Thursday, May 25, 2023

हम गवाह हैं...

    इस दुनिया में कौन है, जिसे बच्चों का हंसना-मुस्कराना न भाता हो। नवजात के आगमन पर किसका चेहरा न खिल जाता हो। बेटा हो या बेटी, मां-बाप के लिए तो दोनों दुलारे और दिलो-जान से प्यारे होते हैं। दादा-दादी, नाना-नानी उनमें अपना चेहरा देखते हैं। माता-पिता के साथ-साथ उन्हें भी यही लगता है कि उन्होंने इनके रूप-स्वरूप में फिर से धरा पर जन्म ले लिया है। फ्रेम में सजी अपने बच्चे की तस्वीर जिस खुशी से रूबरू करवाती है उसका शब्दांकन करना मुश्किल है। दरअसल, बच्चे फूल होते हैं, तितली होते हैं, मनमोहक बाग के हरे-भरे नाजुक पत्ते और टहनियां होते हैं, जिनके निरंतर फलने-फूलने का हर माली को इंतजार रहता है। कोई भी संवेदनशील इंसान उन्हें तोड़ने, बिखेरने और मसलने के पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता, लेकिन अपवादों का क्या? उनकी बेरहमी के किस्से हर दिन अखबारों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया में आ-आकर डराते और चौंकाते रहते हैं। दरअसल ऐसे शैतान हमारे आसपास के ही वासी हैं। यह दिखते कुछ हैं और होते कुछ और हैं। नकली और दिखावटी जिन्दगी जीने वालों में अनपढ़ भी हैं, पढ़े-लिखे भी। हैरानी भरा सच यह भी है कि इन्हें दूर से देखो तो कभी-कभी यह भी लगता है कि यह तो शरीफों की औलाद हैं। इस धरती के भगवान हैं, लेकिन जब इनकी असलियत सामने आती है तो शैतानियत भी पानी-पानी हो जाती है। देखने और सुनने वालों की रूह कांप जाती है। 

    अदालत, सीआईडी, क्राइम अलर्ट तथा सावधान इंडिया जैसे चर्चित धारावाहिकों में जानदार अभिनय कर लाखों दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ सतर्कता और जागरुकता का पैगाम देने वाली खूबसूरत अभिनेत्री चंद्रिका साहा के पति अमन मिश्रा ने अपने 15 माह के बेटे को बेडरूम में पटक-पटक कर अधमरा कर दिया। अमन को बच्चों से नफरत थी। जब से उसकी पत्नी ने गर्भ धारण किया तभी से वह बौखलाया रहता था। दोनों में अक्सर लड़ाई-झगड़ा होना आम बात थी। इक्कीस वर्षीय अमन की इक्तालीस वर्षीय पत्नी चंद्रिका को वर्षों से मां बनने की प्रबल चाह थी। चंद्रिका का 2020 में अपने पहले पति से तलाक हो गया था। हट्टे-कट्टे आकर्षक जवान अमन से किसी पार्टी में मुलाकात हुई और फटाफट प्यार भी हो गया। शादी करने में भी देरी नहीं लगायी, लेकिन जो प्रतिफल मिला उसके दंशों से छुटकारा पाने में अभिनेत्री की तो उम्र बीत जाएगी...। 

    छत्तीसगढ़ के भिलाई में स्थित शंकरा मेडिकल कॉलेज में धरती के भगवान कहलाने वाले डॉक्टरों ने अपना जो शैतानी चेहरा दिखाया उससे तो मानवता भी कराहने को विवश हो गई। बेमेतरा के पथरी गांव निवासी एक महिला की डिलीवरी के दौरान मौत हो गई। नवजात की भी हालत अत्यंत नाजुक थी। उसे सांस लेने में अत्यंत तकलीफ हो रही थी। डॉक्टरों ने बच्चे का इलाज करने से पहले तुरंत परिजनों से दस हजार रुपये की मांग की, लेकिन उनके पास इतने रुपये नहीं थे, इसलिए उन्होंने हाथ जोड़ते हुए डॉक्टरों से कुछ घंटे का समय मांगा, लेकिन धनप्रेमी डॉक्टर नहीं माने। उन्होंने तुरंत नवजात को यह कहते हुए वेंटिलेटर से हटाकर उनके हाथ में रख दिया कि यहां उधारी में किसी का इलाज नहीं होता। कुछ ही घंटों के बाद नवजात ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। इस नृशंस हत्या की खबर को दबाने-छिपाने के लिए डॉक्टरों ने भरसक प्रयास किए। मीडिया को भी सेट करने की कोशिशें कीं, लेकिन सच उजागर हो ही गया। 

