाब देने से बचते रहे, फिर आखिरकार उन्होंने सच उगल दिया। उनका कहना था कि उनकी पार्टी को भी दूसरों की तरह धन की जरूरत होती है। प्रभु कहते थे कि वे बिजली विभाग में कुछ नहीं कमा सकते। बालासाहेब ने ही रहस्योद्घाटन किया कि उन्होंने प्रभु से पूछा था कि क्या उनका मंत्रालय नींबू की फांक है जिसे उनसे पहले का मंत्री पूरी तरह से निचोड गया। यह साक्षात्कार जब चल रहा था तब भाजपा के दिग्गज नेता प्रमोद महाजन का वहां आगमन हुआ तो बालासाहेब ने उनसे पूछा कि क्या प्रभु की बात सही है तो महाजन ने ठहाका लगाते हुए कहा कि अगर कोई केंद्रीय मंत्री दावा करता है कि पैसा कमाना नामुमकिन है तो या तो वह झूठा और चोर है या नाकाबिल है। गौरतलब है कि वही सुरेश प्रभु वर्तमान में नरेंद्र मोदी की सरकार में रेलमंत्री हैं। उन्होंने शिवसेना को छोडकर भाजपा का दामन थाम लिया है। रेलमंत्री की कुर्सी ऐसी है जिसे पाने के लिए होड मची रहती है। रेलवे में जो मलाई है वह और कहीं नहीं। पिछली सरकार के एक रेलमंत्री ने तो अपने भांजे को ही रेलवे की कमायी चाटने के लिए 'सौदेबाजी' और 'दलाली' के काम में लगा दिया था। बदकिस्मती से वह पकडा गया और भांडा फूट गया।