Wednesday, July 26, 2017

दबा हुआ गुस्सा

हमारी इस दुनिया में कई ऐसे खूंखार जानवर हैं जो इंसान का चेहरा लगाये घूमते हैं। इन्हें हम अक्सर नहीं जान-पहचान पाते। करीबी रिश्तों और 'अपने' होने का भ्रम तथा उनपर टंगा 'सम्मानीय हस्ती' का तमगा भी कई जानवरों के लिए कवच की भूमिका निभाता है। जिनकी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए उन्हें भी हाथों-हाथ लिये जाने के कारण अपराधियों के हौंसले बढते चले जा रहे हैं। यही वजह है कि नारियों के लिए कोई भी जगह सुरक्षित नजर नहीं आती। घरों, स्कूलों, अस्पतालों और पागलखानों तक में दुराचार और दुराचारियों ने अपना डेरा जमा लिया है। नागपुर के मनोरूग्णालय में एक बारह-तेरह साल की मानसिक रूप से बीमार बच्ची पर एक ३४ वर्षीय दरिंदे ने बलात्कार कर डाला। अनाथालय में रहने वाली इस लडकी को मानसिक बीमारी होने के कारण इलाज के लिए मनोरूग्णालय में भर्ती किया गया था। वह नासमझ और नादान है। इसी का फायदा वहां पर कार्यरत बलात्कारी ने उठाया। अबोध नाबालिग के साथ १४ जुलाई २०१७ को दोपहर १२ से ५ बजे तक वासना के घुटे हुए खिलाडी ने हिंसक जानवर की तरह मनमानी की। इसी दौरान उसकी क्लिपिंग भी बनाई और लडकी की पिटाई कर उसे धमकाया गया कि यदि किसी ने सामने मुंह खोला तो जान से हाथ धोना होगा। बलात्कार की शिकार बालिका की सहेली ने यह बात वार्डन को बताई। इस बालिका के साथ इससे पहले भी एक अन्य अनाथालय में एक किशोर ने दुष्कर्म किया था। इसकी शिकायत थाने में की गई थी। उसके बाद उसे नागपुर शहर के नामी 'श्रद्धानंद अनाथालय' में भेजा गया। यहां पर भी उस पर वही जुल्म ढाया गया।
इस घटना के मात्र सात दिन बाद नागपुर के निकट स्थित शहर कामठी में एक पिता ने बेटी को अपनी हवस का शिकार बना दिया। इस लडकी की उम्र भी मात्र १४ वर्ष है। अक्सर घर-परिवार में होने वाले ऐसे दुराचारों को बच्चियां चुपचाप सहन कर लेती हैं। तथाकथित इज्जत की खातिर भी घर की बात बाहर नहीं जाने दी जाती। लेकिन इस समझदार बेटी ने पिता की इस करतूत के बारे में अपनी मां को बताया तो पहले तो उसे यकीन ही नहीं हुआ। उसने जब पूरे विस्तार से आपबीती बतायी तो मां का खून खौल उठा और उसने थाने पहुंचने में देरी नहीं लगायी।
महाराष्ट्र की उपराजधानी और उससे सटे कस्बेनुमा शहर में जब ऐसे शर्मनाक कुकर्मों को अंजाम दिया गया, ऐन उसी सप्ताह देश की राजधानी दिल्ली के मलिकापुर इलाके के एक सरकारी स्कूल में १०वीं की छात्रा ने स्कूल के बाथरूम में एक बच्ची को जन्म दिया। वह भी एक ५१ साल के ऑटोचालक की अंधी वासना का शिकार हुई थी। यह नराधम किशोरी को अपने चंगुल में फंसाये रखने के लिए रुपयों की लालच देता था। किशोरी जब गर्भवती हुई तो उसने बच्चा गिराने की दवा खिला दी जिसके असर से उसे स्कूल में प्रीमैच्योर डिलीवरी हो गई। किशोरी का पेट फूलने पर उसके गरीब- अशिक्षित माता-पिता को यही लगता रहा कि किसी बीमारी या गैस की वजह से उनकी बिटिया का पेट फूल रहा है। उन्हें भी जब बेटी के स्कूल के प्रसाधन गृह में बच्ची को जन्म देने की खबर लगी तो उनके पैरों तले की जमीन खिसक गयी। नाबालिग मां और नवजात शिशु को एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया।