    भारत में अमीरी चंद लोगों की जागीर है। गरीबी और बदहाली अधिकांश भारतीयों की तकदीर है। मैंने जब यह खबर पड़ी कि पश्चिम बंगाल में एक गरीब असहाय बाप को एम्बुलेंस का किराया नहीं होने के कारण पांच महीने के अपने बच्चे का शव बैग में डालकर बस से 200 किलोमीटर की पीड़ादायक यात्रा तय करनी पड़ी तो मेरे दिमाग की नसें हिलने लगीं और पूरा वजूद सन्नाटे के ठंडे समंदर में समा-सा गया। आशीम देवशर्मा के पांच महीने के बच्चे की सिलीगुड़ी नार्थ बंगाल मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में इलाज के दौरान मौत हो गई थी। गरीब, बदहाल बाप ने अपने बच्चे को किसी भी तरह से बचाने के लिए इधर-उधर से 16 हजार रुपये जुटाकर डॉक्टरों की जेब के हवाले किए थे, लेकिन अब उसकी लाश उसके सामने थी। बेटे को खोने के गम में डूबे खस्ताहाल पिता से अस्पताल के संचालकों ने एम्बुलेंस के लिए आठ हजार रुपये की मांग कर दी तो असहाय जन्मदाता ने बच्चे के शव को बैग में डाला और चुपचाप बस में बैठ गया। इस दौरान इस बदनसीब बाप ने किसी यात्री को भनक तक नहीं लगने दी कि बैग में उसके मृत दुलारे की लाश है। दरअसल उसे भय था कि यदि किसी को पता चल गया तो उसे फौरन बस से उतार दिया जाएगा। 

    नारंगी नगर नागपुर के अस्पताल में कार्यरत नर्स मायरा गुप्ता बिना किसी स्वार्थ के मरीजों की सेवा, सहायता और देखभाल में तल्लीन रहती हैं। अधिकांश नर्सें और डॉक्टर जहां घड़ी देखकर ड्यूटी बजाते हैं, वहीं मायरा को समय का कतई ध्यान नहीं रहता। मायरा देश की पहली ट्रांसवुमन हैं। हंसमुख और मिलनसार स्वभाव की मायरा को कुछ वर्ष पूर्व तक विक्रम गुप्ता के नाम से जाना जाता था। पुरुष से स्त्री बनने के बाद उसने नर्सिंग का प्रशिक्षण लिया ही इसलिए ताकि बिना किसी स्वार्थ के मरीजों की सेवा कर सके। मायरा के मन-मस्तिष्क में आज भी वो पल कैद हैं, जब एक नन्हें से बच्चे की आंख का आप्रेशन होने के बाद उसकी पट्टी निकाली गई थी। तब बच्चे के घर के लोग उसे घेर कर खड़े थे, लेकिन आंख खुलते ही बच्चा अपने परिजनों के पास जाने की बजाय मायरा के गले में हाथ डालकर बड़े प्यार से लिपट गया। उस नन्हें से बच्चे के इस तरह से गले लगने के बाद मायरा को लगा कि उसकी तपस्या सफल हो गई है। वह उन सुखद पलों को अपने जीवन की सबसे महान उपलब्धि और अनमोल उपहार मानती हैं।

