Thursday, October 27, 2016

राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र

बात निकलती है तो दूर तक जाती ही है। फिर भी इस हकीकत को नजरअंदाज कर नामी लोग सनसनी फैलाते रहते हैं। वैसे भी इन दिनों देश में गजब की तमाशेबाजी चल रही है। इस खेल में नेता भी शामिल हैं और अभिनेता भी। फिल्म अभिनेता ओमपुरी एक जाने-माने फिल्मी कलाकार हैं। कोई जमीन से जुडा कलाकार ऐसा विवादास्पद बयान नहीं देता जो ओमपुरी ने देकर तमाम भारतीयों का सर शर्म से झुका दिया। उन्होंने बारामूला में शहीद हुए सैनिक नितिन यादव की शहादत का मजाक उडाते हुए कहा कि हमने किसी जवान पर कभी यह दबाव तो नहीं डाला कि वह सेना में जाए और बंदूक उठाए। सैनिकों की शहादत को कटघरे में करते-करते अभिनेता ने सवाल कर डाला कि 'क्या देश में १५-२० लोग ऐसे हैं जिन्हें बम बांधकर पाकिस्तान भेजा जा सके? किसी को जबरदस्ती तो फौज में नहीं भेजा जाता।' ओमपुरी ने खून खौलाने वाले बोल उगल कर पूरे देश में अपनी खूब थू...थू करवायी। न्यूज चैनलों पर भी उनकी खिल्ली उडायी गयी। उनकी अक्ल जब ठिकाने आयी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उनकी हिम्मत को दाद देनी पडेगी। जब उन्हें लगा कि देशवासी उन्हें माफ करने को तैयार नहीं हैं तो वे एलओसी में शहीद हुए जवान नितिन यादव के घर इटावा जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने शहीद को न सिर्फ श्रद्धांजलि दी, बल्कि अपने शर्मनाक बयान पर शहीद के माता-पिता के चरणों में गिरकर माफी भी मांगी। इस दौरान फूट-फूट कर रोते हुए उन्होंने कहा कि उनके मुंह से सैनिकों के लिए गलत बात निकल गई थी। श्रद्धांजलि देने के बाद उन्होंने शहीद के घर में हवन करने की इच्छा जतायी। उनका मान रखते हुए घर में हवन की व्यवस्था की गयी जिसमें एक पंडित ने मंत्रोच्चारण किया और अभिनेता समेत पिता एवं अन्य लोगों ने हवनकुंड में आहुतियां डालीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए पाकिस्तान तथा सारी दुनिया को यह संदेश तो दे ही दिया है कि अब भारत सीमा पर आतंकवाद को किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देशवासियों में भी अभूतपूर्व उत्साह और जागरूकता दिखायी दी। सर्जिकल स्ट्राइक पर अविश्वास करने वालों को लगभग अनदेखा कर दिया गया। यह भी लोगों की सचेतना का ही परिणाम है कि ऐसी फिल्मों पर निशाना साधा गया जिनमें पाकिस्तानी कलाकारों को काम दिया गया। कई लोगों का यही मत सामने आया कि दुश्मन देश पाकिस्तान के कलाकारों को हिन्दुस्तानी फिल्मों में काम करने की इजाजत देकर देश के लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड नहीं किया जाना चाहिए। कुछ लोगों को पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध रास नहीं आया। उनका मत है कि कला और कलाकार पुल का काम करते हैं, एक दूसरे को करीब लाते हैं। कलाकारों की कोई सरहद नहीं होती। सीमा की लडाई में कलाकारों को घसीटना ठीक नहीं है। लोकतंत्र में मान और मर्यादा के साथ सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है। यही तो हमारे लोकतंत्र की खासियत है। समर्थन और विरोध करने की खुली छूट है। लेकिन कुछ लोग लोकतंत्र को ठोकतंत्र और रोषतंत्र बनाने पर तुले हैं। भारतीय फिल्मों में पाकिस्तानी कलाकारों के अभिनय करने को लेकर जब विवाद ने बहुत ज्यादा जोर पकडा तो कुछ नेताओं की राष्ट्रभक्ति ने बहुत ज्यादा  जोर मारना शुरु कर दिया। जिन फिल्म निर्माताओं की फिल्मों में पाकिस्तान के कलाकारों ने अभिनय किया उन्हें अपने-अपने तरीके से धमकाया और चेताया गया। सबसे ज्यादा मुश्किल हुई करण जौहर की फिल्म 'ए दिल है मुश्किल' के साथ।