Thursday, December 27, 2012

जनता को मत अबला जानो

राजधानी में बेहद क्रुरता के साथ अंजाम दिये गये सामूहिक बलात्कार ने संपूर्ण देशवासियों को झिं‍झोड कर रख दिया। जहां-तहां जनता सडकों पर उतर आयी। यहां तक कि जेल में कैद विभिन्न अपराधियों का भी खून खौल उठा। २३ वर्षीय मेडिकल छात्रा को अपनी हवस का शिकार बनाने वालों का सरगना मुकेश जब अपने सगे भाई के साथ तिहाड जेल में पहुंचाया गया तो वह अपनी सुरक्षा के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त था। जब तक वह बाहर था तब तक उसकी रंगत उडी हुई थी। दिल्ली की बेकाबू भीड से पिटने के भय ने उसकी नींद उडा रखी थी। वह जेल की कोठरी में पहुंच कर इत्मीनान की सांस लेना चाहता था। वैसे भी दिल्ली की तिहाड जेल को दुनिया की सुरक्षित जेलों में गिना जाता है। कहते हैं कि यहां पर परिंदा भी पर नहीं मार सकता।
कैदियों को टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम जानकारी मिल गयी थी कि दो बलात्कारी तिहाड जेल में लाये गये हैं। कैदियों ने जब से दिल्ली गैंगरेप की खबर पडी थी तभी से वे बेहद गुस्से में थे। बलात्कारी मुकेश, सुबह के समय नित्य क्रियाकलाप से निवृत होकर बडे आराम से वार्ड में टहल रहा था कि गुस्साये कैदियों ने उसे दबोच लिया और उसके चेहरे और शरीर के विभिन्न अंगों पर ब्लेड से वार-दर-वार कर लहुलूहान कर डाला। उनका बस चलता तो वे दोनों का काम ही तमाम कर डालते। तिहाड जेल में बलात्कारी पर हमले की खबर को महज खबर मानकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। दरअसल यह खबर इस हकीकत की तरफ इशारा करती है कि खूंखार अपराधी भी ऐसे नृशंस बलात्कार को अक्षम्य मानते हैं। किसी की भी बहन-बेटी की इज्जत लुटने से उनका भी मन आहत होता हैं और खून खौल उठता है बिलकुल वैसे ही जैसे अन्य सजग देशवासियों का। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अपनी पीडा व्यक्त करते हुए सही ही कहा है कि हमारी ही मिट्टी के लोग हमारी मिट्टी के साथ अन्याय कर रहे हैं। जिस कोख से जन्मे उसी का निरादर करने वालों को तो ऐसी सजा दी जानी चाहिए कि भविष्य में कोई भी गुंडा-बदमाश बहन-बेटियों पर गलत निगाह डालने की जुर्रत ही न कर सके। दिल्ली गैंगरेप के दोषियों को तो तिल-तिल मरने की सजा मिलनी ही चाहिए।फांसी देने से तो इनका उद्धार हो जायेगा।
ऐसा पहली बार हुआ जब युवक, युवतियां, छात्र, छात्राएं और महिलाएं सडकों पर उतर आयीं। देश की आधी आबादी का खौफ आक्रोश में बदल गया। दिल्ली पुलिस हाय-हाय के नारे गूंजते रहे। वातानूकूलित कारों में अंगरक्षकों के साथ घूमने वाले नेताओं और नौकरशाहों पर सैकडों सवाल दागे गये। अपनी सुख-सुविधाओं के चक्कर में आम जनता की तकलीफों को नजरअंदाज करने वाले सताधीशों तक यह संदेश भी पहुंचाया गया कि अगर अब भी वे नहीं सुधरे तो लोग चुप नहीं बैठेंगे। सब्र का बांध टूट चुका है। हर किसी के दिल में अव्यवस्था के प्रति आग जल रही है। इस आग को अगर समय रहते नहीं बुझाया गया तो बहुत बडा अनर्थ भी हो सकता है। इस सच्चाई को भला कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि राजनेताओं और अफसरों की औलादों के आगे-पीछे सुरक्षा गार्डों और दरबानों और कारों का काफिला होता है। उन्हें कोई छूने तो क्या ताकने की