Thursday, December 28, 2017

बोना और पाना

विचारक कहते हैं कि अधिकांश लोग जीवन पर्यंत सकारात्मक सोच से रिश्ता ही नहीं जोड पाते। वे खुद से ही अनभिज्ञ रहते हैं। उन्हें अपनी ताकत का पता ही नहीं चल पाता। इतिहास साक्षी है कि मनुष्य के संकल्प के सम्मुख अंतत: हर विपत्ति घुटने टेक देती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ लोग विपरीत हालातों के समक्ष खुद को बेहद बौना मान लेते हैं। ऐसे लोगों को किसी लोकलाज और मर्यादा का भान नहीं रहता। २०१७ के नवंबर महीने की २० तारीख को एक तेरह वर्षीय बच्चे को नई दिल्ली के अशोका होटल में एक विदेशी युवती के बैग को चुराने के आरोप में पकडा गया। बैग में १३०० यूएस डॉलर, चार लाख रुपये समेत १५ लाख का सामान था। बच्चे ने पूछताछ में बताया कि वह अपनी दादी की सीख और निर्देश पर होटलों में होने वाली शादियों व पार्टियों में चोरी करता था। ६२ वर्षीय दादी ने स्वीकार किया कि वह अपने पोते को होटलों में सूट-बूट पहना कर भेजती थी। अभी तक वह पोते से चोरी की कई वारदात करवा चुकी है। दादी के पास से लाखों रुपये बरामद किए गये। अपने पोते को चोरी करने का पाठ पढाने वाली दादी का कहना है कि गरीबी और बदहाली ने उसे ऐसा करने को विवश कर दिया। उसके पास और कोई चारा ही नहीं था। जो लोग सोच-समझकर ईमानदारी के साथ हाथ पैर हिलाये बिना धनवान बनने और अपनी तमाम समस्याओं से मुक्ति पाना चाहते है उनके पास इस किस्म के बहानों का भंडार होता है। जिन्हें सही डगर चुननी होती है, वे चुन ही लेते हैं। उन्हें कोई बहाना और लालच नहीं जकड पाता। सोचने और समझने की ललक से आंखें खुलती हैं। फिर भी कुछ लोग अंधेरे में रहना पसंद करते हैं। हत्यारे और काले कारोबारी दाऊद इब्राहिम के नाम से दुनिया वाकिफ है। इस कुख्यात माफिया सरगना ने गलत रास्तों के जरिए अरबों-खरबों की दौलत जमा कर ली है, लेकिन आज उसे इस बात की चिन्ता सता रही है कि उसकी संपत्ति का वारिस कौन होगा क्योंकि उसका एकमात्र बेटा धर्म की राह चुनकर मौलाना बन गया है। उसे दाऊद का काला कारोबार रास नहीं आया। वह ईमानदारी की राह पर चलने का पक्षधर है। अरबों-खरबों के धन का मालिक होने के बावजूद पिता के कभी भी चैन से न सो पाने के सच ने बेटे की आंखें खोल दीं। वह अंडरवर्ल्ड डॉन का घर छोड मस्जिद प्रबंधन द्वारा दिये गए घर में रहने चला गया है।
नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की रेसलर (कुश्ती की खिलाडी) हैं। दोनों बहनों को इस उल्लेखनीय उपलब्धि का हकदार बनाने में उनकी मां लक्ष्मी देवी के संघर्ष का ही एकमात्र योगदान है। १९९३ में जमीन विवाद में लक्ष्मी देवी के पति की दबंगों ने हत्या कर दी। उत्तरप्रदेश में ऐसी हत्याएं होना आम बात है। गुंडे-मवाली कानून को अपनी जेब में रखते हैं। पुलिस वालों से दोस्ती गांठकर तरह-तरह के अपराधों को अंजाम देने के साथ-साथ असहायों की संपत्ति पर कब्जा करने को लालायित रहते हैं। धनवान हत्यारों को जमानत पर जेल से बाहर आने में ज्यादा समय नहीं लगा। बेटियां छोटी थीं। लक्ष्मी देवी को बदमाशों ने इस कदर डराया-धमकाया कि उन्हें अपना गांव छोडकर बरनावा के पास संतनगर में शरण लेनी पडी। मां और बेटियों के पास तब एक फूटी कौडी भी नहीं थी। रहने का भी कोई इंतजाम नहीं था। एक खाली पडी सुनसान जगह पर उन्होंने प्लास्टिक की बोरियों और पॉलीथिन की मदद से झोपडी बनाई और रहना प्रारंभ किया। शैतानों ने यहां भी पीछा नहीं छोडा। धमकाने