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के सुप्रीमों राज ठाकरे घोषणा कर दी कि उनकी फिल्म को किसी भी हालत में प्रदर्शित नहीं होने दिया जायेगा। जो पाकिस्तान भारत का कट्टर शत्रु है उसके यहां के कलाकारों की फिल्में भारत में दिखायी जाएं, हमें कतई मंजूर नहीं। जो फिल्म निर्माता दुश्मन देश के फिल्मी कलाकारों को करोडों की फीस देकर अपनी फिल्मों में अभिनय कराते हैं वे भी बख्शने के लायक नहीं हैं। उनका यह कृत्य राष्ट्रद्रोह है। करण जोहर के तो पसीने ही छूट गये। राज ठाकरे को मनाने के लिए उन्होंने हर उस चौखट पर शीश नवाया जो उन्हें इस मुश्किल से निजात दिला सकती थी। आखिरकार मामला प्रदेश के मुख्यमंत्री के दरबार तक जा पहुंचा। मुख्यमंत्री भी जैसे मध्यस्थता करने को तैयार बैठे थे। जिस गंभीर मसले की आसानी से नहीं सुलझने की उम्मीद की जा रही थी वह घण्टे भर में ही सुलझ गया! दरअसल, यह समझौता नहीं डील थी, जिसने राजनेताओं और सत्ताधीशों के काम करने के तौर-तरीकों को उजागर कर दिया। मनसे प्रमुख ने तीन शर्तें पूरी करने पर ही पाकिस्तानी कलाकारों वाली सभी फिल्मों के प्रदर्शन में रोडा नहीं अटकाने की बात मानी। पहली शर्त थी : जिन निर्माताओं ने पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर फिल्में बनायी हैं उन्हें आर्मी रिलीफ फंड में पांच करोड रुपये देने होंगे। दूसरी शर्त थी : पाक कलाकारों वाली फिल्म की शुरुआत में सेना और शहीद सैनिकों के प्रति सम्मान जताने वाला संदेश देना होगा। कोई भी फिल्म निर्माता आगे से पाक कलाकारों को फिल्मों में काम नहीं देगा। यकीनन तीनों शर्तें, शर्तें कम चेतावनी ज्यादा हैं। यह चेतावनी किसी को भी दहशत के हवाले करने में सक्षम है। इस समझौते की खबर के मीडिया में छाते ही मुख्यमंत्री पर भी सवाल दागे जाने लगे कि आखिर उन्होंने बिचौलिए की भूमिका क्यों निभायी? सेना फंड के लिए किसी से भी भीख मांगने नहीं जाती। सेना को जबरन वसूली का मोहरा बनाने वाले यह कैसे भूल गये कि आर्मी वेलफेयर फंड में डोनेशन के लिए किसी को विवश करना सैनिकों का अपमान है। सैनिक तो देश के सच्चे सपूत हैं। भारत मां के कलेजे के टुकडे हैं। भारतीय वीरों की कुर्बानी का लंबा स्वर्णिम इतिहास है। यह इतिहास अनमोल है। जो लोग सैनिकों के सम्मान की बोली लगाने से नहीं हिचकते उनके लिए यकीनन धन ही सबकुछ है। धन से गलत भी सही हो जाता है। इस सोच ने देश को बहुत नुकसान पहुंचाया है। जिन नेताओं के हाथों में इस विशाल देश की बागडोर है उन्होंने पता नहीं क्यों असली समस्याओं को नजरअंदाज करने की आदत बना ली है। देश अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। भुखमरी व कुपोषण के चलते बच्चों की मौतों के आंकडे बढते चले जा रहे हैं। आज भी १९.४ करोड लोग भुखमरी का शिकार हैं। आम आदमी की मूलभूत समस्याएं हैं रोटी, कपडा और मकान। पहले इनका हल होना जरूरी है, लेकिन राजनीति और राजनेता भटकाने के काम में लगे हैं। उत्तरप्रदेश में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं और राम नाम की लूट मच चुकी है। अभिनेता ने तो अपनी गलती का प्रायश्चित कर लिया, लेकिन इन नेताओं की बिरादरी का क्या... जो जोडना छोड तोडने और बांटने में लगी रहती है। गजलकार अदम गोंडवी की यह पंक्तियां काबिलेगौर हैं :
"हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिये
अपनी कुरसी के लिए ज़ज्बात को मत छेडिये
हममें कोई हूण, कोई शक कोई मंगोल है
दफन है जो बात, अब उस बात को मत छेडिये
ग़र गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडिये
है कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां
मिट गये सब, कौम की औकात को मत छेडिये
छेडिये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिये।"
'राष्ट्र पत्रिका' के सभी सजग पाठकों, लेखकों, संवाददाताओं, एजेंट बंधुओं, शुभचिंतकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, October 20, 2016

जंग की तैयारी

देश की राजधानी दिल्ली से ज्यादा दूर नहीं है मेरठ शहर। इसी बुलंद शहर में एक युवती अपने पति के साथ बाइक पर बाजार में सब्जी खरीदने जा रही थी। रविवार का दिन था। सडक पर अच्छी-खासी चहल-पहल थी। दोनों की नयी-नयी शादी हुई थी। रास्ते में दो बाइक सवार युवकों ने सजी-धजी युवती को देखते ही फब्तियां कसनी शुरू कर दीं। पति ने देखकर भी अनदेखा कर दिया। सडक छाप मजनूओं का हौसला ब‹ढ गया। वे अभद्रता पर उतर आये। पति ने बाइक की रफ्तार धीमी कर दी और उन्हें डांटा-फटकारा। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर युवकों ने दादागिरी करते हुए उनकी बाइक को जोरदार टक्कर मार दी। पति-पत्नी बाइक समेत सडक पर गिर पडे। पति के माथे से खून बहने लगा। उसने एक युवक का कालर पकडा तो दोनों युवकों ने उसकी अंधाधुंध पिटायी शुरु कर दी। आते-जाते लोग तमाशबीन बने रहे। वहां पर मौजूद दो पुलिस जवान भी चुपके से खिसकते बने। पति को पिटता देख युवती का खून खौल उठा। वह घायल शेरनी की तरह युवकों पर टूट पडी। उसने अपनी सैंडिल निकाली और धडाधड उनके माथे और सिर पर वार करने लगी। अंधाधुंध पिटायी से लहुलूहान युवकों ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी। मेरठ की इस खबर की तस्वीर अभी धुंधली भी नहीं हुई थी कि महाराष्ट्र के नारंगी शहर नागपुर की विचलित करने वाली खबरों ने हिलाने के साथ-साथ आश्वस्त भी किया कि नारी शक्ति अब संकोच और दकियानूसी सोच की दीवारों को लांघने और तोडने के लिए कमर कस चुकी है। संतरों की स्वास्थ्यवर्धक मिठास वाले शहर में एक मां को दो बेटियों को जन्म देने के कारण आधी रात को घर से निकाल दिया गया। भावना नामक महिला ने पुलिस स्टेशन में पहुंचकर अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि उसने अंतरजातीय शादी की है। शादी के बाद पहली पुत्री पैदा हुई। पति तथा समस्त परिवार वालों को पुत्र की चाहत थी। ऐसे में जब उसने दूसरी बार भी बेटी को जन्म दिया तो उस पर प्रता‹डना का दौर शुरू हो गया। महिला का कहना है कि पति के साथ-साथ उसके ससुर ने भी अमानवीय व्यवहार किया। उस पर मायके से ५० हजार रुपये लाने के लिए दबाव डाला गया। यहां तक कि छोटी बच्ची को भी कई मारा-पीटा गया। पडोसियों ने अगर बीच-बचाव नहीं किया होता तो पति अब तक मेरी जान तक ले चुके होते। असहाय समझकर निर्दयी ससुराल वालों ने मुझे आधी रात को घर से बाहर कर दिया। उसके बाद मैंने अपने पिता को बुलवाया और नागपुर छोडकर अपने मायके बालोद (छत्तीसगढ) चली गई।