भी जुर्रत नहीं कर सकता। असली मुश्किल का सामना तो आम लोगों तथा उनकी बहू-बेटियों को करना पडता है। भरे बाजार से लेकर सिटी बसों और लोकल ट्रेनों में उन्हें दुराचारियों के विभिन्न दंशों का शिकार होना पडता है। अब जब पानी सिर से ऊपर चला गया है तो आधी आबादी सडक पर उतरने और व्यवस्था के खिलाफ नारे लगानें को विवश हो गयी हैं। दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से पहले भी कई बार ऐसे दुष्कर्म हो चुके हैं। देश में कहीं न कहीं ऐसी दुराचार की घटनाएं हर रोज होती हैं। पर कुछ को ही सजा मिल पाती है। अधिकांश बलात्कारी आसानी से कानून के शिकंजे से छूट जाते हैं। इसे आप क्या कहेंगे कि हमारे देश की पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटिल ने अपने कार्यकाल में ३० बलात्कारियों, दुराचारियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलकर अपनी दरियादिली दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने उन परिवारों की जरा भी चिं‍ता नहीं की जिनकी बहू-बेटियों की अस्मत लूटी गयी और मौत के घाट उतार दिया गया। अपनी वाहवाही के लिए ऐसे दिखावे इस देश के सत्ताधीशों की पहचान बन चुके हैं। आज यह कलम यह लिखने को विवश है कि जब तक बलात्कारियों, हत्यारों के प्रति आंख मूंदकर दया दिखायी जाती रहेगी तब तक इस देश में दुराचार और दुराचारी अपना तांडव मचाते रहेंगे। यकीनन सताधीशों को येन-केन-प्रकारेण होश में लाने का वक्त आ गया है। देश के ऊर्जावान कवि गिरीश पंकज की कविता की यह पंक्तियां महज शब्द नहीं बल्कि आम आदमी के दिल की ललकार और पुकार हैं...
जाग गई है दिल्ली भाई,
होती जग में तेरी हंसाई
सत्ता का मद बहुत हो गया
जनता के दु:ख को पहचानो
बंद करो ये लाठी-गोली
जनता को मत अबला जानो
इंकलाब को मत कुचलो तुम
क्या तुम भी बन गए कसाई?

Thursday, December 20, 2012

बर्बरता और व्याभिचार की इंतिहा

विदायी के कगार पर होने के बावजूद २०१२ अपने नये रंग दिखाने और जख्म देने से बाज नहीं आया। वैसे भी इस वर्ष को भुला पाना आसान नहीं होगा। राजनेताओं के मुखौटों को तार-तार करके रख देने वाले सन २०१२ में भ्रष्टाचार, व्याभिचार और बलात्कार की खबरों में प्रतिस्पर्धा-सी चलती रही। साल का कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता जब किसी बेबस नारी की अस्मत लुटने और छेडछाड की घटना ने सुर्खियां न बटोरी हों। देश की राजधानी दिल्ली ने तो जैसे इतिहास ही रच डाला। लगा ही नहीं कि यहां पर बेहद ताकतवर राजनीतिक हस्तियों का बसेरा है और एक महिला यहां की मुख्यमंत्री है।
हमारे देश में महिलाओं को जन्मजात भावुक और संवेदनशील माना जाता है। पर यह कैसी विडंबना है कि एक महिला की सल्तनत में दिलवालों की दिल्ली अराजक तत्वों और बलात्कारियों की राजधानी बन गयी और मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई शिकन ही नहीं आयी! महिलाओं का रात को घर से बाहर नहीं निकलने की सीख देने वाली शीला दीक्षित और दूसरे तमाम ढोंगी राजनेताओं में ज्यादा फर्क नहीं है। जहां एक ओर नारी को पूजा जाता है और दूसरी तरफ सरे बाजार उसकी अस्मत लूट ली जाती है। दरअसल यही असली सच है, बाकी सब फरेब है। राजधानी दिल्ली में एक बार फिर एक युवती को उसके मित्र के सामने बंधक बनाकर चलती बस में दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बना डाला। लगातार दो घंटे तक बलात्कारियों का तांडव चलता रहा और बस राजधानी की सडकों पर दौडती रही। बाद में युवती और उसके मित्र को चलती बस से सडक पर फेंक कर बलात्कारी फरार हो गये। सोचिए जब दिल्ली जैसे महानगर में ऐसी दरिंदगी को सहजता से अंजाम दिया जा सकता है तो देश के अन्य शहरो में तो कुछ भी हो सकता। वैसे सच किसी से छिपा नहीं है। मुझे वो वक्त याद आता है जब किसी घर की बहू-बेटी किसी काम से बाहर निकलती थी तो सुरक्षा की दृष्टि से उसके साथ आठ-दस बरस के बच्चे को भेज दिया जाता था। परिजन आश्वस्त रहते थे कि बच्चे के साथ होने पर उनकी बहू-बेटी पर कोई गलत नजर डालने की हिम्मत नहीं कर पायेगा। पर आज प्रेमी और पति के सामने प्रेमिका और पत्नी गैंगरेप की शिकार हो जाती है।
दिल्ली में हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार की शिकार युवती मेडिकल की छात्रा है। उसका मित्र उसे घर छोडने जा रहा था। यानी उसे भी यकीन था कि रात के समय दिल्ली महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। उन्हें जो बस मिली उसी में सवार हो गये। कोई भी यात्री ऐसा ही करता है। उसे अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचने की जल्दी होती है। उन दोनों को उस स्कूली बस में सवार होने के बाद फौरन अहसास हो गया कि बस में सवारियां नहीं हैवान सवार हैं। उनकी गुंडागर्दी के आगे दोनों बेबस थे। सात वहशियों ने दो घंटे तक बेखौफ होकर अपनी दरिंदगी का तांडव तब तक मचाये रखा जब तक युवती अधमरी नहीं हो गयी।
इस सामूहिक बलात्कार की खबर ने दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को हिला कर रख दिया। एकाएक संसद जाग उठी। महिला सांसदो का गुस्सा फूट पडा। हर किसी ने कहा कि बलात्कारियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। सडक से संसद तक प्रदर्शनों और बयानबाजियों ने जोर पकड लिया। देश के सियासी माहौल ने भी गरम होने में देरी नहीं लगायी। दिल्ली पुलिस को जी-भरकर कोसा और फटकारा गया। पर लगता नहीं खाकी पर इसका कोई असर पडेगा। खादी की तरह खाकी की भी चमडी मोटी हो चुकी है और उसकी तमाम भावनाएं और संवेदनाएं कहीं गिरवी रखी जा चुकी हैं। इस सामूहिक वहशियत ने साफ कर दिया है कि अराजक तत्वों को कानून और उसके रखवालों का कोई खौफ नहीं है। वे जब और जहां चाहें किसी की भी बहन-बेटी को अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। सच तो यह है कि इस देश में अपराधियों को सज़ा दिलवाने के लिए कानून तो हैं पर कानून का ईमानदारी से पालन नहीं किया जाता। खुद सरकारें नकारा हो चुकी हैं। कई बलात्कार ऐसे होते हैं जिनके पीछे सफेदपोशों का हाथ होता है। खुद कानून के रखवाले उनकी ताकत के आगे बौने हो जाते हैं। व्यवस्था के अपाहिज होते चले जाने के कारण लोग कानून को अपने हाथ में भी लेने लगे हैं। कुछ ही वर्ष पहले की बात है, जब नागपुर में एक हवसखोर दरिंदे की भीड ने ही भरी अदालत में हत्या कर दी थी। यह तो शुरुआत थी। इसके बाद तो भीड के द्वारा अराजक तत्वों और बलात्कारियों को ढेर करने का सिलसिला ही चल पडा। इस पहल में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद चौंकाने वाली रही। पता नहीं क्यों प्रशासन