Monday, May 22, 2023

सोशल मीडिया का दानवी चेहरा

    इंटरनेट पर सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफार्म बन चुका है, जहां एक से एक अच्छी और बुरी कलाकारियां देखने को मिल रही हैं। अभी हाल में दो ऐसे वीडियो देखने में आए, जिनका बिलकुल अलग मिजाज है। एक सकारात्मक तो दूसरा नकारात्मक। इसी से पता चलता है कि सोशल मीडिया को किस राह पर ले जाया जा रहा है। पहले वीडियो में अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर खड़े हैं। दोनों के हाथ में वरमाला है। मेहमानों के चेहरे से भी खुशी बरस रही है, जैसा कि अक्सर होता है, दूल्हे के दोस्त मजाकिया मूड में हैं। दुल्हन ने सामने खड़े दूल्हे के गले में वरमाला डाल दी है, लेकिन जैसे ही दूल्हे की बारी आती है तो वरमाला टूट जाती है, जिससे दुल्हन के चेहरे की चमक फीकी पड़ जाती है। ऐसे में मेहमान भी हैरान परेशान ऩजर आते हैं, लेकिन दूल्हे के चेहरे पर हल्की-हल्की मुस्कराहट है। वह तुरंत वरमाला के दोनों सिरे पकड़ गांठ मारता है और दुल्हन के गले में डाल देता है। आसपास मौजूद सभी मेहमान प्रफुल्लित हो जोर-जोर से तालियां बजाते हैं। दुल्हन का चेहरा फिर से चमकने-दमकने लगता है। सोशल मीडिया पर वायरल इस वीडियो को लोगों ने बार-बार देखा और दूल्हे की जमकर तारीफ भी की। 

    दूसरे वायरल वीडियो में एक महिला जमीन पर पड़ी एक फोटो पर लातें बरसा रही है। उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया है। चप्पलें खाती यह फोटो उसके उस पति की है, जो सात फेरे लेने के पश्चात बरसों उसके साथ रहा, लेकिन अब दोनों में तलाक हो गया है। इस वीडियो को देखकर लोगों को अच्छा कम और बुरा ज्यादा लगा। जिस पति के साथ इस गुस्सैल महिला ने कभी जीने-मरने की कसमें खाई होंगी उसके ऐसे अपमान पर कई लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी। यह कैसी अभागी महिला है, जो अपने पति के साथ बिताए सुंदर पलों की यादों को सहेज नहीं पाई और कितना निकम्मा और कमजोरियों का मारा होगा वह पति, जो इसके दिल में ़जरा भी जगह नहीं बना पाया! दरअसल रिश्तों में कब और क्यों विषैली खटास और दूरियां आ जाएं इसका पता लगाना आसान नहीं। तलाक होने पर खुश होना कोई गुनाह नहीं, लेकिन ऐसा हिंसक प्रदर्शन! यह भी सच है कि सोशल मीडिया पर यह तय नहीं किया जा सकता कि कौन गलत है और कौन सही, लेकिन फिर भी ऐसा हो रहा है। लोग अपने-अपने हिसाब से तीर और तलवारें चला रहे हैं। बिना इसकी फिक्र और परवाह किए कि किस-किस का सीना छलनी हो रहा है। कौन-कैसे तनाव और बदले की आग में तप रहा है। अब तो कई विद्वान यह कहते नहीं थक रहे हैं कि, सोशल मीडिया पर चल रही अफवाहों की आंधी और फर्जी खबरों की भीड़ देश को अराजकता की तरफ ले जा रही है। 

    यह पंक्तियां लिखते-लिखते कोविड काल का स्मरण हो आया है। जब महामारी की वजह से भारतीय हैरान-परेशान थे। कोविड के शिकारों को अस्पतालों में बिस्तर उपलब्ध नहीं हो रहे थे। वेंटिलेटर, रेमडिसिवर एवं अन्य आवश्यक दवाओं की कमी से बुरी तरह से जूझना पड़ रहा था। तब पीड़ितों के परिजन अपनी मजबूरियों, समस्याओं और जरूरतों की जानकारी सोशल मीडिया पर साझा कर रहे थे। अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से तड़पते मरीजों के वीडियो कोविड-19 की दिल दहलाने वाली हकीकत पेश कर रहे थे और जाने-अनजाने मित्र बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे की सहायता और मार्गदर्शन कर रहे थे। जो लोग इंटरनेट और सोशल मीडिया से दूर थे, उन्होंने भी इसके महत्व को समझा और अपनाया। यह कहना गलत नहीं होगा कि सोशल मीडिया के कारण लाखों लोग मौत के मुंंह में समाने से बच गए। 