नागपुर की एक बारह वर्षीय बेटी एक दुष्कर्मी युवक की हवस की शिकार हो गयी। २० जुलाई २०१६ की रात ९ बजे वह कराटे का प्रशिक्षण लेकर अपने घर जा रही थी। रास्ते में उसे एक परिचित युवक मिला। वह उसे जबरन समीप स्थित एक खंडहरनुमा कर्मचारी क्वार्टर में ले गया। वहां पर उसने डरा-धमका कर यौन शोषण किया और फरार हो गया। माता-पिता को जैसे ही बेटी के साथ दुराचार होने की खबर मिली तो उनका मन-मस्तिष्क और आत्मा कराह उठी। किसी भी माता-पिता के लिए इससे ब‹डा दर्द और जख्म और कोई नहीं हो सकता। जिसने भी बालिका के साथ हुए दुराचार के बारे में सुना उसका खून खौल उठा। सभी ने दुष्कर्मी को मौत के घाट उतारने की मांग की। यह बालिका कराटे के प्रति पूरी तरह समर्पित है। कराटे ही उसका जुनून है। उसके साथ जब यह घिनौनी हरकत हुई तो वह कुछ दिनों बाद होने वाली कराटे की राष्ट्रीय स्पर्धा की तैयारी में तल्लीन थी। घरवालों ने मान लिया कि बेटी का भविष्य अंधेरे के हवाले हो गया है। सब कुछ लुट गया है। लेकिन बच्ची ने खुद को संभाल लिया। जब उसके कोच ने बच्ची से कहा कि इस साल तुम आराम करो, अगले साल खेलेंगे, तब बच्ची ने कहा कि सर ऐसा कभी हो नहीं सकता कि इस साल मैं न खेलूं। अगर आप साथ नहीं देंगे तो मैं अकेले खेलने जाऊंगी। यह बहादुर बेटी भले ही बदनामी के भय और पी‹डा के चलते घर में रोती-बिलखती रही, लेकिन चौथे दिन उसने यह निश्चय कर लिया कि किसी भी हालत में कुछ दिनों बाद होने वाली राष्ट्रीय स्पर्धा में भाग लेकर जीत हासिल करनी ही है। उसने पसीना बहाने में दिन-रात एक कर दिया और घटना के दसवें दिन राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतकर यह बता दिया कि भारतीय बेटियां किस मिट्टी की बनी हैं। इसके पश्चात वह विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए दक्षिण अफ्रीका रवाना हो गई। इस बेटी का यही कहना था कि मैं सबकुछ भूलना चाहती हूं। केवल यही याद रखना है कि मुझे हर हाल में विजयी होना है। मुझे किसी भी हालत में अपने सपने पूरे करने हैं। अपनी शिष्या के ल‹डाकू तेवर देखकर कोच ने कहा कि मैंने अपने जीवन में ऐसा ज़ज्बा नहीं देखा। यह लडकी सदैव जीत की बात करती है। खेल के मैदान में प्रशिक्षण के दौरान उसका व्यवहार ऐसा रहता है मानो वह किसी जंग की तैयारी कर रही हो।
असीम आत्मबल, आत्मविश्वास और जागृति का ही परिणाम है कि कई भारतीय नारियां घुट-घुट कर मरने की बजाय अपने अधिकारों के लिए मर-मिटने से नहीं घबरातीं। फिर भी यही सच है कि इस देश में नारी आज भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। इतनी बडी संख्या में बलात्कार, दहेज प्रताडना, एसिड अटैक और आनरकिqलग की शर्मनाक खबरें असली सच बयां कर देती हैं। यह हकीकत भी बेहद परेशान करने वाली है कि दुष्कर्म की अधिकांश घटनाएं दलित, गरीब और पिछ‹डे वर्ग की महिलाओं के साथ ही हो रही हैं। यह जानकर भी बेहद ताज्जुब होता है कि बेटियों की तुलना में बेटों को बेहतर मानने वालों में सम्पन्न और प‹ढे-लिखे लोग भी शामिल हैं। तामिलनाडु की मशहूर अभिनेत्री खुशबू लिखती हैं : 'मैं जब पैदा हुई तो अस्पताल में मुझे देखने के लिए पिता नहीं आए क्योंकि मैं कन्या थी। यह तब हुआ जब मैं तीन भाइयों के बाद पैदा हुई थी। इस देश में महिलाओं के लिए सम्मान क्यों नहीं है? उन्हें उपेक्षा की नजरों से क्यों देखा जाता है? पुरुष का मन होता है तो कभी उन्हें लक्ष्मी, कभी सरस्वती और कभी शक्ति का अवतार बता देता है...'
