Thursday, April 25, 2024

गलत और सही

    गले में फूलों की माला, हाथों में मेहंदी, शानदार लिबास और खुशी से दमकता चेहरा। मतदान केंद्र पर एक नवविवाहिता को देखकर मतदाता हैरत में थे। कुछ ही घण्टों के पश्चात इस सजी-धजी दुल्हन को बारातियों के साथ नोएडा रवाना होना था। उसे जैसे ही पता चला कि आज वोटिंग है तो वह मतदान केंद्र पर दौड़ी-दौड़ी चली आई। बड़े इत्मीनान से अपने मनपसंद प्रत्याशी को वोट देने के बाद वह अपने पिया संग ससुराल चल दी। घर में जवान पति की मृतक देह पड़ी थी। अंतिम संस्कार की तैयारियां चल रही थीं। रिश्तेदार तथा अड़ोसी-पड़ोसी गम में डूबे थे। कल तक जो चल-फिर रहा था, हंस बोल रहा था आज लाश बना पड़ा था। ऐसे अत्यंत दुखद समय में मृतक की पत्नी और मां अपने मतदान के दायित्व को निभाने के लिए जब मतदान केंद्र पर पहुंची तो सभी उनके समक्ष नतमस्तक हो गये।

    आंबेडकरवादी समाज सेविका 17 अप्रैल को अचानक चल बसीं। सात समंदर पार विदेश में रहने वाला बेटा दूसरे दिन रात तक घर आ पाया। 19 अप्रैल को मृतका का सुबह मोक्षधाम में अंतिम संस्कार किया गया। उसके तुरंत बाद पति ने मतदान केंद्र की राह पकड़ी और अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस आदर्श भारतीय पति ने कहा कि उसने लोकतंत्र के महायज्ञ में अपने मत की आहूति देकर अपनी राष्ट्रप्रेमी पत्नी को सच्ची श्रद्धांजलि दी है...।

    लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण में अनेकों युवाओं, महिलाओं तथा बुजुर्गों ने गर्मी की तपिश की बिना कोई चिंता और परवाह किए मतदान किया। दिव्यांगों तथा उम्रदराजों ने भी लोकतंत्र के महापर्व में अपनी सार्थक हिस्सेदारी निभायी, लेकिन कई मतदाता मतदान से दूर रहे। नागपुर जैसे पढ़े-लिखों के शहर में मात्र 56 प्रतिशत मतदान का होना कई सवाल खड़ा कर गया। गड़चिरोली लोकसभा क्षेत्र जो नक्सलियों का गढ़ कहलाता है,  वहां शहरी इलाकों से ज्यादा मतदान होना भी बहुत कुछ कह और बता गया। मतदान से कन्नी काटने वालों के अपने-अपने तर्क और बहाने हैं। यह वही लोग हैं, जो सत्ताधीशों, नेताओं, प्रशासन और सरकारी नीतियों पर उछल-उछलकर उंगलियां उठाते हैं। महंगाई, बेरोजगारी और अव्यवस्था पर भी रह-रहकर तीर चलाते हैं। किसने देश को तबाह किया और कौन सा नेता भारत का कायाकल्प कर सकता है इस पर जहां-तहां लंबी-चौड़ी भाषणबाजी करने वालों को वोट देने से ज्यादा छुट्टी मनाने में ज्यादा आनंद आता है। 