    कोरोना काल में जो सोशल मीडिया एक दूसरे को जोड़ने का सशक्त सर्वहितकारी माध्यम बना, आज दूरियां बढ़ाने और नफरत फैलाने के लांछन क्यों झेल रहा है? आखिर वो कौन लोग हैं, जिन्होंने इसे फेक न्यूज और हेटस्पीच का प्लेटफार्म बना कर रख दिया है? कहीं न कहीं इसकी जानकारी हर सजग भारतवासी को है। जिस तरह से घृणा और नफरत की आंधी चलाई जा रही है और धर्म को खतरे में बताया जा रहा है। उससे शोधकर्ता तो यहां तक कह रहे हैं कि भारत में सोशल मीडिया का स्वरूप स्वार्थी और राक्षसी होता चला जा रहा है। सद्भाव की भावना को जागृत करने वाली सोच पर नफरत फैलाने और दंगे भड़काने की क्रूर शब्दावली हावी होती चली जा रही है। साम्प्रदायिक सद्भाव रखने के पक्षधरों को चुन-चुन कर निशाना बनाया जा रहा है। एक बार किसी का विरोध करने का मन बना लेने के बाद उसकी तारीफ करने में तकलीफ होने लगी है। भले ही उसने कितना भी अच्छा काम क्यों न किया हो। 

    दिल्ली के मुख्यमंत्री ने हाल ही में ट्वीट करते हुए लिखा, वे मनीष सिसोदिया की बीमार पत्नी का हालचाल जानने के लिए अस्पताल गए थे। सीमा भाभी को मल्टीपल सोरायसिस की बीमारी है। यह बहुत गंदी बीमारी है। मैं उनके शीघ्र स्वस्थ होने की ईश्वर से प्रार्थना करता हूं। होना तो ये चाहिए था कि, बीमारी से जूझ रही महिला के शीघ्र स्वस्थ होने की मनोकामना की जाती, लेकिन बद्दिमाग दानवी सोचवालों ने अरविंद केजरीवाल को चरित्रहीन घोषित करने वाली अभद्र, शर्मनाक कमेंट्स की झड़ी लगा दी। सोशल मीडिया पर प्रतिष्ठित हस्तियों को शर्मनाक शब्दावली से अपमानित करने का जो सिलसिला जोर पकड़ रहा है उससे देश के खास तथा आमजनों को अत्यंत पीड़ा हो रही है। कुछ शैतान तो ऐसे हैं, जो इज़्जतदार महिलाओं पर कीचड़ उछालने की हिम्मत ऐसे दिखा रहे हैं, जैसे देश में कानून का नहीं गुंडागर्दी और मनमानी का राज चल रहा हो। देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी चिन्ता जतायी है। इस इक्कीसवीं सदी में हम कहां जा रहे हैं? हमें एक धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु समाज होना चाहिए, लेकिन आज घृणा का माहौल है। समाज का ताना-बाना बिखरा जा रहा है। हमने ईश्वर को कितना छोटा कर दिया है। किसी का धर्म खतरे में नहीं है।