यह लोगों के न सुधरने का ही परिणाम है कि देश में सख्त दहेज विरोधी कानून होने के बावजूद दहेज लोभी बहुओं को आतंकित करने से बाज नहीं आते। यह भी अत्यंत चिंतनीय बात है कि ल‹डकियां अपने परिजनों के द्वारा ही ज्यादा शोषित और प्रताडित की जाती हैं। आंक‹डे बताते हैं कि नब्बे प्रतिशत बलात्कार परिचितों के द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। गर्भ में लडकी को उसके परिवार वाले ही मारते हैं ल‹डके की चाहत में यदि लडकी हो जाए तो कूडे के ढेर के हवाले करने और कुत्तों से नुचवाने जैसी क्रूरता करने से भी बाज नहीं आते। बलात्कारियों के होश ठिकाने लगाने के लिए जो नया कानून बनाया गया है उसके अनुसार न्यूनतम सात वर्ष और अधिकतम उम्रकैद की सजा हो सकती है। फिर भी बलात्कार हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे। कानून के रखवाले अपना कर्तव्य किस तरह से निभाते हैं उसका पता मेरठ की घटना से चल जाता है। यदि वहां पर मौजूद खाकीवर्दी वाले घटनास्थल से भाग खडे होने के बजाय गुंडों पर डंडे बरसाते तो पुलिस की छवि कलंकित नहीं होती। उसके प्रति विश्वास जागता। अदालत के फैसलों में होने वाली देरी भी अराजकतत्वों का मनोबल बढाती है। जब तक समाज के लोग जागृत नहीं होंगे, अपराधों में कमी नहीं आएगी। तमाशबीन बने रहना भी अपने कर्तव्यों से भागना है और इस भयावह सच से मुंह मोडना है कि कल को हमारे घर की बहन-बेटियों पर भी शैतानों की गाज गिर सकती है। तब हम किसी को कोसने के भी अधिकारी नहीं होंगे।

Thursday, October 13, 2016

धूर्त और मौकापरस्त नेता

"मेरे पांव के छालों जरा
लहू उगलो... सिरफिरे
मुझसे सफर के निशान मांगेंगे!!"