और सत्ताधीशों ने ऐसे 'फैसलों' से कोई सबक लेने की कोशिश क्यों नहीं की। दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार से भी देश की तमाम सजग महिलाएं इस कदर आहत हुई कि उनका बस चलता तो वे बलात्कारियों को कुत्ते की मौत मार डालतीं। स्कूल-कॉलेज की छात्राएं चीख-चीख कर यह मांग करती नजर आयीं कि ऐसे दरिंदो को सिर्फ और सिर्फ फांसी पर लटकाया जाना चाहिए। बलात्कारियों का गुप्तांग काटकर उन्हें नपुंसक बनाने की सजा देने की मांग के पीछे छिपे गुस्से को समझने का भी वक्त आ गया है। ऐसा रोष और आक्रोश तब जन्मता है जब 'अति' हो जाती है। यकीनन बर्बरता और व्याभिचार की इंतिहा हो चुकी है।
इस देश में ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि लडकियों का आधा-अधूरा पहनावा और भडकाऊ साज-सज्जा पुरुषों की वासना को भडकाती है। महिलाओं को रात में कहीं आने-जाने से भी बचना चाहिए। यह घोर अक्लमंद इस सच्चाई को भी भूला देते हैं कि यह वो देश है जहां कचरा बिनने और भीख मांगने वाली महिलाओं और लडकियों की आबरू लूटने में कोई संकोच नहीं किया जाता। राह चलती किसी भी लडकी को वेश्या समझ लिया जाता है और पैंसठ-सत्तर साल की वृद्धाएं और पांच-सात साल की अबोध बच्चियां भी शैतानों की वासना की आंधी का शिकार हो जाती हैं।

Thursday, December 13, 2012

इंसानियत को निगलती हैवानियत

ये कैसा मंज़र है जहां मानव मानवता खोता चला जा रहा है और इंसानियत हैवानियत में तब्दील होती चली जा रही है। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता जब बलात्कार और हत्या की खबर पढने और सुनने को न मिलती हो। कई खबरें तो भुलाये नहीं भूलतीं। जब-तब साकार हो उठती हैं। उनसे पीछा छुडा पाना मुश्किल हो जाता है। कुछ महीने पहले गुवाहटी की मेनरोड पर एक युवती के साथ की गयी छेडखानी की घटना ने पूरे देश को चौंका कर रख दिया था। वह युवती अपने दोस्तों के साथ पब से निकली थी कि बदमाशों ने उसे घेर लिया और बेहद अभद्र तरीके से पेश आने लगे। जिस तरह से शर्मनाक कृत्य की विडियो क्लिप बनायी गयी और पूरे देश में फैलायी गयी उससे यह तथ्य भी पुख्ता हुआ कि देश के हर प्रदेश में ऐसे गुंडे-बदमाशों का वर्चस्व है जो किसी की भी बहन-बेटी की इज्जत पर डाका डाल सकते हैं। इस हैवानियत के खेल में एक पत्रकार भी शामिल था जिसने पत्रकारिता के पेशे की गरिमा को रौंदते हुए खुद ही अपने घटिया चरित्र का पर्दाफाश किया था। हमारे समाज में ऐसे सफेदपोश भरे पडे हैं। कुछ के मुखौटे यदा-कदा उतर जाते हैं और बाकी बेखौफ होकर अपना काम करते रहते हैं। जब सच्चाई सामने आती है तो लोग हतप्रभ रह जाते हैं। ऐसे तमाशों का स्कूलों और कालेजों में भी छात्राएं अपने शिक्षकों और संचालकों की अंधी वासना का शिकार होती रहती हैं।
खुद के तथा अपने परिवार के तथाकथित रूतबे और सम्मान की खातिर बहू-बेटियों की बलि लेने का दुष्चक्र भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। हरियाणा और उत्तरप्रदेश में आनर किलिं‍ग यानी इज्जत के लिए कत्ल कर देना तो जैसे आम बात है। ग्राम पंचायतें भी कातिलों का साथ देती नजर आती हैं। अब तो पश्चिम बंगाल में भी ऐसी वारदातों को अंजाम दिया जाने लगा है। बीते सप्ताह राजधानी कोलकाता में हैवानियत का नंगा नाच देखकर लोग कांप उठे। एक