नागपुर के निकट स्थित धार्मिक स्थल रामटेक के एक घर में लगभग एक माह से जंजीरों से बांधकर रखी गयी आदिवासी युवती को पुलिस ने छापा मारकर देह व्यापार से मुक्त कराया। युवती के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था और उसे जंजीरों से तभी मुक्त किया जाता था जब उसे देह भोगियों के सुपुर्द करना होता था। पुलिस चौकी से मात्र पांच किलोमीटर पर चलने वाले इस देह के धंधे की भनक गांव वालों को तो लग गई थी, लेकिन सजग खाकी वर्दीधारी अनभिज्ञ थे! एक अज्ञात व्यक्ति ने जब टेलीफोन पर पुलिस थाने में खबर दी कि झोपडपट्टी स्थित एक मकान में एक युवती को बांधकर रखा गया है तो रामटेक पुलिस स्टेशन के दल ने वहां पहुंचने की जहमत उठायी। मकान की जब तलाशी ली गई तो अंधेरे कमरे में जंजीरों में बंधी रोती-सुबकती युवती मिली। उसे पुलिस स्टेशन लाया गया। शारीरिक और मानसिक प्रताडना से टूट चुकी बुखार से ग्रस्त युवती ने रोते-रोते बताया कि वह मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के पीठा गांव की रहने वाली है। एक माह पहले दो मोटर साइकल सवार युवकों ने जबरन उसे यहां लाकर विनोद नामक शख्स के हवाले कर दिया। पहले तो उसे बेचने के लिए गुजरात के एक व्यक्ति को बुलाया गया। पसंद न आने के कारण वह वापस लौट गया। उसके बाद उसे ग्राहकों को परोसा जाने लगा। पिछले एक माह से विभिन्न देहभोगियों के द्वारा उसके साथ प्राकृतिक व अप्राकृतिक दुष्कर्म किया जा रहा था।
दिल्ली में ही अशोक विहार इलाके में एक युवक ने शादी से इंकार करने पर युवती की मां को ही तेजाब से नहला दिया। युवक, युवती से शादी करना चाहता था, लेकिन मां अपनी बेटी की शादी उससे करने के लिए तैयार नहीं थी। मां और बेटी रात को जब घर में सोई थी तब गुस्साये युवक ने युवती की मां को तेजाब से जलाकर अपने एकतरफा प्यार का आतंकी उदाहरण पेश कर दिया। देश और प्रदेशों के शहरों-कस्बों, गांवों में दूसरों की बहन-बेटियों पर गंदी निगाह रखने वाले गुंडे-बदमाश और तथाकथित शरीफ लोग बेखौफ होकर ऐसी वारदातों को अंजाम देने में लगे हैं। कानून और पुलिस का तो उन्हें भय ही नहीं लगता। अपने देश की पुलिस के निकम्मेपन के कारण अब तो लोग भी बेकाबू होने लगे हैं। इसका जीवंत प्रमाण सदा शांत रहने वाले शहर शिमला में देखने में आया। गुस्से में भडकी भीड ने बलात्कार व हत्या के मामले में गिरफ्तार आरोपी को लॉकअप में ही फूंक डाला और थाने में आग लगा दी। इससे पहले भी बलात्कारियों को भीड के द्वारा घेर कर मारने की कई खबरों ने सुर्खियां पायी हैं। निर्भया के बलात्कारियों को जब दिल्ली के तिहाड जेल में कैद किया गया था तब कैदियों ने ही उनकी पिटायी कर दी थी। उनका बस चलता तो उनका खात्मा ही कर दिया जाता। ऐसे ही पश्चिमी बंगाल में भीड ने एक बलात्कार के आरोपी को जेल के अंदर से बाहर घसीट-घसीट कर मार डाला था। यह लोगों का दबा हुआ आक्रोश है जो कानून को अपने हाथ में लेने की हिम्मत करने से नहीं सकुचाता और घबराता।