जिसने भी यह पंक्तियां लिखी हैं उसके दर्द को समझा जा सकता है। वैसे इन शब्दों में देश के हर सैनिक की पीडा छिपी है। वाकई बडा शर्मनाक दौर है यह। सैनिकों की शहादत पर राजनीति करने वाले नेताओं को तो डूब मरना चाहिए। पर यह मोटी चमडी वाले इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि इन्हें शहीदों का अपमान और उन्हें कठघरे में खडा करने में भी लज्जा नहीं आती। इन्हें हमेशा अपने चुनावी फायदे की चिन्ता रहती है। यकीनन यह निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री बनते-बनते चूक गए। शायद इसी पीडा ने उन्हें बेहद मुंहफट बना दिया है। कुछ लोग इसे आक्रमकता कहते हैं, जो हर नेता में होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी आक्रमकता किस काम की जो आपको शर्मिन्दा होने को विवश कर दे। कहते हैं कि नेताओं की चमडी बहुत मोटी होती है। उन पर लोग स्याही फेंके, जूते-चप्पलें चलाएं, गंदी-गंदी गालियों से नवाजें, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। राजनीति में प्रवेश करने से पहले उन्हें यही घुट्टी पिलायी जाती है कि विरोधी दल के नेताओं की ऐसी-तैसी करने में कोई कमी नहीं करना। सत्ता पानी है तो आकाश पर भी थूकते रहना। भले ही थूक वापस खुद पर ही आकर क्यों न गिरे।
पाक अधिकृत कश्मीर में २९ सितंबर २०१६ को आतंकी शिविरों में सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर राहुल गांधी ने जब यह कहा कि जवानों ने अपना खून दिया और आप (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) शहीदों के खून की दलाली कर रहे हैं... तो देश के अधिकांश सजग देशवासी हतप्रभ रह गये। उन्होंने खुदा का शुक्र माना कि अच्छा हुआ कि यह गांधी-नेहरू परिवार का चिराग देश का प्रधानमंत्री नहीं बना। इनका तो अपनी जुबान पर भी नियंत्रण नहीं। वैसे सर्जिकल स्ट्राइक के और भी कई नेताओं ने सबूत मांग कर अपनी खिल्ली उडवायी और सजग देशवासियों का गुस्सा झेला। कभी शिवसेना में उछलकूद मचाने वाले कांग्रेस के नेता संजय निरुपम ने भी सर्जिकल स्ट्राइक को नितांत फर्जी बता कर अपनी राजनीति की दुकानदारी चमकाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन सोशल मीडिया पर उन्हे इतना लताडा गया की नानी याद आ गयी और मुंह छिपाने की नौबत आ गयी। गैंगस्टर रवि पुजारी ने भी उन्हें सोच समझ कर बोलने और माफी न मांगने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दे डाली। संजय तो नेता हैं इसलिए अंदर से भयभीत होने के बावजूद उन्होंने अपनी मोटी चमडी की चमक कम नहीं होने दी। लेकिन उनकी धर्म पत्नी इतनी घबरायीं कि उन्होंने प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखा कि वह भारत में खुद को बेहद असुरक्षित महसूस कर रही हैं। उन्हें और उनके परिवार को न केवल सोशल मीडिया पर गालियां दी जा रही हैं बल्कि फोन करके उनके खिलाफ अश्लील टिप्पणी भी की जा रही हैं। हमारा परिवार बहुत खौफ में जी रहा है। हमें सुरक्षा प्रदान की जाए। परेशानी यह है कि सत्ता के भूखे इस देश के अधिकांश नेताओं को बयान के गोले दागने की बहुत जल्दी रहती है। मीडिया में छाने के लिए कौन पहले विष उगलता है इसकी भी प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। राहुल गांधी से पहले आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने सरकार से सर्जिकल स्ट्राइक का प्रूफ मांगकर अपनी जमकर किरकिरी करवायी। राहुल गांधी और अरविंद जैसे तमाम नेताओं के सैनिकों की शहादत पर सवाल खडे किये जाने से आम लोगो को बहुत चोट पहुंची। सबकी समझ में यह सच आ गया कि सत्ता के भूखे नेताओं का कोई ईमान-धर्म नहीं है। सजग लेखकों और कवियों ने भी ऐसे नेताओं पर शब्दवार कर अपनी भडास निकाली। कवि पंकज अंगार की कविता की यह पंक्तियां तो सोशल मीडिया में छा गयीं :