और डराने का सिलसिला बरकरार रखा। अपनी बेटियों की चिन्ता ने विधवा मां की नींद उडा दी थी। दिन-रात उनकी सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहती। वह चौबीस घण्टे उनके साथ तो नहीं रह सकती थी। ऐसे में उसने उन्हें सक्षम बनाने के लिए पहलवान बनाने की ठानी। यही एक रास्ता था जो बेटियों को मानसिक और शारीरिक मजबूती प्रदान कर सकता था। दृढ निश्चयी मां ने पहले बडी बेटी नीलम को अखाडे भेजा। नीलम ने अखाडे में धोबी पछाड लगाना शुरू कर दिया। बडी बहन की देखा-देखी छोटी बहन मेघना भी अखाडे जाने लगी। गांव से बारह किसी दूर अखाडे में दोनों बहने छह घण्टे अभ्यास करने लगीं। उन्होंने अपने बाल कटवा लिए और लडकों की तरह रेसलिंग की ड्रेस में नजर आने लगीं तो पंचायत को यह बात नागवार गुजरी। नीलम और मेघना का आंख से आंख मिलाकर समाज का सामना करने से गांव के लोगों ने उनसे बातचीत तक बंद कर दी।
"यह दुनिया झुकने वालों को और दबाती है। हतोत्साहित करती है।" मां ने बेटियों को पहले से ही इस सच से अवगत करा दिया था। आखिरकार मां और बेटियों की हिम्मत, लगन और मेहनत रंग लायी। नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की कुश्ती खिलाडी हैं। नीलम ने छह बार स्टेट लेवल पर गोल्ड मेडल जीता है। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में छह पदक जीतने वाली मेघना के भी हौसले बुलंद हैं। उसे पिछले वर्ष राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिल चुका है। दोनों बहनों का आज भी संघर्ष जारी है। नीलम स्नातक कर रही हैं और मेघना स्नातक कर चुकी हैं। दोनों बहनों का कहना है कि अगर कुछ संसाधन मुहैया हो जाएं तो वे एक दिन देश के लिए जरूर खेलेंगी।
हमेशा संघर्षरत रहीं मां लक्ष्मी अब पूरी तरह से निश्चिंत हो चुकी हैं। उन्होंने बेटियों को जो बनाना चाहा उसमें सफल होने के बाद उनकी बस यही तमन्ना है कि बेटियों को कोई अच्छी-सी नौकरी मिल जाए तो भविष्य और सुरक्षित हो जाए। आज भी बेटियों के चेहरे पर वो तेज, दृढता और स्वाभिमान की चमक नजर आती है जो उनकी मां की पहचान रही है। गांव के जन-जन को भी आज इन बेटियों पर गर्व हैं। अपनी इस दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जो यह मानते हैं कि पैसा ही सबकुछ है। जितना अधिक धन उतनी अधिक खुशियां। लेकिन यह सच नहीं है। अमेरिकी शोधकर्ताओं ने एक गहन अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि जैसे-जैसे व्यक्ति की कमायी बढती चली जाती है, वो स्वार्थी बनता चला जाता है। वहीं दूसरी तरफ कम कमायी वाले लोग ज्यादा खुश रहते हैं और दूसरों के साथ उनके संबंध प्रगाढ और मधुर होते हैं। खुशहाली का पैसों से कोई लेना-देना नहीं है। धन से आप दुनियाभर की चीजें खरीद सकते हैं, लेकिन अपनों के प्रति प्रेम और अपनी भावनाएं जो आपको खुश रख सकें उन्हें नहीं खरीदा जा सकता। अध्ययन में यह भी सामने आया कि कम कमायी वाले लोग अधिक सकारात्मक होते हैं। ईश्वर पर उनकी श्रद्धा अधिक होती है। वे स्वार्थी नहीं होते। दूसरों की भी चिंता करते हैं। यही सब बाते उन्हें वास्तविक खुशी प्रदान करती है। पंजाब के चंडीगढ में रहते हैं जगदीशलाल आहूजा। उनकी उम्र है ८३ वर्ष। वे पिछले कई वर्षों से गरीबों को खाना खिलाते चले आ रहे हैं। यही उनके जीवन का एकमात्र मकसद है। इसी में उन्हें अपार खुशी और संतुष्टि मिलती है। उनका बचपन बहुत ही संघर्षमय रहा। खेलकूद की उम्र में शहर की सडकों और