Thursday, July 20, 2017

लोगों को बेवकूफ मत समझो

लालू का हाईस्कूल फेल बेटा तेजस्वी यादव बिहार का उपमुख्यमंत्री है। उस पर बाकायदा भ्रष्टाचार का केस दर्ज हो चुका है, लेकिन वह कुर्सी को छोडने को तैयार नहीं है। इस धूर्त का कहना है कि उसे राजनीतिक रंजिश के चलते फंसाया गया है। वह तो सीधा-सादा नेता है जिसकी मंशा जनता की सेवा करना है। लेकिन कुछ शत्रु नहीं चाहते कि मैं बिहार के दबे-कुचले, गरीबों के काम आऊं। दरअसल, यह शत्रु हमारे पूरे खानदान को राजनीति के मैदान से हटा देना चाहते हैं। इसलिए इन्होंने किसी को भी नहीं बख्शा। मेरे पिता, मेरी माता, मेरी बहन और जीजा तक इनके निशाने पर हैं। दुश्मन लाख साजिशें कर लें, लेकिन हमारा बाल भी बांका नहीं होने वाला। बिहार की जनता हमारे साथ है। उसी ने हम दोनों भाइयों को वोट देकर विधायक और मंत्री बनने का सौभाग्य प्रदान किया है। बाल्यकाल से ही करोडों रुपये की भ्रष्टाचार की सम्पत्ति के मालिक बन चुका तेजस्वी मानता है कि बिहारवासी उसे कल भी भरोसे के काबिल समझते थे और आज भी उनका भरोसा टूटा नहीं है।
भोली-भाली अंधभक्त जनता को अंधेरे में रखने की चालाकी और अवसरवादिता तो उसे विरासत में मिली है। खुद को हर भ्रष्टाचार से अनभिज्ञ दर्शाने के लिए उसने कवियों वाला भावुकता का जो मुखौटा लगाया उसे नुचने में देरी नहीं लगी। यह सोशल मीडिया का जमाना है। तेजस्वी ने लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए अपने ट्विटर और फेसबुक पर यह कवितानुमा पंक्तियां पोस्ट कीं-
"जनता के अधीन, विकास में लीन, न सम्मान का मोह, न अपमान का भय, जनहित सर्वोपरि, गरीब हमारा मुकुटमणि।"
तेजस्वी का यह जाल पूरी तरह से नाकाम रहा। लोगों की सहानुभूति की बजाए आलोचनाओं की झडी लग गयी। एक यूजर ने लिखा कि २५ साल में आपके पिता लालू प्रसाद की सम्पत्ति २००० करोड के पार चली गई। हैरानी इस पर नहीं है, हैरानी तो इस बात पर है कि आज भी वो अपने आपको गरीब आदमी बुलाते हैं। सुना है कि लालू की दोनों मिसाइलों तेज १ और तेज २ के फ्यूज कंडक्टर सीबीआई ने निकाल दिए हैं। एक अन्य सजग युवकों ने तेजस्वी के गालों पर तमाचा जडते हुए लिखा, 'पटना में मां मरिछिया देवी कॉम्पलेक्स में २६ फ्लैट और गरीब। यहां बिहार का गरीब रिक्शा चला रहा है, लंच में ५ रुपये के बिस्किट खा पैसे बचा रहा है, अपने परिवार के लिए और ये लालू प्रसाद बीस साल पहले नमक सत्तू खाता था, आज फार्म हाऊसों, बंगलों, मॉल, पेट्रोल पम्प और जमीनों के ढेर पर बैठा है।'
२६ साल की उम्र में २६ अवैध सम्पतियों के मालिक बने तेजस्वी को यदि मजबूरन गद्दी छोडनी पडी तो उसके पिता लालू ने अपनी एक और बेटी को इस पद पर विराजमान करवाने की तैयारी कर ली है। लालू की बडी बेटी मीसा भारती जिसे राज्यसभा का सांसद बनाया जा चुका है, उसके भ्रष्टाचार की कमायी की भी पोल खुल रही है। लालू के लिए बिहार की सत्ता घर की खेती है। जब वे चारा घोटाले के चलते जेल गए थे तब उन्होंने अपना मुख्यमंत्री पद अपनी अनपढ पत्नी राबडी को सौंप दिया था। इनके लिए राजनीति और सत्ता ऐसा खानदानी धंधा है जिसे सिर्फ परिवार