Thursday, May 11, 2023

सबकुछ मनोबल

चित्र : 1 - सविता प्रधान आज आईएएस अधिकारी हैं। सभी झुक-झुक कर उन्हें बड़ी अदब के साथ सलाम करते हैं। मध्यप्रदेश के मंडी के एक आदिवासी परिवार में जन्मी सविता की संघर्ष गाथा से जो भी अवगत होता है, वह बस सोचता रह जाता है। पूरी तरह से बिखरने के बाद खुद को जोड़ने और संभालने की शक्ति और हिम्मत इस नारी ने कहां से पायी? अपने माता-पिता की इस तीसरी संतान की पढ़ाई में बचपन से ही जबरदस्त अभिरुचि थी, लेकिन घर के हालात अच्छे नहीं थे। हमेशा आर्थिक तंगी सिर ताने रहती थी। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी कि स्कॉलरशिप मिल गई और आगे की पढ़ाई संभव हो पायी। वह रोज सात किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाती और थककर घर लौटने पर भी कलेक्टर बनने की प्रबल चाह के साथ किताबों में खो जाती थी। चंचल और खूबसूरत सविता किसी के साथ घुलने-मिलने में देरी नहीं लगाती थी। यही वजह थी, सभी उसे पसंद करते थे। सविता को पढ़ाई के अलावा और कुछ नहीं सूझता था, लेकिन गरीब माता-पिता को उसकी शादी की चिन्ता खाये रहती थी। इसी दौरान एक अच्छे-खासे रईस घराने से उसके लिए रिश्ता आया तो माता-पिता ने हामी भरने में देरी नहीं की। दरअसल, लड़के ने सविता को कहीं देखा था और उसकी खूबसूरती पर मर मिटा था। उसने अपने मां-बाप को सविता से शादी करने के लिए बड़ी मुश्किल से मनाया था। सविता रोती-गाती समझाती रही कि अभी उसकी शादी करने की उम्र नहीं। अभी तो उसे अपने सपने को साकार करना है, लेकिन जिद्दी घरवाले नहीं माने। उसको तसल्ली देने के लिए उन्होंने उसके समक्ष उन लड़कियों के उदाहरण भी पेश कर दिए, जिन्होंने ब्याह के बाद भी पढ़ाई-लिखाई जारी रखी और अपने सपने पूरे कर दिखाए। शादी के बाद सविता अपनी ससुराल पहुंची। शुरू-शुरू के दिन अच्छे बीते। सास-ससुर भी ठीक-ठाक लगे। पति ने भी प्यार बरसाया, लेकिन कालांतर में सास-ससुर का रंग बदलने लगा। गरीब माता-पिता की बेटी होना मुसीबत बन गया। माता-पिता के इशारे पर नाचने वाले पति ने अपनी असली औकात दिखानी प्रारंभ कर दी। जब सविता ने अपनी पढ़ाई जारी रखने की मंशा जतायी तो उसे डांटा-फटकारा गया। दरअसल, वो ऐसा सर्वसम्पन्न धनवान परिवार था, जिनके लिए अपनी बेटियां तो अनमोल थीं, लेकिन बहुओं का कोई मोल न था। बेटियों को किसी के साथ भी बोलने-बतियाने, हंसने, मुस्कराने और कहीं भी आने-जाने की खुली छूट थी, लेकिन बहुओं पर हजारों पाबंदियां थीं। सविता किसी के साथ हंस बोल लेती तो उससे सवाल किये जाने लगते। घर के सभी सदस्य उससे दूरी बनाये रहते। सभी के खा-पी लेने के बाद उसे खाना नसीब होता। कई बार तो खाना खत्म हो जाता और सविता को भूखे पेट सोना पड़ता। भूख तो भूख होती है। रसोई में खाना बनाते-बनाते वह दो-चार रोटियां छिपाकर रख लेती और मौका मिलने पर खा लेती। कई बार तो उसे बाथरूम में जाकर सूखी रोटी निगलनी पड़ी और पानी पीकर जैसे-तैसे सोना पड़ा। जब वह पहली बार गर्भवती हुई तो उसके मन में यह उम्मीद जागी कि अब उसके प्रति उनका व्यवहार बदलेगा, लेकिन यह उसका भ्रम था। दो बच्चों के जन्म के बाद भी सास-ससुर कटु बोलों की बरसात करने से बाज नहीं आए। शराबी पति ने भी मारना-पीटना नहीं छोड़ा। ऐसे में सविता ने खुदकुशी करने का पक्का मन बना लिया। एक रात फांसी के फंदे पर झूलने के लिए वह अपने कमरे में पहुंची तो उसने देखा कि खुली खिड़की से सास उसे देख रही है। उसे उम्मीद थी कि सास उसे रोकेगी, लेकिन उसे फांसी के फंदे के करीब देखकर भी जिस तरह से सास खुद को बेखबर, बेपरवाह दर्शाती रही उससे सविता को बहुत झटका लगा। वह समझ गई कि उसके मरने का ही इंतजार किया जा रहा है। तब एकाएक उसके मन में विचार आया कि वह खुद को किस कसूर की सज़ा देने पर उतारू है? सज़ा तो इन्हें मिलनी चाहिए जो बाहरी लोगों के लिए भद्र और शालीन हैं, लेकिन अपनी बहू के लिए किसी राक्षस से कम नहीं। सुबह-सुबह सविता कभी न लौटने की कसम के साथ दोनों बच्चों के संग नए संघर्ष के पथ पर चल पड़ी। एक पार्लर में काम करने के साथ-साथ इंदौर यूनिवर्सिटी से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर्स किया। पहले ही प्रयास में यूपीएससी क्लियर कर अपनी किस्मत ही बदल डाली। आज सविता का नाम बड़े गर्व के साथ मध्यप्रदेश के शीर्ष अधिकारियों में लिया जाता है...।