भाई ने अपनी बहन का सिर इसलिए कलम कर दिया क्योंकि वह अपने मनचाहे साथी के साथ रहने की जिद अख्तियार कर चुकी थी। विदेशों से भारत आने वाली युवतियों को अपनी वासना का शिकार बनाने वालों ने भी देश को बदनाम करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। मुंबई, दिल्ली, जयपुर, पुणे आदि में विदेशी महिलाओं को लूटने और उनके साथ दुष्कर्म करने की खबरें यही दर्शाती हैं कि कभी मेहमान नवाजी के लिए विख्यात रहा देश तीव्रगति से कुख्याति की ओर बढ रहा है।
दरअसल इस शर्मनाक मंज़र के लिए कहीं न कहीं हम और आप भी जिम्मेदार हैं जो सही वक्त पर खलनायकों का पुरजोर विरोध करना छोड अपने आंखें बंद कर लेने और मुंह पर ताले जड लेने में ही अपनी भलाई समझते हैं। गुवाहटी में भी ऐसा ही हुआ था जब अकेली लडकी पर बीस-पच्चीस गुंडे लगभग बलात्कार करने पर उतारू थे। तब अगर भीड ने मर्दानगी दिखायी होती तो बेबस युवती शर्मसार होने से बच जाती। सरेआम बेखौफ होकर अंजाम दी गयी घटना को लेकर पूरे देश में जबरदस्त हो-हल्ला मचा था। अगर मीडिया शांत रहता तो मामला रफा-दफा भी हो जाता। पुलिस वालों की नीयत साफ नहीं थी। बडी मुश्किल से सोलह आरोपियों को सलाखों के पीछे डाला गया। असम देश का एक ऐसा प्रदेश है जहां महिलाओं के उत्पीडन की खबरें दूसरे प्रदेशों की तुलना में कहीं कम सुनने और पढने में मिलती हैं। पब से निकली एक शरीफ लडकी को 'कालगर्ल' समझकर उस पर झपट पडने वाले सोलह लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया था।  इंसानियत को दागदार करके रख देने वाले इस केस को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाया गया। इसलिए साल भर के अंदर फ़ैसला भी आ गया है। आरोप पत्र में १६ नाम थे। सजा ११ को मिली है। मात्र दो साल कैद और दो हजार रुपये का जुर्माना। दुष्कर्म की विडियो क्लिप बनाने वाला पत्रकार साक्ष्य के अभाव में पाक-साफ करार दे दिया गया है। जो बेबस युवती वहशियों के वासनाभरे दंश झेलकर देश और दुनिया में बदनाम हुई उसे इस फैसले ने निश्चय ही उतनी राहत नहीं दी जितनी कि उम्मीद थी। हमारे यहां खाकी वर्दी और गवाहों के बिकने तथा मुकरने के कारण हत्यारे भी बरी हो जाते हैं। भ्रष्टतम नेताओं, सरकारी खनिज के लुटेरों और तमाम जगजाहिर अराजक तत्वों पर कोई आंच नहीं आ पाती। वे ठहाके लगाते रहते हैं और कानून हाथ मलता रह जाता है। दुराचारियों के बलवान हो जाने के कारण इंसान तो इंसान भगवान भी शैतान बन जाते हैं। हां डाक्टर को धरती का भगवान ही तो कहा जाता है। पर इनके यहां भी नारियां सुरक्षित नहीं हैं। यहां भी उनकी इज्जत लूट ली जाती है। ऐसी लूटपाट की ढोरों खबरें विभिन्न न्यूज चैनलों और अखबारों की शोभा बढाती रहती हैं। अपने ही देश में एक शहर है, जिसे खरगोन के नाम से जाना जाता है। बीते सप्ताह इसी शहर में एक नाबालिग लडकी बलात्कारियों की हवस का शिकार हो गयी। पुलिस वाले मेडिकल परीक्षण के लिए उसे अस्पताल ले गये। डाक्टर ने पुलिसवालों को कक्ष से बाहर कर पूछताछ और परीक्षण की आड में लडकी से अश्लील हरकत कर 'भगवान' के नाम पर भी बट्टा लगा डाला। लडकी की आबरू पर सेंध लगाने वाला डाक्टर होश में नहीं था। उसे सलाखों के पीछे भेज तो दिया गया है, लेकिन लगता नहीं कि उसे कोई कडी सज़ा मिलेगी, क्योंकि...?