के सदस्यों के द्वारा ही चलाया जाता है। इसी के बदौलत ही तो दो हजार करोड से ऊपर का साम्राज्य खडा किया गया है। इनके काले कारोबार पर जब भी आवाजें उठती हैं तो बार-बार यही सफाई आती है कि उनके खिलाफ साजिश रची जा रही है। यह नहीं बताया जाता कि इतनी धन-दौलत आखिर कहां से आई? सोशल मीडिया पर तेजस्वी के द्वारा गरीब जनता को अपना 'मुकुटमणि' बताना यह भी बताता है कि बिहार की राजनीति में इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है। उसने शातिर नेताओं वाली सभी कलाएं सीख ली हैं।
 सोशल मीडिया पर बडे लोगों के द्वारा अपनी व्यथा कहने और किसी न किसी तरह से छाये रहना रोजमर्रा की बात हो गई है। पिछले हफ्ते फिल्मी दुनिया के दिग्गज चेहरे अमिताभ बच्चन और प्रख्यात कवि कुमार विश्वास की शाब्दिक लडाई ने भी देशवासियों का खासा मनोरंजन किया। दरअसल, कुमार विश्वास ने पुराने हिंदी कवियों की याद में 'तर्पण' नामक श्रृंखला शुरू की जिसका सोशल मीडिया पर जमकर प्रचार किया गया। इस श्रृखंला में बाबा नागार्जुन, दिनकर, निराला, बच्चन, महादेवी, दुष्यंत, भवानी प्रसाद मिश्र के साथ अन्य कवियों की कविताओं का समावेश है। इसी श्रृंखला के चौथे वीडियो में राजनीति के रंग में रचे-बसे कवि विश्वास ने अमिताभ के दिवंगत पिता हरिवंशराय बच्चन की कविता का वीडियो शेयर किया। यू-ट्यूब पर इस कविता को देश के लाखों लोगों ने पढा और सराहा। लेकिन उम्रदराज अमिनेता को विश्वास का यह कृत्य पसंद नहीं आया। उन्होंने कवि को २४ घण्टे के अंदर यह विडियो डीलीट करने के साथ वीडियो से हुई कमाई का हिसाब देने की मांग कर डाली। कवि को तो तारीफ पाने की उम्मीद थी, लेकिन यहां उलटा हो गया। उन्होंने ट्वीट के जरिए बौखलाए अभिनेता को जवाब दिया कि अन्य कवियों के परिवारों ने तो मुझे (तर्पण के लिए) बधाइयां और शुभकामनाएं दीं और आपने नोटिस भेज दिया! मैं इस वीडियो को डिलीट करने के साथ-साथ इससे हुई ३२ रुपये की कमाई को भी आपको भेज रहा हूं। वैसे यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि कई विद्वानों का मानना है कि अच्छी रचनाएं बिना किसी बंदिश के लोगों के सामने आनी चाहिएं। चतुर अभिनेता के विरोध में राजनीति भी छिपी नजर आती है। कवि विश्वास आम आदमी पार्टी के नेता भी हैं। यह पार्टी भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आग उगलती रहती है। अमिताभ 'जिधर दम उधर हम' की नीति पर चलते आये हैं। वक्त के हिसाब से पाला बदलने में उन्हें महारत हासिल है। आज की तारीख में वे नहीं चाहते कि कहीं भी यह संदेश जाए कि वे मोदी का विरोध करने वाले शख्स के प्रति नर्म दिल हैं। अमिताभ ने कुमार को नोटिस भेज कर अपनी खिल्ली ही उडवायी है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि उन्हें पता ही न हो कि उनके पिताश्री की विभिन्न कविताएं सोशल मीडिया में छायी रहती हैं। कुछ लोग तो दूसरों की कविताओं पर भी हरिवंशराय बच्चन का नाम जड देते हैं और फेसबुक पर डाल देते हैं। हैरानी की बात है कि इसके पहले तो कभी सदी के तथाकथित महानायक को कॉपीराइट के हनन का विचार नहीं आया?