चित्र : 2 - कोरोना काल की याद आज भी उन कई लोगों को डरा देती है, जिन्होंने अपनो को खोने के साथ-साथ अनेक कष्ट भोगे। ऐसे लोगों की अथाह भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी रहे, जिनकी कोविड-19 ने जिन्दगी ही बदल दी। रेशमा को पीने की लत थी। जंकफूड के बिना उसका एक दिन भी गुजारा नहीं था। दोस्तों को नशे की पार्टियां देने का भी उसे खर्चीला शौक था। उसका जिस शख्स से ब्याह हुआ था वह दिन-रात पीने का लती था। मिलन की पहली रात में ही उसने रेशमा को शराब का स्वाद चखा दिया। बाद में एक समय ऐसा आया जब पत्नी अपने शराबी पति को मात देने लगी। अत्याधिक नशा करने के कारण पति की कोरोना काल से पहले हमेशा-हमेशा के लिए रवानगी हो गई। हमेशा नशे में टुन्न रहने वाली रेशमा को पता ही नहीं चला कि वह कब उच्च रक्तचाप तथा डायबिटीज की गंभीर रोगी हो गई। एक दिन ऐसा भी आया जब उसने बिस्तर पकड़ लिया और फिर कोमा में चली गई। तभी कोरोना के भयंकर तांडव के चलते लॉकडाउन लग गया। महंगे डॉक्टरों के इलाज से रेशमा जैसे-तैसे चलने-फिरने लगी। स्वस्थ होने के कुछ दिनों बाद फिर से उसकी पीने की इच्छा जागी, लेकिन लॉकडाउन की वजह से बार, पब और शराब दुकानों पर ताले लगे थे। रेशमा को किसी और ने नहीं, अपने ही मन-मस्तिष्क ने चेताया कि इतने दिनों तक कोमा में रहने के बाद बड़ी मुश्किल से बची हो, अब तो खुद पर रहम करो और हमेशा-हमेशा के लिए अंधाधुंध पीने से तौबा कर लो। अपने पति को खो चुकी रेशमा का जीने के प्रति मोह जाग उठा। शराब को पानी की तरह पीने वाली नारी ग्रीन टी, नींबू पानी पीने लगी। कसरत को भी जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लिया। आज रेशमा नशा विरोधी अभियान की मुखिया हैं और कई लोगों की शराब छुड़वा चुकी हैं। 

चित्र : 3 - इस भागम-भाग वाले समय में किसी के पास किसी का हालचाल जानने की फुर्सत नहीं। सभी के अपने-अपने दर्द और समस्याएं हैं। उन्हीं को सुलझाने में उनकी जिन्दगी कट जाती है। ऐसे में दूसरों से सहारे की आशा करना खुद को धोखा देने जैसा है। आधुनिक शहर चंडीगढ़ में एक महिला व्हीलचेयर पर प्रतिदिन फूड डिलीवरी करती नजर आती हैं। अपार इच्छाशक्ति और मनोबल वाली इस महिला का नाम है, विद्या। अपने नाम के अनुरूप संघर्ष करती विद्या का जन्म बिहार के समस्तीपुर के छोटे से गांव में हुआ। 2007 में साइकल चलाते वक्त वह पुल के नीचे गिर गई। रीढ़ की हड्डी टूट जाने के कारण 11 साल तक बिस्तर पर पड़े रहने के दौरान एक दिन उसने अपने शरीर की कमी और कमजोरी को मात देने का द़ृढ़ निश्चय कर डाला। आत्मनिर्भर बनने के अपने इरादे के बारे में उसने जब अपने करीबियों को बताया तो उन्होंने उसका खूब म़जाक उड़ाया। किसी शुभचिंतक की सलाह पर उसने 2017 में चंडीगढ़ स्पाइनल रिहेव सेंटर में किसी तरह से जाकर बेडसोल का ऑप्रेशन करवाया। वहीं पर अन्य जुनूनी, उत्साही विकलांगों को देखकर उसकी जीने की इच्छा और बलवति हुई और वह चुस्त-दुरुस्त होकर अस्पताल से बाहर निकली। फिर उसने दिव्यांग श्रेणी में राष्ट्रीय स्तर पर बास्केट बॉल खेलकर लोगों को चौंकाया। इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर टेबल टेनिस और स्विमिंग में नाम कमाकर तानें कसने वालों की तो बोलती बंद कर दी...। 