 फिर सेना के स्वाभिमान पर
जयचंदों ने वार किया।
राजनीति ने फिर बलिदानी
पौरुष को धिक्कार दिया।
कायरता की भाषा बोली
वोट के ठेकेदारों ने
कुर्बानी को खेल बताया
कुछ ओछे किरदारों ने।
जिस तरह से भारत के बहादुर सैनिकों ने पाकिस्तान के घर में घुसकर सात आतंकी कैम्पों को ध्वस्त कर ३० से ३५ आतंकियों को ढेर करने के साथ-साथ सात सैनिकों को मार गिराया उससे तो हर देशवासी को सैनिकों की जय-जयकार करनी चाहिए थी। लेकिन घटिया मनोवृति के कुछ नेता यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आए! एक-दूसरे के कपडे उतारने पर तुल गये। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो जगजाहिर नहीं करने को लेकर सरकार पर उंगलियां उठाने वालों ने पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल शंकर राय चौधरी के बयान को ही नजरअंदाज कर यह दर्शा दिया कि उन्हें किसी भी हालत में नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहना है। श्री चौधरी के कथनानुसार यह वीडियो पाकिस्तान की सेना और उनकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए अनमोल खजाना है। विरोधी दलों के नेता चाहे कितना भी शोर मचाएं, लेकिन हिन्दुस्तान की सरकार को इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। दुनिया की कोई भी फौज ऐसी भूल नहीं करती। जो लोग सर्जिकल स्ट्राइक पर शंका कर रहे हैं उनके दिमाग का दिवाला निकल चुका है। वे परले दर्जे के धूर्त भी हैं और मौकापरस्त भी।

Thursday, October 6, 2016

अंधभक्तों का तमाशा

महाराष्ट्र के पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल का नाम प्रदेश और देश के चतुर और दबंग नेताओ में शुमार रहा है। मुंबई के फुटपाथ पर आलू-प्याज बेचते-बेचते उनके मन में नेता बनने का ख्याल आया और वे राजनीति में कूद पडे। उन दिनों राजनीति के मैदान में सपने बेचने वाले नये नेताओं के लिए काफी गुंजाइश थी। दलितों और शोषितों के उद्धार के नारे लगाकर छगन ने सबसे पहले शिवसेना का दामन थामा। तब मुंबई में शिवसेना का सिक्का चलता था। शिवसेना सुप्रीमों बालासाहेब ठाकरे की एक दहाड पर गुंडे-बदमाशों की घिग्गी बंध जाती थी। बडे-बडे माफिया उनकी चौखट पर मस्तक झुकाते थे। भुजबल ने शिवसेना में रहकर राजनीति के सभी गुर सीखे और कमायी के रास्तों की खोज कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारी। जब शिवसेना की नैय्या डूबने लगी तो शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। पवार ने भी दबे-कुचले लोगों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने वाले इस मजबूत कद-काठी वाले नेता को हाथों-हाथ लिया। जब महाराष्ट्र में कांग्रेस, राकां गठबंधन की सरकार बनी तो भुजबल की निकल पडी। उन्हें महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री बनने का सौभाग्य हासिल हो गया। उन्होंने अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए रात-दिन एक कर दिया। मालामाल होने के लिए सभी तरह के हथकंडे आजमाने शुरू कर दिये। उन्हीं के कार्यकाल में तेलगी का अरबों-खरबों रुपयों का स्टैम्प घोटाला सामने आया। यह भी रहस्योद्घाटन हुआ कि इस 'क्रांतिकारी नेता' के नकली स्टाम्प घोटाला के नायक से बेहद करीबी रिश्ते हैं। तेलगी को तो जेल भेज दिया गया, लेकिन भुजबल पर कोई आंच नहीं आयी। वे भ्रष्टाचार की सभी हदें पार करते चले गये। मुंबई, पुणे, ठाणे नासिक में करोडों की जमीने, बंगले, फार्म