तथाकथित नामी-गिरामी चेहरों की ऐसी तमाशेबाजी सतत चलती रहती है और लोगों का मनोरंजन भी होता रहता है इनको पसंद और नापसंद करने वालों की अपनी-अपनी भीड है जो तालियां भी पीटती है और कीचड भी उछालती रहती है। इस सारे खेल-तमाशे के चलते ज्यादातर अच्छी सकारात्मक प्रेरणादायक खबरें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के द्वारा नजरअंदाज कर दी जाती हैं। उत्तराखंड स्थित रुद्रप्रयाग के कलेक्टर मंगेश घिल्डियाल पिछले दिनों रूटीन चेक के लिए राजकीय गर्ल्स इंटर कॉलेज पहुंचे तो उन्हें पता चला कि कॉलेज में साइंस का कोई टीचर ही नहीं है। उनके लिए यह काफी गंभीर बात थी। कोई और होता तो इसे नजरअंदाज कर चलता बनता, लेकिन उन्होंने इसका भी समाधान निकालने की ठान ली। घर पहुंचकर अपनी पत्नी ऊषा को इस समस्या के बारे में अवगत कराया। ऊषा ने पंतनगर यूनिवर्सिटी से प्लॉट पैथलॉजी में पीएचडी किया है। वे समझ गर्इं कि पति महोदय क्या चाहते हैं। अगले ही दिन वे कॉलेज पहुंची और छात्राओं को अवैतनिक पढाने में जुट गर्इं। युवा कलेक्टर मंगेश अपनी अलग छाप छोडने के लिए जाने जाते हैं। जहां भी पदस्थ होते हैं। वहां के लोगों का दिल जीत लेते हैं। मई में जब उनका बागेश्वर जिले से स्थानांतरण हो रहा था, तो वहां के लोग विरोध में सडकों पर उतर आए थे। उनकी पत्नी भी बिना किसी प्रचार के जनसेवा करने में यकीन रखती हैं।

Thursday, July 13, 2017

क्या यह ईश्वर की मर्जी है?

विदेशी विद्वान, पर्यटक समरसेट मॉम ने अपने संस्मरणों की किताब में लिखा है- "जब मैं भारत छोड रहा था, तो लोगों ने मुझसे पूछा कि भारत में मुझे सबसे अधिक किस बात ने प्रभावित किया। मुझे प्रभावित करने वाली चीजों में न ताजमहल था, न बनारस का घाट। न मदुरे के मंदिर और न ही श्रावणकोट के पहाड। ऐसा नहीं कि मैं इनसे प्रभावित नहीं हुआ था, बल्कि सच कहूं तो इनका प्रभाव भी मुझपर बहुत अधिक पडा था, लेकिन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पडा था, वह था- भारत का किसान, दुबला-पतला। जिसके पास अपना तन ढकने के लिए मोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। जो सुबह से शाम तक चटकती धूप में धरती को जोतता है, दोपहर में पसीने से नहाता है और शाम को डूबते सूरज की किरणों के साथ परिश्रम से थककर सो जाता है। ऐसा वह आज से नहीं, बल्कि उस समय से कर रहा है जबकि आर्यों ने इस धरती पर कदम रखा था। सिर्फ एक आशा उसके मन में काम करती है कि वह इस परिश्रम के बल पर अपने को जिन्दा रखने की एक छोटी-सी जरूरत, पेट भरने की, पूरी करता रह सकता है।"
भारतीय किसान की इस तस्वीर को समरसेट मॉम ने कई वर्ष पूर्व पेश किया था। होना तो यह चाहिए था कि इस तस्वीर में काफी सकारात्मक बदलाव होता। भारत का किसान खुशहाली के झूले में झूल रहा होता। लेकिन यहां तो हर वर्ष लगभग पचास लाख किसान खेती करना छोड रहे हैं। गांव के गांव खाली हो रहे हैं और खस्ताहाल किसानों की भीड रोजी-रोटी की खातिर शहरों की भीड बनने को विवश है। बेबस किसान और उनके परिवार अंतहीन तकलीफों और मजबूरी के शिकंजे में कराह रहे हैं। आर्थिक तंगी के कारण बैल की जगह बेटियों को खेतों में हल चलाना पड रहा है। कई लोग इस सच को मानने को आसानी से तैयार नहीं होंगे। लेकिन यह सच है कि मध्यप्रदेश में स्थित बसंतपुर पांगरी गांव में रहने वाले किसान सरदार काहला के पास खेतों की जुताई के लिए बैल खरीदने और उनकी देखभाल के लिए पैसे नहीं हैं। आर्थिक तंगी के चलते अपनी पढाई छोड चुकी किसान की दोनों बेटियां बैल की जगह हल चलाती हैं। एक बेटी १४ साल की है और दूसरी ११ साल की। जैसे ही यह खबर अखबारों में छपी तो प्रशासन के कान