Thursday, May 4, 2023

चरैवति... चरैवति

    महाराष्ट्र प्रदेश और देश के जनप्रिय साप्ताहिक, ‘राष्ट्र पत्रिका’ के सफलतापूर्वक 15वें वर्ष में प्रवेश करने पर हमें वैसी ही अनुभूति और खुशी हो रही है, जैसी हर किसी को अपने जन्मदिन पर होती है। किसी का भी जन्मदिन वो सुखद अवसर होता है, जो अतीत की यादों की खिड़कियां और दरवाजे खोल देता है। हम अपनी यात्रा में कितने सफल और असफल रहे, जाने-अनजाने में कैसी-कैसी भूलें तथा गलतियां हुईं इसका भी शोध और आकलन करने का अवसर होता है हर जन्मोत्सव। अपने प्रकाशन के प्रारंभ काल से ही लाखों सजग पाठकों के मन-मस्तिष्क में बस जाने में कामयाब रहे समाचार पत्र ‘राष्ट्र पत्रिका’ का तब भी यही उद्देश्य था और आज भी यही एकमात्र लक्ष्य है, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता। किसी भी खबर को प्रकाशित करने से पूर्व उसकी गहराई तक जाना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। अपने पाठकों को अधूरे नहीं, पूरे सच से अवगत कराना हमारा मूलभूत दायित्व है। चुनौतियां कल भी थीं और आज भी हैं। अपनी बात को खुलकर कहने के लिए मैं शायर सुरजीत भोला दानिश हिंगणघाटी की गजल की इन पंक्तियों का सहारा ले रहा हूँ,

गुजरते लम्हों में सदियां तलाश करता हूँ

ये मेरी प्यास है, मैं नदियां तलाश करता हूँ।

यहां गिनाता है हर कोई खूबियां अपनी,

मैं अपने आप में कमियां तलाश करता हूँ।

भारतीय प्रेस का अपना एक अत्यंत बुलंद इतिहास है। इस देश में अखबारों, संपादकों, पत्रकारों का हर काल में सम्मान होता आया है, लेकिन आजकल हालात कुछ बदले-बदले से हैं। कहने वाले तो यह भी कहने से नहीं सकुचाते कि, वो गुजरे ज़माने की बात है, जब अखबारों को हाथोंहाथ लिया जाता था। उनकी सुर्खियां पाठकों को आकर्षित करती थीं और गहन चर्चा का विषय बना करती थीं। लोग यह भी कहते नहीं थकते थे कि जो अखबार में छपा है, वो एकदम सही है। शंका की कहीं कोई गुंजाइश हो ही नहीं सकती। अब कई अखबार, पत्रकार और संपादक कटघरे में हैं। उन पर उंगलियां उठाने वालों में गैर ही नहीं अपने भी शामिल हैं। 

हमारे पत्रकारिता के शीर्ष बलिदानी संपादकों और पत्रकारों ने यही तो बताया और समझाया है कि लक्ष्यहीन पत्रकारिता के कोई मायने नहीं हैं। हिंदी के पहले अखबार ‘उदन्त मार्तंड’ का ध्येय वाक्य था, ‘‘हिंदुस्तानियों के हित के हेत।’’ इस जीवंत, प्रभावी अखबार में प्रकाशित होने वाली खबरें अंगे्रजों को शूल की तरह चुभती थीं। निर्भीक और ज्ञानवान पत्रकार, संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी के कुशल संपादन में निकले अखबार ‘प्रताप’ का ध्येय वाक्य था, ‘‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।’’ आततायी अंग्रेजों के पैरों तले की जमीन खिसकाने और सतत उनकी नींद उड़ाने वाले विद्यार्थीजी को बेखौफ होकर कलम चलाने के दंड स्वरूप पांच बार जेल की यात्रा करनी पड़ी, लेकिन फिर भी उनकी कलम की आग कभी भी ठंडी नहीं पड़ी। ‘प्रताप’ जनता का प्रिय अखबार होने के साथ-साथ आजादी के दिवानों का भी पसंदीदा अखबार था। अमर शहीद भगत सिंह और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, उनकी मशाल-सी लेखनी के जबरदस्त प्रशंसक थे। हिंदुस्तान के क्रांतिकारी यशस्वी कवि श्री माखनलाल चतुर्वेदी की कालजयी कविता, पुष्प की अभिलाषा, 