    इसमें दो मत नहीं कि इस बार के चुनावी माहौल में पहले सा रोमांच, उत्साह नज़र नहीं आ रहा हैं। 2014 में जो युवा मतदान के लिए उमड़ पड़े थे, मोदी... मोदी चिल्ला रहे थे, इस बार वे भी खास उत्साहित नहीं नज़र आ रहे। खाता-पीता मध्यवर्ग तथा उच्च वर्ग शुरू से ही मतदान के लिए बाहर निकलने से कतराता आया है। वह किस्मत और संबंधों का धनी है। जोड़-तोड़ की सभी सुख-सुविधाएं उसकी मुट्ठी में हैं। इसलिए वह अपने आप में मस्त है। झटके से रईस बने रईसों ने लोकतंत्र का सम्मान करना ही नहीं सीखा। शासन और प्रशासन मतदाताओं को जागृत करने के लिए सतत अभियान चलाता रहता है, लेकिन उस पर कम ही लोग ध्यान देते हैं। यह भी कम हैरानी की बात नहीं कि इस बार प्रशासन की लापरवाही की वजह से भी हजारों-हजारों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में से गायब हो गये। नागपुर शहर के रविंद्र व मीनाक्षी बड़े जोशो-खरोश के साथ मतदान केंद्र पहुंचे तो उनका नाम ही नदारद था। दोनों के नाम ही बदल गये थे। पति रविंद्र का नाम अयूब खान तो पत्नी मीनाक्षी का नाम रजिया बेगम मिर्जा कर दिया गया था। दोनों ने पहचान पत्र व इपिक नंबर के आधार पर वोट डालने की बार-बार विनती की, लेकिन उन्हें निराश लौटना पड़ा। ऐसी पता नहीं कितनी भूलें और धांधलियां हुई होंगी। सभी घापे-घपले उजागर कहां हो पाते हैं। कम वोटिंग होने से उन प्रत्याशियों के चेहरों के रंग उड़ गये हैं, जिन्होंने चुनाव प्रचार में दिन-रात पसीना बहाया है। नोटों की थैलियां कुर्बान की हैं। पता नहीं कहां-कहां माथा टेका और नाक रगड़ी है। सत्ताधीशों के प्रति घोर अविश्वास तथा निराशा भी कम मतदान की वजह बनी। महिलाएं भी 2014 और 2019 की तरह मतदान करने नहीं पहुंचीं। उम्मीद से कम मतदान होने की और भी कई वजह बतायी-गिनायी जा रही हैं। अनेकों भारतीयों ने मान लिया है कि अपने देश के हालात जस-के-तस रहने वाले हैं। ज्यादा बदलाव की उम्मीद व्यर्थ है। बेरोजगारी के मारे करोड़ों युवा भी उम्मीद छोड़ चुके हैं। उन्हें बेहतरीन पुल, पुलिया, सड़कों, मेट्रो तथा वंदेभारत ट्रेनों की सौगात लुभा नहीं पायी। सच भी है... पहले रोजी-रोटी, घर-बार, स्वास्थ्य, शिक्षा और उसके बाद बुलेट ट्रेन और हवाई जहाज। बेरोजगारी और महंगाई ने करोड़ों देशवासियों की कमर तोड़ दी है, लेकिन कृपया यह भी याद रखें कि मतदान नहीं करने से आप वहीं के वहीं रह जाने वाले हैं। जिनसे आपको बदलाव की उम्मीद है उन्हें वोट जरूर करें। घूमने-फिरने, आराम करने के मौके तो रोज आएंगे, परंतु वोट देने और अपनी मनपसंद सरकार बनाने का अवसर तो पांच साल में सिर्फ एक ही बार मिलता-मिलाता है। गलती तो उन कुछ नेताओं की भी है, जो विषैले, बदजुबान और जबरदस्त अहंकारी हो गये हैं। जनता ने आंखें खोल रखी हैं। वह बहरी भी नहीं। सबकी सुनती है। सभी को तौलती है। बार-बार जांचती-परखती है। इसलिए राजनेताओं तथा शासकों को हिंदू-मुसलमान का राग गाने-बजाने से अब तो बाज आना ही चाहिए। उनकी सार्थक उपलब्धियां ही उन्हें वोट उपलब्ध करा सकती हैं। मतदाताओं को भटकाने और बरगलाने से तो वे खुद तमाशा बनकर रह जाने वाले हैं। यदि कोई मंत्री पुत्र किसी विशेष धर्म के चुनिंदा चेहरों के लिए आयोजित चुनावी सभा में यह कहने को मजबूर होता है कि आपसी सद्भाव के दुश्मनों को नहीं मेरे पिता के जनहित के विकास कार्यों के इतिहास को देखकर वोट दें, तो इसमें गलत क्या है?