Thursday, December 6, 2012

लकडी का खडाऊं, सोने का जूता

कल तबीयत ठीक नहीं थी। बिस्तर पर था। शरीर ने दिनभर उठने की इजाजत नहीं दी। आधी रात को ऐसे नींद टूटी कि लाख कोशिशों के बाद भी सोना संभव नहीं हो पाया। ऐसे में किताबों की आलमारी की तरफ निगाह डाली तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर लिखी उस किताब ने बरबस अपनी तरफ खींच लिया जिसे मैंने वर्षों पहले शहर में हर वर्ष लगने वाले पुस्तक मेले से खरीदा था। मेरे छोटे से संग्रहालय में महात्मा गांधी के जीवनचरित्र पर लिखी ढेरों पुस्तकें हैं जिन्हें मैंने समय-समय बडे मन से खरीदा पर पढ नहीं पाया। यह पहली किताब थी जिसे मैंने बडी तल्लीनता से पूरी तरह से पढा। इस किताब को पढने के बाद मेरा यह निष्कर्ष बलवती हुआ कि यदि बापू के नाम की माला जपने वाली राजनीतिक पार्टी और सत्ताधीश उनके सिद्धांतों और आदर्शों का थोडा-सा भी अनुसरण कर लेते तो देश कंगाली, बदहाली, भुखमरी और अराजकता के कगार पर नहीं पहुंचता। काश। राष्ट्रपिता के अटूट सिद्धांतों और करनी और कथनी की एकरूपता से कांग्रेसियों ने प्रेरणा लेकर देश को लुटने से बचाने का धर्म निभाया होता तो किसी भाजपाई, बसपाई, समाजवादी और सत्ता के दलाल की जुर्रत नहीं थी कि वह अरबों-खरबों की राष्ट्रीय धन-संपदा पर डाका डाल पाता।
बहरहाल... बात उन दिनों की है जब गांधी यरवदा की जेल में कैद थे। बीमारी और आपरेशन की वजह से वे काफी दुर्बल हो गये थे। हालत यह थी कि चलने-फिरने में भी बेहद कष्ट होता था। उन्हें महंगे जूते या चप्पल की बजाय हलके-फुलके लकडी के खडाऊं पहनने की आदत थी। जिस पुरानी सी खडाऊं को पहन कर वे जेल गये थे वह अचानक टूट गयी। जेल प्रशासन ने चमडे की चप्पल भिजवायी जिसे उन्होंने पहनने से साफ इंकार कर दिया। आखिरकार उन्हें खडाऊं दिये गये जो काफी वजनी थे। उन्हें पहनकर चलने में उन्हें काफी तकलीफ होती थी। अगर आपरेशन न हुआ होता तो खडाऊं से होने वाले कष्ट को वे हंसी-खुशी सह लेते। अपनी तकलीफ के बारे में उन्होंने तो किसी से कुछ नहीं कहा परंतु आश्रम के एक साथी को जब इसका पता चला तो उसकी आंखें नम हो गयीं। उसने बाजार जाकर खडाऊं की हल्की जोडी खरीदी और चुपके से जेल की कोठरी में रख दी। जेल प्रशासन द्वारा दी गयी वजनी खडाऊं वहां से हटा दी। सुबह जब गांधी जी की निगाह नयी खडाऊं पर पडी तो वे फौरन जान गये कि उनके आश्रम के साथी ने ही नयी खडाऊं यहां लाकर रखी है। उन्होंने उस खडाऊं को नहीं पहना। थोडी देर बाद वह शख्स भी बापू से मिलने के लिए आया तो उसने बडे उत्साह के साथ गांधी जी को बताया कि आपको वजनी खडाऊं को पहनने से जो कष्ट हो रहा था वह मुझसे देखा नहीं गया। इसलिए आपके लिए मैं यह सुविधाजनक खडाऊं खरीदकर लाया हूं।