गलियों में नमकीन, टॉफी, फल आदि बेचे। जब इक्कीस साल के थे तब पंद्रह रुपये की पूंजी से फल का व्यापार आरंभ किया। मेहनत रंग लायी और धंधा ऐसा चला कि कुछ ही वर्षों में करोडों में खेलने लगे। जिन्दगी बडे मजे से कटने लगी। अपने पुत्र के आठवें जन्मदिवस पर गरीब बच्चों को लंगर खिलाने का विचार आया। लंगर में करीब डेढ सौ बच्चों ने खाना खाया। जगदीशलाल को वो दिन भुलाये नहीं भूलता। बच्चों के चेहरे की चमक बता रही थी कि उन्हें पहली बार अच्छा खाना नसीब हुआ है। उस दृश्य को देखकर जगदीशलाल को अपना वो संघर्ष भरा बचपन याद आ गया, जब कई रातें भूखे पेट सोना पडता था। उन्होंने उसी पल निश्चय कर लिया कि बहुत हो गया धन कमाना, अब तो जरूरतमंदों की सेवा को ही अपने जीवन का एकमात्र मकसद बनाना है। उन्होंने अस्पताल के बाहर अपना लंगर कार्यक्रम शुरू कर दिया। हर दिन एक निश्चित समय पर अस्पताल के गेट के सामने खाना लेकर पहुंचने लगे। इस सेवाकार्य में अडचनें भी आयीं। यहां तक कि संपत्ति भी बेचनी पडी, लेकिन पिछले कई वर्षों से एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन उन्होंने गरीबों को खाना नहीं खिलाया हो। उनकी उम्र बढती चली जा रही है, लेकिन लंगर खिलाने की इच्छाशक्ति में जरा भी कमी नहीं आयी है। शहर के लोग बडे सम्मान के साथ उन्हें 'लंगर वाले बाबा' के नाम से पुकारते हैं।

Thursday, December 21, 2017

उन्माद और आतंक की तस्वीर

चित्र-१ : देश की राजधानी में स्थित जैतपुर इलाके में एक शादीशुदा युवक सत्रह वर्षीय हिन्दु लडकी को बहला-फुसलाकर भगा ले गया। धर्म जागरण और हिन्दू मंच आदि संगठन फौरन सक्रिय हो गये। उन्होंने पुलिस से कडी कार्रवाई किए जाने की मांग की। ढिलायी बरते जाने पर तीव्र आंदोलन चलाने की धमकी दी। युवक बिहार के मधुबनी जिले का रहने वाला है। हिन्दू मंच का कहना है कि हिन्दू लडकी को शादीशुदा युवक सोची समझी साजिश के तहत लेकर भागा है। यह मामला सीधे-सीधे 'लव जिहाद' का है। यह पहला मामला नहीं है। ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें हिन्दू नाबालिग लडकियों को मुस्लिम युवक फुसलाकर अपने साथ लेकर फरार हो गए। उनमें से अधिकांश लडकियां आज भी अपने घर नहीं लौटी हैं।
चित्र - २ : छह दिसंबर २०१७ को राजस्थान के राजसमंद जिले में पश्चिम बंगाल निवासी अफराजुल की हत्या कर शव जला दिया गया। हत्यारे शंभूलाल रैगर ने घटना का विडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जिसमें वह लव जिहाद के खिलाफ बयानबाजी करता नजर आया। शंभूलाल के द्वारा की गई इस खौफनाक हत्या और लाइव वीडियो ने सजग देशवासियों को हिलाकर रख दिया। अभी तक ऐसे दिल दहलाने वाले वीडियो आईएसआईएसआई के आतंकवादी जिहाद के नाम पर दहशत फैलाने के लिए विदेशी सैनिकों के निर्दयता से सिर कलम का प्रसारित करते रहते हैं। अपनी तथाकथित बहन को पश्चिम बंगाल भगाकर ले जाने वाले किसी मुस्लिम की करतूत का बदला लेने के लिए शंभूलाल ने बडे ही भयावह तरीके से निर्दोष अफराजुल को मौत के घाट उतार दिया जिससे उसकी कोई दुश्मनी ही नहीं थी! अफराजुल का मुसलमान होना ही उसकी मौत का कारण बन गया। पश्चिम बंगाल के मालदा का निवासी अफराजुल घर बनाने के छोटे-मोटे ठेके लेता था। ६ दिसंबर को शंभूलाल उसे अपने मकान बनवाने की बात कहकर अपने साथ खेत में ले गया। शंभूलाल की तेरह वर्षीय भांजी और चौदह वर्षीय भांजा भी उसके साथ थे। शंभूलाल ने पहले से ही अपने भांजे को समझा दिया था