Thursday, April 18, 2024

हर डर हो खत्म

     घी-गुड़-तिल की लाजवाब रेवड़ी की महक और मिठास में रचे-बसे मेरठ को ‘भारत के खेल शहर’ की पुख्ता पहचान मिली हुई है। वस्त्र, कागज, चीनी, रसायन, ट्रांसफार्मर के साथ-साथ विभिन्न उपयोगी दवाओं के निर्माण के लिए भी मेरठ खासा विख्यात है। दो पवित्र नदियों, गंगा और यमुना के बीचों-बीच में बसे मेरठ को तेजी से प्रगति करते शहर के रूप में भी पहचाना जाता है। जीवंत पत्रकारिता, एकता और आपसी सद्भाव भी इस शहर के आभूषण हैं। कालजयी टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ में श्रीराम की अत्यंत प्रभावी भूमिका निभा चुके अभिनेता अरुण गोविल इसी आदर्श नगरी से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी को उनके विजयी होने का शत-प्रतिशत भरोसा है। अभिनेता भी पूर्णतया आश्वस्त हैं। भगवान श्रीराम और पीएम मोदी की छवि हर हाल में नैय्या पार करवाएगी। महिला मतदाताओं के लिए तो भाजपा प्रत्याशी अरुण गोविल सचमुच के राम हैं। माता सीता, लक्ष्मण और हनुमान की मनोहरी छवि भी उनकी सुध-बुध में अंकित है। हाथ जोड़कर भीड़ का अभिवादन करते अरुण गोविल को कदम-कदम पर फूल-मालाएं पहनायी जाती हैं तो वे फूलों को महिलाओं की तरफ उछाल देते हैं। महिलाएं उन्हें माथे से लगा सहेजकर रख लेती हैं। उनके लिए यही प्रभु श्रीराम का आशीर्वाद और प्रसाद है। 