खडाऊं लाने वाला खुश था कि बापू अब आराम से चल-फिर सकेंगे। गांधी जी ने उस महाशय पर फौरन सवाल दागा कि नये खडाऊं लाने के लिए तुम्हारे पास पैसे कहां से आये? उसने बता दिया कि आश्रम में जो चंदा आता है उसी में से कुछ रुपये निकालकर इन्हें लाया गया है। यह सुनते ही गांधी भडक उठे और फिर उस पर बरसने लगे कि क्या तुम्हें जानकारी नहीं है कि कौन लोग आश्रम को सहायता देते हैं! ये वो लोग हैं जिन्हें हम पर यकीन है कि हम उनकी मेहनत की एक-एक पाई की कमायी का सदुपयोग करेंगे। तुमने उन पैसों से मेरे लिए खडाऊं लाकर उनके भरोसे का कत्ल किया है। यह सरासर विश्वासघात है। तुम फौरन इन्हें वापस ले जाओ। मैं इन्हें हर्गिज नहीं पहन सकता।
यह थे गांधी के सिद्धांत जिन्हें उन्होंने जीवनभर धर्म की तरह निभाया। उनकी इसी ईमानदारी ने भारत को स्वतंत्रता दिलवायी। उस सच्चे अहिं‍सावादी ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुडाये कि उन्हें आखिरकार हिं‍दुस्तान को छोडकर भागना पडा। अहिं‍सा के नायक को भरोसा था कि उसके अनुयायी भी उसी की राह पर चलेंगे। पर देश के आजाद होने के बाद क्या हुआ? उन्हीं के पद चिन्हों पर चलने का दावा करने वालो ने ही देश की आम जनता के साथ छल-कपट करने के न जाने कितने कीर्तिमान रच डाले और देश कराह उठा। जिन नेताओं ने आम जनता से महात्मा गांधी के नाम पर वोट लिये उनमें से कई हद दर्जे के भ्रष्ट और बेईमान निकले। सोने और चांदी के जूते पहनकर और खाकर देश की धन संपदा को लुटवाते चले गये। खुद भी इतने मालामाल हो गये कि तिजोरियां और तहखाने कम पड गये और देश की धन-दौलत विदेशों के बैकों में पहुंचने लगी। बापू के चंदाखोर चेलों को राष्ट्रद्रोह करने में कतई शर्म नहीं आयी। वे हद दर्जे के निर्लज्ज और बिकाऊ हो गये कि कई जुगाडुओ को अरबपति-खरबपति बनने का अवसर मिल गया। सत्ता के गलियारों की औकात और नब्ज पहचाने वालों की तो जैसे निकल पडी।
आजादी के बाद एकाएक धनकुबेर बनने वाले रिलायंस के संस्थापक स्वर्गीय धीरुभाई अंबानी ने बडे फख्र के साथ अपनी आर्थिक बुलंदी का मूलमंत्र उजागर किया था। वे अपने पैरों में दो तरह के जूते पहना करते थे। एक होता था चांदी का तो दूसरा सोने का। सत्ताधीशों, सत्ता के दलालों और नौकरशाहों की औकात के हिसाब से वे तय कर लिया करते थे किसे चांदी का जूता मारना है और किसे सोने का। अपने इसी दस्तूर की बदौलत उन्होंने देखते ही देखते अपने समकालीन उद्योगपतियों को कोसों मील पीछे छोड दिया। सत्ता के मंदिर के सभी देवी-देवताओं और पुजारियों को चढावा चढाने वाले धीरुभाई की औलादें भी अपने पिता के नक्शे-कदम पर दौड रही हैं। इतिहास बताता है कि अंबानियों को अपना आदर्श मानने वाले किसी बेईमान को कभी भी असफलता का मुंह नहीं देखना पडा। आप चाहें तो अपने आसपास भी यह नजारा देख सकते हैं।