कि उसे किस तरह से एंड्राइड मोबाइल से वीडियो रिकार्डिंग करनी है। शंभूलाल ने गजब की फूर्ती दिखाते हुए जैसे ही अफराजुल की पीठ पर गैंती का जोरदार वार किया तो वह जमीन पर गिर पडा। भांजे ने धडाधड वीडियो रिकार्डिंग करनी शुरू कर दी। एकाएक हुए हमले ने अफराजुल को शक्तिहीन कर दिया। शंभूलाल जमीन पर धराशायी हो चुके अफराजुल पर लगातार वार पर वार करता रहा। अफराजुल हाथ जोडकर बस यही पूछता रहा कि आखिर उसका कसूर क्या है? मुझे मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? खूंखार जानवर बने शंभूलाल का उसके अंग-अंग को छलनी कर उसका खात्मा करने के बाद भी दिल नहीं भरा। उसने अफराजुल की लाश पर पेट्रोल छिडकर आग लगा दी। इस बीच उसने वीडियो कैमरे के सामने आकर बेखौफ होकर ऐलानिया स्वर में कहा कि उसने अपनी बहन का बदला ले लिया है। इन लोगों ने हमारी हिन्दू-बहनों को 'लव जिहाद' के नाम पर भगाकर शादी की है। इस खौफनाक हत्यारे ने इस हत्या का संपूर्ण लाइव वीडियो भी वायरल कर दिया जिसे देश और दुनिया के करोडों लोगों ने देखा। पुलिस जांच में यह सच्चाई सामने आई कि शंभूलाल नशेडी होने के साथ-साथ भडकाऊ वीडियो देखने का आदी रहा है। पिछले दो साल से वह बेरोजगार था और लाखों के कर्ज तले दबा था। उसकी पत्नी ही घर चला रही थी। लव जिहाद की कहानियां, राजनीति और धर्म के व्यापारियों के भडकाऊ भाषण सुन-सुनकर उसके मन में सभी मुसलमानो के प्रति गुस्से और घृणा ने डेरा जमा लिया था। उसके करीबियों का कहना है कि वह ज्यादा पढा-लिखा नहीं है। वे तो उस वीडियो को देखकर हैरान हैं जिसमें वह लव जिहाद, कश्मीर में धारा ३७०, सेना पर पत्थर बाजी, सैनिकों के सिर काटकर ले जाने, आरक्षण के नाम पर हिंदूओं को बांटने आदि की बडी-बडी बातें कहता नजर आया। उसकी मां को तो यकीन नहीं कि उसका बेटा किसी की हत्या कर सकता है। मां कहती है मैं उसे बचपन से जानती हूं। उसमें तो चींटी को मारने की हिम्मत तक नहीं। स्कूल में जब उसे साथी मारते थे तो वह रोते हुए घर आता था। जिसने कभी किसी को थप्पड मारने की हिम्मत नहीं की वह ऐसी निर्मम हत्या कैसे कर सकता है?
चित्र-३ : पश्चिम बंगाल के अफराजुल की हत्या के आरोपी शंभूलाल के समर्थन में हिन्दूवादी संगठन खुलकर सामने आ गये। उन्होंने रैली निकालकर प्रदर्शन किए। प्रशासन ने उन्हें रोका तो वे लव जिहाद और पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी कर शंभूलाल को नायक दर्शा उसकी देशभक्ति और महानता का बखान करने लगे। सबसे चौंकाने वाला सच तो यह है कि गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के साथ-साथ राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के पांच सौ से अधिक लोगों ने शंभूलाल की पत्नी के खाते में लाखों का चंदा जमा करवा दिया। बैंक में जमा होने वाली अधिकांश रकम इंटरनेट बैंकिंग से जमा हुई। कई लोग शंभूलाल के घर भी आर्थिक मदद देने पहुंचे। कुछ लोग ऐसे भी सामने आये जिन्होंने शंभूलाल के बच्चों की परवरिश करने का आश्वासन दिया। शंभूलाल को देशभक्त कहकर धार्मिक उन्माद फैलाने वालों की भीड ने जलती आग में घी डालने का भरपूर प्रयास किया। ऐसा लगता है कि उन्मादी तत्व पूरे समाज को अपने रंग में रंगना चाहते हैं। उन्हें पुलिस का कोई भय नहीं। उन्हें न्याय पालिका पर भी न तो भरोसा है और न ही उसका खौफ। समाज के अधिकांश प्रतिष्ठित चेहरे भी गलत को गलत कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं!