खडे हो गए और मानव अधिकार आयोग भी जाग उठा। कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट पेश करने के आदेश दे दिये गए। अपने देश में इस तरह की रस्म अदायगी सतत चलती रहती है। मूल समस्या का समाधान नदारद रहता है। नारंगी नगर नागपुर के निकट स्थित मालेगांव ग्राम में एक किसान-पुत्र स्कूल के बस्ते के लिए फांसी के फंदे पर झूल गया। आठवीं कक्षा में पढने वाला गरीब किसान का यह बेटा कई दिनों से स्कूल की किताबों, कापियों को सुरक्षित रखने के लिए बस्ते की मांग करता चला आ रहा था। बस्ता नहीं मिलने पर आखिरकार उसने छत पर जाकर फांसी लगा ली। वह बहुत दुखी था और यह बात उसके मन में घर कर गई थी कि गरीब पिता उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम नहीं हैं। यह बालक अपनी तीन बहनों का इकलौता भाई और काफी होनहार खिलाडी था। जब वह फांसी के फंदे पर झूला तब उसके पिता खेत पर काम के लिए निकल चुके थे।
बेटी की शादी के एक दिन पहले बांदा जिले के गांधीनगर में रहने वाले किसान निखिल रस्तोगी ने छत से कूद कर जान दे दी। धन के घोर अभाव और काफी कर्ज में डूबे होने के चलते की गई इस आत्महत्या ने गांववासियों को हतप्रभ कर दिया। बेटी की तो सांसें ही अटक गर्इं। निखिल का दाह संस्कार करने के बाद गम में डूबे परिवार के सामने शादी के इंतजाम की समस्या ख‹डी हो गई। उनके पास तो एक फूटी कौडी भी नहीं थी। ऐसे वक्त में मोहल्ले के लोगों और पडोसियों ने अपना धर्म निभाया और बिटिया की शादी नियत तिथि पर करने की ठानी। आपस में मिलकर चंदे से रकम जुटायी गई। दूल्हा भी बिना किसी तामझाम के शादी करने को तैयार हो गया। मैरिज हॉल के मालिकों ने भी ने किराया नहीं लिया। खुदकुशी कर चुके किसान की बेटी की लोगों के सहयोग से सम्पन्न हुई इस शादी ने इंसानियत की लाज रख ली। बीते हफ्ते राजस्थान के कोटा में बनवारी लाल नामक किसान ने आत्महत्या कर ली। यह किसान लहसुन के सही भाव नहीं मिलने से परेशान था। गौरतलब है कि राजस्थान के कोटा सम्भाग में इस बार लहसुन की बम्पर फसल हुई है, लेकिन किसानों को इसका पूरा भाव नहीं मिल रहा है। इसी के चलते पहले भी चार किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आ चुके हैं। किसान बनवारी लाल ने आठ बीघा का खेत किराए पर ले रखा था। सिर पर कुछ कर्ज भी था। उसे उम्मीद थी कि लहसुन के अच्छे भाव मिलेंगे और वह कर्ज से मुक्त हो जाएगा, लेकिन यहां तो उम्मीदों पर ही पानी फिर गया। हताश और निराश होकर आखिरकार वह फांसी के फंदे पर झूल गया। उसकी जेब से एक पर्ची मिली जिसमें माता-पिता को सम्बोधित करते हुए उसने लिखा था कि मेरी गलती को ईश्वर की मर्जी मानना। हमारे देश में हर वर्ष हजारों किसान फसल के चौपट हो जाने, फसल का सही भाव नहीं मिलने और कर्ज के बोझ से थक-हार जाने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं। राजनीतिक दल किसानों की दुर्दशा पर सियासी रोटियां सेंकते हैं और सरकारें दीर्घकालीन समाधान तलाशने की बजाय कर्ज माफी की घोषणा कर अपने वोटों को पक्का करने का भ्रम पाल लेती हैं। ऐसा पिछले कई वर्षों से होता चला आ रहा है। किसान वहीं का वहीं है। हर वर्ष कृषि लागत बढती चली जा रही है। हमारी कृषि व्यवस्था में ऐसी आधारभूत खामियां है जिनसे किसान संकटों से उबर ही नहीं पा रहा है। कृषि विशेषज्ञों का मत है कि सरकार को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिनसे किसान की खेती मुनाफे का सौदा बन सके। कर्ज माफी किसानों के कल्याण का स्थायी समाधान नहीं है। देश की आजादी के बाद शासकों ने किसानों की दशा सुधारने के कोई दूरगामी प्रयास नहीं किए। खेती सतत घाटे का सौदा बनती चली गई। देश की दो-तिहाई आबादी जिस पेशे से जुडी थी उसे नजरअंदाज कर दिया गया। अगर कृषि को फायदे का सौदा बना दिया गया होता तो गरीब किसानों को इतने बुरे दिन न देखने पडते। आत्महत्याओं की नौबत ही नहीं आती।