हाऊस बनते चले गए। कई उद्योगधंधे शुरू हो गए। आयात-निर्यात के कारोबार में भी पांव पसार लिए। अपने भाई-भतीजों, रिश्तेदारों, यार-दोस्तों के नाम से सरकारी ठेके लेने के लिए हर मर्यादा को ताक पर रख दिया गया। मीडिया में उनके भ्रष्टाचार की खबरें छपती रहीं, लेकिन अपनी सरकार होने के कारण उनका बाल भी बांका नहीं हुआ। प्रदेश की नयी सरकार ने जब अपना शिकंजा कसा तो पूरी दुनिया जान गयी कि छगन और उसके परिवार के पास हजारों करोड की धन-दौलत है। यह सारी माया सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होने के बाद जुटायी गयी। कोई आंख का अंधा भी समझ सकता है कि छगन कोई धर्मात्मा नहीं है। उसने राजनीति को भ्रष्टाचार का अखाडा बनाकर अपार धन-दौलत के अंबार खडे किये। ऐसे लुटेरे की असली जगह तो जेल ही है। लेकिन उसके अंध भक्त बडे भोले बनकर सवाल करते हैं कि जब दूसरे भ्रष्टाचारी बाहर हैं तो दलितों और शोषितों का यह मसीहा सलाखों के पीछे क्यों सड रहा है? छगन को जेल से छुडाने की मांग को लेकर नाशिक में एक विशाल मोर्चा निकाला गया। मोर्चों में एक लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए। जगह-जगह अपने नेता के समर्थन में बैनर और पोस्टर लगाये गये थे। समर्थक बेहद गुस्से में थे। उनका कहना था कि ओबीसी नेता पर सरकार अन्याय कर रही है। यदि उन्हें नहीं छोडा गया तो इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। वे पूरी तरह से निर्दोष  हैं। उन्हें उन लोगों ने फंसाया है जो उनके राजनीतिक उत्थान से जलते हैं।
राजद के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन को भी दोबारा जेल में भेजे जाने से उनके समर्थकों के तन-बदन में आग लग गयी। ऐसा कम ही देखने में आता है कि सरकार में शामिल कोई पार्टी सरकार के खिलाफ ही प्रदर्शन करने पर उतारू हो जाए। बाहुबली, हत्यारे, लुटेरे, आतंकी शहाबुद्दीन के जबरदस्त प्रभाव का ही कमाल कहेंगे कि आरजेडी समर्थकों ने सरकार पर शहाबुद्दीन को एक साजिश के तहत दोबारा जेल भेजने का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ नारेबाजी की। शहाबुद्दीन के अंध भक्तों ने मीडिया को भी अपना निशाना बनाया। उनका मानना था कि शहाबुद्दीन के जमानत पर छूटने के बाद जिस तरह से मीडिया ने हो-हल्ला मचाया उनके पुराने इतिहास के पन्ने खोलकर दहशत पैदा की, उससे उन्हें फिर से जेल जाना पडा। अपराधियों के लिए राजनीति वाकई कवच का काम करती है। राजनीति में पदार्पण करने के बाद शातिर से शातिर अपराधी लोगों को भ्रमित करने की कला में पारंगत हो जाते हैं। कब क्या बोलना और बुलवाना है इसका उन्हें पूरा ज्ञान हो जाता है। वे यह भी जानते हैं उनके चहेतों को छोडकर दूसरे उनकी बातों पर यकीन नहीं करते। पटना हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद जेल से छूटे शहाबुद्दीन का जिस तरह से आदर सत्कार किया गया उससे उसने खुद को बहुत बडा नेता मान लिया। बदनामी और लोकप्रियता के अंतर को वह समझ ही नहीं पाया। सच तो यह है  कि राजनीति में पैठ जमाने वाले अपराधियों के हौंसले बुलंद करने की बहुत बडी वजह होते हैं उनके वे अंधभक्त जो हर वक्त पलक पावडे बिछाने को तत्पर रहते हैं और किसी भी हालत में उनका साथ नहीं छोडते। शहाबुद्दीन जितने दिन भी बाहर रहा, उसके घर मेला-सा लगा रहा। सैकडों लोग उसके इर्द-गिर्द बने रहे। भ्रष्टाचारियों के सरगना लालू प्रसाद यादव को अपना एकमात्र नेता मानने वाला शहाबुद्दीन भी यही कहता है कि मीडिया ने मुझे बेवजह बदनाम कर दिया है। मैंने तो एक चिडिया तक नहीं मारी। छगन भुजबल के समर्थकों की तरह उसके समर्थक भी उसे मसीहा ही मानते हैं...।