Thursday, December 14, 2017

अपशब्द बोलने वाले पाते हैं पुरस्कार

अधिकांश समझदार लोग कहते हैं कि शराब खराब करती है। इसके चक्कर में उलझा हुआ आदमी कभी उबर नहीं पाता। फिर भी पीने वाले इसके मोहपाश से मुक्त नहीं होना चाहते। जिनका मनोबल सुदृढ होता है वही इससे दूरी बनाने में कामयाब हो पाते हैं। हमने कई समझदार किस्म के महानुभावों को इसके हाथों का खिलौना बनते देखा है। यहां तक कि कई डॉक्टर भी इसके चक्कर में बरबाद हो जाते हैं। मेरे पाठक मित्र सोच रहे होंगे कि आज मैं यह कौन-सा विषय लेकर बैठ गया हूं। शराब और उसके नशे पर तो पहले भी कई बार बहुत कुछ लिखा जा चुका है। दरअसल, कल ही मैंने एक खबर पढी जिसने मुझे उस नशे पर फिर से लिखने को विवश कर दिया जिसकी गहराई समुंदर से भी कहीं बहुत-बहुत ज्यादा है। पहले वो खबर आप भी पढ लें : झारखंड के विधायकों ने मांग की है कि विधानसभा परिसर में ही उनके लिए शराब की दूकान खोली जाए, क्योंकि सरकार ने राज्य में आंशिक शराब बंदी लागू की है जिसकी वजह से विधायकों को शराब खरीदने में दिक्कतों का सामना करना पड रहा है। यह मांग विपक्ष की तरफ से आई है और विपक्ष की दलील हैं कि जब सरकार ही शराब बेच रही है तो विधानसभा परिसर में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? दरअसल, झारखंड में सरकारी शराब की दुकानें माननीय विधायकों को इसलिए भी रास नहीं आ रही हैं क्योंकि दुकानों की संख्या कम है और शराब खरीदनें वालों की अथाह भीड लगी रहती है। ऐसे में शराब के शौकीन विधायकों को कतार में लगकर शराब खरीदना अच्छा नहीं लगता। वे पब्लिक की निगाह में नहीं आना चाहते। आखिर इमेज का सवाल है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायकों ने अपनी इस अनूठी मांग पर पूर्व मुख्यमंत्री सहनेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन से भी रायशुमारी की है। सोरेन का कहना है कि सरकार पोषाहार तो ठीक से बंटवा नहीं पाती, लेकिन खुद शराब बेचने का निर्णय लेकर गदगद हो जाती है।
इस खबर को पढने के बाद कई विचार कौंधते रहे। इसके साथ ही यह बात भी मुझे बहुत अच्छी लगी कि विधायकों ने कम अज़ कम यह तो खुलकर दर्शा दिया कि वे शराब के शौकीन हैं। यह कोई छोटी-मोटी स्वीकारोक्ति नहीं है। कौन नहीं जानता कि अपने देश में तो अधिकांश नेता मुखौटे ही ओढे रहते हैं। अपनी असली तस्वीर कभी सामने ही नहीं आने देना चाहते। ऐसा भी नहीं है कि सत्ता पक्ष के विधायक पीते नहीं होंगे, लेकिन वे विपक्ष के विधायकों के सुर में सुर नहीं मिला पाये। यही राजनीति है जो झूठ और पाखंड की बुनियाद पर टिकी है। सच बोलने और सच का सामना करने की हिम्मत बहुत कम नेताओं में है। पिछले दिनों गुजरात के उभरते युवा नेता हार्दिक पटेल की सेक्स सीडी सामने आई। हार्दिक ने बडा चौंकाने वाला जवाब फेंका कि वे कोई नपुंसक नहीं हैं। आखिर कितने नेता ऐसा जवाब दे पाते हैं? नेताओं की सोच में निरंतर शर्मनाक बदलाव देखा जा रहा है। कुछ नेता तो हद से नीचे गिरने में भी देरी नहीं लगाते। उनके बोल उनकी गंदी सोच को उजागर कर ही देते हैं। राजनीति में कई ऐसे चेहरे हैं जो गंवारों की तरह न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने नशेडियों की तरह बकबक करते रहते हैं। उनका नशा कभी टूटता ही नहीं। उन्हें देश में घर कर चुकी गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, असमानता, भ्रष्टाचार, अराजकता और दिल दहला देने वाली बदहाली दिखायी ही नहीं देती। सत्ता खोने का गम भी उनका पीछा ही नहीं छोडता। उनका गुस्सा और अंदर की जलन उनकी जुबान से बाहर आकर ही दम लेती है। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर का नाम भी ऐसे गंवारों में शामिल है जो सडक छाप भाषा बोलते रहते हैं। बीते हफ्ते उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को नीच आदमी कहकर अपनी ही पार्टी कांग्रेस की छीछालेदर करवा दी। बदतमीज अय्यर की बाद में सफाई आयी कि मैं हिन्दी नहीं जानता, इसलिए ऐसी गल्तियां कर गुजरता हूं। ताज्जुब है इन्हें हिन्दी नहीं आती, लेकिन गालियां तो खूब आती हैं। वो भी शुद्ध हिन्दी में! प्रधानमंत्री को नीच कहने वाले बददिमाग नेता को कांग्रेस ने तत्काल पार्टी से बेदखल कर यह दिखाने की कोशिश की, कि उसकी पार्टी में ऐसे बददिमाग नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है। जबकि सच यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने नरेंद्र मोदी को नीची राजनीति करने वाला शख्स बताया था। कांग्रेस के ही बडबोले नेता दिग्विजय सिंह ने मोदी को रावण की संज्ञा दी थी तो जयराम रमेश ने उन्हें भस्मासुर, बेनी प्रसाद वर्मा ने पागल कुत्ता और मनीष तिवारी ने मोदी की तुलना खूंखार हत्यारे दाऊद इब्राहिम से कर दी थी। तब तो कांग्रेस के कर्ताधर्ता चुप्पी ओढे रहे थे। ध्यान रहे कि अगर गुजरात के विधानसभा चुनाव नहीं होते तो बेशर्म मणिशंकर अय्यर का बाल भी बांका नहीं होता। कांग्रेस उसे बाहर का रास्ता दिखाने की सोचती नहीं। बदहवास, बदतमीज नेताओं पर लगाम न लगाते हुए उन्हें प्रोत्साहित और पुरस्कृत करने का चलन कांग्रेस के साथ-साथ लगभग हर पार्टी में है। जब कोई नेता बदमाशों वाली भाषा बोलकर सुर्खियां पाता है और मीडिया उसकी खिंचायी करता है तो राजनीतिक दलों के मुखिया कम ही मुंह खोलते हैं। पाठक मित्रों को याद दिलाना चाहता हूं कि २०१४ के लोकसभा चुनाव के दौरान आपसी भाईचारे को कमजोर करने वाली अभद्र बयानबाजी करने वाले भाजपा नेता गिरीराज सिंह को भाजपा ने बडे सम्मान के साथ केंद्रीय मंत्री बनाया है। उनके जहरीले बोल अभी भी सुनने में आते रहते हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को भी विषैली भाषा बोलने में काफी महारत हासिल है। जब भाजपा के लिए मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए सिर खपाने की नौबत आयी तो योगी ने अपनी 'योग्यता' की बदौलत सभी को मात देते हुए बाजी मार ली। यूपी के ही दयाशंकर नामक भाजपा नेता ने बहन मायावती को बेहद अश्लील गाली दी थी। भाजपा ने दयाशंकर को तो विधानसभा की टिकट नहीं दी, लेकिन उसकी पत्नी को टिकट और बाद में मंत्री बनाकर जिस तरह से पुरस्कृत किया उसी से भारतीय राजनीति की हकीकत का पता चल जाता है।

Thursday, December 7, 2017

जगाने और होश में लाने का जुनून

दिशा की उम्र महज तेरह साल है। वह सातवीं कक्षा में पढती है। आपको यह जानकर घोर ताज्जुब होगा कि वह पांच हजार लोगों को सिगरेट पीने की लत से मुक्ति दिलवा चुकी है। जिस उम्र में बच्चे पढाई और खेल कूद में मस्त रहते हैं, उस उम्र में दिशा का 'मिशन नो स्मोकिंग' के प्रति जबर्दस्त जिद्दी रूझान वाकई स्तब्ध करके रख देता है। दिशा जब मात्र पांच साल की थी तब उसके दादा की मौत हो गई थी। दिशा को अपने प्यारे दादा से बहुत लगाव था। वे भी उस पर सारा अपनत्व और प्यार उडेल दिया करते थे। दादा का एकाएक