Thursday, July 6, 2017

सडी हुई मछलियां

गुंडागर्दी करने वाले बेखौफ हैं। कुछ नेताओं की जुबानें जहर उगलने लगी हैं। सेना तक को नहीं बख्शा जा रहा है। मारपीट आम हो गयी है। हर चेतावनी और नसीहत बेअसर है। भीड को जज बनते देरी नहीं लगती। देखते ही देखते निर्दोषों को मौत के हवाले कर दिया जाता है। लोग तमाशबीन बने रहते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में निरंकुश भीड के द्वारा आतंक मचाने और हत्या कर गुजरने की खबरों का छा जाना रोजमर्रा की बात हो गई है। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि अपना देश खान-पान, जाति-धर्म, संकीर्णता और भीड की न्याय व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। यह हिंसक हालात सत्ताधीशों, नेताओं और नौकरशाहों को भले ही परेशान न करते हों, लेकिन देश का हर संवेदनशील नागरिक उन्मादी भीड की दादागिरी से बेहद आहत है। उसकी नींद हराम हो चुकी है। क्या यह आहत करने वाला सच नहीं है कि २९ जून को जिस वक्त गुजरात के साबरमती में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गोरक्षा के नाम पर मौत का तांडव मचाने वालों को इंसानियत का पाठ पढा रहे थे... तभी झारखंड के रामगढ में गोमांस ले जाने के शक में एक वैन ड्राइवर को पीट-पीटकर मार डाला गया। गौरतलब है कि दो वर्ष पूर्व गोरक्षा के नाम पर उत्तरप्रदेश के दादरी में बीफ खाने के आरोप में अखलाक नामक बुजुर्ग को घर से खींचकर मार डाला गया था। इस शर्मनाक घटना से पूरे विश्व में भारत की छवि दागदार हुई थी। उसके बाद तो जैसे ऐसी हिंसक घटनाओं की झडी-सी लग गयी। अभी तक भीड के इंसाफ के नाम पर सैकडों बेकसूरों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। ताज्जुब है कि राजनेताओं के चेहरे पर कहीं कोई शिकन नजर नहीं आती। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का बयान आया है कि भीड द्वारा पीट-पीटकर मारने के जितने मामले एनडीए सरकार के तीन साल के कार्यकाल में सामने आये हैं उससे तो कहीं ज्यादा पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान सामने आये थे। तब तो इस तरह से सवालों की बौछार नहीं की गयी थी। निश्चित ही अमित शाह के कथन का तो यही अभिप्राय है कि पहले की सरकार के कार्यकाल में भीड द्वारा अधिक हत्याएं हुर्इं इसलिए लोगों को वर्तमान में घटित अपराधों को गंभीरता से कतई नहीं लेना चाहिए, लेकिन शाह को कौन समझाए कि हिन्दुस्तान की जनता पहले वाली सरकार के नकारेपन से त्रस्त हो चुकी थी तभी तो उसने नरेंद्र मोदी एंड कंपनी को देश की बागडोर सौंपी है। ताज्जुब है पार्टी अध्यक्ष के लिए यह कोई गंभीर समस्या नहीं है। जब कप्तान के यह हाल हैं तो पार्टी से जुडे अन्य संगठनो और कार्यकर्ताओं की सोच की सहज ही कल्पना की जा सकती है। देश का जन-जन यह देखकर हैरान-परेशान है कि गोरक्षकों की भीड का आतंक थमता नहीं दिखता। बेवजह मारपीट करने वालों को कानून का कतई भय नहीं है। अधिकांश गोरक्षक स्वयं को भाजपा एवं आर.एस.एस. का कार्यकर्ता और समर्थक बताते हैं और इन्हीं में से कई चुनावी मौसम में भाजपा प्रत्याशियों के लिए खून-पसीना बहाते देखे जाते हैं। एक शोध से यह सच सामने आया है कि गोरक्षा की आड में मारपीट करने और खून बहाने के करीब ९७ फीसदी मामले मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद अंजाम दिये गए हैं।