    मेरठ के लोकसभा क्षेत्र का संपूर्ण वातावरण भक्तिमय है। धूप-अगरबत्ती और फूलों की महक से महकते मेरठ में हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमान मतदाताओं की भी अच्छी-खासी आबादी है। मेरठ की फिज़ा में सवाल गूंज रहे हैं कि क्या भाजपा के उम्मीदवार अरुण गोविल हर जाति-धर्म के मतदाता पर अपनी छाप छोड़ने में सक्षम होंगे? लोकसभा चुनाव कोई छोटा-मोटा चुनाव नहीं। दरअसल, यह तो लोकतंत्र का महापर्व है। किसी भी उत्सव की सार्थकता तभी होती है, जब उसे सभी खुले मन से मिलजुल कर मनाएं। मनमुटाव और दूरियां उत्सव को फीका कर देती हैं। अयोध्या में राम मंदिर बन चुका है। हर देशवासी की मनोकामना है कि देश में सही मायनों में राम राज्य आना चाहिए, जहां सभी धर्मों के लोग मिल जुलकर रहें। सबको समान व्यवहार और अधिकार मिलें। सभी को एक ही निगाह से देखा जाए। महिलाओं का भरपूर मान-सम्मान हो। अगर कोई देशद्रोही है तो वह सबका दुश्मन है। अरुण गोविल रामराज्य लाने का वादा कर रहे हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे हर प्रत्याशी चुनावों के अवसर पर करता है। पत्रकार मित्रों ने जय श्रीराम के नारे लगाते उत्साही युवकों से पूछा कि इस बार के चुनाव में मुख्य मुद्दा क्या है? तो उन्होंने तपाक से कहा कि मुद्दा तो बस एक ही है, जय श्रीराम। योगी और मोदी जिंदाबाद के नारे लगाती भीड़ की निगाह में अरुण गोविल तो जैसे साक्षात श्रीराम हैं, जिनकी मंद-मंद मुस्कुराहट उनके दिल-दिमाग में रच-बस सी गई है। अभिनेता अरुण गोविल ने कई वर्ष पूर्व एक साक्षात्कार में बताया था कि रामायण धारावाहिक के प्रसारण के पश्चात जब उन्होंने भारत से हजारों मील दूर विदेश की धरती पर कदम रखा तो वहां के स्त्री-पुरुषों ने उन्हें घेर लिया था। कोई उनके चरण छू रहा था तो कोई बुजुर्ग उनका माथा चूम रहा था। उन्हें यह समझने में किंचित भी देरी नहीं लगी कि यह तो भगवान श्रीराम के प्रति उनकी अपार आस्था है, जो इस रूप में प्रकट हो रही है। अपने उस साक्षात्कार में उन्होंने यह भी बताया था कि जब रामायण धारावाहिक का निर्माण हो रहा था तब उन्हें सिगरेट पीने की लत थी। वे छिप-छिपा कर अपनी नशे की तलब को पूरा कर लिया करते थे। कुछ वर्षों के पश्चात उन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर भी यह सोचकर सिगरेट पीनी प्रारंभ कर दी कि लोग इस सच से वाकिफ हैं कि वे सचमुच के राम नहीं हैं। अभिनेताओं का तो काम ही है कि किसी किरदार को साकार करना, जिससे लोग उनकी प्रशंसा करने को विवश हो जाएं। अभिनय अपनी जगह है और व्यक्तिगत जीवन अपनी जगह है। एक शाम किसी फाइव स्टार होटल में अरुण गोविल की सिगरेट पीने की इच्छा हुई तो उन्होंने होटल की लॉबी में तुरंत सिगरेट सुलगा ली। तभी एक बुजुर्ग महिला की उन पर नज़र पड़ गई। उसने रामायण सीरियल को कई बार देखा था। अपने भगवान श्रीराम को सिगरेट पीता देख उसे बहुत जबरदस्त धक्का लगा। उसने तुरंत उन्हें डांटना-फटकारना प्रारंभ कर दिया। ‘आपको पता भी है कि करोड़ों भारतीयों ने आपको भगवान का दर्जा दे रखा है और आप हैं कि सिगरेट पर सिगरेट फूंकते हुए उनकी आस्था से खिलवाड़ किये जा रहे हैं!’ महिला की फटकार की बुलंद आवाज की वजह से और भी कुछ लोग वहां जमा हो गये। सभी ने एकमत होकर उनकी जी भर कर थू...थू की। वो दिन था और आज का दिन है। अभिनेता ने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया। यकीनन अच्छी छवि ही वो सीढ़ी होती है, जो शिखर तक पहुंचाती है। मान-सम्मान दिलवाती है। विद्वान व्यक्ति यदि चरित्रहीन है तो उसकी हर खूबी धरी की धरी रह जाती है। 

    राजनीति में तो स्वच्छ छवि ही अंतत: काम आती है। खोटे सिक्कों की दाल ज्यादा समय तक कहां गल पाती है...। बद और बदनाम चेहरों का काला सच उजागर हो ही जाता है। सर्वप्रिय राजनेता वही होता है, जो किसी एक का नहीं, सभी का होता है। किसी खास धर्म के मतदाताओं की बदौलत चुनाव जीतना कम-अज़-कम भारत में तो संभव नहीं। यहां मुद्दों की भरमार है। सांप्रदायिकता, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई ने करोड़ों भारतवासियों का जीना मुहाल कर रखा है। गरीब वर्षों पहले जहां खड़ा था, आज भी वहीं खड़ा है। राजनेताओं की पक्षपाती, रीति-नीतियों ने उसे मुख्यधारा में शामिल ही नहीं होने दिया है। अंतिम सच यही है कि जब तक पिटे-पिटे-लुटे-लुटे और डरे-डरे लोगों की नहीं सुनी जाती, उन्हें गले नहीं लगाया जाता, तब तक चुनावी उत्सव, उत्सव नहीं दिखावा और तमाशा है...।

Thursday, April 11, 2024

कुछ भी तो छिपा नहीं...

    रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से टकराते अनेकों भारतवासी और भी कई कष्टों का सामना करने को विवश हैं। अपने ही देश में अपनी बेइज्जती और अवहेलना ने उन्हें निराश और बेआस कर दिया है। देश और दुनिया के जागरूक लोगों को कम ही यकीन होगा कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी करोड़ों भारतीय छुआ-छूत और भेदभाव की पीड़ा को भोग रहे हैं। अभी हाल ही में कुछ पत्रकारों ने मध्यप्रदेश, बिहार तथा उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों का दौरा कर जो जाना-समझा वो अत्यंत चिंतनीय होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है। सक्षम लोगों की दुत्कार सहती दबे-कुचलों की भीड़ अपने हाथों में सवालों की तख्तियां लिये खड़ी है। उनकी अथाह पीड़ा शासकों के नीचे से लेकर ऊपर तक के विकास और बदलाव के दावों की पोल खोल देती है। देश के प्रदेशों में आज  कई गांव ऐसे हैं, जहां के दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। मंदिर के पुजारी उनके यहां पूूजा-पाठ करने से मना कर देते हैं। कदम-कदम पर भेदभाव कर उन्हें नीचा दिखाया जाता है। जब उनके यहां शादी-ब्याह होता है तो रस्म अदायगी के लिए मंदिर में नारियल लेकर जाना होता है, लेकिन उनके लिए तो मंदिर में जाना ही मना है, इसलिए वे किसी दूसरे व्यक्ति को नारियल देते हैं जो अंदर जाकर नारियल चढ़ाता है। हल्दी और चावल को वे बाहर ही छिड़क हाथ जोड़कर वापस आ जाते हैं। 22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह के बाद गांवों के मंदिरों में भंडारे लगाये गए। तथाकथित बड़े लोगों को एक साथ आदर-सम्मान के साथ बिठाया गया। दलित समाज के  लोगों को पूछा तक नहीं गया, जो थोड़े बहुत वहां पहुंचे, उन्हें अलग-थलग बिठा कर खिलाया गया। श्री राम तो सबके हैं। फिर भी दलितों को जो अहसास कराया गया, अपमान का कड़वा घूंट पिलाया गया उसे क्या वे आसानी से भुला पायेंगे? गांव के सरपंच, पंच और अन्य उपदेशक किस्म के चेहरे हमेशा की तरह अंधे और बहरे बने रहे। यह किसी एक गांव का काला सच नहीं। अनेक गांवों का चेहरा इसी कालिख से बदरंग है। इस इक्कीसवीं सदी में भी दलित महिलाओं को सार्वजनिक नलों से पानी लेने की मनाही बताती है कि जनप्रतिनिधियों तथा समाज सेवकों ने  महात्मा गांधी के विचारों का कितना अनुसरण किया है। बापू कहते थे भारत गांवों में बसता है। गांव ही देश की आत्मा है। अफसोस गांवों की यह दुर्दशा है! जब भी चुनाव आते हैं तब तो सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता उनका हाल-चाल जानने के लिए दौड़े चले आते हैं। उन्हें गले लगाते हैं। उनके झोपड़ों में भोजन करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हुए कहते जाते हैं कि आधी रात को भी याद करोगे तो हमें अपने निकट पाओगे। हम सब एक हैं। भाई-भाई हैं, लेकिन जब चुनाव खत्म हो जाते हैं तो उन्हें अपना कहा याद नहीं रहता। चुनावों के वक्त लुभावने वादों के साथ जो सपने दिखाये जाते हैं वो भी धरे के धरे रह जाते हैं। खुद को दबे-कुचलों का रहनुमा दर्शाने वाले नेता सच को स्वीकार करने से कतराते हैं। उन्हें हकीकत से रू-ब-रू कराने वाले पत्रकारों पर भरोसा ही नहीं होता। वे बाबू जगजीवन राम, बहन मायावती, रामविलास पासवान जैसे आदि-आदि दलित नेताओं की तरक्की की गाथाएं सुनाते हुए कहने लगते हैं कि शीघ्र ही एक दिन ऐसा आयेगा जब हर दलित खुशहाल होगा तथा शासन-प्रशासन में उन्हीं का डंका बजेगा। उन्हें हर जगह विशेष प्रतिनिधित्व मिलेगा। सभी को उनकी सुननी होगी। आगे-पीछे की सारी कसर पूरी हो जाएगी। वे द्रौपदी मुर्मू का उदाहरण देने लगते हैं जो वर्तमान में भारतवर्ष की राष्ट्रपति हैं। उनसे जब कोई पूछता है कि देश में करोड़ों दलित और आदिवासी बदहाली के शिकार क्यों हैं? उन तक विकास क्यों नहीं पहुंचा? सभी सुख-सुविधाएं चंद लोगों तक क्यों सिमट कर रह गई हैं? अधिकांश लोग हताश और निराशा क्यों हैं? सही-सही जवाब देने के बजाय वे सवाल करने वाले को ही शंका की निगाह से देखते हुए निराशावादी घोषित करने लगते हैं। 

    देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का विराजमान होना यकीनन गौरव की बात है, लेकिन यह भी सच है कि भारतीय राजनीति में अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की हिस्सेदारी नाम मात्र की है। वर्ष 2022 में द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति बनीं। इसके पीछे की राजनीति और रणनीति जानकारों से छिपी नहीं है। अपने देश में वोटों को हथियाने की राजनीति बड़े-बड़े चमत्कार करवाती रहती है। कौन नहीं जानता कि हिंदुस्तान में महिलाओं के लिए राजनीति की राहें कितनी-कितनी कांटों भरी हैं। एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्होंने कई जन-आंदोलनों का नेतृत्व किया। अन्याय से जूझते दबे-कुचले लोगों के अधिकारी के लिए वर्षोर्ें लड़ीं। जेल भी गईं। अपने शुभचिंतकों के अनुरोध पर विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ी, लेकिन बुरी तरह से पराजित हुईं। उन्होंने अंतत: यही निष्कर्ष निकाला कि चुनावों के समय जो पैसा फेंकता है, दारू पिलाता है, साड़ी, कम्बल बांटता है और झूठे वादे करता है, वही आसानी से जीत जाता है। लोग आज भी प्रलोभनों का शिकार हो जाते हैं। उनमें जागरुकता का अभाव है। वोट की अहमियत उन्हें नहीं मालूम। संसद तथा विधानसभाओं में नारियों को प्रतिनिधित्व दिलवाने के मामले में अधिकांश राजनीतिक दल  उत्साहित नजर नहीं आते। साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं की अनदेखी होती है। अधिकांश पुरुष महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करना तो दूर उन्हें हतोत्साहित करते देखे जाते हैं। कई आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली महिलाओं को चुनावी टिकट देने की बजाय राजनीतिक घरानों की महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है। योग्यता न होने पर भी देशवासियों ने लालू की राबड़ी देवी को विशाल प्रदेश बिहार की मुख्यमंत्री बनते देखा है। शातिर किस्म के राजनीतिक दलों के मुखियाओं को पढ़ी-लिखी महिलाओं की तुलना में अनपढ़ महिलाएं राजनीति और टिकट लिए उपयुक्त लगती हैं। पढ़ी-लिखी औरतें बहुत सवाल-जवाब करती हैं। अधिकारों की बात करती हैं, वक्त आने पर संघर्ष की राह चुनने से भी नहीं घबरातीं जबकि कम पढ़ी-लिखी औरतों का हां में हां मिलाने का गुण बड़ी आसानी से लोकसभा तथा विधानसभा का चुनावी टिकट दिलवाता है। अपवाद अपनी जगह, लेकिन खूबसूरती का जादू भी इस आदान-प्रदान के खेल में खूब गुल खिलाता है। 