दुनिया को छोडकर चले जाना दिशा के लिए किसी दु:खदायी स्वप्न और पहेली से कम नहीं था। उसकी मां ने बताया कि वो सिगरेट बहुत पीते थे इसलिए उन्हें कैंसर हो गया था। छोटी-सी बच्ची को उसी दिन से सिगरेट से नफरत हो गई। वह जिस किसी को भी सिगरेट फूंकते देखती तो उसे उसकी मौत की कल्पना जकड लेती। उसने तभी ठान लिया कि वह लोगों की सिगरेट की लत को छुडाएगी और उन्हें मौत के मुंह से जाने से बचाएगी। दिशा अपने अभियान की शुरुआत में लोगों के मुंह से सिगरेट छीनकर फेंक देती। लोग गुस्से से तिलमिला उठते और दिशा के गाल पर तमाचे भी जड देते। जिद की पक्की दिशा तमाचे खाकर भी मुस्कराती रहती और धीरे से कहती कि अंकल यह सिगरेट बहुत बुरी चीज है। इसको पीने से मेरे दादाजी मर गए, कृपया आप इसे फेंक दो वर्ना आपका भी मेरे दादा जैसा हाल होगा। मासूम दिशा के अनुरोध का अधिकांश लोगों पर असर होना स्वाभाविक था। कुछ लोग जल्दी मानते तो कुछ लोग देरी से। छोटी सी बच्ची के मुख से धुम्रपान से होने वाले जानलेवा नुकसान के बारे में सुनना लोगों की आंखें खोलने के लिए काफी था। दिशा बताती है कि मैंने एक डायरी बनाई है। उसमें स्मोकिंग करने वाले लोगों से वादा कराती हूं कि वो आज से सिगरेट नहीं पियेंगे। उन्हें अपने वादे की याद रहे इसलिए उनके हस्ताक्षर भी करवाती हूं। उनके नंबर नोट करती हूं और फिर उन्हें मैसेज और फोन करके फॉलोअप लेती हूं। अभी तक मेरी तीन डायरी भर चुकी हैं और पांच हजार से ज्यादा लोग सिगरेट से तौबा कर चुके हैं। अपने इस मिशन के प्रति पूर्णतया समर्पित दिशा पढाई-लिखाई से भी समझौता नहीं करती। वह कक्षा में हमेशा अव्वल आती है। जिस दिन स्कूल की छुट्टी रहती है उस दिन वह पान-सिगरेट की दुकानों पर अपने दोस्तों के साथ पहुंच जाती है और लोगों को धूम्रपान छोडने के लिए प्रेरित करती है। कई लोगों की जिन्दगी में बदलाव लाने वाली दिशा जब भीड को धूम्रपान से होने वाली बीमारियों और तकलीफों के बारे में अवगत कराने के लिए बोलती है तो लोग मंत्रमुग्ध सुनते रह जाते हैं।
अपने वतन में नशे के सामानों की खपत बढती चली जा रही है। युवा पीढी को विभिन्न नशों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। सरकार एक तरफ शराब, सिगरेट आदि की बिक्री की छूट देती है तो दूसरी तरफ इनसे होने वाली जानलेवा बीमारियों से अवगत कराने के लिए करोडों-अरबों रुपये विज्ञापनबाजी में भी खर्च करती है। सरकार के इस सतही प्रयासों का लोगों पर कोई खास फर्क नहीं पडता। ड्रग्स के प्रति युवाओं के बढते रूझान और शराब की दूकानों पर लगने वाली लंबी-लंबी कतारें बता देती हैं कि लोग किस राह पर जा रहे हैं। राजधानी दिल्ली में एक युवक रहते हैं प्रभदीप सिंह जो गलियों में घूमते हुए युवाओं को नशे की लत से बचाने के लिए गीत गाते दिखायी देते हैं। नशे के खिलाफ चेतना के गीतों के स्वर बिखरने वाले प्रभदीप चाहते हैं कि उनका संदेश ड्रग्स के शिकार हर युवा तक कुछ इस तरह से पहुंचे कि वह नशे से तौबा कर ले। यह पूछने पर कि उनके मन में गीतों के जरिए युवाओं में चेतना जगाने का विचार कैसे आया तो उन्होंने बताया कि मेरे आस-पडोस में निम्न और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चें हैं और यहां लोगों ने नशे के लिए अपने घर भी बेच दिए हैं। इनकी जिन्दगी नशे के कारण पूरी तरह से तबाह हो गई है। मुझसे यह भयावह मंजर देखा नहीं गया। मेरी गीत लिखने की तो बचपन से रूचि थी। ऐसे