काबिलेगौर है कि प्रधानमंत्री का यह बयान भी कम चौंकाने वाला नहीं है कि ८० फीसद गोरक्षक फर्जी हैं। देश में सक्षम कानून है फिर भी फर्जी बलशाली हैं और आम आदमी भय के शिकंजे में जीने को विवश है! राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बेकाबू भीड के द्वारा खुले आम लोगों की हत्या करने की बढती घटनाओं पर गंभीर चिन्ता जताते हुए सवाल उठाया है कि क्या ऐसी घटनाओं के प्रति हम वाकई सतर्क हैं। ऐसी सभी घटनाएं देश के मूलभूत सिद्धांतों, संविधान की मर्यादा के खिलाफ हैं। अगर इन्हें रोका नहीं गया तो हमारी आने वाली पीढ़ियां हमसे तरह-तरह के सवाल पूछेंगी। जुनैद हत्याकांड, झारखंड में बीफ ले जाने के शक में भीड का कातिल हो जाना और कश्मीर में डीएसपी की हत्या जैसी बर्बरताओं ने हर किसी को चिन्तन-मनन करने को विवश कर दिया है कि यह हिंसा, अविश्वास, भेदभाव और नफरत की आंधी इस देश को कहां ले जाने वाली है। लोगों के तमाशबीन बने रहने की प्रवृति भी कई सवाल खडी करती है। बिहार के रोहतास में २९ जून को दो दलितों को बडी बेरहमी से मार दिया गया तो कोई उन्हें बचाने नहीं आया। उससे पहले २७ जून को झारखंड के गिरीडोह में उस्मान अंसारी नामक शख्स के घर के पास गाय की लाश मिलने के बाद उसे बुरी तरह से पीटा गया और घर में आग लगा दी गई। जांच में यह सच सामने आया कि बीमारी की वजह से गाय की मौत हुई थी। इसमें उस्मान का क्या कसूर था?
यह खबर भी कम स्तब्ध करने वाली नहीं है कि डॉक्टरों को भी बेकाबू भीड की गुंडागर्दी का भय सताने लगा है। कई डॉक्टर तनाव में जीने को विवश हैं। एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि इलाज में होने वाली देरी और मरीजों की इलाज के दौरान होने वाली मौतों की वजह से उनके परिजन एकाएक आक्रामक हो उठते हैं और डॉक्टरों के साथ मारपीट पर उतर आते हैं। इस तरह की घटनाओं में लगातार इजाफा होने की वजह से चिकित्सकों को हर वक्त भावनात्मक और शारीरिक हमलों के साथ-साथ मुकदमेबाजी भी का भय सताता रहता है। यही वजह है कि लगभग तीस प्रतिशत डॉक्टर तो अपनी संतानों को डॉक्टर ही नहीं बनाना चाहते। कुछ वर्ष पहले तक लोगों में डॉक्टरों के प्रति जो विश्वास और सम्मान की भावना थी उसे कुछ कफनचोर डॉक्टरों की कारस्तानियों ने काफी चोट पहुंचायी है। कहावत है कि 'एक सडी हुई मछली पूरे तालाब को गंदा-बदबूदार बना देती है।' इस मानव सेवा के पावन क्षेत्र में कुछ ऐसे लोग घुस आए हैं जो हद दर्जे के धनलोभी हैं। मरीजों को लूटना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है। एक मरीज और डॉक्टर के बीच का रिश्ता भरोसे का होता है। और यह भरोसा तब टूटता है जब कोई डॉक्टर चिकित्सकीय शुचिता कायम रखने में नाकाम रहता है। देश में बहुतेरे ऐसे डॉक्टर हैं जो अपने मरीजों को भलाचंगा करने में अपनी जान लगा देते हैं। उनका किसी भी लालच से कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसे डॉक्टरों के कारण ही चिकित्सकों को भगवान का दर्जा हासिल है। वैसे अपवाद कहां नहीं होते। डॉक्टरों पर हमलेबाजी को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस पर चिन्ता जताते हुए कहा है कि- महात्मा गांधी के इस देश में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। अगर किसी विफल ऑपरेशन की वजह से किसी मरीज की मौत हो जाती है तो रिश्तेदार अस्पतालों को जला देते हैं और चिकित्सकों को पीटते हैं। दुर्घटना तो दुर्घटना है। हादसों में लोग मरते हैं या घायल होते हैं तो लोगों का हुजूम आता है और वाहनों को जला देता है। यकीनन इस 'आग' को बढने से रोकना होगा। यह काम हम और आप ही कर सकते हैं। तमाशबीन बने रहने की आदत को त्याग कर सच्चे-सतर्क देशवासी की भूमिका निभानी ही होगी।