Thursday, April 4, 2024

सेलिब्रिटी

     हर बार के चुनाव मेंं कुछ चेहरे अपने अंदर की गंदगी को बड़ी बेशर्मी से उगलने लगते हैं। उनकी विषैली भड़ास हंगामा खड़ा कर देती है, लेकिन उन्हें बड़ा मज़ा आता है। उनका मकसद जो पूरा हो जाता है। ये इतने शातिर हैं कि अपना थूका चाटने में भी नहीं लज्जाते। अपनी कमीनगी का दोष दूसरे पर मढ़ कर खिसक जाते हैं। 2024 का आम चुनाव भी इस कालिमा और कलंक से अछूता नहीं।

    फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत को भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है। वह यहीं की रहने वाली हैं। मायानगरी मुंबई उनकी कर्मभूमि है। किस्म-किस्म की फिल्मों में प्रभावी अभिनय करने के साथ-साथ किसी से भी टकराने का साहस रखने वाली कंगना को जैसे ही टिकट मिली, कुछ लोग भौचक्के रह गये। उन्हें कंगना में हजारों कमियां नज़र आने लगीं। उनकी आंखों के सामने कंगना का फिल्मी चेहरा कौंधने लगा। उन्होंने इस सच को भुला दिया कि किसी भी अभिनेत्री को फिल्म में कहानी के पात्रों को साकार करना होता है। वेश्या और कालगर्ल की भूमिका निभाते समय जिस्म को अधनंगा तो किसी किरदार में बदन को ढक कर रखना पड़ता है। अभिनेत्री का यह असली चेहरा नहीं होता, लेकिन कुछ लोग इस सच को दरकिनार कर अपने मन-मस्तिष्क में कीचड़ भर लेते हैं, जिससे वे कभी भी मुक्त नहीं हो पाते। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत न्यूज चैनलों पर होने वाली विभिन्न परिचर्चाओं में कांग्रेस का पक्ष बड़ी होशियारी से रखती देखी जाती हैं। धारा प्रवाह बोलने का उनका निर्भीक अंदाज दर्शकों को बहुत भाता है, लेकिन  इस राजनीतिक नारी ने लोकसभा का टिकट मिलने के कुछ घण्टों के बाद अपने इंस्टाग्राम अकाउंट में कंगना की अर्धनग्न तस्वीर डालते हुए लिखा, ‘क्या भाव चल रहा है मंडी में कोई बताएगा?’ सुप्रिया राजनीति में आने से पहले टाइम्स गु्रप में कार्यकारी संपादक रह चुकी हैं। 2019 में पत्रकारिता छोड़कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गईं। उसी वर्ष हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने इन्हें उत्तरप्रदेश के महाराजगंज निर्वाचन क्षेत्र से मैदान में उतारा, लेकिन जीत नसीब नहीं  हुई। सुप्रिया श्रीनेत का कंगना के प्रति विष उगलना समझ में आता है। राजनीति में पतन की कोई सीमा  नहीं होती, लेकिन नामी-गिरामी उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक मृणाल पांडे इतनी स्तरहीन क्यों हो गईं? उन्होंने एक्स पर लिखा, शायद यूं कि मंडी में सही रेट मिलता है। लेखिका की निगाह में कंगना वेश्या हैं और शहर मंडी कोई वेश्यालय है। भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए खूबसूरत अभिनेत्री को बाज़ार में सजा-धजा कर खड़ा कर दिया है! कभी सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले विख्यात हिन्दी दैनिक हिंदुस्तान की संपादिका रहीं मृणाल पाण्डे वर्तमान में कांग्रेसी मुखपत्र नेशनल हेराल्ड की संपादिका हैं। मृणाल पाण्डे ने भी सुप्रिया की तरह अपने कांग्रेसी नेताओं को प्रभावित करने के लिए यह घटिया रास्ता चुना। यह अलग बात है कि चौतरफा छीछालेदर होने के बाद मृणाल ने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया। दूसरी तरफ सुप्रिया को अपने बचाव में यह कहते ज़रा भी शर्म नहीं आई कि किसी ने मुझे बदनाम करने के लिए यह षडयंत्र रचा है। झूठ बोलने के जितने तौर-तरीके सुप्रिया जैसे सेलेब्रिटी औरतों को आते हैं उतने आम औरतों को नहीं आते। 