‘चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ, 

चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।

सबसे पहले ‘प्रताप’ में ही प्रकाशित हुई थी। इस कविता ने लाखों युवाओं के दिल में देशभक्ति की मशाल जलाकर अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतरने की प्रेरणा दी थी। 1907 में इलाहाबाद से प्रकाशित ‘स्वराज’ नामक अखबार का घोष वाक्य था, ‘‘हिंदुस्तान के हम हैं, हिंदुस्तान हमारा है।’’ इन शब्दों में अंग्रेजों के लिए सीधे-सीधे धमकी और चेतावनी थी कि तुम तुरंत हमारे देश को छोड़कर चलते बनो। इस पर तुम्हारा कोई हक नहीं। इसके जर्रे-जर्रे पर हम हिंदुस्तानियों का अधिकार है। क्रांति का बिगुल फूंकने वाला यह अखबार मात्र ढाई वर्ष तक प्रकाशित हो सका, लेकिन इसने भी भारत की जीवंत पत्रकारिता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवा दिया। गौरतलब है कि अंग्रेजों की नींद उड़ा देने वाले ‘स्वराज’ में उसी विद्वान को संपादक के लायक समझा जाता था, जो अंग्रेजों की तकलीफदायक जेलों में खुशी-खुशी रहने और आजादी के लिए संघर्ष करने से कभी भी पीछे न हटे। ‘स्वराज’ के कुल आठ संपादक हुए। अपने अखबार में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का संदेश देने वाले इन सभी संपादकों को कुल मिलाकर 95 वर्ष की कठोर सज़ा अंग्रेजों ने दी। अंधे-बहरे जुल्मी अंग्रेजों के कानों तक अक्षरों के बारूदों के धमाकों को पहुंचाने के लिए और भी कई अखबार और पत्रकार, संपादक अपनी जान हथेली पर लेकर चला करते थे। जालिम अंग्रेज एक अखबार को बंद करवाते तो तीन-चार और अखबार फौरन छपने लगते। अपने देश की पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास से प्रभावित होकर ही ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन महाराष्ट्र की सांस्कृतिक नगरी नागपुर से प्रारंभ किया गया। हमें दूसरों से कोई लेना-देना नहीं। समाचार पत्र हमारे लिए तेल, साबुन, कुर्सी, मेज, जूता, चाकू, तलवार जैसा बेचने का सामान नहीं, बल्कि देशवासियों तक बेखौफ होकर खबरें और जनहित लेख, जानकारियां पहुंचाने का सशक्त माध्यम है। सिर्फ विरोध की पत्रकारिता करने के लिए ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन नहीं किया जाता। यदि सरकार अच्छे कार्य करती है तो खुलकर तारीफ तथा गलत राह पर चलने पर आलोचना करने से हम कतई नहीं घबराते। हिंदू-मुसलमान का राग अलापने की बजाय आपसी सद्भाव बढ़ाने का प्रारंभ से ही हमारा लक्ष्य और कर्तव्य रहा है। देश विरोधी ताकतों की अनदेखी करना और अपराधियों का महिमामंडन ‘राष्ट्र पत्रिका’ में किसी भी हाल में संभव नहीं। सनसनी फैलाने वाली खबरों से दूरी बनाये रखने के लिए हम कटिबद्ध हैं। हमें जितनी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता है उतनी ही दूसरों की भी है। 

आज हम सब देशवासी अमृत महोत्सव मना रहे हैं। भारतवर्ष के शीर्ष पत्रकार, संपादक और चिंतक डॉ. संजय द्विवेदी के इस कथन से भला कौन सहमत नहीं होगा, ‘भारत के समक्ष अपनी एकता को बचाये रखने के लिए एक ही मंत्र है, सबसे पहले राष्ट्र। विरोधी ताकतें तोड़ने के सूत्र खोज रही हैं, लेकिन हमें हर हाल में समाज को जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे।’ सत्य की पत्रकारिता का सफर कभी भी नहीं थमता। अभी तो हमने चलना प्रारंभ किया है। हमें बिना थके बहुत लम्बी यात्रा तय करनी है। इस ऊबड़-खाबड़ सफर में जब आप सब हमारे साथ हैं तो भय और चिंता कैसी? श्रमिक दिवस और ‘राष्ट्र पत्रिका’ की वर्षगांठ पर सभी पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, एजेंट बंधुओं, बुक स्टॉल संचालकों, विज्ञापन दाताओं एवं सभी शुभचिंतकों को बार-बार धन्यवाद, शुभकामनाएं और अपार बधाई।