में मन में विचार आया कि अपने गीतों के जरिए नशेडियों को नशा छोडने का आग्रह कर मानवता के धर्म को निभाऊं और अपने होने को सार्थकता प्रदान करूं। प्रभदीप का यह प्रयास व्यर्थ नहीं गया। उनके गीत और संगीत को सुनकर कई युवाओं ने ड्रग्स को हाथ नहीं लगाने की कसम खा ली है। २३ वर्षीय प्रभदीप का जन्म दिल्ली में स्थित तिलकनगर में हुआ। यह वही जगह है जहां १९८४ के दंगों ने सिखों को सबसे ज्यादा जख्म दिए थे, जो अभी तक नहीं भर पाये हैं। उनके पिता ने भी १९८४ की विभीषका के दर्द को गहरे तक भोगा है। इस इलाके में नशीले पदार्थों का सेवन करने वाले युवाओं की अच्छी-खासी तादाद रही है। वे अपने गीतों के जरिए और भी कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी बात कर लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं।
हिन्दुस्तानी बालिका अगर चाहे तो अपने गांव का कायाकल्प करते हुए किसानों के लिए मसीहा साबित हो सकती है इसे सच साबित कर दिखाया है महाराष्ट्र के अकोला जिले की नासरी ने। जिला मुख्यालय से करीब ८० किलोमीटर दूर स्थित आदिवासी बहुल गांव भिलाला में आधी आबादी छोटे किसानों की है और आधी मजदूरों की। नासरी को बचपन से ही खेती में पिता का हाथ बंटाते-बंटाते यह हकीकत समझ आ गई कि खेती का काम पूरी तरह से घाटे का सौदा है। जितनी लागत लगायी जाती है, उतनी भी नहीं निकल पाती। यदि थोडा मुनाफा होता भी है तो वह कर्ज चुकता करने में खर्च हो जाता है। किसान के हाथ में कुछ भी नहीं आता। आदिवासी बालिका नासरी को एक ऐसी संस्था के बारे में पता चला जो जैविक खेती (ऑर्गेनिक फार्मिंग) को प्रोत्साहित करने में लगी थी। इस विधि से खेती करने पर खेती की लागत रासायनिक विधि की तुलना में एक चौथाई हो जाती है। नासरी ने तुरंत जैविक खेती का निर्णय ले लिया। प्रारंभ में उसके पिता ने आना-कानी की, लेकिन नासरी ने उन्हें मना कर ही दम लिया और खुद ही कंपोस्ट खाद आदि तैयार कर विशेषज्ञों द्वारा बतायी गई विधि से खेती प्रारंभ की। पहली बार में ही जैविक खेती से वाकई लागत एक चौथाई रह गई और पैदावार भी उतनी हुई जितनी पहले होती थी। अपने खेत में सफल प्रयोग करने के बाद नासरी ने गांव वालों को जैविक खेती के लिए प्रेरित करने का अभियान चलाया। शुरू-शुरू में तो अविश्वास जताते हुए उसका मजाक भी उडाया गया। इस तरह का बर्ताव भारतीय परंपरा का अंग है। नासरी किसानों को मरता नहीं देख सकती थी इसलिए उसने गांव वालों को आश्वस्त किया कि वह उनका घाटा कदापि नहीं होने देगी। अगर हुआ भी तो वह खुद झेलेगी। उसने किसानों के लिए खाद आदि स्वयं तैयार कर उपलब्ध करायी। सफलता तो मिलनी ही थी। उसकी सूझबूझ ने गांव की सूरत ही बदल दी। २०११ के आसपास हुए इस चमत्कार का अनवरत सिलसिला जारी है। उसके गांव की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी है। किसान खुश है। खेती से उन्हें फायदा होने लगा है। देश एवं विदेश के कृषि विशेषज्ञ नासरी के गांव में आते रहते हैं और एक परी के जुनून की सफलता को देखकर यह मानने को विवश हो जाते हैं कि भारतीय बेटियां अगर ठान लें तो कुछ भी कर सकती हैं। जैविक खेती के माध्यम से अपने गांव की तस्वीर बदलने वाली नासरी को महाराष्ट्र सरकार ने कृषि भूषण पुरस्कार से नवाजा है तो डॉ. पंजाब राव कृषि विद्यापीठ अकोला ने अपना 'ब्रांड अंबेसेडर' बनाया है। इसके साथ ही वह ३० से ज्यादा विभिन्न संस्थाओं के द्वारा पुरस्कृत की जा चुकी है।