    कुछ बौखलाये राजनीतिक पुरुषों ने भी कंगना को नीचा दिखाने कोई मौका नहीं छोड़ा। अपने तीखे तेवरों के साथ-साथ खुले विचारों वाली कंगना को भाजपा की टिकट मिलना और भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी महिलाओं को रास नहीं आया। कंगना लोकप्रिय अभिनेत्री हैं। बड़ी-बड़ी हस्तियों से टकराने की उनकी हिम्मत को देखकर ही भाजपा ने बहुत सोच-समझ कर उन पर दांव लगाया है। अपने देश में आज भी फिल्मी कलाकारों के प्रति लोगों में आकर्षण और आदर-सम्मान है। दक्षिण भारत में तो सिने कलाकारों को लोग भगवान मानते हैं। इसी हकीकत को भांपते हुए एनटीआर, एमजीआर, जयललिता, करुणानिधि जैसे कई कलाकारों ने राजनीति का दामन पकड़ कई वर्षों तक सत्ता का सुख भोगा। भारतीय जनता पार्टी सितारों पर दांव लगाने के इस खेल में अग्रणी है। 

    भाजपा ने इस बार दूरदर्शन के रामायण सीरियल में भगवान श्रीराम का किरदार निभाकर घर-घर में अपनी पहचान बनाने वाले अरुण गोविल को मेरठ से टिकट दी है। सच तो यह है कि इसमें भी भाजपा की गहरी रणनीति है। चुनावों में वह हर हाल में राम के मुद्दे को जिन्दा रखना चाहती है। तृणमूल कांग्रेस ने लोकप्रिय फिल्मी चेहरे शत्रुघ्न सिन्हा को आसन सोल से टिकट देकर मैदान में उतारा है। शत्रुघ्न सिन्हा ने दूसरे सितारों की तरह राजनीति को हलके में लेने की भूल नहीं की। अभिनेता धर्मेंद्र 2014 में बीकानेर से लोकसभा के लिए चुने गए थे, लेकिन चुनाव के बाद उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र को झांक कर भी नहीं देखा। यही हाल उनके पुत्र सनी देओल का रहा, जिन्हें 2019 में भाजपा ने गुरुदासपुर से टिकट दिया। चुनाव जीतने के बाद वे भी गायब रहे। गुस्सायी जनता को अपने सांसद के गुमशुदा होने के जगह-जगह पोस्टर लगाने पड़े। अभिनेत्री और नृत्यांगना हेमामालिनी ने अपने चुनावी क्षेत्र की कभी अवहेलना नहीं की। 

    अक्सर कहा और पूछा जाता है जब महिलाओं को हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर अवसर देने के ढोल पीटे जाते हैं, तो उन्हें लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अहमियत क्यों नहीं दी जाती? अपने देश में प्रतिभावान नारियों की कहीं कोई कमी नहीं। सभी क्षेत्रों में उन्होंने खुद को स्थापित करने के कीर्तिमान रचे हैं। समुचित अवसर मिलने पर उन्होंने पुरुषों को बार-बार पछाड़ा भी है। अपनी इच्छा के अनुसार मतदान करने वाली जागरूक महिलाएं अपना हक चाहती हैं। वो जमाना गया जब भारतीय नारी अपने पिता, पति, भाई, चाचा, मामा आदि के इशारे पर ईवीएम का बटन दबाती थी। विभिन्न राजनीतिक दलों में महिला कार्यकर्ताओं की जो भीड़ नजर आती है, वह सिर्फ शोपीस बने रहना नहीं चाहती। उनके द्वारा जब टिकट की मांग की जाती है तब सेलिब्रिटी बाजी मार ले जाती हैं। संसद से पारित 33 फीसदी महिला आरक्षण विधेयक हवा-हवाई नज़र आता है...।